Thriller गहरी साजिश

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adeswal
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Re: Thriller खतरनाक साजिश

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करीब पंद्रह मिनट में एक्टिवा पर सवार होकर शीला वहां पहुंच गयी। उसने दिल्ली शहर की हजारों युवतियों की तरह दुपट्टे से यूं अपना चेहरा ढका हुआ था, कि मुझे बस उसकी आंखें ही दिखाई दे रही थीं। वहां पहुंचकर उसने चेहरे को दुपट्टे की कैद से आजाद करना चाहा तो जाने किस भावना के वशीभूत होकर मैंने उसे ऐसा करने से रोक दिया। फिर उसे रजनीश अग्रवाल का हुलिया समझाकर भीतर भेज दिया। और खुद उसकी स्कूटी पर सवार होकर रेस्टोरेंट से तनिक परे होकर खड़ा हो गया।
दो मिनट बाद उसकी कॉल आई।
‘‘मिला वो!‘‘
‘‘हां झट पहचान गई, पहले ही बता दिया होता कि रेस्टोरेंट में जो सबसे हैंडसम युवक होगा वही रजनीश अग्रवाल होगा।‘‘
‘‘कमीनी पराये मर्द की तारीफ करेगी तो दोजख में भी जगह नहीं मिलेगी।‘‘
‘‘ना मिले मैं तो बस उसके दिल में जगह पाना चाहती हूं।‘‘
‘‘बकवास बंद कर, और ध्यान से मेरी बात सुन, अब तूने लगातार उसपर निगाह रखनी है।‘‘
‘‘निगाह क्या है बॉस, मैं तो अपना बाकी सबकुछ भी उसपर रख दूंगी, तुम देखना बाहर निकलते ही कहेगा मजा आ गया शीलू डार्लिंग!‘‘
‘‘शीलू! डार्लिंग!‘‘
‘‘प्यार में अक्सर लोग ऐसे ही तो बुलाते हैं।‘‘
‘‘हो भी गया।‘‘
‘‘हां शायद इसी को फर्स्ट साइट लव कहते हैं।‘‘
‘‘बकवास बंद कर और अब मेरी बात ध्यान से सुन! अगर रेस्टोरेंट में उससे कोई मिलने आता है तो उसपर निगाह रखना और बाहर निकलते ही मुझे इशारे से समझा देना। आगे तूने रजनीश अग्रवाल का साये की तरह पीछा करना है। उसका घर यहीं देवली में है। अगर रेस्टोरेंट से निकलकर वो उधर का रूख करता है तो तेरा काम खत्म, तब तेरी एक्टिवा मेरे हवाले और मैं दूसरे जमूरे के पीछे लग लूंगा। कार रजनीश के घर से सौ मीटर आगे एक कूड़ेदान के पास खड़ी है तुझे आसानी से दिखाई दे जाएगी और उसकी दूसरी चाबी तो तेरे पास है ही। लिहाजा उसके घर जाने की सूरत में तुझे वापिस लौट जाना है, समझ गयी।‘‘
‘‘वो तो मैं समझ गई लेकिन!‘‘
‘‘अभी भी लेकिन!‘‘
‘‘तुम सुनो तो, उसका मुलाकाती यहां पहुंचा हुआ है।‘‘
‘‘और ये बात तू अब मुझे बता रही है।‘‘
‘‘तुम मुझे बोलने कहां देते हो।‘‘
‘‘मैं तुझे नहीं बोलने देता! और इतनी जो कथा कर के हटी है वो क्या था।‘‘
‘‘देखो तुम फिर शुरू हो गये।‘‘
‘‘ठीक है ठीक है, अब बक क्या कहना चाहती है।‘‘
‘‘मुलाकाती तुम्हें पहचानता हो सकता है।‘‘
‘‘खामखाह!‘‘
‘‘सॉरी मेरा मतलब है वो तुम्हें पहचानता है।‘‘
‘‘है कौन तू जानती है उसे।‘‘
‘‘हां।‘‘
‘‘हे भवगान! - मेरे मुंह से ना चाहते हुए भी आह निकल गयी - क्यों किस्तों में बयान कर रही है, साफ-साफ क्यों नहीं बताती कि कौन है।‘‘
‘‘तुम बोलने कहां देते हो बार-बार तो टोक देते हो बीच में।‘‘
‘‘शीला की बच्ची मैं तेरा गला घोंट दूंगा।‘‘
‘‘ऊषा!‘‘
‘‘क्या ऊषा?‘‘
‘‘ऊषा की बच्ची!‘‘
‘‘क्या?‘‘ मैं तनिक अचकचा सा गया।
‘‘करेक्शन कर रही हूं, मेरी मां का नाम ऊषा था, ऊषा वर्मा, लिहाजा शीला की बच्ची नहीं ऊषा की बच्ची कहो। मैं अभी अनमैरिड हूं ये बात तुम्हें कितनी बार बतानी पड़ेगी। खामखाह रज्जी ने सुन लिया तो भाव देना बंद कर देगा, ये सोचकर कि मेरी कोई बच्ची भी है।‘‘
‘‘अब ये रज्जी कौन है?‘‘
‘‘रजनीश! बताया तो था कि प्यार में अक्सर लोगे नामों के साथ हेर-फेर कर देते हैं।‘‘
मेरा दिल हुआ अपने बाल नोंचने शुरू कर दूं। मगर यूं सरे राह ऐसा करना अपना तमाशा बनाने जैसा था, इसलिए मैंने कदरन ज्यादा बहादुरी वाला काम किया और कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।
फौरन बाद मोबाइल बाइब्रेट होने लगा। फोन उसी का ही था।
‘‘रजनीश अग्रवाल का मुलाकाती मनोज गायकवाड़ है!‘‘
सुनकर मैं जैसे उछल ही पड़ा, ‘‘क्या बकती है, तूने ठीक से पहचाना तो है उसे।‘‘
‘‘ठीक से पहचानना क्या होता है मैं नहीं जानती, मगर है वो मनोज गायकवाड़ ही, दोनों सिर जोड़े गुफ्तगूं में मशरूफ हैं।‘‘
‘‘क्या मतलब हुआ इसका, मनोज गायकवाड़ की रजनीश अग्रवाल से जुगलबंदी भला क्योंकर मुमकिन हो सकती है। बतौर उसके मुंबई से वो सीधा दिल्ली आया और इसके बाद दुबई चला गया था। जहां से वो अभी कुछ दिनों पहले ही लौटा है, ऐसे में अग्रवाल से भला उसका क्या याराना हो सकता है।‘‘
‘‘जरूर दोनों गे होंगे।‘‘
जवाब में मैंने एक बार फिर कॉल डिस्कनैक्ट कर दी। वरना वो अभी आगे जाने क्या वाही-तबाही बकने लग जाती। अब लगभग मुझे यकीन आ गया कि दोनों में से किसी का भी पीछा करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला था। निश्चय ही दोनों वहां से अपने-अपने घर लौट जाने वाले थे।
पांच मिनट बाद फिर शीला की कॉल आई, ‘‘दोनों बाहर आ रहे हैं, क्या करना है?‘‘
‘‘लाइन पर रह कॉल डिस्कनैक्ट मत करना।‘‘ कहकर मैंने ब्लूटूथ इयरफोन निकालकर कानों पर चढ़ाया, मोबाइल जेब के हवाले किया और एक दुकान की ओट में होकर रेस्टोरेंट पर निगाह टिका दी।
दोनों एक साथ दरवाजे से बाहर निकले फिर रजनीश उससे हाथ मिलाकर पैदल ही देवली की ओर लौटने लगा, जिधर की मैं खड़ा था। मैं समझ गया कि उसका अगला पड़ाव उसका घर ही होना था।
‘‘स्कूटर के पास पहुंच!‘‘ मैंने शीला से कहा।
दस सेकेंड में वो रेस्टोरेंट से बाहर निकली, गायकवाड़ अभी भी वहीं खड़ा था। मगर उसपर दृष्टिपात किये बगैर वो सीधा अपनी एक्टिवा को तलाशती मेरी ओर बढ़ी। इस दौरान गायकवाड़ अपने मोबाइल से खेलता रहा। हकीकतन वो अपने लिए कैब बुक कर रहा था जिसका पता मुझे तब चला जब एक ओला की कैब जो कि स्विफ्ट डिजायर थी, वहां आन खड़ी हुई।
‘‘स्कूटर तू चला मैं पीछे बैठूंगा, यूं अगर गायकवाड़ ने पीछे मुड़कर देखा भी तो मुझपर शायद ही उसकी निगाह पड़े।‘‘
‘‘ठीक है, पर खबरदार जो तुमने मुझसे चिपककर बैठने की कोशिश की!‘‘
‘‘नहीं चिपकूंगा, तू जल्दी कर वरना वो निगाहों से ओझल हो जायेगा।‘‘
‘‘जरूर उसका ड्राइवर तुम्हारे डर से कार को हवा में उड़ा ले जायेगा, नहीं!‘‘
‘‘अब चलेगी भी!‘‘
‘‘अभी लो बस एक बात और क्लीयर कर दो।‘‘
‘‘वो भी बोल!‘‘ मैं कलपता हुआ बोला, टैक्सी अब तक काफी आगे जा चुकी थी।
‘‘तुम बिना हैल्मेट के हो, चलान कटेगा तो कौन भरेगा।‘‘
‘‘मैं भरूंगा, मगर भगवान के लिए अभी कोई ऐसी नौबत मत आने देना प्लीज! वरना वो हमारे हाथ से निकल जायेगा।‘‘
जवाब में उसने यूं झटके से स्कूटर आगे बढ़ाया कि मैं पीछे गिरता-गिरता बचा। ये उसकी ड्राइविंग का ही कमाल था जो हैवी ट्रैफिक में भी मुश्किल से दो मिनट में वो गायकवाड़ की कैब के पीछे पहुंच गयी।
आगे खानपुर के सिग्नल से यू-टर्न लेकर टैक्सी वापिस बदरपुर की दिशा में दौड़ने लगी। शीला बदस्तूर टैक्सी के पीछे लगी रही। मैं शीला के पीछे कुछ यूं बैठा हुआ था, कि अगर गायकवाड़ पीछे घूमकर देख भी लेता तो उसे मेरी सूरत हरगिज नहीं दिखाई देती।
एमबी रोड पर दौड़ती टैक्सी ने ओखला मोड़ से लैफ्ट टर्न लिया और इएसआई हॉस्पीटल क्रॉस कर के राइट टर्न लेकर तेहखंड गांव में दाखिल हुई और प्रायमरी स्कूल के सामने जाकर खड़ी हो गयी।
गायकवाड़ टैक्सी से नीचे उतर कर एक गली में दाखिल हुआ और थोड़ा आगे जाते ही दाएं मुड़कर हमारी निगाहों से ओझल हो गया। मैंने शीला को टकोहा तो उसने तत्काल स्कूटर को गली के मुहाने पर ले जाकर खड़ा कर दिया जहां से वो हमारी निगाहों से ओझल हो गया था। वो हमें एक चार मंजिला इमारत में घुसता दिखाई दिया। आगे उसका मुकाम कहां था ये जानने का कोई तरीका मैं सोच ही रहा था, कि तभी गायकवाड़ ने खुद हमारी मुश्किल आसान कर दी। वो दूसरी मंजिल पर एक दरवाजे के सामने खड़ा दिखाई दिया। हमारे देखते ही देखते दरवाजा खुला, यूं खुले दरवाजे पर एक मरियल सा नौजवान प्रगट हुआ। गायकवाड़ ने कुछ क्षण उससे बातचीत की फिर नौजवान ने उसे कमरे के भीतर बुला लिया और दरवाजा बंद हो गया।
हम इंतजार करने लगे।
adeswal
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पांच मिनट बाद दोबारा दरवाजा खुला और वो बाहर निकला। फिर कुछ क्षणों बाद वो इमारत से बाहर निकला तो हम एक दुकान की ओट में हो गये। इस बार जब गायकवाड़ हमारे सामने से गुजरा तो मुझे उसके चेहरे पर गहन उत्कंठा के भाव दिखाई दिये। एक दूसरी जो अहम बात मैंने नोट की वो ये थी कि उसके कोट का एक हिस्सा नीचे को खिंचा हुआ था और उधर की जेब फूली हुई थी, जिसमें यकीनन कोई वजनी चीज थी। वो चीज कुछ भी हो सकती थी मगर मेरा मन कह रहा था उस घड़ी गायकवाड़ की कोट के जेब में कोई हथियार मौजूद था। जो उसने अभी-अभी हासिल किया था। क्योंकि रेस्टोरेंट के बाहर जब मैंने उसे देखा था तो उसकी जेब फूली और खिंची हुई नहीं थी।
यानि गायकवाड़ को हथियार उस युवक ने मुहैया कराया था जिससे कि वो अभी-अभी मिलकर आ रहा था। मगर ये बात मेरी समझ से परे थी कि उसे अचानक हथियार की क्या जरूरत पड़ गई थी। क्या अचानक ही उसे अपनी जान की फिक्र हो आई थी। या ऐसा उसने कातिल से बदला लेने के लिए एडवांस में इंतजाम किया था। उस रोज ऑफिस में उसकी बातों से लगा तो मुझे कुछ ऐसा ही था जैसे वो अपनी बीवी की हत्या का बदला खुद लेने पर उतारू था। मगर लाख रूपये का सवाल ये था कि उसे कैसे मालूम था कि उसकी हथियार की जरूरत कहां से पूरी हो सकती थी। क्या हथियार मुहैया कराने में रजनीश अग्रवाल का कोई हाथ था!
क्या माजरा था?
बहरहाल स्कूल के पास पहुंचकर वो इंतजार करती कैब में दोबारा सवार हो गया। हम एक बार फिर उसके पीछे लग गये। इस बार वो टैक्सी में सवार हुआ तो सीधा अपने फ्लैट वाली इमारत के सामने पहुंचकर ही नीचे उतरा।
लिहाजा हमें उसका पीछा छोड़ना पड़ा। वहां से हम देवली मोड़ पहुंचे जहां कार मैंने शीला के हवाले करने की कोशिश की तो उसने मना कर दिया और स्कूटर लेकर ऑफिस के लिए रवाना हो गयी।
उसके पीछे-पीछे मैं भी साकेत पहुंचा। अपने ऑफिस वाली इमारत के नीचे पहुंचकर मैं अपनी कार पार्क करने ही लगा था कि मेरा मोबाइल बज उठा।
मैंने कॉल अटैंड की।
तमाम आशाओं के विपरीत फोन रंजना चावला का निकला।
‘‘विक्रांत मुझे मंदिरा का मोबाइल मिल गया है!‘‘ वो बेहद उत्तेजित लहजे में बोली।
‘‘कहां था?‘‘ मैं हैरान होता हुआ बोला।
‘‘स्टडी में उसकी चेयर का निचला हिस्सा कुछ यूं फटा हुआ है कि वहां एक पॉकेट सा बन गया है, उसी में रखा हुआ था। आज मैं यूंही बेमकसद उस चेयर पर जा बैठी और उसकी दराजें खोल-खोलकर उसमें रखी चीजों का मुआयना कर रही थी जब इत्तेफाकन मेरा हाथ चेयर के नीचे चला गया वहां मुझे कुछ फूला हुआ महसूस हुआ। मैंने चेयर से नीचे उतर कर देखा तो पाया कि वहां फटे हुए हिस्से में मोबाइल रखा हुआ था जो कि उस घड़ी ऑफ था। मैंने उसे ऑन करने की कोशिश की तो नहीं हुआ। मगर जब मैंने मोबाइल को चार्जर पर लगाया तो वो ऑन हो गया। अब तुम बताओ मुझे मोबाइल पुलिस को सौंपना चाहिए या नहीं?‘‘
‘‘फौरन से पेश्तर तुम्हें ये काम करना चाहिए था, बल्कि सबसे पहले पुलिस को ही फोन करना चाहिए था! मगर अब जबकि तुमने मुझे फोन कर ही दिया है तो थोड़ा इंतजार करो। मैं अभी वहां पहुंचता हुआ इसके बाद जो करना जरूरी होगा करेंगे।‘‘
‘‘ओके आ जाओ।‘‘ कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट कर दिया।
साहबान! हर बात पर शक करने की इतनी बुरी लत लग चुकी है, कि अब मुझे इस बात पर शक होने लगा कि क्यों उसने मोबाइल को लेकर इतनी कथा करी थी! वो भी सफाई देने वाले अंदाज में, मानों मोबाइल बरामद कर उसने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो। वो सीधा-सीधा कह सकती थी कि उसे मंदिरा का मोबाइल मिल गया था।
कहीं ऐसा तो नहीं मोबाइल पहले ही उसके हाथ लग गया हो और वो बता आज रही हो। जो मोबाईल पुलिस को वहां की भरपूर तलाशी लेने के बाद भी नहीं मिला था, वो यूं आसानी उसके हाथ लग गया भला ये कोई मानने वाली बात थी।
मैंने एक बार फिर अपनी कार सड़क पर डाल दी।
मंदिरा के फ्लैट तक पहुंचने में मुझे चार बज गये! रंजना को मैंने बेसब्री से अपना इंतजार करते पाया। उसके चेहरे पर गहन उत्कंठा के भाव थे और होशेहवास उड़े हुए जान पड़ते थे। जो महज मोबाइल की बरामदगी के कारण हुआ नहीं हो सकता था।
‘‘क्या हुआ? - मैं हड़बड़ाता हुआ बोला - तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?‘‘
‘‘विक्रांत! - कहकर वो एकदम से मुझसे लिपट गई - थैंक्स गॉड तुम आ गये, मुझे तो बहुत डर लग रहा है।‘‘
‘‘क्या हुआ?‘‘ मैं उसकी पीठ टटोलता हुआ बोला, जी हां टटोलता हुआ ना कि सहलाता हुआ जो कि सांत्वना देने के लिए जरूरी होता है। मगर उसपर कोई नोटिस लेने की बजाय वो और कसकर मुझसे लिपट गयी। किस फिराक में थी वो? किस बात से डर रही थी! मैंने उसे अपने सामने से खिसका कर बगल में दबोचा और दरवाजा लुढ़काता हुआ ड्राइंग रूम में पहुंचा। वहां मैं बेहतर ढंग से उसका डर दूर कर सकता था।
मैं उसे बगल में दबाये हुए ही एक सोफे पर पसर गया। उसने मुझसे अलग होने की कोशिश नहीं की बल्कि बदस्तूर मुझसे लिपटी रही और मैं तसल्ली देने वाले अंदाज में उसके अरमानों को हवा देने की कोशिश करता रहा। कुछ क्षण तो उसकी तरफ से भी पॉजीटिव रिस्पांस मिला, फिर जैसे अचानक ही उसका डर दूर हो गया। वो छिटक कर मुझसे अलग हो गई! मैं जन्नत की शैर करने के सपने देखता जैसे दोजख में जा गिरा।
‘‘विक्रांत मुझे लगता है मैं कातिल को पहचान गई हूं।‘‘
‘‘अच्छा कौन है कातिल?‘‘
‘‘मेरा मतलब है मैं उसकी आवाज दोबारा सुनूं तो पहचान जाऊंगी।‘‘
‘‘पहले उसकी आवाज सुनी है तुमने?‘‘
‘‘हां! मंदिरा के फोन में उसकी आवाज रिकार्ड है, वो चौहान के बारे में उससे बातें कर रहा था। किसी बात को लेकर वो मंदिरा को समझाने की कोशिश कर रहा था कि चौहान उससे बुरी तरह पेश आ सकता है इसलिए उसे चौहान से सावधान रहना चाहिए। फिर कुछ अजीबो गरीब आवाजें आनी शुरू हो गईं। इसके बाद सन्नाटा छा गया। फिर थोड़ा फारवर्ड करने पर कुछ लोगों के बातें करने की आवाजें रिकार्ड हैं, जिनके बारे में मेरा अंदाजा है कि वो मंदिरा के कत्ल के बाद यहां पहुंचे पुलिसवालों की आवाजें हैं। आगे भी वैसी ही रिकार्डिंग हैं।‘‘
‘‘तुमने किसी को - मेरे अलावा किसी को - मोबाइल की बरामदगी के बारे में बताया था।‘‘
‘‘हां, कुछ लोगों को फोन करके मैंने ये अंदाजा लगाने की कोशिश की थी कि उनमें से किसकी आवाज कातिल की आवाज से मैच करती है।‘‘
‘‘यूं कितने लोगों को फोन कर चुकी हो तुम!‘‘
‘‘कुल जमा चार लोग जिनमें मनोज गायकवाड़, महीप शाह, मुकेश सैनी और ....!‘‘
‘‘तुम महीप शाह और मुकेश सैनी को कैसे जानती हो?‘‘
‘‘मैं नहीं जानती, मगर मंदिरा के मोबाइल की काल डिटेल्स बताती है कि उसने कत्ल वाले रोज इन दोनों को फोन किया था। लिहाजा मैंने ट्राई करने में कोई हर्ज नहीं समझा।‘‘
‘‘कोई नतीजा निकला?‘‘
‘‘कहना मुहाल है, वो आवाज उनमें से किसी की हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती। सच पूछो तो मुझे उन चारों की ही आवाज कातिल की आवाज से मिलती-जुलती महसूस हुई थी।‘‘
‘‘क्या कहने तुम्हारे ऑब्जरवेशन के, कमाल का अंदाजा लगाया है तुमने!‘‘
बावजूद मेरे तंज कसने के वो हंस पड़ी।
‘‘तुमने उनमें से किसी को बता तो नहीं दिया कि तुम किस फिराक में थी।‘‘
‘‘बताया था, सबको बता दिया था।‘‘
‘‘लिहाजा जान देने को मरी जा रही हो, नहीं?‘‘
उसने जवाब नहीं दिया।
‘‘मोबाइल कहां है?‘‘
‘‘स्टडी में चार्ज हो रहा है, रूको मैं लेकर आती हूं।‘‘ कहकर वो जाने को उठ खड़ी हुई।
मैंने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘तुम डरी हुई क्यों हो?‘‘
‘‘अब नहीं हूं पहले ये सोचकर दम निकला जा रहा थी कि कहीं कातिल उन चारों में से कोई एक हुआ तो यकीनन वो मेरी जान के पीछे पड़ जायेगा।‘‘
‘‘बस यही बात थी!‘‘
‘‘हां!‘‘
मैंने उसका हाथ छोड़ दिया।
वो स्टडी की ओर बढ़ी तो अचानक मुझे खयाल आया कि उसने चौथे सख्स का नाम तो बताया ही नहीं।
‘‘चौथा फोन तुमने किसको किया था?‘‘ मैं तनिक उच्च स्वर में बोला।
‘‘अभी बताती हूं।‘‘ कहती हुई वो स्टडी में घुस गई।
उसकी बातों पर मुझे रत्ती भर भी यकीन नहीं हुआ था। मुझे लगा डरने की तो वो बस नौटंकी कर रही थी, असल बात यकीनन कुछ और थी, जो कि उसको कांफीडेंस में लेकर उगलवाना जरूरी था। उसके लिए वक्त दरकरार था। ... और जैसा की आप देख ही रहे हैं - कम से कम वक्त का मेरा पास आजकल कोई तोड़ा नहीं था, क्योंकि आगे बढ़ने के तमाम रास्ते बंद थे।
मैं उसका इंतजार करने लगा।
और फिर वही हो गया, जिसके होने की कम से कम उस घड़ी मुझे कतई कोई उम्मीद नहीं थी।
adeswal
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Re: Thriller खतरनाक साजिश

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‘‘धांय!‘‘ की जानी-पहचानी आवाज गूंजी। मैं सोफे से उछलकर स्टडी की ओर लपका। स्टडी का दरवाजा आधा खुला हुआ था। मगर भीतर घुसना खतरनाक साबित हो सकता था। अगर वो गोली रंजना पर चलाई गई थी तो कातिल यकीनन अभी भी भीतर था। ऐसे में एक और गोली आपके खादिम पर दाग देना उसके लिए क्या बड़ी बात होती। ठीक तभी दूसरी गोली चलने की आवाज गूंज उठी। मेरी लाइसेंसी रिवाल्वर इस वक्त मेरी कार में पड़ी थी लिहाजा मेरे किसी काम की नहीं थी। मैंने अगल-बगल निगाह दौड़ाई, पास में ही लोहे के स्टैंड पर पीतल का एक भारी फूलदान रखा था। मैंने उसमें से फूल निकालकर बाहर फेंका और फूलदान को हाथ में तौलता हुआ दीवार से चिपक कर खड़ा हो गया।
स्टडी से बाहर निकलने का और कोई रास्ता नहीं था, ये बात मैं अपने पहले फेरे सी ही जानता था। लिहाजा दरवाजे से बाहर आना उसकी मजबूरी थी! जहां मैं उसके स्वागत के लिए तैयार खड़ा था।
दो मिनट यूंही गुजर गये, इस दौरान भीतर से किसी हलचल का आभास मुझे नहीं मिला। तभी मेरे दिमाग में भीतर मेज के पीछे की खिड़की का अक्स उभरा। उसपर ग्रिल लगी थी उसमें से भीतर दाखिल होना या बाहर निकलना दोनों असंभव काम थे। मगर गोली तो भीतर दाखिल हुए बिना भी चलाई जा सकती थी। ये ख्याल दिमाग में आते ही मेरा इस बात से यकीन हिलने लगा कि कातिल अभी भी भीतर था।
मैंने हिम्मत करके सावधानी पूर्वक स्टडी का दरवाजा पूरा खोल दिया। मेज के पीछे की खिड़की का टूटा हुआ कांच अपनी कहानी आप बयान कर रहा था। फिर भी मैं पूरी सावधानी बरतता हुआ स्टडी में दाखिल हुआ। बुक सेल्फ के पास फर्श पर पीठ के बल रंजना की लाश पड़ी थी। सिर के नीचे का फर्श खून से रंगा हुआ था। गोली निश्चय ही उसके सिर के पृष्ठ भाग में मारी गयी थी। पहली बार शायद कातिल का निशाना चूक गया था, क्योंकि एक गोली मुझे सामने की दीवार में घुसी हुई दूर से ही दिखाई दे रही थी। मगर जल्दी ही मुझे अपना ख्याल बदलना पड़ा। कातिल का निशाना नहीं चूका था, उसने पहली गोली में ही रंजना को ढेर कर दिया था। दूसरी गोली उसने यकीनन वहां स्टूल पर रखे मोबाइल पर चलाई थी जिसके टुकड़े करती हुई गोली सामने दीवार में जा घुसी थी, मोबाइल के अवशेष और हवा में स्विच बोर्ड के साथ झूलता चार्जर अपनी कहानी खुद बयान कर रहे थे।
मैंने झुककर मंदिरा की नब्ज टटोली! जैसा की दूर से ही दिखाई दे रहा था। वो मर चुकी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने लाश को पलटकर - गोली कहां मारी गई थी - देखने की हसरत को अपने सीने में दफ्न किया और दरवाजा लुढ़काकर पहले स्टडी से फिर फ्लैट से बाहर निकल आया।
एक लंबा घेरा काटकर मैं स्टडी की खिड़की के नीचे पहुंचा! वहां का बारीक मुआयना करने पर मुझे लगभग यकीन आ गया कि कातिल कोई छह फुटा व्यक्ति ही था, क्योंकि खिड़की का निचला हिस्सा फर्श के लेबल से ढाई फीट ऊंचाई पर था। जबकि कमरे के फर्श का लेबल गली के लेबल से तकरीबन ढाई फीट ऊंचा था। यानि कुल जमा पांच फीट की ऊंचाई से भीतर झांकते हुए निशाना लगाना था, लिहाजा कातिल किसी भी हाल में पौने छह या छह फीट से कम नहीं हो सकता था। दूसरी अहम बात ये थी कि कातिल का निशाना परफैक्ट था, वरना वहां से स्टूल पर रखे मोबाइल को निशाना बनाना आसान काम नहीं था।
किसी अनाड़ी ने गोली चलाई होती तो कोई बड़ी बात नहीं थी कि गोली स्टूल से टकराती और मोबाइल फर्श पर जा गिरता। वापिस लौटते वक्त वक्त मेरी निगाह गली के मुहाने के पास कच्ची मिट्टी पर बने पहियों के निशान पर गई जो कि वहां मिट्टी गीली होने की वजह से बहुत गहरे जान पड़ते थे। वो निशान किसी दोपहिया वाहन के पहियों से बने थे।
लिहाजा कातिल वहां तक मोटरसाइकिल से आया हो सकता था। गली के मुहाने पर सड़क के दूसरी ओर मुझे एक ‘सिक्स टेन‘ स्टोर दिखाई दिया, जहां सीसीटीवी कैमरा होना आम बात थी। मुझे यकीन था वहां से कातिल के बारे में कोई ना कोई क्लू हासिल होकर रहना था।
मैं फ्लैट के सामने वापिस लौटा।
अभी मैं भीतर दाखिल होने ही लगा था कि मुझे वहां हलचल का आभास हुआ, मुझे लगा भीतर कोई है, कौन?
इस बार मैं खुद को पछताने का कोई मौका नहीं देना चाहता था। लिहाजा लपककर अपनी कार तक गया और रिवाल्वर निकालकर पतलून की बैल्ट में खोंसने के बाद वापिस लौटा। अब मैं किसी भी अवांछनीय स्थिति से दो-चार होने को तैयार था।
पूरी सावधानी बरतता हुआ मैं भीतर दाखिल हुआ, उस दौरान मेरी रिवाल्वर बेल्ट से निकलकर मेरे हाथ में आ चुकी थी। ड्राइंगरूम क्लीयर था। मुझे लगा वहां जो भी था इस वक्त स्टडी में था। मैं स्टडी के अधखुले दरवाजे की ओर रिवाल्वर ताने आगे बढ़ा! तभी स्टडी का दरवाजा खुला और वो बाहर निकलता दिखाई दिया।
‘‘खबरदार, हिले तो गोली चला दूंगा।‘‘
‘‘पागल हो गया है गोखले।‘‘
आवाज के साथ-साथ मुझे चौहान की सूरत दिखाई दी। मैंने एक लंबी सांस ली फिर रिवाल्वर वापिस बैल्ट में खोंस ली और हैरान निगाहों से उसे देखने लगा।
‘‘क्या हुआ?‘‘
‘‘तुम बताओ! जेल जाने के लिए एकदम मरे जा रहे हो नहीं।‘‘
‘‘बकवास मत कर यार! अब मुझे क्या सपना आना था कि इसका कत्ल हो जाने वाला है, जो मैं यहां आने से परहेज बरतता। मैं तो बस इससे कुछ जनरल बातें करना चाहता था। ये सोचकर कि क्या पता पहले कुछ बताना भूल गई हो! फिर तू बार-बार ये क्यों भूल जाता है कि मेरी जान शूली पर चढ़ी हुई है, कैसे मैं चैन से बैठा रह सकता हूं।‘‘
वो बोले जा रहा था जबकि मुझे उसका कहा एक शब्द भी उस वक्त समझ में नहीं आ रहा था। मेरे जहन में तो बस दो ही बातें गूंज रही थीं - कद छह फीट, निशाना परफैक्ट! सच पूछिए साहबान! तो इस वक्त चौहान से मेरा विश्वास पूरी तरह हिला जा रहा था। उसकी बेगुनाही का पूरी तरह यकीन तो मुझे पहले भी नहीं था, मगर आज तो जैसे बचा-खुचा भी खत्म होने के कागार पर था। इस वक्त उसकी वहां मौजूदगी अपने आप में शक उपजाऊ बात थी। अगर कत्ल उसने किया था तो कत्ल के बाद उसकी यहां मौजूदगी का सिर्फ एक ही मतलब निकलता था - वह अंदाजा लगाना चाहता था कि कहीं उसकी तमाम सावधानियों के बावजूद मुझे उसपर कोई शक तो नहीं हो गया था, या रंजना ने कोई ऐसी बात तो मुझे नहीं बता दी थी जिससे उसपर बतौर कातिल कोई उंगली उठती हो। ऊपर से उसने अपनी शर्ट पैंट से बाहर निकाल रखी थी। ऐसा लापरवाह तो वह कभी नहीं था, लिहाजा उसकी पतलून में कोई हथियार - अलायकत्ल, जिससे कि उसने रंजना को गोली मारी थी - मौजूद हो सकता था।
क्या मुझे उस बाबत चौहान से प्रश्न करना चाहिए? मेरे दिल ने कहा नहीं, मगर दिमाग ने कहा हां जरूर करना चाहिए, इस तरह कम से कम उसकी स्थिति कुछ तो साफ होती।
मैंने अपनी रिवाल्वर निकालकर दोबारा उसपर तान दी।
‘‘क..क्या...! क्या कर रहा है तू होश में तो है।‘‘
‘‘हिलना नहीं प्लीज!‘‘
‘‘वो तो चल मैं नहीं हिलता मगर हुआ क्या तेरे को।‘‘
‘‘तुम्हारे पास हथियार है?‘‘
‘‘हां है, तो!‘‘
‘‘निकालकर सेंट्रल टेबल पर रखो प्लीज!‘‘
‘‘ओह अब समझा! - कहकर वो जोर से ठठाकर हंस पड़ा फिर उसने अपनी रिवाल्वर निकालकर सामने टेबल पर रखते हुए कहा - गोखले किसी को तो बख्स दिया कर।‘‘
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Re: Thriller खतरनाक साजिश

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मैं बिना कुछ कहे टेबल के करीब पहुंचा और रिवाल्वर उठाने के लिए जेब से रूमाल निकालने लगा। बस यहीं मैं गच्चा खा गया, उसने टेबल के नीचे से अपनी लात चलाई मैं मुंह के बल ऐन उसकी रिवाल्वर के सामने टेबल पर गिरा, इस दौरान मेरी अपनी रिवाल्वर मेरे हाथ से निकल गई जबकि वो अपनी रिवाल्वर मुझपर तान चुका था।
‘‘क्या कहता है चला दूं गोली।‘‘ वो कहर भरे स्वर में बोला।
‘‘मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा?‘‘
‘‘कुछ नहीं मगर रिवाल्वर तानने से पहले ये क्यों भूल गया कि पुलिसवाला हूं। ट्रेनिंग दी जाती है हमें इन चीजों की। कैसे तूने सोच लिया कि यूं आसानी से मुझपर काबू पा लेगा। हैरानी होती है ये सोचकर कि तू मुझे अपना दोस्त तसलीम करता है, ये दोस्तों वाली हरकत थी। दोस्त वो होता है जो कहे कि कोई बात नहीं चौहान! तूने कत्ल कर भी दिए तो क्या मैं तुझे बचा के दिखाऊंगा, और एक तू है कि मुझपर ही शक कर रहा है। उस इंसान पर जिसने अपनी जिंदगी का दारोमदार तेरे कंधों पर डाल रखा है।‘‘
कहने के बाद उसने चुपचाप अपनी रिवाल्वर मुझे थमा दी। बेशक उसने मुझे शर्मिंदा करने की भरपूर कोशिश की थी, पर ऐसी कोशिश क्या किसी ने पहली बार की थी। महा बेशरमों की तरह मैंने उसके हाथों से रिवाल्वर लेकर उसका मुआयना किया, सूंघ कर देखा! कम से कम हाल-फिलहाल में तो उससे गोली नहीं चलाई गई थी, इसकी मुझे गारंटी थी।
मैंने रिवाल्वर उसे वापिस लौटा दी। फिर अपनी रिवाल्वर फर्श से उठाकर मैंने दोबारा पतलून में खोंस ली।
‘‘अब क्या कहता है।‘‘
‘‘सॉरी! मुझे सोचना चाहिए था कि अगर रंजना का कत्ल तुमने किया होता तो अब तक उस रिवाल्वर को ठिकाने लगा चुके होते।‘‘
उसने असहाय भाव से मेरी ओर देखा फिर बोला, ‘‘तू बाज नहीं आ सकता।‘‘
‘‘क्या करूं मेरा धंधा ही ऐसा है, ऐसी चीजों को मैं नजरअंदाज नहीं कर सकता। अब तुम यहां से खिसको तो मैं पुलिस को कॉल लगाऊं।‘‘
‘‘तू उन्हें मेरे बारे में बताएगा।‘‘
‘‘नहीं, ऐन कत्ल के वक्त तुम्हारी यहां मौजूदगी का ढिंढोरा पीटना तो बिना कुछ कहे तुम्हे कातिल करार देने जैसा होगा।‘‘
‘‘गुड मेरा मोबाइल नंबर नोट कर।‘‘
कहकर उसने मुझे एक नंबर नोट करवा दिया।
‘‘वर्दी का जुगाड़ कर सकते हो!‘‘
‘‘कर सकता हूं आगे बोल!‘‘
‘‘शाम को मुझे तुम्हारी जरूरत पड़ेगी।‘‘
‘‘फोन करना।‘‘
कहकर वो बाहर निकल गया।
उसके पीठ फेरते ही मैंने खान को फोन करके वहां हुई वारदात की सूचना दे दी। इसके बाद एक सोफे पर पसरकर सिगरेट के सुट्टे लगाते हुए पुलिस का इंतजार करने लगा। उस दौरान एक बात मेरे जहन में बार-बार दस्तक देती रही कि कातिल को कैसे पता चला कि मंदिरा का मोबाइल रंजना के हाथ लग गया है और अगर लग भी गया है तो उसमें कोई ऐसी बात थी जो उसे फंसवा सकती थी। इसका तो एक ही मतलब निकलता था और वो ये कि कातिल उन चार लोगों में से कोई एक था, जिन्हें रंजना ने फोन करके मोबाइल और उसमें मौजूद रिकार्डिंग के बारे में बताया था। साफ जाहिर हो रहा था कि रंजना का कत्ल उस मोबाइल की वजह से ही हुआ था। कातिल को यूं आनन-फानन में उसकी खबर लग जाना भी ये साबित करता था कि अपनी चारों काल्स में से एक वो यकीनन कातिल को कर बैठी थी।
कौन था हत्यारा - महीप शाह, मुकेश सैनी, मनोज गायकवाड़ या फिर वो चौथा सख्स जिसका नाम बता पाने से पहले ही उसका कत्ल कर दिया गया था।
क्या वो चौथा सख्स चौहान हो सकता था?
यकीनन हो सकता था! पर अगर सचमुच ऐसा हुआ था तो मुझे इस केस में जानमारी करने की जरूरत ही क्या थी।
फिर जैसे मैंने खुद ही अपने सवाल का जवाब दे डाला - जरूरत तो थी, आखिर अपने पैड क्लाइंट मनोज गायकवाड़ को मुझे कातिल का नाम जो बताना था।
मुझे एक बार फिर अपने आप पर गुस्सा आने लगा। क्यों मैं चौथे सख्स का नाम सुनने से पहले ही उससे सवाल-जवाब करने लगा था।
काश कि मैंने उसे चारों नाम लेने दिये होते! उस स्थिति में जांच का दायरा चार लोगों के बीच सिमट कर रह गया होता। जिसमें से कातिल को शार्ट आउट कर लेना क्या बड़ी बात होती।
यकीनन मैं सांप निकलने के बाद लकीर को पीट रहा था।
बीस मिनट बाद एडिशनल एसएचओ तिवारी अपने दल-बल के साथ वहां हाजिर हुआ।
‘‘लाश कहां है?‘‘ वो मेरे करीब आते हुए बोला।
‘‘वहीं जहां से बड़ी बहन की लाश बरामद हुई थी।‘‘
जवाब में बिना कुछ कहे वो सीधा स्टडी में जा घुसा। लाश और घटनास्थल का मुआयना करने में उसने पूरे बीस मिनट जाया किए फिर बाहर आकर मेरे बगल में सोफे पर पसर गया।
‘‘सिगरेट होगी तुम्हारे पास।‘‘
जवाब में मैंने बिना कुछ कहे सिगरेट का पैकेट और लाइटर उसे थमा दिया। उसने एक सिगरेट निकालकर सुलगाया और पैकेट मुझे वापिस करता हुआ बोला, ‘‘कैसे कर लेते हो इतना सबकुछ!‘‘
मैं हंसा।
‘‘सच कहता हूं मैंने तुम्हारे जैसा फसादी आदमी नहीं देखा। जहां जाते हो वहीं किसी ना किसी का कत्ल करवा देते हो! बड़ी बहन से मिलने आये उसका कत्ल हो गया, अंकुर रोहिल्ला से मिलने गये तो वो बेचारा भी जान से गया और अब रंजना चावला, कम से कम उसे तो बख्स दिया होता।‘‘

‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो तिवारी साहब जैसे इस हत्याकांड के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं।‘‘
‘‘नहीं मैं ऐसा नहीं कह रहा, क्योंकि मुझे यकीन है कि इन हत्याओं के पीछे कम से कम तुम्हारा हाथ नहीं है। लेकिन मैं ये सोचकर हैरान जरूर हूं कि ऐसा इत्तेफाक बार-बार तुम्हारे ही साथ क्यों हो रहा है।‘‘
‘‘सिर्फ इसलिए क्योंकि सिर्फ मैं ही इस केस में मारा-मारा फिर रहा हूं, कातिल को बेनकाब करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ जो हूं।‘‘
‘‘और हम क्या कर रहे हैं भई, हम क्या हाथ पर हाथ धरकर बैठे हुए हैं? पुलिस को क्या कोई परवाह नहीं कि कातिल छुट्टा घूम रहा है।‘‘
‘‘है! ना होने का कोई मतलब ही नहीं है, मगर तुम लोग रूटीन फॉलो करते हो, एक साथ कई केसेज पर काम कर रहे होते हो! जबकि मैं एक बार में सिर्फ एक ही केस के पीछे भागता हूं इसलिए कभी-कभार इत्तेफाकन पुलिस से दो कदम आगे निकल जाता हूं। ऊपर से इस केस में तुम लोग चौहान को मुजरिम मानकर सिर्फ और सिर्फ उसके पीछे लगे हुए हो। उसे कोर्ट में निर्विवाद रूप से हत्यारा साबित करने के लिए सबूत इकट्ठे करने में जुटे हो, जबकि मैं उसे बेगुनाह मानकर असली हत्यारे की तलाश में दिन रात एक किये हूं।‘‘
‘‘ऐसी कोशिश का क्या फायदा गोखले जिसका कुछ हासिल ना निकले।‘‘
‘‘ना सही मगर इस डर से मैं कोशिश करना तो बंद नहीं कर सकता, आखिर मुझे अपनी फीस को भी तो जस्टीफाई करके दिखाना है।‘‘
‘‘चौहान ने फीस भरी है तुम्हारी।‘‘
‘‘नहीं, उसने नहीं।‘‘
‘‘फिर किसने?‘‘
मैं खामोश रहा।
‘‘छोड़ो मुझे उस बात से कोई लेना देना नहीं - कहकर उसने सिगरेट का एक कस लगाया फिर आगे बोला - अब बिना कुछ छिपाये-दबाये, सारा किस्सा बयान कर डालो।‘‘
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