Horror चामुंडी

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rajsharma
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Re: Horror चामुंडी

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चाय की अंतिम चुस्की लेकर कप को बेंच के नीचे रखा.. शर्ट के पॉकेट से एक मुड़ा हुआ पेपर निकाल कर उसमें से एक बीड़ी निकाल कर अपने दांतों के बीच दबाया और माचिस से सुलगाते हुए बोला,
“दरअसल बात है ही ऐसी जिसपे मैं आज भी यकीं नहीं कर पा रहा हूँ... और शायद तुम लोग भी नहीं कर पाओगे... पहले दिन दोनों को साथ जब सब्जी दुकानों की ओर जाते देखा तो मुझे कुछ अजीब नहीं लगा. दूसरे दिन भी मैंने दोनों को शम्भू जी के घर की ओर जाते देखा.. मुझे तब भी कुछ भी अजीब नहीं लगा. इसी तरह तीसरे दिन भी उन दोनों को मैंने देखा... साथ में... दोनों आपस में हँसते मुस्कराते हुए बातें करते जा रहे थे. तभी मेरा दिमाग ठनका... याद आया कि पिछले दो दिन भी ये दोनों इसी तरह आपस में हँसते मुस्कराते बातें करते हुए जा रहे थे. मेरा बदमाश मन ज़ोरों से मचलने लगा. मन अनजाने में ही गवाही देने लगा की कुछ तो गड़बड़ झाला है. उनसे थोड़ी दूरी बनाते हुए मैं भी उनके पीछे हो लिया. कुछ दूर चलने पर पाया की दोनों तो जंगल की ओर जा रहे हैं! उस भयावह भूतिया जंगल में! जहाँ शायद परिंदा भी मुश्किल से पर मारता होगा.. दिल बैठने लगा मेरा.. सोचा, अब आगे नहीं जाऊँ. पर दोनों क्या गुल खिलने वाले हैं ये जानने के लिए मन भी बहुत बेचैन हो रहा था.

अपने अंदर चल रही इस उथल पुथल को शांत करने के लिए मैंने एक बीड़ी निकाल लिया. दो तीन धुआं छोड़ने के बाद निश्चय किया कि आगे ज़रूर जाऊँगा. जब तक कुछ देखूँगा नहीं... तब तक मन शांत नहीं होगा मेरा.

अपने सामने देखा तो चौंक गया.. कुछ देर पहले जहाँ दोनों मेरे सामने ही थोड़ी दूरी पर आगे आगे चल रहे थे; अभी अचानक से इतनी ही देर में दोनों न जाने कहाँ गायब हो गए? मैं तुरंत दौड़ कर आगे गया और उन दोनों को ढूँढने लगा. पर दोनों मुझे कहीं नहीं मिले. मैं ऐसे ही हार मानने वालों में नहीं.. खोजबीन जारी रखा. मुझे लगता है करीब एक घंटे तक उन दोनों को ढूँढता रहा था मैं... अपने आस पास गौर किया तो डर गया. मैं घने जंगल में था! पता नहीं उन दोनों को ढूँढने के चक्कर में कब उस घने भूतिया जंगल के एकदम अंदर घुस गया था.. थक हार कर और अंदर ही अंदर डर से काँपता हुआ मैं एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गया. अपनी मूर्खता पर बड़ा क्रोध आ रहा था.. जहाँ मैं बैठा था; उससे कुछ दूरी पर सामने एक पुआल घर था.. ऊपर नीचे, आगे पीछे, पुआल ही पुआल... और स्थिति भी ऐसी कि उसे भी देख कर एक बार के लिए कोई भी डर जाए. अब भला ऐसे घने जंगल में पुआल से भरा और बना वीरान घर देख कर कौन न डरे...? घर नहीं बोल कर कुटिया कहना भी गलत नहीं होगा. अनमने भाव से ही गुस्से में एक पत्थर उठाया और सामने की ओर ज़ोर से फेंक दिया.

पत्थर सीधे पुआल के ढेर में जा गिरा.
और तभी एक हलचल हुई.

पुआलों के ढेर से जतिंद्र उठ बैठा और इधर उधर देखने लगा. मैं जल्दी से उस पेड़ के ओट में आ गया. जतिंद्र पत्थर फेंकने वाले को देखने की कोशिश कर ही रहा था कि एक जनाना हाथ उसका हाथ पकड़ के नीचे की ओर खींचा और जतिंद्र वापस उन ढेरों पर जा गिरा. फ़िर से मुझे उस ओर चलने वाली गतिविधियाँ दिखनी बंद हो गई थी इसलिए मैं पेड़ पर चढ़ गया ये सोच कर की शायद ऊँचाई से कुछ दिख जाए.

पेड़ पर चढ़ कर मैंने उस ओर देखा... और जो देखा उस पे विश्वास नहीं हुआ.

जतिंद्र पुआल के ढेरों पर लेटा हुआ है और सुचित्रा भाभी उसके कमर पर बैठी हुई ऊपर नीचे हो रही है. साड़ी पेटीकोट जांघ तक उठा हुआ था. आँचल भी शायद नीचे गिरा हुआ था.

जतिंद्र के होंठों पर मुस्कान और चेहरे पर तृप्ति के भाव थे.

थोड़ा और अच्छे से देखने के लिए मैं एक डाली पर आगे बढ़ कर पैर रखा ही था की वह डाली टूट गई. टूटने से जो आवाज़ हुई वो उन दोनों के कानों तक तो नहीं पहुँचना चाहिए था पर एक क्षण के लिए भाभी रुक ज़रूर गई थी और बैठे बैठे ही, ऊपर नीचे होते होते मेरी दिशा की ओर देखी... बड़ी अजीब ढंग से देख रही थी... हाँ, नज़र उनका कहीं और था... पेड़ पर नहीं. बस एक ही बार इधर उधर देख लेने के बाद भाभी फ़िर जतिंद्र की ओर मुड़ गई.

मुझे वहाँ से निकल जाने लायक यही सही समय उचित जान पड़ा और मैंने वही किया भी.

चुपचाप पेड़ से उतरा और सरपट गाँव की ओर जाने वाले रास्ते की ओर दौड़ पड़ा. भूल कर भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.”

पूरी बात कहने के बाद कालू चुप हुआ. एक गहरी साँस लिया और एक और चाय मँगवाया.
गोपाल और अजोय को काटो तो खून नहीं.

डर तो नहीं पर घोर अविश्वसनीय लगा ये घटना उन दोनों को. ऐसा कुछ पहली बार सुना था गोपाल और अजोय ने इसलिए आगे क्या कहे दोनों को समझ में नहीं आ रहा था. दोनों ही भाभी को बहुत मानते थे. एक अच्छी संस्कारी बहु और शिक्षिका के रूप में काफ़ी अच्छी पहचान और सम्मान है सुचित्रा भाभी का इस गाँव में. ऐसी चरित्रहीनता वाली चीज़ें करना तो दूर शायद सोचती तक नहीं होंगी वो.

गोपाल ने दबे स्वर में पूछा,
“भाई.. तू बिल्कुल पक्का है न... कि वो सुचित्रा भाभी ही थी?”

“अरे हाँ भाई हाँ... उनके पीछे उस दिन करीब २ घंटे बीत गए थे मेरे... उन दो घंटे तक मुझे ये पता नहीं चलेगा क्या की मैं किसे देख रहा हूँ और किसे नहीं?” कालू ने बीड़ी बुझाते हुए कहा.

इस पे गोपाल शांत रहा. शायद कुछ और ही सोचने लगा वो.

अजोय ने चिंतित स्वर में कहा,
“यार कालू, क्या जतिंद्र की मृत्यु में सुचित्रा भाभी का कोई सम्बन्ध .... हो सकता है?”

“लगता तो नहीं पर....”

“पर क्या?”

“जो कुछ अविश्वसनीय सा देखा... उसके बाद किसी तरह की बात या घटना पे विश्वास करना या संदेह होना कोई बड़ी बात नहीं. इसलिए मैंने सोचा है कि जब तक जतिंद्र की मृत्यु की गुत्थी सुलझ नहीं जाती तब तक मैं भाभी पे नज़र रखूँगा. अकेले.”


ये सुनकर गोपाल और अजोय चौंक गए.\

एक साथ ही बोले,
“अबे क्या बात कर रहा है? पागल हो गया है क्या? भाभी के पीछे लगेगा? किसी ने देख लिया तो? मान ले भाभी को ही पता चल गया तो? क्या सोचेगी वो? शोर मचा कर तुझे पकड़वा देगी और फ़िर गाँव वालों के हाथों भरपेट मार खिलवाएगी.”

कालू हँसा...
बोला,
“अबे निश्चिन्त रहो बे अक्ल के अंधों... मेरा नाम कालू है कालू...हर काम पर्फेक्ट्ली करता हूँ. टेंशन न लो. समझे?”

कोई कुछ न बोला.
दुकान के मालिक घोष काका को शायद कालू के अंतिम तीन चार वाक्य सुनाई दे गए थे. उन तीनों की ओर मुड़ कर कुछ बोलने के लिए मुँह खोला ही था कि चार ग्राहक और आ गए. काका उसी तरफ़ व्यस्त हो गए और पल भर में ही कालू की बातों को भूल गए.

इधर कुछ देर शांत बैठे रहने के बाद तीनों दूसरे विषयों पर बात करते हुए हंसी मजाक में रम गए.

चाय पर चाय चलता रहा.

परन्तु तीनों को ही ये नहीं पता था की उनसे कुछ दूरी पर ज़मीन से दो फूट ऊँची.. हवा में स्थिर एक काला साया उन तीनों की बातें सुन रही थी ... चेहरे पर निष्ठुरता... होंठों पर मुस्कान और आँखें चमकती हुईं!
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
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मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror चामुंडी

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सुबह जब कालू सो के उठा तो उसे अपने सीने पर हल्का चुभता हुआ दर्द महसूस हुआ. एक टीस सी... जलन महसूस हो रही थी.
अपने सीने की ओर देखते ही वो चौंका. वहाँ तीन लकीर सी खरोंचें थीं जो सीने के दाएँ ओर से शुरू हो कर सीने के बाएँ तरफ़ तक गई थी. कालू बुरी तरह डर गया. वो जल्दी से एक छोटा आइना लेकर अपने सीने पर हुए उस घाव को देखने लगा.
सीने के जिस जगह वो तीन खरोंचें थीं.. उसके आस पास के जगह में सूजन आ गई थी.
कालू को बहुत आश्चर्य हुआ.
आश्चर्य होना स्वाभाविक भी है क्योंकि रात को सोते समय तो ऐसा कुछ नहीं था उसके सीने पर... और फ़िर सीना ही क्या पूरे शरीर में इस तरह का कोई दाग कोई निशान नहीं था.
सीने पर उभर आईं उन तीन खरोंचों के बारे में सोच ही रहा था कि अचानक से उसे पिछली शाम उस चाय दुकान में अजोय और गोपाल के साथ हुई अपनी दीर्घ वार्तालाप याद आ गई.
और साथ ही याद आई उस वार्तालाप का प्रमुख विषय... ‘सुचित्रा और जतिंद्र!’...
हालाँकि और भी कई सारी बातें हुईं थीं उन तीन दोस्तों में पर जैसे ही ‘सुचित्रा भाभी और जतिंद्र की मृत्यु’ से संबंधित हुई वार्तालाप वाला अंश उसे याद आया; पता नहीं क्यों कालू के पूरे शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ गई.
अनायास ही उसे एक अपरिचित से भय का अनुभव होने लगा.
उसका मन इस संदेह का गवाही देने लगा की हो न हो, इन खरोंचों का सम्बन्ध कहीं न कहीं जतिंद्र की मृत्यु से हो सकती है... या फ़िर शायद साँझ के समय ऐसी विषयों पर बात करने के फलस्वरुप कोई बुरी शक्ति उन लोगों के तरफ़ आकर्षित हो गई होगी और उचित समय मिलते ही चोट पहुँचा दी.
कालू अब बहुत बुरी तरह घबराने लगा.
घरवालों से अपनी घबराहट किसी प्रकार छुपाते हुए नित्य क्रिया कर्म से फ़ौरन निवृत हो, नहा धो कर तैयार हो, चाय नाश्ता खत्म करके दुकान खोलने के नाम पर जल्दी से घर से निकल गया.
तेज़ कदमों से चलता हुआ कालू अजोय के घर पहुँचा..
अजोय हमेशा से ही सूरज उगने के पहले ही उठ जाने का आदि था और इसलिए जब कालू उसके घर पहुँचा तो वो उसे जगा हुआ ही मिला.
कालू ने अपने साथ हुई घटना को बताया और प्रमाण हेतु अपना टी शर्ट उतार कर खरोंचों को दिखाया. अजोय को भी विश्वास नहीं हुआ... आम तौर पर इस तरह के खरोंच गिरने से या किसी नुकीली चीज़ के शरीर पर रगड़ जाने से नहीं बनते हैं. सीने पर दाएँ से बाएँ तक बनी ये खरोंच देखने में ही अजीब सी हैं और इनमें तो अब सूजन भी है. अजोय को एकदम से कुछ समझ में नहीं आया की वो बोले तो क्या बोले. पर कालू के मन में बहुत सारी जिज्ञासाओं का जन्म होने लगा था... और ये जिज्ञासाएँ कालू से ही शांत हो जाए ऐसा अकेले उसके बस की बात नहीं.
इसलिए प्रश्न करने की पहल उसी ने करने की सोची,
“अजोय... क्या लगता है यार?”
अजोय अब भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था... वो तो हतप्रभ सा बस उन्हीं खरोंचों को देखे जा रहा था. कालू के दोबारा पूछने पर कहा,
“पता नहीं यार. मुझे ठीक से कुछ समझ में नहीं आ रहा है.”
“बिल्कुल भी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है?”
“नहीं!”
“पर मैं कुछ कुछ समझ रहा हूँ.”
कहते हुए कालू का चेहरा डरा हुआ सा हो गया.. आँखें भी उसकी भय से पथराई सी लगने लगी. कालू की ये स्थिति देख कर अजोय उत्सुकता और जिज्ञासा से भर गया.
कुछ क्षण उसकी तरफ़ अपलक देखता रहा और जब रहा नहीं गया तब बोल उठा,
“अबे बोल न.. क्या समझ में आ रहा है तेरे को?”
कालू तुरंत कुछ न बोला.
बेचारा बुरी तरह डरा और घबराया हुआ था. थूक निगला.. आस पास देखा... सामने टेबल पर पानी का बोतल रखा हुआ था. लपक कर बोतल उठा लिया और गटागट पूरा पानी पी गया. अजोय इसे गंभीर मामला मानते हुए जल्दी से उसे अपने गद्देदार बिस्तर पर बिठाया और स्टोव पर रखी केतली को हल्के आंच में गर्म कर एक कप में चाय परोस कर कालू की ओर बढ़ाया.
कप लेने से पहले कालू एक क्षण ठिठका.. फ़िर हाथ बढ़ा कर कप ले कर थोड़ा थोड़ा फूँक कर पीने लगा. इतने देर में अजोय ने दो बिस्कुट भी बढ़ा दिया था कालू की तरफ़.
पाँच मिनट बाद,
“हाँ भई, अब बोल... तू क्या कह रहा था उस समय... क्या समझ रहा था तू?”
कालू को अब थोड़ा नार्मल देख कर अजोय ने पूछने में समय नहीं गँवाया.
कालू ने अजोय की तरफ़ देखा, एक गहरी साँस लिया और बोलने लगा,
“यार क्या बताऊँ.. तुझे याद है न .. कल शाम हम तीन, मैं, तू और गोपाल; चाय दुकान में थे... और कई सारी बातें हो रही थी हमारे बीच. बहुत सी बातों के बीच हमने; खास कर मैंने सुचित्रा भाभी को लेकर कुछ बातें की थीं?”
“हाँ भाई, याद है.. ऐसी कुछ बातें हुई तो थी हमारे बीच... क्यों... क्या हुआ?”
“यार... सुचित्रा भाभी और जतिंद्र के जंगल वाली घटना को बताने के बाद से ही न जाने क्यों मुझे ऐसा लगने लगा था कि हम तीनों की बातों को हमारे अलावा कोई और भी सुन रहा था...या... या शायद ..... खैर, पहले तो मुझे लगा कि दुकान मालिक घोष काका हमारी बातें सुन रहे हैं पर मैंने गौर किया... ऐसा नहीं था.. वो ग्राहकों के साथ व्यस्त थे.. फ़िर पता नहीं.. क्यों मुझे लगने लगा की जो हमारी बातें सुन रहा है.. वो शायद सामने नहीं आना चाहता... या दिख नहीं सकता... या उसे मैं चाह कर भी नहीं देख सकता.... म.. मैं....”
“अबे... रुक ...रुक भाई ..रुक.. क्या अनाप शनाप बक रहा है...? सामने आ नहीं सकता.. दिख नहीं सकता... तू देख नहीं सकता.... साले मुझे गधा समझा है क्या... या एकदम भोर में एक बोतल चढ़ा लिया?”
“अरे नहीं यार... मैं... मैं.. पता.. नहीं कैसे समझाऊँ.. यार... म....”
अजोय ने फ़िर कालू की बात को बीच में काटते हुए बोला,
“सुन भाई... तू अभी ठीक से सोच नहीं रहा है.. तू अंदर से डरा और हिला हुआ है... घर जा.. दवाई लगा... आराम कर.. आज दुकान मत जा... समझा? मुझे देर हो रही है.. समय से पहले दुकान खोलना होता है मेरे को... नहीं तो न जाने कितने ग्राहक लौट जाएँगे... शाम को मिल.. चाय दुकान पे.. वहीँ बात करते हैं.. ठीक है?”
कालू बेचारा और क्या बोले...
अजोय तैयार हुआ.. कालू उसी के साथ घर से निकल गया.
कोई बीस – पच्चीस कदम आगे चल कर अजोय को दाएँ मुड़ जाना था जबकि कालू को वहीँ से बाएँ मुड़ कर अपने घर की ओर जाना था. इसलिए थोड़ी दूर तक दोनों साथ साथ चले. जब तक साथ चले; अजोय कालू को हिम्मत देता रहा, मन बहलाता रहा. कालू को भी थोड़ा अच्छा लग रहा था. मोड़ के पास पहुँच कर अजोय कालू से विदा लिया और चल दिया अपने गन्तव्य की ओर.
कालू भी सोचता विचारता अपने घर की ओर जाने लगा. सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि अजोय के बहुत तरह से समझाने के कारण कालू के मन से डर बहुत हद तक दूर हो गया था. वो अब नार्मल फ़ील करने लगा था.
लेकिन सीने पर लगे खरोंचों के निशान अभी भी दर्द कर रहे थे. अजोय के साथ होती बातों के बीच कालू तो इस दर्द को लगभग भूल ही चुका था पर अब अकेला होते ही दर्द ने अपनी ओर उसका ध्यान खींचना आरंभ कर दिया.
डर तो निकल चुका था उसके दिल और दिमाग से पर ये खरोंच लगे कैसे यही सोचता हुआ कालू तनिक तेज़ी से आगे बढ़ता जा रहा था. वैसे भी अजोय के घर जा कर कुछ देर ठहरने और अब आते आते बहुत समय निकल गया है. अतः अपनी चाल में तेज़ी लाना तो स्वाभाविक ही है.
अचानक वो किसी से ज़ोर से टकराया.
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एक महिला की ‘आआऊऊऊ...’ आवाज़ से कालू अपनी विचारों के दुनिया से बाहर आया. हालाँकि इतना वो समझ चुका था कि वो अभी अभी जिससे टकराया है वो.. और कालू खुद एक दूसरे के विपरीत दिशा में गिर चुके हैं.
कालू झटपट उठ कर इधर उधर देखा.
दूर से आती एक रिक्शा के अलावा आस पास कोई नहीं था.
कालू अब नीचे गिर पड़े व्यक्ति की ओर देखा....
अरे ये क्या?!
ये तो सुचित्रा भाभी हैं..!!
सुचित्रा अब तक उठ कर बैठ चुकी थी.. अपने हाथों और कोहनियों को झाड़ रही थी. वाकई काफ़ी धूल लग गया था उनके कपड़ों और हाथों पर. बाएँ कोहनी के पास तो थोड़ा छिल भी गया है.
खीझ भरे स्वर में डांटते हुए बोली,
“आँखें क्या केवल लोगों को दिखाने के लिए है? देख कर नहीं चल सकते क्या? कम से कम सही जगह तो नज़र होनी चाहिए! रास्ते केवल खुद के चलने के लिए नहीं होते.”
इसी तरह न जाने और कितना ही कुछ कहती चली गई सुचित्रा.
पर कालू का ध्यान अब तक उठ बैठी सुचित्रा भाभी द्वारा उनके थैली से गिर पड़े सामानों को एक एक कर के डालते समय आगे की ओर थोड़ा झुके होने के कारण वक्षों के उभार पर थी.
सामान थैले में डालने के उपक्रम में ही सुचित्रा का आँचल थोड़ा और साइड हुआ और अब आसमानी रंग के शार्ट स्लीव ब्लाउज के बड़े गले से झाँकते बाहर आने को तत्पर उनका दायाँ स्तन किसी भरे हुए बड़े से गोल फल की तरह लग रहा था और गले की सोने की पानी चढ़ी चेन तो जैसे उस लंबी क्लीवेज की गहराईयों में कहीं फँस गई थी शायद.
कालू तो जैसे पलक झपकाना ही भूल गया.
जीवन में ऐसा दृश्य आज से पहले कभी नहीं देखा था उसने. एक स्त्री का अर्ध नग्न स्तन इस तरह से किसी का मन भ्रमित कर सकता है, मोह सकता है ये आज उसने पहली बार अनुभव किया. ब्लाउज कप से फूल कर उठे हुए स्तन ही नहीं अपितु बाहर निकल आई करीब पाँच इंच लंबी क्लीवेज भी रह रह कर कालू की दिल की धड़कन को किसी हाई स्पीड ट्रेन की तरह दौड़ा दे रही थी.
कालू को पहली बार नारी देह की महत्ता का पता चला. नारी देह की शक्ति, क्षमता, सामर्थ्य और सुंदरता, उसकी वैभवता... मानो ईश्वर ने सभी सर्ववांछित गुण एक देह में ही डाल दिया है.
सभी सामान थैले में डाल लेने के बाद सुचित्रा भाभी उठी..
उठ कर कालू को कुछ कहने जा रही थी कि ठिठक गई... कालू की नज़रें अब भी सुचित्रा भाभी की वक्षों की ओर था... सुध बुध खोया हुआ सा सुचित्रा के शारीरिक कटावों और सौन्दर्य को देखे जा रहा था... सुचित्रा दो मिनट के लिए रुक गई... सोची, ‘देखूँ ज़रा.. कब तक.. कहाँ कहाँ ... और क्या क्या देखता है...?’ पर वो जानती थी कि हर किसी के तरह ही कालू भी उसके पूरे शरीर पे केवल एक ही जगह पूरा ध्यान केन्द्रित करेगा और वाकई में ऐसा हुआ भी.
हाथों और कोहनियों पर लगे चोट को भूल सुचित्रा अपने चेहरे पर गर्वीली मुस्कान की एक आभा लिए कालू को उसके इस प्रकार के व्यवहार और रास्ते में यूँ ऐसे चलने पर थोड़ा झिड़की और अब तक पास आ चुकी रिक्शा वाले को रुकवा कर उसपे सवार हो कर अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गई.
पीछे कालू अब भी रास्ते पर उसी जगह खड़ा हो कर धीरे धीरे दूर होती जा रही रिक्शे पर बैठी सुचित्रा को देख रहा था.
पूरे दिन बेचारे कालू का ज़रा भी मन न लगा कहीं.
घर लौटने के थोड़ी ही देर बाद दुकान पर गया तो ज़रूर.. पर दिमाग अब भी सुचित्रा के क्लीवेज पर अटका पड़ा था. आज पहली बार एक महिला, एक भाभी के यौवन रस को एक ज़रा चखने का मन कर रहा था उसका. रह रह कर उसके आँखों के सामने सुचित्रा का गुब्बारे जैसा फूल कर ऊपर उठे हुए दाएँ चूची का नज़ारा छा जाता. दिन भर बीच बीच में मन करने पर दुकान से बाहर निकल कर पीछे झाड़ियों की ओर जाता और झाड़ियों में ही थोड़ा अंदर घुस कर अपना पैंट उतार कर काले लिंग को बाहर निकाल कर बेरहमी के साथ मसल मसल कर हस्तमैथुन करता.
शाम को अपने दोस्तों से मिलने घोष काका के चाय दुकान पर भी नहीं गया.
मन बेचैन था.. रह रह कर मन में एक हुक सी लगती... कुछ पाने की चाह उसके कोमल हृदय पर एक ज़ोर का प्रहार करती... पर वो अपने मन को समझाते हुए अपना काम करता रहा.
मन ही मन सोच लिया था कि आज उसे हर हाल में ममता के पास जाना ही होगा.
ममता गाँव की ही एक मनचली लड़की थी जिसपे कालू का दिल आ गया था.
पिछले कई महीनों से नैन मटक्का के बाद कुछ ही दिन पहले दोनों पहली बार एक दूसरे के करीब... बहुत करीब आये थे. हालाँकि सहवास होते होते रह गया था.. पर उस दिन ऊपर ही ऊपर जो आनंद मिला था कालू को उसे वो भूले से भी भूल नहीं पाया था. दोनों ने एक दूसरे से वादा भी किया था कि जल्द ही एक दिन दोनों सब कुछ नज़रअंदाज़ कर के एक सुखद समागम करेंगे. अपने पहले संसर्ग को कुछ ऐसा करेंगे की वह ताउम्र यादगार बन जाए.
जल्दी से काम निपटा कर कालू दुकान बढ़ाया (बंद किया) और ममता की घर के रास्ते चल पड़ा. सुबह सुचित्रा को देखने के बाद से ही उसके दिमाग में सहवास के कीड़े उछल कूद कर रहे थे. इसलिए उसका इस बात पे जल्दी ध्यान नहीं गया कि आज उसे लौटने में काफ़ी देर हो गई है. और दिनों में संध्या सात होते होते दुकान बढ़ा दिया करता है और कभी कभी तो छह बजने से पहले ही दुकान बढ़ा कर दोस्तों के साथ चाय दुकान में गप्पे शप्पे हांका करता.. और फ़िर घर लौटते लौटते नौ बज जाते.पर आज तो साढ़े आठ यहीं बज गए.
वह तेज़ क़दमों से ममता के घर की ओर बढ़ा जा रहा था. चाहे कुछ भी हो जाए... चाहे सहवास न हो... पर थोड़ी शांति तो आज उसे चाहिए ही. ममता का कमरा घर के पीछे तरफ़ था जहाँ वो आराम से जा सकता है और उतने ही आराम से ममता के कमरे में घुस सकता है. उसके माँ बाप और बूढ़ी दादी उसके कमरे में जल्दी नहीं आते. कुछ कहना होता तो बाहर से आवाज़ देते या दरवाज़ा खटखटाते. इसलिए सहवास के संभावना तो बनती ही बनती है.. और कुछ नहीं तो ऊपर ऊपर से ही मज़े ले लेगा. वो भी तो कितना तरसती है उसके आलिंगन के लिए. होंठों पर भी चुम्मा लिया जाता है ये तो उसे पता ही नहीं था. ये भी ममता ने ही उसे कर के दिखाया था. ‘आहा! सच में. कितना मज़ा आता है न... खास कर संतरे जैसे कोमल नर्म ताज़े उगे स्तनों को कस कर मुट्ठियों में भींच कर गोल गोल घूमाते हुए मसलने में तो एक अलग ही आनंद है.’ मन ही मन ऐसा सोचता चहकता हुआ कालू बढ़ा चला जा रहा था ममता के घर.
अभी मुश्किल से कोई आधा किलोमीटर दूर होगा वो ममता के घर से कि अचानक उसे लगा की उसने कुछ सुना.
वो फ़ौरन पलट कर पीछे घूम कर देखा.
रात के अँधेरे में जहाँ तक और जितना स्पष्ट देखा जा सकता है... देखा.
नहीं... कहीं कुछ नहीं.
‘तो फ़िर... वो आवाज़... कहीं भ्रम तो नहीं? शायद सुनने में गलती हुई है.’
कुछ कदम और चलने पर फिर वैसी ही एक आवाज़.
कालू फिर रुका...
इधर उधर देखा..
पीछे मुड़ कर भी देखा.
पर कहीं कुछ नहीं दिखा. दूर दूर तक कोई इन्सान तो छोड़िये; परिंदा तक नहीं था.
सन्नाटा गहरा रहा था.
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Re: Horror चामुंडी

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इस गाँव में आठ बजते बजते सब अपना अपना दुकानदारी वगैरह निपटा कर अपने घरों की ओर प्रस्थान करने के लिए प्रस्तुत होने लगते हैं. साढ़े आठ या पौने नौ होते होते अधिकांश घरों के दरवाज़े बंद हो जाते हैं और कई के घरों के तो लालटेन, मोमबत्ती, बल्ब इत्यादि बुझ जाते हैं. कुछ आवारा मवाली टाइप लड़के और पियक्कड़ प्रौढ़ ही जगह जगह रास्तों में मिल जाते हैं. वो भी हर रात नहीं.
आज की रात भी शायद ऐसी ही एक रात है.
कालू आगे बढ़ने के लिए जैसे ही अपना दायाँ कदम उठाया; वही आवाज़ फिर सुनाई दी.
वो सिहर उठा. ममता से मिलने के रोमांच के जगह अब धीरे धीरे डर अपना घर करने लगा उसके मन में.
अब भला रात के ऐसे माहौल में किसे डर न लगे.
डरते डरते किसी तरह कदम आगे बढ़ाया.. अब कोई आवाज़ नहीं... वो अब पहले से थोड़ा तेज़ गति में चलने लगा. पर रह रह कर उसके टांग काँप उठते. वो लड़खड़ा जाता. खुद को स्थिर करने के लिए उसने अपने कमीज़ की पॉकेट से माचिस और एक बीड़ी निकाल लिया. जलाने लगा. पर तीली जली नहीं. फिर कोशिश किया.. फिर नाकाम रहा. उसने गौर किया; उसके हाथ कांप रहे हैं.
दो बार और कोशिश किया उसने. तीसरी बार में सफल रहा.
बीड़ी फूँकते हुए कुछ कदम आगे बढ़ा कि फिर वही आवाज़. पर इस बार वो आवाज़ को पहचान गया. पायल की आवाज़ थी!
और इस बार तुरंत ही एक और आवाज़ भी सुनाई दिया जो स्पष्टतः एक महिला की थी.
कालू एक झटके में पीछे घूमा... और पीछे जिसे देखा उसे अभी इस समय देखने की उसने कल्पना तक नहीं की थी.
घोर आश्चर्य में बरबस ही उसके मुँह से निकला,
“अरे भाभी जी... आप??!!”
सुचित्रा ही खड़ी थी..!
बड़ी ही अदा से मुस्कराई. आँखें तो ऐसी लग रही थी मानो पूरा एक बोतल गटक कर आई हो... नशा ही नशा छाया था उन आँखों में. करीने से काजल लगा हुआ. होंठों पर बड़ी खूबसूरती से लगी लाल लिपस्टिक. पहले कभी गौर किया नहीं पर आज देखा की निचले होंठ के बायीं तरफ एक बहुत ही छोटा सा तिल भी है. बालों को भी बिल्कुल अलग ही अंदाज़ में कंघी की हुई है उसने. खोपा में एक छोटा सा लाल गुलाब खोंसा हुआ. सामने चेहरे पर दोनों साइड से दो लटें लटकी हुईं.
कालू की नज़रें अब नीचे फिसली.
लाल रंग की शोर्ट स्लीव ब्लाउज.. लाल साड़ी जिसे बहुत कस कर लपेटा गया है बदन पर... आँचल दाएँ वक्ष पर से हट कर पूरी तरह से बाएँ पर है. इससे उस टाइट ब्लाउज में उसके भरे स्तन और भी फूल कर ऊपर को उठे हुए दिख रहे हैं. सोने की चेन बिना रौशनी पाए ही चमचम कर रही है... और सुबह की ही तरह ब्लाउज से ऊपर निकल आए उस लम्बे क्लीवेज के अंदर घुसी हुई है. ब्लाउज के पहले दो हुक आपस में ऐसे लगे हुए हैं मानो थोड़ा और दबाव पड़ते ही टूट जाएँगे. दोनों हाथों में लाल चूड़ियाँ और बंगाली औरतों के हाथों में पहनी जाने वाली सफ़ेद शाखा चूड़ी भी है.
साड़ी कमर पे पीछे से अच्छे से लिपटी हुई पर आगे आते आते नीचे की ओर झुक गई है. इससे नाभि स्पष्ट दिख रही है. कमर पर भी एक सोने की कमरबंद है जोकि गले की चेन की ही तरह बिना किसी रौशनी के चमक रही है.
कालू को तो रत्ती भर का विश्वास नहीं हो रहा कि जिसे पूरा गाँव एक शालीन वधू और सुशिक्षित शिक्षिका के रूप में जानता है; वो आज, अभी उसके सामने एक खेली खिलाई औरत की भांति इतराते हुए खड़ी है!
बहुत मुश्किल कालू के मुँह से शब्द निकले,
“भाभी.. आप.. इस...इस समय... यहाँ.... क्यों?”
सुचित्रा हँसी... उसकी वो हँसी वहां गूँजती हुई सी प्रतीत हुई,
“हाहाहा... क्यों कालू... मैं आ नहीं सकती क्या?”
कहते हुए अपना मुँह एक रुआँसे बच्चे के जैसे बना ली.
कालू के मुँह से शब्दों ने जैसे न निकलने की ठान ली हो. डर तो उसे ज़रूर लग रहा था और अब भी लग रहा है पर अब डर के साथ साथ कामोत्तेजना भी हावी होने लगी है.
कालू की नज़रें एक बार फिर सुचित्रा की काजल लगी आँखों से होते धीरे धीरे उसके लाल होंठ और फिर वहाँ से सीधे ब्लाउज कप्स में समाने से मना करते ऊपर की ओर निकल आए स्तनों और उनके बीच की गहरी घाटी में जा कर रुक गई. कुछ क्षण अच्छे से देखने के बाद उसने जल्दी से एक नज़र सुचित्रा की गोल गहरी नाभि और थोड़ा नीचे बंधे कमर के कटाव की महत्ता बढ़ाती कमरबंद पर डाली.
बेचारा बुरी तरह कंफ्यूज होने लगा कि जी भर कर क्या देखे....
रसीले, फूले हुए स्तनों और बीच की घाटी को.... या फिर गहरी नाभि और कमर को?
सुचित्रा इठलाती, मुस्कराती हुई तीन कदम चल कर कालू के और पास आई. उसकी आँखों में देखते हुए खनकती आवाज़ में बोली,
“सुनो.. मेरा एक बहुत ज़रूरी काम है.... कर दोगे?”
सुचित्रा के ये शब्द कालू के कानों में कोयल की मधुर आवाज़ सी सुनाई दी. कालू मन ही मन एक बार फिर ऐसा ही कुछ सुनने को मतवाला होने लगा. वो अपनी इस आदरणीय आकर्षणीय भाभी से ऐसी ही खनकती आवाज़ को फिर से सुनाने के लिए विनती करने की सोचने लगा. पर बेचारा सोच भी कहाँ पा रहा था... सुचित्रा उसके इतने करीब आ गई थी कि उसकी नज़र तो अब सीधे सुचित्रा के चेहरे और वक्षों पर ही जा कर रुक रही थीं.
कालू को कुछ न बोलते देख सुचित्रा मुस्कराते हुए अपना दायाँ हाथ कालू के सीने के बाएँ तरफ उसके दिल के ठीक ऊपर रखती हुई बोली,
“कालू.... तुम मेरा काम कर दोगे न?”
बात ख़त्म करते करते सुचित्रा हौले हौले कालू के दिल के ऊपर रखे अपने हाथ को गोल गोल घूमाने लगी.
“हाँ भाभी... करूँगा.”
कालू बोला तो सही; पर उसे खुद नहीं पता की उसने क्या बोला और किस बात पे बोला.
पर शायद सुचित्रा को इस बात से कोई मतलब नहीं था.
एक बार फिर एक बहुत ही खूबसूरत मुस्कान होंठों पर लाई, अँगुलियों के एक छोटी सी करतब से कालू के शर्ट के एक बटन को खोल कर उसके सीने पर नए नए उगे बालों पर एक ऊँगली फिरा कर बोली,
“तो फिर आओ मेरे साथ....”
“क...क...हाँ... भाभी...”
“अरे आओ तो सही... आओगे तो खुद पता चल जाएगा... है न?”
“ज....जी भा...भाभी.”
सुचित्रा एक बार फिर हँसी... वही खनकदार... मीठी... कोयल से स्वर में.
हँस कर वो एक तरफ चल दी. आगे आगे वो.. पीछे पीछे कालू उसके मटकते पिछवाड़े को देखता हुआ चला जा रहा था.
इस पूरे घटनाक्रम को दो जोड़ी आँखें देख रही थीं.
एक तो अपने घर के पीछे वाले कमरे की खिड़की से खुद ममता और दूसरा एक मताल पियक्कड़... जो दो बोतल खाली करने के बाद बेहोश होने के कगार पर था. वो शराबी न तो ठीक से कुछ देख सका और न ही अधिक देर तक होश में रह पाया; पर ममता... जिसका घर अपेक्षाकृत थोड़ा नजदीक था और जिसकी खिड़की से कालू जहाँ खड़ा था; रास्ते के उस हिस्से को आसानी से देखा जा सकता है; वो भी ठीक से कुछ देख न पाई. एक तो वैसे ही स्ट्रीट लाइट की कोई व्यवस्था नहीं है और दूसरे, थोड़ा ही सही पर कालू दूर तो था ही...
ममता को सिर्फ इतना ही दिखा की एक कोई मर्द खड़ा है और एक औरत. दोनों में कुछ बातें हो रही हैं और फिर औरत के पीछे पीछे मर्द एक ओर चल देता है. दोनों ही कुछ कदम चले होते हैं कि अचानक कोहरा सा एक धुंध सामने प्रकट हो जाता है और कुछ क्षण बाद जब धुंध हटता है तो वो आदमी और औरत कहीं दिखाई नहीं देते.
ऐसा दृश्य चूँकि ममता ने आज पहली बार देखा इसलिए बेचारी बहुत डर गई और झट से खिड़की बंद कर के अंदर चली गई.
कालू सुचित्रा के पीछे चलते चलते एक वीरान मैदानी जगह के बीचोंबीच पहुँच गया... अब जहाँ वो और सुचित्रा थे उससे यही कोई दस बारह क़दमों की दूरी पर चारों तरफ खंडहर नुमा घरों के बचे खुचे अवशेष उन्हें घेरे हुए थे.
कालू कहाँ पहुँच गया... क्यों आया... और सबसे बड़ी बात कि किसके साथ आया... ये सब कुछ भी उसे नहीं पता... किसी भी बात का होश नहीं.
वो तो बस अपने सामने उसकी तरफ पलट कर खड़ी स्वर्ग से भी सुंदर अप्सरा को अप्रतिम कामेच्छा से निहार रहा था... उसे आमंत्रित करते सुचित्रा के लाल होंठों की मुस्कान, पुष्ट वक्ष और कटावदार कमर बस जैसे उसी के लिए बने थे.
कालू की आँखें धीरे धीरे बोझिल हो आई थीं.
धीरे धीरे सुध बुध खोता जा रहा था..
पूरी तरह से आँखें बंद होने के पहले का जो अंतिम दृश्य उसने देखा वो उसके अंदर की कामोत्तेजना में कई गुणा वृद्धि कर गई. अपनी लगभग बंद हो आई आँखों से उसने सुचित्रा के कंधे से आँचल के सरकने और क्षण भर बाद ही उस टाइट लाल ब्लाउज को सुचित्रा के बदन से अलग होते देखा.....
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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