कहानी तेरी मेरी

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Dolly sharma
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लिफ्ट

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लिफ्ट


इस कहानी के पात्र व दर्शायी गयी घटनाएं काल्पनिक है। किसी भी प्रकार की वास्तविकता से मेल होना महज़ एक इत्तिफ़ाक़ हो सकता है। इस कहानी के ज़रिए लेखक किसी भी तरह से भूत प्रेत पर विश्वास करने के लिए बाध्य नही करता है, धन्यवाद।
***
“टिक टिक.. टिक टिक.. टिक टिक..” बजते हुए अलार्म क्लॉक के बटन पर गहरी नींद से जागे अनिल ने जोर से हाथ मारा और करवट बदल कर फिर से सो गया। 7 बजे का वक़्त दिखती अलार्म क्लॉक हाथ लगने से टेबल पर औंधी जा गिरी और अपनी किस्मत समझ कर यूँ ही चुप पड़ी रही। रात देर से सोया अनिल नींद में ही अलार्म बंद कर के सो गया था। देर रात तक पूजा से फ़ोन पर झगड़ा होता रहा, रूठना मनाना चलता रहा, और आखिर में अनिल ने पूजा को मना ही लिया था।
“ट्रिन ट्रिन” मोबाइल की घंटी से अनिल की आंखें खुली।
“हेलो”
“आज कम्पनी नहीं आ रहा क्या अनिल” दूसरी तरफ से आवाज़ आयी।
“आऊंगा.. क्यों” अनिल ने लेटे लेटे आंखें बन्द किये जवाब दिया।
“तो कब आएगा यार.. अभी तक सो रहा है क्या, मैं बस में बैठा तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ” अनिल की आवाज़ से शायद दूसरी तरफ अंदाज़ा हो गया था कि अनिल अभी अभी नींद से जागा है।
“ओह शिट..” अनिल में घड़ी की तरफ देखा जो सवा 8 बजा रही थी तो आंखों में भरी नींद फौरन धुवा हो गयी और छलांग मार कर उठ खड़ा हुआ “तू फ़ोन रख, मैं बस 15 मिनट में निकल रहा हूँ। अब तो दूसरी बस पकड़नी पड़ेगी” अनिल ने इतना कह कर मोबाइल बेड पर फेंका और बाथरूम में घुस गया। 15 मिनट के बाद वो अपने रूम को चाबी से लॉक कर के लिफ्ट की तरफ जा रहा था। लिफ्ट के पास पहुंच कर बटन दबाया पर लिफ्ट नहीं खुली।
“खुल जा यार.. अब क्या हो गया” अनिल खुद से बोलता बार बार ट्राय कर रहा था।
“लिफ्ट खराब हो गयी है” पास से गुजरते आदमी ने अनिल को बताया जो शायद इसी बिल्डिंग में रहता था।
“ओह.. ओके थैंक्स” अनिल ने सीढ़ियों की तरफ रुख किया। जल्दी जल्दी सीढ़ियां उतरता अनिल घड़ी की तरफ देख रहा था। पांचवीं मंज़िल से बिना लिफ्ट के नीचे जाना उसे थका दे रहा था। अभी तीसरी मंजिल की सीढ़ियों पर था कि उसे किसी के ज़ोर ज़ोर से खाँसने की आवाज़ आयी और सामने से एक 70 साल का बूढ़ा आदमी धीरे धीरे सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ आ रहा था।
“अंकल आप ठीक है” अनिल ने उस बूढ़े से पूछा जिसका खाँस खाँस कर बुरा हाल हो रहा था।
“हाँ बेटा मैं ठीक हूँ” बूढ़े ने थके थके लहज़े में कहा।
“कहाँ जाना है आपको, चलिये मैं आपके साथ चलता हूँ” अनिल उस आदमी की मदद के लिए आगे बढ़ा और ऑफिस भूल कर उसका हाथ पकड़ कर साथ चलने लगा।
“अरे बेटा, तुम कहाँ परेशान हो रहे हो.. बस चौथी मंजिल तक ही जाना है मैं चला जाऊंगा, ये तो रोज़ का काम है मेरा” बूढे आदमी ने चलते चलते कहा।
“आप रोज जाते हैं ?” अनिल ने सवाल किया।
“हाँ, रोज़ सुबह पार्क में बैठने जाता हूँ, इन बन्द घरों में मेरा दम घुटता है इसलिए ताज़ा हवा लेने रोज़ सुबह पार्क चला जाता हूँ, कितनी बार मैंने मिस्टर बंसल से कहा कि बिल्डिंग में लिफ्ट लगवा दें, पांच मंजिला है तो क्या हुआ हम जैसे बूढो को तो 4 सीढ़ी उतारना भी मुश्किल पड़ता है” उस आदमी में बिल्डिंग के मालिक नाम लेते हुए कहा।
“पर अंकल बिल्डिंग में लिफ्ट तो लगी हुई है, अभी 2 महीने पहले ही लगी है” अनिल ने बूढ़े आदमी की जानकारी बढ़ाई।
“लगी हुई है...???” बूढ़े आदमी ने चोंक कर पूछा।
“हाँ, वैसे मुझे आये तो अभी 1 महीना ही हुआ है पर मेरा दोस्त बता रहा था कि 2 महीने पहले ही लगी है लिफ्ट यहां” अनिल ने साथ चलते चलते कहा।
बूढ़ा आदमी अब चुप था और चौथी मंजिल आने पर बोला “शुक्रिया बेटा, मेरा घर आ गया, अब तुम जाओ.. तुम्हें देर हो रही होगी”
“हाँ आज मेरी आँख नही खुल पायी थी पर लेट होने का एक फायदा तो हुआ कि मैं आपसे मिला”
“हा हा हा.. बहुत अच्छा” बूढ़ा आदमी हँसने लगा जिस पर अनिल भी मुसकुरा दिया।
अनिल उस आदमी को उसके फ्लैट के सामने छोड़ कर ऑफिस के लिए निकल गया।
अब रोज़ अनिल कुछ सवेरे निकलता जिससे कि पार्क में उस बूढे आदमी से कुछ पल मिल सके। उस बूढ़े आदमी में अनिल को अपने दादा जी दिखते जो कुछ साल पहले गुज़र गए थे। बातों बातों में पता चला कि उनका नाम सुभाष है जो रिटायर्ड कर्नल है। एक बेटा है जो अपनी फैमिली के साथ अमेरिका में रहता है। बस ये दो बूढ़े पति पत्नी चौथी मंजिल पर अकेले रहते है और एक फुल टाइम काम वाली बाई साथ होती है।
रोज़ मिलते बातें करते 2 हफ्ते गुज़र गए। कर्नल साहब भी अनिल से खूब बातें बनाते और अनिल भी उन्हें अपने घर की और पूजा की बातें बताता और कुछ देर बातें कर के अनिल वक़्त पर ऑफिस के लिए निकल जाता। लिफ्ट ठीक हो जाने के बाद भी वो सीढ़ियों से ही आते जाते थे। जब अनिल लिफ्ट के चलने के लिए बोलता तो चुप हो जाते और चुप चाप सीढ़ियों से जाने लगते। अनिल को कुछ अजीब लगता पर उसने इस बारे में ज़्यादा बात करना सही नहीं समझा।
एक दिन अनिल रोज़ वाले वक्त पर पार्क पहुँचा तो वहां कर्नल साहब नहीं बैठे थे, कुछ देर अनिल ने वहीं बैठ कर इंतज़ार किया कि हो सकता है किसी वजह लेट हो गए हो पर जब आधा घंटा गुज़र गया अनिल से रहा नहीं गया। वो सीधा उनके फ्लोर पर पहुंचा और डोर बैल बजायी “टिंग टोंग” दरवाज़ा एक बूढ़ी औरत ने खोला जो शायद कर्नल साहब की पत्नी थी।
“आंटी, कर्नल अंकल है ?” अनिल ने पूछा।
“बेटा वो...” बूढ़ी औरत कुछ चौकी।
“क्या नए रहने आये हो इस बिल्डिंग में” औरत ने सवाल किया।
“जी” अनिल ने छोटा सा जवाब दिया।
“बेटा.. कर्नल साहब को गुज़रे तो 3 महीने हो गए” बूढ़ी औरत ने दुखी होते हुए कहा।
“क्या.. पर.. ऐसा कैसे हो सकता है” अनिल बहुत ज़्यादा चोंक गया था।
“हाँ, 3 महीने पहले उन्हें हार्ट अटैक आया था जो जानलेवा साबित हुआ। कल उनका श्राद था, भगवान उनकी आत्मा को शांति दे” बूढ़ी औरत ने आंखों से बहते आँसू साफ किये।
“श्राद.. पर आपका बेटा तो अमेरिका में होता है” अनिल ने पूछा।
“कल वो अमेरिका से आया था अपने पिता के श्राद के लिए, अपने पिता की अचानक मौत का सुन कर उसका एक्सीडेंट हो गया था। काफी गहरी चोटें आयी जिसकी वजह से उसे इंडिया आने में 3 महीने लग गये। पर बेटा तुम उन्हें कैसे जानते हो” बूढ़ी औरत ने पूछा।
“मैं..” अनिल को समझ नहीं आ रहा था कि पिछले दो हफ्ते की कहानी बताये या छिपाये।
“वो.. मेरे एक दोस्त ने बताया था कि कर्नल अंकल बहुत अच्छे आदमी है, तो इसलिए..” अनिल ने खोये खोये जवाब दिया।
“मैं चलता हूँ आंटी” अनिल कह कर मुड़ गया। सीढ़ियों से आया अनिल लिफ्ट की तरफ बढ़ रहा था।
उसके दिमाग मे उथल पुथल मची हुई थी। पिछले दो हफ्तों से वो एक भटकती आत्मा से बातें कर रहा था, एक आत्मा से रोज़ मिलता था। अपने दुख सुख बाँटता था पर अब उसे सीढ़ियों की तरफ देखने मे भी ख़ौफ़ आ रहा था। कुछ ही दिनों में उसने वो जगह छोड़ दी और दूसरी जगह जा कर रहने लगा पर जितने भी दिन अनिल इस बिल्डिंग में रहा उसने सीढ़ियों की तरफ कभी रुख नहीं किया।
(समाप्त)
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लतीफुल्ला की सोने की कटोरी

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लतीफुल्ला की सोने की कटोरी



हमारे मोहल्ले में एक थे मियाँ लतीफुल्ला.. जहाँ भी जाते एक लतीफ़ा सुना डालते। अरे नहीं नहीं... आमाँ आप गलत समझ रहे हैं। वो कोई शौक नहीं रखते लतीफ़ा सुनाने का.. बस अनजाने ही उनकी मुंह से लतीफ़ा निकल जाता और सामने वाला हंस हंस कर लोट पोट हो जाता।
मुझे तो यूँ मालूम होता है की ये उनके नाम का ही आसार होगा.. नाम भी तो उनकी अम्मा ने क्या खूब रखा था "लतीफुल्ला"
दरअसल हुआ यूँ था कि उनके अब्बा मियाँ बहुत गुस्से वाले थे... हर वक़्त गुस्सा नाक पर धरा रहता.. उनकी अम्मा ने सोचा कि कहीं मेरा लाल, मेरा जिगर का टुकड़ा अपने बाप की तरह तेज़ गुस्से का न हो जाये तो उन्होंने अपने जिगर के टुकड़े का नाम लतीफुल्ला ही रख दिया। अब खुदा का करना यूँ हुआ कि वो अपनी हर बात में एक लतीफ़ा सुना डालते।
पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में वो भी किसी शाहजहाँ से कम नहीं लगते थे। घुटनों तक काले रंग की लंगोट बांधे, उसके ऊपर उनकी खूबसूरती को चार चांद लगाता सफ़ेद कुर्ता, चेहरे पर शेख चिल्ली वाली दाड़ी, उसमें छुपे होंठों पर सदा रहने वाली मुस्कान। माशा अल्लाह क्या रंग रूप पाया था कि खुदा ना खस्ता कोई बच्चा उन्हें रात को देख ले तो अपनी माँ से चिपक कर फिर दूर ना होने की कसम खा ले। अरे नहीं मियाँ.. आप तो फिर गलत समझ बेठे... वो कोई सांवली रंगत के नहीं बल्कि दूध सी सफ़ेद रंगत के.. बल्कि यूँ कहो कि आलू को उबाल कर छील दिया गया हो, और उस दूध सी सफ़ेद रंगत पे बड़ी बड़ी आँखों में काजल की पूरी डिबिया लगी हुई। अब अगर अँधेरे में वो किसी बच्चे के पास चले जाये तो सोचो की क्या हश्र होगा उस मासूम से बच्चे का.. खेर छोडिए ये सब बातें।
अभी कल ही मेरी दुकान पर आये तो फट मैंने पूछा “कहो मियाँ! कौन सा पान बना दूँ.. मीठा पान, सोडा पान, इलायची पान या....”
मेरी पान वाली बात वो सिरे से ही अनसुनी करते हुए अपनी ही सोचो में गुम बोले.. “हमीद भाई ! ये सोने की कटोरी कितने में बन जायगी”
"अमाँ तुम्हें क्या सोने की कटोरी की ज़रुरत पढ़ गयी" मैं खासा चौंक गया कि इतनी महंगाई के ज़माने में ये क्यों कर सोने की कटोरी का पूछ रहे हैं।
"अरे भाई! वो मेरी अम्मी है ना.. एक नई ज़िद लग गयी है उन्हें" मियाँ लतिफुल्ला बोले।
"क्या कहती हैं बी अम्मा.. ज़रा बताओ तो" मैं सुनने को बेचैन हुआ।
"कल कह रही थी कि वो अपने पड पोते की कमाई से चौ-मंजिला मकान की छत पर बैठ के सोने की कटोरी में दूध पायेंगी।" मियाँ लतीफुल्ला में सारा रात का वाक़या कह सुनाया।
“क्या ! मियाँ तुमने शादी कब कर ली.. हमें तो दावत भी नहीं दी” मैं ज़ोर से सदमे की हालत में बोला, मुझे सोने की कटोरी से ज़्यादा अपनी दावत का दुःख हुआ कि लो! बे-मौत एक दावत मारी गयी।
"अरे हमीद भाई ! कैसी बात करते हो। भला ऐसा हो सकता है कि मेरी शादी हो और आप को दावत ना मिले। अभी अम्मी लड़की देखना शुरू कर रही हैं” शरमाते हुए मियाँ लतीफुल्ला ने मेरा दुःख कुछ कम किया।
लो भैया.. अभी लड़की मिली नहीं, शादी हुई नहीं और बी अम्मा ख्वाब देख रही हैं पड पोते के। फिर मैंने आगे पूछा "तो तुमने कहीं लड़की वड़की पसन्द तो नहीं कर रखी”
"नहीं जी, मैं तो वहीँ शादी कर लूंगा जहाँ मेरी अम्मी बोलेंगी, पर हमीद भाई मैं सोच रहा था सोने की कटोरी खरीद लूँ" मियाँ लतीफुल्ला को अब भी कटोरी की पड़ी थी।
"पर बी अम्मा तो पड पोते की कमाई से लायी हुई कटोरी में दूध पीना चाहती हैं ना" मैं झुंझला गया।
"मैं अम्मी को बताऊंगा ही नहीं कि मैंने खरीदी है, ओ तेरी!!!! हमीद भाई, वादा करो की आप अम्मी को नहीं बताओगे" मियाँ लतीफुल्ला जैसे किसी कशमकश में मुब्तिला हो गए कि अब क्या होगा, मेरा ये राज़ तो हमीद भाई जान चुके हैं।
"कसम ले लो मियाँ, मैं किसी को नहीं बताऊंगा.. तो कब ले रहे हो सोने की कटोरी" मुझे भी बी अम्मा की ख्वाहिश में कुछ कुछ दिलचस्पी होने लगी।
"बस हमीद भाई! नोकरी ही नहीं मिलती कहीं, मिल जाये तो कुछ पैसा हाथ में आ जाए, अब्बा तो कुछ नहीं देते" मियाँ लतीफुल्ला ने बड़ी बेचारगी से कहा।
मैं एक मिनट को सकते में आ गया। खुद पर बड़ी ज़ोर से गुस्सा आया कि मैं भी किस की बातों में अपना वक़्त बर्बाद कर रहा हूँ, ये तो वही बात हुई की मुर्गी खरीदी नहीं पर उस मुर्गी के अंडे बेच बेच कर महल खड़ा कर लिया।
"मियाँ तुम घर जा कर आराम कर लो। अभी मैं काम जा रहा हूँ। वक़्त मिला तो ज़रूर सोने की कटोरी का देखते हैं क्या करना है।" मैंने जैसे पीछा छुड़ाने की कोशिश की।
मियाँ लतीफुल्ला तो चले गये “खुदा हाफिज” बोल कर पर मैं थोड़ा कंफ्यूज हो गया कि इस सारी गुफ्तगू पर हसूं या अपना सिर पीट लूँ.. जो भी है! एक बात तो साफ़ है मियाँ लतीफुल्ला के आला ख्याल सुन सुन कर तो बीरबल की खिचड़ी भी पाक जाए.. क्यों!! सही कहा ना मैंने....
(समाप्त)
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काली चान्दनी

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काली चान्दनी


“यार शशि... देख वो तुझे देख रहा है” मुस्कान ने शशि को एक तरफ इशारा करते हुए कहा था।
“कौन वो.. इइइइइ!! अरे यार.. उसकी तरफ तो मैं देखना भी पसंद न करूँ। देख तो कितना काला है वो। मुझे नफरत है काले पिले लोगों से” शशि ने बुरा सा मुंह बना कर कहा, शशि की बातों में घमंड झलक रहा था।
“ठीक तो है, देखने में तो स्मार्ट ही लग रहा है” मुस्कान को इसका लहज़ा पसंद नहीं आया था।
“हम्म तेरे टाइप का होगा वो, मेरे टाइप का नही” शशि ने हँसते हुए कहा जो मुस्कान को पसंद नहीं आया उसका इस तरह कहना।
इसी तरह कालेज के हर दूसरे लड़के और लड़की पर शशि कमेंट्स करती जा रही थी।
शशि थी तो बहुत सुंदर, दूध सी सफ़ेद रंगत, काली चमकती आंखें, लहराते लम्बे काले बाल। कुछ यूँ था कि खुदा ने बड़ी फुर्सत से उसे बनाया था और उसकी इस सुंदरता के कारण वो बहुत घमंडी हो गयी थी। अपने आगे किसी को कुछ न समझना, सब को नीची नज़रों से देखना, अपनी तारीफ अपना हक़ समझ कर वसूलना उसकी आदत बन चुकी था।
अगले दिन शशि कालेज में गई तो मुकेश उसके पास आया और बोला “शशि मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ”
मुकेश वही लड़का था जो अकसर दूर खड़ा शशि को देखा करता था। आज बहुत हिम्मत कर के वो शशि से बात करने आया था।
“मेरे पास टाइम नहीं है। जल्दी बोलो क्या बात है” शशि ने लिए दिए अंदाज़ में बोला।
“शशि क्या हम दो मिनट बैठ कर बात कर सकते हैं” मुकेश मिन्नतों वाले अंदाज़ में बोला था।
“नो वे... आर यू मैड.. जो बोलना है यहीं बोलो। मेरे पास फालतू टाइम नहीं है”
“शशि”
मुकेश थोड़ा हिचकिचाया।
“असल में.. मैं तुम्हें पसंद करता हूँ”
“रियली..” शशि ने मजाक बनने वाले अंदाज़ में कहा।
“तुमसे शादी करना चाहता हूँ। विल यू मेरी मी” मुकेश ने सारी हिम्मत बटोर के आखिर बोल ही दिया।
“क्या!!!!!!” शशि पर जैसे बम फट पड़ा था।
“तुम्। तुमम। माय फूट। मैं तुमसे शादी करूँगी। दिमाग तो ठीक है तुम्हारा। कभी आईना देखा है तुमने” वो इतना जोर शोर से बोल रही थी कि आस-पास भीड़ जमा हो गयी।
“सुना आप लोगों ने, ये मुझसे शादी के ख्वाब देख रहा है। तुम जैसे को तो मैं देखना भी पसन्द नहीं करूँ और तुम शादी के ख्वाब देख रहे हो.. तुम आसमान छूने की बात करते हो। कहाँ तुम और कहाँ मैं.. हुंह”
शशि के लहजे में इतनी नफरत थी कि मुकेश अपने आपको बहुत हक़ीर, बहुत छोटा और बेइज़्ज़त महसूस कर रहा था। बेइज़्ज़ती की कारण उसकी आँखों में पानी आ गया था।
मुकेश कुछ न बोल सका। वो बस सुनता रहा और पास खड़े लोगों को अपने पर हँसते देखता रहा।
पर उसका दिल रो रहा था। वो बस इतना ही बोल पाया। “तुम बहुत पछताओगी शशि, किसी का दिल दुखा कर कभी कोई खुश नहीं रहता”
मुकेश इतना कह कर चला गया.. फिर कभी शशि ने उसे नहीं देखा कालेज में।
एक बहुत बड़े घर से शशि का रिश्ता आया। उसके माता पिता ने शशि की मर्जी जान कर हाँ कर दी और यूँ शशि की शादी का दिन भी आ पहुंचा।
शशि दुल्हन के रूप में बहुत सुंदर लग रही थी। शशि ऐसा महसूस कर रही थी जैसे वो आसमानों पर उड़ रही हो। उसकी ख्वाहिश जो पूरी हो गयी थी। एक बड़ा घर, खूब सारी दौलत और सब से बढ़ कर उसकी बराबरी का, उसकी सुंदरता का साथ देता उसका पति।
रवी एक बोहोत बड़ा बिज़नेस मेन था व शशि जैसी सुन्दर लड़की को पा कर खुश था पर नहीं जनता था कि शशि ने कितनों के दिल तोड़े हैं। कितने ही लोगों की बद-दुआएं ली है। केवल अपने घमण्ड के कारण।
शशि की शादी को अभी कुछ ही महीने हुए थे कि घर में ख़ुशी की लहर दौड़ थी.. बात ही कुछ एसी थी.. शशि के पांव भरी थे। उनके घर एक नन्हा सा मेहमान आने वाला था, घर में सभी खुश थे।
लेकिन कुछ दिनों से शशि परेशान लग रही थी, उसकी परेशानी की वजह उसकी सास के शब्द थे।
“शशि ! मुझे पोता ही चहिये। मेरा पोता मेरे कुल को रोशन करेगा और बहु पोता भी मेरे रवि जैसा सुन्दर होना चाहिये”
ये शब्द बार बार शशि के कानों में सुनाई दे रहे थे। धीरे धीरे वो वक़्त भी आ गया जिसको सब का इंतज़ार था। रवि शशि को हॉस्पिटल ले कर गया।
डॉक्टर ने रूम से बहार आ कर खुशखबरी सुनायी। “माँ और बच्चा दोनों सही है। आप चाहे तो मिल सकते हैं”
डॉक्टर कह कर चला गया। रवि और रवि की माँ रूम में गए अपने पोते से मिलने, लेकिन रवि और उसकी माँ को पता नहीं था। वो दोनों अंदर गए पोते को देखने पर क्या देखते हैं की वहां पोता नहीं था बल्कि शशि के पास एक छोटी सी कमज़ोर सी लड़की लेती थी जो बिलकुल काली और बदसूरत सी थी या यूँ कहो कि रवि और उसकी माँ को तो कम से कम ऐसा ही लगा था।
जिससे देख कर दोनों का माथा ठिनका था।
“शशि क्या है ये... मुझे बेटी नहीं बेटा चाहिये था ये मेरी औलाद तो नहीं हो सकती। मैं नहीं मानता इसे मेरी बेटी.. इतनी काली और बदसूरत बेटी मेरी हो ही नहीं सकती। दूर हो जाओ मेरी नज़रों से तुम दोनों”
रवी तो जैसे उस मासूम सी बच्ची को देखना भी नहीं चाहता था। इतना कह कर रवि और उसकी माँ उसे अकेला छोड़ कर चले गये।
“नही रवि ! ये हमारी बेटी है। तुम ऐसा नहीं कर सकते मेरे साथ। रवी! मेरी बात सुनो। रवीी” शशि की आवाज़ दूर तक गूंजी।
शशि रो रही थी और उसे मुकेश के कहे शब्द सुनाई दे रहे थे।
"तुम बहुत पछताओगी शशि। किसी का दिल दुखा कर कभी कोई खुश नहीं रहता”
शशि के पास पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचा था पर अब वक़्त निकल चुका था और शशि खली हाथ रोती हुई रह गयी और बस अपनी काली चांदनी को देख रही थी।
(समाप्त)
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