Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )

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Sexi Rebel
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Re: Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )

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वह एक बलिष्ठ व फुर्तीले जिस्म का मालिक था।सफेद चमकता हुआ चेहरा...काली खूबसूरत दाढ़ी.बड़ी-बड़ी आंखे...सुख लिबास..वह मजबूत शख्स बरहा को अपने कंधे पर डाले तेजी से दौड़ रहा था। वह यूं ही दौड़कर बस्ती से दूर दरिया के किनारे पहुंचा |फिर वह नूरानी चेहरे वाला सुर्खपोश दरिया में उतर गया। बरहा उसके कंधे पर बेसुध पड़ी थी। इस बरसाती नदी में अधिक पानी नहीं था। वह तेज-तेज चलता नदी पार करने लगा |जब वह दूसरे किनारे पर पहुंचा तो अचानक उसकी नजर सामने खड़े एक शख्स पर पड़ी। उसका उस्तरा फिरा सिर था जो सफेद चादर में लिपटा हुआ था। हाथ में एक लोहे की जंजीर थी। वह देवांग था। वह बड़ी खूखार नजरों से इस सुर्ख लिबास वाले को देख रहा था जो बरहा को कन्धे पर डाले दरिया से बाहर निकलने को था ।इससे पहले कि वह लाल लिबास वाला नदी से बाहर निकलता, देवांग ने आगे बढ़कर उस लाल लिबास वाले पर अपनी जंजीर से वार किया। अगर लोहे की वह भारी जंजीर उस लाल लिबास वाले कि सिर पर पड़ जाती तो उसका सिर यकीनन फट जाता...लेकिन वह लाल लिबास वाला उसे देखते ही होशियार हो चुका था ।सुर्ख लिबास वाले ने जंजीर के वार को अपने हाथ पर रोक लिया। न सिर्फ रोक लिया बल्कि उसने जंजीर को पकड़कर एक जोरदार झटका दिया। देवांग को इसकी आशा नहीं थी। वह अपनी जंजीर के साथ नदी में आ गिरा ।वह लाल लिबास वाला बड़ी फुर्ती से नदी से निकला और इससे पहले कि देवांग नदी से निकलकर दोबारा वार करता...वह तेजी से जंगल की तरफ दौड़ने लगा। वह लाल लिबास वाला हवा-वेग से दौड़ रहा था। यूं जब देवांग नदी से निकलकर ऊपर किनारे पर आया, तब तक वह लाल लिबास वाला जंगल में घुस गायब हो चुका था ।उसे कहीं न देख, देवांग की जान निकल गई।

वह परमान की अमानत की सुरक्षा ठीक से नहीं कर पाया था। वह तो सोच भी नहीं सकता था कि कोई बरहा को इस तरह उठाकर ले जाएगा। आखिर यह शख्स था कौन? उसने परमान के चुनाव पर हाथ डालने की जुर्रत कैसे की |पर यह वक्त यह सब सोचने का नहीं था। वह तेजी से दौड़ता हुआ जंगल में प्रवेश कर गया कि वो किसी बरहा को इस आसानी से तो नहीं ले जाने दे सकता था ।परन्तु जंगल में प्रवेश कर देवांग ने आंखें फाड़-फाड़ चारों तरफ देखा। जंगल के बाहर तो थोड़ा उजाला था...लेकिन यहां तो थोड़ी रोशनी भी न थी और ऐसा घने पेड़ों के सबब था। उसके हाथ-पांव फूल गए। कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करे? किस तरफ जाए? जंगल में तो सैकड़ों रास्ते थे और वह लाल लिबास वाला जिस तेज रफ्तारी से जंगल में घुसा था...वो तो न जाने किस रास्ते पर कितना अंदर जा चुका होगा?किसी अनजान दिशा में उसका पीछा करना व्यर्थ था ।यह वक्त तत्काल ही कोई फैसला करने का था। उसे परमान को मदद के लिए पुकार लेना चाहिये कि अगर उसे ज्यादा देर हो गई तो वह बरहा को पा न सकेगा। यही सोचकर वह एक पेड़ के तने की तरफ बढ़ा ।देवांग ने कुछ अजीब से ऊल-जलूल शब्द अपने मुंह से निकाले और जंजीर को जोर-जोर से पेड़ के तने पर रगड़ा ।पेड़ से फौरन चिंगारियां निकलने लगीं।अब देवांग बड़े दर्द भरे लहजे में चीखा-"परमान मदद...परमान मदद.. !

और कुछ ही क्षण बीते थे कि हूरा उसके सामने आ खड़ा हुआ। देवांग को ऐसा लगा जैसे हूरा उसी पेड़ से कूदा हो।“मैं हूं हूरा...।" उसने प्रगट होते ही नारा लगाया।

हूरा...वो एक सुर्ख लिबास वाला बरहा को उठाकर भाग रहा है...!" देवांग असहाय चीखा। क्या...?

हाय, देवांग तूने यह क्या किया।" हूरा उसे घूरते बोला-"अच्छा, मेरे साथ आ...।"
उसने देवांग का हाथ पकड़ लिया-"किधर गया है वो...?"

"मैंने उसे जंगल में दाखिल होते देखा था...।" देवांग ने बताया \

हरा ने उससे कोई सवाल नहीं किया। उसने अपने कंधे पर लटकी घन्टी उतारी और उसे तीन बार बजाया और फिर घन्टी में झांकने लगा, घन्टी के अन्दर उसे जाने क्या नजर आया कि उसने देवांग का हाथ पकड़ लिया और बोला-"भाग देवांग..!"फिर हूरा उसे लेकर जंगल में भागने लगा ।दो-चार मिनट में ही देवांग हांफने लगा। हूरा इस कदर तीव्र गति से भाग रहा था कि देवांग उसका साथ नहीं दे पा रहा था...हालांकि हूरा न दौड़ रहा था और ना ही तेज चल रहा था..इसके बावजूद धरती उसके पैरों के नीचे से खिसक रही थी।हूरा ने उसे हांफते देखा तो उसका हाथ छोड़ दिया।

"देवांग, तू मेरी घन्टी की आवाज पर पीछे आ...मैं आगे चलात हूं। वो 'हुर्रा बहुत तेज रफ्तार से दौड़ रहा है।" यह कहकर हूरा ने जंजीर में बंधी घन्टी जोर से जमीन पर मारी.. रेत का एक बादल-सा उठा और हूरा आंखों से ओझल हो गया। घन्टी की आवाज धीरे-धीरे कम होती जा रही थी।देवांग इस आवाज पर सरपट दौड़ने लगा।

वो लाल लिबास वाला जो जंगल में काफी अंदर निकल आया था। उसे अचानक खतरे का अहसास हुआ तो वो एक पेड़ के नीचे रूक गया ।उसने जल्दी से अपने कुर्ते के बटन खोलकर गले में पड़ा 'ताबीज' अपने हाथ में लिया और जल्दी-जल्दी कुछ पढ़कर जैसे अपने आपसे बोला-"खलस बढ़ रहा है...दोस्त तुम कहां हो...?"

"हम यहां हैं तुम्हारे पास...।“जवाब मिला और वे एक-एक करके आनन-फानन में ही उसके सामने प्रगट हो गये।वे पांच थे और उनका हुलिया भी वही था जो इस लाल लिबास वाले का था। शक्लें भी मिलती-जुलती थीं। यही लगता था जैसे वे सगे भाई हों।

"दोस्तों, मैं इस लड़की को लेकर निकलता हूं। तुम उस 'शैतान' का इंतजार करो। देखो, वो मेरे पीछे न आने पाये...।"
बरहा को सम्भाले हुए, सुर्खपोश बोला।

"ठीक है, तुम जाओ। हम देखते हैं उस मनहूस को। वह हमारे हाथों से निकलकर आगे नहीं जा सकेगा। तुम निश्चिन्त होकर अपना सफर जारी रखो...।" उन चारों में से एक ने कहा।

फिर पहले वाले 'सुर्खपोश' ने समय नष्ट करना उचित नहीं समझा और बरहा को लेकर पहले की तरह विधुतीय गति से दौड़ने लगा।अभी उसे आगे बढ़े कुछ ही देर हुई थी कि वो 'मनहूस' वहां आ पहुंचा। उन पांचों ने उसकी घेराबंदी कर दी थी। पहले चरण में एक 'सुर्खपोश (लाल लिबास वाला) ने एक पेड़ की आड़ से अपनी टांग निकाल कर अड़ाई।हूरा धाड़ से मुंह के बल जमीन पर गिरा |उसे अपनी ताकत पर बड़ा घमण्ड था,

और हकीकत में कोई अगर उसके मुकाबले पर आता तो वो उसे मच्छर की तरह मसल दिया करता था। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ने टांग अड़ाई थी और धूल चटा दी थी ।वो गिरते ही तेजी से उठा..बड़ी फुर्ती से पलटा और उसने वह जंजीर हाथ में ले ली जिसमें घन्टी बंधी थी। उसने जंजीर को गुस्से में कुछ इस तरह झटका दिया कि घन्टी बुरी तरह बज उठी। कौन है? किसने अपनी मौत को दावत दी है। आओ, सामने आओ... |

और वो सुर्खपोश जिसने उसे अड़गा मारकर गिराया था..वो पेड़ की ओट से निकल आया। दोनों में एक-दूसरे के सामने आकर एक-दूसरे को घूरा ।

किस बस्ती का है तू.?" हूरा ने उसके हुलिये पर नजर मारकर पूछा।

भगवान की बस्ती का..उस सर्वशक्तिमान का एक तुच्छ सेवक..।" सुर्खपोश ने इत्मीनान से जवाब दिया।

बरहा को किस लिए अगवा किया गया है?" हुरा ने गुस्से से पूछा । जंजीर में लटकी घन्टी बार-बार रही थी।"

हमने अगवा नहीं किया। हमने तो शैतानों से उसे छुड़ाया है। मुक्त कराया है उस मासूम बच्ची को। वह किसी की अमानत है...।" सुर्खपोश ने जवाब दिया। उसकी नजरें हूरा के साथ-साथ अपने साथियों को भी देख रही थीं...जो पीछे से हरा के गिर्द अपना घेरा तंग कर रहे थे।

"क्या बकता है.? वह सिर्फ परमान की अमानत है... उसका चुनाव है। उसे परमान से कोई नहीं छीन सकता ।जाओ...वह बच्ची फौरन मेरे हवाले कर दो, वरना...देख लो मौत तुमसे ज्यादा दूर नहीं है..।" हूरा ने धमकी दी।

धमकी मत दे, खब्बीस! वह बच्ची तो यहां से बहुत दूर जा चुकी ।

"नहीं... ।” कहते हुए हूरा ने जंजीर घुमाई।इससे पहले कि वह घन्टी सामने खड़े 'सुर्खपोश' के सिर पर लगली...पीछे खड़े एक सुर्खपोश ने वह जंजीर हूरा के हाथ से छीन ली और एक भी क्षण गंवाये बिना घुमाकर हूरा के ही सिर पर दे मारी। पीतल की भारी घन्टी जब हूरा के सिर पर पड़ी तो उसने अपने सिर में आग भरती हुई महसूस की...उसकी आंखों के सामने अंधेरा-सा छा गया ।उस सुर्खपोश ने एक ही वार पर बस नहीं किया था, उसने दो-तीन घन्टियां और हूरा के सिर पर मारी । हूरा किसी शहतीर की तरह जमीन पर आ रहा और अपने होश गंवा बैठा।उस सुर्खपोश ने घन्टी वाली जंजीर हूरा के चौड़े-चकले सीने पर डाल दी और सामने खड़े सुर्खपोश की तरफ देखा जिसने अड्गी मारकर हूरा को गिराया था।वो सुर्खपोश खामोश खड़ा जैसे कुछ सुनने की कोशिश कर रहा था।

"कोई दौड़ता हुआ इस तरफ आ रहा है..हालांकि अभी वो कुछ फासले पर है..।" उसने अपने साथियों को बताया।

"ठीक है...उसे भी आने दो। उसे भी ठिकाने लगाने के बाद वापिस चलेंगे...। फिर वे पांचों बेसुध हूरा के इर्द-गिर्द ही पेड़ों के पीछे छिप कर बैठ गये और आने वाले का इंतजार करने लगे कुछ ही देर बीती थी कि पेड़ों की ओट से देवांग बाहर आया। वह यथासम्भव तेजी से दौड़ता हुआ आ रहा था। उसने जमीन पर पड़े हुए हूरा को देखा तो उसकी सिट्टी गुम हो गई। हूरा चारों खानों चित बेहोश पड़ा था और उसकी घन्टी उसके चौड़े-चकले सीने पर रखी थी। यह देखकर उसकी आंखें फट चली कि हूरा के फटे हुए सिर से खून बहकर जमीन को 'नीला' कर रहा है। खौफ की एक जहर देवांग के अंदर उठी और उसने घबराकर चारों तरफ देखा। उसे आसपास कोई नजर नहीं आया। उसने राहत की सांस ली और सोचने लगा कि अब क्या करें? उल्टे कदमों वापिस अपनी बस्ती चला जाये या फिर बच्ची को उठा ले जाने वाले का पीछा करे?पीछा करने का परिणाम तो उसके सामने जमीन पर जख्मी हालत में पड़ा था...अब एक ही रास्ता था कि वापिस लौट जाए। वह वापिस जाने कि लिये मुड़ने को ही था कि उसकी नजर अचानक एक सुर्खपोश पर पड़ी जो मुस्कुराते हुए एक पेड़ के तने के पीछे से नमुदार हो रहा था ।फिर देवांग की नजरें एक जगह न ठहर सकीं...क्योंकि एक सुर्खपोश दाएं से एक पेड़ की ओट से बाहर आ रहा था..तो दूसरा सामने से चला आ रहा था। कोई पेड़ से कूद रहा था तो कोई बायीं तरफ से मुसकुराता हुआ उसके सामने आ रहा था। वो देखता भी तो किधर-किधर देखता?कुछ ही क्षणों में वे पांचों के पांचों उसके सामने थे ।देवांग को पसीने छूट गये।
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वो हूरा का अंजाम देख चुका था और हूरा की तुलना में तो वो खुद कुछ भी नहीं था। उसने निकल भागने के लिए इधर-उधर नजरें दौड़ाईं, लेकिन उन पांचों ने उसके गिर्द कुछ इस तरह घेरा तंग किया था कि वो उनके घेरे से निकल कर नहीं भाग सकता था। हां, एक रास्ता था कि वो किसी बंदर की तरह छलांग मारकर पेड़ पर चढ़ जाये। पर वो बंदर कहां था।

"हां, भाई। अब तू क्या चाहता है? इस देव का तो हग्न तूने देख लिया?" एक सुर्खपोश ने हंसते हुए पूछा।

मैं कुछ नहीं चाहता...मैं वापिस अपनी बस्ती जाना चाहता हूं।" देवांग ने घिघियाकर कहा ।

"ठीक है..अगर तू वापिस जाना चाहता है..तो हम तुझे कुछ न कहेंगे। जा, तू वापिस चला जा, और हां, अपने इस लम्बू को भी अपने कंधे पर डालकर ले जा। वरना यहां पड़ा-पड़ा यह मर जाएगा... " एक सुर्खपोश ने उसे जैसे हुक्म सुनाया था।

आओ दोस्तो चलो...।" दूसरा सुर्खपोश बोला ।और फिर वो जिस तरह प्रकट हुए थे, कुछेक क्षणों में वैसे ही गायब भी हो गये। देवांग उन्हें देखता ही रहा गया।
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बाप और दादी, उस बच्ची की बेचैनी से प्रतीक्षक थे, जिसके बारे में अरूणिमा ने भविष्यवाणी की थी कि वह शुक्रवार की प्रातः को उसकी हवेली पहुंच जाएगी और इसके लिए उसने अपने तांत्रिक अमल के बाद किसी अदृश्य शक्ति को आदेश भी दिया था कि ऐसा होना ही चाहिये ।अब आठ बज रहे थे। सूरज काफी चढ़ आया था और उन्हें यानी नफीसा बेगम और समीर राय को हवेली के दरवाजे पर बैठे और बाहरी दरवाजे पर नजरें टिकाये, आने वाली की राह तकते बहुत देर हो चुकी थी।यह सुबह तेजी से बीत रही थी, बीत रही थी और समीर राय क दिल पर निराशा के बादल छाते जा रहे थे। वह कभी बाहरी मुख्य गेट को देखता था और कभी अपनी मां की तरफ देखने लगता था। मां, जिसने उम्मीद का दामन न छोड़ा था, मुस्कुरा देती। उसकी ममतामयी मुस्कान समीर को हौसला देती थी...पर आखिर कब"मेरा ख्याल है अम्मी...हम अपना वक्त जाया कर रहे हैं। हवेली के नौकर-चाकर हमारे बारे में जाने क्या सोच रहे होंगे... ।“समीर राय ने अंततः कहा।

"नहीं समीर, ऐसा मत सोचो । उस अरूणिमा ने कहा है तो तुम्हारी बच्ची मेरी पौत्री हमारे पास जरूर वापिस आएगी।" नफीसा बेगम ने विश्वास के साथ ही उसे समझाने की कोशिश की।

अभी वे आशा-निराशा की ये बातें ही कर रहे थे कि समीर राय की नजरें बाहरी गेट की तरफ गईं और वह उछल पड़ा। एक बहुत प्यारी-सी...बहुत खूबसूरत बच्ची गेट से दाखिल हो चुकी थी।"अम्मी, उधर देखो...।" समीर चीख ही तो उठा था-"मेरी बच्ची आ गई...मेरी बच्ची आ गई। अम्मी आपकी पौत्री आ गई...

'"हा..हा...वही है..यह यकीनन मेरी पौत्री है।" नफीसा बेगम की आंखें भर आई ।बरहा बड़ी तेजी से सीधी दौड़ी चली आ रही थी। समीर राय बेअख्तयार होकर उकसी तरफ बढ़ा। नफीसा बेगम भी पीछे कहां रही थी। बरहा ठिठकी और अपनी तरफ भागकर आते देख समीर को घूरने लगी। समीर ने खुद को सम्भाला और फिर धीरे-धीरे चलता बरहा से पांच कदम के फासले पर आ रूका। मेरी बच्ची...।" समीर ने अपनी बांहें फैला दी थी.वह फिर आगे बढ़ा-"तुम यकीनन मेरी बच्ची हो...।"

"आप कौन हैं..?" बरहा ने बड़ी मासूमियत से सवाल किया।

"मैं तुम्हारा बदनसीब बाप हूं..तुम्हारा बाबा हूं, बेटी...।'' उसने लपक कर बरहा को अपनी बांहों में उठा लिया और उसे बेतहाशा चूमने लगा।

बरहा ने भी अपनी नन्हीं बाहें उसकी गर्दन के गिर्द डाल दी थीं और बरहा अब निकट आती नफीसा बेगम को निहार रही थी।"यह कौन है...?" बरहा ने मासूमियत से पूछा।

"यह तुम्हारी दादी हैं, बेटा...।" समीर प्यार से बोला ।

"यह दादी क्या होता है..?" बरहा के मासूम सवाल बढ़ते ही जा रहे थे।

मेरी जान... । यह मेरी मां हैं..तुम्हारी दादी... "

"अच्छा... ।” बरहा ने समझने वाले अंदाज में गर्दन हिलाई...जैसे इस रिश्ते को समझ गई हो।

नफीसा बेगम निकट आ चुकी थी। उन्होंने बच्ची को समीर से झपट लियां'मेरी बच्ची. मेरी जान. । आज! आज मैं कितनी खुश हूं...।" वह खुशी से पागल हो रही थी |समीर ने उसे फिर मां से ले लिया और उसके फूल से गाल पर प्यार करते हुए पूछा-'बेटी तुम्हारा नाम क्या है...?"

"बरहा...।" उसने अपना नाम बताया, उसकी आवाज भी तो बड़ी प्यारी थी..मधुर थी। जैसे संगीत लहरी।

बरहा..." समीर राय ने जरा हैरत से दोहराया। उसे यह नाम अजीब-सा लगा था-"तुम्हारा यह नाम किसने रखा..?"

"परमान ने...।'' वह बोली।

''यह परमान कौन है...?"

"वह 'बुतों का राजा' है...सांपो का बादशाह है....।" बरहा ने बताया।

“सांपों का बादशाह..."समीर हैरान हुआ।

"हां, सर्पराज!" बरहा ने जैसे खुलकर समझाया-"उसके सिर पर एक सुनहरा सांप हर वक्त कुण्डली मारे बैठा रहता है और परमान एक बहुत बड़े कमरे में 'बुतों' से खेलता रहता है...।"

"तुम कहां रहती थीं..?"

"मैं नहीं जानती । बस इतना जानती हूं कि वहां सांप ही सांप थे... ।

समीर की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी-"तुम्हारी परवरिश किसने की..?"

"मुझे तबूह और दरसी ने पाला..दोनों ने मुझे बड़े प्यार से रखा..।" बरहा ने बताया।

"और इस वक्त तुम्हें यहां तक कौन लाया?''

मुझे कुछ ही दिन पहले सांपों की बस्ती से देवांग के घर पहुंचाया गया था। देवांग की मां पार्वती ने भी बहुत से सांप पाल रखे थे वहीं से मुझे एक लाल कपड़ों वाले शख्स ने उठाया..वहीं मुझे इस घर के सामने छोड़ गया है। उसने मुझे आपके बारे में बहुत-सी बातें बताईं...तब मुझे मालूम हुआ कि मैं असल में आपकी बेटी हूं...। मैं आपकी बेटी हूं?"

"हां, मेरी जान । तुम मेरी बेटी हो। अब तुम्हें मुझसे कोई नहीं छीन सकेगा...।" समीर ने उसे अपने सीने के साथ भींच लिया ।

इस बीच हवेली के तमाम मुलाजिम उनके गिर्द उमड़ आये। वे हैरान भी थे व खुश भी । बरहा को देखकर वे नारे लगाने लगे-"आहा, छोटी मालकिन आ गई... ।

समीर राय ने बरहा को लोंगसरी की गोद में दे दिया। लोंगसरी ने उसे बहुत प्यार किया व फिर उसे हवेली के नौकर-चाकरों से मिलाया। जिस बच्ची के बारे में भविष्यवाणी की गई थी-'कि वो यहां रही तो हवेली वीरान और सुनसान हो जाएगी उसी बच्ची की आमद ने हवेली की फिजा में रंग भर दिये थे। हर तरफ खुशी नाच रही थी। मेले का सा समां था।
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Re: Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )

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देवांग की बस की बात न थी कि वो हूरा जैसे देव को अपने कंधे पर उठाकर ठिकाने पर ले जाता। उसने हूरा के सिर का जायजा लिया ।उसका सिर तीन जगह से फटा हुआ था और 'नीला खून' सिर से बहकर जमीन पर जम गया था। उसने हूरा के बायें पैर के अंगूठे को पकड़कर जोर से एक झटका दिया। इस झटके से उसका खुला हुआ मुंह और भी खुल गया..मगर वह होश में नहीं आया। मुंह खुलते ही देवांग को अंदाजा हो गया कि वह अभी मरा नहीं है।देवांग ने कुछ सोचा और फिर दोनों हाथों में रेत भरकर उसके सिर के जख्मों पर बरसाई । रेत उसके सिर के छोटे व सख्त बालों में भर गई। कुछ ही क्षणों में उस रेत ने अपना असर दिखाया। उसके जख्म तेजी से लुप्त हो गये और कुछ देर बाद ही उसने अपनी आंखें खोल दीं ।उसने अपने सामने देवांग को पाया और स्वयं को जमीन पर। उसे बड़ी ग्लानि का अहसास हुआ...वह एक झटके से उठकर बैठ गया और फिर अगले ही क्षण खड़ा हो गया। उसने अपने सिर पर अपना भारी हाथ फेरा तो रेत झड़ने लगी सिर से रेत झाड़ कर उसने जंजीर से बंधी घन्टी जमीन से उठाई और कंधे पर लटका ली। फिर उसने देवांग की तरफ देखा और जैसे सफाई देते बोला-"वे कई थे। मैंने उसे अकेल समझा। उन्होंने मुझ पर छिप कर वार किया, वरना मैं उन्हें जिन्दा न छोड़ता...

''मैं जानता हूं, हूरा! वे पांच थे..और छोटा वो था जो बरहा को ले उड़ा। मैं बेबस था। मैं क्या करता...।" देवांग ने असहाय-निराश स्वर में कहा।

"देवांग, तू बरहा की हिफाजत नहीं कर सका... | यह तेरी गलती है और अपराध भी। तुझे परमान के दरबार में चलना होगा...।" हूरा का लहजा बदल गया।"

हूरा, मैं निर्दोष हूं। मैं इस वक्त नदी पर नहाने आया था, जब उस सुर्ख लिबास वाले ने बरहा को बस्ती से निकाला। देवांग ने अपनी सफाई देने की कोशिश की।

अब तूने जो कुछ कहना है, परमान के सामने कहना है। तुझे मेरे साथ चलना होगा...।“ हूरा ने सर्द स्वर में कहा और इसके साथ ही उसने अपने कंधे से जंजीर उतारी और देवांग के दोनों हाथ जंजीर से जकड़ दिये और जंजीर पकड़े-पकड़े झुककर उसे अपने कन्धे पर डाला और फिर वह अपने विशिष्ट अंदाज में चलने लगा।
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अगले ही दिन, समीर राय अपनी मां के साथ, बरहा को लेकर अरूणिमा के घर पर उसकी सेवा में पहुंचा यह भविष्यवक्ता नवयौवना तो उसके लिए एक फरिश्ता साबित हुई थी ।समीर राय ने जाते ही अरूणिमा के चरणों में नजराना पेश किया...कई कीमती जोड़े, मिठाई और नगद पन्द्रह हजार रूपये ।

अरूणिमा के कोमल चेहरे पर सख्ती के भाव उपजे। वह खिन्न स्वर में बोली-“मैं जानती हूं कि आप अपने इलाके के बहुत बड़े जमींदार हैं और यह सब कछ आपके लिये बहुत मामूली है। लेकिन शायद आप नहीं जानते कि मैं आपसे भी बड़ी 'भू-स्वामिनी' हूं। मेरे दिल की जमीन इतनी बड़ी है कि आपका पूरा इलाका इसमें समा जाए। यह सब चीजें यहां से उठाइये और अपनी बेटी की आमद पर मेरी तरफ से मुबारकबाद कबूल कीजिये... ।

समीर राय उसकी सूरत ही देखता रह गया। नफीसा बेगम ने कुछ कहना चाहा तो अरूणिमा ने हाथ उठा दिया, बोली-"इस बारे में प्लीज कुछ न कहें। ये चीजें आपको वापिस ले जानी होंगी। मैं यहां नजराने-तोहफे कबूल करने नहीं बैठी हूं...।''

समीर ने खामोशी से वे चीजें उठाईं और बाहर जाकर लोंगसरी के हवाले कर आया। बरहा को अरूणिमा ने अपनी गोद में बैठा लिया था और उससे हंस-हंस कर बातें कर रही थी।"अरूणिमा बीवी, हम आपके बहुत शुक्रगुजार हैं। आपने जैसा कहा, वैसा हो गया। हमारी खोई हुई बच्ची हमें मिल गई। अब एक प्राब्लम और है..।" नफीसा बेगम ने विजयपूर्ण स्वर में कहा ।

“वो समस्या भी हल हो जाएगी..हमने सोच लिया है। समीर राय साहब, आप तीन दिन बाद हमारे पास आइयेगा और एक साबुत नारियल लेते आइयेगा। लेकिन आइयेगा अकेले...!"
यह कह कर वह कमरे से निकल गई ।

नफीसा बेगम की खुशी भरी नजरें अपने बेटे की तरफ उठ गई थीं।वह समझ गई थी कि इस चमत्कारी अरूणिमा ने नमीरा की गुत्थी सुलझाने को कह दिया है तो यह गुत्थी भी जरूर सुलझ जाएगी। यानी कि अब उसक बेटे की जिन्दगी में सुकून ही सुकून होगा। तब वह समीर राय की शादी के बारे में भी कुछ तय कर लेगी।

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हूरा, चौथे दरवाजे से हालनुमा कमरे में दाखिल हुआ। सर्पराज परमान कमरे में मौजूद था। वह हमेशा की तरह 'बुतों' को इधर-से-उधर कर रहा था, यानी कि फैसले की घड़ी थी। रानी मलायका उसके साथ-साथ चल रही थी।जब हूरा ने देवांग को सुर्ख ईंटों के फर्श पर पटका और जंजीर में बंधी घन्टी जोर से बजी तो परमान ने फौरन पलट कर देखा और यह देखकर हैरान रह गया कि देवांग के हाथ जंजीर में बंधे हुए हैं और वह दया मांगती निगाहों से उसकी तरफ देख रहा है।

'अरे हूरा, क्या हुआ उसे?" परमान ने निकट आते हुए पूछा ।

परमान यह तेरी अमानत की हिफाजत न कर सका...।'' हूरा ने बताया।

"क-क्या..?" परमान स्तब्ध रह गया-"यह कैसे हुआ..?"\


"चल देवांग, जल्दी बोल... । हूरा उसे बंधन मुक्त करते बोला ।

"परमान, इसमें मेरा कोई दोष नहीं...वो न जाने कौन था, उसने मेरे घर से बरहा को उठाया..मुझे उठाकर नदी में फेंका। जब मेरी मदद को हूरा आया तो वे एक के छ: हो गये। उन्होंने हूरा का सिर फाड़ दिया..यह बेहोश हो गया तो उन्होंने मुझे घेर लिया। जिसने बरहा को उठाया था, वो बहुत आगे निकल चुका था। मैं बेबस था परमान। मैं क्या करता...।" देवांग ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए दुहाई दी।

यह तो बहुत बुरा हुआ कि बरहा हमारे हाथ से निकल गई।हमारी सारी मेहनत बेकार गई। रनत्तारों तो पागल हो जाएगा...।“परमान ने रानी मलायका की तरफ देखते हुए कहा ।"अखिर वो कौन लोग थे जिन्होंने ‘परमान की पसन्द' पर हाथ डालने की जुर्रत की..?" रानी मलायका ने देवांग की तरफ देखते पूछा।

मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा...वे हमारी बस्ती के नहीं थे... ।'"

"पर आखिर वे थे कौन..?" परमान गुस्से से बोला-"और तू भी हूरा, उनके काबू में आ गया। जरा मुझे उनके बारे में विस्तार से बता।

और अब हूरा ने...उस पर जो गुजरी थी सब सविस्तार कह सुनाया |

परमान ने एक गहरा सांस लिया, फिर सोचपूर्ण लहजे में बोला-"यह तो कोई और ही मामला मालूम होता है। देवांग तुम वापिस जाओ और ओघड़नाथ से संबन्ध स्थापित करो। तुम्हें उसक साथ मिलकर बरहा को तलाश करना है। याद रहे, अगर बरहा नहीं मिली तो तुम्हारी जिन्दगी की कोई जमानत नहीं दी जा सकती...।'

'जो परमान का आदेश । मैं फौरन जाता हूं..।" देवांग फौरन दरवाजे की तरफ पलटा। वो खुश था । आशा के विपरीत परमान उसे क्षमा कर दिया था। शायद क्षमा तो अभी भी नहीं किया था, लेकिन फिलहाल जान-बख्शी हो गई थी, और इस मिली मोहलत से फायदा उठाया जा सकता था ।वह मुस्कुराता हुआ दरवाजे की तरफ बढ़ गया था।
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तीन दिन बाद!समीर राय नारियल लेकर अकेला अरूणिमा के पास पहुंच गया ।शाम का वक्त था। उसने जैसे ही बेल बजाई, दरवाजा लगभग तुरन्त ही खुला। उसका ख्याल था कि हमेशा की तरह अरूणिमा कि स्वयं अरूणिमा दरवाजे पर मौजूद थी।अरूणिमा ने शालीन मुस्कान के साथ समीर राय का अभिवादन किया, फिर उसे रास्ता देते हुये बोली-" आइये...।"

समीर राय के अंदर आने के बाद अरूणिमा ने दरवाजा बंद करना चाहा तो पीछे से उसकी मां रजनी देवी की आवाज आई-"तुम चलो, बेटा। मैं बन्द करती हूं दरवाजा...।''

अच्छा, अम्मी...।" यह कहकर वह ड्राईंग रूम से होती हुई अपने कमरे में आ गई |सब्ज कालीन पर गाव-तकिये से कमर टिकाकर वह बैठ गई और बोली-“कैसी है आपकी बेटी?"

ठीक है। हवेली में आकर खुश है।"प्र

भु के रंग भी निराले हैं। बहुत प्यारी बच्ची है। प्रभु उसे बुरी नजर से बचाये...।" अरूणिमा ने कहा।

"मैं आपका अहसानमंद हुं कि आपने मेरी बेटी मुझे मिला दी।" समीर आभारी स्वर में बोला था।

"मैं कौन हूं कुछ करने वाली, यह सब प्रभु की कृपा है... | मेहरबानी है अल्लाह की... | खैर...।" वह समीर को
सवालिया नजरों से देखने लगी।

"मैं, जैसा कि आपने कहा था..नारियल ले आया हूं...।"
समीर राय ने रूमाल में बंधा नारियल उसके सामने रख दिया।

"ठीक है। यह नारियल हम ‘पढ़कर आपको देंगे। साथ ही बताएंगे कि आगे क्या करना है।

''जी...।" समीर राय उसका आशय समझ बोला-"मुझे कब आना होगा..?

"तीन दिन बाद...लेकिन अंधेरा होने के बाद आइयेगा... |इस नारियल को आपके हवाले करते वक्त सूरज की रोशनी नहीं पड़नी चाहिये-"। अरूणिमा ने समझाया ।

“क्या नमीरा मुझे मिल जाएगी..?" समीर ने धड़कते दिल के साथ पूछा। हम आपको बता चुके हैं कि आपकी बीवी मर चुकी हैं...।" अरूणिमा ने संजीदगी से कहा-"आपकी पत्नी की लाश एक कुत्ते के मुंह में है। वो उसे घसीट रहा है और उसके जरिये अपने घिनौने प्रयोजन सिद्ध कर रहा है।

"मुझे मेरी बीवी की लाश ही मिल जाये, ताकि मैं उसे अपने हाथों दफन कर सकूँ..।" समीर राय ने भरे गले से कहा।

"लाश तो खैर मिल जाएगी...लेकिन इसके लिए आपको उस कुत्ते को जिन्दा जलाना होगा...।'

"जलाऊंगा...जरूर जलाऊंगा...।" समीर राय ने आवेश में कहा, फिर पूछा-"लेकिन क्या वह वाकई कुत्ता है..?"

"कुत्ता तो नहीं...लेकिन आप उसे कुत्ता ही समझें..बल्कि कुत्ते से भी बदत्तर...।' अरूणिमा ने कटुता के साथ कहा।

कहां है वो..?" समीर राय ने तेजी से पूछा।

"जब हम आपको नारियल देंगे...तभी उससे सम्बन्धित पूरी जानकारी भी देंगे। आप पेरशान न हो...।

"नहीं, मैं परेशान नहीं हूं.बेचैन हूं। मैं...मैं जल्द-से-जल्द नमीरा की लाश हासिल करना चाहता हूं।"

"समीर साहब! हर चीज का एक वक्त मुकर्रर है। हर काम अपने वक्त पर होता है। न एक पल इधर और न एक पल उधर... । हां, खूब याद आया..अपनी बच्ची की सुरक्षा आपने पूरे ध्यान के साथ करनी है। वह अकेली बच्ची की सुरक्षा आपने पूरे ध्यान के साथ करनी है। वह अकेली हवेली से न निकले, और हां, एक बात और बता दें...।" यह कहकर वह कुछ क्षणों के लिए खामोश हो गई।उसकी यह खामोशी समीर राय को बेचैन कर गई। वह कुछ चिन्तित हो उठी थी। उसका चेहरा बता रहा था कि वह जो कुछ कहने वाली है वह कोई प्रसन्नताजनक बात नहीं है। अंततः वह बोली-"आपकी बच्ची पर पंद्रहवां साल बहुत भारी है...।"

ओह...।" समीर राय को धक्का-सा लगा-"क्या होगा..?"

लेकिन उसके इस सवाल का जवाब देने को अरूणिमा वहां नहीं थी।वह खामोशी से कमरे से उठकर जा चुकी थी
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