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Fantasy मोहिनी

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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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कबीले की रात कत्ल की रात थी। ढोल-नगाड़े पहाड़ियों में गूँजते रहे। यहाँ तक किसी इंसान या सेना का पहुँचना असंभव था। शायद यही कारण था कि लोग संसार की दृष्टि में नहीं आए थे। उन पहाड़ियों और तिलस्मी दर्रों को पार करके कौन यहाँ आ सकता था। बहरहाल कुँवर राज ठाकुर इस रहस्यमय प्रदेश में पहुँचा था और वह मोहिनी थी जिसके कारण यह भू-भाग देखने को मिला था।

दो दिन कबीले में विश्राम करने के बाद एक बड़े जुलूस के साथ चंद पहाड़ियाँ और चढ़कर हम एक विशाल मैदान में पहुँचे। मैंने देखा कि पहाड़ियों के तराई से जैसे ही कई जुलूस आ रहे थे। उनके हाथों में पताकाएँ थी और उनके आगे-आगे रस्सियों से जकड़े भैंसे दौड़ रहे थे। भैंसे को रस्सियों से नियंत्रित किया जा रहा था। इसी से मालूम पड़ता था कि वे कितने ख़तरनाक हैं।

गोरखनाथ ने मुझे बताया कि चार भैंसे वहाँ से देवी के मैदान में लाए जा रहे हैं और उसी जगह देवी का मंदिर है। वहाँ चारों में यह फ़ैसला किया जाएगा कि उनमें कौन सा शक्तिशाली है और फिर जो उनमें सबसे शक्तिशाली होगा उससे कालू को लड़ना होगा।

“लेकिन इसका फ़ैसला कैसे होगा कि उन चारों में शक्तिशाली कौन सा है ?”

“उन चारों को एक रास्ते पर दौड़ाया जाएगा। वहाँ एक पहाड़ी है जिसपर देवी का मंदिर है। चारों भैंसे उस पूरी पहाड़ी की परिक्रमा करेंगे और जो सबसे पहले परिक्रमा करके लौटेगा वह शक्तिशाली मान लिया जाएगा। ये भैंसे आपस में लड़-झगड़कर आगे बढ़ते हैं। संभव है उनमें से एक-दो मर भी जाए।” गोरखनाथ ने मुझे बताया।

“फिर तो वह थका हुआ होगा।”

“यह तुम्हारा ख़्याल है। उसे अगले दिन लड़ाया जाएगा। रात भर देवी का नाच होगा। ऐसा मुक़ाबला पहली बार यहाँ देखने में आएगा इसलिए सभी कबीले वाले भरपूर संख्या में यहाँ आएँगे। वैसे भी देवी का वार्षिक उत्सव शुरू होने में दो दिन बाकी है और शायद इसी से उत्सव का प्रारंभ होगा।”

“ओह! क्या पहाड़ों की रानी भी वहाँ आएगी ?”

“पहाड़ों की रानी उत्सव के अंतिम दिन दर्शन देती है और तभी पहाड़ी पर स्थापित मंदिर के कपाट वह स्वयं खोलेगी। लोग देवी के दर्शन करके लौट जाएँगे। इन लोगों ने सांड को लड़ाने के लिए वही स्थान उपयुक्त समझा है। ताकि अधिक से अधिक लोग इस तमाशे को देख सके।”

मुझे यह सब बातें अजीब लग रही थीं और बेचारे कालू पर भी तरस आ रहा था। उस मूक जानवर को क्या खबर कि उस पर क्या आफत टूटने वाली है।

हमारा जलूस उस मैदान में पहुँच गया। बहुत से छोटे-बड़े जानवर भी जलूस में थे जिनकी बलि चढ़ाई जानी थी। हो सकता था कि इस सलाना त्यौहार में नर बलि भी दी जाती क्योंकि ऐसा उन लोगों के बारे में मैं सुन चुका था। कालू बड़े शांत भाव से चल रहा था। आख़िर हम उस मैदान में पहुँच गए जहाँ का वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ।

इस मैदान में मेला सा भरता जा रहा था। ऊपर वह ऊँची पहाड़ी थी जिसकी चोटी बर्फ़ से ढकी थी। परंतु मंदिर के कोई चिह्न नज़र नहीं आते थे। अलबत्ता एक चौड़ा रास्ता ऊपर की ओर जाता दिखायी दे रहा था और यह रास्ता एक गुफा से निकलता था।इसी गुफा के द्वार को देवी के मंदिर का कपाट कहा जाता था जिसका बाहरी भाग किसी छिपकली के जबड़े की शक्ल का बना था। कदाचित अंदर का रास्ता बंद था। और उसके चारों तरफ़ की सपाट चट्टानें खड़ी थी कि उन्हें किसी सुरक्षित दुर्ग की चारदीवारी कहा जाए तो उत्तम होगा। जंगलियों के पुजारी गुफा के द्वार के सामने एकत्रित होते जा रहे थे। उसी जगह एक चबूतरा था जहाँ विभिन्न दिशाओं से लायी गयी ध्वजाएँ रखी जा रही थीं। इन ध्वजाओं की बाँसों पर कोई जोड़ नहीं था। और कोशिश यह रहती थी कि लम्बी से लम्बी ध्वजा लाई जाए। क्योंकि जिसकी ध्वजा सबसे लम्बी होती थी वह पहले देवी का प्रसाद पाने का हक़ रखता था। सभी ध्वजाओं पर देवी का निशान फहरा रहा था और उस पर कबीलों के निशान भी थे जो नीचे बँधे थे।

एक कबीले से एक ही ध्वजा आती थी। ढील, तासे और नगाड़े गूँज रहे थे। बड़ा ही अजीब नजारा था। मैं पहाड़ी की उस चोटी की तरफ़ देख रहा था जहाँ मोहिनी देवी का मंदिर था। मैं उसके कितने क़रीब आ गया था। मेरी मोहिनी मुझे सशरीर दर्शन देने वाली थी वह मोहिनी जो मेरी बांदी रही थी। मेरी कनीज। कितनी शोख बातें हुआ करती थीं। कितनी हंगामा ज़िंदगी थी। मोहिनी के साथ बीती एक-एक घड़ी मुझे याद आ रही थी।

दूर जहाँ तक नज़र जाती थी इंसानों के सिर ही सिर नज़र आते थे। बूढ़े, बच्चे, जवान, स्त्री और पुरुष सभी उसमें सम्मिलित थे। जगह-जगह नृत्य हो रहा था। रात को मशालों का प्रकाश फैल रहा था। हमने मशालों का खौफनाक नाच भी देखा। और मुँह से आग निकालने वालों की उछल-कूद भी। लेकिन इस उत्सव का सबसे अहम समय तब आया जब कालू की पीठ गोरखनाथ ने थपथपाकर जंग के मैदान में उतारा। लोग टीलों पर चढ़-चढ़कर यह नजारा देख रहे थे।

एक छोटा सा मैदान रस्सी से बाँधकर तैयार किया गया जो गुफा के द्वार के ठीक सामने तैयार किया गया था। लोग अब भी कालू सांड को नफ़रत की दृष्टि से देख रहे थे। भैंस को अब भी दस-पंद्रह आदमियों ने रस्सियों से जकड़ रखा था।अचानक मैंने देखा कि भैंसे को कुछ पिलाया जा रहा है और वह रस्सियाँ तोड़कर भागने की चेष्टा कर रहा था। जबकि कालू सांड बिल्कुल शांत खड़ा था। फिर एक और खौफनाक दृश्य दिखायी दिया। भैंसे की पीठ पर एक जंगली ने किसी धारदार शस्त्र को घोंपा और भैंसा चिंघाड़ने लगा। उसकी पीठ से खून बहने लगा। ज़ख़्म पर कोई चीज़ डाली गयी और भैंसा जैसे पागल हो उठा। भैंसे की आँखें जैसे क्रोध से दहक रही थीं। भैंसे को उस मैदान की तरफ़ हाँका गया और रस्सियाँ खोल दी गईं।

भैंसा अपना सिर झुकाकर झोंक में आगे दौड़ता चला गया। वह रस्सियों के जाल से टकराकर रुक गया फिर पलटा और अपने सींग ज़मीन पर मारकर उसने ढेर सारी मिट्टी उखाड़ फेंकी। इसी से उसके क्रोध का पता लगता था। जिस रास्ते उसे अंदर दौड़ाया गया था उसे भी बंद कर दिया गया। रस्सी के बाहर खड़े लोग चिल्ला-चिल्ला कर शोर मचा रहे थे। अचानक भैंसे ने एक दहशतअंगेज हुंकार भरी और इधर-उधर देखने लगा। अब उसकी नज़र एक कोने में खड़े सांड पर पड़ी तो भैंसे की आँखें उस पर जमकर रह गयी। उसने खुरों से धूल उड़ानी शुरू कर दी जो जंग का ऐलान था।

कालू के शरीर में मैंने झुरझुरी सी दौड़ती देखी और फिर वह भी भैंसे की तरह खुरों से धूल उड़ाते हुए आगे बढ़ने लगा। वे शायद अपने पैंतरे बना रहे थे। अचानक भैंसा दौड़ पड़ा फिर कालू ने भी दौड़ लगाई और धड़ाम की आवाज़ के साथ दोनों के सिर टकरा गए। सिर टकराते ही दोनों एक-दूसरे को धकेलने का प्रयास करने लगे। लेकिन भैंसे की शक्ति के सामने कालू के पाँव उखड़ गए और कालू पीछे हटता चला गया। यहाँ तक कि उसका पिछला भाग रस्सी से जा लगा। कालू अब भी अपने पाँव जमाने की पूरी कोशिश कर रहा था। भैंसा कालू को ज़मीन चटाना चाहता था। रस्से चड़चड़ाने लगे तो दर्शकों ने उन्हें कोंच-कोंच कर पीछे हटाना शुरू कर दिया। इस चक्कर में कालू को थोड़ा सा अवसर मिल गया और वह बड़ी फुर्ती के साथ भैंसे के सामने से निकलकर दूसरी दिशा में दौड़ लगा दी।

भैंसा अपनी ही रो में रस्सों से टकराया। दर्शकों ने उसे खदेड़ा तो वह पलटकर सांड के पीछे भागा। अब हालत यह थी कि सांड आगे-आगे था और भैंसा पीछे-पीछे। एक-दो बार भैंसे का खाली वार रस्सों से टकराया और एक बार तो उसके सींग ही रस्सों में उलझ गए। भैंसे के सींगों को फँसा देखकर कालू ने पैंतरा बदला और भैंसें की पुश्त पर हमला कर दिया। उसने भैंसे को ज़मीन से उठाकर पटक दिया। दर्शकों ने झटपट भैंसे के सींगों को मुक्त किया। तब तक कालू ने उस पर कई जानदार हमले बोले और जब भैंसा सीधा हुआ तो वह फिर ज़मीन से धूल उड़ाता बड़े भयानक अंदाज़ में सांड से जा भिड़ा।

इस बार कालू की शामत आ गयी। भैंसे ने उसे सींगों पर उठा लिया था और इसी स्थिति में चकराता फिर रहा था। उसने कालू के शरीर में सींग पेवस्त कर दिए थे। फिर उसने कालू को जमीन पर पटका और उसे रौंदने के अंदाज़ में सींगों से ही ज़मीन पर रगड़ता चला गया। कालू ने उठने का प्रयास किया। वह बुरी तरह जख्मी हो गया था और उसका अंत क़रीब आ गया था। भैंसे ने उसे दबाए रखने की भरपूर चेष्टा की इसीलिए उसने पेवस्त सींगों को बाहर नहीं खींचा और कालू जैसे ही कलाबाजी खाकर सीधा हुआ तो भैंसे का एक सींग उसके सीने में ही फँसा रह गया। उसका एक सींग टूट गया था। पीड़ा के कारण भैंसा बिलबिलाकर अपने इकलौते सींग को लेकर पीछे हटा। खून-खच्चर हो गया था और अब कालू बड़े ही भयंकर क्रोध में खड़ा हो गया। उसने उछलकर एक जबरदस्त टक्कर भैंसे के दूसरे सींग पर मारी और यह प्रहार कालू का इतना जानदार था कि भैंसे का दूसरा सींग भी टूटकर अलग जा गिरा।

अब कालू ने अपना सिर तिरछा किया और भैंसे की एक आँख अपने सींग से फोड़ दी। भैंसे का सारा मुँह लहूलुहान हो गया। भैंसे ने अब अंधों की तरह लड़ना शुरू किया और कालू को एक-दो बार पटकने में सफल भी हुआ। परंतु भैंसे के पास अब कालू को जख्मी करने के हथियार नहीं रहे थे। फिर कालू को एक और अवसर मिला। उसने भैंसे की दूसरी आँख भी फोड़ दी। भैंसा अब डकराने लगा और आक्रमण की बजाय जान बचाने की कोशिश करने लगा। अब कालू फुर्ती से उसे घेर-घेरकर मार रहा था। उसके सींग किसी धारदार हथियार की तरह काम कर रहे थे। हालाँकि उसके सीने में अब भी एक सींग फँसा हुआ था। दर्शकों का जोश अब ठंडा हो गया था। भैंसे पर पड़ने वाली हर चोट पर उनकी आह निकलती। भैंसा अब पस्त होता जा रहा था। कालू उसे घेर-घेरकर चारों तरफ़ से मार रहा था। एक बार कालू ने उसकी गर्दन में सींग पेवस्त किए और फिर उसे दबाता चला गया। भैंसा अब चारों खाने चित्त पड़ा था।

कालू ने जिस समय सींग उसकी गर्दन से बाहर निकालें तो ढेर सारा खून बह गया और अब भैंसा उठने योग्य भी नहीं रह गया था। लेकिन कालू के हमले तब तक नहीं रुके जब तक कि भैंसा निर्जीव नहीं हो गया। अब कालू किसी शराबी की तरह झूम रहा था। बाड़ा खुलते ही सबसे पहले गोरखनाथ अंदर दाख़िल हुआ और उसने कालू को थपथपाया। फिर उसके सीने में पेवस्त सींग को बाहर खींच लिया और जल्दी से कालू के जख्मों पर कोई चीज़ मलनी शुरू कर दी। लोगों के चेहरों पर अब भय और आश्चर्य के मिले-जुले भाव थे। फिर गोरखनाथ ने ज़ोरदार आवाज़ में भाषण सा दिया और जंगलियों का बड़ा पुजारी तुरंत आगे बढ़ा। उसने सांड के मस्तिष्क पर एक टीका लगाया और उसके गले में देवी का एक निशान बाँध दिया।

उसके बाद पुजारी ने एक ऐलान किया और लोगों ने नारे लगाने शुरू कर दिए। उनके चेहरों पर ख़ुशी की चमक थी। बहुत से लोगों ने अब कालू पर फूलों की वर्षा की।
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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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मेला चलता रहा। हमारा हर तरफ़ सम्मान किया जाता और सबसे अधिक सम्मान तो अब कालू को मिल रहा था। कालू चार रोज़ तक तो उपचार में ही पड़ा रहा। वह बहुत घायल हो चुका था परंतु चार दिन बाद वह उठकर खड़ा हो गया। मेले में किस-किस तरह की बलियाँ चढ़ाई गयी इसका वर्णन फिजूल ही है क्योंकि गुफा के रास्ते पर तो खून का तालाब ही बन गया था जो निश्चय ही टखनों से ऊपर ही रहा होगा।

कबीलें वाले अपनी-अपनी भेंटें चढ़ाते। जानवरों के सिर कटते रहे, खून बहता रहा। बलि चढ़ाए गए जानवरों की तुरंत खालें निकाल ली जाती और उनका माल भूनकर खा लिया जाता। बहुत से लोगों ने अपना खून भी दान किया था। उन खौफनाक दृश्यों को तो मैं देख भी नहीं पाता था। परंतु गोरखनाथ ने मुझे बताया कि वहाँ दो इंसानों की भी बलि चढ़ाई जा चुकी है।

वार्षिक त्योहार का अंतिम दिन भी आ गया। गुफा के सामने दूर-दूर तक लोगों की कतारें थीं। सभी की आँखें खून में डूबी गुफा की ओर जमी थी। कबीलों के सरदारों की पंक्ति सबसे आगे थी और उनसे आगे पुजारीगण थे। जहाँ बड़ा पुजारी था, वहीं गोरखनाथ खड़ा था और उसके पीछे मैं खड़ा था। गुफा के कपाट खोलने का समय आ गया। कपाट के खुलते ही वहाँ जमा खून अंदर बह जाना था जिसका अर्थ था देवी ने भेंट स्वीकार कर ली है। और परंपरा के अनुसार उसी गुफा से पहाड़ी रानी को बाहर आना था जो देवी का प्रतिरूप मानी जाती थी। उसके दर्शन ही देवी के दर्शन थे। फिर बचे हुए खून से लोग अपना पाँव भिगोकर देवी का आशीर्वाद प्राप्त करते।

मेरा दिल तेज-तेज धड़क रहा था। क्या पहाड़ों की रानी ही मोहिनी है ? किंतु एक प्रश्न ऐसा था जिसका जवाब न मिलता था। मैंने सुना था जब से यह धरती बनी है, तब से लोग यहाँ बसे हैं। पहाड़ों की रानी भी तभी से बसी है। क्या कोई इंसान हज़ारों वर्ष तक जीवित रह सकता है और अगर वही मोहिनी थी तो फिर गोरखनाथ का कथन कितना सत्य था। या फिर उस साधु का जिसने मुझे जीवनदान दिया था। यह कि मोहिनी का शरीर मात्र वहाँ क़ैद है और उसकी आत्मा को श्राप प्राप्त था। उसकी रूह यहाँ नहीं आ सकती थी। न ही अपना शरीर धारण कर सकती थी। जबकि पहाड़ों की रानी सशरीर थी और सदियों से वहाँ थी। यह ऐसे सवाल थे जिसका जवाब आने वाले वक्त के अंधेरे में छिपा था और मैं उसी वक्त का इंतज़ार कर रहा था।

फिर वह भी समय आया जब एक विचित्र सा गायन पुजारियों ने शुरू किया। ढोल-ताशे बजने लगे। फिर उस गायन की आवाज़ चारों तरफ़ गुँजने लगी। इतनी तेज आवाज़ कि सारी पहाड़ियाँ गूँज उठी। मालूम पड़ता था जर्रा-जर्रा वही गायन गा रहा हो।आवाज़ें बुलंद होती गयीं और फिर अचानक ज़ोरदार गड़गड़ाहट गुफा में पैदा हुई। इस गड़गड़ाहट के साथ ही बड़े पुजारी ने देवी का जयघोष किया और गायन एकदम समाप्त हो गया। अब सिर्फ़ जयनाथ गूँज रहा था।

और फिर मैंने धड़कते दिल से गुफा के मुख पर एक स्त्री को बरामद होते देखा। उसके पाँव खून से रंगे थे बल्कि पाँव तो नज़र ही नहीं आ रहे थे। उसके हाथ में एक त्रिशूल था जिस पर खून के कतरे टपकते नज़र आ रहे थे। वह सिर से पाँव तक एक लबादे में छिपी थी। सिर्फ़ उसकी चमकती आँखें ही देखी जा सकती थी। उसके सिर पर एक जगमगाता सोने का ताज था। ताज की जगमगाहट से उसका सिर अलौकिक लग रहा था। लोगों के सिर उसके आगे झुकने लगे और एक गहरी खामोशी छा गयी। मालूम ही नहीं पड़ता था कि कुछ देर पहले वहाँ शोर का तूफ़ान हिलोरें ले रहा था। अब वहाँ इतना सन्नाटा था कि किसी की साँस भी न सुनाई देती थी।

अगली कतारें तो बिल्कुल दंडवत लम्बी हो गयी थी। पीछे के लोग एक-दूसरे पर गिर से गए थे। कोई चू-चपड़ नहीं कर रहा था। गोरखनाथ के साथ मैं भी झुक गया। पहाड़ों की रानी ने एक नज़र पूरी भीड़ पर डाली और फिर अपना त्रिशूल बुलंद किया। साथ ही उसके कंठ से एक खनकती हुई आवाज़ फिजा में गूँजने लगी। उसकी आवाज़ इतनी बुलंद थी कि शायद वहाँ हर व्यक्ति को सुनाई पड़ रही थी। जैसे हर तरफ़ लाउडस्पीकर लगे हों और वह माइक पर बोल रही हो।

मैं पहले ही रियासत की भाषा कम जानता था और यह भाषा उससे मिलती-जुलती थी। चंद शब्द ज़रूर मेरे पल्ले पड़ जाते। इसलिए मैं यहाँ यह बताने में असमर्थ हूँ कि पहाड़ी रानी ने क्या कहा और वे लोग क्या कहते थे। पहले की बातें तो मुझे गोरखनाथ से मालूम हो गयी थी। वह विशेष उल्लेखनीय नहीं है। इतना ही उल्लेखनीय है कि हमें पुजारियों की हैसियत प्राप्त हो गयी थी। उन्होंने कालू को देवी की सवारी मान लिया था। कालू उस वक्त वहाँ नहीं था।

पहाड़ों की रानी लगभग दस मिनट तक बोलती रही। फिर वह गुफा के क़रीब ही बनी पत्थरों की एक इमारत की तरफ़ बढ़ चली। इस इमारत में बड़ा पुजारी रह करता था। उसके पीछे-पीछे बड़ा पुजारी और कबीलों के सरदार भी चलते बने। हम वहीं खड़े रहे। लोग गुफा में फैले रक्त के तालाब में पाँव भिगो-भिगोकर लौटने लगे। यह क्रम घंटों का था और चलता रहा। पहाड़ों की रानी उसी इमारत में थी। फिर हमें वहाँ बुलाया गया।

पहाड़ों की रानी एक तख्त पर विराजमान थी। सरदार और पुजारी उसके समक्ष फर्श पर बैठे थे।

“ऐ देवी के भक्त गोरखनाथ!” रानी ने गोरखनाथ को संबोधित किया और यह भाषा ऐसी थी कि मैं भी समझ सकता था। “तेरा कर्तव्य पूरा हुआ। तूने देवी की चरणों की बहुत सेवा की और देवी के विशेष अतिथि को यहाँ तक पहुँचाया। बोल तुझे क्या चाहिए ?”

“कुछ नहीं महामाया। मैं देवी के दर्शन करके मुक्तिपथ चाहता हूँ। मेरा जीवनकाल भी अब अधिक शेष नहीं रहा। मुझे किसी माया-मोह की इच्छा नहीं है।” गोरखनाथ ने कहा।

“तो फिर तुम लोग तैयारी करो। तुम दोनों हमारे साथ ही चलोगे। मैदानी रियासत की रानी ने जो कष्ट तुम्हें पहुँचाया उसका साथ वह ज़रूर मानेंगे। मैंने सरदारों से कह दिया है कि वह युद्ध की तैयारियाँ प्रारंभ कर दें।”

फिर वह मेरी तरफ़ आकर्षित हुई- “और ऐ विशिष्ट अतिथि, तुम्हें जो कष्ट भोगने थे अब उसका अंत हो चुका। तुम कितने महान हो इसका ज्ञान अभी तुम्हें नहीं है। मुझे अधिक कुछ नहीं कहना। तुम भी तैयार हो जाओ। और तुम्हारा वह सांड नहीं रहेगा। तुमने उसे देवी की सवारी के लिए भेंट किया है। देवी अवश्य उस पर सवारी करेगी। वह बहुत प्रसन्न है।”

अंतिम शब्द पहाड़ों की रानी ने गोरखनाथ से कहे थे। उसके बाद पहाड़ों की रानी उठ खड़ी हुई।

पहाड़ों की रानी अब भी सिर से पाँव तक सशरीर छिपी थी। उसका कोई भी अंग नज़र नहीं आता था। पाँवों और हाथों पर भी पट्टियाँ सी बँधी थी। रानी की वापसी उसी गुफा से होनी थी।

थोड़ी देर बाद हम चल पड़े। गुफा का खून अब खुश्क हो गया था। एक पपड़ी सी उसकी सतह पन जमी थी जिस समय हम वहाँ प्रविष्ट हुए गुफा के पास से भीड़ छँट चुकी थी और वहाँ बड़े पुजारी के सिवाय कोई नहीं था।
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Re: Fantasy मोहिनी

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(^%$^-1rs((7)
chusu
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Re: Fantasy मोहिनी

Post by chusu »

mast............. keep posting
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Re: Fantasy मोहिनी

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रानी आगे-आगे चल रही थी। गुफा के भीतर की सुरंग में सीढ़ियाँ बनी थीं। इन सीढ़ियों को पार करते हुए हम खुले आसमान के नीचे निकले। फिर लगभग एक-दो फर्लांग चलने के उपरांत एक गुफा और पार हुई। दूसरी तरफ़ चंद लोग दिखायी दिए जिन्होंने हमारा स्वागत किया। वे सब के सब लबादे में थे। पहाड़ों की रानी और उनमें अंतर यह था कि रानी के हाथ में त्रिशूल और सिर पर ताज था जबकि उनके पास यह चीज़ें नहीं थीं। उनके हाथों और पैरों में भी पट्टियाँ बँधी थी।

रानी ने उन लोगों से कुछ कहा और स्वयं एक गुफा की ओर बढ़ चली। वहाँ ऐसी बहुत सी गुफाएँ थीं। वे लोग शायद उन्हीं गुफाओं में रहते थे क्योंकि इमारत तो कहीं नज़र नहीं आती थी। स्वयं स्त्री-पुरुष दोनों ही थे। गोरखनाथ ने मुझे बताया कि यह पहाड़ों की रानी के दूत हैं। उनमें से दो दूत हमें लेकर चले। रास्ता बिल्कुल खामोशी से तय हुआ। इस पहाड़ी में बड़ी गंभीर खामोशी थी। चक्करदार रास्ते में हम बढ़ते रहे। छोटी-मोटी पहाड़ियों को पार करते हुए हम बर्फ़पोश चोटियों की ओर बढ़ते रहे। यह यात्रा तीन दिन में संपूर्ण हुई। हमने रात गुफाओं में विश्राम करके बिताई थी और दिन भर बिना रुके यात्रा की थी। तीन दिन बाद हम बर्फ़ के बीच से गुजरते हुए अपनी मंज़िल पर पहुँच गए।

यह मंज़िल भी एक बड़ी गुफा ही थी और यहाँ भी कोई इमारत नहीं थी। अंदर तो गुफाओं और सुरंगों का तिलिस्म मिला और बाहर के दूतों ने हमें अंदर के दूतों के हवाले कर दिया।

अंदर सभी स्त्रियाँ थीं। वहाँ पुरुष और स्त्री की पहचान कद-काठी से ही हो जाती थी। आश्चर्य की बात तो यह थी कि अंदर के दूत भी लबादे पहने थे। परंतु उनके पास छोटे-छोटे त्रिशूल थे जो उन्होंने अपने लबादों में खोस रखे थे। सूरज का प्रकाश शायद ही अंदर झाँकता हो परंतु वह जगह प्रकाशमान थी और यह प्रकाश अलौकिक रूप से गुफा के द्वार से फूटता हुआ प्रतीत होता था। अंदर एक गुफा में हमें जानवरों की खालों के बिछौने मिले। हमें पीने के लिए शर्बत दिया गया और इस शर्बत को पीते ही हमें नींद आने लगी। यह गुफायें बर्फ़पोश पहाड़ियों के भीतर थीं। फिर यहाँ अत्यधिक गर्माहट थी। हम वहाँ आराम से पसर कर सो गए। जब हम जागे तो सारी थकान मिट चुकी थी। एक दूत ने हमें एक दूसरी गुफा में लाकर खड़ा किया। इस जगह चारों तरफ़ लाल पर्दे थे और उन पर्दों के पीछे शोले उठते हुए से महसूस हो रहे थे। वहाँ एक तख्त पर पहाड़ों की रानी बैठी थी। दूत ने हमें वहाँ छोड़ा और खुद वापसी की राह ली।

“क्या यही मोहिनी है ?” मेरे मन का कौतूहल जाग उठा।

“कुँवर राज ठाकुर! अब वह समय आ गया है।” अचानक पहाड़ों की रानी का खनकता स्वर सुनाई पड़ा। “परंतु इससे पहले कि मोहिनी देवी के दर्शन करो। मैं उन रहस्यों से पर्दा उठाती हूँ जो तुम्हारे इल्म में नहीं। तुम कौन हो कुँवर जानते हो ? परंतु नहीं, तुम किस तरह जान सकते हो। परंतु तुम्हें अवश्य याद होगा कि सर्वप्रथम मोहिनी देवी अपनी इच्छा से तुम्हारे सिर पर आई थी।”

“हाँ, मुझे याद है!”

“लेकिन तुम इन चीज़ों पर विश्वास नहीं करते थे। मोहिनी देवी, जिसे पाने के लिए बड़े से बड़ा तांत्रिक अपने प्राण संकट में डालने के लिए तैयार रहता है, वह तुम्हारे पास स्वतः आई थी। जानते हो क्यों ?”

मैं चुप रहा क्योंकि इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं था।

“तो सुनो! आज से हज़ारों साल पहले तुम एक फिराऊन वंश के राजकुमार थे। मिश्र के उस कदीम जमाने में फिराऊन के अत्याचारों का बोलाबाला था। वह स्वयं को ईश्वर मानते थे और मिश्र के लोग इन्हीं की पूजा करते थे। उसी जमाने में पहाड़ों में एक जाति आबाद थी जो बहुत ख़तरनाक लड़ाकू जाति थी। हालाँकि वे फिर उनकी सीमा में आबाद नहीं थे परंतु फिराऊन अपने राज्य का विस्तार करते हुए आ रहे थे और इस जाति से उन्हें कई बार शिकस्त मिल चुकी थी। दक्षिण की ओर साम्राज्य फैलाने में यह जाति दीवार बनकर खड़ी थी। ये लोग मोहिनी देवी की पूजा करते थे। फिराऊन को शैतान मानते थे। मोहिनी देवी को वे लोग छिपकली और स्त्री के शक्ल से मिलती-जुलती मानते थे।

छिपकली उनके लिए पवित्र आत्मा थी और उस जाति का शासन हमेशा किसी स्त्री के हाथों में रहता था जिसे मोहिनी का खिताब दिया जाता था। रानी को मोहिनी का अवतार माना जाता था। एक बार फिर उसने जुल्मों के कारण स्वयं मोहिनी देवी ने मनुष्य रूप में अवतार लिया था और यही वह रानी थी जिसके कारण मिश्री सेनाएँ आगे न बढ़ पाती थीं। फिर मोहिनी की आख़िरी जंग तुम्हारे साथ हुई। पहाड़ी जाति ने तो तुम्हारी सेना को मार गिराया परंतु तुम आख़िरी दम तक लड़ते रहे। फिर तुम्हें क़ैद कर लिया गया। देखो काल चक्र के पीछे क्या हुआ।”

रानी ने त्रिशूल उठाया और फिर उसका रुख़ एक लाल पर्दे की तरफ़ किया। त्रिशूल से एक अग्नि रेखा निकलकर पर्दे से टकराई। फिर वहाँ शोले ही शोले नज़र आने लगे। शोलों के बीच का स्थान धीरे-धीरे दृश्यों में बदलता जा रहा था। जंग हो रही थी और फिर मैं उछल पड़ा। मैंने ध्यानपूर्वक देखा। दृश्य अब बिल्कुल साफ हो गए थे।

मैं ही था। बिल्कुल मेरा ही चेहरा था परंतु वस्त्र कदीम मिश्री जमाने के थे। मैं क़ैदी के समान खड़ा था। हाथ-पाँव में जंजीरें थी। हाथ ऊपर को एक तख्त में फँसे थे और उसी तख्त के एक सुराख में मेरी गर्दन थी। एक प्रकार का जुआ मेरे कंधों पर पड़ा था।कुछ ही दूर पर एक बहुत ही खूबसूरत स्त्री सिंहासन पर बैठी थी। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा रही थी। वह मोहिनी ही थी। नन्हीं-मुन्नी जमील मोहिनी। इस समय संपूर्ण नारी के रूप में थी। मैंने उसे देखते ही पहचान लिया।

दरबार में ख़तरनाक काली शक्ल के जंगली थे। मोहिनी कुछ कह रही थी। होंठ मेरे भी हिल रहे थे।

“तुम मोहिनी से बहुत प्रभावित हुए और तुमने फिराऊन के जुल्मों को स्वीकार किया। तुम्हारी आँखें खुल चुकी थीं और विश्वास हो चला था कि फिराऊन ईश्वर नहीं है। वास्तविकता में यह भी थी कि तुम मोहिनी देवी के प्रेम में गिरफ़्तार हो गए थे।”

अगले दृश्य में मोहिनी और मैं तन्हा थे। मैं बंदी न था। हम बहुत क़रीब-क़रीब थे।

“तुमने शपथ उठाई थी कि फिराऊन का सर्वनाश करोगे और मिश्र की धरती पर मोहिनी का राज्य स्थापित होगा।”

दृश्य बदलते रहे और कहानी साफ़ होती रही। तमाम रहस्यों के पर्दे खुलने लगे। फिर मैं अपनी पत्नी के पास दिखायी दिया। मैं चीख पड़ा। यह वही औरत थी जो रियासत की महारानी थी। मुझे ज्ञात हुआ कि महारानी ने झूठ नहीं कहा था। मैं रामोन था। मिश्र के फिराऊन वंश का एक राजकुमार और मैंने बगावत कर दी। मेरे साथ एक फ़ौज़ थी। मोहिनी की फौजें भी मेरा साथ दे रही थीं। मैंने फिराऊन की मंदिर को जला डाला। उनके पुजारियों का कत्लेआम कर डाला। फिराऊन की समस्त सेनाएँ मेरे मुक़ाबले में थी। एक भू-भाग मेरे पास आ गया था। युद्ध और युद्ध। मिश्र के काहन मेरे शत्रु बन गए थे।

फिर मुझे मेरी पत्नी नज़र आई जो मुझे कुछ पिला रही थी। मेरी आँखें उस पेय को पीते ही फटने लगीं। मैं तड़प रहा था और वह ठहाके लगा रही थी। फिर मैंने देखा कि वह पागलों की तरह इधर से उधर दौड़ रही है और मैं दम तोड़ रहा हूँ।

“बस यही था तुम्हारा अंत।”

मेरा सिर मोहिनी की गोद में था और वह चारों तरफ़ क्रोध भरी दृष्टि से देख रही थी। उसकी आँखों में शोले दहक रहे थे। अचानक उसका शरीर रौद्र रूप धारण करने लगा। उसकी जीभ बाहर निकलने लगी थी जो किसी विशालकाय छिपकली की जीभ की तरह लपलपा रही थी।बिल्कुल वैसा ही रूप जैसा मैंने मोहिनी को उस वक्त देखा था जब मुझे योगानन्द और हरि आनन्द के जुल्मों का सामना करना पड़ रहा था। जिन्न मुझे मार रहे थे और मैंने मोहिनी को उसकी बुजदिली के लिए ललकारा था।

उसके बाद मैंने मोहिनी को इंसानी लहू पीते देखा। उसके हाथों में नरमुंड होते थे। हर तरफ़ हाहाकार मचा हुआ था। और यह था मोहिनी देवी के उस शरीर का अंत।
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