आखिर वो दिन आ ही गया complete

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jay
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आखिर वो दिन आ ही गया complete

Post by jay »

आखिर वो दिन आ ही गया


मैं आज इंडिया के एक दूर-दराज कस्बे से आपसे मुखातिब हूँ, मैं अपनी जिंदगी की 86 बहारें देख चुका हूँ। आज मैं तन्हा एक झोंपड़ेनुमा घर में रहता हूँ। मेरी तन्हाइयां और मैं, यह खामोशी मुझको डस रही है। मेरी मौत बहुत करीब है, हाँ मैं जानता हूँ अब मैं बहुत ही कम इस दुनियाँ में रहूंगा। मौत मुझको अक्सर करीब की झाड़ियों में बैठी नजर आती है। एक दिन वह मुझको अपने साथ ले जायेगी।

मेरा नाम प्रेम है। आज मेरी फेमिली में कोई भी जिंदा नहीं रहा। सब वहाँ जा चुके हैं जहाँ से कभी कोई वापपस नहीं आया आज तक, और सब वहाँ मेरा बेताबी से इंतिजार कर रहे हैं। मैं जानता हूँ, वहाँ मेरा अंजाम बहुत बुरा होगा, शायद मैं कभी मुक्ति ही ना पा सकूं। पर मैं यह बातें ना जाने क्यों कह रहा हूँ।

मेरा कोई धरम, कोई मजहब नहीं। मैंने जो जिंदगी गुजारी उसमें धरम, इख्लाक, शरम, मशरती तकाज़े इन चीजों का नाम-ओ-तनशान तक ना था, वहाँ फितरती तकाज़े ही मेरे रहबेर थे। जहां फितरत खुद मेरी रहनुमाई पर तैयार थी।

मुझको आज भी अच्छी तरह याद है। मेरे बचपन के दिन, क्योंकी मैं एक बेटी के बाद पैदा हुआ था, इसलिए माँ, बाप का प्यारा था, मेरी माँ बहुत अच्छी औरत थी। आज भी अपने आस पास उसकी परछाईं महसूस करता हूँ। मेरे पिताजी ब्रिटिश नेवी में थे और हम अच्छे खासे खाते पीते घराने से थे। मैं 18 अगस्त 1929 में पैदा हुआ उस वक्त मेरी बहन राधा सिर्फ़ 6 साल की थी। वह एक नन्हा भाई पाकर बहुत खुश थी। जब मैं तीन साल का हुआ तो हमारे घर में और खुशियाँ आ गईं, हमारी एक और बहन आ गई उसका नाम पिताजी ने बड़े प्यार से कामिनी रखा। वह थी भी तो बिल्कुल कोमल कोमल, उसका बचपन आज भी यूँ लगता है। बस क्या कहूं?

उस वक्त हमारी बड़ी बहन राधा 9 साल की हो चुकी थी और काफी सुंदर भी। वह अब माँ के साथ काम भी करवा लिया करती थी, भारी कामों के लिए तो नौकर थे ही।

बहुत खुशियों भरे दिन थे वह भी।

फिर हिन्दुस्तान के हालात कुछ बिगड़ने लगे। यह लगभग 1937 के आख़िर की बात है। अब पिताजी और माँ अक्सर इन बिगड़ते हुये हालात पर परेशान हो जाती थीं । आख़िर मेरे पिताजी की फौज की नौकरी और उनके ताल्लुक़ात काम आए और मेरी फेमिली ने इंगलिस्तान शिफ्ट होने का फैसला किया।
जिनमें मेरे दादा, दादी, पिताजी, माँ और हम तीनों बच्चे शामिल थे। कुछ दिनों तक पिताजी भाग दौड़ करते रहे आख़िर फरवरी 1938 के अंत में जाकर हमारे सारे डाक्युमेंटस तैयार थे।

और हम तैयार थे इगलेंड जाने के लिए। लेकिन बहरहाल तैयारियाँ करते करते मार्च 1938 भी गुजर ही गया तकरीबन और हमारी बाहरी जहाज की टिकेट कन्फर्म हुई 27 मार्च 1938 की उस दिन हमने अपना देश हिन्दुस्तान हमेशा के लिए छोड़ देना था।

आज हम सब बहन भाई बहुत खुश थे क्योंकी माँ की जबानी हमको बाहरी जहाज की बहुत सी कहानियाँ सुनने को मिली थीं और हम इस रोमांचक सफर के लिए बेचैन थे। हमारा सारा समान दो लोरियों में भरा जा रहा था

और फिर वह बंदरगाह की जानिब चलीं गईं। हम सब बहन भाई और हमारी पूरी फेमिली एक विक्टोरिया में बैठ कर बंदरगाह की तरफ रवाना हो गये।

उन दिनों बाम्बे की बंदरगाह आज की तरह शानदार ना थी। ज़्यादातर वहाँ इंगलिस्तान से आए और स्पेन की तरफ से आए तिजारती जहांजों की भरमार रहती थी। गोदी पर मजदूरों की भाँति भाँति की आवाजें सुनाई दे रहीं थीं एक अजब गहमा गहमी थी।

ब्रिटिश नेवी के भी कई जहाज वहाँ लंगरअंदाज थे। जाब्ते की करवाइयों से गुजरिे हुये हम सब आख़िर जहाज पर अपने केबिन में आ ही गये। बस यूँ ही छोटा सा केबिन था। आज के क्रूज शिप्स की तरह शानदार तो ना था पर उस जमाने में बेहतर ही तसलीम किया जा सकता था। खैर आख़िर शाम को जहाज का लॅंगर उठाकर गोदी को खैरबाद कहा गया बंदरगाह पर इस वक्त लोगों का हजूम था जो अपने अजीजों को विदा करने के लिए वहां जमा थे।


मैं यह सब देख रहा था। मेरी उमर उस वक्त 9 बरस की थी, मैं अभी समझदार हो रहा था और इन तमाम चीजों को बहुत दिलचस्पी से देख रहा था मेरी दोनों बहनें भी मेरे करीब खड़ी थीं और हम तीनों रेलिंग से लटके किनारे को दूर हटता देख रहे थे। दूर आसमान में आग का गोला सूरज अपनी आूँखों से दुनियाँ को देख रहा था और रात की तरीकी अपनी पलकें पटपटाते तेज़ी से दुनियाँ को अपनी लपेट में ले रही थी।
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(एक बार ऊपर आ जाईए न भैया )..(परिवार में हवस और कामना की कामशक्ति )..(लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ running)..(कांता की कामपिपासा running).. (वक्त का तमाशा running).. (बहन का दर्द Complete )..
( आखिर वो दिन आ ही गया Complete )...(ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगाना complete)..(ज़िद (जो चाहा वो पाया) complete)..(दास्तान ए चुदाई (माँ बेटी बेटा और किरायेदार ) complete) .. (एक राजा और चार रानियाँ complete)..(माया complete...)--(तवायफ़ complete)..(मेरी सेक्सी बहनेंcompleet) ..(दोस्त की माँ नशीली बहन छबीली compleet)..(माँ का आँचल और बहन की लाज़ compleet)..(दीवानगी compleet..(मेरी बर्बादी या आबादी (?) की ओर पहला कदमcompleet) ...(मेले के रंग सास,बहू और ननद के संग).


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(फैमिली में मोहब्बत और सेक्स (complet))........(कोई तो रोक लो)......(अमन विला-एक सेक्सी दुनियाँ)............. (ननद की ट्रैनिंग compleet)..............( सियासत और साजिश)..........(सोलहवां सावन)...........(जोरू का गुलाम या जे के जी).........(मेरा प्यार मेरी सौतेली माँ और बेहन)........(कैसे भड़की मेरे जिस्म की प्यास)........(काले जादू की दुनिया)....................(वो शाम कुछ अजीब थी)
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jay
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Re: आखिर वो दिन आ ही गया

Post by jay »

जिस वक्त का मैं यह वाक़या लिख रहा हूँ , वह उस वक्त मेरी उमर 9 साल, मेरी बड़ी बहन राधा की उमर 15 साल और मेरी छोटी बहन कामिनी की 6 साल की है। इंगलिस्तान पहुँचते ही मेरे चाचा के लड़के से मेरी बहन राधा की सगाई तय है। पर क़िस्मत को यह मंजूर नहीं। क़िस्मत हमारे लिए कुछ और ही राहें मिन्तिजर चुकी है जहाँ जाना हमारे लिए लाजिमी है। हम इससे लाख बचना चाहें पर तकदीर का चक्कर हमें अपनी लपेट में लेने के लिए फिराक में आ चुका था और हम आने वाले वाकिये से बेखबर आने वाले हसीन दिनों के फरेब में खोए हुये थे।


हम बहन भाई उस बाहरी जहाज पर बहुत एंजाय कर रहे थे। हमको बहुत अच्छा लग रहा था यह शांत समुंदर यह सुकून, यह मद्धम सा लहरों का शोर और उनमें डोलता हमारा बे हक़ीकत जहाज। मैं तो बहुत हैरान था जब आसमान की उसातून पर नजर डालता और फिर समुंदर की बेपनाह गहराइयां देखता तो हमारा वजूद एक बहक़ीकत जरीय से भी हकीर नजर आता।

तारीख: 31 मार्च 1938

आज हमें सफर करते 5 दिन हो चुके थे। अब हम बच्चे इस सफर से उकता चुके थे और जल्द से जल्द जमीन पर उतरना चाहते थे। यह शाम की बात है आसमान गहरा सुरमई हो चुका था और दूर बहुत दूर आसमान में बिजलियाँ सी लहरातीं महसूस की जा सकतीं थीं। जहाज का अमला आज गैर-मामूली सी भागदौड़ में मशरूफ था। आज हम रात का खाना खाते ही अपने केबिन में चले आए। फिर कुछ देर बाद ही ऐसा लगा जैसे आसमान फट पड़ा हो। बहुत जोरों की बारिश थी। मैंने हिन्दुस्तान में कभी ऐसी बारिश ना देखी थी। कान पड़ी आवाज भी सुनाई ना दे रही थी। हवाओं का शोर इस कदर था की यूँ लगता था की हमें उड़ा ले जायेगी। लेकिन हमारा खिलौना सा जहाज बड़ी बेजीगरी से उन भयानक हवाओं का मुकाबला कर रहा था। लेकिन यह तो उस तूफान की शुरुआत थी।



और जब तूफान आया तो जहाज यूँ मालूम होता था जैसे हवा में उड़ रहा हो। अभी एक लहर उसको समुंदर से उठाकर पटक ही रही होती थी के दूसरी उचक लेती थी। और फिर एक जबरदस्त धमाका सुनाई दिया, पिताजी ने दरवाजा खोलकर देखा तो जहाज की बड़ी चिमनी जहाज के फर्श पर पड़ी थी और जहाज के बीचो बीच एक गहरी दरार नमूदार हो चुकी थी। पिताजी ने हम बच्चों का हाथ पकड़ा और बाहर चले आए। बस क्या बताऊं क्या मंजर था। क्या बूढ़ा क्या जवान बस ऐसा लगता था की एक गदर बरपा हो चुका हो। जिसका जिधर मुँह उठ रहा था, वह वहाँ भाग रहा था। जहाज पर बँधी हिफ़ाजती कश्तियो पर हाथापाई शुरू हो चुकी थी। इंसानियत अपना शराफ़त का लबादा उतार चुकी थी, हर आदमी उन कश्तियो पर पहुँच जाना चाहता था क्योंकी सभी जानते थे की कुछ ही देर में यह जहाज नहीं रहेगा और यह कश्तिया ही बचाव का वहीद ज़रिया थीं। लेकिन जहाज का कप्तान और उसके चन्द साथी अपनी राइफल्स उठाए सामने खड़े थे। उनको देखकर बिफरे हुये हुजूम को थोड़ी शांति मिली।
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pongapandit
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Re: आखिर वो दिन आ ही गया

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Congratulation for new story mitr
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