Incest क्या.......ये गलत है? complete

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Rakeshsingh1999
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Re: क्या.......ये गलत है?

Post by Rakeshsingh1999 »

रात के करीब 2 बज रहे थे। जय के मामा जा चुके थे। तभी प्यास की वजह से जय की नींद खुली। थोड़ी देर तो वो अलसा कर लेता रहा पर जब बर्दाश्त नही हुआ तो उसे झक मारके उठना पड़ा। उसने कदमो को नींद में ही किसी तरह खींचते हुए किचन में घुसा । उसने फिर बिना बत्ती जलाये ही टटोलते हुए फ्रिज का दरवाजा खोला और पानी की बोतल निकालकर पीने लगा। वो अंधेरे में ही खड़ा था। तभी उसे लगा कि किचन में कोई आया है। अचानक आहट सुनने से उसकी नींद काफूर हो गयी। उसने महसूस किया कि आने वाले को उसकी कोई भनक नही है। पहले तो उसे लगा कि कोई चोर है पर जो आया था वो और कोई नहीं उसकी दीदी कविता थी। उसने फ्रिज से खीरा निकाला और बर्फ के टुकड़े और तेजी से बिना देखे अपने कमरे की ओर भागी। जय को लगा कि कुछ तो बात है। जय ने फौरन दरवाज़े पर जाकर देखा कविता सिर्फ ब्लैक पैंटी और हॉफ टॉप पिंक जो कि उसकी नाभि के ऊपर तक ही आ रही थी।  कविता अपने कमरे तक पहुँच कर दाएं बाये देखा और कमरे में घुस गई। उसने सोचा कि उसे किसी ने नहीं देखा। जय ने सोचा कि आखिर इस हालत में कविता खीरा और बर्फ लेने क्यों आयी थी। ये जानने के लिए उसके पास एक ही रास्ता था। कविता का कमरा और जय का कमरा साथ मे ही थे और उन दोनों की खिड़की भी एक तरफ ही गली में खुलती थी।


जय अपने कमरे की ओर भागा और अपनी खिड़की से कूदकर छज्जी पर खड़ा हुआ और सतर्क होकर कविता के कमरे की खिड़की तक पहुंच गया। खिड़की बंद नहीं थी क्योंकि गर्मी का मौसम था और उधर ही कूलर भी लगा था।  जय ने अंदर झांक के देख तो नाईट बल्ब जल रही थी। कुछ समझ में नही आ रहा था। पर कुछ पल बाद उसकी आंखें अभयस्त हो गयी तो सब दिखाई देने लगा।अंदर कविता बिस्तर पर नंगी ही पड़ी हुई थी। और अपने मोबाइल पर ब्लू फिल्म देख रही थी। और वो खीरा जो वो लेके आयी थी उसे अपनी बुर में घुसा कर मूठ मार रही थी। उसने पहले 2 बर्फ के टुकड़े अपनी बुर में घुसा लिया और फिर खीरा घुसाया था। कविता ब्लू फिल्म देखते हुए मूठ मार रही थी। उसकी मुंह से आनंद की किलकारी फुट रही थी। और कुछ कुछ बड़बड़ा भी रही थी। उफ्फ्फ...... आआहह......... हहहम्ममम्म....... ईश श श श...... ये बुर हमको बहुत परेशान करती है.....  पर मज़ा भी यही देती है ऊफ़्फ़फ़फ़। हाय ......
कविता अपने होंठों को दांतों में दबाके बुर के ऊपरी हिस्से को मसल भी रही थी। कविता ने मुंह से थूक निकाला और अपने बुर पर मल दी। और ब्लू फिल्म देखने लगी। ब्लू फिल्म में शायद हीरोइन अपनी गाँड़ मरवा रही थी। कविता ने ये देख तो उसने बर्फ का एक टुकड़ा अपनी सिकुड़ी हुई गाँड़ के छेद में घुसानी चाही। उसने थूक हाथ पर निकाला और गाँड़ के छेद पर मल ली। और बर्फ के टुकड़े को गाँड़ में घुसाने लगी। उसकी गाँड़ की छेद थूक की वजह से काफी गीली हो चुकी थी । लेकिन फिर भी बर्फ का टुकड़ा गाँड़ में घुसाने में उसे काफी मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन घुसाके ही मानी। फिर बड़बड़ाई की पता नही ये हीरोइन कैसे गाँड़ में इतना बड़ा ले लेती हैं। लेकिन मज़ा बहुत आ रहा है और वो लेने में और भी मज़ा आएगा.... आआहह,,... ऊईई....
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Rakeshsingh1999
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Re: क्या.......ये गलत है?

Post by Rakeshsingh1999 »

उधर बाहर से सारा नज़ारा  जय देखकर पागल हो रहा था। अपनी सगी बहन को नंगा बिस्तर पर देख उसका लौड़ा फड़क कर खड़ा हो गया। वो वहीं खड़ा होकर  कविता के निजी पलों को देखकर लौड़ा घिस रहा था। उसने मन में सोचा वाह मेरी दीदी तो मेरी ही जैसी कामुक निकली। क्या माल है कविता, बिल्कुल मस्त जवानी है। मेरी बहन हुई तो क्या है तो एक जवान लड़की, आखिर किसी ना किसी को तो जवानी की सौगात देगी ही, क्यों ना वो मैं ही बनू? तभी उसकी नज़र कविता पर पड़ी जो अचानक से मुड़ी तो उसकी नज़र भी जय पर पड़ी।
 कविता बस उसे देखती ही रही और जय भी उसे ही देखता रहा। कविता ने खुद को चादर से ढक लिया और मोबाइल बन्द कर दिया। जय फिर भी उसे देखता रहा और मूठ मारता रहा। कविता की आंखों में शर्म तैर रही थी, पर नज़रें बेबाक हो अपने भाई को देखती रही। कविता को देखते हुए जय ने उसे एक बार इशारा किया कि दरवाज़ा खोलो। और वो खिड़की से अपने रूम में दाखिल हो कर कविता के दरवाजे पर खड़ा हो गया। कविता की हिम्मत नही हुई कि दरवाज़ा खोले पर जय दरवाज़ा पर से हल्के आवाज़ में ही आवाज़ लगाता रहा कि कविता दीदी दरवाज़ा खोलो। ताकि ममता ना उठ जाए। कविता ने कोई जवाब नही दिया, पर जय लगातार वही खड़ा रहा। कविता को काटो तो खून नही, और हो भी क्यों ना उसके सगे भाई ने उसे नंगा खीरा बुर में घुसाकर मूठ मारते हुए देखा था। करीब 15 मिनट तक ऐसा ही चला।
उधर जय को लगा कि अब कविता दरवाज़ा नहीं खोलेगी , वो निराश हो गया। पर तभी अंदर से छिटकनि खुलने की आवाज़ आयी।


जय ने दरवाज़ा को धक्का दिया , तो देखा कविता अपने बिस्तर पर बैठी थी चादर लपेट कर। कविता को कुछ समझ नही आया था इसीलिए उसने कपड़े नहीं पहने थे। जय ने दरवाज़ा बंद कर दिया और अपनी बहन के पास गया। उसने कविता के चेहरे को ठुड्ढी से पकड़कर ऊपर उठाया, कविता अपने नाखून चबा रही थी। उसने जय की ओर देखा जय ने भी उसे देखा। फिर जय ने बगल से मोबाइल उठाया स्क्रीन लॉक खोला और देखा तो फिर से ब्लू फिल्म चालू हो गयी। उसमे दो लड़के बारी बारी से एक लड़की को चोद रहे थे। उसने उसे चालू ही छोड़ दिया और कविता की आंखों में देखा जैसे पूछ रहा हो कि हमारी दीदी ये सब तुम भी करती हो?  कविता अभी तक अपने नाखून चबा रही थी और जय को देखते हुए उसके आंखों के पूछे सवाल का मानो जवाब दे रही थी कि आखिर मेरी उम्र की लड़कियां माँ बन गयी हैं तो क्या मैं ये सब भी नही कर सकती। 
कविता की आंखों में शर्म जरूर थी पर पश्चाताप नहीं। 
कविता की अभी ताज़ी उतारी हुई पैंटी जो कि कविता के पैरों के नीचे फर्श पर पड़ी हुई थी, को जय ने उठाया और सूँघा, उसपर जैसे काम वासना सवार हो गयी। कविता सब देख रही थी पर कुछ बोली नहीं। कविता के बुर के रस से सरोबार थी वो कच्छी। जय ने फिर अपनी बॉक्सर उतार दी, उसने अंदर कुछ नही पहना हुआ था। उसका करीब आठ इंच का तना हुआ लण्ड बाहर आ गया। उसने कविता की कच्छी को अपने लण्ड पर फंसा लिया। 
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Rakeshsingh1999
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Re: क्या.......ये गलत है?

Post by Rakeshsingh1999 »

कविता ने कुछ नही कहा बस जय से आंखों का संपर्क तोड़कर उसके लण्ड को देखने लगी। बिल्कुल मस्त फूला हुआ सुपाड़ा था, मोटाई भी कोई 3 इंच की रही होगी। कविता के हाँथ अनायास ही लण्ड की ओर बढ़ गए। वो उसे छूने ही वाली थी कि जय ने उसका हाथ पकड़कर अपने लण्ड पर रख लिया। कविता ने उसका लौड़ा पकड़ के महसूस किया और जय की आंखों में देखा। कविता मानो कह रही हो कि उसका लौड़ा बहुत तगड़ा है। हालांकि उसने इतने करीब से किसी का भी तना हुआ लौड़ा नहीं देखा था। वो अपने दाये हाथ के नाखून अभी भी चबा रही थी। 
जय ने कविता के चादर को हटाना चाहा तो कविता ने उसे झट से एक थप्पड़ मारा। पर जय ने इसका बुरा नहीं माना।


उसने फिर कोशिश की कविता ने उसका हाथ झटक दिया इस बार । जय ने फिर कोशिश की तो कविता ने फिर से एक थप्पड़ मारा उसे। इसके बाद जय ने कविता के खुले हुए बाल को खींच के पकड़ लिया और कविता के चेहरे को ऊपर उठाया और एक थप्पड़ उसके गाल पर मारा। कविता के गाल लाल हो गए पर उसने कुछ नही किया। अब जय ने कविता के चादर को उसके बदन से अलग किया, इस बार कविता ने कोई विरोध नहीं किया। अब कविता पूरी नंगी हो चुकी थी अपने छोटे भाई के सामने। उसकी आंखें अनायास ही बंद हो गयी।
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Post by Rakeshsingh1999 »

खामोशी में भी एक धुन होती है। वो धुन बिना कोई शोर के बहुत कुछ कह जाती है। अब कुछ लोग सोचेंगे कि खामोशी में कौन सी धुन होती है और वो क्या कह जाती है?? इस सवाल का जवाब बस वो दे सकता है जिसने उस खामोशी के पल को जिया है।सवेरे का अस्तित्व सिर्फ रात से है। अगर रात ही ना हो तो सवेरे की अहमियत खत्म हो जाती है। अगर हम विज्ञान को हटा दे तो ये पूछना की सवेरा क्यों होता है या रात ही क्यों नही रहती, ये सवाल बेकार हैं या इसके उलट। ठीक वैसे ही जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जिसे बस जी लेना जरूरी होता है उनका मतलब बस होने से है, उसमे गलत या सही की कोई गुंजाइश नहीं होती।
शायद वही पल अभी कविता और जय के जीवन मे आया था। 21 वर्षीय जय इस वक़्त अपनी 26 वर्षीय दीदी के साथ पूरा नंगा खड़ा था। कविता शायद पहली बार किसी मर्द के सामने नंगी बैठी थी। जय ने कविता के हुश्न को अब तक कपड़ों में ढके हुए देखा था पर इस वक़्त कविता बिल्कुल अपने जन्म के समय के आवरण में थी अर्थात निर्वस्त्र। जय ने कविता को बालों से कसकर पकड़ रखा था। उसने कविता के चेहरे को देखा कविता की आंखे बंद थी। उसकी पलकें घनी थी और आंखों में काजल लगा हुआ था। उसके भौएँ बनी हुई थी, गाल भरे हुए थे एक दम गोरे। होंठ गुलाबी थी जो बिना लिपस्टिक के भी मदमस्त लग रहे थे। उसके होंठ कांप रहे थे। और बड़ी ही धीरे से वो अपने मुंह मे इकट्ठा हुए थूक को निगल रही थी। उसकी सुराहीदार गर्दन की चाल थूक गटकने की वजह से मस्त लग रही थी। उसका भाई जय अपनी बहन के इस रूप को देखकर पागल हो रहा था। वो भी बड़ी आराम से गले से थूक घोंट रहा था ताकि आवाज़ ना हो जाये।
जय ने झुककर कविता के होंठों के करीब अपने होंठ लाये और उसके होंठो से अपने होंठ चिपका दिए। जैसे चिंगारियाँ फूटी दोनों के होंठ मिलने से । जय ने कविता के होंठों को पूरा अपने मुंह में लिया हुआ था। कविता के होंठ हल्के मोटे थे , जिसे जय चूस रहा था। उसके होंठों का सारा रस लगातार पी रहा था। फिर कविता के मुंह में उसने अपने जीभ को घुसा दिया। कविता ने कोई प्रतिरोध नही किया, अपितु उसके जीभ को चूसने लगी। दोनों भाई बहन बिल्कुल किसी प्रेमी युगल की तरह काम मे लिप्त होने लगे थे।



जय ने कविता को फिर बिस्तर पर लिटा दिया, और जो नाईट बल्ब की मद्धिम रोशनी थी उसे बंद कर दिया । कविता को महसूस हुआ कि जय ने लाइट बंद कर दी है। उसने आंखें खोली, तो अंधेरा था। पर तभी जय ने बड़ी CFL लाइट जलाई, जिसकी रोशनी में दोनों के नंगे बदन नहा गए। कविता ने आंखों पर अपने हाथ रख लिए। और दूसरे से अपनी जवानी यानी चुचियाँ और बुर को ढकने की व्यर्थ प्रयास करने लगी। जय ने अपनी गंजी उतार फेंकी थी और बॉक्सर तो वो पहले ही उतार चुका था। वो बिस्तर पर कविता के बाजू में लेट गया। उसने कविता के अथक असफल प्रयास को अंत कर दिया जब उसने कविता के हाँथ जिससे वो अपने बुर और चुचियाँ ढकना चाह रही थी उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया और किनारे दबा दिया।
कविता के 26 साल का यौवन अब अपने भाई के सामने बिल्कुल साफ नंगा था। कविता की चुचियाँ बिल्कुल दूधिया थी और उस पर हल्के भूरे रंग के चूचक मुंह मे लिए जाने के लिए बिल्कुल वैसे तने थे जैसे बारिश के बाद कुकुरमुत्ते खड़े हो जाते हैं। चुचियों कि शेप बिल्कुल आमों की तरह थी। इन आमों को अब तक किसीने नहीं चूसा या चबाया था। कई साल से कविता के सीने से लटक रहे थे। जय ने बेसब्री नहीं दिखाई बल्कि कविता के जिस्म को आंखों से पी रहा था।
कविता ने हिम्मत जुटाई और हल्के आवाज़ में कहा कि, लाइट बंद कर दो।
जय ने उसकी आँखों से उसके हाँथ को हटाते हुए, बोला क्यों दीदी??
कविता ने आंखें बंद करके कहा, शर्म आ रही है। उसकी आवाज़ में कंपन थी।
जय ने कहा, दीदी आंखें खोलो और हमको देखो सारी शर्म चली जायेगी। आंखे खोलो ना, देखो हमको तो कोई शर्म नही आ रही हैं।
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कविता ने फिर भी आंखे नहीं खोली। जय ने ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया बल्कि वो अपनी दीदी के यौवन को फिर से घूरने लग गया। उसने फिर कविता के पेट को सहलाते हुए चूमा। गुदगुदी की वजह से कविता कांप रही थी। उसने कविता की नाभि में भी चुम्मा लिया और उंगली से उसके कमर और नाभि के आसपास के हिस्से को छेड़ रहा था। कविता इस गुदगुदी से सिहरकर कांप जाती थी। फिर उसने अपनी जवान दीदी के उस हिस्से को देख जहां से इंसान पैदा होता है। यानी कविता की योनि, बुर, चूत, फुद्दी, पुसी, मुनिया इत्यादि। कविता के बुर पर हल्के कड़े छोटे बाल थे, ऐसा लगता था मानो 3 4 दिन पहले ही साफ किये हों। जिससे उसकी बुर का हर हिस्सा साफ दिख रहा था। बुर की लगभग 4 इंच की चिराई थी और रंग गहरा सावँला था।। बुर बिल्कुल फूली हुई थी, और चुदाई ना होने की वजह से अभी बुर की शेप बिल्कुल सही थी। बुर की पत्तियां हल्की बाहर झांक रही थी।उससे एक अजीब सी महक आ रही थी। जो उस के बुर के रस की थी। बुर से लसलसा पदार्थ चिपका हुआ था।
जय मदहोश होकर सब देखता रहा और मन में बोल आज देसी बुर के दर्शन हो गए वो भी अपने ही दीदी की।
जय ने बुर को अपने हाँथ के शिकंजे में ले लिया और उसे मसलने लगा। और कविता की बांयी चूची की घुंडी को मुंह मे भर लिया और चूसने लगा। दूसरे से कविता की दायीं चूची को दबाने लगा। कविता ने कोई विरोध नही किया। बल्कि उसका हाथ जय के सर पर आ गया। जय ने चूची चूसते हुए कविता की ओर देखा क्योंकि उसे कविता से किसी प्रोत्साहन की उम्मीद नहीं थी। पर उसका हाथ उसके सिर पर रखना कविता की सहमति का प्रतीक था। कविता को कूलर चलने के बावजूद पसीने आ रहे थे, शायद ये डर, विषमय और सुख का मिला जुला असर था। जय ने कविता की चुचियों की अदला बदली की। करीब 7 - 8 मिनट चूची की चुसाई के बाद उसने एक बार फिर कविता को बोला, प्लीज आंखें खोलो ना दीदी। पर कविता ने कोई जवाब नही दिया बल्कि वो लगातार आहें भर रही थी। अपनी चूची की चुसाई का आनंद ले रही थी। आज उसे मालूम हुआ कि इन चुचियों का चुदाई में मर्द कैसे इस्तेमाल करते हैं। जय ने फिर कविता की टांगो के बीच जगह बनाई और खुद बैठ गया।वो कविता की जांघों को सहला रहा था।



कविता के बुर के करीब अपना चेहरा लाकर उसने उसे सूँघा। बिल्कुल यही खुसबू उसकी पैंटी से आ रही थी जब उसने बाथरूम से उसकी पैंटी में मूठ मारा था। उसने ब्लू फिल्मो में देखा था कि मर्द बुर को खूब मज़े से चूसते हैं पर उसकी हिम्मत नहीं हुई, वैसे भी उसके लिए ये उत्तेजना संभालना मुश्किल हो रहा था। उसने अपने लौड़ा कविता के बुर पर सटाया। कविता आह कर उठी।
जय ने कविता की बुर पर थूक दिया जैसा उसने कविता को देते हुए देखा था। और थूक जाकर बुर के रस से मिलकर बुर को चिकन कर गयी। कविता कुंवारी जरूर थी पर खीरे और गाजर की वजह से झिल्ली टूट चुकी थी। जय ने अपना लण्ड जब घुसाया तो बस हल्की दिक्कत हुई। बाकी लौड़ा पूरा अंदर घुस गया। जय को तो लगा जैसे जन्नत के दरवाजे किसीने खोल दिये हो। बुर की गर्मी का एहसास उसे अपने लण्ड पर पागल बना रहा था। कविता की आंखे इस एहसास के साथ खुल गयी कि एक लौरा अभी अभी ज़िन्दगी में पहली बार उसकी बुर में समा गया है। कविता को अपनी तरफ़ देखते जय का हौसला और जोश बढ़ गया। कविता की आंखों से अब शर्म जा चुकी थी, वो आँहें भर रही थी। आआहह.... आआदह ...ऊफ़्फ़फ़फ़.. आआहह.…………………
कविता बोल रही थी, और ज़ोर से आआहह.......... और ज़ोर से......ऊईई माँ..... आईई
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