हम चाय का मज़ा ले रहे थे, तभी छगन का वहाँ आना हुआ, ओ जिस से मिलकर आया था वो एक स्त्री थी, छगन के गाँव की स्त्री, छगन हमारी तरफ बढ़ा तो मैंने कहा, "मिल आये छगन?"
"हाँ जी" वो बोरा और अपना झोला एक तरफ रख दिया,
"कुछ लाया है क्या वहाँ से?" मैंने पूछा,
"हाँ, कुछ सामान है" उसने बताया,
"अच्छा" मैंने कहा,
"सोचा लेता आऊं, बाद में नहीं आना होता इधर" वो बोला,
"चल ठीक रहा" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोला,
"जा चाय ले आ अंदर से" मैंने कहा,
वो चाय लेने चला गया,
"गुरु जी, ये छगन क्या करने जाता था उस जोगन के पास?" शर्मा जी ने पूछा,
"ऐसे ही जाता होगा, मिलने के लिए" मैंने कहा,
"हम्म" वे बोले,
"और वैसे भी जोगन बहुत कम मिला करती थी मिलने वालों से" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
छगन चाय ले आया इस बीच, चाय पीने लगा,
"आज शाम निकलते हैं छह बजे, क्यों छगन?" मैंने पूछा,
"हाँ, चलते हैं" वो बोला,
"और सुना छगन, कोई ऐसी बात जो काम की हो?" मैंने पूछा,
"ऐसी तो कोई बात नहीं, हाँ एक बात मुझे खटकती थी वहाँ" वो बोला,
"क्या?" अब मैंने चौंका,
"बिलसा जब भी आती थी तो अक्सर उसके साथ एक लड़की होती थी" वो बोला,
"लड़की?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"कैसी लड़की?'' मैंने पूछा
"बाहरी" उसने कहा,
बाहरी मतलब किसी डेरे की नहीं,
"क्या उम्र होगी उसकी?" मैंने पूछा,
"बीस-बाइस से ज्यादा नहीं होगी" वो बोला,
अब रहस्य में एक गाँठ और लगा दी थी कस के छगन ने!
"बिलसा कुल कितनी बार आयी होगी मिलने के लिए?" मैंने पूछा,
"करीब छह-सात बार, चार-पांच महीने में" वो बोला,
"अच्छा" मैंने कहा,
इसके बाद मैं चिंता में पड़ा, कौन लड़की? किसलिए आती थी? क्या कारण था? खैर, अब इसका पता बिलसा या रंगा से मिल सकता था, और आज शाम हम जाने वाले थे वहाँ,
मैं और शर्मा जी अपने कमरे में आ गए, छगन नहाने धोने चला गया,
"अब ये लड़की कौन?" शर्मा जी ने पूछा,
"पता नहीं?" मैंने कहा,
'वो भी बाहरी?" उन्होंने पूछा,
"पता करते हैं आज" मैंने कहा,
"ये तो रहस्य गहराता जा रहा है" वे बोले,
"हाँ, अवश्य ही कुछ गड़बड़ है, पक्का" मैंने कहा,
"अंदेशा है मुझे भी ऐसा" उन्होंने ऐसा कह और मोहर दाग दी!
"बाहरी, अर्थात कोई और" मैंने स्व्यं से सवाल किया,
"लेकिन कौन? किसलिए?" एक और सवाल!
इसी उहापोह में आगे का समय कटा, खैर जी, खाना खाया और फिर टहलने के बाद वापिस कक्ष में आ गए हूँ तीनों, पांच बज चुके थे और छह बजे करीब निकलना था वहाँ से, सो सोचा थोडा सा आराम और फिर कूच!
इस बीच छगन ने मुझे कुछ और बातें भी बताईं, कुछ ज़रूरी भी और कुछ ऐसे ही!
और अब बजे छह,
"चलो" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और हम निकल गए,
डेरू बाबा के डेरे पहुंचे. अब वहाँ रौनक सी थी, हम अंदर गए और फिर संचालक से हमने रंगा पहलवान से मिलने की इच्छा जताई, अपना परिचय भी दिया,
"आप लोग बैठिये, मैं बुलवा लेता हूँ" संचालक ने कहा,
"ठीक है, धन्यवाद" मैंने कहा,
हम कक्ष में बैठ गए!
और थोड़ी देर बाद रंगा पहलवान आ गया अपनी पत्नी बिलसा के साथ, चेहरे पर अजीब से भाव लिए!
सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
रंगा पहलवान अन्दर आया और सामने पड़े मूढ़े पर बैठा गया, देह उसकी पहलवान की ही थी, जवानी में खूब पहलवान रहा होगा, पता चलता था, उसकी पत्नी वहीँ एक चारपाई पर बैठ गयी, अब मैंने बात आरम्भ की, "रंगा, मैं दिल्ली से आया हूँ, पद्मा जोगन के बारे में जानना चाहता हूँ, तुम्हारी पत्नी बिलसा अक्सर उसके पास जाया करती थी"
"हाँ, जाया करती थी" उसने कहा,
"कोई लड़की भी जाती थी बिलसा के साथ, कोई बाहरी लड़की" मैंने पूछा,
"हाँ, वो लड़की मेरी भतीजी है, कोलकाता में रहती है" उसने बताया,
"तुमको तो मालूम है, पद्मा जोगन अचानक से गायब हो गयी थी?" मैंने कहा और सीधे ही मुख्य विषय पर आ गया,
"हाँ, सुना था" उसने कहा,
"क्या पद्मा जोगन ने इस बारे में कभी बिलसा को कुछ बताया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्या बिलसा कुछ कहेगी इस बारे में?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"आप बताइये कि क्यों बताये?" उसने कहा,
"मैं तो जानना चाहता हूँ कि कुछ सुराग मिल जाए कुछ उसका?'' मैंने कहा,
"आप जानना चाहते हैं?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"बताता हूँ" उसने कहा,
अब मेरे कान खड़े हुए!
"पद्मा जोगन ने स्व्यं कहीं जाकर समाधि ले ली है, कहाँ ये नहीं पता, यदि पता होता तो मैं आपको अवश्य ही बताता, जितना जानता हूँ उतना ही बताया है" वो बोला,
"ये तुमको कहाँ से पता चला?" मैंने पूछा,
"मुझे एक औघड़ दीना नाथ ने बताया था" वो बोला,
उसकी आवाज़ में लरज़ नहीं थी, कपट नहीं था, छल नहीं था, अस्वीकार नहीं किया जा सकता था!
"अच्छा! ये औघड़ दीनानाथ कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"ये सियालदह में ही है" उसने मुझे फिर पता भी दे दिया,
अब हमारा काम यहाँ ख़तम हो गया था, रंगा ने भरसक बताया था, यक़ीन करना ही था, चोर में साहस नहीं होता, नहीं तो वो चोरी ही न करे!
अब हम उठे वहाँ से और फिर वापिस चल दिए अपने डेरे की तरफ, रंगा पहलवान छोड़ने आया हमको बाहर तक, नमस्कार हुई और फिर हम वापिस चल पड़े!
"हाँ, जाया करती थी" उसने कहा,
"कोई लड़की भी जाती थी बिलसा के साथ, कोई बाहरी लड़की" मैंने पूछा,
"हाँ, वो लड़की मेरी भतीजी है, कोलकाता में रहती है" उसने बताया,
"तुमको तो मालूम है, पद्मा जोगन अचानक से गायब हो गयी थी?" मैंने कहा और सीधे ही मुख्य विषय पर आ गया,
"हाँ, सुना था" उसने कहा,
"क्या पद्मा जोगन ने इस बारे में कभी बिलसा को कुछ बताया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्या बिलसा कुछ कहेगी इस बारे में?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"आप बताइये कि क्यों बताये?" उसने कहा,
"मैं तो जानना चाहता हूँ कि कुछ सुराग मिल जाए कुछ उसका?'' मैंने कहा,
"आप जानना चाहते हैं?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"बताता हूँ" उसने कहा,
अब मेरे कान खड़े हुए!
"पद्मा जोगन ने स्व्यं कहीं जाकर समाधि ले ली है, कहाँ ये नहीं पता, यदि पता होता तो मैं आपको अवश्य ही बताता, जितना जानता हूँ उतना ही बताया है" वो बोला,
"ये तुमको कहाँ से पता चला?" मैंने पूछा,
"मुझे एक औघड़ दीना नाथ ने बताया था" वो बोला,
उसकी आवाज़ में लरज़ नहीं थी, कपट नहीं था, छल नहीं था, अस्वीकार नहीं किया जा सकता था!
"अच्छा! ये औघड़ दीनानाथ कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"ये सियालदह में ही है" उसने मुझे फिर पता भी दे दिया,
अब हमारा काम यहाँ ख़तम हो गया था, रंगा ने भरसक बताया था, यक़ीन करना ही था, चोर में साहस नहीं होता, नहीं तो वो चोरी ही न करे!
अब हम उठे वहाँ से और फिर वापिस चल दिए अपने डेरे की तरफ, रंगा पहलवान छोड़ने आया हमको बाहर तक, नमस्कार हुई और फिर हम वापिस चल पड़े!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
औघड़ दीनानाथ! अब इस से मिलना था! और ये सियालदाह में था, अर्थात अब वापिस सियालदह जाना था उस से मिलने के लिए, जहां का पता था वो जगह काफी जंगल जैसी थी, वहाँ क्रियाएँ आदि हुआ करती थीं, साधारण लोग वहाँ नहीं जा सकते थे, काहिर हमको तो जाना ही था, बिलसा और रंगा दोनों ही कड़ी से बाहर थे अब, और वो लड़की भी! अब फिर से थकाऊ यात्रा करनी थी! तीन सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा, पूरा दिन लग जाना था! पर क्या करें, जाना तो था ही!
तो मित्रो, हम तीनों निकल पड़े वहाँ से अगले दिन सुबह, नाश्ता कर लिया था, भोजन बाद में कहीं करना था, हमने बस पकड़ी और निकल दिए! हिलते-डुलते, ऊंघते-जागते आखिर रात को सियालदह पहुँच गए! जाते ही अपने अपने बिस्तर में घुस गए, थकावट के मारे चूर चूर हो गए थे, लेटे हुए भी ऐसा लग रहा था जैसे बस में ही बैठे हैं! फिर भी, नींद आ ही गयी! हम सो गए!
जब सुबह उठे तो सुबह के आठ बजे थे, शर्मा जी जाग चुके थे और कक्ष में नहीं थे, छगन दोहरा हुआ पड़ा था अपने बिस्तर में! मैं भी उठा और दातुन की, फिर स्नान करके आया और फिर अपने बिस्तर पर बैठ आज्ञा, छगन को जगाया और छगन नमस्ते कर बाहर चला गया! अब शर्मा जी आ गए, वे नहा-धो चुके थे पहले ही!
"कहाँ घूम आये?" मैंने पूछा,
"दूध पीने गया था" वे बोले,
'वाह! राघव मिला?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी ने प्रबंध किया" वे बोले,
"बढ़िया है" मैंने कहा,
"आप चलिए?" उन्होंने पूछा,
"यहीं आ जाएगा राघव अभी" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अच्छा गुरु जी?" उन्होंने कहा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"कहाँ जाना है आज?" वे बोले,
"है यहाँ से कोई बीस किलोमीटर" मैंने कहा,
"कब चलना है?" वे बोले,
"चलते हैं कोई ग्यारह बजे" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी एक सहायक आया, लोटा लाया, लोटे में दूध और साथ में एक गिलास, साथ में रस्क! मैंने पीना आरम्भ किया!
"दूध बढ़िया है" मैंने कहा,
"गाय का है जी" वे बोले,
'वाह!" वे बोले,
"अब शहर में ऐसा दूध कहाँ!" मैंने कहा,
"हाँ जी!" वे बोले,
मैंने दूध समाप्त किया!
"शर्मा जी?' मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"अभी थोड़ी देर बाद चलते हैं बाहर, मुझे एक महिला से मिलना है" मैंने कहा,
"कौन?" वे बोले,
"श्रद्धा" मैंने कहा,
"समझ गया" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"उचित है" वे बोले,
श्रद्धा वहाँ रेलवे विभाग में कार्यरत थीं, उनसे मिलने जाना था, मेरे पुराने जानकारों में से एक हैं वे!
फिर कुछ देर बाद!
"चलें?" मैंने पूछा,
"चलिए" मैंने कहा,
और हम दोनों फिर निकल पड़े श्रद्धा से मिलने के लिए!
उनके घर!
तो मित्रो, हम तीनों निकल पड़े वहाँ से अगले दिन सुबह, नाश्ता कर लिया था, भोजन बाद में कहीं करना था, हमने बस पकड़ी और निकल दिए! हिलते-डुलते, ऊंघते-जागते आखिर रात को सियालदह पहुँच गए! जाते ही अपने अपने बिस्तर में घुस गए, थकावट के मारे चूर चूर हो गए थे, लेटे हुए भी ऐसा लग रहा था जैसे बस में ही बैठे हैं! फिर भी, नींद आ ही गयी! हम सो गए!
जब सुबह उठे तो सुबह के आठ बजे थे, शर्मा जी जाग चुके थे और कक्ष में नहीं थे, छगन दोहरा हुआ पड़ा था अपने बिस्तर में! मैं भी उठा और दातुन की, फिर स्नान करके आया और फिर अपने बिस्तर पर बैठ आज्ञा, छगन को जगाया और छगन नमस्ते कर बाहर चला गया! अब शर्मा जी आ गए, वे नहा-धो चुके थे पहले ही!
"कहाँ घूम आये?" मैंने पूछा,
"दूध पीने गया था" वे बोले,
'वाह! राघव मिला?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी ने प्रबंध किया" वे बोले,
"बढ़िया है" मैंने कहा,
"आप चलिए?" उन्होंने पूछा,
"यहीं आ जाएगा राघव अभी" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अच्छा गुरु जी?" उन्होंने कहा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"कहाँ जाना है आज?" वे बोले,
"है यहाँ से कोई बीस किलोमीटर" मैंने कहा,
"कब चलना है?" वे बोले,
"चलते हैं कोई ग्यारह बजे" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी एक सहायक आया, लोटा लाया, लोटे में दूध और साथ में एक गिलास, साथ में रस्क! मैंने पीना आरम्भ किया!
"दूध बढ़िया है" मैंने कहा,
"गाय का है जी" वे बोले,
'वाह!" वे बोले,
"अब शहर में ऐसा दूध कहाँ!" मैंने कहा,
"हाँ जी!" वे बोले,
मैंने दूध समाप्त किया!
"शर्मा जी?' मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"अभी थोड़ी देर बाद चलते हैं बाहर, मुझे एक महिला से मिलना है" मैंने कहा,
"कौन?" वे बोले,
"श्रद्धा" मैंने कहा,
"समझ गया" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"उचित है" वे बोले,
श्रद्धा वहाँ रेलवे विभाग में कार्यरत थीं, उनसे मिलने जाना था, मेरे पुराने जानकारों में से एक हैं वे!
फिर कुछ देर बाद!
"चलें?" मैंने पूछा,
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और हम दोनों फिर निकल पड़े श्रद्धा से मिलने के लिए!
उनके घर!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
हम श्रद्धा जी के घर पहुंचे, भव्य और विनम्र स्वागत हुआ, मुझे दिल्ली की वापसी कि भी टिकट करानी थी, सो चाय आदि पी कर और ब्यौरा देकर हम वापिस आ गए यहाँ से, जब वापिस आये तो छगन वहीँ मिला हमसे, अब हमको दीनानाथ औघड़ के पास जाना था, अतः एक फटफटी सेवा लेकर उसमे बैठकर हम पहुँच गए दीनानाथ के ठिय़े पर, बाहर कुछ लोग खड़े थे, जैसे कोई तैयारी चल रही हो, किसी आयोजन की! पता चला ये एक बाबा नेतराम का आश्रम है और औघड़ दीनानाथ आजकल यही शरण लिए हुए हैं! हम अंदर गए, छगन रास्ता बनाता संचालिका के पास पहुंचा, और दीनानाथ औघड़ के बारे में मालूमात की, एक सहायक हमको दीनानाथ के कक्ष तक ले गया और हमने कक्ष में प्रवेश किया, अंदर दीनानाथ कौन स था पता नहीं था, पता करने पर पता चल गया, वो कोई पचास बरस का औघड़ रहा होगा, दरम्याना क़द था उसका, लम्बी-लम्बी काली सफ़ेद दाढ़ी थी और शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो भस्मीभूत ना हो! गले में और भुजाओं में तांत्रिक आभूषण सुसज्जित थे उसके!
"आइये बैठिये" वो बोला,
हम बैठ गए!
"कहिये, क्या काम है?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगा, उसी के बारे में बात करनी है" मैंने कहा,
वो ना तो चौंका और ना ही चेहरे के भाव बदले उसके! हाँ, कुछ पल शांत हुआ और अपने चेले-चपाटों को उसने बाहर भेज दिया,
"क्या बात करनी है उसके बारे में?" उसने पूछा,
"वो गायब हो गयी अचानक से, क्या आपको कुछ मालूम है?'' मैंने पूछा,
वो शांत हुआ!
कुछ देर दाढ़ी पर हाथ फिराया!
"बला!" वो बोला,
"बला?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ बला!" वो बोला,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो लिबो सिक्का, वही बला" उसने कहा,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी की वजह से वो गायब हुई होगी, खबर तो ये हर जगह थी" वो बोला,'
"हुई होगी?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"आपने वो सिक्का देखा था?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"हम्म" मैंने कहा,
और मैं अब अधर में था!
"किसको जानकारी थी?" मैंने पूछा,
"नुकरा नुकरा पर" उसने कहा,
अर्थात नुक्कड़ नुक्कड़ पर!
"आपके हिसाब से क्या हुआ होगा?" मैंने पूछा,
"मार दिया होगा, गाड़ दिया होगा कहीं किसी ने?" उसने भौंहे उचकाते हुए कहा,
"और वो खुद कहीं चली गयी हो तो?" मैंने पूछा,
"हो सकता है" वो बोला,
अब तक चाय आ गयी, पीतल के कपों में! हमने चाय पीनी आरम्भ की,
"आपने 'खोज' नहीं की उसकी?" मैंने पूछा,
"क्या ज़रुरत?" उसने मेरी बात काट दी!
अब मामला और गम्भीर!
"आइये बैठिये" वो बोला,
हम बैठ गए!
"कहिये, क्या काम है?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगा, उसी के बारे में बात करनी है" मैंने कहा,
वो ना तो चौंका और ना ही चेहरे के भाव बदले उसके! हाँ, कुछ पल शांत हुआ और अपने चेले-चपाटों को उसने बाहर भेज दिया,
"क्या बात करनी है उसके बारे में?" उसने पूछा,
"वो गायब हो गयी अचानक से, क्या आपको कुछ मालूम है?'' मैंने पूछा,
वो शांत हुआ!
कुछ देर दाढ़ी पर हाथ फिराया!
"बला!" वो बोला,
"बला?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ बला!" वो बोला,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो लिबो सिक्का, वही बला" उसने कहा,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी की वजह से वो गायब हुई होगी, खबर तो ये हर जगह थी" वो बोला,'
"हुई होगी?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"आपने वो सिक्का देखा था?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"हम्म" मैंने कहा,
और मैं अब अधर में था!
"किसको जानकारी थी?" मैंने पूछा,
"नुकरा नुकरा पर" उसने कहा,
अर्थात नुक्कड़ नुक्कड़ पर!
"आपके हिसाब से क्या हुआ होगा?" मैंने पूछा,
"मार दिया होगा, गाड़ दिया होगा कहीं किसी ने?" उसने भौंहे उचकाते हुए कहा,
"और वो खुद कहीं चली गयी हो तो?" मैंने पूछा,
"हो सकता है" वो बोला,
अब तक चाय आ गयी, पीतल के कपों में! हमने चाय पीनी आरम्भ की,
"आपने 'खोज' नहीं की उसकी?" मैंने पूछा,
"क्या ज़रुरत?" उसने मेरी बात काट दी!
अब मामला और गम्भीर!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
दीनानाथ का बताने का लहज़ा बहुत रूखा था, उसने ये दिखाया था कि वो क्या जाने क्या हुआ पद्मा जोगन का! ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी थी, अब मेरा लहजा भी उसी की तरह हो गया!
"देख लगा लेते तो 'खोज' हो जाती" मैंने कहा,
"मैंने बताया नहीं? क्यों?" उसने मुझे घूर के कहा,
"इसलिए कि कम से कम वो आज ज़िंदा होती" मैंने कहा,
"और फिर और मुसीबत पैदा किया करती" उसने कहा,
"नहीं, आवश्यक नहीं ये" उसने कहा,
खैर, अब ये स्पष्ट हो ही गया कि दीनानाथ के हृदय में कोई जगह नहीं पद्मा जोगन के लिए, चाहे वो जिए या मरे!
"ठीक है, कोई बात नहीं" मैंने कहा,
उसने हाथ जोड़े,
"चलता हूँ" मैंने कहा,
"अब आप लगा लो देख" उसने कहा,
व्यंग्य किया,
"हाँ, वो तो लगाऊंगा ही" मैंने कहा,
"पता चल जाए तो मुझे भी बता देना" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब मैं वहाँ से निकला, मुंह का स्वाद कड़वा कर दिया था उसके व्यवहार ने, अब देख लगानी ही थी मुझे! अन्य कोई रास्ता नहीं था, खोज ज़रूरी ही थी! मैंने पद्मा जोगन के रहस्य से पर्दा उठाना चाहता था, चाहे किसी को कोई फ़र्क़ पड़े या नहीं परन्तु मुझे उत्सुकता थी जहां एक तरफ वहाँ निजी चाह भी थी!
अब हम वहाँ से वापिस आये, मैं अपने स्थान पर पहुंचा, मैंने छगन से किसी जगह के बारे में पूछा, उसने हामी भर ली, जगह का प्रबंध हो गया,
अगली दोपहर मैं छगन के साथ उसके स्थान पर पहुँच और एक खाली स्थान पर कुछ सामग्रिया आहूत कर मैंने देख लगायी, पहली देख भम्मा चुड़ैल की थी, वो खाली हाथ आयी, दूसरी देख वाचाल की, वो भी खाली हाथ आया, तीसरी देख कारिंदे की और वो भी बेकार! अब निश्चित था कोई अनहोनी घटी है पद्मा जोगन के साथ, अब मेरे पास देख थी एक ख़ास, शाह साहब भिश्ती वाले! मैंने शाह साहब का रुक्का पढ़ा, एक पेड़ के तने में एक चौकोर खाना छील और उसमे काजल भर दिया, अब दरख़्त को पाक कर मैंने शाह साहब की देख लगायी, पहले एक रास्ता दिखा, उस रास्ते पर बुहारी करने वाला आया, फिर एक भिश्ती आया, पानी छिड़क कर जगह साफ़ की, फिर एक तखत बिछाया गया, और उस पर क़ाज़ी साहब बैठे, शाह साहब, उनको पद्मा जोगन के बारे में पूछा गया और उनके नेमत और मेहरबानी से कहानी आगे बढ़ी, तीन-चार मिनट में ही कहानी पता चल गयी, मैंने शाह साहब का शक्रिया किया और फिर पर्दा ढाँपने के लिए अपनी पीठ उनकी तरफ कर ली! शाह साहब की सवारी चली गयी! और मेरे हाथ मेरा सवाल का उत्तर लग गया!
मैं वापिस आया वहाँ से, छगन और शर्मा जी वहीँ बैठे था,
"काढ़ लिया?" छगन ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"खूब!" वो बोला
"हाँ" मैंने कहा,
"हत्या हुई उसकी?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"बता दूंगा" मैंने कहा,
"जी" वो बोला.
अब हम वहाँ से अपने स्थान के लिए निकल पड़े!
"देख लगा लेते तो 'खोज' हो जाती" मैंने कहा,
"मैंने बताया नहीं? क्यों?" उसने मुझे घूर के कहा,
"इसलिए कि कम से कम वो आज ज़िंदा होती" मैंने कहा,
"और फिर और मुसीबत पैदा किया करती" उसने कहा,
"नहीं, आवश्यक नहीं ये" उसने कहा,
खैर, अब ये स्पष्ट हो ही गया कि दीनानाथ के हृदय में कोई जगह नहीं पद्मा जोगन के लिए, चाहे वो जिए या मरे!
"ठीक है, कोई बात नहीं" मैंने कहा,
उसने हाथ जोड़े,
"चलता हूँ" मैंने कहा,
"अब आप लगा लो देख" उसने कहा,
व्यंग्य किया,
"हाँ, वो तो लगाऊंगा ही" मैंने कहा,
"पता चल जाए तो मुझे भी बता देना" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब मैं वहाँ से निकला, मुंह का स्वाद कड़वा कर दिया था उसके व्यवहार ने, अब देख लगानी ही थी मुझे! अन्य कोई रास्ता नहीं था, खोज ज़रूरी ही थी! मैंने पद्मा जोगन के रहस्य से पर्दा उठाना चाहता था, चाहे किसी को कोई फ़र्क़ पड़े या नहीं परन्तु मुझे उत्सुकता थी जहां एक तरफ वहाँ निजी चाह भी थी!
अब हम वहाँ से वापिस आये, मैं अपने स्थान पर पहुंचा, मैंने छगन से किसी जगह के बारे में पूछा, उसने हामी भर ली, जगह का प्रबंध हो गया,
अगली दोपहर मैं छगन के साथ उसके स्थान पर पहुँच और एक खाली स्थान पर कुछ सामग्रिया आहूत कर मैंने देख लगायी, पहली देख भम्मा चुड़ैल की थी, वो खाली हाथ आयी, दूसरी देख वाचाल की, वो भी खाली हाथ आया, तीसरी देख कारिंदे की और वो भी बेकार! अब निश्चित था कोई अनहोनी घटी है पद्मा जोगन के साथ, अब मेरे पास देख थी एक ख़ास, शाह साहब भिश्ती वाले! मैंने शाह साहब का रुक्का पढ़ा, एक पेड़ के तने में एक चौकोर खाना छील और उसमे काजल भर दिया, अब दरख़्त को पाक कर मैंने शाह साहब की देख लगायी, पहले एक रास्ता दिखा, उस रास्ते पर बुहारी करने वाला आया, फिर एक भिश्ती आया, पानी छिड़क कर जगह साफ़ की, फिर एक तखत बिछाया गया, और उस पर क़ाज़ी साहब बैठे, शाह साहब, उनको पद्मा जोगन के बारे में पूछा गया और उनके नेमत और मेहरबानी से कहानी आगे बढ़ी, तीन-चार मिनट में ही कहानी पता चल गयी, मैंने शाह साहब का शक्रिया किया और फिर पर्दा ढाँपने के लिए अपनी पीठ उनकी तरफ कर ली! शाह साहब की सवारी चली गयी! और मेरे हाथ मेरा सवाल का उत्तर लग गया!
मैं वापिस आया वहाँ से, छगन और शर्मा जी वहीँ बैठे था,
"काढ़ लिया?" छगन ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"खूब!" वो बोला
"हाँ" मैंने कहा,
"हत्या हुई उसकी?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"बता दूंगा" मैंने कहा,
"जी" वो बोला.
अब हम वहाँ से अपने स्थान के लिए निकल पड़े!
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(रेशमा - मेरी पड़ोसन complete).....(मेरी मस्तानी समधन complete)......
(भूत प्रेतों की कहानियाँ complete)....... (इंसाफ कुदरत का complete).... (हरामी बेटा compleet )-.....(माया ने लगाया चस्का complete). (Incest-मेरे पति और मेरी ननद complete ).
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