घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
हम लोग आज उस युग में रहते हैं, जहाँ चहुओर भागमभाग मची हुई है। बचपन से ही एक घुड़दौड़ की शिक्षा और प्रशिक्षण दी जाती है - जो भिन्न भिन्न लोगों के लिए भिन्न भिन्न होती है। मेरे एक अभिन्न मित्र के अनुसार आज हमको मात्र उपभोक्ता बनने की शिक्षा दी जा रही है। और ऐसा हो भी क्यों न? दरअसल हमने आज के आधुनिक परिवेश में भोग करने को ही विकास मान रखा है। पारिवारिक, नैतिक और सामाजिक मूल्य लगभग खतम हो चुके हैं। प्रत्येक व्यक्ति को केवल ‘उपभोक्ता’ बननें के लिये ही विवश व प्रोत्साहित किया जा रहा है। जो जितना बड़ा उपभोक्ता वो उतना ही अधिक विकसित – चाहे वह राष्ट्र हों, या फिर व्यक्ति! मैंने भी इसी युग में जनम लिया है और पिछले तीस बरसों से एक भयंकर घुड़दौड़ का हिस्सेदार भी रहा हूँ। अन्य लोगो से मेरी घुड़दौड़ शायद थोड़ी अलग है – क्योंकि बाकी लोग मेरी घुड़दौड़ को सम्मान से देखते हैं। और देखे भी क्यों न? समाज ने मेरी घुड़दौड़ को अन्य प्रकार की कई घुड़दौड़ों से ऊंचा दर्जा जो दिया हुआ है।
अब तक संभवतः आप लोगो ने मेरे बारे में कुछ बुनियादी बातों का अनुमान लगा ही लिया होगा! तो चलिए, मैं अब अपना परिचय भी दे देता हूँ। मैं हूँ रूद्र - तीस साल का तथाकथित सफल और संपन्न आदमी। इतना की एक औसत व्यक्ति मुझसे इर्ष्या करे। सफलता की इस सीढ़ी को लांघने के लिए मेरे माता-पिता ने बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत से कष्ट देखे और सहे थे - इसलिए उन्होंने बहुत प्रयास किया की मैं वैसे कष्ट न देख सकूँ। अतः उन्होंने अपना पेट काट-काट कर ही सही, लेकिन मेरी शिक्षा और लालन पालन में कोई कमी न आने दी। सदा यही सिखाया की 'पुत्र! लगे रहो। प्रयास छोड़ना मत! आज कर लो, आगे सिर्फ सुख भोगोगे!' मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ की मेरे माँ बाप की शिक्षा मिथ्या थी। प्रयास करना, मेहनत करना अच्छी बाते हैं - दरअसल यह सब मानवीय नैतिक गुण हैं। किन्तु मेरा मानना है की इनका 'जीवन के सुख' (वैसे, सुख की हमारी आज-कल की समझ तो वैसे भी गंदे नाले में स्वच्छ जल को व्यर्थ करने के ही तुल्य है) से कोई खास लेना देना नहीं है। और वह एक अलग बात है, जिसका इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है। मैं यहाँ पर कोई पाठ पढ़ने नहीं आया हूँ।
जीवन की मेरी घुड़दौड़ अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी, की मेरे माँ बाप मुझे जीवन की जिन मुसीबतों से बचाना चाहते थे, वो सारी मुसीबतें मेरे सर पर मानो हिमालय के समस्त बोझ के सामान एक बार में ही टूट पड़ी। जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, तभी मेरे माँ बाप, दोनों का ही एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया, और मैं इस निर्मम संसार में नितान्त अकेला रह गया। मेरे दूरदर्शी जनक ने अपना सारा कुछ (वैसे तो कुछ खास नहीं था उनके पास) मेरे ही नाम लिख दिया था, जिससे मुझे कुछ अवलंब तो अवश्य मिला। ऐसी मुसीबत के समय मेरे चाचा-चाची मुझे सहारा देने आये - ऐसा मुझे लगा – लेकिन वह केवल मेरा मिथ्याबोध था। वस्तुतः वो दोनों आये मात्र इसलिए थे की उनको मेरे माँ बाप की संपत्ति का कुछ हिस्सा मिल जाए, और उनकी चाकरी के लिए एक नौकर (मैं) भी। किन्तु यह हो न सका - माँ बाप ने मेहनत करने के साथ ही अन्याय न सहने की भी शिक्षा दी थी। लेकिन मेरी अन्याय न सहने की वृत्ति थोड़ी हिंसक थी। चाचा-चाची से मुक्ति का वृतांत मार-पीट और गाली-गलौज की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है, और इस कहानी का हिस्सा भी नहीं है।
बस यहाँ पर यह बताना पर्याप्त होगा की उन दोनों कूकुरों से मुझे अंततः मुक्ति मिल ही गयी। बाप की सारी कमाई और उनका बनाया घर सब बिक गया। मेरे मात-पिता से मुझको जोड़ने वाली अंतिम भौतिक कड़ी भी टूट गयी। घर छोड़ा, आवासीय विद्यालयों में पढ़ा, और अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए (जो मेरे माता पिता की न सिर्फ अंतिम इच्छा थी, बल्कि तपस्या भी) विभिन्न प्रकार की क्षात्रवृत्ति पाने के लिए मुझे अपने घोड़े को सबसे आगे रखने के लिए मार-मार कर लहू-लुहान कर देना पड़ा। खैर, विपत्ति भरे वो चार साल, जिसके पर्यंत मैंने अभियांत्रिकी सीखी, जैसे तैसे बीत गए - अब मेरे पास एक आदरणीय डिग्री थी, और नौकरी भी। किन्तु यह सब देखने के लिए मेरे माता पिता नहीं थे और न ही उनकी इतनी मेहनत से बनायी गयी निशानी।
घोर अकेलेपन में किसी भी प्रकार की सफलता कितनी बेमानी हो जाती है! लेकिन मैंने इस सफलता को अपने माता-पिता की आशीर्वाद का प्रसाद माना और अगले दो साल तक एक और साधना की - मैंने भी पेट काटा, पैसे बचाए और घोर तपस्या (पढाई) करी, जिससे मुझे देश के एक अति आदरणीय प्रबंधन संस्थान में दाखिला मिल जाए। ऐसा हुआ भी और आज मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ। कहने सुनने में यह कहानी बहुत सुहानी लगती है, लेकिन सच मानिए, तीस साल तक बिना रुके हुए इस घुड़दौड़ में दौड़ते-दौड़ते मेरी कमर टूट गयी है। भावनात्मक पीड़ा मेरी अस्थि-मज्जा के क्रोड़ में समा सी गयी है। ह्रदय में एक काँटा धंसा हुआ सा लगता है। और आज भी मैं एकदम अकेला हूँ। कुछ मित्र बने – लेकिन उनसे कोई अंतरंगता नहीं है – सदा यही भय समाया रहता है की न जाने कब कौन मेरी जड़ें काटने लगे! और न ही कोई जीवनसाथी बनने के इर्द-गिर्द भी है। ऐसा नहीं है की मेरे जीवन में लडकियां नहीं आईं - बहुत सी आईं और बहुत सी गईं। किन्तु जैसी बेईमानी और अमानवता मैंने अपने जीवन में देखी है, मेरे जीवन में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वैसी ही बेइमान और अमानवीय मिली। आरम्भ में सभी मीठी-मीठी बाते करती, लुभाती, दुलारती आती हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनके चरित्र की प्याज़ जैसी परतें हटती है, और उनकी सच्चाई की कर्कशता देख कर आँख से आंसू आने लगते हैं।
सच मानिए, मेरा मानव जाति से विश्वास उठता जा रहा है, और मैं खुद अकेलेपन के गर्त में समाता जा रहा हूँ। तो क्या अब आप मेरी मनःस्तिथि समझ सकते हैं? कितना अकेलापन और कितनी ही बेमानी जिन्दगी! प्रतिदिन (अवकाश वाले दिन भी) सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक कार्य में स्वयं को स्वाहा करता हूँ, जिससे की इस अकेलेपन का बोझ कम ढ़ोना पड़े। पर फिर भी यह बोझ बहुत भारी ही रहता है। कार्यालय में दो-तीन सहकर्मी और बॉस अच्छे व्यवहार वाले मिले। वो मेरी कहानी जानते थे, इसलिए मुझे अक्सर ही छुट्टी पर जाने को कहते थे। लेकिन वो कहते हैं न, की मुफ्त की सलाह का क्या मोल! मैं अक्सर ही उनकी बातें अनसुनी कर देता।
लेकिन, पिछले दिनों मेरा हवा-पानी बदलने का बहुत मन हो रहा था - वैसे भी अपने जीवन में मैं कभी भी बाहर (घूमने-फिरने) नहीं गया। मेरे मित्र मुझको “अचल संपत्ति” कहकर बुलाने लगे थे। अपनी इस जड़ता पर मुझको विजय प्राप्त करनी ही थी। इन्टरनेट पर करीब दो माह तक शोध करने के बाद, मैंने मन बनाया की उत्तराँचल जाऊंगा! अपने बॉस से एक महीने की छुट्टी ली - आज तक मैंने कभी भी छुट्टी नहीं ली थी। लेता भी किसके लिए - न कोई सगा न कोई सम्बन्धी। मेरा भला-मानुस बॉस ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे उसको अभी अभी पदोन्नति मिली हो। उसने तुरंत ही मुझको छुट्टी दे दी और यह भी कहा की एक महीने से पहले दिखाई मत देना। छुट्टी लेकर, ऑफिस से निकलते ही सबसे पहले मैंने आवश्यकता के सब सामान जुटाए। वह अगस्त मास था – मतलब वर्षा ऋतु। अतः समस्त उचित वस्तुएं जुटानी आवश्यक थीं। सामान पैक कर मैं पहला उपलब्ध वायुयान लेकर उत्तराँचल की राजधानी देहरादून पहुच गया। उत्तराँचल को लोग देव-भूमि भी कहते हैं - और वायुयान में बैठे हुए नीचे के दृश्य देख कर समझ में आ गया की लोग ऐसा क्यों कहते है। मैंने अपनी यात्रा की कोई योजना नहीं बनायीं थी - मेरा मन था की एक गाडी किराए पर लेकर खुद ही चलाते हुए बस इस सुन्दर जगह में खो जाऊं। समय की कोई कमी नहीं थी, अतः मुझे घूमने और देखने की कोई जल्दी भी नहीं थी। हाँ, बस मैं भीड़ भाड़ वाली जगहों (जैसे की हरिद्वार, ऋषिकेश इत्यादि) से दूर ही रहना चाहता था। मैंने देहरादून में ही एक छोटी कार किराए पर ली और उत्तराँचल का नक्शा, 'जी पी एस' और अन्य आवश्यक सामान खरीद कर कार में डाल लिया और आगे यात्रा के लिए चल पड़ा।
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मित्रो मेरे द्वारा पोस्ट की गई कुछ और भी कहानियाँ हैं
( नेहा और उसका शैतान दिमाग..... तारक मेहता का नंगा चश्मा Running) भाई-बहन वाली कहानियाँ Running) ( बरसन लगी बदरिया_Barasn Lagi Badriya complete ) ( मेरी तीन मस्त पटाखा बहनें Complete) ( बॉलीवुड की मस्त सेक्सी कहानियाँ Running) ( आंटी और माँ के साथ मस्ती complete) ( शर्मीली सादिया और उसका बेटा complete) ( हीरोइन बनने की कीमत complete) ( चाहत हवस की complete) ( मेरा रंगीला जेठ और भाई complete) ( जीजा के कहने पर बहन को माँ बनाया complete) ( घुड़दौड़ ( कायाकल्प ) complete) ( पहली नज़र की प्यास complete) (हर ख्वाहिश पूरी की भाभी ने complete ( चुदाई का घमासान complete) दीदी मुझे प्यार करो न complete
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Re: घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य छोटे स्थानिक मंदिर भी देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। प्रत्येक स्थान मुझको अपने ही तरीके से अचंभित करता। अब जैसे बद्रीनाथ देवस्थान की ही बात कर लें – मंदिर से ठीक पूर्व भीषण वेग से बहती अलकनंदा नदी यह प्रमाणित करती है की प्रकृति की शक्ति के आगे हम सब कितने बौने हैं। इसी ठंडी नदी के बगल ही एक तप्त-कुंड है, जहाँ भूगर्भ से गरम पानी निकलता है। हम वैज्ञानिक तर्क-वितर्क करने वाले आसानी से कह सकते हैं की भूगर्भीय प्रक्रियाओं के चलते गरम पानी का सोता बन गया। किन्तु, एक आम व्यक्ति के लिए यह दैवीय चमत्कार से कोई कम नहीं है। मंदिर के प्रसाद में मिलने वाली वन-तुलसी की सुगंध, थके हुए शरीर से साड़ी थकान खींच निकालती है। और सिर्फ यही नहीं। प्रत्येक सुबह, सूरज की पहली किरणें नीलकंठ पर्वत की छोटी पर जब पड़ती हैं, तो उस पर जमा हुआ हिम (बरफ) ऐसे जगमगाता है, जैसे की सोना!
ऐसे चमत्कार वहां पग-पग पर होते रहते हैं। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, जल से भरी नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल में, तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे मज़ा आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले शरीर से प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।
सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगो से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुकुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियाँ देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगो को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - 'भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?' छोटे-छोटे बच्चे, अपने सेब जैसे लाल-लाल गाल और बहती नाक के साथ इतने प्यारे लगते, की जैसे गुड्डे-गुडियें हों! इन सब बातो ने मेरा मन ऐसा मोह लिया की मन में एक तीव्र इक्छा जाग गयी की अब यही पर बस जाऊं।
खैर, मैं इस समय 'फूलों की घाटी' से वापस आ रहा था। वहां बिताये चार दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। कोई साधे तीन किलोमीटर ऊपर स्थित इस घाटी में अत्यंत स्थानीय, केवल उच्च पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले फूल मिलते हैं। फूलों से भरी, सुगंध से लदी इस घाटी को देखकर ऐसा ही लगता है की उस जगह मैं वाकई देवों और अप्सराओं का स्थान होगा। बचपन में आप सब ने दादी की कहानियों में सुना होगा की परियां जमीन पर आकर नाचती हैं। मेरे ख़याल से अगर धरती पर कोई ऐसा स्थान है, तो वह ‘फूलों की घाटी’ ही है। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो गया की इस जगह से "मानव सभ्यता" से दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न कोई मुझे परेशान करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ो के ऊपर चढ़ाई, और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गयी। इतनी की मैं वहां से वापस आने के बाद करीब आधा दिन तक मैं अपनी गाडी में ही सोता रहा।
वापसी में मैं एक घने बसे कस्बे में (जिसका नाम मैं आपको नहीं बताऊँगा) आ गया। मैंने गाडी रोक दी की, थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरे नहाने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्डपाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले ३ दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तरो-ताज़ा होने का था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए - वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर-फुसुर करती। वैसे, अपने आप अपनी बढाई क्या करूँ, लेकिन नियमित आहार और व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ है और चर्बी रत्ती भर भी नहीं है। व्यायाम करना मेरे लिए सबसे बड़ा भोग-विलास है, यद्यपि कभी कभार द्राक्षासव का सेवन भी करता हूँ, लेकिन सिर्फ कभी कभार। इसी के कारण मुझे पिछले कई वर्षों से प्रतिदिन बारह घंटे कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दूसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों - ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।
ऐसे चमत्कार वहां पग-पग पर होते रहते हैं। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, जल से भरी नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल में, तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे मज़ा आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले शरीर से प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।
सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगो से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुकुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियाँ देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगो को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - 'भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?' छोटे-छोटे बच्चे, अपने सेब जैसे लाल-लाल गाल और बहती नाक के साथ इतने प्यारे लगते, की जैसे गुड्डे-गुडियें हों! इन सब बातो ने मेरा मन ऐसा मोह लिया की मन में एक तीव्र इक्छा जाग गयी की अब यही पर बस जाऊं।
खैर, मैं इस समय 'फूलों की घाटी' से वापस आ रहा था। वहां बिताये चार दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। कोई साधे तीन किलोमीटर ऊपर स्थित इस घाटी में अत्यंत स्थानीय, केवल उच्च पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले फूल मिलते हैं। फूलों से भरी, सुगंध से लदी इस घाटी को देखकर ऐसा ही लगता है की उस जगह मैं वाकई देवों और अप्सराओं का स्थान होगा। बचपन में आप सब ने दादी की कहानियों में सुना होगा की परियां जमीन पर आकर नाचती हैं। मेरे ख़याल से अगर धरती पर कोई ऐसा स्थान है, तो वह ‘फूलों की घाटी’ ही है। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो गया की इस जगह से "मानव सभ्यता" से दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न कोई मुझे परेशान करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ो के ऊपर चढ़ाई, और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गयी। इतनी की मैं वहां से वापस आने के बाद करीब आधा दिन तक मैं अपनी गाडी में ही सोता रहा।
वापसी में मैं एक घने बसे कस्बे में (जिसका नाम मैं आपको नहीं बताऊँगा) आ गया। मैंने गाडी रोक दी की, थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरे नहाने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्डपाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले ३ दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तरो-ताज़ा होने का था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए - वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर-फुसुर करती। वैसे, अपने आप अपनी बढाई क्या करूँ, लेकिन नियमित आहार और व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ है और चर्बी रत्ती भर भी नहीं है। व्यायाम करना मेरे लिए सबसे बड़ा भोग-विलास है, यद्यपि कभी कभार द्राक्षासव का सेवन भी करता हूँ, लेकिन सिर्फ कभी कभार। इसी के कारण मुझे पिछले कई वर्षों से प्रतिदिन बारह घंटे कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दूसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों - ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।
मित्रो मेरे द्वारा पोस्ट की गई कुछ और भी कहानियाँ हैं
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Re: घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
खैर, नहा-धोकर, कपडे पहन कर मैंने खाना खाया और अपनी कार की ओर जाने को हुआ ही था की मैंने स्कूल यूनिफार्म पहने लड़कियों का समूह जाते हुए देखा। मुझे लगा की शायद किसी स्कूल में छुट्टी हुई होगी, क्योंकि उस समूह में हर कक्षा की लड़कियां थी। मैं यूँ ही अपनी कार के पास खड़े-खड़े उन सबको जाते हुए देख रहा था की मेरी नज़र अचानक ही उनमे से एक लड़की पर पड़ी। उसको देखते ही मुझे ऐसे लगा की जैसे धूप से तपी हुई ज़मीन को बरसात की पहली बूंदो के छूने से लगता होगा।
वह लड़की आसमानी रंग का कुरता, सफ़ेद रंग की शलवार, और सफ़ेद रंग का ही पट्टे वाला दुपट्टा (यही स्कूल यूनिफार्म थी) पहने हुए थी। उसने अपने लम्बे बालो को एक चोटी में बाँधा हुआ था। अब मैंने उसको गौर से देखा - उसका रंग साफ़ और गोरा था, चेहरे की बनावट में पहाड़ी विशेषता थी, आँखें एकदम शुद्ध, मूँगिया रंग के भरे हुए होंठ और अन्दर सफ़ेद दांत, एक बेहद प्यारी सी छोटी सी नाक और यौवन की लालिमा लिए हुए गाल! उसकी उम्र बमुश्किल अट्ठारह की रही होगी, इससे मैंने अंदाजा लगाया की वह बारहवीं में पढ़ती होगी।
'कितनी सुन्दर! कैसा भोलापन! कैसी सरल चितवन! कितनी प्यारी!'
"रश्मि... रुक जा दो मिनट के लिए..." उसकी किसी सहेली ने पीछे से उसको आवाज़ लगाई। वह लड़की मुस्कुराते हुए पीछे मुड़ी और थोड़ी देर तक रुक कर अपनी सहेली का इंतज़ार करने लगी।
'रश्मि..! हम्म.. यह नाम एकदम परफेक्ट है! सचमुच, एकदम सांझ जैसी सुन्दरता! मन को आराम देती हुई, पल-पल नए-नए रंग भरती हुई .. क्या बात है!' मैंने मन ही मन सोचा।
मैंने जल्दी से अपना कैमरा निकाला और दूरदर्शी लेन्स लगा कर उसकी तस्वीरे तब तक निकालता रहा जब तक की वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। उसके जाते ही मुझे होश आया! होश आया, या फिर गया?
'क्या लव एट फर्स्ट साईट ऐसे ही होता है?' ‘लव एट फर्स्ट साईट’ – यह वाक्य अगर किसी को कहो, तो वह यही कहेगा की दरअसल ऐसा कुछ नहीं होता। ऐसी भावना लालसा के वेश में लिपटी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। वे इसको प्रेम की एक झूठी भावना कहकर उपहास करने लगेंगे।
लेकिन कैसा हो यदि ऐसा कुछ वाकई होता हो? मुझे एक नशा मिला हुआ बुखार सा चढ़ गया। दिमाग में इसी लड़की का चेहरा घूमता जाता। उसकी सुन्दरता और उसके भोलेपन ने मुझे मोह लिया था - या यह कहिये की मुझे प्रेम में पागल कर दिया था। मेरे मन में आया की अपने होटल वाले को उसकी तस्वीर दिखा कर उसके बारे में पूछूँ, लेकिन यह सोच के रुक गया की कहीं लोग बुरा न मान जाएँ की यह बाहर का आदमी उनकी लड़कियों/बेटियों के बारे में क्यों पूछ रहा है। वैसे भी दूर दराज के लोग अपनी मान्यताओ और रीतियों को लेकर बहुत ही जिद्दी होते है, और मैं इस समय कोई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था।
'हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!' मेरे मन की उधेड़बुन जारी थी।
उसी के बारे में सोचते-सोचते देर शाम हो गयी, तो मैंने निश्चय किया की आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान मेरे मन और मस्तिष्क में कम हुआ ही नहीं! रात में अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरा सारा ध्यान सिर्फ रश्मि पर ही था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था - लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था की, यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है। मुझको ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की - रश्मि।
नींद नहीं आ रही थी – बस रश्मि का ही ख़याल आता जा रहा था। तभी ध्यान आया की वो तो मेरे कैमरे में है! जल्दी से मैं अपने कैमरे में उतारी गयी उसकी तस्वीरों को ध्यान से देखने लगा - लम्बे बाल, और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया – छोटे-छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ - बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी... और अब मेरे सामने थी।
यह सब देखते और सोचते हुए स्वाभाविक तौर पर मेरे शरीर का रक्त मेरे लिंग में तेजी से भरने लगा, और कुछ ही क्षणों में वह स्तंभित हो गया। मेरा हाथ मेरे लिंग को मुक्त करने में व्यस्त हो गया .... मेरे मष्तिष्क में उसकी सुन्दर मुद्रा की बार-बार पुनरावृत्ति होने लगी - उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, उसके युवा स्तन... जैसे-जैसे मेरा मष्तिष्क रश्मि के चित्र को निर्वस्त्र करता जा रहा था, वैसे-वैसे मेरे हाथ की गति तीव्र होती जा रही थी.... साथ ही साथ मेरे लिंग में अंदरूनी दबाव बढ़ता जा रहा था - एक नए प्रकार की हरारत पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। मेरी कल्पना मुझे आनंद के सागर में डुबोती जा रही थी। अंततः, मैं कामोन्माद के चरम पर पहुच गया - मेरे लिंग से वीर्य एक विस्फोटक लावा के समान बह निकला। हस्त-मैथुन के इन आखिरी क्षणों में मेरी ईश्वर से बस यही प्रार्थना थी, की यह कल्पना मात्र कोरी-कल्पना बन कर न रह जाए। रात नींद कब आई, याद नहीं है।
वह लड़की आसमानी रंग का कुरता, सफ़ेद रंग की शलवार, और सफ़ेद रंग का ही पट्टे वाला दुपट्टा (यही स्कूल यूनिफार्म थी) पहने हुए थी। उसने अपने लम्बे बालो को एक चोटी में बाँधा हुआ था। अब मैंने उसको गौर से देखा - उसका रंग साफ़ और गोरा था, चेहरे की बनावट में पहाड़ी विशेषता थी, आँखें एकदम शुद्ध, मूँगिया रंग के भरे हुए होंठ और अन्दर सफ़ेद दांत, एक बेहद प्यारी सी छोटी सी नाक और यौवन की लालिमा लिए हुए गाल! उसकी उम्र बमुश्किल अट्ठारह की रही होगी, इससे मैंने अंदाजा लगाया की वह बारहवीं में पढ़ती होगी।
'कितनी सुन्दर! कैसा भोलापन! कैसी सरल चितवन! कितनी प्यारी!'
"रश्मि... रुक जा दो मिनट के लिए..." उसकी किसी सहेली ने पीछे से उसको आवाज़ लगाई। वह लड़की मुस्कुराते हुए पीछे मुड़ी और थोड़ी देर तक रुक कर अपनी सहेली का इंतज़ार करने लगी।
'रश्मि..! हम्म.. यह नाम एकदम परफेक्ट है! सचमुच, एकदम सांझ जैसी सुन्दरता! मन को आराम देती हुई, पल-पल नए-नए रंग भरती हुई .. क्या बात है!' मैंने मन ही मन सोचा।
मैंने जल्दी से अपना कैमरा निकाला और दूरदर्शी लेन्स लगा कर उसकी तस्वीरे तब तक निकालता रहा जब तक की वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। उसके जाते ही मुझे होश आया! होश आया, या फिर गया?
'क्या लव एट फर्स्ट साईट ऐसे ही होता है?' ‘लव एट फर्स्ट साईट’ – यह वाक्य अगर किसी को कहो, तो वह यही कहेगा की दरअसल ऐसा कुछ नहीं होता। ऐसी भावना लालसा के वेश में लिपटी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। वे इसको प्रेम की एक झूठी भावना कहकर उपहास करने लगेंगे।
लेकिन कैसा हो यदि ऐसा कुछ वाकई होता हो? मुझे एक नशा मिला हुआ बुखार सा चढ़ गया। दिमाग में इसी लड़की का चेहरा घूमता जाता। उसकी सुन्दरता और उसके भोलेपन ने मुझे मोह लिया था - या यह कहिये की मुझे प्रेम में पागल कर दिया था। मेरे मन में आया की अपने होटल वाले को उसकी तस्वीर दिखा कर उसके बारे में पूछूँ, लेकिन यह सोच के रुक गया की कहीं लोग बुरा न मान जाएँ की यह बाहर का आदमी उनकी लड़कियों/बेटियों के बारे में क्यों पूछ रहा है। वैसे भी दूर दराज के लोग अपनी मान्यताओ और रीतियों को लेकर बहुत ही जिद्दी होते है, और मैं इस समय कोई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था।
'हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!' मेरे मन की उधेड़बुन जारी थी।
उसी के बारे में सोचते-सोचते देर शाम हो गयी, तो मैंने निश्चय किया की आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान मेरे मन और मस्तिष्क में कम हुआ ही नहीं! रात में अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरा सारा ध्यान सिर्फ रश्मि पर ही था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था - लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था की, यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है। मुझको ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की - रश्मि।
नींद नहीं आ रही थी – बस रश्मि का ही ख़याल आता जा रहा था। तभी ध्यान आया की वो तो मेरे कैमरे में है! जल्दी से मैं अपने कैमरे में उतारी गयी उसकी तस्वीरों को ध्यान से देखने लगा - लम्बे बाल, और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया – छोटे-छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ - बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी... और अब मेरे सामने थी।
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मित्रो मेरे द्वारा पोस्ट की गई कुछ और भी कहानियाँ हैं
( नेहा और उसका शैतान दिमाग..... तारक मेहता का नंगा चश्मा Running) भाई-बहन वाली कहानियाँ Running) ( बरसन लगी बदरिया_Barasn Lagi Badriya complete ) ( मेरी तीन मस्त पटाखा बहनें Complete) ( बॉलीवुड की मस्त सेक्सी कहानियाँ Running) ( आंटी और माँ के साथ मस्ती complete) ( शर्मीली सादिया और उसका बेटा complete) ( हीरोइन बनने की कीमत complete) ( चाहत हवस की complete) ( मेरा रंगीला जेठ और भाई complete) ( जीजा के कहने पर बहन को माँ बनाया complete) ( घुड़दौड़ ( कायाकल्प ) complete) ( पहली नज़र की प्यास complete) (हर ख्वाहिश पूरी की भाभी ने complete ( चुदाई का घमासान complete) दीदी मुझे प्यार करो न complete
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- rajababu
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Re: घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अगले दिन की सुबह इतनी मनोरम थी की आपको क्या बताऊँ। ठंडी ठंडी हवा, और उस हवा में पानी की अति-सूछ्म बूंदे (जिसको मेरी तरफ "झींसी पड़ना" भी कहते हैं) मिल कर बरस रही थी। वही दूर कहीं से - शायद किसी मंदिर से - हरीओम शरण के गाये हुए भजनों का रिकॉर्ड बज रहा था। मैं बाहर निकल आया, एक फ़ोल्डिंग कुर्सी पर बैठा और चाय पीते हुए ऐसे आनंददायक माहौल का रसास्वादन करने लगा। मेरे मन में रश्मि को पुनः देखने की इच्छा प्रबल होने लगी। अनायास ही मुझे ध्यान आया की उस लड़की के स्कूल का समय हो गया होगा। मैंने झटपट अपने कपडे बदले और उस स्थान पर पहुच गया जहाँ से मुझे स्कूल जाते हुए उस लड़की के दर्शन फिर से हो सकेंगे।
मैंने मानो घंटो तक इंतज़ार किया ... अंततः वह समय भी आया जब यूनिफार्म पहने लड़कियां आने लगी। कोई पांच मिनट बाद मुझे अपनी परी के दर्शन हो ही गए। वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी फूल के जैसे लग रही थी! उसके रूप का सबसे आकर्षक भाग उसका भोलापन था। उसके चेहरे में वह आकर्षण था की मेरी दृष्टि उसके शरीर के किसी और हिस्से पर गयी ही नहीं। कोई और होती तो अब तक उसकी पूरी नाप तौल बता चुका होता। लेकिन यह लड़की अलग है! मेरा इसके लिए मोह सिर्फ मोह नहीं है - संभवतः प्रेम है। आज मुझे अपने जीवन में पहली बार एक किशोर वाली भावनाएँ आ रही थीं। जब तक मुझे रश्मि दिखी, तब तक उसको मैंने मन भर के देखा। दिल धाड़ धाड़ करके धड़कता रहा। उसके जाने के बाद मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा।
मैं यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था, की रश्मि के लिए मेरे मन में जो भी कुछ था वह लिप्सा अथवा विमोह नहीं था, अपितु शुद्ध प्रेम था। उसको देखते ही ठंडी बयार वाला एहसास, मन में शान्ति और जीवन में ठहर कर घर बसाने वाली भावना लिप्सा तो नहीं हो सकती! ऐसे ही घंटो तक तर्क वितर्क करते रहने के बाद, अंततः मैंने ठान लिया की मैं इससे या इसके घरवालों से बात अवश्य करूंगा। दोपहर बाद जब उसके स्कूल की छुट्टी हुई तो मैंने उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता करने की ठानी। आज भी मेरे साथ कल के ही जैसा हुआ। उसको तब तक देखता रहा जब तक आगे की सड़क से वह मुड़ कर ओझल न हो गयी और फिर मैंने उसका सावधानीपूर्वक पीछा करना शुरू कर दिया। मुख्य सड़क से कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक विस्तृत क्षेत्र आया, जिसमे काफी दूर तक फैला हुआ खेत था और उसमे ही बीच में एक छोटा सा घर बना हुआ था। वह लड़की उसी घर के अन्दर चली गयी।
'तो यह है इसका घर!'
मैं करीब एक घंटे तक वहीँ निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपने बुद्धि और विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था - शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। कहीं पीटना पड़ गया तो? खैर, मेरी जिज्ञासा इतनी बलवती थी, की मैंने हर जोखिम को नज़रंदाज़ करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।
"साहब! यह तो अपने भंवर सिंह की बेटी है।" उसने तस्वीर को देखते ही कहा। फिर थोडा रुक कर, "साहब! माज़रा क्या है? ऐसे राह चलते लड़कियों की तस्वीरें निकालना कोई अच्छी बात नहीं।" उसका स्वर मित्रतापूर्ण नहीं था।
"माज़रा? मुझे यह लड़की पसंद आ गयी है! इससे मैं शादी करना चाहता हूँ।" मैंने उसके बदले हुए स्वर को अनसुना किया।
"क्या! सचमुच?" उसका स्वर फिर से बदल गया – इस बार वह अचरज से बोला।
"हाँ! क्या भंवर सिंह जी इसकी शादी मुझसे करना पसंद करेंगे?"
"साहब, आप सच में इससे शादी करना चाहते है? कोई मजाक तो नहीं है?"
"यार, मैं मजाक क्यों करूंगा ऐसी बातो में? अब तक कुंवारा हूँ – अच्छी खासी नौकरी है। बस अब एक साथी की ज़रुरत है। तो मैं इस लड़की से शादी क्यों नहीं कर सकता? क्या गलत है?"
"मेरा वो मतलब नहीं था! साहब, ये बहुत भले लोग हैं - सीधे सादे। भंवर सिंह खेती करते हैं - कुल मिला कर चार जने हैं: भंवर सिंह खुद, उनकी पत्नी और दो बेटियां। इस लड़की का नाम रश्मि है। आप बस एक बात ध्यान में रखें, की ये लोग बहुत सीधे और भले लोग हैं। इनको दुःख न देना। आपके मुकाबले बहुत गरीब हैं, लेकिन गैरतमंद हैं। ऐसे लोगो की हाय नहीं लेना। अगर इनको धोखा दिया तो बहुत पछताओगे।"
"नहीं दोस्त! मेरी खुद की जिंदगी दुःख भरी रही है, और मुझे मालूम है की दूसरों को दुःख नही पहुचना चाहिए। और शादी ब्याह की बातें कोई मजाक नहीं होती। मुझे यह लड़की वाकई बहुत पसंद है।"
"अच्छी बात है। आप कहें तो मैं आपकी बात उनसे करवा दूं? ये तो वैसे भी अब शादी के लायक हो चली है।"
"नहीं! मैं अपनी बात खुद करना जानता हूँ। वैसे ज़रुरत पड़ी, तो आपसे ज़रूर कहूँगा।"
रात का खाना खाकर मैंने बहुत सोचा की क्या मैं वाकई इस लड़की, रश्मि से प्रेम करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ! कहीं यह विमोह मात्र ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं की मेरी बढती उम्र के कारण मुझे किसी प्रकार का मानसिक विकार हो गया है और मैं पीडोफाइल (ऐसे लोग जो बच्चो की तरफ कामुक रुझान रखते हैं) तो नहीं बन गया हूँ? काफी समय सोच विचार करने के बाद मुझे यह सब आशंकाएं बे-सरपैर की लगीं। मैंने एक बार फिर अपने मन से पूछा, की क्या मुझे रश्मि से शादी करनी चाहिए, तो मुझे मेरे मन से सिर्फ एक ही जवाब मिला, "हाँ"!
सवेरे उठने पर मन के सभी मकड़-जाल खुद-ब-खुद ही नष्ट हो गए। मैंने निश्चय कर लिया की मैं भंवर सिंह से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था - तो आज रश्मि का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने, नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहां तक पहुचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। खैर, रश्मि के घर पहुच कर मैंने तीन-चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया।
दरवाज़ा रश्मि ने ही खोला।
'हे भगवान्!' मेरा दिल धक् से हो गया। रश्मि पौ फटने से समय सूरज जैसी लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था - उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी।
'कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।'
"जी?" मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गयी हो।
"अ..अ आपके पिताजी हैं?" मैंने जैसे-तैसे अपने आपको संयत किया।
"आप अन्दर आइए ... मैं उनको अभी भेजती हूँ।"
"जी, ठीक है"
रश्मि ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गयी। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो चुका था। करीब दो मिनट बाद भंवर सिंह बैठक में आये। भंवर सिंह साधारण कद-काठी के पुरुष थे, उम्र करीब बयालीस के आस-पास रही होगी। खेत में काम करने से सर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था। 'एक आत्मसम्मानी पुरुष!' मैंने मन ही मन आँकलन किया, 'बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।'
"नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?" भंवर सिंह ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।
"नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ..... लेकिन मेरी एक विनती है, की आप मेरी पूरी बात सुन लीजिये। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।"
"अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने ही वाले थे, आप आ गए हैं - तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर अपनी बात कहिये।"
"नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान् ने चाहा तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।"
"अच्छा बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?"
"ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है... जी वो मैं आपसे यह कहने आया था की ...." बोलते बोलते मैं रुक गया। गला ख़ुश्क हो गया।
"बोलिए न?"
मैंने मानो घंटो तक इंतज़ार किया ... अंततः वह समय भी आया जब यूनिफार्म पहने लड़कियां आने लगी। कोई पांच मिनट बाद मुझे अपनी परी के दर्शन हो ही गए। वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी फूल के जैसे लग रही थी! उसके रूप का सबसे आकर्षक भाग उसका भोलापन था। उसके चेहरे में वह आकर्षण था की मेरी दृष्टि उसके शरीर के किसी और हिस्से पर गयी ही नहीं। कोई और होती तो अब तक उसकी पूरी नाप तौल बता चुका होता। लेकिन यह लड़की अलग है! मेरा इसके लिए मोह सिर्फ मोह नहीं है - संभवतः प्रेम है। आज मुझे अपने जीवन में पहली बार एक किशोर वाली भावनाएँ आ रही थीं। जब तक मुझे रश्मि दिखी, तब तक उसको मैंने मन भर के देखा। दिल धाड़ धाड़ करके धड़कता रहा। उसके जाने के बाद मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा।
मैं यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था, की रश्मि के लिए मेरे मन में जो भी कुछ था वह लिप्सा अथवा विमोह नहीं था, अपितु शुद्ध प्रेम था। उसको देखते ही ठंडी बयार वाला एहसास, मन में शान्ति और जीवन में ठहर कर घर बसाने वाली भावना लिप्सा तो नहीं हो सकती! ऐसे ही घंटो तक तर्क वितर्क करते रहने के बाद, अंततः मैंने ठान लिया की मैं इससे या इसके घरवालों से बात अवश्य करूंगा। दोपहर बाद जब उसके स्कूल की छुट्टी हुई तो मैंने उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता करने की ठानी। आज भी मेरे साथ कल के ही जैसा हुआ। उसको तब तक देखता रहा जब तक आगे की सड़क से वह मुड़ कर ओझल न हो गयी और फिर मैंने उसका सावधानीपूर्वक पीछा करना शुरू कर दिया। मुख्य सड़क से कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक विस्तृत क्षेत्र आया, जिसमे काफी दूर तक फैला हुआ खेत था और उसमे ही बीच में एक छोटा सा घर बना हुआ था। वह लड़की उसी घर के अन्दर चली गयी।
'तो यह है इसका घर!'
मैं करीब एक घंटे तक वहीँ निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपने बुद्धि और विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था - शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। कहीं पीटना पड़ गया तो? खैर, मेरी जिज्ञासा इतनी बलवती थी, की मैंने हर जोखिम को नज़रंदाज़ करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।
"साहब! यह तो अपने भंवर सिंह की बेटी है।" उसने तस्वीर को देखते ही कहा। फिर थोडा रुक कर, "साहब! माज़रा क्या है? ऐसे राह चलते लड़कियों की तस्वीरें निकालना कोई अच्छी बात नहीं।" उसका स्वर मित्रतापूर्ण नहीं था।
"माज़रा? मुझे यह लड़की पसंद आ गयी है! इससे मैं शादी करना चाहता हूँ।" मैंने उसके बदले हुए स्वर को अनसुना किया।
"क्या! सचमुच?" उसका स्वर फिर से बदल गया – इस बार वह अचरज से बोला।
"हाँ! क्या भंवर सिंह जी इसकी शादी मुझसे करना पसंद करेंगे?"
"साहब, आप सच में इससे शादी करना चाहते है? कोई मजाक तो नहीं है?"
"यार, मैं मजाक क्यों करूंगा ऐसी बातो में? अब तक कुंवारा हूँ – अच्छी खासी नौकरी है। बस अब एक साथी की ज़रुरत है। तो मैं इस लड़की से शादी क्यों नहीं कर सकता? क्या गलत है?"
"मेरा वो मतलब नहीं था! साहब, ये बहुत भले लोग हैं - सीधे सादे। भंवर सिंह खेती करते हैं - कुल मिला कर चार जने हैं: भंवर सिंह खुद, उनकी पत्नी और दो बेटियां। इस लड़की का नाम रश्मि है। आप बस एक बात ध्यान में रखें, की ये लोग बहुत सीधे और भले लोग हैं। इनको दुःख न देना। आपके मुकाबले बहुत गरीब हैं, लेकिन गैरतमंद हैं। ऐसे लोगो की हाय नहीं लेना। अगर इनको धोखा दिया तो बहुत पछताओगे।"
"नहीं दोस्त! मेरी खुद की जिंदगी दुःख भरी रही है, और मुझे मालूम है की दूसरों को दुःख नही पहुचना चाहिए। और शादी ब्याह की बातें कोई मजाक नहीं होती। मुझे यह लड़की वाकई बहुत पसंद है।"
"अच्छी बात है। आप कहें तो मैं आपकी बात उनसे करवा दूं? ये तो वैसे भी अब शादी के लायक हो चली है।"
"नहीं! मैं अपनी बात खुद करना जानता हूँ। वैसे ज़रुरत पड़ी, तो आपसे ज़रूर कहूँगा।"
रात का खाना खाकर मैंने बहुत सोचा की क्या मैं वाकई इस लड़की, रश्मि से प्रेम करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ! कहीं यह विमोह मात्र ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं की मेरी बढती उम्र के कारण मुझे किसी प्रकार का मानसिक विकार हो गया है और मैं पीडोफाइल (ऐसे लोग जो बच्चो की तरफ कामुक रुझान रखते हैं) तो नहीं बन गया हूँ? काफी समय सोच विचार करने के बाद मुझे यह सब आशंकाएं बे-सरपैर की लगीं। मैंने एक बार फिर अपने मन से पूछा, की क्या मुझे रश्मि से शादी करनी चाहिए, तो मुझे मेरे मन से सिर्फ एक ही जवाब मिला, "हाँ"!
सवेरे उठने पर मन के सभी मकड़-जाल खुद-ब-खुद ही नष्ट हो गए। मैंने निश्चय कर लिया की मैं भंवर सिंह से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था - तो आज रश्मि का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने, नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहां तक पहुचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। खैर, रश्मि के घर पहुच कर मैंने तीन-चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया।
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'हे भगवान्!' मेरा दिल धक् से हो गया। रश्मि पौ फटने से समय सूरज जैसी लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था - उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी।
'कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।'
"जी?" मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गयी हो।
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"आप अन्दर आइए ... मैं उनको अभी भेजती हूँ।"
"जी, ठीक है"
रश्मि ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गयी। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो चुका था। करीब दो मिनट बाद भंवर सिंह बैठक में आये। भंवर सिंह साधारण कद-काठी के पुरुष थे, उम्र करीब बयालीस के आस-पास रही होगी। खेत में काम करने से सर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था। 'एक आत्मसम्मानी पुरुष!' मैंने मन ही मन आँकलन किया, 'बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।'
"नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?" भंवर सिंह ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।
"नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ..... लेकिन मेरी एक विनती है, की आप मेरी पूरी बात सुन लीजिये। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।"
"अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने ही वाले थे, आप आ गए हैं - तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर अपनी बात कहिये।"
"नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान् ने चाहा तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।"
"अच्छा बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?"
"ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है... जी वो मैं आपसे यह कहने आया था की ...." बोलते बोलते मैं रुक गया। गला ख़ुश्क हो गया।
"बोलिए न?"
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Re: घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
"जी वो मैं .... मैं आपकी बेटी रश्मि से शादी करना चाहता हूँ!" मेरे मुंह से यह बात ट्रेन की गति से निकल गई..
'मारे गए अब!'
"क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।"
मैंने दो तीन गहरी साँसे भरीं और अपने आपको काफी संयत किया, "जी मैं आपकी बेटी रश्मि से शादी करना चाहता हूँ।"
“...........................................”
"मैं इसीलिए आपसे मिलना चाहता था।"
"आप रश्मि को जानते हैं?"
"जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।"
"और इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?" भंवर सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।
"जी।"
"मैं पूछ सकता हूँ की आप रश्मि से शादी क्यों करना चाहते है?"
"मैंने आपके बारे में पूछा है और मुझे मालूम है की आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है की आप मेरी बात सुन लीजिये। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे सब मंज़ूर रहेगा।"
"हम्म! देखिये, आप हमारे मेहमान भी है और ... शादी का प्रस्ताव भी लाये हैं। तो हमारी मर्यादा यह कहती है की आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। .... आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।" यह कह कर भंवर सिंह अन्दर चले गए।
मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। पिटूँगा तो नहीं। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एकसाथ आ गए।
'अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।'
भंवर सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।
"यह मेरी छोटी बेटी सुमन है।" सुमन करीब चौदह-पंद्रह साल की रही होगी।
"नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं? आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं?" सुमन नें एक ही सांस में न जाने कितने ही प्रश्न दाग दिए।
मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया... बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।
"मुझे आपकी स्माइल पसंद है ..." सुमन ने बाल-सुलभ सहजता से कह दिया।
वाकई भंवर सिंह के घर में लोग बहुत सीधे और भले हैं - मैंने सोचा। कितना सच्चापन है सभी में। कोई मिलावट नहीं, कोई बनावट नहीं। सुमन एकदम चंचल बच्ची थी, लेकिन उसमे भी शालीनता कूट कूट कर भरी हुई थी। खैर, मुझे उससे कुछ तो बात करनी ही थी, इसलिए मैंने कहा, "नमस्ते सुमन। मेरा नाम रूद्र है। मैं अभी आपको और आपके माता पिता को अपने बारे में सब बताने वाला हूँ।"
लड़की के पिता वहीँ पर खड़े थे, और हमारी बातें सुन रहे थे। इतने में भंवर सिंह जी की धर्मपत्नी भी बाहर आ गईं। उन्होंने अपना सर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था।
"जी नमस्ते!" मैंने उठते हुए कहा।
"नमस्ते! बैठिये न।" उन्होंने बस इतना ही कहा। परिश्रमी और आत्मसम्मानी पुरुष की सच्ची साथी प्रतीत हो रही थीं।
मुझे इतना तो समझ में आ गया की यह परिवार वाकई भला है। माता पिता दोनों ही स्वाभिमानी हैं, और सरल हैं। इसलिए बिना किसी लाग लपेट के बात करना ही ठीक रहेगा। हम चारो लोग अभी बस बैठे ही थे की उधर से रश्मि नाश्ते की ट्रे लिए बैठक में आई। मैंने उसकी तरफ बस एक झलक भर देखा और फिर अपनी नज़रें बाकी लोगो की तरफ कर लीं – ऐसा न हो की मैं मूर्खों की तरह उसको पुनः एकटक देखने लगूं, और मेरी बिना वजह फजीहत हो जाय।
"और ये रश्मि है – हमारी बड़ी बेटी। खैर, इसको तो आप जानते ही हैं। सुमन बेटा! जाओ दीदी का हाथ बटाओ।"
दोनों लड़कियों ने कुछ ही देर में नाश्ता जमा दिया। लगता है की वो बेचारे मेरे आने से पहले खाने जा रहे थे, लेकिन मेरे आने से उनका खाने का गणित गड़बड़ हो गया। खैर, मैं क्या ही खाता! मेरी भूख तो नहीं के बराबर थी – नाश्ता तो किया ही हुआ था और अभी थोडा घबराया हुआ भी था। लेकिन साथ में खाने पर बैठना आवश्यक था – कहीं ऐसा न हो की वो यह समझें की मैं उनके साथ खाना नहीं चाहता। खाते हुए बस इतनी ही बात हुई की मैं उत्तराँचल में क्या करने आया, कहाँ से आया, क्या करता हूँ, कितने दिन यहाँ पर हूँ ..... इत्यादि इत्यादि। नाश्ता समाप्त होने पर सभी लोग बैठक में आकर बैठ गए।
भंवर सिंह थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, "रूद्र, मेरा यह मानना है की अगर लड़की की शादी की बात चल रही हो तो उसको भी पूरा अधिकार है की अपना निर्णय ले सके। इसलिए रश्मि यहाँ पर रहेगी। उम्मीद है की आपको कोई आपत्ति नहीं।"
"जी, बिलकुल ठीक है। भला मुझे क्यों आपत्ति होगी?" मैंने रश्मि की ओर देखकर बोला। उसके होंठो पर एक बहुत हलकी सी मुस्कान आ गयी और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए।
फिर मैंने उनको अपने बारे में बताना शुरू किया की मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ, मैंने देश के सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान और अभियांत्रिकी संस्थान से पढाई की है। बैंगलोर में रहता हूँ। मेरा पैत्रिक घर कभी मेरठ में था, लेकिन अब नहीं है। परिवार के बारे में बात चल पड़ी तो बहुत सी कड़वी, और दुःखदाई बातें भी निकल पड़ी। मैंने देखा की मेरे माँ-बाप की मृत्यु, मेरे संबंधियों के अत्याचार और मेरे संघर्ष के बारे में सुन कर भंवर सिंह की पत्नी और रश्मि दोनों के ही आँखों से आंसू निकल आये। मैंने यह भी घोषित किया की मेरे परिवार में मेरे अलावा अब कोई और नहीं है।
उन्होंने ने भी अपने घर के बारे में बताया की वो कितने साधारण लोग हैं, छोटी सी खेती है, लेकिन गुजर बसर हो जाती है। उनके वृहत परिवार के फलाँ फलाँ व्यक्ति विभिन्न स्थानों पर हैं। इत्यादि इत्यादि।
"रूद्र, आपसे मुझे बस एक ही बात पूछनी है। आप रश्मि से शादी क्यों करना चाहते हैं? आपके लिए तो लड़कियों की कोई कमी नहीं।" भंवर सिंह ने पूछा।
मैंने कुछ सोच के बोला, "ऊपर से मैं चाहे कैसा भी लगता हूँ, लेकिन अन्दर से मैं बहुत ही सरल साधारण आदमी हूँ। मुझे वैसी ही सरलता रश्मि में दिखी। इसलिए।"
फिर मैंने बात आगे जोड़ी, "आप बेशक मेरे बारे में पूरी तरह पता लगा लें। आप मेरा कार्ड रखिये - इसमें मेरी कंपनी का पता लिखा है। अगर आप बैंगलोर जाना चाहते हैं तो मैं सारा प्रबंध कर दूंगा। और यह मेरे घर का पता है (मैंने अपने विसिटिंग कार्ड के पीछे घर का पता भी लिख दिया था) - वैसे तो मैं अकेला रहता हूँ, लेकिन आप मेरे बारे में वहां पूछताछ कर सकते हैं। मैं यहाँ, उत्तराँचल में, मैं वैसे भी अगले दो-तीन सप्ताह तक हूँ। इसलिए अगर आप आगे कोई बात करना चाहते हैं, तो आसानी से हो सकती है।"
'मारे गए अब!'
"क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।"
मैंने दो तीन गहरी साँसे भरीं और अपने आपको काफी संयत किया, "जी मैं आपकी बेटी रश्मि से शादी करना चाहता हूँ।"
“...........................................”
"मैं इसीलिए आपसे मिलना चाहता था।"
"आप रश्मि को जानते हैं?"
"जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।"
"और इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?" भंवर सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।
"जी।"
"मैं पूछ सकता हूँ की आप रश्मि से शादी क्यों करना चाहते है?"
"मैंने आपके बारे में पूछा है और मुझे मालूम है की आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है की आप मेरी बात सुन लीजिये। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे सब मंज़ूर रहेगा।"
"हम्म! देखिये, आप हमारे मेहमान भी है और ... शादी का प्रस्ताव भी लाये हैं। तो हमारी मर्यादा यह कहती है की आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। .... आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।" यह कह कर भंवर सिंह अन्दर चले गए।
मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। पिटूँगा तो नहीं। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एकसाथ आ गए।
'अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।'
भंवर सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।
"यह मेरी छोटी बेटी सुमन है।" सुमन करीब चौदह-पंद्रह साल की रही होगी।
"नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं? आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं?" सुमन नें एक ही सांस में न जाने कितने ही प्रश्न दाग दिए।
मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया... बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।
"मुझे आपकी स्माइल पसंद है ..." सुमन ने बाल-सुलभ सहजता से कह दिया।
वाकई भंवर सिंह के घर में लोग बहुत सीधे और भले हैं - मैंने सोचा। कितना सच्चापन है सभी में। कोई मिलावट नहीं, कोई बनावट नहीं। सुमन एकदम चंचल बच्ची थी, लेकिन उसमे भी शालीनता कूट कूट कर भरी हुई थी। खैर, मुझे उससे कुछ तो बात करनी ही थी, इसलिए मैंने कहा, "नमस्ते सुमन। मेरा नाम रूद्र है। मैं अभी आपको और आपके माता पिता को अपने बारे में सब बताने वाला हूँ।"
लड़की के पिता वहीँ पर खड़े थे, और हमारी बातें सुन रहे थे। इतने में भंवर सिंह जी की धर्मपत्नी भी बाहर आ गईं। उन्होंने अपना सर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था।
"जी नमस्ते!" मैंने उठते हुए कहा।
"नमस्ते! बैठिये न।" उन्होंने बस इतना ही कहा। परिश्रमी और आत्मसम्मानी पुरुष की सच्ची साथी प्रतीत हो रही थीं।
मुझे इतना तो समझ में आ गया की यह परिवार वाकई भला है। माता पिता दोनों ही स्वाभिमानी हैं, और सरल हैं। इसलिए बिना किसी लाग लपेट के बात करना ही ठीक रहेगा। हम चारो लोग अभी बस बैठे ही थे की उधर से रश्मि नाश्ते की ट्रे लिए बैठक में आई। मैंने उसकी तरफ बस एक झलक भर देखा और फिर अपनी नज़रें बाकी लोगो की तरफ कर लीं – ऐसा न हो की मैं मूर्खों की तरह उसको पुनः एकटक देखने लगूं, और मेरी बिना वजह फजीहत हो जाय।
"और ये रश्मि है – हमारी बड़ी बेटी। खैर, इसको तो आप जानते ही हैं। सुमन बेटा! जाओ दीदी का हाथ बटाओ।"
दोनों लड़कियों ने कुछ ही देर में नाश्ता जमा दिया। लगता है की वो बेचारे मेरे आने से पहले खाने जा रहे थे, लेकिन मेरे आने से उनका खाने का गणित गड़बड़ हो गया। खैर, मैं क्या ही खाता! मेरी भूख तो नहीं के बराबर थी – नाश्ता तो किया ही हुआ था और अभी थोडा घबराया हुआ भी था। लेकिन साथ में खाने पर बैठना आवश्यक था – कहीं ऐसा न हो की वो यह समझें की मैं उनके साथ खाना नहीं चाहता। खाते हुए बस इतनी ही बात हुई की मैं उत्तराँचल में क्या करने आया, कहाँ से आया, क्या करता हूँ, कितने दिन यहाँ पर हूँ ..... इत्यादि इत्यादि। नाश्ता समाप्त होने पर सभी लोग बैठक में आकर बैठ गए।
भंवर सिंह थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, "रूद्र, मेरा यह मानना है की अगर लड़की की शादी की बात चल रही हो तो उसको भी पूरा अधिकार है की अपना निर्णय ले सके। इसलिए रश्मि यहाँ पर रहेगी। उम्मीद है की आपको कोई आपत्ति नहीं।"
"जी, बिलकुल ठीक है। भला मुझे क्यों आपत्ति होगी?" मैंने रश्मि की ओर देखकर बोला। उसके होंठो पर एक बहुत हलकी सी मुस्कान आ गयी और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए।
फिर मैंने उनको अपने बारे में बताना शुरू किया की मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ, मैंने देश के सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान और अभियांत्रिकी संस्थान से पढाई की है। बैंगलोर में रहता हूँ। मेरा पैत्रिक घर कभी मेरठ में था, लेकिन अब नहीं है। परिवार के बारे में बात चल पड़ी तो बहुत सी कड़वी, और दुःखदाई बातें भी निकल पड़ी। मैंने देखा की मेरे माँ-बाप की मृत्यु, मेरे संबंधियों के अत्याचार और मेरे संघर्ष के बारे में सुन कर भंवर सिंह की पत्नी और रश्मि दोनों के ही आँखों से आंसू निकल आये। मैंने यह भी घोषित किया की मेरे परिवार में मेरे अलावा अब कोई और नहीं है।
उन्होंने ने भी अपने घर के बारे में बताया की वो कितने साधारण लोग हैं, छोटी सी खेती है, लेकिन गुजर बसर हो जाती है। उनके वृहत परिवार के फलाँ फलाँ व्यक्ति विभिन्न स्थानों पर हैं। इत्यादि इत्यादि।
"रूद्र, आपसे मुझे बस एक ही बात पूछनी है। आप रश्मि से शादी क्यों करना चाहते हैं? आपके लिए तो लड़कियों की कोई कमी नहीं।" भंवर सिंह ने पूछा।
मैंने कुछ सोच के बोला, "ऊपर से मैं चाहे कैसा भी लगता हूँ, लेकिन अन्दर से मैं बहुत ही सरल साधारण आदमी हूँ। मुझे वैसी ही सरलता रश्मि में दिखी। इसलिए।"
फिर मैंने बात आगे जोड़ी, "आप बेशक मेरे बारे में पूरी तरह पता लगा लें। आप मेरा कार्ड रखिये - इसमें मेरी कंपनी का पता लिखा है। अगर आप बैंगलोर जाना चाहते हैं तो मैं सारा प्रबंध कर दूंगा। और यह मेरे घर का पता है (मैंने अपने विसिटिंग कार्ड के पीछे घर का पता भी लिख दिया था) - वैसे तो मैं अकेला रहता हूँ, लेकिन आप मेरे बारे में वहां पूछताछ कर सकते हैं। मैं यहाँ, उत्तराँचल में, मैं वैसे भी अगले दो-तीन सप्ताह तक हूँ। इसलिए अगर आप आगे कोई बात करना चाहते हैं, तो आसानी से हो सकती है।"
मित्रो मेरे द्वारा पोस्ट की गई कुछ और भी कहानियाँ हैं
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