Thriller वर्दी वाला गुण्डा / वेदप्रकाश शर्मा

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koushal
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Thriller वर्दी वाला गुण्डा / वेदप्रकाश शर्मा

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वर्दी वाला गुण्डा / वेदप्रकाश शर्मा



लाश ने आंखें खोल दीं।

ऐसा लगा जैसे लाल बल्ब जल उठे हों।

एक हफ्ता पुरानी लाश थी वह।

कब्र के अन्दर, ताबूत में दफन!

सारे जिस्म पर रेंग रहे गन्दे कीड़े उसके जिस्म को नोच-नोचकर खा रहे थे।

कहीं नरकंकाल वाली हड्डियां नजर आ रही थीं तो कहीं कीड़ों द्वारा अधखाया गोश्त लटक रहा था—कुछ देर तक लाश उसी ‘पोजीशन’ में लेटी लाल बल्ब जैसे नेत्रों से ताबूत के ढक्कन को घूरती रही।

फिर!

सड़ा हुआ हाथ ताबूत में रेंगा—मानो कुछ तलाश कर रहा हो—अचानक हाथ में एक खुखरी नजर आई और फिर लेटे-ही-लेटे उसने खुखरी से ढक्कन के पृष्ठ भाग पर जोर-जोर से प्रहार करने शुरू कर दिए।

कब्रिस्तान में ठक् … ठक् … की भयावह आवाज गूंजने लगी।

अंधकार और सन्नाटे का कलेजा दहल उठा।

मुश्किल से पांच मिनट बाद!

एक कच्ची कब्र की मिट्टी कुछ इस तरह हवा में उछली जैसे किसी ने जमीन के अन्दर से जोर लगाकर मुकम्मल कब्र को उखाड़ दिया हो।

कब्र फट पड़ी।

लाश बाहर आ गयी—शरीर पर कफन तक न था।

चेहरा चारों तरफ घूमा, लेकिन केवल चेहरा ही—गर्दन से नीचे के हिस्से यानी धड़ में जरा भी हरकत नहीं हुई—धड़ से ऊपर का हिस्सा इस तरह घूमा था जैसे शेष जिस्म से उसका कोई सम्बन्ध ही न हो, चारों तरफ निरीक्षण करने के बाद चेहरा ‘फिक्स’ हो गया।

कब्रिस्तान में दूर-दूर तक कोई न था—हवा तक मानो सांस रोके सड़ी-गली लाश को देख रही थी—लाश कब्र से निकली, कब्रिस्तान पार करके सड़क पर पहुंची।

एकाएक हवा जोर-जोर से चलने लगी—मानो खौफ के कारण सिर पर पैर रखकर भाग रही हो और उसके वेग से लाश की हड्डियां आपस में टकराकर खड़खड़ाहट की आवाजें करने लगीं।

बड़ी ही खौफनाक और रोंगटे खड़े कर देने वाली आवाजें थीं वे मगर उन्हें सुनने या कब्र फाड़कर सड़क पर चली जा रही लाश को देखने वाला दूर-दूर तक कोई न था—विधवा की मांग जैसी सूनी सड़क पर लाश खटर-पटर करती बढ़ती चली गयी।

कुछ देर बाद वह दयाचन्द की आलीशान कोठी के बाहर खड़ी आग्नेय नेत्रों से उसकी बुलन्दियों को घूर रही थी—उसने दांत किटकिटाये, नरकंकाल जैसी टांग की ठोकर लोहे वाले गेट पर मारी।

जोरदार आवाज के साथ गेट केवल खुला नहीं बल्कि टूटकर दूर जा गिरा—खटर-पटर करती लाश लॉन के बीच से गुजरकर इमारत के मुख्य द्वार पर पहुंची—पुनः दांत किटकिटाकर जोरदार ठोकर मारी, दरवाजा टूटकर अन्दर जा गिरा।

लाश हॉल में पहुंची!

चारों तरफ अंधेरा था।

“क-कौन है?” एक भयाक्रांत आवाज गूंजी—“कौन है वहां?”

“लाइट ऑन करके देख दयाचन्द!” नरकंकाल के जबड़े हिले—“मैं आया हूं!”

“क-कौन?” इस एकमात्र शब्द के साथ ‘कट’ की आवाज हुई।

हॉल रोशनी से भर गया।

और!

एक चीख गूंजी।

दयाचन्द की चीख थी वह!

लाश ने अपना डरावना चेहरा उठाकर ऊपर देखा।

दयाचन्द बॉल्कनी में खड़ा था—खड़ा क्या था, अगर यह लिखा जाये तो ज्यादा मुनासिब होगा कि थर-थर कांप रहा था वह—लाश को देखकर घिग्घी बंधी हुई थी—आंखें इस तरह फटी पड़ी थीं मानो पलकों से निकलकर जमीन पर कूद पड़ने वाली हों जबकि लाश ने उसे घूरते हुए पूछा—“पहचाना मुझे?”

“अ-असलम!” दयाचन्द घिघिया उठा—“न-नहीं—तुम जिन्दा नहीं हो सकते।”

“मैंने कब कहा कि मैं जिन्दा हूं?”

“फ-फिर?”

“कब्र में अकेला पड़ा-पड़ा बोर हो रहा था—सोचा, अपने यार को ले आऊं!”

“तुम कोई बहरूपिये हो।” दयाचन्द चीखता चला गया—“खुद को असलम की लाश के रूप में पेश करके मेरे मुंह से यह कुबूलवाना चाहते हो कि असलम की हत्या मैंने की थी।”

“वाह! मेरी हत्या और तूने?” लाश व्यंग्य कर उठी—“भला तू मेरी हत्या क्यों करता दयाचन्द—दोस्त भी कहीं दोस्त को मारता है और फिर हमारी दोस्ती की तो लोग मिसाल दिया करते थे—कोई स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि दयाचन्द असलम की हत्या कर सकता है।”

“तो फिर तुम यहां क्यों आये हो?” दयाचन्द चीख पड़ा—“कौन हो तुम?”

“कमाल कर रहा है यार—बताया तो था, कब्र में अकेला पड़ा-पड़ा बोर …।”

“तू इस तरह नहीं मानेगा हरामजादे!” खौफ की ज्यादती के कारण चीखते हुए दयाचन्द ने जेब से रिवॉल्वर निकाल लिया, गुर्राया—“बोल … कौन है तू?”

जवाब में चेहरा ऊपर उठाये लाश खिलखिलाकर हंस पड़ी—कोठी में ऐसी आवाज गूंजी जैसे खूनी भेड़िया थूथनी उठाये जोर-जोर से रो रहा हो।

भयाक्रांत होकर दयाचन्द ने पागलों की मानिन्द ट्रेगर दबाना शुरू कर दिया।
धांय … धांय … धांय!

गोलियों की आवाज दूर-दूर तक गूंज गयी।

मगर आश्चर्य!

उसके रिवॉल्वर से निकली कोई गोली लाश का कुछ न बिगाड़ सकी।

सभी गोलियां उसके जिस्म के आर-पार होकर हॉल की दीवारों में जा धंसीं—नरकंकाल थूथनी ऊपर उठाये भयानक अंदाज में ठहाके लगा रहा था।

रिवॉल्वर खाली हो गया। हंसना बन्द करके लाश ने दांत किटकिटाये—खौफनाक किटकिटाहट सारे हॉल में गूंज गई, जबड़े हिले—“मुझे दुबारा मारना चाहता है दयाचन्द—तू भूल गया, दो बार कोई नहीं मरा करता।”
दयाचन्द के होश फाख्ता हो गए।

जुबान तालू से जा चिपकी।

जड़ होकर रह गया वह, हिल तक नहीं पा रहा था।

“मैं आ रहा हूं दयाचन्द!” इन शब्दों के साथ लाश उस जीने की तरफ बढ़ी जो हवा में इंग्लिश के अक्षर ‘जैड’ का आकार बनाता हुआ बॉल्कनी तक चला गया था।
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Re: वर्दी वाला गुण्डा / वेदप्रकाश शर्मा

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दयाचन्द उसे खट् … खट् … करते सीढ़ियां चढ़ते देख रहा था—दिमाग चीख-चीखकर कह रहा था कि लाश उसे मार डालेगी, उसे भाग जाना चाहिए और वह चाहता भी था कि भाग जाए मगर … शरीर दिमाग का आदेश नहीं मान रहा था—भागना तो दूर, जिस्म के किसी हिस्से को स्वेच्छापूर्वक जुम्बिश तक नहीं दे पा रहा था वह।

मानो किसी अदृश्य ताकत ने जकड़ रखा हो।

खट् … खट् … करती लाश जीना चढ़कर बॉल्कनी में आ गई।

उसके ठीक सामने—बहुत नजदीक पहुंचकर रुकी, जबड़े हिले—“तुझे कितनी बड़ी गलतफहमी थी दयाचन्द कि मेरा मर्डर करने के बाद सारी जिन्दगी सलमा के साथ ‘ऐश’ कर सकेगा—देख, मैं आ गया—अब तुझे दुनिया की कोई ताकत नहीं बचा सकती।”

जाने क्या जादू हो गया था?

दयाचन्द की हालत ऐसी थी जैसे खड़ा-खड़ा सो गया हो।

लाश ने अपने सड़े-गले हाथ उठाकर उसकी गर्दन दबोच ली—विरोध करने की प्रबल आकांक्षा होने के बावजूद वह कुछ न कर सका—यहां तक कि लाश ने उसकी गर्दन दबानी शुरू कर दी।

सांस रुकने लगी—चेहरा लाल हो गया, आंखें उबल आयीं।

“न-नहीं … नहीं!” पुरजोर शक्ति लगाकर वह चीख पड़ा, मचल उठा—उसके अपने दोनों हाथ उसकी गर्दन दबा रहे थे।

चेहरा पसीने-पसीने हो रहा था।

गर्म रेत पर पड़ी मछली की मानिन्द बिस्तर पर तड़प रहा था वह।

घबराकर उठा, कमरे में नाइट बल्ब का प्रकाश बिखरा हुआ था—असलम की लाश कहीं न थी।
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“सीधे सवाल का सीधा जवाब दे!” इंस्पेक्टर देशराज ने खतरनाक स्वर में पूछा—“तूने असलम की हत्या क्यों की?”

“मेरे उसकी पत्नी से ताल्लुकात थे।”

“ओह!” देशराज के चेहरे पर मौजूद खतरनाक भाव चमत्कारिक ढंग से व्यंग्यात्मक भावों में तब्दील हो गए

—“और यह भेद असलम पर खुल गया होगा?”

“अगर मैं उसे न मारता तो वह मुझे मार डालता।”

“ऐसा क्यों?”

“उस रात असलम जबरदस्ती मुझे अपने घर ले गया था—वहां जाकर पता लगा उसने न केवल कोठी के सभी नौकरों को छुट्टी पर भेजा हुआ है, बल्कि सलमा को भी उसके मायके भेज रखा है।”

“सलमा … यानी उसकी बीवी, तेरी माशूक?”

“हां!”

“इन्वेस्टीगेशन के वक्त मैंने उसे देखा था—इतनी खूबसूरत तो नहीं है वह, तू मरा भी किस पर—उससे लाख गुना लाजवाब चीज तो उसकी नौकरानी है—क्या नाम है उसका—हां, शायद छमिया!”

दयाचन्द चुप रहा।

“खैर, पुरानी कहावत है—दिल आया गधी पर तो परी क्या चीज है—आगे बक!”

“उसने अपनी बीवी के नाम लिखे मेरे सारे लैटर सामने रख दिये—कहने लगा, मैंने दोस्ती की पीठ में छुरा घोंपा है और अब वह मेरे सीने में छुरा घोपेगा—इन शब्दों के साथ उसने जेब से चाकू निकाल लिया—मुझ पर हमला किया …।”

“हाथापाई में चाकू तेरे हाथ लग गया—तूने उसका काम तमाम कर दिया।” इंस्पेक्टर देशराज ने व्यंग्यात्मक स्वर में बात पूरी कर दी।

“हां!”

“और अब तुझे एक हफ्ते से हर रात अजीब-अजीब सपने दिखाई दे रहे हैं... कभी मैं तुझे तेरे हाथों में हथकड़ियां पहनाता नजर आता हूं, तो कभी तू खुद को फांसी के फन्दे पर झूलता पाता है, पिछली रात तो असलम की लाश ही कब्र फाड़कर तेरी गर्दन तक पहुंच गई?”

“हां इंस्पेक्टर साहब, मैं तब से एक क्षण के लिए भी शांति की सांस नहीं ले पाया हूं।”

“इतने ही मरियल दिल का मालिक था तो हत्या क्यों की?”

“अगर मालूम होता, किसी की हत्या कर देना खुद मर जाने से हजार गुना ज्यादा दुःखदायी है तो ये सच है इंस्पेक्टर साहब, मैं खुद मर जाता मगर असलम की हत्या न करता—मैं तो ख्वाब में भी नहीं सोच सकता था कि ऐसे-ऐसे ख्वाब दीखेंगे।”

“तुझे थाने में आकर मुझे यह सब बताने में डर न लगा?”

“लगा तो था मगर …”

“मगर?”

“आपने असलम की फैक्ट्री के एक ऐसे यूनियन लीडर को डकैती के इल्जाम में फंसाकर जेल भिजवा दिया था जिसके कारण फैक्ट्री में आये दिन हड़ताल हो जाती थी।”

“फिर!”

“उन्हीं दिनों मेरी असलम से बात हुई थी—उसका कहना था आपने उसे आश्वस्त कर दिया था कि कोई भी, कैसा भी काम हो—आप अपनी फीस लेकर कर सकते हैं।”

“फीस बताई थी उसने?”

“हां।”

“क्या?”

“कह रहा था आपने पच्चीस हजार लिए।”

“और तू यह सोचकर अपनी करतूत बताने चला आया कि मैं अपनी फीस लेकर तेरी मदद कर दूंगा?”

“सोचा तो यही था इंस्पेक्टर साहब—अब आप मालिक हैं, जैसा चाहें करें—मुझे असलम की हत्या के जुर्म में पकड़कर जेल भेज दें या …।”
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Re: वर्दी वाला गुण्डा / वेदप्रकाश शर्मा

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दयाचन्द ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

देशराज उसे घूरता हुआ गुर्राया—“या?”

“या मेरी मदद करें।”

“वो यूनियन लीडर को डकैती के इल्जाम में फंसाने जैसा मामूली मामला था—एक डकैत की चमड़ी उधेड़कर उससे कहलवा दिया कि डकैती में लीडर भी उसके साथ था—बस—काम बन गया। मगर ये मामला बड़ा है, हत्या का किस्सा है!”

“सोच लीजिए साहब, मैं मुंहमांगी फीस दे सकता हूं।”

गुर्राकर पूछा उसने—“क्या मदद चाहता है?”

“यह तो आप ही बेहतर समझ सकते हैं।”

“तुझे बुरे-बुरे ख्वाब चमकते हैं, मैं भला उन ख्वाबों को कैसे रोक सकता हूं?”

“असलम की हत्या के जुर्म में किसी और को फंसा दीजिए, मुझे ख्वाब चमकने बन्द हो जाएंगे।”

“किसे फंसा दूं, तेरी नजर में है कोई?”

सटपटा गया दयाचन्द, मामले पर इस नजरिये से विचार नहीं किया था उसने, बोला—“इस बारे में तो अभी कुछ सोचा नहीं साहब।”

“नहीं सोचा तो सोच, या रुक... मैं ही कुछ सोचता हूं।” कहने के बाद देशराज ने एक सिगरेट सुलगा ली और सचमुच सोच में डूब गया।

दयाचन्द खुश था।

इंस्पेक्टर ने वही रुख अपनाया था जो सोचकर वह वहां आया था—अब उसे जरा भी डर नहीं लग रहा था—समझ सकता था कि इंस्पेक्टर कोई-न-कोई रास्ता निकाल लेगा और उस वक्त तो उसकी आशायें हिलोरें लेने लगीं जब सोचते हुए इंस्पेक्टर की आंखें जुगनुओं की मानिन्द चमकते देखीं, प्रसन्न नजर आ रहा इंस्पेक्टर बोला—“काम हो गया!”

“हो गया?” दयाचन्द उछल पड़ा।

“चाकू कहां है?” देशराज ने पूछा।

“कौन-सा चाकू?”

“अबे वही, जिससे तूने असलम का क्रिया-कर्म किया था?”

दयाचन्द ने थोड़ा हिचकते हुए बताया—“म-मैंने अपनी कोठी के लॉन में दबा रखा है।”

“खून से सने कपड़े?”

“वे भी।”

“तेरा काम हो जायेगा दयाचन्द, फीस एक लाख!”

“ए-एक लाख?”

“बिच्छू के काटे की तरह मत उछल—आंय-बांय गाने की कोशिश की तो टेंटवा पकड़कर इसी वक्त हवालात में ठूंस दूंगा—भगवान भी नहीं बचा सकेगा तुझे, सीधा फांसी के तख्ते पर पहुंचेगा।”

“म-मुझे मंजूर है।”

“तो जा, एक लाख लेकर आ।”

“प-पचास लाता हूं, पचास काम होने के …।”

“जुबान को लगाम दे दयाचन्द।” देशराज उसकी बात काटकर गुर्राया—“मैं कोई गुण्डा नहीं हूं जो आधा काम होने से पहले और आधा काम होने के बाद वाली ‘पेटेन्ट’ शर्त पर काम करूं—मेरे द्वारा काम को हाथ में लिये जाने को ही लोग पूरा हुआ मान लेते हैं।”

“म-मैंने भी मान लिया साहब।” दयाचन्द जल्दी से बोला—“मैंने भी मान लिया।”

“हवलदार पांडुराम!”

“यस सर!” हवलदार सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया।

“उस दिन छमिया के बारे में क्या कह रहा था तू?”

“किस दिन साब?”

“जिस दिन असलम सेठ का मर्डर हुआ था और हम इन्वेस्टीगेशन के सिलसिले में उसकी कोठी पर गए थे।”

“ओह, आप उस नौकरानी की बात कर रहे हैं?”

“हां।”

“उसके बारे में न ही सोचें तो बेहतर होगा साब, मैंने उस दिन भी कहा था—आज फिर कहता हूं, या तो सतयुग में सावित्री हुई थी या कलयुग में छमिया हुई है—हद दर्जे की पतिव्रता है वह, हाथ फिरवाने की बात तो दूर, अपने पति के अलावा किसी की तरफ देखती तक नहीं।”

“तुझे कैसे मालूम?”

“मैं ट्राई मार चुका हूं साब, साली ने ऐसा झांपड़ मारा कि याद भी आ जाता है तो गाल झनझनाने लगता है।”

“क्या नाम है उसके आदमी का?”

“गोविन्दा।”

“तो चल, ड्राइवर से जीप निकलवा—ये साले ऊपर वाले बहुत कहते रहते हैं कि मैं कोई केस हल नहीं करता।” देशराज ने कहा—“आज हम असलम मर्डर केस को हल करने का कीर्तिमान स्थापित करेंगे।”

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Re: वर्दी वाला गुण्डा / वेदप्रकाश शर्मा

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“म-मेरे कमरे में?” गोविन्दा चकराया—“मेरे कमरे में आपको क्या मिलेगा साब?”

“हरामजादे … हमसे जुबान लड़ाता है?” दहाड़ने के साथ देशराज ने उसके गाल पर जो चांटा मारा, वह इतना जोरदार था कि हलक से चीख निकालता हुआ गोविन्दा लॉन में जा गिरा, देशराज पुनः दहाड़ा था—“सरकारी काम में बाधा डालने की कोशिश करता है साले?”

सारे नौकर कांप गए।

छमिया चीखती हुई लॉन पर पड़े गोविन्दा से जा लिपटी, पलटकर इंस्पेक्टर से बोली—“इन्हें क्यों मार रहे हो इंस्पेक्टर साब?”

“मारूं नहीं तो क्या आरती उतारूं इसकी?” देशराज गुर्राया—“हमें अपने कमरे की तलाशी लेने से रोकना चाहता है उल्लू का पट्ठा।”

सहमे हुए गोविन्दा ने अपने मुंह से बहता खून साफ किया।

छमिया बोली—“ये रोक कहां रहे थे, इतना ही तो कहा था कि हमारे कमरे से आपको क्या मिलेगा?”

“अगर ज्यादा जुबान-जोरी की तो खाल में भूसा भर दूंगा—इस हवा में रही तो धोखा खायेगी कि औरत होने के कारण बच सकती है!”

छमिया चुप रह गयी—बड़ी-बड़ी आंखों में सहमे हुए भाव लिये देशराज की तरफ देखती भर रही—इसके अलावा कर भी क्या सकती थी वह?

कोई भी क्या कर सकता था?

सारे नौकर, सलमा और देशराज के साथ आये पुलिसियों के अलावा वहां कोई न था—एकाएक देशराज ने हवलदार से कहा—“देख क्या रहा है पांडुराम, इसके कमरे की तलाशी ले।”

“यस सर!” कहने के साथ वह मशीनी अंदाज में लॉन के उस पार एक पंक्ति में बने सर्वेन्ट्स क्वार्टर्स की तरफ बढ़ गया, मदद हेतु सिपाही भी पीछे लपका।

“आइये सलमा जी।” कहने के साथ देशराज भी उस तरफ बढ़ा।

सलमा उसके पीछे थी।

खामोश!

उसके पीछे नौकर थे, सभी डरे-सहमे।

गोविन्दा और छमिया भी।

गोविन्दा ने अपनी चाल तेज की, सलमा के नजदीक पहुंचकर फुसफुसाया—“आप कुछ कीजिए न मालकिन, मालिक के सामने कोई पुलिस वाला हमसे ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता था।”

“मैं क्या कर सकती हूं?” सलमा इतनी जोर से बोली कि आवाज देशराज के कानों तक पहुंच जाये—“इंस्पेक्टर साहब को तुम पर शक है।”

“क्या शक है हम पर?” गोविन्दा के रूप में मानो ज्वालामुखी फट पड़ा—“क्या ये कि मालिक को हमने मार डाला—हमने … जो उन्हें देवता समझता था—जो उनके चरण धोकर पानी पीता था—जरा सोचो मालकिन, क्या मालिक की हत्या हम करेंगे—हम।”

“ज्यादा नाटक किया तो जबड़ा तोड़ दूंगा उल्लू के पट्ठे।” देशराज गुर्राया—“सारी जिन्दगी मैंने तेरे ही जैसे मालिक-भक्त नौकर देखे हैं।”

बेचारा गोविन्दा!

कर भी क्या सकता था?
और फिर!

एक पुराने सन्दूक की तलाशी ले रहे पांडुराम के मुंह से निकला—“मिल गए साब।”

“क्या?” देशराज तेजी से उसकी तरफ लपका।

“खून से सने कपड़े, ये देखिये!” कहने के साथ जो उसने खून से सना गोविन्दा का कुर्ता उठाकर हवा में लहराया तो एक चाकू उसमें से निकलकर जमीन पर गिर पड़ा।

पांडुराम ने कुर्ता छोड़कर उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि देशराज चीख पड़ा—“नहीं पांडुराम, चाकू को छू मत—इस पर अंगुलियों के निशान होंगे।”

पांडुराम ठिठक गया।
सभी अवाक्!

गोविन्दा और छमिया की रूह कांप रही थी।

“क्यों बे!” इन शब्दों के साथ देशराज गोविन्दा पर यूं झपटा जैसे बाज कबूतर पर झपटा हो—गोविन्दा के बाल पकड़ लिए उसने और पूरी बेरहमी के साथ घसीटता हुआ सन्दूक के नजदीक लाकर गर्जा—“ये क्या है?”

“म-मुझे नहीं मालूम—मैं सच कहता हूं इंस्पेक्टर साहब, मुझे कुछ नहीं मालूम …।” गोविन्दा दहाड़ें मार-मारकर गिड़गिड़ा उठा—“मुझे नहीं मालूम कि ये …”

“ये कुर्ता और सन्दूक में पड़ी वह धोती क्या तेरी नहीं है?”

“य-ये कपड़े तो मेरे ही हैं साब, मगर मुझे ये नहीं मालूम कि इन पर खून कहां से लग गया—मैं सच कहता हूं, भगवान की कसम खाकर कहता हूं, मुझे नहीं मालूम।”

“और ये चाकू … ये चाकू भी तेरा है?”

“न-नहीं साब, ये चाकू मेरा बिल्कुल नहीं है।”

“अब भी झूठ बोलता है हरामजादे?” कहने के साथ देशराज ने उसके चेहरे पर जोरदार घूंसा मारा—एक चीख के साथ गोविन्दा खाट के पाये से जा टकराया।

छमिया ऐसे खड़ी थी जैसे लकवा मार गया हो।

देशराज नौकरों की तरफ पलटकर बोला—“देखा तुम लोगों ने—अपनी आंखों से देखा, इसके खून से सने कपड़े और चाकू इसके अपने सन्दूक से निकले—और फिर भी ये हरामी का पिल्ला कहता है इसे कुछ नहीं मालूम।”
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Re: वर्दी वाला गुण्डा / वेदप्रकाश शर्मा

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“मैं सच कहता हूं इंस्पेक्टर साब।” गोविन्दा तेजी से खड़ा होता हुआ बिलख पड़ा—“अगर मैं झूठ बोलूं तो अपनी छमिया का मरा मुंह देखूं—मुझे बिल्कुल नहीं मालूम कि ये चाकू मेरे सन्दूक में कहां से आ गया, मेरे कपड़ों पर खून कहां से लग गया?”

“हम सबको बेवकूफ समझता है गधे के बच्चे!” कहने के साथ ही सरकार द्वारा पहनायी गयी भारी बट्ट वाली बैल्ट निकाल ली उसने और फिर जो पीटा है तो अंदाज ऐसा था जैसे इंसान को नहीं जानवर को मार रहा हो।
गोविन्दा की चीखें दूर-दूर तक गूंज रही थीं।

बचाता कौन?

नौकरों की आंखों में उसके लिये घृणा थी।

छमिया हतप्रभ।

सलमा के पैर पकड़कर गिड़गिड़ा उठा वह—“बचा लो मालकिन—मुझे बचा लो, सच कहता हूं—मैंने मालिक को नहीं मारा, भला मालिक की हत्या मैं क्यों करूंगा?”

बेचारा गोविन्दा!

काश, जानता कि वह भिखारी के पैरों में पड़ा भीख मांग रहा है।

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“गड़बड़ तो नहीं हो जायेगी इंस्पेक्टर साहब?” देशराज के सामने बैठे दयाचन्द ने आशंका व्यक्त की—“

अदालत में कोई धुरन्धर वकील हमारी ‘स्टोरी’ के परखच्चे तो नहीं उड़ा देगा?”

“तेरे में सबसे बड़ी खराबी ये है दयाचन्द कि तू बोलता बहुत है—कोई धुरन्धर वकील क्या इसमें ‘हींग’ लगा लेगा—सलमा अदालत में गवाही देते वक्त कुबूल करेगी या नहीं कि उसने मुझे यानि इंस्पेक्टर देशराज को अपने खाविन्द और छमिया के अवैध सम्बन्धों के बारे में बताया था?”

“जरूर कुबूल करेगी, उससे मेरी बात हो चुकी है।”

“तेरी बात क्यों नहीं मानेगी वह, आखिर माशूक है तेरी और फिर आखिर तूने उसी की खातिर तो उसके खाविन्द को लुढ़काया है—खैर, स्टोरी ये है कि सलमा ने मुझे असलम और छमिया के नाजायज ताल्लुकात के बारे में बताया—तब मेरे दिमाग में यह बात आई कि कहीं यह भेद गोविन्दा को तो पता नहीं लग गया था—कहीं इसलिए तो असलम की हत्या नहीं हुई—पुष्टि करने के लिए उसके कमरे की तलाशी ली गई, सारे नौकर गवाही देंगे कि खून से सने कपड़े और चाकू उनके सामने गोविन्दा के सन्दूक से बरामद हुए—देंगे की नहीं?”

“देनी पड़ेगी, आखिर यह सच है।”

“उसके बाद काम करेगी फिंगर प्रिन्ट्स एक्सपर्ट की रिपोर्ट!” देशराज कहता चला गया—“उसे साफ-साफ लिखना पड़ेगा कि चाकू की मूठ पर गोविन्दा की अंगुलियों के निशान हैं।”

“क्या आप उस पर गोविन्दा की अंगुलियों के निशान ले चुके हैं?”

“अपना काम ‘फिनिश’ करने के बाद ही मैं यहां आराम से बैठा हूं।”

“ल-लेकिन चाकू की मूठ पर उसने अपनी अंगुलियों के निशान कैसे दिए?”

देशराज ने जोरदार ठहाका लगाया और दयाचन्द के सवाल का भरपूर आनन्द लूटने के बाद बोला—“लगता है तू कभी थर्ड डिग्री टॉर्चर से नहीं गुजरा?”

“म-मैंने तो कभी हवालात भी नहीं देखी इंस्पेक्टर साहब।”

“तभी ये बचकाना सवाल पूछ रहा है।”

“मैं समझा नहीं।”

“थर्ड डिग्री टॉर्चर एक ऐसे पकवान का नाम है दयाचन्द, जिसका स्वाद केवल वही जानता है जिसने उसे चखा हो, इसलिए तू ठीक से नहीं समझ सकता—बस इतना जान ले कि उसके दरम्यान अगर हम तुझसे अपना पेशाब पीने और मैला खाने के लिए भी कहेंगे तो वह तुझे करना पड़ेगा—ये तो एक चाकू पर गोविन्दा की अंगुलियों के निशान लेने जैसा मामूली मामला था।”

“कहीं लैबोरेट्री में जांच के दरम्यान जांचकर्ता यह तो नहीं जान जायेंगे कि गोविन्दा के धोती-कुर्ते पर जो खून लगा है, वह असलम का नहीं है?” दयाचन्द ने दूसरी शंका व्यक्त की।

“कैसे जाने जायेंगे—वे केवल खून का ग्रुप बताते हैं और उसके धोती-कुर्ते पर जो खून लगा है वह उसी ग्रुप का है जो असलम के खून का ग्रुप था—लगा है कि नहीं?”

“बिल्कुल लगा है, खून तो मैं खुद ही खरीदकर लाया था।”

“उसमें तूने कौन-सा तीर मार दिया, बाजार में हर ग्रुप का खून मिलता है।”

“फिर भी, आखिर कुछ काम तो किया ही है मैंने?” दयाचन्द कहता चला गया—“गोविन्दा के कमरे से उसके कपड़े चुराना और फिर खून लगाकर चाकू सहित वापस सन्दूक में रखकर आना कम रिस्की काम नहीं था।”

“फांसी से बचने के लिए लोग आकाश-पाताल एक कर देते हैं और तू इतना मामूली काम करने के बाद सीना फुलाये घूम रहा है?”

“लेकिन गोविन्दा और छमिया तो हमारी स्टोरी की पुष्टि नहीं करेंगे?”

“अदालत ही नहीं, सारी दुनिया जानती है कोई मुल्जिम खुद को मुजरिम साबित करने वाली स्टोरी की पुष्टि नहीं करता। यह सवाल होता है पुख्ता गवाहों और सबूतों का—वह सब हमने जुटा लिये हैं—घर जा दयाचन्द, आराम से पैर पसार कर सो—अब असलम की लाश कब्र फाड़कर कभी तेरी गर्दन दबाने नहीं आएगी।”

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