Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

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rajsharma
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

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अर्जुन का जवाब आचार्य जी को लाजवाब कर गया. उन्हे लगा की ये लड़का संस्कार की शिक्षा भी लिए हुए है तो सीधा बड़ा सवाल कर दिया. "वासना और प्यार" मे क्या फरक होता है अगर पता हो तो."

"नही सर ये वासना शब्द अगर सुना भी है तो इसका मतलब नही पता." अर्जुन ने बिना झिझक के कहा. उधर प्रीति थोड़ी दूरी पर 2 बुजुर्ग व्यक्तियों के साथ ही बॅडमिंटन खेल रही थी. शायद वो दोनो पहले से खेल रहे थे और प्रीति भी इनमे शामिल हो गई हो.

"ध्यान से समझना के इन दो शब्दो के अर्थ मे क्या फरक है. फिर खुद अपनी ज़िंदगी से जोड़ना दोनो को."

"वासना. मतलब एक भूख या लालच. इसमे इंसान सिर्फ़ पाने के लिए सोचता है. चाहे वो धन हो या तंन हो. अगर सबकुछ होने के बाद भी किसी दूसरे का हक़ ज़बरदस्ती लिया जाए वो वासना है. किसी सॉफ मन के व्यक्ति को अंधेरे मे रख कर उसके विश्वास या दिल से खेलना भी यही है. इसमे सिर्फ़ लेने की चाह है. कोई सुंदर शरीर भी भोगने की ही वस्तु लगेगा, सामने वाले की मर्ज़ी हो या नही. आकर्षण की अधिकता से भी ऐसा हो सकता है. वही दूसरी तरफ प्यार है. सॉफ, स्वच्छ और निर्मल. यहा कोई भी किसी पर ज़ोर नही देता. किसी के दुख मे उसका साथ देना, निस्वार्थ. इंसान की मर्ज़ी या इज़्ज़त को सम्मान देना. भरोसे को मजबूत करना. और बात अगर लेने या देने मे से किसी एक पर आ जाए तो स्वयं ही दे देना. इसको प्यार कहते है." उन्होने रुक कर फिर कहा, "सोच रहे हो की योग और प्राणायाम का इन सब से क्या लेना देना? जब तक मन निर्मल और शांत नही होगा तो बेटा बताओ शरीर और आत्मा का योग कैसे संभव है. कैसे एक अशांत मन ध्यान लगा सकता है?"

धीरे धीरे ही सही लेकिन आज बात बहुत बड़ी कर दी थी आचार्य जी ने.

"अब मैं भी चलता हू मेरे दोस्त. कल फिर मिलेंगे. अपना ध्यान रखना." सर सहला कर वो अपनी मित्र -मंडली की और हो लिए.

अर्जुन को अकेला देख प्रीति जो अब खेल नही रही थी वो उसकी तरफ चली आई.
"बड़े ही दिलचस्प दोस्त है जी आपके?", अर्जुन को ऐसे किसी बुजुर्ग के साथ इतनी देर तक बैठे देखा था तो आते ही मज़ाक से ही बात शुरू करी.

"बस ऐसे ही जब दिल करता है तो आचार्य जी से भी बात कर लेता हू. लेकिन तुम यहा और वो भी इतनी सुबह.?"

"मुझे रन्निंग करते देख समझ नही आया क्या?" थोड़ा इतरा कर जब प्रीति ने बात कही तो अर्जुन ने हल्के से मुस्कुरा कर जवाब दिया. "सोचा भी नही था अगर सच कहूं तो. कमाल हो मतलब. लेकिन आज तुमने भी मुझे कुछ सीखा ही दिया."

"अच्छा जी हमने सिखाया और हम को ही नहीं मालूम." ये मुस्कान देख कर अर्जुन उसमे डूब सा गया. और फिर ज़्यादा ही डूबता चला गया जब उसने पहली बार ध्यान से हरी/नीली आँखों को देखा. कुदरत ने सारे रंग भर दिए हो जैसे इस चेहरे मे.

"मिस्टर, बात नही करनी तो फिर घर तक साथ ही चल पडो."

प्रीति की बात से तंद्रा टूटी तो वापिस कहना शुरू किया, "आज पता लगा के अकेले दौड़कर अकेला जीतने वाला कभी जिंदगी मे जीत नही सकता."

प्रीति ने साथ मे चलते हुए ये बात सुनी तो एक पल रुक कर कहा. "ज़रूरी तो नही जो साथ दौड़ रहा हो वो तुमसे मुकाबला कर रहा हो. ये भी तो हो सकता है के वो तुम्हे तुमसे ही मिलवाना चाहता हो. कई रेस ऐसी भी होती है जिनमे अकेले ही दौड़ना होता है लेकिन फरक सिर्फ़ इस बात से पड़ता है की उस दौड़ को जीतने के लिए तुमने कितनो को खोया या फिर कितनो को उस सफ़र मे अपना बनाया."

दोनो चुपचाप गेट से बाहर निकल आए. इतनी बड़ी बात कह कर प्रीति इसलिए चुप थी की कही अर्जुन को कुछ बुरा ना लगा हो. और अर्जुन ये सोच रहा था कि ऐसी बात कोई लड़की इतनी कम उमर मे कैसे कर सकती है. सच मे ही उसने अब आचार्य जी और प्रीति की कही बात को जोड़कर देखना शुरू किया. फिर सोच से बाहर आया तो दोनो थोड़े दूर तक आ चुके थे.

"रूको ज़रा." अर्जुन की बात से अभी तक चुप प्रीति वही रुक गई और अर्जुन नीचे बैठ कर उसके जूते के फीते बाँधने लगा जो खुल गये थे लेकिन प्रीति को शायद पता नही चला था. बीच सड़क पर अर्जुन की ये हरकत देख उसको एक बार तो हल्का झटका सा लगा. लेकिन दूर दूर तक कोई खास लोग नही थे.

"वो तुम गिर सकती थी और शायद तुम्हे पता भी नही चला था. यहा बीच सड़क पर तुम बाँधती अच्छी नही लगती."

अर्जुन को देख कर प्रीति बस मुस्कुरा भर दी. ज़्यादा बातें नही हुई दोनो के बीच लेकिन जब भी कोई एक दूसरे को देखता तो बस मुस्कुरा भर देता.

"अच्छा तो फिर कल मिलते है." अर्जुन का घर आ गया था तो उसने घर के सामने रुक कर प्रीति से कहा.

"कल क्यू? आज का तो पूरा दिन ही पड़ा है. और वैसे किसी लड़की को घर छोड़ने की जगह तुम पहले अपने घर जा रहे हो? सड़क पर तो बड़ा ध्यान दे रहे थे."

प्रीति की बात सुनकर वो हंसता हुआ उसके घर की तरफ चलने लगा. "वो आज मेरी कोचैंग नही है तो स्टेडियम तो जाउन्गा नही. तो फिर कल सुबह ही मिल पाएँगे."

"हाहाहा. मतलब हमारा घर मुश्किल से 100 फीट दूर है लेकिन अगर मिलना है तो 10 किमी दूर स्टेडियम या फिर 3 किमी दूर पार्क.. हाहाहा.. तुम्हारे इरादे ठीक तो है?"

अब तो जैसे प्रीति की बात सुनकर अर्जुन से जवाब देते ना बना.. "वो मेरा मतलब था कि मैं और तो कही जाता नही हू. हा तुम हमारे घर आ सकती हो वहाँ तो सभी लोग है. 4 दीदी, ताई जी, मा और दादा-दादी." अर्जुन का सॉफ दिल होना प्रीति को भी अच्छा लगा.

"देखते है वैसे हमारे घर मे तो मैं और दादा जी ही है बस. या फिर हमारे 2 सेरवेंट. तुम भी आ सकते हो मेरे दादा जी भी तुम्हे कुछ कहेंगे नही."

दादा जी का जीकर उसने जान कर किया था. कर्नल पुरी को याद करते ही अर्जुन को आर्मी याद आ गई. "क्या घर मे भी बॉर्डर जैसा सिस्टम है?"
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

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"हाहाहा. तुम भी ना. मेरे दादाजी ज़्यादातर तो तुम्हारे दादाजी के साथ रहते है तो तुम्ही बताओ के क्या तुम्हारे घर मे पुलिस स्टेशन जैसा महॉल है."

अब अर्जुन के झेंपने की बारी थी. लेकिन बात को वही ख़तम कर उसने शिष्टाचार से उसको बाइ किया और जाने से पहले एक बार फिर उसकी आँखों को देखने की कोशिश सी की.

"बाइ. और तुम्हारे देखने से इनका रंग नही बदलेगा." वो अर्जुन को ऐसे ताकता देख खिलखिला कर गेट की तरफ बढ़ चली.
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

Post by rajsharma »

" वो मा सुबह के लिए सॉरी. मुझे नही पता था कि ऐसा कुछ होगा लेकिन फिर पता नही मैं जैसे कही खो गया था." अपनी मा को रसोईघर मे चाय बनाते देख अर्जुन ने उनके पास जा कर क्षमा माँगी जो भी उसने सुबह देखा था उसके लिए.

"कोई बात नही बेटा. ग़लती मेरी भी थी. सावधानी नही रख पाई तो अंजाने मे हो गया. चल यहा बैठ मैं तुझे दूध देती हू." अपने बेटे की बात सुनकर रेखा जी को भी अच्छा लगा. वो काफ़ी देर से बस उस हादसे के बारे मे ही सोच रही थी. लेकिन अर्जुन की माफी ने बता दिया था की ग़लती तो रेखा की ही थी. बेटे को क्या पता था कि मा ऐसे बाहर आ जाएगी. लेकिन जो बात उन्हे खाए जा रही थी वो यही थी के अर्जुन ने उनको देख कर नज़र क्यो नही फेरी थी. उसका घूर्ना रेखा जी का सरदर्द सा कर गया था. लेकिन घर आते ही उसने दिल से माफी माँग कर उन्हे इस दर्द से निजात दिला दी थी.

"मुन्ना आज तू लेट कैसे आया रे?" ये ताईजी थी जो चाय पीने आई थी वहाँ. हल्के हरे रंग की सारी मे लिपटा उनका गदराया जिस्म और मेहन्दी रंग के ब्लाउस मे से बाहर निकलने को तड़प रहे मोटे बूब्स. ताईजी भी उसकी नज़र देख मुस्कुराइ और फिर कुर्सी पर बैठ गई.

मा वही थी तो अर्जुन भी शांति से थोड़ी दूर कुर्सी पर बैठ गया. "ले बेटा. आराम से पीना. जल्दी जल्दी पीने से दूध शरीर को सही से नही लगता." हिदायत देने के साथ उन्होने एक बड़ा गिलास दूध का जिसमे बादाम डालकर गरम किया था अर्जुन के सामने रख अपनी जेठानी को चाय का कप दिया. खुद भी वही बैठ गई.

एक बार अर्जुन ने फिर से दोनो को बारी बारी से देखा और फिर उपर कमरे मे चल दिया. नहाने के लिए घुसा तो अब गोर से प्रीति की बात पर ध्यान देने लगा. "अकेले भी दौड़ना पड़ता है ज़िंदगी मे. लेकिन कई बार मंज़िल से पहले ही बहुत लोग अपने बन जाते है और कई बार मंज़िल पर पहुचने के लिए कई लोग सफ़र मे पीछे रह जाते है. " उसको अब ये बात पूरी तरह से समझ आ गई थी. ज़रूरी नही के कोई ऐसा लक्ष्य बनाया जाए जहाँ अपने ही लोग ना हो साथ.

और अगर अपने लोग हमेशा साथ हो तो इंसान खुद ही इतना मजबूत होगा की वो किसी ऐसे लक्ष्य की तरफ़ देखेगा भी नही जिसके लिए सब से रिश्ता तोड़ कर जाना पड़े. नहा के बाहर आया तो बिल्कुल तरो ताज़ा था अब वो. नीचे अलका दीदी पता नही कब से इंतजार कर रही थी उसका. और जब अर्जुन ने उन्हे
खड़े देखा तो कान पकड़ लिए और उनके पीछे बाहर चल दिया.

"दीदी भूल गया था. गुस्सा नहीं होना प्लीज़."

"चुपचाप स्कूटी बाहर निकालो और चलो.", अलका दीदी थोड़ा गुस्से मे थी क्योंकि 30 मिनिट से अर्जुन नहा रहा था. वो भी हुकुम मानकर चल दिया ग्राउंड की तरफ. लेकिन उसने सीधा स्कूटी वहाँ रोकी जहाँ कॉलेज के बाद वो दीदी को लेकर आया था.

"मुझे चलाना सीखना है." ये बात सिर्फ़ उपर से ही अलका दीदी ने कही थी. जगह को याद करके उनका जिस्म रोमांच से भर उठा था.

"पहले मुझे अपनी प्यारी दीदी को गले लगा कर उनका गुस्सा कम करना है." इतना बोलकर उसने स्कूटी खड़ी करी और सीट पर बैठी अपनी गुस्से वाली दीदी को बाहो मे भरकर उपर उठा लिया.

"दीदी आप जानती नही की आप नाराज़ होती हो तो मुझे खुद पर कितना गुस्सा आता है. " उसने ये बात अलका दीदी को गले लगाए ही कही थी. इसमे कोई वासना या भूख नही थी. लेकिन एक प्रेमी का प्रेमिका के लिए प्यार ज़रूर था.

अलका दीदी ने भी उसको थोड़ा ज़ोर से कस लिया. "तू ना मुझे मिनिट मे बेवकूफ़ बना लेता है." और मुस्कुरा कर होंठो पर किस करके ज़मीन पर पाव टीका लिए. "चल अब सीखा."

फिर अर्जुन ने जैसे ऋतु दीदी को समझाया था वैसे वो अलका दीदी को समझाने लगा. पीछे बैठकर उसने वैसे ही उनको चलाने दिया. हर मोड़ पर वो खुद स्कूटी घुमाता. थोड़ी देर बाद अर्जुन ने शरारत शुरू कर दी. एक हाथ हॅंडल पर एक हाथ से दीदी की उभार का निचला हिस्सा सहलाने लगा.

"ऐसे मत कर वरना गिर जाएँगे." महसूस होते ही दीदी डरने लग गई. मज़ा भी आ रहा था और हॅंडल छूटने का डर भी था.

"नही गिरते दीदी. आप बस पकड़े रहो." इतना बोलकर वो अब थोड़ा उपर हाथ ले आया था.

"भाई तू वही रोक ले जहाँ पहले रोकी थी." और अर्जुन ने वापिस वही पेड़ो के झुंड के पास स्कूटी खड़ी करी और उनको साथ लेकर झुंड के बीच आ गया. उस से ज़्यादा उत्तेजित तो अलका दीदी थी जिन्होने रात को अर्जुन और माधुरी दीदी का अद्भुत संगम देखा था. वो उसके शरीर पर नागिन सी चिपकती होंठ चूसने मे लगी थी यहा अर्जुन ने हाथ सीधा सलवार के अंदर डाल दिया और कच्छी के उपर से ही उनकी चूत सहलाने लगा.

"भाई ये मत कर नही तो मैं सबर खो दूँगी. देख मेरे 4 पेपर बचे है फिर मैं चाहती हू खुद मेरे कपड़े उतार मेरे अंदर समा जाए. बस इतने दिन उपर से जो भी कर ले." हाथ हटाने की कोई कोशिश नही की थी दीदी ने.

अर्जुन ने भी बिना कुछ बोले अपने हाथ पीछे कुल्हो पर रख दबाने शुरू कर दिए और उनको अच्छे से चूमने लगा. कोई 10 मिनिट बाद दोनो खुद को दुरुस्त कर वापिस घर की तरफ चल दिए. इस बार अलका दीदी का हाथ बड़े प्यार से भाई की कमर मे था.

"ले लिए मज़े?" घर के अंदर अभी आए ही थे की ऋतु ने अलका को देखते ही कहा.

"कोन्से मज़े लेकर आ रही हो?" माधुरी दीदी की आवाज़ सुनकर तो तीनो एक बार ठिठक गये. ऋतु तो बोलने लगी थी की दीदी हमारे मज़े तो आप वाले मज़े के सामने कुछ भी नही. लेकिन अलका ने आराम से कहा , "दीदी स्कूटी चलाने मे भी मज़ा आता है. बस वही बात हो रही थी."

माधुरी दीदी गहरी निगाहो से देखती मशीन की तरफ चली गई जहाँ कोमल दीदी कपड़े भिगो रही थी.

"किसी दिन पक्का मरवाएगी तू ऋतु की बच्ची.", अलका दीदी ऋतु को खींचती हुई अंदर ले चली.
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सभी काम से फारिग हो कर अर्जुन उपर ड्रॉयिंग रूम मे बैठ कुछ सोच रहा था. टेलीविजन पर कोई कार्टून चल रहा था और अभी तकरीबन 10 बजे थे.

"ये प्रीति को देख कर ऐसा क्यो लगता है के मैं शायद पहले से जानता हू. लेकिन वो तो कभी हमारे घर भी नही आई. दादा जी के इतने अच्छे दोस्त है पुरी अंकल और दादाजी भी उनके पास जाते रहते है. फिर ऐसा क्यो है के वो घर मे अकेली होते हुए भी कभी हमारे घर नही आई?" अर्जुन हर बात पर गोर कर रहा था. प्रीति की उन नीली-हरी आँखों को पता नही उसने कब देखा था. लेकिन वो उसको बड़ी जानी पहचानी लग रही थी. जैसे उनको उसने पहले बहुत करीब से देखा है, महसूस किया है.
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

Post by rajsharma »

"छोटे तू यहा बैठा है और नीचे तुझे दादाजी बुला रहे है.", संजीव भैया ने उसको हिलाते हुए कहा

"भैया ... आप कब आए और अब तो नही जाओगे ना बाहर?" अपने भैया को इस टाइम घर अचानक आया देख वो खुश हो उठा.

"अर्रे नही जा रहा कही अभी. 2 दिन से 4-5 शहरो मे कॅंप लगाए थे और मीटिंग्स थी. बस अभी उपर आया हू नहाने फिर थोड़ा आराम करूँगा. शाम को दोनो बाहर चलेंगे." भैया की बात सुनकर अर्जुन किसी नन्हे बचे की तरह चहक उठा. "हा और आज पूरी शाम मेरे साथ रहेंगे."

अपने छोटे भाई की खुशी देख संजीव भैया भी मुस्कुरा के बोले, "अर्रे तू एक बार बोल कर देख हर शाम तेरे नाम. और जल्दी जा कही ज़्यादा देर हो गई तो फिर यहा थानेदार साहब खुद आ जाएँगे." अपने दादा जी को दोनो कई बार इस नाम से आपस मे बुलाते थे.

"हंजी दादा जी. कहिए क्या काम है?" वो अगले ही पल बैठक मे खड़ा था जहाँ बोलने के बाद देखा तो कर्नल पुरी और मल्होत्रा अंकल भी साइड सोफा पर बैठे थे. उसने आदर से उन्हे नमस्कार किया.

"हा बेटा वो ऐसा है के आज मल्होत्रा जी के घर संगीत का कार्यक्रम है तो मार्केट से कुछ समान लेके आना था." उन्होने बात करते हुए अपने दोस्त की तरफ इशारा भी किया. "खैर मैं तो भूल गया की ये बात किस से कर रहा हू. तुझे तो पता ही नहीं होगा की कल पलक बिटिया की शादी है क्योंकि घर की बातों मे कभी पहले बैठा हो तो पता होगा कोंन आस पास रहता है या कहा क्या हो रहा है." थोड़ी तल्खी से बात करी रामेश्वर जी जो वो कभी करते नही थे.

"क्या पंडित जी अभी बच्चा है और आप काम की बजाय इसको ऐसे डाँटने लगे. अच्छा अर्जुन बेटा, वो ऐसा है ना की शादी का घर है तो सभी लोग काम मे लगे है और जो काम नही करना चाहते वो सजने सवरने मे." थोड़ी मुस्कुराहट से ये बात कही और आगे बोले, "सारे काम लगभग हो चुके है लेकिन
वो तेरी दीदी (पलक मल्होत्रा) का एक लहंगा फिटिंग के लिए बड़ी मार्केट मे दिया था "शिगार घर" वाले को, उसने संदेश भेजा की लहंगा तयार है ले जाओ क्योंकि उनके घर मे भी कोई कार्यक्रम है तो दुकान 12 बजे बंद कर देगा. और ये कुछ समान लाना था वही मार्केट से जो यहा नही मिला." मल्होत्रा अंकल ने अर्जुन की तरफ एक छोटी सी स्लिप बढ़ाई.

"ये तो शायद लड़कियो का समान है?" अर्जुन ने सरसरी नज़र डाली जिसमे फेशियल क्रीम वग़ैरह लिखा था.
"इसलिए तो तुम्हारे साथ प्रीति को भेज रहा हूँ बर्खुरदार. और उसने भी रात को फंक्षन मे पहन ने के लिए कुछ लेना है. अकेले इतनी बड़ी मार्केट तो वो जाने से रही." ये कड़क आवाज़ पुरी अंकल की थी.

"ये बेटा पैसे पकड़ लो. बाकी पैसे और पर्ची घर आने के बाद अपनी आंटी को दे देना." मल्होत्रा अंकल ने एक दस हज़ार की गड्डी उसे थमा दी.

"तू ऐसे ही जाएगा क्या?" रामेश्वर जी ने थोड़ा नर्मी से पूछा.

"वो दादा जी फंक्षन तो रात का है. मैं संजीव भैया के साथ जा कर ले आउन्गा कुछ."

अर्जुन ने इतना कहा तो अब दादा जी उठ खड़े हुए. "बेटा दुनिया मे पाजामे की सिवा भी और कपड़े होते है. और मार्केट जाना हो तो कम से कम खुद की नही लेकिन तेरे दादा की तो पर्सनॅलिटी की इज़्ज़त रख. " अपने दोस्तो की तरफ मुड़कर हँसे और तकिये के नीचे से 3000/- निकाल कर उसको थमा दिए.

"पहले उपर जा कर जीन्स और कोई अच्छी सी शर्ट पहन. और भैया के साथ नही अभी अपनी खुद की मर्ज़ी से कपड़े लेना. वही पहनकर देख कर. और पैसे कम पड़े तो मल्होत्रा जी के पैसो से प्रयोग कर लिओ. मैं दे दूँगा इनको."

उनकी बात सुनकर पैसे जेब मे डाल वो मुड़े ही थे के फिर आवाज़ आई. "कुछ भूल रहे हो? तैयार होने के बाद घर से प्रीति को लेके जाना है?" कर्नल पुरी ने फिर याद दिलाया उसको क्योंकि इतनी बातों के बीच वो ये सच मे भूल गया था..

"भैया, दादा जी मुझे मार्केट भेज रहे है और तैयार होकर जाने को बोल रहे." लाचारी से उसने उपर आने के बाद भैया की तरफ़ देखा.

"हा तो क्या बड़ी बात है. सबको पता है की दिन मे तू 3 बार पाजामा बदल कर पाजामा ही पहन लेता है. तुझे नये साल पर जो जीन्स की पैंट दिलाई थी कभी खोली भी तूने? या फिर कोई शर्ट पहनी है?" वो सोफे से उठ गये और अर्जुन की अलमारी खोल कर अंदर उसके कपड़े देखने लगे. अंदर पाइप पर 8-9 शर्ट प्रेस की हुई जाने कब से टन्गी थी. 4 जीन्स थी वहाँ जिन मे से 2 के उपर अभी भी कीमत वाली पट्टी चिपकी थी. नीचे हर तरफ़ा सिर्फ़ टीशर्ट/लोवर का बड़ा से ढेर लगा था.

"तेरा कुछ नही हो सकता भाई. चल ये पहने हुए कपड़े उतार और जो दे रहा हू वो पहन." उन्होने पहले एक सॉफ बनियान उठाई जो अर्जुन ने टीशर्ट उतार कर पहन ली. फिर एक सफेद सूती लेकिन कड़क प्रेस करी हुई कमीज़ जिसके साथ उन्होने हल्के नीले रंग की जीन्स पैंट उसको दी. अर्जुन बस चुपचाप पहन रहा था.

"इधर हा. तू सच मे ही बच्चा है." उन्होने अर्जुन की कमीज़ जो वो जीन्स पैंट के अंदर डालने लगा था वही पकड़ ली."ये कोई फॉर्मल शर्ट नही है और ना ये पतलूर है. बाहर रख इसको. दिख नही रहा सिर्फ़ बेल्ट की पट्टी से एक इंच ही नीचे है. और ये जूते अंदर रख और तेरे सफेद वाले आक्षन के जूते डब्बे से बाहर निकाल. दीवाली का तोहफा अभी तक डब्बे मे है."

अर्जुन जब जूते पहन रहा था तो संजीव भैया बाथरूम से थोड़ा पानी नहाने के डब्बे मे लेकर आए. अपने हाथ मे थोड़ा पानी ले कर उन्होने अच्छे से उसके घुंघराले बालो को गीला किया और फिर थोड़ा खुसबु वाला तेल लगाया. उसके बाल अच्छे दिख रहे थे.

"चल अब ज़रा खुद को आईने मे देख ले एक बार." उन्होने हंसते हुए कहा और अलमारी का दरवाजा बंद किया जीके बाहर की तरफ कोई 4 फीट का शीशा लगा था.

"मेरा तो काया कल्प ही कर दिया भैया आपने?" अर्जुन ने भी काबी खुदको ऐसा नही पाया था जैसे वो आज दिख रहा था. गोरा सख़्त चेहरा, चौड़े कंधो पर फिटिंग की सफेद शर्ट, टाँगो के उपर हल्की टाइट जीन्स की पैंट और दोनो से मेल खाते उसके जूते. वो रविवार के अख़बार मे कपड़ो के प्रचार करते किसी मॉडेल जैसा लग रहा था.

"थॅंक यू भैया." अपने इस रूप से खुश होकर उसने अपने भैया को गले ही लगा लिया.

"बस कर रे तेरी कमीज़ पर सिलवट पड जाएँगी. चल जा और ध्यान रखना."

दिए हुए पैसे अपनी जेब मे डालने के बाद अर्जुन ने अपना बटुआ भी पिछली जेब मे डाल लिया. थोड़े और पैसे उसने बटुए मे भर लिए थे. कोई 2 मिनिट बाद अब वो कर्नल पुरी के गेट पर था. स्कूटर को स्टॅंड पर लगा कर घंटी बजाई.

"जी कहिए." ये पार्वती थी, घर की कामवाली.

"वो प्रीति जी को बोलना के अर्जुन आया है." संदेशा लेकर पार्वती अंदर गई और वापिस आते ही गेट खोलकर बोली, "वो आप अंदर बैठ जाइए, दीदी को 2 मिनिट लगेंगे, ऐसा उन्होने कहा है. चलिए."

अर्जुन मना करना चाहता था लेकिन कुछ सोचता हुआ अंदर चल दिया.
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