भागू (उपन्यास )

Jemsbond
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Re: भागू (उपन्यास )

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अगले दिन भगवान कालेज में दाखिला लेने गुरनैब को साथ ले चल पड़ा। वे गाँव से ग्यारह बजे की बस पकड़ कर बारह बजे तक बुढलाडे जा पहुंचे। अड्डे पर उतर कर उन्होंने आस -पास निगाह फेरी , शायद कोई जान पहचान वाला मिल जाये पर सभी नये -नये चेहरे चीनी की बोरी के आस -पास चक्कर लगाती चींटियों की तरह भागते फिर रहे थे। जैसे सारा मुल्क ही किसी गुमशुदा की तलाश में चल पड़ा हो। बसों के हार्नों ने शोर मचा रखा था। कंडक्टर गला फाड़-फाड़ कर अलग -अलग शहर, गाँव जाने की आवाजें लगा रहे थे। रंग -बिरंगी बसें , सँपनियों की तरह अड्डे में आ जा रही थीं.. भगवान और गुरनैब एक हॉकर से अखवार लेकर बस अड्डे से बाहर आ गए .
'' किधर है तेरा कालेज ?'' गुरनैब ने कुछ सोच रहे भगवान को पूछा।
'' मुझे तो खुद नहीं पता , मैं सोच रहा था कि अगर रिक्शा कर लें तो खुद ही छोड़ देगा। ''
'' ऐसे भी ठीक है। '' गुरनैब ने सहमति जताई।
'' दोनों ने दस रूपए में रिक्शा कर लिया। रिक्शा चालक ने दोनों को रिक्शे में बैठा कर पहले थोड़ी दूरी तक पैदल भाग कर रिक्शे को धकेला जब रिक्शे ने तेजी पकड़ ली तब दाहिना पैर दाहिने पैडल पर रखकर बांया, बांये पैडल पर टिका लिया। फिर ऊपर के पैडल पर शरीर का सारा भार देकर रिक्शे की रफ़्तार तेज कर ली। रिक्शा अड्डे से अब चौड़े बाज़ार की ओर बढ़ चला था। बाज़ार के दोनों ओर दुकानों की लम्बी कतार थी जिनपर अलग -अलग बोर्ड लटक रहे थे , 'कपडे दा सस्ता डिपू' , 'पप्पू दी हट्टी' ,'इंजन दा समान एत्थे मिलदा है' ,चूड़ियाँ ही चूड़ियाँ और बुक स्टॉल। बुक स्टॉल पर नज़र पड़ते ही भगवान ने रिक्शा रुकवा लिया।
'' क्यों क्या हो गया ?'' भगवान के अचानक रिक्शा रुकवाने पर गुरनैब हैरान हो गया।
'' कोई किताब देख लें। '' भगवान ने कहा।
दोनों दुकान में चले गए। दुकानदार ने गाहक को आता देखकर बनावटी सी हँसी हँसते हुए ' आओ जी ' कहा। भगवान ने दुकान पर सजाई किताबों पर जल्दी -जल्दी नज़र डाली और फिर एक शीशे के अंदर सजाये दो नॉवेल नानक सिंह का ' चिट्टा लहू ' और जसवंत सिंह कंवल का ' पूरनमासी ' निकाल लिए। किताबें खरीद कर वे दोबारा रिक्शे में आ बैठे। रिक्शा चालक ने रिक्शा फिर उसी रफ़्तार में ले लिया। वह दुकानों को ' हट्ट पीछे ' कहता अपनी मंज़िल की ओर सरपट दौड़ा जा रहा था। रिक्शे के तीनों टायर तेज रफ़्तार होने के कारण तारों रहित दिखाई दे रहे थे। रिक्शा चालक के सर से पसीने की धारें नीचे की ओर बह चलीं थीं । पीठ के पीछे से उसका कुरता पसीने से चिपक गया था । सर की सेध पर पड़ रहे सूरज की किरणें गर्म तकले की तरह बदन में चुभ रही थीं। आगे एक ऊँची बिल्डिंग ने सड़क को दो हिस्सों में बाँट दिया था। रिक्शा दाहिनी ओर जाती सड़क पर मुड़ गया । थोड़ी दूर जाकर रिक्शा एक चौड़े गेट के पास जा रुका। कालेज आ गया था।
'' कहीं यूँ ही मत ऊट -पटांग बक देना कुछ यहाँ । '' भगवान ने कालेज में आते -जाते लड़के -लड़कियों की ओर देख कर कहा।
'' भागू तुम क्यों डरते हो ?'' गुरनैब ने भगवान के कंधे पर धीरे से थपकी दी।
दोनों गेट के अंदर आ गए। सामने से दो सुनहरी सूटों में सजी लड़कियां मटक -मटक चली आ रही थीं। गुरनैब से देख कर रहा न गया। उसने लड़कियों के बराबर आने पर चुटकी छोड़ दी , '' आय -हाय पर्सिनिये , मर जां पूछ तड़ा के। ''
'' ओये मरवाएगा साले। '' भगवान ने उसकी कमर में चिकुटी काटी।
'' तुझे क्या होता है यार , पड़ेगी तो मुझे पड़ेगी। ''
'' न मैं क्या उनकी बूआ का बेटा लगता हूँ , मुझे भी वो साथ ही रगड़ेंगे। ''
'' अच्छा अब नहीं छेड़ता बस। '' गुरनैब ने उसे तसल्ली देते हुए कहा।
'' भाई जी प्रॉस्पेक्ट कहाँ मिलता है …?''भगवान ने सामने पार्क में खड़े दो लड़कों से पूछा।
भाई वो जो सामने शटर दिख रहा है न , वहीँ खिड़की में कलर्क बैठा है , वहीँ मिलते हैं। '' उनमें से पगड़ी वाले लड़के ने एक कमरे के आगे लगे लोहे के शटर की ओर इशारा किया , जहाँ एक दो लड़के प्रोस्पेक्ट लेने के लिए खड़े थे।
'' तू यहाँ बैठ मैं लेकर आता हूँ। '' भगवान ने पार्क में बनी सीमेंट की कंधोली की ओर इशारा कर दिया और खुद प्रोस्पेक्ट लेने चला गया। गुरनैब उसके ऊपर बैठने के बजाये उसके ऊपर दाहिना पैर रख कर खड़ा हो गया। पार्क में कटा अंग्रेजी घास किसी की ताज़ी कटी घनी दाढ़ी की तरह आपस में फँसा खड़ा था। पार्क के आस -पास बनी पतली -पतली क्यारियों में खिले रंग -बिरंगे कोमल फूल , कालेज में रंग -बिरंगे सूटों में सजी कोमल शरीरों वाली लड़कियों की तरह हँस रहे थे। पतली क्यारी बीच के फूलों को माली खुरपी से गुड़ाई करते हुए उसके अंदर की झाड़ - झंखाड़ को बाहर फेंक रहा था। बाहर फुदकती चिर -चिर करती गुटारें उस घास -फूस से भोजन ढूंढने की कोशिश में जुटी हुई थीं। गुरनैब ने पैंट की जेब से रुमाल निकाल कर चेहरे पर आई पसीने की बूँदें पोंछ लीं। फिर अपनी कमीज का ऊपर का बटन खोल कर रुमाल से हवा करने लगा। पार्क के सामने की पगडण्डी के ऊपर बाजरे के सिट्टे की तरह इकहरी सी लड़की को आते देख कर गुरनैब की आँखों में एक चमक सी आ गई। वह अपने आप को कुछ कहने के लिए तैयार करने लगा।
'' ओये होए रब्बा ! फुर्सत में बैठकर बनाया है लगता है '' गुरनैब ने लड़की के पास आते ही हिम्मत करके कह ही दिया पर लड़की बिना कुछ बोले ऊँची हिल की सैंडिल से टक -टक करती पास से गुजरने लगी।
'' नहीं कुछ बोलना तो गाली ही निकाल दो . ये तो मान लूँगा कि बोल पड़ी .''
लड़की कुछ पल के लिए रुक गई। गुरनैब के दिल की धड़कन इंजन की तरह 'ठक -ठक -ठक ' बजने लगी। शरीर काँप गया। माथे पर पसीना उभर आया। आँखें ऊपर उठ गईं '' मितरा चड़िआ रगड़ा '' गुरनैब ने झट सोच लिया। लड़की ने पीछे मुड़ कर देखा। उसके मुस्कान से पतले गुलाबी होंठ चौड़े हो गए और उन होठों से सफेद मोतियों से चमकते दांत गुरनैब के दिल में आ घुसे। लड़की महकती सी हँसी देकर आगे बढ़ गई पर गुरनैब के होश ठिकाने से हिल गए। उसने लोर में आकर दोनों हाथों की ऊँगलियाँ आपस में फँसा कर दबा लीं।
'' हटा नहीं कारस्तानी करने से । '' भगवान ने आते -आते लड़की को हँसते देख लिया था।
'' भाई जान निकालकर ले गई कंजर की , मैं तो कहता हूँ मुझे यहीं दाखिला दिला दे । '' गुरनैब के अंदर प्यार की तरंगों का भूचाल आया पड़ा था।
'' दसवीं में तो चार बार फेल हो गए , दाखिला किसमें दिलाऊं तुम्हें। ''
'' और कुछ नहीं तो माली ही रखवा दे , बस दर्शन करके ही निहाल हो जाया करूंगा । ''
'' तुझे तो बस यही सपने आते रहते हैं , चल छोड़ , आ फार्म भरें। '' भगवान छोटी टाहली के दरख़्त की छाया तले अंग्रेजी घास पर पालथी मार बैठ कर फार्म भरने लगा। गुरनैब की नज़रें प्यासे मृग की तरह लड़कियों को ढूंढती चारो ओर चक्कर खाती रही। उसकी नज़रें उतनी देर किसी लड़की के पीछे से न हटती जब तक कि वो नज़र से ओझल न हो जाती .
भगवान अपना फार्म भरने में मगन था ताकि काम जल्दी निपटा कर समय रहते घर पहुँच जाये। इनके पीछे दो लडकियां और फार्म लेकर बैठ गईं। थोड़े समय बाद उनमें से एक लड़की ने फार्म के एक कोने पर पैन की नोक रखकर गुरनैब के आगे कर दिया।
'' यह जी , जरा सा बताइयेगा यहाँ क्या भरना है ?'' किसी लड़की के अचानक बोल सुनकर भगवान का ध्यान फार्म से हट गया। उसने उसी तरह बैठे -बैठे आगे निगाह मारी . मक्खन के पेड़ों की तरह गोरे दो मुलायम पैर उसके सामने काले सैंडिलों में सजे थे। '' इतने सुंदर पैर ! हाय ओये रब्बा ! धन्य है तू बनाने वाला। ' भगवान के तार -तार हुए दिल से निकले शब्द दिल के अंदर ही समा गए। उसने गर्दन ऊपर उठाई , एक खूबसूरत सी लड़की , फूलों के भार से झुकी टहनी की तरह गुरनैब के ऊपर झुकी हुई थी। उसके बालों की दो लटें झुकी होने के कारण उसके चेहरे पर लटक रही थीं। इन जुल्फों के बीच उसका चेहरा अँधेरी रात में चमकते पूरे चाँद की तरह लिशकारे मार रहा था। लम्बी चोटि उसकी पतली कमर पर सोये काले नाग की तरह अडोल पड़ी थी। रेशम जैसी पतली ऊँगलियाँ में पैन गर्व से फुला न समा रहा था। भगवान को यकीन नहीं आ रहा था कि कोई इतना भी सुंदर हो सकता है। उसे याद आया , कभी उसकी दादी , छोटे होते उसे परियों की कहानी सुनाती थी पर आज तो उसने प्रत्यक्ष परी को देख लिया था।
भागू ओये भागू । '' गुरनैब ने भगवान की जाँघ पर धीरे से थपथपाया , ''यार ये भरना जरा सा..'' उसने लड़की से फार्म लेकर भागू को पकड़ा दिया . भगवान ने फार्म पकड़ लिया। उसने ऊपर एक खाने में देखा बड़े ही सुंदर शब्दों में लिखा था ' गुरमीत कौर ' । फार्म पूरी तरह मुकम्मल था। बस कुछ खाली स्थान भरने बाकी थे। भगवान ने वे रिक्त स्थान भी पूरे करवा दिए।
'' बहुत बहुत मेहरबानी जी। '' लड़की ने शुक्रिया अदा किया।
'' नहीं जी , यह तो हमारा फ़र्ज़ बनता था । '' भगवान पेंडू भाषा का 'ती ' छोड़कर 'सी ' पर आ गया था। उसे लड़की का पंजाबी में धन्यवाद करने का ढंग बड़ा अच्छा लगा।
गुरमीत फार्म लेकर अपनी सहेली के पास चली गई। भगवान अपना बाकी का फार्म मुकम्मल करने लगा। लड़की ने पास बैठे भगवान की ओर अपनेपन से भरी नज़रों से दो-तीन बार देखा, ' कितना सीधा , शरीफ और अपना सा है ' लड़की के ज़िस्म के किसी चोर दरवाजे से यह शब्द उसके दिल में बिना कदम -चाल किये जा उतरे पर भगवान अभी भी अपना फार्म भरने में मग्न था। उसे पता नहीं था कि वह कुछ पल के लिए किसी के दिल से हो आया है।
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बुढलाडे से चढ़ती ओर एक काले नाग जैसी पतली सड़क कीकरों की खुड्ड में जा घुसती है। उसके आस -पास बड़ी -बड़ी कीकरें वक़्त के मारे मनुष्य की तरह झुकी खड़ी हैं। इनसे हटकर दूर कहीं- कहीं टिब्बे दिखाई देते हैं , जिन पर दूब उगी है और कुछ के ऊपर कोई -कोई नरमे का बूटा कुंभलाया सा खड़ा ,खुश्क मौसम को गालियां देता जान पड़ता है। कभी किसी टिब्बे पर बेरियों के नीचे बैठीं नील गायें खेतों के मालिक बनी बैठी हैं । इन टिब्बियों को चीरती सड़क शेखगढ़ फाटक पर आ जाती है। फाटक फांद कर फाटक की कोठी है। उसके साथ एक ऊँचा दैत्य जैसा वटवृक्ष खड़ा है। जिसके चारो ओर ईटों का चबुतरा बनाकर अड्डे का काम लिया जाता है। इससे दाहिनी ओर झील जैसा पोखर है और बायीं ओर गाँव बसा हुआ है। रेल की पटरी से थोड़ा हटकर एक चौड़ा पहा गाँव के ऊपर से चक्कर काटकर दोबारा फिर इस अड्डे पर आ जाता है। अड्डे से करीब दस घर छोड़कर एक लोहे के गेटों वाली शानदार कोठी है। गेट के एक तरफ पत्थर का सलैब लगा है जिस पर सुनहरे अक्षरों से लिखा है ,'सूबेदार हरबख्श सिंह शेखगढ़। 'कोठी के अंदर जाते ही एक कोने में चरनी पर भैंसे बँधी हुई हैं। आँगन में एक चारपाई बिछी है, जिस पर गुरमीत लेटी हुई है। उसकी नज़रें चौबारे के बनेरे पर बैठे पेडुकी के जोड़े पर टिकी हुई थीं। इनमें से एक नर था और एक मादा। कभी यह जोड़ा प्यार की लोर में अपनी चोंचें टकराने लग पड़ता तो कभी एक आगे-आगे चल पड़ता तो दुसरा उसके पीछे - पीछे। फिर यह दोनों बस स्टैंड के बड़े वटवृक्ष की ओर उडारी मार गए। पर गुरमीत की नज़र अभी भी बनेरे पर टिकी हुई थी। शायद उसे आज भी पहले की तरह किसी का धुंधला सा चेहरा नज़र आने लगा था , जो धीरे-धीरे किसी जाने पहचाने चेहरे में बदल जाता। गुरमीत को खुद को नहीं पता था कि यह चेहरा उसकी आँखों के आगे क्यों आ जाता है। शायद कोई उसकी इज़ाज़त लिए बिना ही चोर रस्ते से उसके दिल में उतर रहा था। वह अपने दिल के उलट इस चेहरे को पहचानने से इंकार करती किसी और काम में तल्लीन हो जाती। इसी तरह आज भी गुरमीत अपनी दिल की निचली परतों में उतर गए इस चेहरे को अनदेखा करती कालेज जाने के लिए बिस्तर से उठकर नहाने चली गई।
गुरमीत का कालेज में आज दसवां दिन था। इन दस दिनों में वह थोड़ी -थोड़ी किसी की सुंदरता की ओर , सीधेपन की ओर खींची चली जा रही थी। उसकी नज़रें छुप -छुप कर रोज किसी के आने का इन्तजार करतीं। उसके आने पर खुश होती और न आने पर मुरझा जाती। आज कितनी ही देर वह चोरी -चोरी अपने महरम को उडीकती रही। . उसकी मायूस नज़रों ने सारा कालेज छान मारा पर उसकी झलक सारे कालेज में कहीं न मिली। वह उदासी के दलदल से पैर घसीटती कैंटीन की और चल पड़ी। कैंटीन के अंदर जाते ही उसने सभी लड़के -लड़कियों पर सरसरी सी निगाह मारी पर उसकी नज़रें यहाँ भी उदासी में गोता खा गईं। वह एक कप चाय का आर्डर करके कोने में खाली पड़े डेस्क पर जा बैठी और लाइब्रेरी से निकाली किताब के पन्ने बिना पढ़े ही पलट -पलट कर देखने लगी।
'' गुरमीत साइड दोगे थोड़ा सा ?'' किसी ने बेध्यान पन्ने पलट रही गुरमीत से कहा।
'' ओह आप ? आओ बैठो। '' गुरमीत भगवान को देखकर खिल उठी। '' आप मेरा नाम कैसे जानते हो ?'' उसने एक ओर हटते हुए भगवान को बैठने के लिए स्थान दे दिया।
'' जिस दिन हम फार्म भरने आये थे , उस दिन देखा था तुम्हारे फार्म पर। '' भगवान गुरमीत संग बैठ गया।
'' अच्छा ! याद है तब का ?'' गुरमीत को ख़ुशी और हैरानी हुई कि इतने समय से वह मेरा नाम नहीं भूला ,'' आपने अपना नाम तो बताया ही नहीं ?''
'' आपने कौन सा पूछा। ''
'' अब पूछ लेते हैं जी। '' गुरमीत के कहने पर दोनों हल्का सा मुस्कुरा पड़े। कैंटीन वाला दोनों की चाय रख गया।
'' मेरा नाम है भगवान। वैसे भागू कहते हैं और पिंड है शांतपुर। गुरमीत आपका कौन सा पिंड है ?'' भगवान को अपना पिंड बताने पर गुरमीत के पिंड का भी ध्यान आ गया।
'' मेरा पिंड है शेखगढ़ '' गुरमीत ने कहा।
'' शेखगढ़ !'' ख़ुशी और हैरानी से भगवान ने कहा , वहाँ तो मेरे दोस्त की बुआ है। मैं भी जाकर आया हूँ एक दो- बार। ''
'' अब आना। ''
'' अगर बुलाओगी तो जरुर आएंगे। ''
'' हमने बुलाया और आप न आये फिर ?'' गुरमीत भगवान को बर्तन की तरह ठोक -ठोक कर देख रही थी , कहीं कच्चा ही न हो।
'' अभी ले चल बेशक। '' भगवान अपनी कहनी और करनी का सबूत दे गया।
'' चलो मान लिया तुझे , जिस दिन मौक़ा आया देखेंगे। '' गुरमीत को भगवान पर सचमुच ही यकीन आ गया था . दोनों ने चाय पी ली। भगवान ने घड़ी पर नज़र मारी। '' अच्छा आ चलें , पंजाबी के पीरियड का समय हो गया है। '' गुरमीत ने जबर्दस्ती चाय के पैसे खुद दे दिए। दोनों पीरियड लगाने चले गए।

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आज कालेज में काफी रौनक थी। आडोटोरियम को दुल्हन की तरह सजाया गया था। नीचे दरियाँ बिछाई गईं थीं। आस -पास कुर्सियां सजा दी गई और कुछ कुर्सियां ख़ास मेहमानों के लिए स्टेज के ऊपर रख दी गई। जजों की कुर्सियाँ स्टेज के सामने एक ओर करके लगा दी गईं। जहां से वे भाग लेने वालों की पेशकारी भी देख सकें और दर्शकों को देखने में भी कोई अड़चन न आये। सारे आडोटोरियम की अंदर की दीवारों के आस -पास भी अच्छी सजावट की गई। कालेज में पढ़ने वाले लड़के -लडकियां बगीचे में खिले रंग - बिरंगे फूलों के से कपड़े पहने तितलियों की तरह घूम रहे थे। कविता पाठ का समय दस बजे रखा गया था पर जज साढ़े दस के करीब आये। उनके आते ही लड़के -लडकियां बिछी दरियों पर आकर बैठने लगे।
आडोटोरियम के गेट के आगे भगवान को गुरमीत मिल गई।
'' आप लोगे भाग मुकाबले में ?'' गुरमीत ने भगवान के पास जाकर पूछा।
'' ले लूँ ?''
''जरुर लो। ''
'' अगर आप कहते हो तो जरुर भाग लेंगे। ''
'' हमारे कहने से कौन लेता है , नाम तो आपने सबसे पहले लिखा रखा है। ''
'' आपको कैसे पता ?'' भगवान को ख़ुशी भरी हैरानी हुई कि उसके भाग लेने के बारे में गुरमीत को पता है।
'' मैंने मेरी सहेली अमन को पूछे थे सभी भाग लेने वालों के नाम .''
'' वह भी लेगी भाग ?''
'' हाँ। ''
'' चलो देखते हैं फिर क्या बनता है। '' भगवान और गुरमीत अंदर दरियों के ऊपर जा बैठे।
स्टेज संचालक ने स्टेज संभाला और बोलना शुरू किया , '' सबसे पहले मैं अपने कीमती समय से समय निकाल कर यहाँ पहुंचे जज साहेबानों , प्रिंसिपल डॉ हरनाम सिंह , समूह स्टाफ और बहुत ही प्यारे विद्द्यार्थियों का धन्यवाद करता हूँ। हम जो हर साल कविता पाठ मुकाबला करवाते हैं वह शुभ दिन आज फिर आया है। इस बार इस मुकाबले में बीस विद्द्यार्थी भाग ले रहे हैं। विद्द्यार्थियों को बता दें कि जो विद्द्यार्थी अपनी मौलिक कविता बोलेगा , उसके अलग नम्बर दिए जायेंगे। समय बहुत हो गया है इसलिए मैं और समय न लेता हुआ सब से पहले बुला रहा हूँ बी ए. भाग दो की छात्रा अमनदीप कौर को कि वह अपनी रचना लेकर स्टेज पर आये। ''
अमनदीप ने पहले कविता की अच्छी भूमिका बाँधी और फिर बड़ी ही सुरीली आवाज़ में कविता बोली। कविता खत्म होते ही सारा हाल तालियों से गूंज उठा। उसके बाद सुखजीत की बारी आई। फिर डिम्पल , महिंदर , रेनू , करमजीत और बलजीत। बलजीत के बाद फिर संचालक ने स्टेज सम्भाली , '' दोस्तों सबको अपना साजन अर्श से उतरा जान पड़ता है। कोई अपने साजन की फूलों से तुलना करता है तो कोई चाँद तारों से, तो किसी को वह सूरज का जाया महसूस होता है। किसी का साजन चाहे कैसा भी हो पर उसे वह सारे जग से न्यारा ही लगेगा। कहते हैं कि एक बार मजनू को किसी ने कह दिया कि तेरी लैला सुंदर नहीं तो उसने जवाब दिया कि आप मेरी आँखों से देख कर देखो , सारे जहां से सुंदर लगेगी। सो दोस्तों , अपने साजन के हुस्न , सादगी की महिमा गाती अपनी मौलिक रचना लेकर आ रहे हैं भगवान सिंह। '' जब भगवान स्टेज पर चढ़ा तो गुरमीत ने जोर -जोर से तालियाँ बजाईं। भगवान ने स्टेज पर जाकर सबसे पहले सारे मेहमानों और दर्शकों का धन्यवाद किया और फिर पूरी लय-ताल से अपनी कविता गानी शुरू की …
' सज्जण साडे हुस्न पिटारी
परियां दी ओह जाई
तक्क हुस्न नूं चन्न -चानणी
हेठी विच शरमाई ....
सज्जण साडे फुल्ल सुगन्धिआं
सब कूटीं महकाई
भोरे आये झलकी देखण
बागी पई दुहाई ....
भगवान आँखें बंद किये दिल से गाता रहा। सारा हॉल सन्नाटे में डूबा उसके बोलों के साथ ही बह चला था। जब कविता खत्म हुई तो सभी भोंचक्के से जैसे सपने से जाग पड़े हों। सारा हाल तालियों से गूंज उठा।
बारी -बारी सभी विद्द्यार्थी अपनी -अपनी कवितायें सुनाकर चले गए। स्टेज संचालक जजों से नतीजा ले आया , '' दोस्तों , जिसका आप सब अब तक बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे हैं , वह नतीजा आपके सामने लेकर आएंगे हमारे जज साहेबान गुरकीरत सिंह खहरा जी। ''
खहरा ने आकर स्टेज सम्भाली ,'' विद्द्यार्थियो मुझे बड़ी खुशी हो रही है कि आप सब कविता पाठ मुकाबला करवाने की परम्परा हर साल निभाते आ रहे हो। जो आज यहाँ कवितायेँ बोली गईं , वे आपका एक अच्छे लेखक बनने का संदेशा देती हैं। प्यारे विद्द्यार्थियो ! असल में तो सबसे बड़े जज दर्शक होते हैं , जो अपनी तालियों से फैसला कर देते हैं पर फिर भी कविता के कुछ नियम हैं , जिन्हें सामने रख नतीजा तैयार करना पड़ता है। हमें यहाँ नतीजा तैयार करने में बड़ी मुश्किलें आईं क्योंकि यहाँ सभी ने बहुत ही अच्छी कवितायेँ पढ़ी और गाई हैं पर फिर भी कुछ अंतर निकाल कर नतीजा तैयार किया गया है। तीसरे स्थान पर हमें तीन विद्द्यार्थी रखने पड़े , जिनके नाम हैं , रेनू , करमा और बलविंदर .''
सारे हाल में जोर की तालियां बजीं। तीनों विद्द्यार्थी अपना इनाम लेकर बैठ गए।
'' दूसरे नम्बर पर रहा है तरसेम सिंह और अब पहले नम्बर की बारी है। पहले नम्बर पर भी हमें दो विद्द्यार्थी चुनने पड़े हैं। पहला नाम है अमनदीप कौर और दुसरा नाम है भगवान सिंह। '' तालियों के शोर में दोनों ने अपने -अपने इनाम प्राप्त किये। गुरमीत ने तालियां मार -मार कर अपने हाथ लाल कर लिए। सारे विद्द्यार्थी अपने जीते हुए मित्रों को बधाई देने लगे। तीन बजे तक प्रोग्राम खत्म हो गया . भगवान अपना इनाम लेकर आडोटोरियम से बाहर आ गया।
'' बधाई भागू। '' गुरमीत और अमन ने दो लड़कों के साथ जा रहे भागू को पीछे से आकर कहा।
'' आपको भी बहुत -बहुत बधाई , कमाल कर दिया अमन जी आपने। '' भगवान ने सत्कार के तौर पर अमनदीप की तारीफ की।
'' हम कौन सा किसी से कम हैं। '' अमन ने ख़ुशी में छाती तान ली और शरारती आँखें भगवान के चेहरे पर गड़ा दीं ।
' भागू जी आज मैंने आपको एक और तोहफा देना है। '' गुरमीत काँपते हुए दिल से कह गई। उसे यकीन था कि भगवान उसका तोहफा कबूल कर लेगा।
'' लाओ जल्दी दो जी फिर। '' भगवान ने अपना एक हाथ गुरमीत के आगे बढ़ा दिया।
'' यहाँ नहीं मिलेगा तोहफा , क्या पता सबके सामने लेने से इंकार कर दो। '' गुरमीत भगवान और अमन को दरख्तों के बीच बनी चौकड़ी की ओर ले गई।
'' ऐसा कौन सा तोहफा है जो यहाँ दिया जायेगा ?'' भगवान हैरान था।
'' मैं .... मैं .... मैं … आपको प्यार करती हूँ। '' गुरमीत ने बिना किसी भूमिका के जल्दी से कह डाला ।
'' क्या ?'' भगवान की हैरानी में प्रश्न चिन्ह बनी आँखें गुरमीत के चेहरे से सच्चाई जानने में जुट गईं।
'' हाँ भागू, मैं आपको बहुत चाहती हूँ। मार दो चाहे छोड़ दो। '' गुरमीत ने चेहरा दरवेशों की तरह बना लिया।
'' पर मैंने तो आपको अपना दोस्त समझा था। ''
'' मैंने आपको अपना रब्ब माना है। '' गुरमीत ने भगवान का हाथ पकड़ लिया।
'' मेरे साथ पहले धोखा हो चुका है। मैं नहीं चाहता बार -बार मेरे साथ वही हो। '' भगवान की आँखों के आगे किरना का बेवफा चेहरा घूम गया।
'' यकीन नहीं तो अभी ले चलो साथ। मैं तो तुम्हारे बिना मर जाऊँगी भागू . भ .... भागू अगर प्यार नहीं देना तो अपने सीने से भींच कर मार डाल मुझे। '' गुरमीत पल में ही भावुक हो गई। उसकी झील सी आँखें भर आईं। उनमें से दो गर्म बूंदें उसके गुलाबी गालों से होते हुए नीचे की ओर बह चलीं ।
'' अरे पगली ! मैं तो मज़ाक कर रहा था , मैं भी चाहता हूँ तुम्हें। '' भगवान गुरमीत के आगे पिघल कर मोम हो गया। भगवान की 'हाँ ' सुनकर गुरमीत की गुलाबी गालें मुस्कान से और गाढ़ी हो गईं।
'' अब तो भई पार्टी बनती है गुरमीत '.' अमन ने शरारत से गुरमीत की कमर में चिकुटी काटी।
'' चल चले फिर। '' भगवान के कहने पर तीनों वहाँ से उठकर चल पड़े। गुरमीत आज बहुत खुश थी। उसका ख़ुशी से अंतर् भरा पड़ा था। सारा कालेज ही उसे अब अपना -अपना सा लगने लगा था। वह ख़ुशी में हिलोरे लेती भगवान के साथ सीना तानकर बराबर चल रही थी। वह सबको बताना चाहती थी कि भगवान अब उसका हो गया है। वह आगे से हर टकराने को छुपी नज़रों से देखती। वह चाहती थी कि हर पार होने वाला उसके साथ चल रहे नौजवान की ओर जरुर देखे और उनकी जोड़ी की तारीफ़ करे। गुरमीत कभी -कभी जानकार साथ चल रहे भागू से सट कर आनंद लेती। चौक में आकर तीनों ' संगम स्वीट हॉउस ' में जा घुसे। गुरमीत ने उन्हें ना -ना करते जबरदस्ती चाय के साथ बर्फी खिलाई। फिर वहाँ से ये बस स्टैंड आ गए। भगवान की बस चलने वाली थी। उसने जल्दी -जल्दी दोनों से जाने की इज़ाज़त माँगी। गुरमीत का दिल किया कि वह जाते समय भगवान को बाहों में भींच ले पर वह भरी भीड़ में ऐसा कैसे कर सकती थी ? उसने अपने दिल में उठे उस बलबले को वहीं दबा लिया। बस में चढ़े भगवान ने खिड़की की ओर खड़े होकर दोनों की ओर देखा। दोनों ख़ुशी से मुस्कुरा पड़ीं . बस चल पड़ी। गुरमीत को जाती हुई बस पर गुस्सा आया पर दूसरे ही पल उसे यह बस बड़ी प्यारी लगी कि यह बस ही कल उसके भगवान को दुबारा लेकर आएगी। उसका दिल किया कि वह चली जा रही बस को चूम ले पर बस 'ड .... र .... र ' करती बस अड्डे से निकल कर सड़क पर आ गई। पीछे की धूल ने बस को ढक लिया और वह धूल में गुम होती -होती आलोप हो गई।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: भागू (उपन्यास )

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शाम घसमैली हो गई थी। बाबे रमाणे की मटिल के पास आग के अंगियारे सा सूरज नीचे की ओर सरकता आलोप हो गया। आसमान में उड़ती पंछियों की डारों ने अपने -अपने घोंसलों की ओर उडारी भर ली । शाम के वक़्त दूध दोहने का वक़्त देख भगवान ने सारी भैंसों को मशीन के आगे से टोकरे भर -भर चारा डाल दिया। चारा डाल कर टोकरा मशीन के आगे रख दिया और नलके पर हाथ धोने लगा। हाथ धोते -धोते उसने देखा कि दरवाजे में राजा और उसके साथ चौदह -पंद्रह साल का लड़का चला आ रहा था। सामने आने पर भगवान ने उसे पहचान लिया। वह राजे की शेखगढ़ वाली बुआ का बेटा था। भगवान ने गुसलखाने में से तौलिया उठाकर हाथ पोंछ लिए और दोनों से हाथ मिला बैठक में ले आया।
'' और बताओ जी क्या हाल -चाल हैं ?''
'' बस ठीक है।'' केवल से पहले राजा बोल पड़ा।
'' आप लोग बैठो मैं दूध बनाकर लाता हूँ। '' भगवान कहता हुआ उठ खड़ा हुआ।
'' नहीं भई दूध की कोई जरुरत नहीं। '' केवल जल्दी से बोला।
'' आप मत पिलाना यार , हमारा तो पी लो। '' भगवान जाते -जाते बोल गया। भगवान के जाने के बाद राजा और केवल खुसुर - फुसुर सी करने लगे और फिर राजा जोर से हंस पड़ा। भगवान दूध बना लाया और गिलास में डालकर पकड़ा दिया। तीनों गर्म दूध को फूक मार -मार ठंडा कर पीने लगे।
'' और भई तुम्हारे पिंड सब ठीक ठाक हैं बुआ लोग ?'' भगवान ने आगे बात बढ़ाते हुए पहले केवल के घर की कुशल - मंगन पूछी।
'' हाँ भई सब ठीक -ठाक हैं। ''
'' साले उधर तो पूछ ले ठीक है या नहीं। तुम तो यहाँ फिरते हो कताडियां मारते , वह बेचारी मछली की तरह तड़पती जा रही है। ''
भगवान राजे की कही इस बात पर थोड़ा झेंप गया। सोचने लगा केवल इस बात को जान कर मेरे बारे में क्या सोचेगा।
'' क्यों नवविवाहिता से शरमाये जा रहे हो। तुझसे तो वही दलेर है। तुम लड़के होकर लड़के से यारी न निकाल पाये। वह लड़की होकर लड़के से दोस्ती कर गई '' राजा गुरमीत की हिम्मत की तारीफ कर गया।
'' क्यों क्या हो गया ?'' भगवान को चाहे बात का थोडा सा भान हो गया था पर वह चाहता था कि पहले स्पष्ट पता चल जाये।
'' भाई जी यह भेजा है उसने। '' केवल ने एक कागज का टुकड़ा निकाल कर भगवान के आगे कर दिया।
'' तुम लोगों को बता दिया उसने। '' भगवान झट सारी बात समझ गया। ख़ुशी उसके रोम -रोम से नाच उठी। उसके दिल में उठे प्यार के जज़्बे लहरों के से छल्ले बन गए । उसने केवल से दोबारा कसकर हाथ मिलाया और फिर हाथ में पकडे कागज की तह खोली और पढ़ना शुरू किया ....
'' प्यारे भागू !
मेरे जीवन की केवल एक ही सुनहरी किरण। जैसे -जैसे ख़त लिख रही हूँ , आपका चेहरा हर शब्द पर दौड़ता चला जा रहा है। मेरे महरम , कल सोलह तारीख दिन सोमवार करवा चौथ का व्रत है . भारत की हर नारी इस दिन अपने महरम की लम्बी उम्र की प्रार्थना करती है। मैं आपकी लम्बी उम्र के लिए करवा चौथ का व्रत रख रही हूँ और आपको देख कर ही रोटी खाऊँगी। आप कल जरुर आना। अगर आप नहीं आये तो मैंने यह व्रत आपको देखे बिना नहीं खोलना। जल्दी में लिख रही हूँ। समय बहुत कम है। कोई न कोई गलती जरुर रह गई होगी। अपनी जान समझ कर गलती माफ़ करना। आपके इन्तजार में , राहों में नज़रें बिछाए बैठी … आपकी मीत !
'' क्यों क्या सलाह है ?'' भगवान ने ख़त पढ़कर राजे की ओर इशारा किया कि अब क्या किया जाये। असल में भगवान का दिल बिजली की तेजी सा उतावला हो रहा था कि कब वह हवा के झोंखे सा उड़कर अपनी मीती के पास जा पहुंचे पर जाना तो उसे राजे के आसरे से ही था . राजे के बिना वह वहाँ कैसे जा सकता था। वह चाहता था कि राजा उसे जाने के लिए खुद ही कह दे तो ठीक है।
'' सोचता क्या है , क्या रोज़ -रोज़ आते हैं ऐसे दिन ? कर ले तैयारी जाने की, फिर चलते हैं कल नड्डी के पास । '' राजे ने भागू के मन की बात कहते हुए दोनों भौं उठा दी। तीनों ने कल तीन बजे वाली बस से जाने का समय निश्चित कर लिया । राजे ने जाने की इजाजत माँगी पर भगवान ने उनको जोर जबर्दस्ती रोटी खाकर जाने के लिए कहा। उसने अपनी माँ से दूध में सेवइयाँ बनवाईं और सब्जी का देसी घी में तड़का लगवाया। वह चाहता था कि वह केवल की पूरी सेवा करके उसे खुश कर दे ताकि वह जाकर उसकी मीती को बताये। उसे लग रहा था कि वह केवल की नहीं बल्कि मीती की सेवा कर रहा है। खाना खाकर केवल और राजा घर चले गए। भगवान ने वह ख़त दोबारा पढ़ना शुरू किया। ख़त में गुरमीत का गुलाब सा खिला चेहरा उभर आया। वही गुलाबी होंठ , होंठों से चमकते मोतियों से सफ़ेद दांत, नागिन सी बल खाती चोटी और काले सैंडलों में सजे गुलाबी पैर , भगवान को सुध -बुध ही न रही कि वह कहाँ पढ़ रहा है। उसने ख़त अपने सीने से लगा लिया। प्यार के नशे में हिलोरें लेता दिल तेज -तेज धड़कने लगा।

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आज का दिन गुरमीत के लिए बहुत ही भाग्यशाली था। आज उसके प्यार ने उसके पिंड आना था। उसने सवेरे ही उठकर मल -मल कर नहाया। हरा कढ़ाईदार सूट पहना और आँखों में हल्का -हल्का सुरमा रचा लिया। वह कितनी ही देर आईने के सामने खड़ी अपने चाँद से चेहरे को निहारती रही। कोई नई ख़ुशी उसके होंठों से टपक रही थी . उसकी सिंदूरी गालें किसी अजीब ख़ुशी में लाल हो गईं थीं। वह कुछ गुनगुनाती आँगन में मुर्गाबी सी फिर रही थी। भगवान को आज अपने चाँद के रूप में देखने की ख़ुशी उसके अंदर तूफ़ान बन मचल रही थी। गुरमीत चौबारे पर चढ़ गई। उसने अलमारी से एक किताब निकाल ली और चौबारे से बाहर आकर कोठे से झुक कर पिछली गली में निगाह डाली। उनके घर के पीछे से एक चौड़ी गली गुजरती है। इसी गली के सामने वाली कतार में चार , पांच घर छोड़ कर केवल का घर है। केवल की बहन रानी गुरमीत के संग दसवीं क्लास तक पढ़ती रही थी। स्कूल के समय से ही दोनों का आपस में गहरा स्नेह था। दोनों अच्छे नंबर लेकर दसवीं कक्षा से पास हुईं। गुरमीत ग्यारहवीं में पढ़ने के लिए बुढलाडे पढ़ने लगी पर रानी के घरवालों ने उसे पढ़ने के लिए पिंड से बाहर नहीं भेजा और वह दसवीं करके घर बैठ गई। इन दोनों का प्यार अब भी आपस में अच्छा है। कभी -कभी गुरमीत उनके घर हो आती है तो कभी वह उसे मिलने यहाँ आ जाती है , पर आज गुरमीत किसी खास मौके पर जाना चाहती थी , उसी मौके के इंतजार में वह बार -बार गली की ओर निगाह मारती और कभी घड़ी की ओर। उसने चौबारे की पिछली खिड़की जिसमें से गली में जाता आदमी आम दिख जाता है , खोल ली। कुर्सी खींच कर खिड़की के पास कर ली और हाथ की किताब जहां से खुली खोल कर बैठ गई। उसने किताब की सतरों पर निगाह मारी पर झट ही निगाह फिसल कर गली में जा टिकी , जहाँ से उसके भागू ने पार होना था पर गली खाली थी।
घड़ी की सुई टिक -टिक करती चक्कर लगाती रही , उसके पीछे मिनटों वाली सुई और फिर घंटों वाली सुई वक़्त को पीछे धकेलती रही। गुरमीत की उडीक लम्बी होती गई। परछाइयाँ ढलनी शुरू हो गईं। खिला चेहरा उदासी में बदलने लगा पर जिसकी उडीक थी , उसकी झलक भी न दिखी। साढ़े तीन वाली बस ने हॉर्न मारा। गुरमीत दौड़ कर बाहर आई। बस आकर वट के वृक्ष के पास रुकी। सवारियां उतरने लगीं। उतर गईं , पहले से खड़ीं दो जनानियां बस में चढ़ गईं . कंडक्टर ने सिटी मारी और बस फाटक पार कर धूल में गुम हो गई। पर इन्तजार करवाने वाला न आया। गुरमीत की उम्मीदें ढहने लगीं। उसके अंतर से आहें उठने लगीं। वह मन - मन का पैर घसीटती कुर्सी पर गिर गई। उसके अंदर की आहें फूट कर आँखों के रस्ते से बाहर आ गईं। आँखों से छलके पानी ने चाव से डाले सुरमें को तितर -बितर कर दिया . वह अधमोई सी कुर्सी पर लेटी रही। पड़े -पड़े उसके दिल ने कहा कि वह कितनी पागल है , अभी तो कितना दिन पड़ा है और वह पहले ही उम्मीद खो बैठी है। उसका भागू भी तो ऐसा नहीं जो वादा करके न आये। उसने बिखरी उम्मीदों को दोबारा जोड़ लिया और फिर इन्तजार करने लगी। एक बस और पार हो गई पर उसमें भी कोई न आया। फिर साढ़े चार वाली बस ने हॉर्न मारा। मीती दौड़ कर चौबारे से बाहर आई। बस आकर वट के दरख़्त के तले रुकी। सवारियां उतरनी शुरू हो गईं। फिर तीन लड़के उतर आये। गुरमीत ने देखा इनमें से एक तो केवल है। 'दूसरा ?' दूसरा भागू। मेरा भागू। ' गुरमीत की ख़ुशी आसमान तक चढ़ गई। उसकी आँखों में प्यार हिलोरें लेने लगा।
केवल, भगवान और राजा बस से उतर कर गुरमीत के घर की पिछवाड़े की गली पड़ गए । जब गुरमीत का घर चार -पांच क़दमों पर रह गया तो केवल ने भागू को कोहनी मारते हुए सामने वाली कोठी की ओर इशारा कर दिया। . कोठे पर खड़ी गुरमीत हरे सूट में सजी , हरी टहनी पर खिला गुलाब का फूल लग रही थी। भगवान कोठे पर खड़ी गुरमीत की ओर देखता चलता रहा। गली में लगी उबड़ -खाबड़ ईंट उसके पैर से टकरा गई। वह गिरता -गिरता बचा। गुरमीत भगवान को अंगूठा दिखाती खिलखिला कर हँस पड़ी। तीनों मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए।
केवल का घर आम जमींदारों की तरह अच्छा खुला -डुला है। सामने चार कमरे एक कतार में डाले गए हैं। दाहिनी ओर एक रसोई है। रसोई के साथ एक ओटा बना हुआ है और ओटे के साथ कोठे की ओर सीढ़ी चढ़ती है। उससे आगे पहे के साथ लगता तुड़ी वाला कमरा है , जो बिना तख्तों के खड़ा है। बायीं ओर भैंसों की चरनी है। चरनी पर तीन भैंसे और एक कटड़ी नथुने मार -मार सन्नी खा रहे हैं। कुछ सन्नी चरनी से नीचे गिरी हुई है। पिछली ओर दो कटड़े खड़े हैं। सामने की बैठक में रानी सलाइयों से कुछ बुन रही है। केवल और सबलोग जाकर चारपाई पर बैठ गए। रानी पानी लेने बाहर चली गई।
'' बेबे और बाकि सब कहाँ हैं ? '' केवल ने रानी के पानी ले आने पर पूछा।
'' वह तो कपास चुनने गईं हैं। .'' रानी ने सबको पानी डालकर दे दिया।
'' रानी। ''बाहर से किसी ने आवाज दी। आवाज़ जानी -पहचानी लगी .
'' आजा गुरमीत इधर ही। ''रानी ने स्वात के दरवाजे के आगे आकर कहा। उसने आवाज़ पहचान ली थी। भगवान ' आजा गुरमीत ' नाम सुनकर राजे की ओर देखकर होठों ही होठों में मुस्कुरा दिया गुरमीत बैठक में आ गई।
'' गुरमीत यह वीर तेरे साथ पढता है ?'' रानी ने भगवान की ओर हाथ करके गुरमीत से पूछा।
'' हाँ '' गुरमीत हल्का सा मुस्कुरा पड़ी।
'' आपलोग बैठो मैं चाय बनाकर लाती हूँ। '' रानी कहकर बाहर चली गई।
'' हम जायें भाभी अगर बातें करनी हैं तो ?'' राजे ने मसखरी की।
'' नहीं … बैठे रहो । '' गुरमीत नज़रें झुका कर मुस्कुरा पड़ी। उसकी आँखों ने राजे का धन्यवाद किया कि वह उसके भागू को ले आया है। वैसे गुरमीत दिल से चाहती थी कि अगर उन्हें कुछ देर अकेले छोड़ दिया जाये तो वे कुछ खुलकर बातें कर लें।
'' अच्छा भागू , आपलोग बैठो हम जरा अपनी बहन से बातें करके आते हैं । '' राजा और केवल रानी के पास आ गए। भगवान और गुरमीत किसी मुँह माँगी ख़ुशी से मुस्कुरा पड़े।
'' और सुनाओ जी क्या हाल हैं ?'' भगवान गुरमीत के गोरे चेहरे को निहारता हुआ बोला।
'' हाल तो आपसे ही जुड़ा है , अगर आप ठीक हो तो हम भी ठीक हैं। अगर आप दुखी हैं तो हम आपसे पहले दुखी हैं। '' गुरमीत ने अपने आपको भागू को समर्पित कर दिया।
'' न आज हमारी क्यों भागा - दौड़ी करवाई ?'' भगवान को आज आने का मकसद याद आ गया।
'' अगर नहीं आते तो मैंने रोटी नहीं खानी थी बेशक मर जाती '' गुरमीत गंभीर हो गई।
'' हम भी अपनी गुरमीत के फूल की लगी नहीं सहारते। चाहे लाख आँधियाँ झेल कर आना पड़ता। '' भगवान जज़बाती हो गया।
'' आज इस तरह करना भागू जी , मुँह अँधेरे कोठे पर चढ़ जाना। ''
'' क्यों धक्का देना है ?'' भगवान की बात पर दोनों खिलखिला कर हँस पड़े।
'' नहीं , आपको देख कर पूजा करके फिर रोटी खानी है। '' गुरमीत को भगवान अपना साथी , महरम और रब्ब सबकुछ लग रहा था।
'' क्यों किसने खानी है रोटी ?'' राजे के कानों में अंदर से आते हुए टूटे - फूटे शब्द सुनाई पड़े .
किसी ने नहीं यह तो कोई और बात थी। '' भगवान ने राजे के पीछे चाय लेकर आती रानी और केवल को देख कर बात पलट दी।
'' भई चाय तो ज्यादा है मैं कम पीता हूँ। '' भगवान ने गिलास उठाकर रानी की ओर बढ़ा दिया।
'' पी ले पी ले हवा छोड़ रहे हो यहाँ । घर में तो तेरी दो बाटे पिए बिना आँखें नहीं खुलती .'' राजे ने मसखरी की।
'' वीर जी , चाय तो कम ही थी। '' रानी ने चाय वाला जग भगवान की ओर बढ़ा दिया। भगवान ने आधी चाय जग में निकाल दी। चाय पीने के बाद रानी बर्तन इकट्ठे कर बाहर ले गई। उसके पीछे गुरमीत भी चली गई। दोनों काफी देर ओटे के पास बैठी बातें करती रहीं। फिर गुरमीत अपने घर चली गई।
राजा , गुरनैब और केवल तीनों रोटी खाकर कोठे पर आ बैठे थे। वे गुरमीत के चौबारे की तरफ मुँह करके बातें करते रहे। गुरमीत भी एक -दो बार कोठे पर आई और जरा सा दिखलाई देकर नीचे उतर गई। धीरे -धीरे सारा पिंड अँधेरे में डूबता गया। काफी अँधेरा हो जाने पर गुरमीत के चौबारे के किनारे लगा बल्ब जल उठा। बल्ब की रौशनी में फिरती गुरमीत ने खड़ी होकर केवल के कोठे की ओर देखा। चाहे अँधेरा काफी था पर गुरमीत का घर केवज के घर से ज्यादा दूर न होने के कारण ध्यान से देखने पर कोठे पर चलता -फिरता आदमी नज़र आ जाता था। गुरमीत को खड़ी देखकर भगवान ने हाथ खड़ा करके हवा में हिलाया , गुरमीत ने भी उसका जवाब हाथ हिला कर दिया। फिर गुरमीत ने गिलास में डाला पानी भगवान की ओर सात बार उछाला और हाथ जोड़ दिए। वह हाथ खड़ा कर हिलाती हुई कोठे से नीचे उतर गई।
जब रोटी खाकर घंटे बाद चाँद को अर्घ देने वाली सुहागनों के साथ गुरमीत कोठे पर चढ़ी तो उसने देखा , भगवान उनलोग अभी भी कोठे पर बैठे बातें कर रहे हैं। '' ओये बुद्धूओ ! अभी तो नीचे उतर जाओ , अब तो रोटी खाये को भी घंटा हो गया। '' गुरमीत ने बड़ -बड़ करती ने माथे पर हाथ मारा। सारी सुहागनों ने पंडताईन से कहानी सुनते वक़्त पल्ले से बांधे दाने पानी की भरी बाल्टी में डाल लिए। फिर उसमें सबने खिल्लां और सेव की फड़ियाँ डालीं। गुरमीत उनलोग खड़ी होकर सबकुछ देखती रहीं। सबने एक -एक हाथ से बाल्टी उठाई और चाँद की ओर करके पानी उछालते हुए अर्घ देना शुरू किया।
सोहणियां परमोहनियां
सोहणियां घर बार !
बाले चंदा अर्घ लै ,
दे लोडे घर बार
हथ कड़ी , पैर कड़ी
सुहागन भागन
अर्घ देण चौबार चढ़ी !
अर्घ देने के बाद सबने भोग बांटा और फिर धीरे -धीरे कोठे से नीचे उतर गईं।
'' बाबा जी अब तो नीचे उतर जाओ। '' गुरमीत ने पहले हाथ जोड़े और फिर थोड़ा झुक कर अदब के साथ एक हाथ छाती से आगे करके जाने का हुक्म दिया। जब भगवान उनलोग नीचे उतर गए तो गुरमीत ने चौबारे का बल्ब बुझा दिया और सुरमई अँधेरे में हँसी की महक बिखेरती नीचे उतर गई।

19
जो प्यार को पैसों से तोलने लग जाये वो कभी साथ नहीं निभा सकता। पैसों की मोटी परत के नीचे प्यार का दम घुट जाता है। यदि प्यार को लालच का घुन लग जाये वह अंदर से खोखला होता -होता एक दिन दम तोड़ देता है। यही कुछ हुआ था भगवान के प्यार के साथ। लालच में आकर किरना ने भगवान का प्यार आसमान से धरती पर पटक दिया था। और लालच में आकर किसी और की छाती से जा लगी। ऐसी लालची प्रवृति दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़ती रहती है जो चाहने से भी घटती नहीं। अब किरना को तेजी के तिलों से तेल निकल गया लगता था या किरना को कोई और बड़ा शिकार मिल गया था। वह तेजी को बदली -बदली सी लगी , जब से वह अपनी बहन से हीरों खुरद चार-पाँच दिन लगा कर आई थी।
उसकी बहन का पति हरमेश किरना पर अँधेरी सी चढ़ी जवानी देख आँख मैली कर बैठा। उसके अंदर का शैतान कुम्भ करन की नींद से जाग पड़ा। हरमेश ने अपने दिल -दिमाग से बुना जाल किरना पर फेंकना शुरू कर दिया। किरना भी अब पहले वाली किरना नहीं थी। अब उसके दिमाग में पैसे की लालसा बढ़ती ही जा रही थी। वह दिन पर दिन, बेगैरत, बेशर्म होती जा रही थी। किरना अपना प्रभाव डालने के लिए पहले एक - दो दिन तो हरमेश को ऊंगलियों पर नचाती रही पर फिर उससे खुली बाहें लेकर आ मिली। किरना को पाकर हरमेश को अपना आप हवा में उड़ता नज़र आया। जब से किरना हीरों रहकर शांतपुर आई , हरमेश के फेरे शांतपुर बढ़ने लगे। वह एक - दो दिनों बाद कोई न कोई बहाना लगाकर चक्कर मार जाता। चोर को चोर और आशिक को आशिक दूर से पहचान लेता है। तेजी को भी बात समझते देर न लगी। पहले किरना दस - पंद्रह दिनों पर किसी न किसी बहाने तेजी के घर या सुखपाल के घर आ जाती थी पर अब संदेशा देने के बावजूद भी किरना का न आना और दिन प्रतिदिन हरमेश के लगते चक्कर किसी अनहोनी का सूचक थे। तेजी को अपनी बेड़ी समुन्दर में डूबती नज़र आई। वह कुछ न कर सका। बस बेबस हुआ आँखों के सामने बदलते हालात देखता रहा। कभी वह अपने आपको टटोलता कि 'कहाँ चूक रह गई जिसके कारण किरना ने उससे मुँह मोड़ लिया।' वह चारो ओर सोच के घोड़े दौड़ाता पर कुछ हासिल न होता। 'कभी वह सोचता कि भगवान जैसे दरवेश लड़के से उसका प्यार छीनकर मैंने खुद पाप खट लिया है। अब वही मुझे भुगतना पड़ रहा है'. कभी वह अपने आप ही मन में आये इन विचारों को रद्द कर देता। ' इस तरह भला कौन किसी का प्यार छीन सकता है ? अगर इस तरह प्यार छिना जा सकता तो अब तक सारे पैसे वाले प्यार की कोठियाँ न भर लेते। असल में किरना ने किसी से प्यार किया ही नहीं वह तो अपना मूल्य डालती रही , जो पहले मेरे पास आई। फिर उससे बड़े व्यपारी बोली डाल कर ले गए।' वह सबकुछ समझ जाता है।
अब कुछ दिनों से तेजी को कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करे। उसकी हालत पल -पल पतली होती जा रही थी। उसके अंदर अपने आप के प्रति पछतावा और किसी के लिए गुस्से के सैलाब का संघर्ष चल रहा था। वह मुर्दा लाश की तरह आँगन में इधर -उधर चक्कर काटने लगा , फिर वह गिरता -पड़ता चौबारे जा चढ़ा। वह बेजान सा चारपाई पर जा गिरा। छत की ओर निगाह टिकाये वह कितनी ही देर एकटक देखता बेसुध पड़ा रहा। उसकी सोच भटके राही की तरह इधर -उधर भटकती रही। फिर उसे किरना की सहेली की याद आई। 'क्यों न सुखपाल के जरिये किरना को बुलाकर उसके साथ एक बार बात की जाये ' तेजी बीमारों की तरह बिस्तर से उठा और सुखपाल के घर की ओर चल पड़ा। सुखपाल बाहर ही गोबर से उपले बना रही थी। वह तेजी को आता देख होठों में मुस्कुरा पड़ी। तेजी ने ढीले से मुँह से सुखपाल के पास जाकर कहा , '' बहन एक काम करोगी ?''
'' क्या ?'' सुखपाल ने पूछा।
'' किसी भी तरह से एक बार किरना से मिला दे। '' तेजी दिल से गिड़गिड़ाया। उसका दिल अभी भी किरना की चाहत में गोते खा रहा था।
'' पहले कितने संदेश भेज दिए आती तो है नहीं। ''
'' मेरे बारे में मत बताना उसे , तू किसी और बहाने से बुला ला। मैंने तो चार बातें ही करनी हैं उससे। ''
'' अच्छा , जिस दिन घर में कोई नहीं होगा बुला लाऊंगी उसे, तुम आ जाना। ''
'' फिर मुझे कैसे पता चलेगा ?'' तेजी को आस की किरण के साथ ही इक मुश्किल दिखाई दे गई।
'' मैं तुम्हारे घर के सामने से जाऊँगी और जाते हुए घर होकर जाऊँगी। ''
'' अच्छा। '' तेजी का मुरझाया चेहरा खिल गया। वह बाड़े से सुखपाल के घर की ओर चल पड़े। गेट के पास जाकर सतगुरु को देखते ही तेजी ने आवाज़ मारी , '' वीर घर में ही है ?''
''हाँ आजा - आजा। '' सतगुरु भैंसों को पानी पिला रहा था। तेजी ने उससे हाथ मिलाया और फिर बातें करने लगे। आधे घंटे बाद तेजी वहाँ से घर की ओर चल पड़ा।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: भागू (उपन्यास )

Post by Jemsbond »

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सुखपाल तीन -चार दिन इन्तजार करती रही पर उसे कभी अकेले रहने का मौक़ा न मिला । छठे दिन सुखपाल का बापू और उसका भाई पांच तारीख की मंडी में सुनाम भैंस बेचने चले गए। उसकी माँ ने चिमिया से कपड़ा लेकर आना था। वह चाहती थी कि सुखपाल घर में अकेली रह जायेगी इसलिए वह भी साथ चले पर सुखपाल ने कह दिया कि वह किरना को यहाँ बुला लेगी और फिर दोनों इकट्ठी तकिये पर कढ़ाई कर लेंगी। अपनी माँ के जाने के बाद सुखपाल बार को बाहर से कुण्डी लगाकर किरना को बुलाने चल पड़ी। जाती हुई वह तेजी के घर होती हुई गई। फिर वहाँ से सीधी खेतों के बीच से होती हुई किरना के घर की ओर चल पड़ी।
सोने रंग की फसल अपनी जवानी में झूल रही थी। कहीं -कहीं कम्बाइन की काटी फसल के करचे ताज़ी कतरी दाढ़ी की तरह खड़े थे। कहीं -कहीं एक -आध भैंस चर रही थी। ढलती ओर ऊंची टिब्बी के ऊपर हरी -कचार कपास में खिले सफ़ेद फूल , हरे सूट में की चाँदी रंगी कढ़ाई सी नज़र आ रही थी। पूर्व में उगे सूरज की तीखी किरणों ने सुनहरी फूलों को और चमका दिया था। सुखपाल किरना को लेकर परत आई। दोनों लड़कियां जवानी की लोर में झूलती , जवान फसल में महक बिखेरती चली आ रही थीं। कभी -कभी किरना का धारीदार दुपट्टा हवा में हलराता धान की फसल की गुंबदों पर गुदगुदी निकाल जाता। तेजी कोठे पर खड़ा इन्हें आते देख रहा था। उसका शरीर किरना की बेवफाई के कारण गुस्से से तप रहा था। वह किरना की बेवफाई पर लानतें डाल अपना दिल हल्का करना चाहता था। कभी -कभी वह अपने आप को दोष देने लगता कि वह क्यों नहीं समझ सका कि किरना इतने शरीफ भगवान को छोड़ कर उसके साथ आ जुडी थी तो कभी उसे भी छोड़ सकती है। उससे वफ़ा की आस करना उसकी अपनी बेवकूफी थी। जब दोनों घर पहुँच गईं तो तेजी कोठे से उतर कर उनके पीछे ही चल पड़ा। उसके जाते ही सुखपाल रसोई में चाय बनाने चली गई और किरना आँगन में पड़ी चारपाई पर बांह के भार आधी लेती हुई थी . तेजी को आते देख वह होठों में झूठ- मुठ का मुस्कुराई और चारपाई पर ठीक होकर बैठ गई।
'' क्या हाल हैं तुम्हारे नए साथी के ?'' तेजी ने जाते ही सच्ची बात किरना के माथे पर दे मारी।
'' कौन सा साथी ?'' किरना ने सबकुछ जानते हुए भी अनजान बनते हुए पूछा ।
'' इतनी जल्दी उसे भी भूल गई ?''
'' किसे ?''
'' जो नया बनाया है हीरों वाला .''
तेजी के सही निशाना लगाने पर किरना का चेहरा उतर गया। उसकी खुली आँखें शर्म से झुक गईं। फिर उसने अपने आपको सम्भालते हुए कहा , '' तुझे किसने वहम डाल दिया ?''
'' वहम ?'' पहले चौथे -पांचवें दिन अपने आप आ जाती थी मिलने , अब संदेशा देने के बावजूद नहीं आती। अगर घर जाता हूँ तो सामने नहीं आती। और फिर तेरे उस नए यार के हर दिन लगते चक्कर , क्या यह वहम है सबकुछ ?''
तेजी का कड़कड़ाता सच सुनकर किरना हड़बड़ा गई।
''म .... मैं .... मैंने क्या किया ?'' किरना को कोई जवाब न सुझा। उसके झूठे तीर चलने से जवाब दे गए।
'' अभी मुझे पूछ रही है कि मैंने क्या किया। यही अपने आप को पूछ भई मैंने क्या किया ?'' तेजी की आवाज़ ऊंची हो गई।
'' क्यों सौतनों की तरह लड़ रहे हो। ये लो चाय पी लो पहले। ''
सुखपाल ने चाय का जग और तीन गिलास चारपाई के सामने रख दिए।
'' सुखपाल इसे देख अभी कहती है मैंने किया क्या है ?''
तेजी ने बच्चों की तरह किरना की शिकायत सुखपाल से की।
किरना तू चाहे गुस्सा कर चाहे गिला कर , तुम्हारा ये काम बिलकुल गलत है । '' सुखपाल सच के पलड़े में आ चढी ।
'' सुखपाल ये तो मेरे साथ धक्का हुआ है.'' किरना अभी भी सच्चाई से भाग रही थी।
धक्का भी तब होता , अगर आगे से कोई करवाना चाहता हो। '' तेजी ने किरना की बात बीच में ही रोक कर कहा।
'' तो तुम कौन सा किसी एक के साथ इश्क़ लड़ाते हो .'' किरना अपने असली रूप में आना शुरू हो गई थी .
'' कहला दे किसी से अगर तेरी बात सच हुई तो गला कटवा दूँगा । '' तेजी का गुस्सा दिमाग में जा चढ़ा।
'' मुझसे नहीं तुम्हारे साथ जवाब देही होती , तुम कर लेना जो करना है। '' किरना ने अपना नकली नकाब अब उतार दिया था।
'' मैंने कहा चल क्या गंदे के साथ गंदा होना , वर्ना कर तो मैं बहुत कुछ सकता हूँ। ''
'' तेजी इधर आ ! बैठ कर बात कर शांति से। '' सुखपाल ने तेजी को आँखों से घूरते हुए चारपाई पर बैठने का इशारा किया।
'' नहीं सुखपाल मैं जाता हूँ। '' कहकर तेजी चल पड़ा।
'' ओये बात तो सुन …।'' सुखपाल के बोल रस्ते में ही गुम हो गए। तेजी गेट से बाहर आ गया।
तेजी ने चाहे अपने दिल की भड़ास निकाल ली थी पर उसका अंदर का दुःख अभी भी गीली लकड़ी सा सुलग रहा था। उसके अंदर हौके की गाँठ सी बन गई थी। उसका शरीर गुस्से और पछतावे के दर्द से सुन्न होता जा रहा था। वह बीमारों की तरह गिरता -पड़ता अपने घर के पास आ गया। उसके कदम रुकते -रुकते फिर चल पड़े और वह सड़क को जाती पही पर आ चढ़ा । आज वह पीड़ाओं से लदा दिल भगवान के आगे खोलना चाहता था। उसे लगा उसके बिना उसका दर्द कोई नहीं समझ सकता। वह पही का पहला मोड़ मुड़ गया। पही की वट्ट पर खड़े बेरी के पेड़ के छोटे -छोटे चार -पांच दरख्त आग की ताप से झुलस गए थे.. जब कोई हवा का झोंका बेरियों के इन सूखे पत्तों से छेड़ -खानी करता गुज़र जाता तो , वह किसी डरावने संगीन में चीखने लगते। तेजी सफेदों की लम्बी कतार के सामने आ गया। उसने आसमान छूते सफेदों की ओर निगाह मारी। ' शायद किरना का कद भी अब इन सफेदों की तरह ऊंचा हो गया है , जहां मैं कोशिश करने पर भी नहीं पहुँच सकता। ' उसने नज़दीक के पानी की खाल में मेंढक की कुलराहट भरी टर्र -टर्र सुनी। उसने दौड़ कर पानी की खाल में देखा। सांप ने मेंढक को गले से पकड़ा हुआ था। तेजी ने कोई चीज उठाकर मारने के लिए इधर -उधर देखा। इतने में साँप मेंढक को लेकर गायब हो चुका था। 'छोटे को अक्सर बड़ा जानवर मारता है। ऐसा क्यों है ?' उसे कोई उत्तर न सुझा। वह पही से सड़क पर आ गया। सड़क पर जाकर उसके कदम रुक गए। 'मैं जाकर भगवान को क्या कहूंगा ?ये कि किरना मुझे छोड़ गई ! नहीं … नहीं !उसके पास इसका क्या इलाज है। और फिर मैं भी तो उसका दोषी हूँ। उसके भर आये ज़ख्म फिर कुरेदूं ? नहीं .... नहीं मुझे उसके पास नहीं जाना चाहिए। ' वह वहीँ से वापस हो गया।

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धीरे -धीरे किरना और हरमेश के संबंधों की घर में भनक लगने लगी। ख़ास कर उसके दोनों भाइयों को। वह पिंड के लोगों या ऐरे -गैरे से सुनी बातों की औसत लगाने लगे थे। अब तो मेवी ने भी कितनी बार किरना को खुद हरमेश से बातें करते देखा था। उसने क्रोधित आँखों से कई बार किरना और हरमेश को घूरा भी था। किरना देखकर नज़रें नीची कर देती पर हरमेश पर इन गीदड़ भभकियों का कोई असर न हुआ। मेवी अंदर ही अंदर विष घोल कर रह जाता। वह सोच रहा था कि अगर घर में शोर शराबा किया तो अंतकर लोगों के कानों तक ये बात पहुँच ही जायेगी। फिर लोगों को मुंह दिखाने लायक भी न रहेंगे। इसलिए उसका तूफ़ान बनकर उठा गुस्सा , होंठों तक आ कर ख़ुदकुशी कर लेता। पर जब बात हद से गुजर गई तब उसके लिए बर्दाश्त करना कठिन हो गया। एक दिन मेवी ने हरमेश के परत जाने के बाद गुस्से में तपे हुए अपनी माँ से कह दिया , '' बेबे इसे कह दे यहाँ न आया करे। ''
'' किसे ?'' माँ उसकी बात समझी नहीं थी।
'' अपने जमाई को बहन चोद को और किसे। '' मेवी का गुस्सा आँखों में सुलग उठा।
'' क्यों इसने क्या तेरी बालियाँ चुरा लीं ? घर के जवाकों की तरह है बेचारा। आकर चुपचाप चला जाता है , भला तेरे क्या पैर लिताड़ता है वो ?'' गेजो जमाई के लिए ऐसे शब्द सुन गुस्सा हो गई।
'' पैर लिताड़ने की अभी आपको क्या सूझ नहीं ? सारे पिंड में बहन चो .... ढोल बज गया है। '' मेवी का गुस्सा जेठ - अषाढ़ की शिखर दोपहरी की तरह तप उठा।
' लोगों का क्या है लोग तो सौ -सौ बातें करते हैं। '' गेजो को चाहे कुछ -कुछ बात समझ आ गई पर उसने बात को टालना चाहा। उसे डर था कि कहीं बेटा और जमाई आपस में मार-पीट न कर बैठें।

पास बैठे किरना के बाप और चाचा को भी यह बात चिंता में डाल गई। उनकी सोचने की शक्ति का चोर दरवाजा भी खुल गया , जिसे उनहोंने कभी खोल कर नहीं देखा था। मेवी की कही बात उसके पिता के दिमाग में सुई की तरह आ चुभी। चोट लगने पर दिमाग हवा के झोंखे की तरह हरकत में आ गया। उसने सोचा ,'' जमाई पहले कभी -कभार पांच -छे महीनों में चक्कर मारता था पर अब दूसरे -तीसरे दिन ही .... कोई बात तो है। '' उसकी आँखों के आगे जमाई और किरना का हँस -हँस कर धीरे -धीरे बातें करने का दृश्य आ घुमा , जिसे पहले उसने गहराई से न सोचने के कारण आँखों से ओझल कर रखा था। उसे जमाई अपने अपनी टाँगे खींचता नज़र आया। उसे लगा जैसे उसकी सफ़ेद पगड़ी मिटटी में मलिया मेट हो गई हो। इक गुस्से की चिंगारी उसके बूढ़े शरीर में सुलग उठी। उसका दिल किया किरना को गले से पकड़कर मरोड़ दे पर कोठे जितनी बड़ी हुई लड़की पर हाथ कैसे उठाये ? '' अब क्या करूँ ?'' उसने अपने आपको पूछा. फिर वह कितनी ही देर सोचों में डूबा रहा।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Jemsbond
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Re: भागू (उपन्यास )

Post by Jemsbond »

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ज्यों - ज्यों दिन बीतते जा रहे थे , रुलदू सोचों के जाल में और गहरा धँसता जा रहा था। उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था कि वह अब क्या करे। किसके आगे अपने दुःख का पुलिंदा खोले ? इक दिन हरनाम तोलावाल से पिंड को चला आ रहा था। जब वह रुलदू के घर के पास आया तो रुलदू ने आवाज़ मार ली , '' आ भई हरनाम सिंह , आजा दो मिनट दम लेकर चले जाना। ''
'' बस दम अब क्या लेना कुछ ही कदमों की दूरी रह गई अब तो। '' हरनाम कहता हुआ रुलदू की ओर बढ़ गया।
'' चिमीआ से कहते हैं अपने पिंड की बस अभी घंटा भर नहीं आनी । मैंने कहा चलो तोलावाल तक तो फिर बस में चढ़ कर चलते हैं। आगे का दो मिनट का रास्ता है पैदल चला जाऊँगा। .''
'' हाँ तोलावाल से ज्यादा दूर नहीं अपना पिंड। '' रुलदू ने हामी भरी।
कुछ देर दोनों चुप बैठे रहे या छोटी - मोटी बातें करते रहे पर रुलदू ने जिस मकसद के लिए हरनाम को आवाज़ दी थी वह अभी तक कह नहीं पाया था। आखिर उसने अपने दिमाग की उलझी गाँठ खोल ही दी , '' हरनाम सिंह , कोई अपनी गुड्डी के विवाव के लिए कोई रिश्ता बता। ''
'' कैसा लड़का चाहिए ?'' हरनाम ने अपनी बाज़ सी आँखें रुलदू के चेहरे पर टिका कर उसका भीतर पढ़ना चाहा ।
'' माता -पिता तो चाहते ही हैं कि उसके बेटा -बेटी को अच्छा घर -बार मिले पर अगला भी तो उतना ही मुँह खोलेगा न। '' रुलदू ने ये बात कहकर अपनी आर्थिक हालत की ओर हरनाम की नज़र दौड़ा दी।
'' वह तो अब रुलदू तुझे पता ही है आजकल क्या हो रहा है। फिर भी मैं कोशिश करूंगा कोई ठीक -ठाक रिश्ता मिल जाये।
'' बस चार -पांच किले हों तो बहुत है। लेने देने की बात भई तुझे पता ही है जितनी पहुँच है देंगे ही। '' रुलदू की सवालिया नज़रें हरनाम की कुतरी मूछों पर जा टिकीं , जिसे वह बार -बार बट दे रहा था..
हरनाम कुछ देर सोचता इधर -उधर देखता रहा। फिर उसने अपने सर पर रखी ढीली पगड़ी को दोनों हाथों से हिलाया , जैसे किसी बात को कहने के लिए अपनी पगड़ी के नीचे खोपड़ी में पड़ी बात को ठीक कर रहा हो। फिर मूछों पर हाथ फेरता हुआ बोला , '' रुलदू सिंह रिश्ता तो है एक अपनी निगाह में , मेरे साले के साले के लड़के का , गंडुआ से। किले हैं चार। जमीन है भैंसे के सर जैसी। अगर देखना है तो चले जायेंगे कभी। ''
'' मैं तो तैयार हूँ। तुम देख लो कब समय निकाल सकते हो ? '' कोई मीठी सी ख़ुशी रुलदू के बूढ़े शरीर को छेड़ गई।
'' कल तो हमने गेहूं बोना है . दो किले रह गए हैं , तुम परसों तैयार रहना। '' कुछ सोचते हुए हरनाम फिर बोला , '' तुम ऐसे करना , मेरी तरफ आ जाना ,वहीँ से इकट्ठे चले जायेंगे। ''
'' ठीक है ऐसे ही कर लेंगे फिर। ''
'' अच्छा अब चलता हूँ फिर। '' हरनाम जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। इतने में गेजो चाय की गड़वी और दो गिलास ले आई , '' अरे भाई , चाय पीकर जाना अब .''
'' अरे ! ये तकल्लुफ क्यों की। '' हरनाम ने दोबारा बैठते हुए कहा।
'' लो भई तकल्लुफ कैसी , क्या पता आज कैसे आ गए। '' गेजो दोनों गिलासों में चाय डालकर अंदर चली गई . हरनाम और रुलदू चाय पीने के बाद भी कितनी देर बातें करते रहे। फिर परसों गंडुए जाने की बात पक्की कर हरनाम उठ खड़ा हुआ ।
रुलदू परसों से अपने मन के अंदर किसी गहरी ख़ुशी के लड्डू फोड़ रहा था। उसे लग रहा था जैसे उसके सर से मनो का बोझ बस उतरने ही वाला है। . वह नए बनने वाले रिश्तेदारों के घर को अपने मन में कई बार चित्रित कर चुका था। लड़के की अनदेखी शक्ल भी उसकी आँखों के आगे भेष बदल- बदल के आ रही थी । आज उसने गँडुआ जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। कंधे पर चारखाने वाला गमछा रखा और साईकिल के पैडल मार कर पिंड हरनाम के पास आ गया। उसके जाने से पहले ही हरनाम तैयार होकर चुल्हे के पास बैठा हुआ था। उसकी घरवाली ने पतीली में चाय चढ़ा रखी थी। दोनों ने घूंट -घूंट चाय पी और फिर पिंड से ही लहरे वाली बस में चढ़ गए। ग्यारह बजते -बजते वे संगतपुर पहुँच गए। वहाँ से साढ़े ग्यारह बजे मिन्नी बस गँडुआ की ओर जानी थी। बस आने तक वे अड्डे पर बैठे बातें करते रहे। जब बस आई तो वे गंडुआ के लिए चढ़ गए।
गंडुआ बस स्टैड पर उतर कर वे पिंड की सड़क पर चल पड़े। पहली गली छोड़ कर वे दूसरी गली मुड़ गए। आगे दाहिनी ओर दो -तीन घर छोड़ कर लकड़ी के तख्तों वाले घर जा खड़े हुए। हरनाम ने रुलदू को इशारे से समझा दिया। फिर हरनाम ने बाहर से ही आवाज़ मारी , '' धन्ना सिआँ ....घरे आँ ? ''
'' आजा भई हरनाम सिंह अंदर आ जा । '' आँगन में खटिये पर बैठा अधेड़ सा आदमी गमछा झाड़ता हुआ उनकी ओर चल पड़ा। तीनों ने आपस में हाथ मिलाये और आँगन में बिछी चारपाई पर जा बैठे ।
'' वह तीन गिलास चाय के बना देना ज़रा । '' धन्ने ने वहीँ बैठे ने ही अपनी घरवाली को आवाज़ दी।
'' बनाती हूँ '' औरत ने स्वात (बड़ा कमरा ) से निकल कर हरनाम और उसके साथ आये अनजान व्यक्ति की ओर गहरी नज़रों से देखा और फिर चाय बनाने चली गई। चाय बनाते हुए उसके दिमाग में कई दिन पहले हरनाम को कही बात याद आ गई , '' भाई हमारे लड़के का भी कोई उपचार कर । ' बात याद आते ही उसके पक्के रंग में खुशी की लालिमा झलक पड़ी। वह कुछ पल के लिए चाय बनाना छोड़ कर रसोई की खिड़की से लड़की के बाप को देखकर लड़की के रूप-रंग का अंदाज़ा लगाने लगी। गोरा अछूता रंग , हलकी- हलकी झलकती लाली और आँखों में कोई अनोखी सी चमक । फिर उसने बाप के बुढ़ापे पर लड़की की जवानी को तौला। उसकी कल्पना में परियों जैसी लड़की आ बसी , जिसका रूप झेला नहीं जा रहा था। फिर उसकी सोच ने पासा पलटा , 'कहीं यह लड़की का चाचा या ताऊ तो नहीं ? चलो जैसी भी हो लड़के की रोटी पकती हो जाये बस। ' उसने सोचा ।
रुलदू ने बैठे -बैठे पूरे घर का गहरी नज़रों से निरिक्षण किया। उनके पिछली ओर दो कमरे , जिनको बाहर की ओर से पलस्तर किया गया था । जिनमें से एक में भूसा डाला गया था और दूसरी अपने प्रयोग करने के लिए थी। भूसे वाली स्वात के दरवाजे नहीं थे। उसके दाहिनी ओर रसोई थी , उसके आगे बड़ा नीम का दरख़्त और आगे गली से लगती इक बैठक , जिसकी अभी लिपाई करनी बाकी थी। उसके बायीं ओर भैंसों की चरनी थी जिस पर दो भैसे और एक डेढ़ साल की जवान भैंस बँधी खड़ी थी . उसके पीछे दो महीनों की एक कटरी बैठी थी । उसके आगे नलका और फिर फिरनी (गाँव के चारो ओर की परिक्रमा का मार्ग ) के साथ लगता नहाने का स्थान बनाया गया था जिसकी ओट का काम सफेद पर्दा कर रहा था। रुलदू को हरनाम ने रस्ते में ही बता दिया था कि वे दो भाई ही हैं उनके, लड़की कोई नहीं। छोटा भाई गाडी चलाता है और हर महीने दो हजार कमा लेता है। रुलदू ने नज़रों ही नज़रों में घर को दो हिस्सों में बाँट कर देखा , उसका मन तिड़क गया पर किरना और जमाई के मिलन से होने वाले खतरे और किरना की दिन पर दिन बढ़ती उम्र की चिंता मलहम बनकर उसके मन की दरार में भरने लगी . बाकी की कसर हरनाम, धन्ने और उसकी पत्नी ने पूरी कर दी। उन्होंने मीठी -मीठी बातें करके ' कुल्ली में लाल किला दिखला ' दिया। अब बस बाकी था तो लड़के को देखना। धन्ने ने मौका सम्भाला और तुरंत साईकिल पर जाकर खेत से लड़के को बुला लाया। लड़के ने आकर सत श्री अकाल बुलाई और चारपाई पर साथ ही बैठ गया। रुलदू ने गहरी नज़रों से लड़के का रंग रूप और शरीर खंगाला। गठीला शरीर , चौड़ी छाती और रंग पक्का था पर लड़के के तीखे और सुंदर नैन - नक्श बदसूरत कहने वाले की ओर आँखें तरेरते थे। . रुलदू को लड़का पसंद आ गया। उसने इशारे से हरनाम को अपनी पसंद बता दी। फिर हरनाम धन्ने और उसकी पत्नी को अंदर ले गया। वे काफी देर घुसुर -फुसर करते रहे। लड़का और रुलदू बाहर बातें करते रहे।
फिर कुछ देर बाद हरनाम और रुलदू बस अड्डे पर खड़े थे। लड़का उन्हें बस अड्डे तक चढ़ाने आया था। जब बस आई तो लड़के ने दोनों को दुबारा 'सत श्री अकाल' बुलाई और किसी अनोखी ख़ुशी से भरा हुआ घर परत आया ।

20


गेहूं की फसल अब घुटनों को छूने लगी थी। दूर तक पसरी हरियाली यूँ लगती जैसे किसी ने धरती पर हरी चादर बिछा दी हो। गेहूं की वट्टों के साथ निकाली गई सरसों की कतारों में अब फूल उतर आये थे। पीले -पीले फूल हरियाली की चादर के ऊपर किसी सुंदर जट्टी द्वारा चाव से निकाली गई कढ़ाई की तरह लग रहे थे। सरसों के फूलों ने सारी कायनात भीनी -भीनी खुशबू से भर दी थी। हवा का कोई भटका झोंका , फूलों से लदी सरसों से टकरा जाता तब खुशबूओं की अंजुली भर -भर हरी फसल पर बिखेर जाती । खुशबू से भरी फसल अपना सर हिलाने लग पड़ती , हवा के रुक जाने पर पहले की तरह शांत हो जाती , जैसे फिर खुश्बुओं के लदे झोंके के इन्तजार में सब कुछ भूल कर अडिग खड़ी हो किसी मीत का इन्तजार करती प्रेमिका की तरह।
एक तो इस रूत में पंजाब की धरती में स्वर्ग उतरा होता है । दूसरा इस रुत में पंजाब के लोग खास करके गांव में रहने वाले खेती-बारी के काम से मुक्त होते हैं। वे इस रुत का लाभ उठाते हुए तमाम खुशियों के काज विहार इस रुत की झोली डाल देते हैं। पिंड में हर रोज़ एक -आध शादी या अखंड पाठ अक्सर होते रहते हैं। रुलदू ने भी इस महीने को विवाह के लिए चुना था। फिर गंडुआ वालों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था कि वे जवाब दे देते। उनके लिए तो ' बिल्ली के भाग्य से छीका टूटा ' वाली बात थी । उन्होंने झट हाँ कर दी। . रुलदू ने महीने का विवाह निकलवाया था। लकड़ी का घर से देने वाला समान पहले ही तैयार था , बाकी दो तीन दिन में शहर से लाने वाली वस्तु भी ले ली गई। कड़ाही का समान दो -चार दिन रहते ले आया गया। हीरो वाली लड़की और जमाई चार दिन पहले ही आ गए । लड़की ने विवाह तक यहाँ पक्के डेरे लगा लिए पर जमाई का काम की वजह से एक पैर शांतपुर और एक हीरों होता। असल में शांतपुर वाले भी अब उसे ज्यादा मुँह नहीं लगाते थे पर लड़की को तो काम काज के लिए बुलाना ही था। किरना के चेहरे पर अपने विवाह की ख़ुशी की प्रात के नीचे इक उदासी भी छुपी हुई थी। उसे पता चल चूका था कि लड़के का रंग पक्का है , जो किरना की सोच से बिलकुल उलट था। उसने तो दिल के कैनवास पर एक गोरे चिट्टे , शरबती आँखों वाले सुंदर लड़के का चेहरा बना रखा था जो भगवान , तेजी और हीरों वाले हरमेश से कहीं सुंदर था पर अब क्या किया जा सकता था।
कड़ाही चढ़ने से एक दिन पहले लागी आस -पास खेतों में रहने वालों के घरों में और पिंड में इनके साथ विवाह शादी के समय बरताव रखने वाले घरों को सवेरे कढ़ाई चढ़ने पर बुला आया था । भगवान और तेजी के घर भी नाई कह आया पर सवेरे भगवान और तेजी कोई भी कढ़ाही पर नहीं आया। भगवान का भाई और तेजी का बाप कढ़ाही पर आये थे। भगवान दूध पकड़ाने आया था और बिना चाय पिए लौट आया। किरना को सुखपाल से पता चला कि तेजी के विवाह का दिन भी तय हो गया है। आज से बीसवें दिन कढ़ाही है। सुखपाल ने किरना के पास तेजी के साथ विवाही जाने वाली लड़की के हुस्न की तारीफ भी की , जिसे सुखपाल ने तेजी की सगुन वाली एलबम में देखा था।
अगले दिन बरात आई तो रुलदू के आँगन से एक गुलाब का फूल तोड़ कर गंडुआ की ओर चल पड़ी थी । जगतार छाती फुलाए कार में किरना के साथ जुड़ा बैठा था। उसने जैसे पहाड़ की चोटि फतेह कर ली थी । हौसला भी क्यों न हो , कहाँ तो उसकी माँ हर आये गए को कहती -फिरती थी कि कोई कैसा भी अच्छा -बुरा रिश्ता ला दे उसके बेटे के लिए ताकि उसके बेटे कि भी रोटी पकती हो जाये। ऐसा कोई न था जिसे वह रिश्ते के बारे न कहती हो। इस बात से जगतार को भी फ़िक्र लगी रहती कि कहीं धूल ढोते ही न ज़िन्दगी खत्म हो जाए पर आज वह परियों के देश से आई इक परी के साथ लगा बैठा था। जो अब उसकी धर्म पत्नी थी। वह तिरछी आँखों से किरना के गुलाबी चेहरे की ओर देखता तथा छाती को और चौड़ा कर बैठ जाता। उसे महसूस होता जैसे वह सारे पिंड से ऊंचा उठ गया हो। जगतार ने कार में बैठे -बैठे ने अपने आस - पड़ोस की सभी औरतों की तुलना किरना से करके देखी पर कोई भी ऐसी नज़र नहीं आई जो किरना की सुंदरता के बराबर खड़ी हो सके। फिर उसने मन ही मन कहा , '' आस - पडोस क्या सारे पिंड में कोई ऐसी न होगी। उसने तसल्ली करने के लिए किरना की ओर टेढ़ी आँखों से देखा फिर आँखों के आगे आई पिंड की सभी औरतों को '' नहीं ऐसी तो कोई नहीं होगी। '' उसने मन ही मन बोलकर तसल्ली कर ली।
गाडी जगतार के दरवाजे के आगे जा रुकी। कार के पीछे आती धूल आगे बढ़ गई , जैसे वह किरना की सुंदरता पर तरस खा गई हो। ड्राइवर कार से निकल कर दुल्हन के दरवाजे के पास जा खड़ा हुआ।
'' बता भाई क्या बिहार लेगा ? जगतार की माँ लाल फुलकारी लिए लड़कियों को चीरती गाडी के दरवाजे के पास आ खड़ी हुई। उसके पक्के रंग से खुशी फूट -फूट पड़ रही थी।
'' पांच सौ। '' ड्राइवर एक ही वाक्य बोलकर चुप हो गया। उसने अपनी पीठ कार के दरवाजे से सटा ली।
'' भई इतना भी न चढ़ व्यवहार वाली बात कर। '' बीच से एक बुजुर्ग महिला सर की चुन्नी ठीक करते हुए बोली
'' ना '' ड्राइवर ने सर इनकार में हिला दिया।
'' भई जल्दी निपटाओ बात। '' पास खड़ी इक दूसरी महिला बोली।
'' अच्छा बेबे तीन सौ निकाल फिर। '' ड्राइवर पांच से तीन पर आ गया।
'' इधर कर मुए हाथ , ये ले पकड़। '' सफ़ेद चुन्नी वाली ने हरनामी से सौ का नोट पकड़ ड्राइवर की हथेली पर धर दिया।
'' आप बेबे बहू भी देखो कैसी है , सौ देती अच्छी लगती हो ?'' ड्राइवर ने एक और दाव खेला।
'' ले अच्छा, ये ले ले भाई। '' सफ़ेद चुन्नी वाली ने पचास का नोट और दो जोड़े लड्डुओं के ड्राइवर को और पकड़ा दिए। उतावली महिलाओं ने ड्राइवर को 'ना -ना ' करते हुए भी दरवाजे से परे धकेल दिया और बहू को कार से नीचे उतार लिया . औरतों ने गीत छेड़ दिया , …
पाणी वार नी बन्ने दीये माये …
बन्ना बन्नी बाहर खड़े
पाणी ....
हरनामी ने दोनों को बराबर खड़े करके पानी वारा और फिर अंदर ले गए। जब व्यवहार करके आस -पड़ोस की औरतों ने बहू के सर से घूँघट उतारा सभी एक साथ वाह -वाह कर उठीं ,' बे जगतार तू तो कहीं से चाँद ही तोड़ लाया है '' पड़ोस वाली भाभी ने किरना का मुंह देख जगतार को शाबाशी दी। जो भी किरना का चेहरा देखता तारीफ किये बिना न रहता। किरना की सुंदरता की चर्चा आज सारे पिंड में हो रही थी।

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कुछ दिन तो किरना का अच्छा दिल लगा रहा। गली , मुह्ल्ले की लड़कियां शाम सवेरे किरना के पास आ जातीं। जगतार के मामे की लड़की , बहू का दिल लगाने शादी में आई थी वो अभी तक यहीं थी। वे दोनों इकट्ठी काम करतीं , इकट्ठी बाहर जातीं तथा एक दो लड़कियां उनके साथ और मिल जातीं पर धीरे -धीरे गली , मुहल्ले की लड़कियां भी आनी बंद हो गईं और जगतार के मामे की लड़की भी अपने पिंड चली गई। अब सारा काम किरना को अकेले ही करना पड़ता और अकेले ही वह बाहर अंदर आती जाती। बस कभी -कभार उसकी सास उसके साथ आती जाती। जब किरना बाहर जाती तो पिंड के लड़के आँखें फाड़ -फाड़ उसे देखते। किरना की सुंदरता उन्हें उसकी ओर देखने को मज़बूर करती। ऐसा कौन था जिसके किरना को देख दिल में टीस न उठती हो।
जगतार के सगे संबंधियों के लड़के धरमे पर तो किरना ने कुछ अलग ही असर डाल दिया था। वह किरना के बाहर जाते वक़्त हर रोज़ अपने दरवाजे पर खड़ा होता। किरना चाहे नागा डाल देती पर उसने अभी तक अपनी रीत कायम रखी थी। पहले -पहले तो किरण बिना उस ओर देखे नज़रें नीची किये पार हो जाती पर अब वह धरमे की भक्ति के आगे झुकते हुए आखें चार करने लग पड़ी थी। असल में किरना को जो कुछ जगतार से नहीं मिला था ,वह यहाँ से पूरा हो सकता था। मायके में जो कुछ उसने सोचा था कि उसका पति गोरा , सुंदर, गबरू जवान हो पर उसके अरमानों को जगतार को देख के जो धूल जम गई थी वह अब धरमे को देख साफ होती दिख रही थी , ' चलो पति नहीं तो कोई उसका भाई ही सही। '
दिल तो किरना का शादी वाले दिन ही धरमे को देख ललचा गया था , जब वह किरना का हाथ पकड़ गिद्दे में नाचा था। एक तरफ सुंदर -गठीला लड़का , छः फुट कद और शरबती आँखें और दूसरी ओर हुस्न की मल्लिका , जोड़ी खूब जँची थी। धरमे के हाथ की छुअन महसूस करते ही किरना के भीतर कहीं हूक उठी थी , ' काश जगतार की जगह यह मेरा साथी होता। ' पर अब क्या हो सकता था। चाहे किरना का दिल धरमे के लिए कितना ही बेबस क्यों न हो गया हो , पर वह चाहती थी कि पहल धरमा करे ताकि उसकी लात ऊपर रहे और वह शील धर्मे पर काठी डालकर जैसे चाहे दौड़ा सके। यही सोचती वह अपने मन को काबू कर धरमे के पास से नीची नज़रों से गुजरती रही , पर अब जब से धरमे के साथ उसकी आँखें चार हुई थीं वह कितनी -कितनी देर धरमे पर नज़रें गड़ाए रखती।
धरमे का इस गली में पहला घर ही था। धरमे के दादे के पास चालीस किले जमीन थी, उसके एक ही लड़का हुआ । .इत्तफाक से आगे धरमे के पिता के भी एक ही लड़का धरमा हुआ , इस लिए इनकी जमीन का कहीं बंटवारा न हुआ और अब धरमा चालीस किले जमीन का अकेले मालिक था। धरमे ने खुद कभी तिनका भी उठाकर नहीं देखा था पर सांझियों , बंधुआ मजदूरों को जरुरत अनुसार सामान लाने से वह कभी पीछे न हटा था।
धरमा आज सवेरे साढ़े चार बजे से ही चद्दर ओढ़े अपने द्वार के सामने पड़ी ईंटों पर बैठा था। वह जनता था कि किरना का आने का समय पांच साढ़े पांच का है। पर आज उसे पता नहीं कौन सी खींच आधा घंटा पहले ही बाहर ले आई थी। वह जगतार के घर की ओर एकटक निगाह गाड़े देखे जा रहा था। जब निगाह फटती तो वह अपने ठन्डे हाथों से आँखें मलता , इधर -उधर देखता फिर उधर ही निगाह टिका लेता। पर अभी तक उसे कोई परछाई दिखाई नहीं दी थी। उसके मन में आया कि क्यों न वह जगतार के घर तक हो आये। धरमे ने खड़े होकर चद्दर को अच्छी तरह लपेट लिया। वह खड़का होने के डर से हौले हौले कदम बढता जगतार के घर से थोडा इधर ही रुक गया। सामने अँधेरे में दो आँखें चमकीं। धरमे की दिल की धड़क धक् -धक् करने लगी। गर्म शरीर को ठंडी कंपकंपी चढ़ गई .होंठों पे सिसकारी आ गई । फिर वह परछाई हिली , धरमा एक कदम पीछे हटा, दूसरा कदम पीछे हटने से पहले ही धर्मे के होंठ मुस्कुरा पड़े । सामने जुगाली करता जवान भैंसा दीवार की छाया के नीचे से निकलकर पीछे की ओर चल पड़ा। '' वाह ओये भगता , आप सारे पिंड की भैंसे संभाली फिरता है यदि हम किसी एक के लिए आये तो आँखें फाड़ -फाड़ डराता है । '' धरमे ने हलके कदमों से दरवाजे से सट कर दरारों से अंदर झाँका , अंदर कोई हिल-जुल नहीं थी। अँधेरे में पसरा आँगन शांत पड़ा था। सामने की स्वात में जीरो के बल्ब की मद्धम रौशनी दरारों से बाहर आने की असफल कोशिश कर रही थी पर अँधेरे के अनदिखे हाथ उसका दरारों में ही गला दबोच लेते।
धरमा उदास मन से वापस परत आया। उसने अपने घर के दरवाजे से टेक लगा ली। खड़े -खड़े घड़ी की ओर देखा , चमकती सुइयों ने पांच बजा दिए थे। गुरूद्वारे से किसी सिक्ख के पढ़ने की आवाज़ लगातार गूंज रही थी। वह उसी तरह दरवाजे से टेक लगाये खड़ा रहा। दस मिनट और बीत गए अब सामने से कोई काली परछाई गली में लगातार धरमे की ओर बढ़ रही थी . पास आने पर यह परछाई किसी औरत के अंगों में ढल गई . और नज़दीक आने पर यह किरना के नक्शों में घुल गई । धरमे ने धड़कते दिल और कांपते हाथों से किरना की चूड़ियों वाली बांह पकड़ ली। चूड़ियों की छन -छन से किरना की उभरी छाती को कंपकंपी चढ़ गई।
'' और कितना तड़पाओगी ?''धरमे के तपते , होंठों से शब्द फूटे।
'' हाय ! कोई देख लेगा .'' किरना के इन बोलो ने धरमें से अपनी सहमति प्रकट कर दी। अब धरमें का डर छू मंतर हो गया था।
''जो देखता है देख लेने दे। ''
'' हाय ! छोड़ दे। ''
'' पहले बता कब मिलोगी ?''
'' अच्छा मेरे पीछे -पीछे आ जा। '' दोनों आगे -पीछे हुए बाड़े में जा खड़े हुए। बाड़े में खड़े गोल गहारे (उपलों का ढेर ) , रात के पहरेदार बने मंत्रियों की तरह डटे खड़े थे। उपलों की लम्बी कतारें अँधेरे में सोये किसी अजगर की तरह लगती थीं । किरना ने हाथ में पकड़ा पानी का डिब्बा नीचे रख दिया और गहारे की ओट में जा खड़ी हुई।
'' हाँ बता , क्या कहना है ?'' किरना ने अपनी बड़ी -बड़ी आँखें धरमे के गोरे चेहरे पर गड़ाते हुए पूछा।
'' तेरे प्यार में आधा हो गया हूँ सूखकर अभी कहना बाकी है ?तू ये बता कि कब मिलोगी ?''
'' जब समय लगेगा बता दूंगी। ''
'' समय की छोड़ तू मुझे अभी बता फिर जाने दूंगा। ''
'' तेरा भाई रात गेहूं में पानी लगाने गया था खेत , कहता था रात की बारी है , आज पता नहीं जायेगा या नहीं। ''
'' चार दिनों के बाद बदलती है बारी , आज फिर जाना होगा। ''
'' अगर लग गया होगा सारे पानी ?''
'' एक रात में सारे कैसे लग जायेगा ? दो किले सिजते हैं मुश्किल से। आज लाजमी है जाना ही होगा। आज आ जाना रात को। ''
'' कहाँ ?''
'' हमारी किनारे वाली बैठक में , मैं अकेला ही होता हूँ वहाँ। जो गली में खुलता है द्वार उसकी कुण्डी मैं खुली ही रखूँगा तुम खोल कर आ जाना। ''
'' क्यों मुझे इतनी दूर गली में डर नहीं लगेगा ?''
'' अच्छा मैं ले आऊंगा जाकर , और बता दे कितने बजे आऊं ?''
'' दस बजे आ जाना। ''
'' अच्छा पक्की रही। ''
''हाँ -हाँ आ जाना। ''
''अच्छा अब जाता हूँ मैं। '' धरमा ख़ुशी से फूला लम्बी छलांगे भरता घर आ गया। किरना शौच के लिए बाड़े में जा घुसी।
उसके वापस आते तक आँगन की लाईट जल चुकी थी। जगतार भैसों को चारा डाल रहा था। किरना ने आकर डिब्बा नलके के पास दीवार के संग रख दिया। नलका चलाकर उसने हाथ गीले किये , साबुन की पतली टिक्की हाथों पर मली और फिर हाथ धो लिए।
'' इतनी सुबह न जाया कर बाहर। '' जगतार ने पास से गुजरती किरना से कहा।
किरना जाते -जाते वहीँ रुक गई , '' जब जोर पड़ेगा तभी जाऊंगी न ?''
'' ही … ही .... ही पागल। '' जगतार खिल -खिलाकर हँस पड़ा , साथ ही किरना भी हँस पड़ी। '' अच्छा भैंसे बाँध दे । '' जगतार चारा डालकर नलके पर हाथ धोने चला गया। किरना ने बरामदे से सारी भैंसे खोलकर चरनी पर बाँध दी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Jemsbond
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Re: भागू (उपन्यास )

Post by Jemsbond »

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आज सारा दिन किरना का भीतर हँसता रहा , मन नाचता रहा। वह सारा दिन ख़ुशी से बावली हुई फिरती रही। कोई जीत , कोई अनजानी सी ख़ुशी उसकी आँखों से झलक- झलक पड़ रही थी पर वक़्त ने किरना से जिद लगा रखी थी। वह पल -पल घड़ी की ओर देखती , रह- रह दीवार की परछाई को नापती पता नहीं किस बैरी ने समय के पैरों से भारी पत्थर बाँध दिए थे , वह आगे सरकने का नाम ही नहीं ले रहा था। एक -एक घंटा एक -एक महीना होकर बीता। किरना ने शाम की रोटी के लिए चूल्हे में आग जला ली , आटा गूँधकर रोटियां उतार लीं . जगतार ने दूध की बाल्टी किरना के पास लाकर रखते हुए कहा , '' चाय गुड बाँध दे खेत के लिए , दूध जरा ज्यादा डाल देना रात को कई बार चाय पीनी पड़ती है। ''
इतना सुनते ही किरना का गुलाबी चेहरा ख़ुशी में और गुलाबी हो गया . उसके गोरे शरीर में एक झनझनाहट सी दौड़ गई , जैसे धरमे के बाँह पकड़ते वक़्त दौड़ी थी। जैसे धरमे ने उसे खुद छू लिया हो। किरना ने रोटियाँ उतार कर , चूल्हे पर पानी का पतीला चढ़ा दिया और नीचे आग ठीक कर उपले और डाल दिए। उसने पहले सास- ससुर को रोटी खिलाई फिर जगतार को रोटी खिलाकर , चाय गुड बांधकर खेत भेज दिया। बाद में खुद रोटी खाई , बर्तन धोये और फिर गर्म पानी से मल -मलकर नहाई। सारा काम निपटा कर वह किनारे वाली बैठक में आ गई। समय देखा साढ़े आठ बजे थे। वह बिस्तर पर पड़ी करवटें बदलती रही पर पहाड़ जैसा डेढ़ घंटा पैर अड़ा कर खड़ा हो गया। वह उठकर दीवार के सहारे से बैठ गई , फिर रात के हसीन ख्यालों में गुम हो गई। नौ बजे ख्यालों की लड़ी टूटी। वह गोरे पैरों में तिल्ले की जूती डालकर बाहर आ गई। उतरती सर्दियों की ठंडी हवा उसके कपड़ों के भीतर से शरीर को चीर गई। पाले की मार से सारे शरीर के रोयें खड़े हो गये। वह कंपकंपी लेकर फिर अंदर चली गई। अंदर जाकर स्वेटर पहना और शाल ओढ़कर फिर बाहर आ गई , फिर कुछ सोचकर सास -ससुर की सुध लेने उनके कमरे की ओर बढ़ी , अंदर खुसर -फुसर हो रही थी। वह दांत दबाती वापस आ गई।
घड़ी की छोटी सुई ने पल -पल करके बड़ी मुश्किल से समय की राह को काटा। घड़ी ने दस बजा दिए। वह धड़कते ख़ुशी भरे दिल से कुण्डी खोल गली में आ गई। सामने धरमे को देखकर पतले होंठ ख़ुशी में मुस्कुरा पड़े। दोनों ने गली में ही एक दूसरे हो बाँहों में कस लिया। दोनों दिलों की धड़कन बराबर बढ़ रही थी। धरमा किरना का हाथ पकड़ चलने लगा। गली में सर्दी की मार से दुबके हुए कुत्ते दीवारों संग लगे सोये हुए थे। वे पदचाप सुन मुंह ऊपर उठाकर देखने लगे पर ठण्ड की मार से उनका भौंकने का दिल न किया और वे फिर ' हमें क्या लेना ' सोच टांगों में मुँह दिए सो गए। अँधेरी रात होने के कारण चाँद ने आज मुँह नहीं दिखाया था। सिर्फ तारों की मद्धिम रौशनी में पास खड़ा आदमी पहचाना जा सकता था। धरमे ने बैठक के पास जाकर धीरे से बैठक का द्वार खोला। टयूब की दूधिया रौशनी में बैठक दुल्हन की तरह सजी हुई थी। उसने बैठक के द्वार पर खड़े होकर दाहिने बाँये देखा फिर किरना को अंदर ले जाकर दरवाजा बंद कर लिया। आसमान में खिले तारे मुस्कुरा पड़े। अँधेरे ने सबकुछ अपने विशाल आलिंगन में छुपा लिया।

21

गेहूँ सूख कर कड़क हो गया था। खड़ -खड़ करता गेहूँ , हवा के झोंके से किसी दुर्बल नशेड़ी की तरह काँपता। किसान पकी फसल को संभालने के लिए दरांती ले कूद पड़े। कुछ ही दिनों में ढेर के ढेर खड़ी फसल ढेरियों में बदल गई। बच्चे , बूढ़े , जवान किसी को भी सर खुजलाने का वक़्त नहीं था। कोई रोटी लेकर जाता , कोई घास -फूस काट कर लाता , कोई सारा दिन आषाढ़ी फसल काटता। पिंड की सारी रौनक खेतों में आ जुटी थी। सारा दिन पिंड में सुनसान होती। किसी उजाड़ की तरह पिंड सांय -सांय करता पर खेतों में मेले लग जाते। कहीं ललकारे लगते , कहीं हँसी की छनकार सारी कायनात को महका जाती। ज्यों -ज्यों दिन ढलता दरांती की खट -खट बढ़ जाती , ललकारे बढ़ जाते। सूरज की मद्धिम रौशनी में गर्द आसमान को चढ़ती। सूरज छिपते ही रेहड़ियों , ट्रैकटरों का लम्बा काफिला खड़ -खड़ करता पिंड की ओर चल पड़ता।
जगतार को दो दिन हो गए थे बारी पर जाते हुए। आज उसने अपने खेत पहले दिन काटने जाना था। कोने- किनारे में पड़ी पुरानी दरांतियों को ढूंढ कर दांत बनवाकर ठेले पर रखवा दिया गया। जरुरत अनुसार रस्सियाँ रख ली गईं। सारा परिवार किसी विवाह की तैयारी सा इधर -उधर भागा फिर रहा था। किरना चूल्हे के सामने बैठी ख़ुशी -ख़ुशी खेत में ले जाने के लिए रोटी का इंतजाम कर रही थी पर जगतार का उतरा चेहरा बता रहा था कि उसका शरीर आज स्वस्थ नहीं। हाड -हाड चसक रहा था। सर में भी हल्का- हल्का दर्द था। उसका दिल कर रहा था कि वह आज घर पर विडी वालों ? उनके साथ तो जाना ही पड़ेगा,चलो एक चम्मच आज ज्यादा सही ' यह सोचते हुए वह खेत की ओर चल पड़ा। आज काटने वाले पाँच जन हो गये। तीन विड़ी वाले जगतार और उसका बाप। जगतार का छोटा भाई अभी गाडी से नहीं आया था . जगतार की माँ सीतो ने चारा काट कर लाना था। किरना का जिम्मा रोटी बनाने और घर -पशु सँभालने का था।
जगतार लोगों ने खेत जाकर फसल काटनी शुरू कर दी। पहले पहर ओस गिरी होने के कारण दरांतियाँ इतनी तेज नहीं चल पा रही थीं ज्यों -ज्यों सूरज चढ़ता गया ओस सूखती गई , दरांतियाँ तेज होती गईं , शरीर गर्म होते गए। गेहूं ढेरियों में बदलता गया । किरना रोटी देकर चली गई। माँ चारा काटने लगी। ग्यारह बजे की चाय तक जगतार को लगा था शरीर अब ठीक है , सर का दर्द भी हट चूका था। दुखते हाड गर्मा गए थे। ज्यों -ज्यों दोपहर चढ़ती गई , बुखार की गर्मी से उसका अंदर तपने लगा , शरीर निढाल हो गया। वह बड़ी मुश्किल से दोपहर तक फसल काटता रहा पर जब शरीर बिलकुल जवाब दे गया , वह कोठे के पास पेड़ के नीचे गमछा बिछा कर लेट गया। उसकी माँ चारा काटती उसके पास आ गई।
'' क्या हो गया पुत्त ? '' माँ ने पास आकर पूछा।
'' माँ ताप चढ़ गया। ''
'' फिर यहाँ क्यों पड़ गया पुत्तर ? जा घर जाकर दवा -दारु कर । ''
'' पानी देना '' जगतार उठकर बैठ गया। सीतो ने घड़े में से पानी का गिलास भर कर दिया। जगतार पानी पीकर शराबियों की तरह लड़खड़ाता घर की ओर चल पड़ा। तपता हुआ सूरज सर पर आ गया था। गर्म हुई धरती ताप छोड़ रही थी वह गेहूं की वट्टों होता हुआ सीधा बड़े कच्चे रास्ते पर आ गया। राह में उसे साईकिल वाला मिल गया। उसने रब्ब का लाख -लाख शुक्र मनाया। उसकी टांगें बिलकुल जवाब दे गईं थी। अगर आगे चलना पड़ता फिर वह पता नहीं पिंड पहुँच पता या नहीं। साईकिल वाले ने घर के नज़दीक मोड़ पर उतार दिया . वह दीवार की छाया तले धीरे -धीरे घर के बाहरी दरवाजे तक पहुंचा। उसने थके शरीर से दरवाजे को धक्का दिया , अंदर से कुण्डी लगी थी। उसने तख्तों के बीच की दरार से हाथ डालकर कुण्डी खोल ली। जगतार ने आँगन में नीम के नीचे पड़ी चारपाई पर नज़र डाली चारपाई खाली थी। किनारे वाली बैठक देखी वहाँ भी कोई नहीं था। वह मुँह में बड़ -बड़ करता अगले कमरे की ओर बढ़ा। जब वह कमरे के पास पहुँचा , अंदर छत के पंखे के चलने की खड़ -खड़ की आवाज़ सुनाई दी। पंखे की खड़ -खड़ में किसी मर्द और औरत की मद्धम खुसर -फुसर हो रही थी और कभी ये खुसर -फुसर हलकी हँसी में बदल जाती। कमरे में अंदर से कुण्डी लगी हुई थी। उसकी आँखों के आगे कोई अनहोनी घटना साकार रूप में आ खड़ी हुई। उसका मन हजारों शंकाओं से घिर गया। वह धीरे से तख्तों से कान लगा सुनने लगा। धीरे -धीरे उसने किरना की आवाज़ पहचान ली पर मर्द की आवाज़ उसकी पकड़ में न आई। बुखार से तपा शरीर भट्टी के कोयलों की तरह लाल हो गया। क्रोध से सारा शरीर काँप उठा। आँखों से आग बरसने लगी। उसकी सांस हवा में मची आग की लपटों की तरह ' खऐं -खऐं' गूंजने लगी। उसने भूसे वाले कमरे से गंडासा उठा लिया।
'' किरना ! नी किरना कुत्तिया !'' उसने दरवाजे पर धड़ाधड़ थाप मारी। पतली प्लाई का दरवाजा जाट के मोटे हाथों की थाप न झेलता हुआ कांपने लगा।
'' क … क … कौ .... कौन .... ह … है ? '' अंदर से डरी -सहमी टूटी -फूटी आवाज़ आई।
'' मैं हूँ तेरा खसम , दरवाज़ा खोल। '' जगतार का डरावना बोल किरना का अंदर चीर गया।
'' ख … खोलती हूँ .... '' अंदर किरना और धरमे के पैरों तले से जमीन निकल गई। उनके हाथ -पैर कांपने लगे। धरमा जल्दी से पेटी की ओट में छिप गया। किरना ने कांपते हाथों से द्वार खोल दिया।
'' तेरी माँ की .... कुत्तिया । '' जगतार ने ताड़ -ताड़ थप्पड़ किरना के मुंह पर जड़ दिए। उसकी लाल गालों में लहू उतर आया। वह लड़खड़ाती हुई गिरती -गिरती बमुश्किल सम्भली।
'' कहाँ है वो साला ढेड ?'' जगतार भड़के हुए सांड की तरह सूंघने लगा। उसने दरवाजे के दोनों पात के पीछे देखा। फिर वह सीधा पेटी की ओर बढ़ा। किरना उसे उधर जाते देख ऊपर से लेकर नीचे तक काँप गई , अब कैर नहीं ,' हे गुरु महाराज ' उसने कांपते हाथ जोड़ लिए।
'' तेरी माँ की कुत्ते की । '' जगतार ने गंडासा उठा धरमे के सर पर दे मारा। सर खरबूजे की तरह फट गया। वह 'हाय मार डाला …' कहता हुआ वही ढेर हो गया . जगतार ने कांपती बाहों से दांत किटकिटाते हुए गिरे पड़े धरमे पर गंडासे का एक वार और कर दिया। उसके सफ़ेद कपडे लहू से सुर्ख हो गए। धरती पर लहू का छप्पड़ लग गया। किरना डरी -सहमी ये तमाशा देखती रही। उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था कि अब वह क्या करे। धरमा धरती पर पड़ा दम तोड़ता रहा। किरना ने सूनी दोपहर चीरती लम्बी चीख मारी। जगतार वहीँ गंडासा फेंक शराबियों की तरह लड़खड़ाता बाहर की और भाग गया। वह थोड़ी दूर भागा पर टाँगे जवाब दे गईं। शरीर से जान निकलती जान पड़ी। उसका शरीर बुखार , क्रोध और डर ने निढाल कर दिया था। उसे कुछ सुझाई न दिया , कुछ समझ न आया कि वह अब क्या करे ? कहाँ जाये ? यह क्या हो गया ? वह किसी तरह गिरता -पड़ता किसी के आँगन में बिछी चारपाई पर गिर गया।
'' वे क्या हो गया पुत्त ?'' उस घर की बूढी चाची ने जगतार को पहचान लिया।
'' आ … आह .... बू … खा … खार .... !''जगतार के मुँह से टूटे -फूटे दो शब्द निकले। वह फिर न बोल सका। उसकी साँस रात की सांय -सांय की तरह डरावनी थी। उसकी आँखों से लहू रिस रहा था। अंग -अंग भट्टी की तरह तप रहा था। बूढी औरत ने जगतार के माथे पर हाथ रखकर देखा। उसने गर्म तवे पर जल उठे हाथ की तरह हाथ पीछे खींच लिया , '' ओह हो ...तुझे तो बहुत ताप है । '' वह डाक्टर को बुलाने भागी।
जब वह डाक्टर को बुलाकर वापस आई तो आस -पास की औरतें जगतार के घर की ओर जा रहीं थीं। वह डाक्टर को जगतार के पास छोड़कर खुद भी उनके पीछे चल पड़ी . तपती दोपहर में वारदात की बात सुलगती आग की तरह आस -पड़ोस में फ़ैल गई थी। जगतार का आँगन औरतों से भर गया। कोई जगतार के माँ -बाप को खेतों से बुलाने दौड़ा। धरमे की लाश पर ठंडा हुआ लहू वहीँ का वहीँ जम गया था . धरमे के माँ -बाप उसकी मिटटी बनी लाश को छाती से लगा -लगा कर आसमान चीरती चीखें मार रहे थे। धरमे की माँ अपने बाल नोचती , जाँघों को पीटती धरमें की लाश पर गिर -गिर जा रही थी। दोनों को पकड़कर लाश से बमुश्किल एक तरफ किया गया। सारे पिंड को मामले का पता चल गया। कुछ को तो पहले ही पता था और कुछ जगतार के घर पड़ी धरमे की लाश को देख कर समझ गए। पिंड की बूढी -बुजुर्ग औरतें बड़ -बड़ करती किरना को भला -बुरा कह रही थीं।
'' नी यह सारा कुछ इस कलमुँही के पैरों से हुआ है । ''
'' धुले पैरों वाली , जट्ट का हीरे का सा पुत्तर मरवाकर आ गया सब्र डायन को । ''
'' जिसे रस्से चबाने की आदत पड़ जाये वह कहाँ रूकती है भाई। ''
'' मैंने तो सुना यह पिंड भी अपने जीजा से मुँह काला करती फिरती थी । ''
'' ले होट ....। ''
जितने मुंह उतनी बातें। कितनी देर घर में खुसर -फुसर होती रही। जगतार के माँ - बाप अनआई मुसीबत में फसे डरे हुए लोगों की हमदर्दी ढूंढ रहे थे पर उनसे कौन हमदर्दी जताता , सभी औरतों और मर्दों ने तो धरमे के माँ -बाप को बमुश्किल सम्भाला हुआ था। फिर पुलिस का कैंटर 'खर … खर ' करता द्वार के सामने आ रुका। सभी ने डरे हुए हिरणों की तरह द्वार की तरफ कान लगा लिए। घर में चुप्पी छा गई। जैसे सब को सांप सूंघ गया हो। खाकी वर्दी वाले पुलसिये दगड़ -दगड़ करते अंदर जा घुसे । लाश को बाहर निकाल कर कपड़ा डाला। थानेदार ने लाश के ऊपर से कपड़ा हटा अच्छी तरह से मुआयना किया फिर वारदात वाला गंडासा ज़ब्त कर लिया। थानेदार किरना को एक तरफ ले जाकर कुछ पूछ- ताछ करता रहा , किरना आंसू भरी आँखों से जवाब देती रही।
'' कहाँ है वह जगतार का बच्चा ?'' थानेदार ने लोगों के बीच आकर पूछा। सबके मुँह बंद हो गए और आँखें नीची।
'' देखो भाई , ''थानेदार ने समझाना शुरू किया , '' यह कोई छोटी - मोटी वारदात नहीं है। अगर तुम लोगों में से किसी को मुजरिम के बारे पता है तो बता दे , नहीं तो हमारे पास पूछने के और भी तरीके हैं , जब खींची तुम्हारी बहू -बेटियां , और साथ ही डंडा-परेड हुई , उसका सारा परिवार थाने बुलवाया तब अपने आप ही आ जायेगा भागा। ''
सबके दिल काँप गए। सभी एक -दूसरे को डरी नज़रों से देखने लगे।
एक बूढी औरत पीछे खड़े सिपाही के कान में कुछ बुदबुदा गई। सिपाही ने आकर थानेदार के पास खुसर -फुसर की। थानेदार ने कोई गुप्त इशारा किया। सिपाही बताये गए स्थान की ओर बढ़ गए। थानेदार और कुछ सिपाही उसके पीछे -पीछे चल पड़े। सात -आठ घर छोड़कर लोहे के गेट वाला घर आ गया। दो सिपाहियों ने बड़ी होशियारी से गेट के दोनों ओर पोजिशन ले ली। थानेदार ने धीरे से गेट को अंदर धकेला। गेट खुल गया। सामने कीकर के नीचे बिछी चारपाई पर जगतार पड़ा था। कीकर की परछाई ढलकर चारपाई से कितनी दूर चली गई थी पर चारपाई वैसे ही जगतार की देह को लिए संताप भोग रही थी। थानेदार सिपाहियों के साथ चारपाई के पास आ खड़ा हुआ पर जगतार ने कोई हिलजुल नहीं की। चारपाई से भट्टी की तरह ताप आ रहा था। जगतार की सांस पहले की ही तरह उखड़ी , डरावनी और तेज -तेज चल रही थी। थानेदार ने हाथ लगाकर देखा बुखार हद से ज्यादा था। चार सिपाहियों ने बेहोशी की हालत में पड़े जगतार को उठा लिया। सिपाहियों ने उसे जगतार के घर लाकर नीम की छाया तले चारपाई पर डाल दिया। थनेदार ने किरना , जगतार के माँ -बाप , धरमे के माँ -बाप , जिस घर से जगतार को उठाया था उस बुढ़िया का नाम तथा एक दो- नाम और लिख लिए . अपनी कार्यवाही मुकम्मल करके थानेदार बोला , '' बुजुर्गो हमने मुज़रिम को हिरासत में ले लिया है पर हम इसे इस हालत में थाने नहीं ले जा सकते। इसे पहले अस्पताल दाखिल करवाना पड़ेगा क्योंकि इस समय इसकी हालत बहुत नाजुक है। इसकी जान भी जा सकती है और लाश को हमें पोस्टमार्टम के लिए लेकर जाना पड़ेगा।'' थानेदार ने धरमे की लाश की ओर इशारा किया।
'' भाई अब इसकी मिटटी क्यों बदीन करने हो । '' धरमे की माँ ने दहाड़ मारी।
'' यह कार्यवाही तो बेबे हमें करनी ही पड़ेगी। '' थानेदार ने नरमी से कहा।
जगतार को कपड़ा बिछाकर कैंटर में डाल दिया गया। धरमे के घर से जीप मंगवा कर धरमे की लाश को उसमें डाल दिया गया। थानेदार खुद जीप में जा बैठा और सिपाही कैंटर में बैठ गए। जगतार और धरमे के बाप को छोड़ एक -दो पिंड के सयाने लोग और साथ में ले लिए । जीप और कैंटर सुनाम की ओर चल पड़े। एक में धरमे की लाश और दूसरे में उसे मारने वाला जगतार। पर अब दोनों को ही पता नहीं था कि क्या हो रहा है। सारे दिन का थका -मांदा सूरज दूर नहर के कीकरों की ओट में डोल रहा था , रो कर हटे मनुष्य की लाल आँखों की तरह ढलक रहा था। दोपहर की गर्मी शाम की ठण्ड में ढलती जा रही थी . आप -पास खेतों में फसल काटने वालों के ललकारे डरावनी चीखों से सुनाई देते थे । अस्पताल के सामने कैंटर के ब्रेक गरीब पर मारी गई लाठी की तरह चीखे। डाक्टर ने सारी कार्यवाही करने के बाद जगतार को दाखिल कर लिया और धरमे की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी।
सूरज कब का पश्चिम में डूब चूका था। डाकटरी इलाज से जगतार को थोड़ी -थोड़ी होश परत आई थी। उसने आँखें खोल कर देखा। वह अस्पताल के ऊंचे बेड पर पड़ा था। दाहिनी बांह में स्लाइन की बोतल आधी से ज्यादा लगी हुई थी। आस -पास दो सिपाही शिकारी कुत्तों की तरह कान उठाये खड़े हुए थे। धीरे -धीरे दोपहर को हुई वारदात जगतार की आँखों के आगे से फ़िल्म की तरह घूम गई . उसके दिल से एक लम्बी आह निकली ,जो आंसू बनकर आँखों से टपक पड़ी। उसने झट आँखें बंद कर ली।
पिंड में बत्तियाँ जल गई थी। आसमान में तारे उतर आये थे जब धरमे की लाश को श्मशानघाट लाया गया . सारे पिंड के लोग श्मशानघाट एकत्रित हो गए थे। धरमे की लाश को वहीँ स्नान करवाया गया। उसका पेट काट कर बड़े -बड़े टांकों से सीया गया था। लकड़ियाँ चिनकर लाश को उसपर डाल दिया गया। बूढ़े माँ -बाप का सहारा ऊपर रख दिया गया । धरमे के बाप ने आंसू भरी आँखों से ,कांपते हाथों से चिता को अग्नि दी। उसका आखिरी सहारा सदा के लिए छूट गया था। आग की पीली लपटें काली रात को चीरती आसमान छूने लगीं।

22
सोई हुई रात में स्कूटर की 'खरड़ -खरड़' दूर तक गूँजती रही . सड़क के आस -पास कीकर और सफेदों के दरख़्त अँधेरे से भरे दीवारों से दिखते थे। काली सड़क पर स्कूटर मस्त चाल से चलता जा रहा था। गुरनैब के पीछे बैठा भागू किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था।
परसों राजे की बुआ के बेटे भगवान को कोई कागज़ का टुकड़ा पकड़ा गया था। बस इतना ही बताया था कि यह गुरमीत ने दिया है। इस छोटे से टुकड़े ने भागू का दिल हिला दिया था , आँखों के आगे अँधेरा छा गया था , भीतर काँप गया , शरीर झूठा पड़ गया था । गुरमीत के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। रविवार उसे लड़के वाले देखने आ रहे थे। आज मंगलवार का दिन बीत चूका था। कल गुरमीत ने भागू को कालेज आने के लिए जोर देकर कहा था ।
गुरमीत रिजल्ट का पता करने का बहाना बनाकर घर से इज़ाजत लेकर कालेज आ गई थी . गुरमीत और भागू को बी.ए. फ़ाइनल के इम्तहान दिए काफी अर्सा बीत चूका था पर अभी तक रिजल्ट नहीं आया था। विद्द्यार्थियों के साथ -साथ घर के लोगों को भी इस रिजल्ट की चिंता थी। इसी चिंता की वजह से गुरमीत को आज कालेज आने की इज़ाज़त मिल गई थी। वह सोच में पड़ी बस अड्डे पर आ खड़ी हुई। उसका अंदर डर से काँप जाता था । कभी उसके दिल के किसी कोने से उठा हौसला इस डर को परे धकेल देता। आज उसे अपनी ज़िन्दगी में एक दोराहा नज़र आ रहा था , एक उसके माता -पिता के घर की ओर जाता , जहाँ उसने अपने माता -पिता की मर्जी अनुसार चलना था। अपने दिल के अरमानों को मार कर उनके चुने लड़के से ही विवाह करना था। दूसरा रास्ता भागू की ओर जाता था , जिसके साथ उसने अनगिनत मीठे सपने सजा रखे थे . पहले रास्ते में उसे हर सुख मिलना था पर मन का सुख , मन का चैन हमेशा के लिए खो जाना था । अंकुरित होते अरमान वहीँ दब जाने थे । दूसरे रस्ते में उसे शारीरिक कष्ट झेलने पड़ते पर उसे दिल का आनंद मिलता , दिल की इच्छाएं पूरी हो जानी थी। बस अड्डे पर आ खड़ी हुई गुरमीत ने हौसले के साथ पहला कदम बस की सीढ़ियों में टिका लिया और भागू की ओर जाते रास्ते की ओर बढ़ चली।
बस सड़क के उबड़ -खाबड़ रस्तों से होती हुई सरपट दौड़ी जा रही थी। गुरमीत खिड़की से दूर आसमां में सजाये सपनों को देख रही थी …वह अपने सजाये सपनो के ख्यालों में गुम मुस्कुरा पड़ती पर फिर उसे ये समाज की काली धुंध में गुम होते दिखते। उसके चेहरे पर मौत सी ख़ामोशी छा जाती , दिल पंछी की तरह छटपटाने लगता। उसे पता ही न चला कि वह इस सोच में डूबी कब बुढलाडे पहुँच गई। बस से उतर वह रिक्शे में जा बैठी।
'' कालेज ''
रिक्शे वाला हैरानी भरी आँखों से देखता हुआ चल पड़ा , ' हर कोई पूछता है फलानी जगह जाना है क्या लोगे ? पर इसे ऐसी क्या आफत आ गई? ' वह मन में सोचता हुआ गहरी नज़रों से गुरमीत का चेहरा पढ़ रहा था। गुरमीत से ज्यादा उसका दिल उतावला था कि वह पलों में उड़कर कालेज पहुँच जाए पर रिक्शे की धीमी चाल उसके दिल से मजाक करती जान पड़ती थी। जब वह कालेज पहुंची तो कालेज का सूना आँगन देख उसका दिल धड़का। मन पानी सा बह चला। वह एक ही नज़र से कालेज का कोना -कोना छान देना चाहती थी . उसने चारों ओर खोजी नज़रों से देखा पर हर ओर का सूनापन ईंट की तरह उसके माथे से आ टकराता। वह पार्क में गई वहाँ भी उदासी ही हाथ लगी। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया , '' हाय रब्बा ! अब क्या करूं ? '' उसने दोनों हाथों से अपना पेट दबा लिया। अंदर से दिल चीरती हूक उठी , वह वहीँ ढेर हो गई। आँखों से आंसुओं की धारा बह चली , '' हाय माँ !'' उसने अपनी जननी को पुकारते हुए चीख मारी
. भागू दस मिनट लेट हो गया था। वह कालेज आया। चारो ओर निगाह मारी। गुरमीत कहीं न दिखी। कालेज की बिल्डिंग के पीछे बने पार्क में गया तो गुरमीत सामने झुकी बैठी थी। वह धीमी गति से चलता हुआ गुरमीत के पीछे जा खड़ा हुआ , '' गुरमीत ! ''
गुरमीत ने पीछे मुड़ कर देखा , '' मेरे भाग !!'' उसने भागू को पागलों की तरह अपनी बाहों में कस लिया।
'' क्या हुआ मेरी मीत को ?'' भगवान ने उसके बालों में प्यार से हाथ फेरा।
'' इतनी देर से आये तुम ?'' उसने नकली गुस्से से मुंह फेर लिया पर उसकी अंदर की ख़ुशी होंठों पर उतर आई थी।
'' इतनी कितनी देर हुई ? तेरे दिए समय से बस दस मिनट ऊपर हुए हैं। '' भगवान ने अपनी घड़ी वाली बांह उसके आगे कर दी। गुरमीत ने भगवान की बांह को दोनों हाथों से पकड़ लिया , '' तेरे इन दस मिनटों ने मेरी जान निकाल लेनी थी। ''
'' जान निकले हमारे दुश्मन की। '' भगवान ने उसका हाथ अपने मज़बूत हाथ में कस लिया . फिर कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। दोनों एक दूसरे को एकटक देखते रहे।
'' हाँ बता फिर , अब क्या किया जाये ?'' भगवान की आँखों के आगे होने वाली अनहोनी चक्कर लगाने लगी।
'' अब तो एक ही रास्ता है। ''
'' क्या ?''
'' दोनों भाग चलते हैं कहीं। '' गुरमीत भगवान के चेहरे पर नजर गड़ाते हुए उसका चेहरा पढ़ने लगी।
''घर वाले बिलकुल नहीं माने ?''
'' नहीं, मैंने तो हर संभव कोशिश कर के देख ली , मेरी माँ के सिवाय और कोई नहीं माना। अब यही एक रस्ता बचा है। ''
'' मीत पहले अपने मन को अच्छी तरह तौल ले , बड़ी मुश्किलें झेलनी पड़ सकती हैं।''
'' मैंने तो मन को तौल कर ही तुम्हें संदेशा भेजा था। मैं तुम्हारे साथ हर कठिनाई का सामना करने को तैयार हूँ , बस तुम धोखा मत देना। '' गुरमीत का गला भर आया।
'' तुम्हारे लिए जान दे सकता हूँ , बोलो कब चलना है ?''
'' अभी ले चल। '' गुरमीत ने भगवान की बाँह दोनों हाथों से पकड़ ली।
'' अभी ठीक नहीं , हम रात को चलेंगे , ताकि दिन चढ़ने तक दूर निकल जाएं। और फिर तब तक मैं कुछ पैसों का इंतजाम भी कर लूंगा। ''
''अच्छा तुम्हारी मर्जी। ''
'' बता कौन सी रात आऊं ?''
'' परसों आ जाना ,ग्यारह बजे के आस -पास ? ''
उस दिन वे पूरा प्लान बनाकर लौटे थे। दोनों के हंसते नैनों में दिल की मुराद पूरी होती दिखाई दे रही थी और साथ ही समाज के विरुद्ध बगावत करने पर मिलने वाली सजा का डर भी था।

आज गुरमीत से किये वादे के मुताबिक भगवान स्कूटर लेकर रात को निकल पड़ा था । स्कूटर सड़कें फलांगता बड़े चक्क के नजदीक पहुँच गया। गुरनैब ने सुए (सोता ) की पुलिया पर स्कूटर रोक लिया। स्कूटर की लाइट के आगे बांह करके टाइम देखा।
'' अभी तो चालीस मिनट बाकी हैं , कैसे करना है ?'' उसने भागू को पूछा।
'' बंद कर दे स्कूटर , पंद्रह मिनट पहले चलेंगे। ''
दोनों स्कूटर का स्टैंड लगा सुए की पुलिया पर बैठ गए। सुए का ठंडा पानी शांत बह रहा था। अँधेरी रात में धान की फसल काली चादर की तरह धरती पर बिछी हुई लग रही थी। सामने सड़क के किनारे ऊँचे लम्बे सफेदों के दरख़्त चीन की दीवार से जान पड़ते थे । दूर बुढलाडे से बाहर -बाहर जाती जी. टी. रोड पर कोई एक -आध गाड़ियों की लाईट , किसी यौवना के दुपट्टे पर लगे सितारों की मद्धिम रौशनी में चमकने की तरह चमकती थी। सुए से दो - तीन किले की दूरी पर पिंड चक्क के घरों में कहीं -कहीं बत्तियां जल रही थीं। कभी -कभी किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज सुनाई दे जाती। सुए के किनारे खड़े कीकर के दरख़्त से कोई पक्षी चिर -चिर करता उड़कर सफेदों के दरख़्त पर जा बैठा , शायद उसे आधी रात के समय अपने घोंसले के पास किसी मनुष्य की उपस्थिति खतरे की घंटी लगी थी।
दोनों की हो रही धीमी बातचीत सुए के पानी की तरह शांत और चुपचाप थी। बीस मिनट बीत गए। गुरनैब ने स्कूटर को किक मारी। दरख्तों पर बैठे पक्षियों में हिलजुल हुई। कीकर वाला पक्षी खतरा टल गया समझ चिर -चिर करता फिर कीकर पर जा बैठा। लंबे सफेदों के बीच स्कूटर की आवाज़ कुएँ में बोलने जैसी ऊँची हो गई। सामने जी. टी. रोड थी। दोनों ने धड़कते दिल से स्कूटर जी. टी. रोड पर चढ़ा लिया। अब कोई भी खतरा गले पड़ सकता था। पुलिस ने घेर लिया तो क्या जवाब देंगे। दोनों के दिल डर से 'धक् -धक्' कर रहे थे। कोई भी सामने से आती गाड़ी पुलिस की गाड़ी हो सकती थी या किसी चौक में पुलिस से सामना हो सकता था।
जब बुढलाडा पार हो गया तो दोनों के चेहरों पर ख़ुशी झलक आई। एक तसल्ली भी हो गई थी कि वापसी में भी कोई खतरा नहीं। शेखगढ़ को जाती उबड़ -खाबड़ , टूटी -फूटी सड़क पर स्कूटर धीमे हो गया। बूढ़े कीकर के दरख़्त कुबड़े बुजुर्गों की तरह झुके हुए खड़े थे। स्कूटर की 'खरड़ -खरड़ ' सुनकर टीले पर खड़ी बेरी के नीचे बैठी नील गायों के झुंड ने कान खड़े कर लिए। उनकी आँखें काली रात में बैटरियों की तरह चमकी। कुछ हिलजुल के बाद शांत होकर बैठ गई। अब सामने शेखगढ़ पिंड का कोई -कोई बल्ब चमकता नज़र आने लगा था। स्कूटर शेखगढ़ फाटक से थोड़ा हटकर पहे में डाल लिया गया . रेल पटरी के नज़दीक पहुँच कर बंद कर लिया। सामने गुरमीत का घर था। सारा पिंड सोया हुआ था। कभी -कभार किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ अपनी होंद जाती। दाहिनी तरफ फाटक की मद्धिम लाइट की दूधिया रौशनी पटरी पर ऊंघ रही थी . दोनों कुछ देर खड़े स्थिति को भांपते रहे। जब चारो ओर शांति दिखी तो भागू ने कंधे से बैग उतार कर गुरनैब को पकड़ा दिया।
''तुम ऐसा करो , यहीं खड़े रहो , अगर तुम्हें कोई पूछे तो कह देना हम तो फलाने शहर से आये हैं , यहाँ स्कूटर खराब हो गया , मेरे साथ का साथी पिंड से कोई चाबी -पाने ( औजार ) का इंतजाम करने गया है।'' भागू उसे पूरी बात समझकर पटरी फलांग गया। गुरमीत के गेट के पास जाकर दीवार से चिपक कर बैठ गया। एक काला कुत्ता उसे देखकर भौकने लगा। पहले तो भागू का जी किया कि ईंट उठाकर उसे दे मारे , पर फिर शोर के डर से चुपचाप बैठा रहा। कुत्ता कुछ देर भौक कर फाटक की ओर चला गया।
लोहे के गेट के आगे खड़ा भागू थोडा चौकन्ना हो गया। छोटा गेट खोलकर गुरमीत बाहर आई , भागू ने दौड़कर उसे बाहों में कस लिया। गुरमीत ने बाहर से कुण्डी लगा दी और बिना कुछ बोले भागू के साथ चल पड़ी .
तुम्हारे पिंड आया हूँ और तुमने चाय -पानी तक नहीं पूछा। '' भागू ने गुरमीत को छेड़ते हुए कहा।

'' चाय -पानी पिलाने वाली तो पिंड को अलविदा कह कर तुम्हारे साथ चली जा रही है। '' गुरमीत ने अपनी बांह भागू की कमर में डाल ली .
'' बैग में क्या है ?'' भागू ने गुरमीत के गले में डाले बैग को देखकर पूछा.
'' कपड़े और पैसे .''
'' पैसे तो मैं ले आया था .''
'' तो क्या हुआ पैसों की जरुरत तो पड़ती रहेगी , और फिर मेरा भी तो हक़ बनता था . ''
'' कितने हैं ?''
'' बीस हजार .''
''बीस हजार ? इतने क्या करने थे ?''
'' इतने कितने हैं ?''
''हाँ तुम अमीरों के लिए तो ये कुछ भी नहीं .''
दोनों बातें करते स्कूटर के पास पहुँच गए . भागू ने गुरमीत से बैग पकड़ कर अपने कंधे में डाल लिया और दूसरा बैग स्कूटर के आगे रख दिया . शांत वातावरण में स्कूटर की गूंज दोबारा फ़ैल गई . फाटक की मद्धिम लाइट दूर होती गई . पिंड में जलता एक -आध बल्ब भी अँधेरे ने अपनी चपेट में ले लिया . बुढलाडे की दूधिया रौशनियां आँखों के आगे चमकने लगीं . स्कूटर बाज़ार की रौशन गलियों से होता हुआ रेलवे स्टेशन पहुँच गया .
'' अच्छा भाई गुरनैब , तूने मेरे लिए इतनी तकलीफ की , तुम्हारा बहुत -बहुत शुक्रिया . '' गुरमीत और भागू स्कूटर से उतर गए .
'' तकलीफ कैसी ये तो दोस्त के नाते मेरा फ़र्ज़ बनता था .''
'' अच्छा भाई संभल कर जाना .'' भागू ने गुरनैब से हाथ मिलाते हुए गले से लगा लिया .
'' तुमलोग भी होशियार रहना . और भाभी का ख्याल रखना कहीं राह में ही न भूल जाना ..'' गुरनैब की मीठी चोट पर गुरमीत हँसने लगी , '' अच्छा वीर , अच्छा भाभी .''
'' अच्छा भाई !''
गुरनैब चला गया। दोनों मुसाफिर हाल से होते हुए बाहर बैंच पर आ बैठे। सारे स्टेशन में मौत जैसी चुप्पी थी। बस दस -पंद्रह सवारियां बाहर बैंच पर बैठी ऊंघ रही थीं। प्लेटफार्म पर आवारा कुत्ते इंडुवों की तरह इकट्ठे होकर सोये हुए थे। एक ओर एक रेहड़ी वाला किसी गाहक के इन्तजार में उबासियाँ ले रहा था। उसके छोटे से स्टोव के ऊपर रखी केतली में से किसी नशेड़ी की बीड़ी के धुँए जितनी भाप निकलकर प्लेटफॉर्म के चारों ओर फैलती जा रही थी और उसमें से आती लौंग की सुगंध आते -जाते लोगों का दिल ललचा रही थी।
'' तुम बैठो यहाँ , मैं चाय के लिए कहकर आता हूँ , और टिकटें भी ले आता हूँ। '' भागू ने बैग गुरमीत के पास बैंच पर रख दिया और चाय वाले की ओर बढ़ गया।
'' एक बजे आएगी कुरुक्षेत्र को जाने वाली गाडी। '' भगवान ने दोनों टिकटें गुरमीत को पकड़ा दिन।
'' राह में कितना समय लग जायेगा ?''
'' लग जायेंगे तीन -चार घंटे , पहले थानेसर उतरना पडेगा। फिर वहाँ से कुरुक्षेत्र वाली गाडी पकड़नी पड़ेगी। ''
'' फिर तो हम सुबह तक पहुंचेंगे। ''
''हाँ। ''
'' लो साहिब चाय। '' चाय वाले ने ट्रे में रखे दो छोटे कप आगे कर दिए। दोनों ने एक -एक कप उठा लिया।
स्टेशन पर दो चार सवारियां और आ बैठी थीं । गाडी का समय नजदीक होने के कारण स्टेशन पर खुसर -फुसर शुरू हो गई थी। सारे मुसाफिर अपना - अपना सामान उठाने में जुट गए . गाड़ी ने दूर से काले अँधेरे को चीरती चीख मारी। इंजन के माथे पर लगी चाँद जैसी गोल लाईट नज़दीक होती गई। स्टेशन पर हफडा -तफडी मच गई , शोर बढ़ गया , गार्ड हरी झंडी लेकर आगे आ गया। गाडी के रुकने के साथ ही ब्रेक चीखे। कुछ लोग अपना सफर खत्म कर उतर गए और कुछ नई मंज़िलों की तलाश में सफर पर चल पड़े। भगवान और गुरमीत ने अपने -अपने बैग अपनी -अपनी जांघों पर रख लिए और खिड़की के पास वाली सीट पर कब्ज़ा के लिया । सामने की सीट पर एक औरत , उसका पति और दो बच्चे एक दूसरे के ऊपर सर रखे सोये हुए थे। ऊपर की सीट पर एक बुजुर्ग खर्राटे मार रहा था। दाहिने की ओर सीट पर एक साधू गठरी बना लेटा हुआ था जो शोर -गुल सुन जाग गया था और अब पुनः सोने की कोशिश में था। साधू वाली सीट पर एक बिहारी भइया और उसकी पत्नी एक छोटे बैग और एक बोरी में निक्क -सुक्क डाले हुए आ बैठे थे। गाडी की लम्बी कूक ने सभी मुसाफिरों को चौकन्ना कर दिया और फिर छोटे से झटके से धीरे -धीरे रेंगने लगी जैसे कोई ज़ख़्मी हुआ काला सांप धीरे -धीरे रेंगता है। गाडी 'छुक -छुक 'करती धुएं के बादल छोड़ती और तेज होती गई। स्टेशन और शहर की लाइटें दूर होती गईं , और छोटी होती गईं और फिर काले अँधेरे में आलोप हो गई। अब गाडी अँधेरे को चीरती , स्टेशनों को पार करती , पिंड और शहरों को पीछे छोड़ती सरपट दौड़ी जा रही थी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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