हम आये, पिटे हुए शिकारी से! जैसे चारा भी गँवा के आये हों! बाबा डबरा पानी दे रहे थे पौधों में, खूब फूल खिले थे!
"आ गए? खाली हाथ?" बाबा ने बिना देखे पूछा,
"हाँ बाबा" मैंने कहा,
"कौन सी तिथि निर्धारित की, तेरस?" बोले बाबा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक किया, तेरस शुभ है" वे बोले,
"धन्यवाद" मैंने कहा,
मुझे जैसे बाबा का आशीर्वाद मिला,
"हाथ-मुंह धो लो, खाना लगा हुआ होगा, मैं आ रहा हूँ बस,
"हम हाथ मुंह धोने चले गए, वहाँ से वापिस आये, खाना लगा हुआ था!
कुछ देर बाद बाबा भी आ गए!
बैठे,
"बताया तुमने धन्ना बाबा के बारे में?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"नहीं माना?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, नहीं माना" मैंने कहा,
"मुझे पता था" वे बोले,
मैं चुप!
"लो, शुरू करो" बाबा ने खाना शुरू करने को कहा,
आलू-बैंगन की सब्जी, थोड़ी सी सेम की फली की सब्जी, दही और सलाद था! रोटी मोटी मोटी थीं, चूल्हे की थीं शायद!
खाना खाया,
लज़ीज़ खाना! दही तो लाजवाब!
"बाबा?" मैंने पूछा,
"हाँ?" वे बोले,
"मुझे एक साध्वी चाहिए" मैंने कहा,
"मिल जायेगी, कल आ जायेगी, जांच लेना" वे बोले,
उनके जबड़े की हड्डी ऐसी चल रही थी खाना खाते खाते जैसे भाप के इंजन का रिंच, बड़ी कैंची!
"ठीक है" मैंने कहा,
मेरी दही ख़तम हो गयी तो बाबा ने और मंगवा ली, मेरे मजे हो गए! मैं फिर से टूट पड़ा दही पर! और तभी पेट से सिग्नल आया कि बस! डकार आ गयी!
शर्मा जी ने भी खा लिया और बाबा ने भी! हम उठे अब!
"मैं कक्ष में जा रहा हूँ बाबा" मैंने कहा,
उन्होंने हाथ उठाके इशारे से कह दिया कि जाओ!
हम निकल आये बाहर और अपने कक्ष की ओर चले गए, कक्ष में आये और लेट गए!
तभी शर्मा जी का उनके घर से फ़ोन आ गया! उन्होंने बात की और फिर मुझसे प्रश्न!
"द्वन्द विकराल होगा?"
"हाँ" मैंने कहा,
"रिपुष के बसकी नहीं, हाँ दम्मो ज़रूर कूदेगा बीच में" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो आपके दो शत्रु हुए" वे बोले,
"स्पष्ट है" मैंने कहा,
"वो आया तो लौहिताएँ" वे बोले,
"बेशक" मैंने कहा,
अब सिगरेट जलाई उन्होंने,
"हाँ, पता है मुझे भी" उन्होंने नाक से धुआं छोड़ते हुए कहा,
"और कमीन आदमी के हाथ में तलवार हो तो वो अँधा हो कर तलवार चलाता है" मैंने कहा,
"क़तई ठीक" वे बोले,
"तो यक़ीनन दम्मो ही लड़ेगा" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"कल साध्वी आ जायेगी, देखता हूँ" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"द्वन्द भयानक होने वाला है" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"काट दो सालों को" वे गुस्से से बोले,
मुझे हंसी आयी!
"मन तो कर रहा था सालों के मुंह पर वहीँ लात मारूं!" वे बोले,
"लात तो पड़ेगी ही" मैंने कहा,
अब मैंने करवट बदली!
हम कुछ और बातें करते रहे और आँख लग गयी!
सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
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(मैं और मेरा परिवार Running )........
(रेशमा - मेरी पड़ोसन complete).....(मेरी मस्तानी समधन complete)......
(भूत प्रेतों की कहानियाँ complete)....... (इंसाफ कुदरत का complete).... (हरामी बेटा compleet )-.....(माया ने लगाया चस्का complete). (Incest-मेरे पति और मेरी ननद complete ).
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
दोपहर बीती, रात बीती बेचैनी से और फिर सुबह हुई! दैनिक-कर्मों से फारिग हुए और फिर चाय नाश्ता! करीब दस बजे दो साध्वियां आयीं, मैंने कक्ष में बुलाया दोनों को, एक को मैंने वापिस भेज दिया वो अवयस्क सी लगी मुझे, शर्मा जी बाहर चले गए तभी, दूसरी को वहीँ बिठा लिया, साध्वी अच्छी थी, मजबूत और बलिष्ठ देह थी उसकी, मेरा वजन सम्भाल सकती थी, उसकी हँसलियां भी समतल थी, वक्ष-स्थल पूर्ण रूप से उन्नत था और स्त्री सौंदर्य के मादक रस से भी भीगी हुई थी!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"ऋतुला" उसने बताया,
"कितने बरस की हो?" मैंने पूछा,
"बीस वर्ष" उसने कहा,
"माँ-बाप कहाँ है?" मैंने पूछा,
"यहीं हैं" उसने कहा,
धन के लिए आयी हो?'' मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
ये ठीक था! धन दिया और कहानी समाप्त! कोई रिश्ता-नाता या भावनात्मक सम्बन्ध नहीं!
"कितनी क्रियायों में बैठी हो?" मैंने पूछा,
"दो" उस ने बताया,
"उदभागा में बैठी हो कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने कहा,"सम्भोग किया है कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
मैंने अब अपना कक्ष बंद किया और कहा उस से, "कपडे खोलो अपने"
उसने एक एक करके लरजते हुए कपड़े खोल दिया,
देह पुष्ट थी उसकी, नितम्ब भी भारी थे, जंघाएँ मांसल एवं भार सहने लायक थी, फिर मैं योनि की जांच की, इसमें भी कुछ देखा जाता है, वो भी सही था,
"ठीक है, पहन लो कपड़े" मैंने कहा,
उसने कपड़े पहन लिए,
"ऋतुला, तुम तेरस को स्नान कर मेरे पास आठ बजे तक पहुँच जाना" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
अब मैंने उसको कुछ धन दे दिया,
और अब वो गर्दन हाँ में हिला कर चली गयी,
चलिए, साध्वी का भी प्रबंध हो गया अब मुझे कुछ शक्ति-संचरण करना था, मंत्र जागृत करने थे और कुछ विशेष क्रियाएँ भी करनी थीं, जो प्राण बचाने हेतु आवश्यक थीं!
तो मित्रगण! इन दिनों और रातों को मैंने सभी क्रियाएँ निपटा लीं! डबरा बाबा का शमशान था, इसकी भी फ़िक़र नहीं थी!
द्वादशी को, रात को मैं और शर्मा जी मदिरा पान कर रहे थे, तभी शर्मा जी ने पूछा," कब तक समाप्त हो जाएगा द्वन्द?"
"पता नहीं" मैंने कहा,
अच्छा" वे बोले,
"आप सो जाना" मैंने कहा,
"नहीं"
उन्होंने कहा,
"कोई बात होगी तो मैं सूचित कर दूंगा" मैंने कहा,
"मैं जागता रहूँगा" वे बोले,
"आपकी इच्छा" मैंने कहा,
"एक बात कहूं?" उन्होंने कहा,
"हां? बोलिये?" मैंने कहा,
"ऐसा हाल करना सालों का कि ज़िंदगी भर इस लपेट-झपेट से तौबा करते रहें!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा और मैं खिलखिला कर हंसा!
अब शर्मा जी ने गिलास बदल लिया और मुझे अपना और अपना मुझे दे दिया! इसका मतलब हुआ कि ख़ुशी आपकी और ग़म मेरा!
"इसीलिए मेरे साथ हो आप" मैंने कहा,
"धन्य हुआ मैं" वे बोले,
भावुक हो गए!
"चलिए कोई बात नहीं, आप जाग लेना!" मैंने कहा और बात का रुख बदला!
उन्होंने गर्दन हिलायी!
तभी बाबा आ गए!
"और?" वे बोले,
"सब बढ़िया" मैंने कहा,
"रुको, मैं और लगवाता हूँ" वे बोले और बाहर चले गए!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"ऋतुला" उसने बताया,
"कितने बरस की हो?" मैंने पूछा,
"बीस वर्ष" उसने कहा,
"माँ-बाप कहाँ है?" मैंने पूछा,
"यहीं हैं" उसने कहा,
धन के लिए आयी हो?'' मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
ये ठीक था! धन दिया और कहानी समाप्त! कोई रिश्ता-नाता या भावनात्मक सम्बन्ध नहीं!
"कितनी क्रियायों में बैठी हो?" मैंने पूछा,
"दो" उस ने बताया,
"उदभागा में बैठी हो कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने कहा,"सम्भोग किया है कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
मैंने अब अपना कक्ष बंद किया और कहा उस से, "कपडे खोलो अपने"
उसने एक एक करके लरजते हुए कपड़े खोल दिया,
देह पुष्ट थी उसकी, नितम्ब भी भारी थे, जंघाएँ मांसल एवं भार सहने लायक थी, फिर मैं योनि की जांच की, इसमें भी कुछ देखा जाता है, वो भी सही था,
"ठीक है, पहन लो कपड़े" मैंने कहा,
उसने कपड़े पहन लिए,
"ऋतुला, तुम तेरस को स्नान कर मेरे पास आठ बजे तक पहुँच जाना" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
अब मैंने उसको कुछ धन दे दिया,
और अब वो गर्दन हाँ में हिला कर चली गयी,
चलिए, साध्वी का भी प्रबंध हो गया अब मुझे कुछ शक्ति-संचरण करना था, मंत्र जागृत करने थे और कुछ विशेष क्रियाएँ भी करनी थीं, जो प्राण बचाने हेतु आवश्यक थीं!
तो मित्रगण! इन दिनों और रातों को मैंने सभी क्रियाएँ निपटा लीं! डबरा बाबा का शमशान था, इसकी भी फ़िक़र नहीं थी!
द्वादशी को, रात को मैं और शर्मा जी मदिरा पान कर रहे थे, तभी शर्मा जी ने पूछा," कब तक समाप्त हो जाएगा द्वन्द?"
"पता नहीं" मैंने कहा,
अच्छा" वे बोले,
"आप सो जाना" मैंने कहा,
"नहीं"
उन्होंने कहा,
"कोई बात होगी तो मैं सूचित कर दूंगा" मैंने कहा,
"मैं जागता रहूँगा" वे बोले,
"आपकी इच्छा" मैंने कहा,
"एक बात कहूं?" उन्होंने कहा,
"हां? बोलिये?" मैंने कहा,
"ऐसा हाल करना सालों का कि ज़िंदगी भर इस लपेट-झपेट से तौबा करते रहें!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा और मैं खिलखिला कर हंसा!
अब शर्मा जी ने गिलास बदल लिया और मुझे अपना और अपना मुझे दे दिया! इसका मतलब हुआ कि ख़ुशी आपकी और ग़म मेरा!
"इसीलिए मेरे साथ हो आप" मैंने कहा,
"धन्य हुआ मैं" वे बोले,
भावुक हो गए!
"चलिए कोई बात नहीं, आप जाग लेना!" मैंने कहा और बात का रुख बदला!
उन्होंने गर्दन हिलायी!
तभी बाबा आ गए!
"और?" वे बोले,
"सब बढ़िया" मैंने कहा,
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
और फिर आयी तेरस!
उस दिन मैंने चार घटियों का मौन-व्रत धारण किया, ये इसलिए कि कुछ और मेरी जिव्हा से न टकराए और जिस से जिव्हा झूठी हो मेरी! मेरा मौन-व्रत दोपहर को टूटा!
बाबा आ गए थे वहाँ,
"आओ बाबा जी" मैंने कहा,
बैठ गए वहाँ,
"आज विजय-दिवस है तुम्हारा" वे बोले,
"आपका धन्यवाद!" मैंने कहा,
"एक काम करना, मेरे पास नौखंड माल है, वो मैं दे दूंगा, उन्नीस की काट करती है वो" वो बोले,
''अवश्य" मैंने कहा,
उन्नीस की काट अर्थात उन्नीस दर्जे की काट!
"साध्वी कितने बजे आएगी?" उन्होंने पूछा,
"आठ बजे" मैंने कहा,
ठीक है" वे बोले,
वे उठे और चले गए,
"बाबा बहुत भले आदमी है" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ" मैंने उनको जाते हुए देखते हुए कहा,
"लम्बी आयु प्रदान करे इनको ऊपरवाला" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"पापी ही लम्बी आयु भोगते हैं ऊपरवाले के यहाँ पापिओं की आवश्यकता नहीं होती, उसको भले लोग ही चाहिए होते हैं, मैंने इसीलिए कहा" वे बोले,
मैं समझ गया था!
अब हम भी उठे वहाँ से, बाबा ने सारा सामान मंगवाने के लिए एक सहायक को भेज दिया था,
"आओ बाहर चलते हैं टहलने", मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम बाहर आ गए, थोडा इधर-उधर टहले और फिर वापिस आ गए, भोजन किया और कक्ष में चले गए अपने, थोड़ी देर आराम किया और फिर नींद आ गयी!
जब नींद खुली तो छह बजे थे! रात्रि का समय अभी दूर था परन्तु उसकी कालिमा ह्रदय तक आ पहुंची थी!
दो और घंटे बीते,
अब बजे आठ, नियत समय पर साध्वी आ गयी! मैंने कक्ष में बिठाया उसको, और बाबा के पास चला गया, आज्ञा लेने, नौखंड माल लेने, आज्ञा ले आया और फिर साध्वी को साथ ले, सारा सामान उठा लिया!
अब उसका श्रृंगार करना था!
मैंने मंत्र पढ़ते हुए भूमि पूजन किया, जलती चिता के चौदह चक्कर लगाए, साध्वी ने भी लगाए,
"सुनो साध्वी" मैंने कहा,
"जैसा मैं कहूं वही हो, और कुछ नहीं, अभी भी समय है, लौटना है तो लौट जाओ" मैंने कहा,
"जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा" उसने मुस्कुरा के कहा,
"वस्त्रहीन हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी, अब मैंने उसके केश खोले, हाथों में तांत्रिक-कंगन. पाँव में तांत्रिक-कंगन, कमर में अस्थियों से बनी एक तगड़ी, गले में अस्थिमाल धरान करवा दिया! अब मैंने सामान में से एक कटोरा निकाला, उसने चाक़ू से हाथ काटकर रक्त की सात बूँदें निकाली और कुछ सामग्री डाली, और घोट दिया, अब इस घोटे से उसके शरीर पर तांत्रिक-चिन्ह अंकित कर दिए, कुछ यन्त्र बनाये और लं बीज से उसकी देह को पोषित कर दिया!
अब वो तैयार थी, मैंने उसे बदन को भस्म से लेप दिया, अब वो साक्षात यमबाला दिख रही थी!
अब मैं तैयार हुआ! मैंने वस्त्र उतारे और फिर लं बीज से शरीर पर भस्म-लेप किया, तांत्रिक-आभूषण धारण किया, रक्त के घोटे से माथे को सुसज्जित किया! और फिर अपना त्रिशूल निकाला! बाएं गाड़ा! आसान बिछाया और साध्वी को उस पर बिठा दिया, फिर चिमटा निकाला, चारों दिशाओं में खड़खड़ाया और दिशा-पूजन किया! और फिर सामान निकाल कर वहीँ सामने रख दिया! इनमे दो गुड़िया भी थीं, बालिका के केशों से बनी हुई उनको उल्टा करके, अर्थात सर उनका भूमि में गाड़ दिया! कपाल निकाले! मरघटिया मसान का कपाल उल्टा किया! एक कपाल त्रिशूल पर टांग दिया! अस्थियां हाथों में लीं और क्रंदक-मंत्र पढ़ा!
विपक्षी तक खबर पहुंचा दी गयी!
"साधी, उठो" मैंने कहा,
वो उठी,
"सामने मेरे पीठ करके खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी!
अब मैंने दीपाल-मंत्र पढ़ते हुए उसकी देह को त्रिशूल से तीन जगह काट दिया, अर्थात निशान लगा दिए!
"साध्वी?" मैंने कहा,
वो मेरी ओर घूमी,
"बैठ जाओ" मैंने कहा,
वो बैठ गयी,
"लो, इस मरघटिया कपाल को अपनी योनि से छुआ दो" मैंने कहा,
उसने किया और कपाल उसके हाथों से छूटकर अपने स्थान पर आ गया! कानफोड़ू अट्ठहास हुआ!
क्रिया आरम्भ हो गयी!
उस दिन मैंने चार घटियों का मौन-व्रत धारण किया, ये इसलिए कि कुछ और मेरी जिव्हा से न टकराए और जिस से जिव्हा झूठी हो मेरी! मेरा मौन-व्रत दोपहर को टूटा!
बाबा आ गए थे वहाँ,
"आओ बाबा जी" मैंने कहा,
बैठ गए वहाँ,
"आज विजय-दिवस है तुम्हारा" वे बोले,
"आपका धन्यवाद!" मैंने कहा,
"एक काम करना, मेरे पास नौखंड माल है, वो मैं दे दूंगा, उन्नीस की काट करती है वो" वो बोले,
''अवश्य" मैंने कहा,
उन्नीस की काट अर्थात उन्नीस दर्जे की काट!
"साध्वी कितने बजे आएगी?" उन्होंने पूछा,
"आठ बजे" मैंने कहा,
ठीक है" वे बोले,
वे उठे और चले गए,
"बाबा बहुत भले आदमी है" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ" मैंने उनको जाते हुए देखते हुए कहा,
"लम्बी आयु प्रदान करे इनको ऊपरवाला" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"पापी ही लम्बी आयु भोगते हैं ऊपरवाले के यहाँ पापिओं की आवश्यकता नहीं होती, उसको भले लोग ही चाहिए होते हैं, मैंने इसीलिए कहा" वे बोले,
मैं समझ गया था!
अब हम भी उठे वहाँ से, बाबा ने सारा सामान मंगवाने के लिए एक सहायक को भेज दिया था,
"आओ बाहर चलते हैं टहलने", मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम बाहर आ गए, थोडा इधर-उधर टहले और फिर वापिस आ गए, भोजन किया और कक्ष में चले गए अपने, थोड़ी देर आराम किया और फिर नींद आ गयी!
जब नींद खुली तो छह बजे थे! रात्रि का समय अभी दूर था परन्तु उसकी कालिमा ह्रदय तक आ पहुंची थी!
दो और घंटे बीते,
अब बजे आठ, नियत समय पर साध्वी आ गयी! मैंने कक्ष में बिठाया उसको, और बाबा के पास चला गया, आज्ञा लेने, नौखंड माल लेने, आज्ञा ले आया और फिर साध्वी को साथ ले, सारा सामान उठा लिया!
अब उसका श्रृंगार करना था!
मैंने मंत्र पढ़ते हुए भूमि पूजन किया, जलती चिता के चौदह चक्कर लगाए, साध्वी ने भी लगाए,
"सुनो साध्वी" मैंने कहा,
"जैसा मैं कहूं वही हो, और कुछ नहीं, अभी भी समय है, लौटना है तो लौट जाओ" मैंने कहा,
"जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा" उसने मुस्कुरा के कहा,
"वस्त्रहीन हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी, अब मैंने उसके केश खोले, हाथों में तांत्रिक-कंगन. पाँव में तांत्रिक-कंगन, कमर में अस्थियों से बनी एक तगड़ी, गले में अस्थिमाल धरान करवा दिया! अब मैंने सामान में से एक कटोरा निकाला, उसने चाक़ू से हाथ काटकर रक्त की सात बूँदें निकाली और कुछ सामग्री डाली, और घोट दिया, अब इस घोटे से उसके शरीर पर तांत्रिक-चिन्ह अंकित कर दिए, कुछ यन्त्र बनाये और लं बीज से उसकी देह को पोषित कर दिया!
अब वो तैयार थी, मैंने उसे बदन को भस्म से लेप दिया, अब वो साक्षात यमबाला दिख रही थी!
अब मैं तैयार हुआ! मैंने वस्त्र उतारे और फिर लं बीज से शरीर पर भस्म-लेप किया, तांत्रिक-आभूषण धारण किया, रक्त के घोटे से माथे को सुसज्जित किया! और फिर अपना त्रिशूल निकाला! बाएं गाड़ा! आसान बिछाया और साध्वी को उस पर बिठा दिया, फिर चिमटा निकाला, चारों दिशाओं में खड़खड़ाया और दिशा-पूजन किया! और फिर सामान निकाल कर वहीँ सामने रख दिया! इनमे दो गुड़िया भी थीं, बालिका के केशों से बनी हुई उनको उल्टा करके, अर्थात सर उनका भूमि में गाड़ दिया! कपाल निकाले! मरघटिया मसान का कपाल उल्टा किया! एक कपाल त्रिशूल पर टांग दिया! अस्थियां हाथों में लीं और क्रंदक-मंत्र पढ़ा!
विपक्षी तक खबर पहुंचा दी गयी!
"साधी, उठो" मैंने कहा,
वो उठी,
"सामने मेरे पीठ करके खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी!
अब मैंने दीपाल-मंत्र पढ़ते हुए उसकी देह को त्रिशूल से तीन जगह काट दिया, अर्थात निशान लगा दिए!
"साध्वी?" मैंने कहा,
वो मेरी ओर घूमी,
"बैठ जाओ" मैंने कहा,
वो बैठ गयी,
"लो, इस मरघटिया कपाल को अपनी योनि से छुआ दो" मैंने कहा,
उसने किया और कपाल उसके हाथों से छूटकर अपने स्थान पर आ गया! कानफोड़ू अट्ठहास हुआ!
क्रिया आरम्भ हो गयी!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
चहुंदिश सन्नाटा!
भयानक काली रात और उसकी कालिम सुंदरता!
जवान इठलाती रात्रि!
परम शांति!
आवाज़ें तो बस सम्मुख जल रही चिता की लकड़ियों से आती चट-चट आवाज़ें!
चमगादड़! यहाँ से वहाँ गुजरते हुए जैसे टोह ले रहे हों!
और भड़भड़ाती मेरी अलख! जिसने मैंने चिता की लकड़ी की सहायता से उठाया था! नवयौवना के मदमाती देह की जैसे मादक-चाल!
शमशान में मेरे मंत्र ऐसे गूँज रहे थे जैसे शिथिल पड़े हुए धौंकनी रुपी शमशान में हवा भर दी जा रही हो और वो अब फुफकारने लगी हो!
चिता से उठता धुआ हमारे अस्तित्व की पहचान लिए इस भूलोक से विदा लिए जा रहा था!
मैंने तभी अलख भोग दिया और दो कपाल कटोरे निकाले, उनमे मदिरा परोसी और एक कटोरा साध्वी को दिया और एक खुद ने लिए, महानाद करते हुए दोनों ने मदिरा हलक से नीचे उतर दी!
फिर मैंने वाचाल -प्रेत का आह्वान किया, वो हाज़िर हुआ और मुस्तैद हो गया! उसके बाद कारण-पिशाचिनी का आह्वान कर उसको भी राजी कर लिया, दोनों मुस्तैद हो गए!
और अब वहाँ!
मैंने देख प्रयोग की!
वहाँ का नज़ारा भी कुछ ऐसा ही था!
दो आसान बिछाये गए थे!
एक पर बैठा था बाबा दम्मो और एक पर वो दम्भी रिपुष!
दो साध्वियां थीं वहाँ, श्रृंगारपूर्ण!
दोनों पुष्ट देहों की सर्वांगनी!
दो त्रिशूल गड़े थे वहाँ और ग्यारह कपाल सजाये गए थे! शत्रु-भेदन का समुचित प्रबंध किया गया था! भूमि को श्वेत-सूत से, कीलित किया गया था, लकड़ियां भूमि में गाड़ कर उन पर सूत बाँध कर कीलन किया गया था! उसी में मध्य चौकोर स्थान में बैठे थे वे चार! वे चार! जिनका उद्देश्य था शत्रु भेदन!
वहाँ मदिरा-कर्म आरम्भ हुआ, अलख भोग दिया गया और साध्वी-स्तम्भन किया गया!
फिर बाबा दम्मो ने अलख से बात करते हुए अलख-ईंधन दिया और भेरी बजा दी!
द्वन्द की घोषणा हो गयी थी!
वर उन्होंने करना था और मुझे झेलना था, मैंने चुनौती दी थी सो तीन वार उन्हें करने थे और मुझे प्रतिवार कर अपना बचाव करना था!
अब मैंने अपनी साध्वी का स्तम्भन कार्य किया मैंने उसकी एक बार और मदिरा पिला कर, मंत्र की सहायता से मूर्छित कर दिया, वो मृतप्रायः सी हो गयी, मैंने उसको पीठ के बल लिटा दिया अपने सम्मुख, उसकी देख रिक्त थी अतः उस पर मैंने मूत्र विसर्जित कर दिया, और अंगीकार कर लिया, उसको उस समय के लिए शक्ति का रूप दे दिया और भार्या समान उसकी देह के रक्षण हेतु तत्पर हो गया!
अब रिपुष ने आह्वान किया!
भंजन-षोडशी का!
या यूँ कहो सीधे ही तोप से वार करना चाहता था वो! यहाँ, मेरे कानों में नाम सुनाई दिया तो मैंने यमरूढा का आह्वान किया, दोनों तरफ से अपने अपने यन्त्र संचालित होने लगे! अब मैं आपको भंजन-षोडशी के बारे में बताता हूँ, दक्षिण-पूर्व की स्वामिनी वाराही की सहोदरी है ये, ये भातृ-भंजन में अचूक कार्य करती है, शत्रु का ग्रास कर जाती है! ज़रा सी चूक और प्राण हर लेती है! इसको वैराली-सखी भी कहा जाता है! इसकी साधना अत्यंत क्लिष्ट और दुष्कर है! उसका आह्वान कर उन्होंने अपना दम-ख़म दिखाने की चेष्टा की थी! और अब यमरूढा, यमरूद्धा भयानक महाशक्ति है, नेत्रहीन एवं धूमिल छाया देखने वाली, इसको केवल हांका जाता है और शत्रु का शरीर उबाल कर धुँआ छोड़ता पञ्च-तत्व में विलीन हो जाता है, आत्मा प्रेत का रूप धारण कर लेती है, हाँ, वैराली-सखी संग ले जाती है!
'सकड़ सकड़' की से आवाज़ कर वो वहाँ प्रकट हुई और वहाँ से उद्देश्य जानकार लोप हुई, उसके यहाँ प्रकट होने से पहले यमरूढ़ा प्रकट हुई यहाँ और मैंने भोग अर्पित किया! और तभी वहाँ भंजन-षोडशी का आगमन हुआ, लहराती हुई वो आयी और यमरूढ़ा ले काल-पुंज के आलिंगन-कोष में लोप हो गयी! संचार हो उठा मुझ में! मैंने नमन किया और वो लोप हुई!
वहाँ,
दोनों अवाक!
बरसों की सिद्धि का एक फल टूट गया था!
मुझे हलकी सी हंसी आयी! आज दादा श्री का समरण हुआ और उनके वे शब्द, 'काल कवलित सभी को होना है तो कारण लघु क्यों? रोग क्यों? किसी शक्ति का आलिंगन करते हुए प्राण सौंपने चाहियें!" अचूक अर्थ!
दम्भियों के दम्भ-कोट का एक परकोटा ढह गया था! दोनों हैरान और परेशान! अब बाबा दम्मो उठा, घुँघरू बंधा चिंता उठाया उसने और खड़खड़ाया! फिर अपनी एक साध्वी को पेट के बल लिटा, एक पांव उस पर रख और दूसरा हवा में उठा, जाप करने लगा! मेरे कानों में उत्तर आ गया! ये महिषिकिा का आह्वान था! सांड समान बल वाली, दीर्घ देहधारी, भस्मीकृत देह वाली, तांत्रिकों की रक्षक और किसी भी नष्ट को दूर करने वाली! इसका एक वार और प्राण लोक के पार! मेरे कान में शब्द पड़ा!
धान्या-त्रिजा!
अब आपको बता हूँ इनके बारे में, महिषिका भी एक सहोदरी है, एक अद्वित्य महा-शक्ति की! उस महा शक्ति की ये चौंसठवीं कला अर्थात शक्ति है! ये भयानक, और लक्ष्य-केंद्रित कार्य काने में निपुण है! इसी कारण से दम्मो बाबा ने इसका आह्वान किया था!
और अब धान्या-त्रिजा, अक्सर त्रिजा नाम से ही विख्यात है! ये भी एक सहोदरी है, एक महाभीषण महाशक्ति की, क्रम में तेरहवीं है, रिजा का वस् पाताल मन जाता है, अक्सर कंदराओं में ही ये सिद्ध की जाती है! आयु में नवयौवना है, रूप में अनुपम सुंदरी और तीक्ष्ण में महारौद्रिक! दोनों के ही सम्पुष्ट आह्वान ज़ारी थी!
तभी रिपुष ने त्रिशूल उखाड़ा और भूमि पर पुनः वेग के साथ गाड़ दिया! और डमरू बजा दिया तीन बार! अर्थात मैं शरणागत हो जॉन उनके यहाँ! मैंने भी त्रिशूल लिया, वक्राकार रूप से घुमाया और पुनः गाड़ दिया भूमि में और पांच बार डमरू बजाय, अर्थात मैं नहीं, वो चाहें तो कोई हर्ज़ा नहीं, सब माफ़!
पाँव पटके रिपुष ने और तभी एक झटका खा कर रिपुष और दम्मो भूमि पर गिर गए! महिषिका का आगमन होने ही वाला था! साधक को गिरां, पटखने ही उसका आने का चिन्ह है!
"ओ मेरी पातालवासिनी, दर्शन दे!" मैंने कहा,
और अगले ही पाक श्वेत रौशनी मुझ पर पड़ी और मैं नहा गया उसमे, मेरे पास रखे सभी सामान एवं स्व्यं की परछाईं देख ली मैंने!
मैं उठ खड़ा हुआ! नमन किया!
वहाँ महिषिका से मौन-वार्तालाप हुआ और वो वहाँ से दौड़ी लक्ष्य की और, और यहाँ मैं घुटनों पर गिरा त्रिजा के समक्ष बैठा था!
अनुनय करता हुआ!
महिषिका आ धमकी! उसके साथ दो और उप-सहोदरियां, खडग लिए!
समय ठहर गया जैसे!
भयानक काली रात और उसकी कालिम सुंदरता!
जवान इठलाती रात्रि!
परम शांति!
आवाज़ें तो बस सम्मुख जल रही चिता की लकड़ियों से आती चट-चट आवाज़ें!
चमगादड़! यहाँ से वहाँ गुजरते हुए जैसे टोह ले रहे हों!
और भड़भड़ाती मेरी अलख! जिसने मैंने चिता की लकड़ी की सहायता से उठाया था! नवयौवना के मदमाती देह की जैसे मादक-चाल!
शमशान में मेरे मंत्र ऐसे गूँज रहे थे जैसे शिथिल पड़े हुए धौंकनी रुपी शमशान में हवा भर दी जा रही हो और वो अब फुफकारने लगी हो!
चिता से उठता धुआ हमारे अस्तित्व की पहचान लिए इस भूलोक से विदा लिए जा रहा था!
मैंने तभी अलख भोग दिया और दो कपाल कटोरे निकाले, उनमे मदिरा परोसी और एक कटोरा साध्वी को दिया और एक खुद ने लिए, महानाद करते हुए दोनों ने मदिरा हलक से नीचे उतर दी!
फिर मैंने वाचाल -प्रेत का आह्वान किया, वो हाज़िर हुआ और मुस्तैद हो गया! उसके बाद कारण-पिशाचिनी का आह्वान कर उसको भी राजी कर लिया, दोनों मुस्तैद हो गए!
और अब वहाँ!
मैंने देख प्रयोग की!
वहाँ का नज़ारा भी कुछ ऐसा ही था!
दो आसान बिछाये गए थे!
एक पर बैठा था बाबा दम्मो और एक पर वो दम्भी रिपुष!
दो साध्वियां थीं वहाँ, श्रृंगारपूर्ण!
दोनों पुष्ट देहों की सर्वांगनी!
दो त्रिशूल गड़े थे वहाँ और ग्यारह कपाल सजाये गए थे! शत्रु-भेदन का समुचित प्रबंध किया गया था! भूमि को श्वेत-सूत से, कीलित किया गया था, लकड़ियां भूमि में गाड़ कर उन पर सूत बाँध कर कीलन किया गया था! उसी में मध्य चौकोर स्थान में बैठे थे वे चार! वे चार! जिनका उद्देश्य था शत्रु भेदन!
वहाँ मदिरा-कर्म आरम्भ हुआ, अलख भोग दिया गया और साध्वी-स्तम्भन किया गया!
फिर बाबा दम्मो ने अलख से बात करते हुए अलख-ईंधन दिया और भेरी बजा दी!
द्वन्द की घोषणा हो गयी थी!
वर उन्होंने करना था और मुझे झेलना था, मैंने चुनौती दी थी सो तीन वार उन्हें करने थे और मुझे प्रतिवार कर अपना बचाव करना था!
अब मैंने अपनी साध्वी का स्तम्भन कार्य किया मैंने उसकी एक बार और मदिरा पिला कर, मंत्र की सहायता से मूर्छित कर दिया, वो मृतप्रायः सी हो गयी, मैंने उसको पीठ के बल लिटा दिया अपने सम्मुख, उसकी देख रिक्त थी अतः उस पर मैंने मूत्र विसर्जित कर दिया, और अंगीकार कर लिया, उसको उस समय के लिए शक्ति का रूप दे दिया और भार्या समान उसकी देह के रक्षण हेतु तत्पर हो गया!
अब रिपुष ने आह्वान किया!
भंजन-षोडशी का!
या यूँ कहो सीधे ही तोप से वार करना चाहता था वो! यहाँ, मेरे कानों में नाम सुनाई दिया तो मैंने यमरूढा का आह्वान किया, दोनों तरफ से अपने अपने यन्त्र संचालित होने लगे! अब मैं आपको भंजन-षोडशी के बारे में बताता हूँ, दक्षिण-पूर्व की स्वामिनी वाराही की सहोदरी है ये, ये भातृ-भंजन में अचूक कार्य करती है, शत्रु का ग्रास कर जाती है! ज़रा सी चूक और प्राण हर लेती है! इसको वैराली-सखी भी कहा जाता है! इसकी साधना अत्यंत क्लिष्ट और दुष्कर है! उसका आह्वान कर उन्होंने अपना दम-ख़म दिखाने की चेष्टा की थी! और अब यमरूढा, यमरूद्धा भयानक महाशक्ति है, नेत्रहीन एवं धूमिल छाया देखने वाली, इसको केवल हांका जाता है और शत्रु का शरीर उबाल कर धुँआ छोड़ता पञ्च-तत्व में विलीन हो जाता है, आत्मा प्रेत का रूप धारण कर लेती है, हाँ, वैराली-सखी संग ले जाती है!
'सकड़ सकड़' की से आवाज़ कर वो वहाँ प्रकट हुई और वहाँ से उद्देश्य जानकार लोप हुई, उसके यहाँ प्रकट होने से पहले यमरूढ़ा प्रकट हुई यहाँ और मैंने भोग अर्पित किया! और तभी वहाँ भंजन-षोडशी का आगमन हुआ, लहराती हुई वो आयी और यमरूढ़ा ले काल-पुंज के आलिंगन-कोष में लोप हो गयी! संचार हो उठा मुझ में! मैंने नमन किया और वो लोप हुई!
वहाँ,
दोनों अवाक!
बरसों की सिद्धि का एक फल टूट गया था!
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धान्या-त्रिजा!
अब आपको बता हूँ इनके बारे में, महिषिका भी एक सहोदरी है, एक अद्वित्य महा-शक्ति की! उस महा शक्ति की ये चौंसठवीं कला अर्थात शक्ति है! ये भयानक, और लक्ष्य-केंद्रित कार्य काने में निपुण है! इसी कारण से दम्मो बाबा ने इसका आह्वान किया था!
और अब धान्या-त्रिजा, अक्सर त्रिजा नाम से ही विख्यात है! ये भी एक सहोदरी है, एक महाभीषण महाशक्ति की, क्रम में तेरहवीं है, रिजा का वस् पाताल मन जाता है, अक्सर कंदराओं में ही ये सिद्ध की जाती है! आयु में नवयौवना है, रूप में अनुपम सुंदरी और तीक्ष्ण में महारौद्रिक! दोनों के ही सम्पुष्ट आह्वान ज़ारी थी!
तभी रिपुष ने त्रिशूल उखाड़ा और भूमि पर पुनः वेग के साथ गाड़ दिया! और डमरू बजा दिया तीन बार! अर्थात मैं शरणागत हो जॉन उनके यहाँ! मैंने भी त्रिशूल लिया, वक्राकार रूप से घुमाया और पुनः गाड़ दिया भूमि में और पांच बार डमरू बजाय, अर्थात मैं नहीं, वो चाहें तो कोई हर्ज़ा नहीं, सब माफ़!
पाँव पटके रिपुष ने और तभी एक झटका खा कर रिपुष और दम्मो भूमि पर गिर गए! महिषिका का आगमन होने ही वाला था! साधक को गिरां, पटखने ही उसका आने का चिन्ह है!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
महिषिका आ धमकी! साथ में दो उप-सहोदरि अपने अपने अस्त्र लिए! यहाँ त्रिजा भी प्रकट हो गयी थी! आमना-सामना हुआ उनका और फिर त्रिजा के समक्ष नतमस्तक हुई महिषिका और भन्न! दोनों ही लोप!
बावरे हुए वे दोनों! महिषिका नतमस्तक हुई! ये कैसे हुआ! कैसे! कैसे????
मैंने अट्ठहास किया!
दो कांटे मैं काट चुका था!
अब मैं अपने आसान पैर बैठा और अधंग-जाप किया! ये जाप क्रोध का वेग हटा देता है! मेरी देख फिर आरम्भ हुई!
वहाँ अब जैसे मरघट की शान्ति छाई थी!
"भोड़िया!"
हाँ! भौड़िया!
यही शब्द आया मेरे कानों में!
अर्थात, नरसिंहि की भंजन-शक्ति!
नरसिंहि! इसके बारे में आप जानकारी जुटा सकते हैं! हाँ, ये अष्ट-मात्रिकाओं में से एक हैं!अब अष्ट-मात्रिकाओं के बारे में भी आप जानिये, बताता हूँ, जब अन्धकासुर का वध करने हेतु, महा-औघड़ और शक्ति ने प्रयास किया तब महा-औघड़ ने शक्ति से कह कर अष्ट-मातृकाएँ प्रकट कीं, ये वैसे चौरासी हैं, अन्धकासुर को वरदान और अभयदान मिला, और ये अष्ट-मात्रिकाएं फिर देवताओं का ही भक्षण करने लगीं! तब इनको सुप्तप्रायः कर इनको विद्यायों में परिवर्तित कर दिया गया, इन्ही चौरासी मात्रिकाओं में से ही नव-मात्रिकाएं अथवा लौहिताएँ बाबा दम्मो ने प्रसन्न कर ली थीं!
"बोल?" रिपुष ने चुनौती दी!
"कहा!" मैं अडिग रहा!
"पीड़ित?" उसने कहा,
"भक्षण" मैंने चेताया,
उसने त्रिशूल लहराया!
मैंने भी लहराया!
उसने चिमटा खड़खड़ाया!
मैंने भी बजा कर उत्तर दिया!
अब बाबा दम्मो ने त्रिशूल से हवा में एक त्रिकोण बनाया! उसका अर्थ था भौड़िया का आह्वान! साक्षात यमबाला! प्राण लेने को आतुर!
"क्वांग-सुंदरी!" मेरे कानों में उत्तर आया! गांधर्व कन्या!
अब मैंने उसका आह्वान किया!
वहाँ भीषण आह्वान आरम्भ हुआ और यहाँ भी!
करीब दस मिनट हुए!
क्वांग-सुंदरी प्रकट हुई!
मैंने भोग अर्पित किया!
नमन किया!
और वहाँ प्रकट हुई यमबाला भौडिआ!
भौड़िया!
इक्यासी नवयौवनाओं से सेवित!
प्रौढ़ आयु!
श्याम वर्ण!
हाथों में रक्त-रंजित खडग!
मुंह भक्षण को तैयार!
केश रुक्ष!
गले में मुंड-माल, बाल!
नग्न वेश!
नृत्य-मुद्रा!
प्रकट हो गयी वहाँ!
उद्देश्य जान उड़ चली वायु की गति से! प्रकट हुई और क्वांग-सुंदरी समख लोप हुई! जैसे सागर ने कोई पोखर लील लिया हुआ तत्क्षण! शीघ्र ही अगले ही पल क्वांग-सुंदरी भी लोप!
ये देख वे दोनों औघड़ बौराये! समझ नहीं आया कि क्या करें!
मैंने त्रिशूल हिलाया!
उन्होंने भी हिलाया!
मैं आसन से उठा!
कपाल उठाया और अपने सर पर रखा!
उन्होंने कपाल के ऊपर पाँव रखा!
अर्थात वे नहीं मान रहे थे हार!
डटे हुए थे!
बावरे हुए वे दोनों! महिषिका नतमस्तक हुई! ये कैसे हुआ! कैसे! कैसे????
मैंने अट्ठहास किया!
दो कांटे मैं काट चुका था!
अब मैं अपने आसान पैर बैठा और अधंग-जाप किया! ये जाप क्रोध का वेग हटा देता है! मेरी देख फिर आरम्भ हुई!
वहाँ अब जैसे मरघट की शान्ति छाई थी!
"भोड़िया!"
हाँ! भौड़िया!
यही शब्द आया मेरे कानों में!
अर्थात, नरसिंहि की भंजन-शक्ति!
नरसिंहि! इसके बारे में आप जानकारी जुटा सकते हैं! हाँ, ये अष्ट-मात्रिकाओं में से एक हैं!अब अष्ट-मात्रिकाओं के बारे में भी आप जानिये, बताता हूँ, जब अन्धकासुर का वध करने हेतु, महा-औघड़ और शक्ति ने प्रयास किया तब महा-औघड़ ने शक्ति से कह कर अष्ट-मातृकाएँ प्रकट कीं, ये वैसे चौरासी हैं, अन्धकासुर को वरदान और अभयदान मिला, और ये अष्ट-मात्रिकाएं फिर देवताओं का ही भक्षण करने लगीं! तब इनको सुप्तप्रायः कर इनको विद्यायों में परिवर्तित कर दिया गया, इन्ही चौरासी मात्रिकाओं में से ही नव-मात्रिकाएं अथवा लौहिताएँ बाबा दम्मो ने प्रसन्न कर ली थीं!
"बोल?" रिपुष ने चुनौती दी!
"कहा!" मैं अडिग रहा!
"पीड़ित?" उसने कहा,
"भक्षण" मैंने चेताया,
उसने त्रिशूल लहराया!
मैंने भी लहराया!
उसने चिमटा खड़खड़ाया!
मैंने भी बजा कर उत्तर दिया!
अब बाबा दम्मो ने त्रिशूल से हवा में एक त्रिकोण बनाया! उसका अर्थ था भौड़िया का आह्वान! साक्षात यमबाला! प्राण लेने को आतुर!
"क्वांग-सुंदरी!" मेरे कानों में उत्तर आया! गांधर्व कन्या!
अब मैंने उसका आह्वान किया!
वहाँ भीषण आह्वान आरम्भ हुआ और यहाँ भी!
करीब दस मिनट हुए!
क्वांग-सुंदरी प्रकट हुई!
मैंने भोग अर्पित किया!
नमन किया!
और वहाँ प्रकट हुई यमबाला भौडिआ!
भौड़िया!
इक्यासी नवयौवनाओं से सेवित!
प्रौढ़ आयु!
श्याम वर्ण!
हाथों में रक्त-रंजित खडग!
मुंह भक्षण को तैयार!
केश रुक्ष!
गले में मुंड-माल, बाल!
नग्न वेश!
नृत्य-मुद्रा!
प्रकट हो गयी वहाँ!
उद्देश्य जान उड़ चली वायु की गति से! प्रकट हुई और क्वांग-सुंदरी समख लोप हुई! जैसे सागर ने कोई पोखर लील लिया हुआ तत्क्षण! शीघ्र ही अगले ही पल क्वांग-सुंदरी भी लोप!
ये देख वे दोनों औघड़ बौराये! समझ नहीं आया कि क्या करें!
मैंने त्रिशूल हिलाया!
उन्होंने भी हिलाया!
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