Horror चामुंडी
घर के मुख्य दरवाज़े पर ‘ठक ठक ठक ठक’ की आवाज़ हुई ... और इसी के साथ आवाज़ आया....
“हाँ..... मैडम जी.... दूध ले लीजिए...!!”
अभी ये आवाज़ ठीक से ख़त्म हुई भी नहीं कि घर के ऊपर तल्ले से एक जनानी की खनकती सी आवाज़ गूँज उठी,
“गुड्डू... ए गुड्डू... देख बेटा ... दूधवाला आया है.. जा के दूध ले ले ज़रा...”
लेकिन गुड्डू की ओर से कोई आवाज़ नहीं आया...
जब और दो तीन बार आवाज़ देने के बाद भी गुड्डू ने कोई उत्तर नहीं दिया तब उसी जनानी की आवाज़ गूँजी... झुँझलाहट भरी,
“ओफ्फ़.. इस लड़के को तो सिर्फ़ खाना और सोना है... और सोना भी ऐसा कि चिल्लाते रह जाओ .... या फ़िर, बगल से रेलगाड़ी ही क्यों न गुज़रे... मजाल इसके कानों में जूँ तक भी रेंग जाए.... |”
इसके एक मिनट बाद ही कमरे से वही खनकती आवाज़ की मालकिन निकली...
सुचित्रा...
सुचित्रा चटर्जी नाम है इनका...
गौर और गेहूँअन के बीच की वर्ण की है ... सुंदर गोल मुख... भरा बदन ... धनुषाकार भौहें और उतने ही सुंदर बड़ी आँखें ... दोनों हाथों में पाँच पाँच लाल रंग की मोटी चूड़ियाँ जिन पर सोने की अति सुंदर नक्काशी की हुई हैं ... |
सीढ़ियों पर से जल्दी उतरती हुई नीचे सीधे रसोई घर में घुसी और एक बड़ा सा बर्तन लेकर तेज़ कदमों से चलते हुए घर के मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ी...
दरवाज़ा खोली...
और,
बर्तन आगे बढ़ाते हुए बोली,
“लीजिए भैया... जल्दी भर दीजिए... मुझे देर हो रही है.”
दूध वाला बर्तन लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए एक नज़र सुचित्रा की ओर डालता है ... और ऐसा करते ही उसके हाथ और आँखें दोनों जम जाती हैं..
सुचित्रा एक तो है ही रूपवती ... और उसपे भी इस समय दूधवाले के सामने ब्लाउज और पेटीकोट में खड़ी है.उन्नत उभारों के कारण ब्लाउज में बने सुंदर उठाव ध्यान उसका खींच ही रहे हैं... गोपाल ने सुचित्रा को देखा तो है कई बार... पर कभी इस तरह... ऐसे कपड़ों में नहीं देखा.
गोपाल को यूँ अपनी ओर अपलक आश्चर्य और एक अव्यक्त आनंद से देखता हुआ देखी तो सुचित्रा का भी ध्यान अपनी ओर गया .... और खुद की अवस्था का बोध जैसे ही हुआ; तो हड़बड़ी के कारण हुई अपनी इस नादान गलती से वह बुरी तरह अफ़सोस करते हुए लगभग उछल पड़ी..खुद को जल्दी से दरवाज़े के पीछे करती हुई आँखें बड़ी बड़ी करके बोली,
“ए चल... जल्दी कर... कहा न मुझे देर हो रही है.”
गोपाल मुस्कराया... बर्तन लिया और दूध भर कर वापस सुचित्रा की ओर बढ़ाया.. पर जानबूझ कर इतनी दूरी रखा कि सुचित्रा को बर्तन लेने के लिए हाथ तनिक और बढ़ाना पड़े ... अब चाहे इस क्रम में उसे थोड़ा झुक कर आगे बढ़ना पड़े या फ़िर कुछ और करना पड़े.
गोपाल की इस करतूत को सुचित्रा समझ नहीं पाई. एक तो उसे देर हो रही थी और दूजे, जल्दबाजी में ऐसे अर्धनग्न अवस्था में एक पराए लड़के के सामने खड़े रहते हुए शर्म से ज़मीन में गड़ी जा रही थी.
गोपाल को ठीक से हाथ आगे न बढ़ा कर देते हुए देख कर सुचित्रा झुँझलाते हुए अपना बायाँ हाथ आगे बढ़ाई.. पर बर्तन अभी भी कुछ इंच दूर है.. वो गोपाल को कुछ बोले उससे पहले ही गोपाल बोल पड़ा,
“जल्दी कीजिए मालकिन... मेरे को अभी दस जगह और जाना है.”
जो बात वो गोपाल को फ़िर से बोलना चाह रही थी; वही बात गोपाल ने उसे कह दी..
कुछ और सोच समझ न पाई वो..
दरवाज़े के पीछे से थोड़ा आगे आई... एक कदम आगे बढ़ाई, थोड़ा सामने की ओर झुकी और हाथ बढ़ाकर बर्तन पकड़ ली.
पर तुरंत ही बर्तन को ले न सकी क्योंकि गोपाल ने छोड़ा ही नहीं... वो फ़िर से आँखें बड़ी कर घोर अविश्वास से सुचित्रा की ओर देखने लगा था. सुचित्रा की स्त्री सुलभ प्रवृति ने तुरंत ही ताड़ लिया कि गोपाल क्या देख रहा है.
गोपाल को डाँटने के लिए मुँह खोली... पर एकदम से कुछ बोल न पाई.
उसका कामातुर स्त्री - मन इस दृश्य का ... एक मौन प्रशंसा का आनंद लेने के लिए व्याकुल हो उठा.
जवानी में तो बहुत देखे और सुने हैं... पर अब उम्र के इस पड़ाव पर उसकी देहयष्टि किसी पर क्या प्रभाव डाल सकते हैं और कोई प्रभाव डाल भी सकते हैं या नहीं इसी बात को जानने की एक उत्कंठा घर कर गई उसके मन में.
Horror चामुंडी
- rajsharma
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Horror चामुंडी
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror चामुंडी
करीब दो मिनट तक ऐसे ही खड़ी रही वह.. केवल ब्लाउज पेटीकोट में... आगे की ओर झुकी हुई... गोपाल की लालसा युक्त तीव्र दृष्टि के तीरों के चुभन अपने वक्षों पर साफ़ महसूस करने लगी और साथ ही उसके खुद के झुके होने के कारण अपने ब्लाउज कप्स पर पड़ते दबाव का भी स्पष्ट अनुभव होने लगा उसे.
इधर गोपाल की भी हालत ख़राब होती जा रही थी. गाँव में बहुत सी छोरियों को देखा है उसने; और सुंदर भाभियों को भी. उनमें से एक है ये सुचित्रा मुख़र्जी. दूध पहुँचाने के सिलसिले में कई बार सुचित्रा के घर आता जाता रहा है और इसी वजह कई बार भेंट भी हुई है उसकी सुचित्रा से, कई बार बातें भी हुईं, और बातों के दौरान ही कई बार गोपाल ने अच्छे से सुचित्रा को ताड़ा भी; पर साड़ी से अच्छे से ढके होने के कारण उसकी उभार एवं चर्बीयुक्त सुगठित देह के ऐसे कटाव को कभी समझ न सका था. हमेशा अच्छे कपड़ों में रहने वाली सुचित्रा दिखने में हमेशा से ही प्यारी और सुसंस्कृत लगी है उसे; पर वास्तव में वह प्यारी होने के साथ साथ इतनी कामुक हो सकती है ये गोपाल ने कभी नहीं सोचा था |
और फ़िलहाल तो उसकी नज़रें निर्बाध टिकी हुई थी ब्लाउज कप्स से झाँकते सुचित्रा के दूधिया स्तनों के ऊपरी अंशों पर एवं झुके होने के कारण गहरी हो चुकी उस मस्त कर देने वाले क्लीवेज और क्लीवेज के ठीक सामने, गले से लटकता पानी चढ़ा सोने की चेन पर जो कदाचित उसका मंगलसूत्र भी है.
सुचित्रा ने हाथ से बर्तन को ज़रा सा झटका दिया और तब जा कर गोपाल की तंद्रा टूटी. वह बेचारा चोरी पकड़े जाने के डर से शरमा गया. आँखें नीची कर के जल्दी से अपने कैन को बंद किया और झट से उठ गया. सुचित्रा भी अब तक दुबारा दरवाज़े के पीछे आ गयी थी. गोपाल अपने दूध के बड़े से कैन को उठा कर जाने के लिए आगे बढ़ा ही था कि सुचित्रा बोली,
“सुनो, कल भी लगभग इसी समय आना... पर थोड़ा जल्दी करना.”
गोपाल ने सुचित्रा की ओर देखा नहीं पर सहमति में सिर हिलाया.
सुचित्रा मुस्करा पड़ी.
गोपाल तब तक दो कदम आगे बढ़ चुका था.. पर नज़रें उसकी तिरछी ही थीं... सुचित्रा के उस अनुपम रूप को जाते जाते अंतिम बार अपने आँखों में कैद कर लेना चाहता था.
और इसलिए सुचित्रा जब मुस्कराई तो वह नज़ारा भी गोपाल की आँखों कैद हो गई. ‘उफ्फ्फ़ क्या मुस्कान है... क्या मुस्कराती है यार! एक तो ऐसी अवस्था में, ऊपर से ऐसी कातिल मुस्कान...’ गोपाल पूरे रास्ते सुचित्रा के बारे में सोचता ही रहा. और सिर्फ़ रास्ता ही क्या, वह पूरा दिन सुचित्रा के बारे में सोचते हुए बीता दिया और रात में सुचित्रा के उस अनुपम सुगठित देह के बारे में सोच सोच कर स्वयं को तीन बार संतुष्ट करके सो गया.
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इधर गोपाल की भी हालत ख़राब होती जा रही थी. गाँव में बहुत सी छोरियों को देखा है उसने; और सुंदर भाभियों को भी. उनमें से एक है ये सुचित्रा मुख़र्जी. दूध पहुँचाने के सिलसिले में कई बार सुचित्रा के घर आता जाता रहा है और इसी वजह कई बार भेंट भी हुई है उसकी सुचित्रा से, कई बार बातें भी हुईं, और बातों के दौरान ही कई बार गोपाल ने अच्छे से सुचित्रा को ताड़ा भी; पर साड़ी से अच्छे से ढके होने के कारण उसकी उभार एवं चर्बीयुक्त सुगठित देह के ऐसे कटाव को कभी समझ न सका था. हमेशा अच्छे कपड़ों में रहने वाली सुचित्रा दिखने में हमेशा से ही प्यारी और सुसंस्कृत लगी है उसे; पर वास्तव में वह प्यारी होने के साथ साथ इतनी कामुक हो सकती है ये गोपाल ने कभी नहीं सोचा था |
और फ़िलहाल तो उसकी नज़रें निर्बाध टिकी हुई थी ब्लाउज कप्स से झाँकते सुचित्रा के दूधिया स्तनों के ऊपरी अंशों पर एवं झुके होने के कारण गहरी हो चुकी उस मस्त कर देने वाले क्लीवेज और क्लीवेज के ठीक सामने, गले से लटकता पानी चढ़ा सोने की चेन पर जो कदाचित उसका मंगलसूत्र भी है.
सुचित्रा ने हाथ से बर्तन को ज़रा सा झटका दिया और तब जा कर गोपाल की तंद्रा टूटी. वह बेचारा चोरी पकड़े जाने के डर से शरमा गया. आँखें नीची कर के जल्दी से अपने कैन को बंद किया और झट से उठ गया. सुचित्रा भी अब तक दुबारा दरवाज़े के पीछे आ गयी थी. गोपाल अपने दूध के बड़े से कैन को उठा कर जाने के लिए आगे बढ़ा ही था कि सुचित्रा बोली,
“सुनो, कल भी लगभग इसी समय आना... पर थोड़ा जल्दी करना.”
गोपाल ने सुचित्रा की ओर देखा नहीं पर सहमति में सिर हिलाया.
सुचित्रा मुस्करा पड़ी.
गोपाल तब तक दो कदम आगे बढ़ चुका था.. पर नज़रें उसकी तिरछी ही थीं... सुचित्रा के उस अनुपम रूप को जाते जाते अंतिम बार अपने आँखों में कैद कर लेना चाहता था.
और इसलिए सुचित्रा जब मुस्कराई तो वह नज़ारा भी गोपाल की आँखों कैद हो गई. ‘उफ्फ्फ़ क्या मुस्कान है... क्या मुस्कराती है यार! एक तो ऐसी अवस्था में, ऊपर से ऐसी कातिल मुस्कान...’ गोपाल पूरे रास्ते सुचित्रा के बारे में सोचता ही रहा. और सिर्फ़ रास्ता ही क्या, वह पूरा दिन सुचित्रा के बारे में सोचते हुए बीता दिया और रात में सुचित्रा के उस अनुपम सुगठित देह के बारे में सोच सोच कर स्वयं को तीन बार संतुष्ट करके सो गया.
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Re: Horror चामुंडी
२
रंजन बाबू सुबह आठ बजे ही घर से निकल जाते हैं... नदी के तट तक पहुँचने में पन्द्रह मिनट तो लगना तय है. फ़िर थोड़ी देर किसी नाव का इंतज़ार करते हैं. अक्सर ही कई नाव नदी किनारे ही मिल जाते हैं पर कई बार ऐसा भी होता है कि सवारियों की तादाद अनुमान से अधिक हो जाने पर नावों में भी तिल भर की जगह नहीं बचती और फ़िर सवार हो चुके सवारियों को नदी के दूसरी ओर छोड़ने के अलावा नाविकों के पास और कोई चारा नहीं रहता... और यही तो इन नाविकों का काम है... रोज़ी रोटी है.
हमेशा की तरह रंजन बाबू पहुंचे तो थे तट पर समय से; परन्तु आज तट पर एक भी नाव नहीं है.. कदाचित आज नदी के उस पार जाने वालों की संख्या बहुत अधिक रही होगी. कुल पन्द्रह नाव हैं जिनमें से ३ नाव मरम्मत के काम के कारण तीन दिन पानी में नहीं उतरेंगे. अब बाकी बचे बारह नाव में से एक भी नाव अभी यहाँ नहीं हैं. ‘उफ्फ्फ़... एक भी नाव नहीं है... पता नहीं कब तक वापस आएगी.. कहीं आज देर न हो जाए.’ रंजन बाबू ने सोचा. नदी के उस पार से इस पार आने में पन्द्रह से बीस मिनट लगते हैं और फ़िर वापस उस ओर जाने में भी उतना ही समय लगता है. यानि की करीब तीस से चालीस मिनट यूँ ही निकल जाते हैं इधर से उधर होने में.
रंजन बाबू ने अपने पैंट के जेब में रखे एक छोटा सा बीड़ी का बंडल निकाला. उसमेंसे एक बीड़ी निकाली और लाइटर जला कर सुलगाने ही वाले थे कि पीछे से किसी की पदचाप सुनाई दी.
जल्दी से पीछे देखा रंजन बाबू ने.
सुरेंद्रनाथ चला आ रहा है.
हाथ में एक थैली लिए..
सुरेंद्रनाथ जब तक पास आ कर खड़ा होता.. उतनी देर में रंजन बाबू ने बीड़ी सुलगा लिया.
सुरेंद्रनाथ पास आ कर कुशल क्षेम पूछता हुआ एक मतलबी मुस्कान मुस्कराया. रंजन बाबू इस मुस्कान का मतलब बहुत अच्छी तरह जानते थे.. जाने भी क्यों न.. आखिर सुरेंद्रनाथ के साथ उनका कोई आज का तो जान पहचान नहीं है. बचपन में साथ खेलते और पढ़ते थे.. कितनी ही शरारतें दोनों ने मिल कर की है. गाँव के लोग दोनों की जोड़ी को अटूट बोलते थें... पर जैसा की सबके साथ होता है.. समय कभी एक सा नहीं रहता.. सुरेंद्रनाथ का परिवार रंजन बाबू की तरह साधन संपन्न नहीं था.. वैसे कुछ खास तो रंजन बाबू का भी परिवार नहीं था पर सुरेंद्रनाथ के परिवार से थोड़ी बेहतर स्थिति में था.
आठवीं तक आते आते सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने साफ़ कह दिया की अब उनसे अकेले काम नहीं संभाला जाता.. बेहतर होगा अगर सुरेंद्रनाथ भी उनके काम में हाथ बंटाए. ‘स्कूल से आने के बाद थोड़ी देर काम करेगा.. फ़िर स्कूल की पढ़ाई भी कर लेगा.’ ऐसा कहा था सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने. पर सुरेंद्रनाथ और उनकी माता जी; दोनों जानते थे कि दोनों काम साथ कर पाना ज़्यादा दिन संभव नहीं होगा. शायद उनके पिताजी भी इस बात को समझते थे.. पर क्या करे... सुरेंद्रनाथ और उसके तीन छोटे भाई बहन और माँ बाप... छह लोगों का परिवार एक अकेले के कमाई से तो नहीं चल सकता न..
परिवार की अवस्था और पिताजी के कहा को सिर माथे ले सुरेंद्रनाथ भी जुट गए थे काम पर. हमेशा कुछ न कुछ करते रहते. जहाँ से भी हो, जितना भी हो; काम ज़रूर करते और जितना भी मिलता वो सब घर आ कर अपनी माताजी के हाथ रख देते. शुरू के कुछ महीने तो किसी तरह स्कूल और काम दोनों को अच्छे से संभाला पर जल्द ही उन्हें इस बात का अच्छे से आभास हो गया कि दोनों नावों पर दोनों पैर रख कर अधिक दिन सवारी नहीं हो सकती और अगर किसी तरह हो जाए तो वह अपने आप में एक बेईमानी होगी, मिथ्याचार होगा. पर काम तो छोड़ा नहीं जा सकता... अगर छोड़ दिया तो जो भी थोड़े बहुत पैसे अधिक आ रहे हैं वो तो छूटेगा ही... साथ ही स्थिति के और अधिक ख़राब होने में अधिक समय नहीं लगेगा.
अतः पढ़ाई छोड़ना ही एकमात्र उपाय सूझा.सो सुरेंद्रनाथ ने किया भी.
पन्द्रह साल गुज़र गए.... आज इनके खुद के पास रोज़मर्रा की ज़रूरतों वाली एक छोटी सी दुकान और दो नावें हैं. दुकान पर कभी सुरेंद्रनाथ स्वयं तो कभी उनकी धर्मपत्नी बैठती हैं और दोनों नाव सवारियों को नदी को पार करने के काम में आती हैं.
उन नावों के लिए गाँव के ही दो लड़कों को नाविक रखा हुआ है सुरेंद्रनाथ ने.
कुल मिलाकर सुरेंद्रनाथ के कर्मठता और सूझबूझ के कारण कमाई अच्छी होती है और घर की स्थिति भी काफ़ी सुधर गई है. पर एक बात जो आज तक सुरेंद्रनाथ में नहीं बदला है वो है उसका हर बात में ज़रुरत से ज़्यादा जिज्ञासु होना. जब तक किसी बात के तह तक न पहुँच जाए तब तक उसे शांति नहीं होती, चैन नहीं मिलता.
सुरेंद्रनाथ के इसी आदत की कुछ लोग प्रशंसा करते तो कई लोग बुराई करते नहीं थकते. कारण था, अपनी इसी जिज्ञासु प्रवृति के कारण कई बार सुरेंद्रनाथ का दूसरों की निजी ज़िंदगी और मामलों में व्यर्थ का टांग अड़ा देना.
बचपन का यार होने के नाते रंजन बाबू सुरेंद्रनाथ के इस आदत से बहुत भली प्रकार से परिचित थे... अतः वो सुरेंद्रनाथ से ऐसी किसी भी विषय पर बात करने से कतराते थे जो कहीं न कहीं आगे जा कर उनके व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन को लेकर सुरेंद्रनाथ के मन में संशय का बीज बो जाए और वो भी अपने प्रश्नों की प्यास के तृप्त न होने तक इधर उधर हाथ पाँव मारता रहे.
रंजन बाबू ने पॉकेट से बंडल को दुबारा निकाल कर एक बीड़ी निकाली और सुरेंद्रनाथ के हवाले कर दिया.
सुरेंद्रनाथ की मुस्कान और भी बड़ी हो गई.
रंजन बाबू सुबह आठ बजे ही घर से निकल जाते हैं... नदी के तट तक पहुँचने में पन्द्रह मिनट तो लगना तय है. फ़िर थोड़ी देर किसी नाव का इंतज़ार करते हैं. अक्सर ही कई नाव नदी किनारे ही मिल जाते हैं पर कई बार ऐसा भी होता है कि सवारियों की तादाद अनुमान से अधिक हो जाने पर नावों में भी तिल भर की जगह नहीं बचती और फ़िर सवार हो चुके सवारियों को नदी के दूसरी ओर छोड़ने के अलावा नाविकों के पास और कोई चारा नहीं रहता... और यही तो इन नाविकों का काम है... रोज़ी रोटी है.
हमेशा की तरह रंजन बाबू पहुंचे तो थे तट पर समय से; परन्तु आज तट पर एक भी नाव नहीं है.. कदाचित आज नदी के उस पार जाने वालों की संख्या बहुत अधिक रही होगी. कुल पन्द्रह नाव हैं जिनमें से ३ नाव मरम्मत के काम के कारण तीन दिन पानी में नहीं उतरेंगे. अब बाकी बचे बारह नाव में से एक भी नाव अभी यहाँ नहीं हैं. ‘उफ्फ्फ़... एक भी नाव नहीं है... पता नहीं कब तक वापस आएगी.. कहीं आज देर न हो जाए.’ रंजन बाबू ने सोचा. नदी के उस पार से इस पार आने में पन्द्रह से बीस मिनट लगते हैं और फ़िर वापस उस ओर जाने में भी उतना ही समय लगता है. यानि की करीब तीस से चालीस मिनट यूँ ही निकल जाते हैं इधर से उधर होने में.
रंजन बाबू ने अपने पैंट के जेब में रखे एक छोटा सा बीड़ी का बंडल निकाला. उसमेंसे एक बीड़ी निकाली और लाइटर जला कर सुलगाने ही वाले थे कि पीछे से किसी की पदचाप सुनाई दी.
जल्दी से पीछे देखा रंजन बाबू ने.
सुरेंद्रनाथ चला आ रहा है.
हाथ में एक थैली लिए..
सुरेंद्रनाथ जब तक पास आ कर खड़ा होता.. उतनी देर में रंजन बाबू ने बीड़ी सुलगा लिया.
सुरेंद्रनाथ पास आ कर कुशल क्षेम पूछता हुआ एक मतलबी मुस्कान मुस्कराया. रंजन बाबू इस मुस्कान का मतलब बहुत अच्छी तरह जानते थे.. जाने भी क्यों न.. आखिर सुरेंद्रनाथ के साथ उनका कोई आज का तो जान पहचान नहीं है. बचपन में साथ खेलते और पढ़ते थे.. कितनी ही शरारतें दोनों ने मिल कर की है. गाँव के लोग दोनों की जोड़ी को अटूट बोलते थें... पर जैसा की सबके साथ होता है.. समय कभी एक सा नहीं रहता.. सुरेंद्रनाथ का परिवार रंजन बाबू की तरह साधन संपन्न नहीं था.. वैसे कुछ खास तो रंजन बाबू का भी परिवार नहीं था पर सुरेंद्रनाथ के परिवार से थोड़ी बेहतर स्थिति में था.
आठवीं तक आते आते सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने साफ़ कह दिया की अब उनसे अकेले काम नहीं संभाला जाता.. बेहतर होगा अगर सुरेंद्रनाथ भी उनके काम में हाथ बंटाए. ‘स्कूल से आने के बाद थोड़ी देर काम करेगा.. फ़िर स्कूल की पढ़ाई भी कर लेगा.’ ऐसा कहा था सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने. पर सुरेंद्रनाथ और उनकी माता जी; दोनों जानते थे कि दोनों काम साथ कर पाना ज़्यादा दिन संभव नहीं होगा. शायद उनके पिताजी भी इस बात को समझते थे.. पर क्या करे... सुरेंद्रनाथ और उसके तीन छोटे भाई बहन और माँ बाप... छह लोगों का परिवार एक अकेले के कमाई से तो नहीं चल सकता न..
परिवार की अवस्था और पिताजी के कहा को सिर माथे ले सुरेंद्रनाथ भी जुट गए थे काम पर. हमेशा कुछ न कुछ करते रहते. जहाँ से भी हो, जितना भी हो; काम ज़रूर करते और जितना भी मिलता वो सब घर आ कर अपनी माताजी के हाथ रख देते. शुरू के कुछ महीने तो किसी तरह स्कूल और काम दोनों को अच्छे से संभाला पर जल्द ही उन्हें इस बात का अच्छे से आभास हो गया कि दोनों नावों पर दोनों पैर रख कर अधिक दिन सवारी नहीं हो सकती और अगर किसी तरह हो जाए तो वह अपने आप में एक बेईमानी होगी, मिथ्याचार होगा. पर काम तो छोड़ा नहीं जा सकता... अगर छोड़ दिया तो जो भी थोड़े बहुत पैसे अधिक आ रहे हैं वो तो छूटेगा ही... साथ ही स्थिति के और अधिक ख़राब होने में अधिक समय नहीं लगेगा.
अतः पढ़ाई छोड़ना ही एकमात्र उपाय सूझा.सो सुरेंद्रनाथ ने किया भी.
पन्द्रह साल गुज़र गए.... आज इनके खुद के पास रोज़मर्रा की ज़रूरतों वाली एक छोटी सी दुकान और दो नावें हैं. दुकान पर कभी सुरेंद्रनाथ स्वयं तो कभी उनकी धर्मपत्नी बैठती हैं और दोनों नाव सवारियों को नदी को पार करने के काम में आती हैं.
उन नावों के लिए गाँव के ही दो लड़कों को नाविक रखा हुआ है सुरेंद्रनाथ ने.
कुल मिलाकर सुरेंद्रनाथ के कर्मठता और सूझबूझ के कारण कमाई अच्छी होती है और घर की स्थिति भी काफ़ी सुधर गई है. पर एक बात जो आज तक सुरेंद्रनाथ में नहीं बदला है वो है उसका हर बात में ज़रुरत से ज़्यादा जिज्ञासु होना. जब तक किसी बात के तह तक न पहुँच जाए तब तक उसे शांति नहीं होती, चैन नहीं मिलता.
सुरेंद्रनाथ के इसी आदत की कुछ लोग प्रशंसा करते तो कई लोग बुराई करते नहीं थकते. कारण था, अपनी इसी जिज्ञासु प्रवृति के कारण कई बार सुरेंद्रनाथ का दूसरों की निजी ज़िंदगी और मामलों में व्यर्थ का टांग अड़ा देना.
बचपन का यार होने के नाते रंजन बाबू सुरेंद्रनाथ के इस आदत से बहुत भली प्रकार से परिचित थे... अतः वो सुरेंद्रनाथ से ऐसी किसी भी विषय पर बात करने से कतराते थे जो कहीं न कहीं आगे जा कर उनके व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन को लेकर सुरेंद्रनाथ के मन में संशय का बीज बो जाए और वो भी अपने प्रश्नों की प्यास के तृप्त न होने तक इधर उधर हाथ पाँव मारता रहे.
रंजन बाबू ने पॉकेट से बंडल को दुबारा निकाल कर एक बीड़ी निकाली और सुरेंद्रनाथ के हवाले कर दिया.
सुरेंद्रनाथ की मुस्कान और भी बड़ी हो गई.
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Re: Horror चामुंडी
सुबह सुबह ही किसी से मुफ्त का कुछ मिल जाए तो कदाचित हर किसी का मन प्रफुल्लित हो ही जाता है एवं मानव स्वभाव से ऐसा होना स्वाभाविक ही है.
अपने कुरते के जेब से एक छोटी माचिस की डिबिया निकालते हुए बीड़ी को होंठों के एक कोने में दबाए रख सुरेंद्रनाथ दबी आवाज़ में बोला,
“और... भई रंजन बाबू... सब कुशल मंगल?”
नदी की ओर देखते हुए रंजन बाबू बेफ़िक्री में धुआँ उड़ाते हुए बोले,
“हाँ सुरेंद्र... ऊपरवाले की दया से सब कुशल मंगल है.. अपनी सुनाओ... कैसी कट रही है ज़िंदगी..?”
बीड़ी सुलगाने के साथ ही एक अच्छे खासे परिमाण में धुआँ छोड़ता हुआ सुरेंद्रनाथ बोला,
“ज़िंदगी का क्या है रंजन... कैसी भी हो काटनी - गुजारनी तो पड़ती ही है. खैर, मेरे मामले में भी कह सकते हो कि ऊपरवाले की कृपा है.”
रंजन बाबू एक आत्मीयता वाली हल्की सी मुस्कान लिए बोले,
“बढ़िया... बहुत बढ़िया.”
“बार बार नदी की ओर क्या देख रहे हो रंजन... उस ओर जाना है क्या?... ओह, समझा समझा.. ऑफिस के लिए निकले हो.”
“हाँ. रोज़ इसी समय आता हूँ तट पर... हमेशा एक न एक नाव मिल ही जाती है... पर आज देखो... खड़े खड़े ही दस से पन्द्रह मिनट हो गए पर नाव एक भी नहीं दिखी.”
“अरे होता है ऐसा कभी कभी. थोड़ा और रुको.. आ जाएगी एक न एक. (थोड़ा रुक कर) ... तुम्हारा ऑफिस का समय थोड़ा और पहले होता तो मैं अपने नाव से ही तुम्हें नदी पार करवा देता... रोज़.”
एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए रंजन बाबू ने धीरे से कहा,
“आधे घंटे के बाद मेरी घरवाली भी इधर से ही जाएगी.”
रंजन बाबू के मुँह से ‘घरवाली’ शब्द सुनते ही सुरेंद्रनाथ पल भर के लिए बीड़ी पीना ही भूल गया. आँखों के सामने रंजन बाबू की ख़ूबसूरत लुगाई का खूबसूरत चेहरा और उसके समतल पेट की गोल नाभि छा गए.
सत्रह साल पहले जिस दिन रंजन बाबू की शादी हुई थी... सुरेंद्रनाथ भी कई बारातियों में से एक था... और उस दिन गाँव के कई बड़े बुजुर्गों को यह कहते सुना था कि ‘रंजनकी जैसी लुगाई बहुत किस्मत वालों को ही मिलती है.’
उस दिन तो सुरेंद्रनाथ ने ऐसी बातों को नार्मल समझ कर एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया था.. पर ‘बोउ भात’ अर्थात् रिसेप्शन के दिन रंजनके पारिवारिक नियमों के अंतर्गत जब सभी अतिथियों को उनके थाली में घर की नववधू थोड़ा थोड़ा कर भोजन परोस रही थी तब सुरेंद्रनाथ ने उस सुंदर से मुख को देखा था बहुत पास से... एक तो पहले से ही इतनी सुंदर और ऊपर से मेकअप ने रंजनकी दुल्हन को पूनम की चाँद से भी कहीं अधिक सुंदर बना दिया था. और फ़िर जब हवा के झोंके से दुल्हन का साड़ी पेट पर से थोड़ा हट गया था तब उस समतल, चिकने सपाट पेट पर वो सुंदर गोल गहरी नाभि तो बस; जैसे सुरेंद्रनाथ का साँस ही रुकवा दिया था.
किसी की नाभि तक भी इतनी सुंदर, नयनाभिराम हो सकती है ये उस दिन सुरेंद्रनाथ को पता चला था.
सबको थोड़ा थोड़ा कर परोसते हुए जब दुल्हन सुरेंद्रनाथ के सामने आई तब रंजनने ख़ुशी ख़ुशी अपनी दुल्हन का सुरेंद्रनाथ के साथ परिचय करवाया था... सुरेंद्रनाथ को अपने पति का बचपन का दोस्त जान कर दुल्हन ने होंठों पर एक बड़ी सी मुस्कान लिए हाथ जोड़ कर सुरेंद्रनाथ का अभिवादन की. सुरेंद्रनाथ ने भी हाथ जोड़ कर प्रत्युत्तर दिया. ऐसा करते समय उसका ध्यान दुल्हन के होंठों की ओर गया.. ‘आह!’ कर उठा उसका मन... होंठों के बीच से झाँकते दुल्हन के सफ़ेद दांत सफ़ेद मोतियों के भांति लग रहे थे.
उस दिन सुरेंद्रनाथ को इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था कि केवल यौनांग नहीं; अपितु कई और अंग भी ऐसे होते हैं जो अलग प्रकार के अथवा यौन सुख जैसा ही सुख दे सकते हैं.
“अरे वो देखो... एक नाव आ रही है!”
इस आवाज़ से सुरेंद्रनाथ का ध्यान टूटा.. रंजन बाबू की लुगाई के बारे में सोचते सोचते सुरेंद्रनाथ ऐसा खो गया था कि १-२ मिनट उसे लग गए अपने वास्तविक स्थिति को समझने में.
अपने बगल में रंजन बाबू को न पा कर जल्दी नज़रें दौड़ाई उसने.
देखा की रंजन बाबू ‘नाव आई नाव आई’ कहते हुए ख़ुशी से नदी की ओर भागे जा रहे हैं.
नाव में बैठना रंजनको बचपन से ही बहुत अच्छा लगता रहा है. नाव देखते ही रंजन बाबू ख़ुशी से उछलने नाचने लगते थे और आज भी यही कर रहे हैं.
रंजनकी इस हरकत को देख कर सुरेंद्रनाथ मुस्कराया.
पर तभी, क्षण भर में ही सुरेंद्रनाथ के होंठों पर से मुस्कान गायब हो गई...
‘अरे ये क्या... रंजनतो दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है! उस दिशा में...तो... उफ्फ्फ़...’
ज़्यादा न सोचा गया सुरेंद्रनाथ से.. ‘रंजन...ओ रंजन....’ चिल्लाते हुए रंजन बाबू के पीछे दौड़ पड़े सुरेंद्रनाथ.
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अपने कुरते के जेब से एक छोटी माचिस की डिबिया निकालते हुए बीड़ी को होंठों के एक कोने में दबाए रख सुरेंद्रनाथ दबी आवाज़ में बोला,
“और... भई रंजन बाबू... सब कुशल मंगल?”
नदी की ओर देखते हुए रंजन बाबू बेफ़िक्री में धुआँ उड़ाते हुए बोले,
“हाँ सुरेंद्र... ऊपरवाले की दया से सब कुशल मंगल है.. अपनी सुनाओ... कैसी कट रही है ज़िंदगी..?”
बीड़ी सुलगाने के साथ ही एक अच्छे खासे परिमाण में धुआँ छोड़ता हुआ सुरेंद्रनाथ बोला,
“ज़िंदगी का क्या है रंजन... कैसी भी हो काटनी - गुजारनी तो पड़ती ही है. खैर, मेरे मामले में भी कह सकते हो कि ऊपरवाले की कृपा है.”
रंजन बाबू एक आत्मीयता वाली हल्की सी मुस्कान लिए बोले,
“बढ़िया... बहुत बढ़िया.”
“बार बार नदी की ओर क्या देख रहे हो रंजन... उस ओर जाना है क्या?... ओह, समझा समझा.. ऑफिस के लिए निकले हो.”
“हाँ. रोज़ इसी समय आता हूँ तट पर... हमेशा एक न एक नाव मिल ही जाती है... पर आज देखो... खड़े खड़े ही दस से पन्द्रह मिनट हो गए पर नाव एक भी नहीं दिखी.”
“अरे होता है ऐसा कभी कभी. थोड़ा और रुको.. आ जाएगी एक न एक. (थोड़ा रुक कर) ... तुम्हारा ऑफिस का समय थोड़ा और पहले होता तो मैं अपने नाव से ही तुम्हें नदी पार करवा देता... रोज़.”
एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए रंजन बाबू ने धीरे से कहा,
“आधे घंटे के बाद मेरी घरवाली भी इधर से ही जाएगी.”
रंजन बाबू के मुँह से ‘घरवाली’ शब्द सुनते ही सुरेंद्रनाथ पल भर के लिए बीड़ी पीना ही भूल गया. आँखों के सामने रंजन बाबू की ख़ूबसूरत लुगाई का खूबसूरत चेहरा और उसके समतल पेट की गोल नाभि छा गए.
सत्रह साल पहले जिस दिन रंजन बाबू की शादी हुई थी... सुरेंद्रनाथ भी कई बारातियों में से एक था... और उस दिन गाँव के कई बड़े बुजुर्गों को यह कहते सुना था कि ‘रंजनकी जैसी लुगाई बहुत किस्मत वालों को ही मिलती है.’
उस दिन तो सुरेंद्रनाथ ने ऐसी बातों को नार्मल समझ कर एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया था.. पर ‘बोउ भात’ अर्थात् रिसेप्शन के दिन रंजनके पारिवारिक नियमों के अंतर्गत जब सभी अतिथियों को उनके थाली में घर की नववधू थोड़ा थोड़ा कर भोजन परोस रही थी तब सुरेंद्रनाथ ने उस सुंदर से मुख को देखा था बहुत पास से... एक तो पहले से ही इतनी सुंदर और ऊपर से मेकअप ने रंजनकी दुल्हन को पूनम की चाँद से भी कहीं अधिक सुंदर बना दिया था. और फ़िर जब हवा के झोंके से दुल्हन का साड़ी पेट पर से थोड़ा हट गया था तब उस समतल, चिकने सपाट पेट पर वो सुंदर गोल गहरी नाभि तो बस; जैसे सुरेंद्रनाथ का साँस ही रुकवा दिया था.
किसी की नाभि तक भी इतनी सुंदर, नयनाभिराम हो सकती है ये उस दिन सुरेंद्रनाथ को पता चला था.
सबको थोड़ा थोड़ा कर परोसते हुए जब दुल्हन सुरेंद्रनाथ के सामने आई तब रंजनने ख़ुशी ख़ुशी अपनी दुल्हन का सुरेंद्रनाथ के साथ परिचय करवाया था... सुरेंद्रनाथ को अपने पति का बचपन का दोस्त जान कर दुल्हन ने होंठों पर एक बड़ी सी मुस्कान लिए हाथ जोड़ कर सुरेंद्रनाथ का अभिवादन की. सुरेंद्रनाथ ने भी हाथ जोड़ कर प्रत्युत्तर दिया. ऐसा करते समय उसका ध्यान दुल्हन के होंठों की ओर गया.. ‘आह!’ कर उठा उसका मन... होंठों के बीच से झाँकते दुल्हन के सफ़ेद दांत सफ़ेद मोतियों के भांति लग रहे थे.
उस दिन सुरेंद्रनाथ को इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था कि केवल यौनांग नहीं; अपितु कई और अंग भी ऐसे होते हैं जो अलग प्रकार के अथवा यौन सुख जैसा ही सुख दे सकते हैं.
“अरे वो देखो... एक नाव आ रही है!”
इस आवाज़ से सुरेंद्रनाथ का ध्यान टूटा.. रंजन बाबू की लुगाई के बारे में सोचते सोचते सुरेंद्रनाथ ऐसा खो गया था कि १-२ मिनट उसे लग गए अपने वास्तविक स्थिति को समझने में.
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पर तभी, क्षण भर में ही सुरेंद्रनाथ के होंठों पर से मुस्कान गायब हो गई...
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
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मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror चामुंडी
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