पुष्पपुर राजप्रासाद के ठीक सामने महामाया का राजमंदिर है। महापुजारी पौत्तालिक महामायों के अनन्य उपासक, धर्माचार्य एवं राजगुरु है। राज्य के सभी पदाधिकारी उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। द्रविड़राज युगपाणि में भी इतना साहस नहीं कि महापुजारी की आज्ञा की अवहेलना कर सके . दीर्घाकार आकृति, गौर वर्ण, सुविशाल मस्तक पर चंदन का तिलक लगाये हुए, महापुजारी पौत्तालिक के मुखश्री से एक अपूर्व तेज प्रतिभासित होता रहता है।
गले में बड़ी-बड़ी रुद्राक्ष मालाएं, शरीर पर स्वर्ण खंचित पीताम्बर एवं पैरों में हाथी दांत की पादुका-वास्तव में वे पुजारी थे। उनके मुख से अविच्छिन्न प्रतिभा प्रस्फुटित होती थी, मानो महामाया की समग्री तेजराशि उनके नेत्रद्वय द्वारा यावत् जगत का निरीक्षण कर रही हो।
द्रविड़राज ने महापुजारी के चरण छुए। महापुजारी ने 'आयुष्मान भव' कहकर उनकी मंगल कामना की, तत्पश्चात् वे द्रविड़राज की शैया पर आकर बैठ गये।
द्रविड़राज भी पैताने बैठकर राजगुरु की प्रतीक्षा करने लगे।
'श्री सम्राट का मुखमंडल श्रमित, क्लांत एवं प्रतिभाहीन क्यों दृष्टिगोचर हो रहा है...?' महापुजारी ने पूछा-'क्या किसी प्रगाढ़ चिंता ने भी सम्राट के हृदयालोक पर अपनी कालिमा बिखेर दी है या राज्य-संचालन में कोई दुरूह बाधा उपस्थित होने के कारण, इतने व्यंग्न हो रहे है
"कुछ नहीं है...' द्रविड़राज ने किंचित स्मित करने का व्यर्थ प्रयत्न किया—यह सब कुछ नहीं है, महापुजारी जी! मेरे हृदय में कोई चिंता, कोई व्यग्रता, कोई कष्ट नहीं है और न राज्य पर ही कोई विपत्ति आई है, सब कार्य पूर्ववत् सुचारु रूप से संचालित हो रहे हैं। प्रात:कालीन सूर्य की स्वर्णिम आभा हिमराज के हिमाच्छादित उच्च शिखरों पर कल्लोल करती हुई पुष्पपर-निवासियों के हृदय-प्रदेश में एक अनिर्वचनीय आनन्दोल्लास की सृष्टि कर देती है। सन्ध्याकाल में हिमराज के आंचल का आलिंगन करके आता हआ सुखद समीर, शरीर का सम्पर्क कर दिवस का सारा परिश्रम अपने साथ उड़ा ले जाता है। रात्रि में पक्षिगण अपने नीड़ों में विश्राम करते हैं। यावत जगत सुखद निद्राभात होकर स्वप्न-संसार में विचरण करता है। सब कुछ यथावत हो रहा है, महापुजारी जी!
कहते-कहते सम्राट ने महापुजारी के प्रतिभायुक्त मुख पर अपनी दृष्टि डाली। महापुजारी जी की आकृति गंभीरता धारण किए हुए थी।
"किंतु सभी कार्य जब यथावत चले रहे हैं तो आप ऐसे प्रश्न क्यों कर रहे हैं, महापुजारी जी। क्या आपके दिव्य चक्षुओं को किसी प्रलयंकारी अनिष्ट का आभास मिला है...?' सम्राट ने पूछा। 'जाने दीजिए इन सब कष्टदायक बातों को। समय पड़ने पर उचित प्रबंध किया जा सकता है...आप अस्वस्थ हैं। सन्ध्योपासना में भी आप सम्मिलित न हो सके...।'
'सन्ध्या-पूजन हो गया क्या...?' अभी तक सम्राट को यह भी पता न था कि इस समय एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो चुकी है।
'संध्यायोपासना तो बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी है, श्रीसम्राट...! परन्तु दुख है कि न तो आपने ही पर्दापण करने का कष्ट किया और न ही श्रीयुवराज ने ही, भला यह बेला शयनकक्ष में रहने की है? अवश्य आपके अन्त:स्थल में कोई गुह्य व्यथा है श्रीसम्राट...!'
उसी समय द्वारपाल ने पुनः प्रवेश कर सम्राट एवं महापूजारी को अभिवादन किया —'प्रात:काल से श्रीयुवराज आखेट को गये है,और अभी तक नहीं लौटे...।' उसने विनम्न स्वर में कहा।
'अभी नहीं लौटा...?' द्रविड़राज ने अस्त-व्यस्त स्वर में पूछा।
'अभी तक नहीं...?' महापुजारी का शरीर अनिष्ट की आशंका से कम्पायमान हो उठा।
थोड़ी देर बाद महापुजारी हंस पड़े—'आप निश्चिंत रहें। महामाया की माया से भी युवराज पर कोई अनिष्ट आ पड़ने की आशंका नहीं है।'
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'हृदय नहीं मानता, महापुजारी...!' द्रविड़राज युगपाणि ने दीर्घ श्वास छोड़कर कहा-'सब कुछ खो चुका है, अब यदि उसे भी खो बैठेंगा तो कैसे धैर्य रख सकूँगा? इस पृथ्वी पर अब अकेला ही तो हूं—युवराज ही मेरे नेत्रों की ज्योति है।'
'इस प्रकार व्यथित होना एक सम्राट के लिए अशुभ-सूचक है, ऐसे विशाल हृदय में एक तुच्छ भावना को स्थान देना हेय है, घृणित है...कौन कह सकता है कि द्रविड़राज युगपाणि इस नश्वर जगत में एकाकी है? जम्बूद्वीप के अधीश्वर को ऐसी अशुभ बात मुख से बहिगर्त नहीं करनी चाहिए। जम्बूद्वीप की सारी प्रजा आपकी संतान हैं, द्वीप का सारा ऐश्वर्य आपकी सम्पत्ति है और द्वीप की सारी प्रकृति-प्रदत्त सुषमा आप पर निछावर होने को प्रस्तुत है, श्रीसम्राट...! फिर क्यों आप इस प्रकार अधीर हो रहे है?'
'महापुजारी जी...।'
'आज्ञा श्रीसम्राट देव।'
'मुझे बचाइये...मेरी रक्षा कीजिये, महापुजारी जी...।' द्रविड़राज व्यथित स्वर में बोला—'मैं पथ विमुख हो रहा हूं, मुझे शक्ति प्रदान कीजिये...।'
'कौन-सी ऐसी दुर्भेद्य शक्ति है जो आपको पथविमुख कर रही है, श्रीसम्राट का हृदय सदैव निर्धारित मार्ग पर अग्रसर होगा...।'
पर्व स्मति की चिंगारी भीषण दावानल बनकर मेरा रक्त शोषण कर रही है। आज कई दिनों से राजमहिषी त्रिधारा की स्मृति मेरे अंतर्पट पर उभर कर मुझे व्यथित कर रही है, महापुजारी जी! मैं नहीं जानता था कि आज से पच्चीस वर्ष पूर्व किए हुए कार्यों के लिए अब पश्चाताप करना होगा....।
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Romance कुमकुम complete
- rajsharma
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Re: Romance कुमकुम
पच्चीस वर्ष पूर्व? जबकि न्याय के रक्षार्थ द्रविड़राज ने अपनी महारानी को आजन्म निर्वासन का दण्ड दिया था— जबकि युवराज नारिकेल को रोता हुआ छोड़कर पुष्पपुर की राजलक्ष्मी त्रिधारा चली गई थी - अपने पेट में सात महीने का गर्भ धारण किये हुए।
'श्रीसम्राट...!' महापुजारी की मुखाकृति कठोर हो गई—'आपको भूल ही जाना होगा इन सारी अनिष्टकारी बातों को, अन्यथा...!' महापुजारी के ललाट पर दुश्चिन्ता की रेखायें खिंच आयीं। एक दीर्घ श्वास लेकर वे पुन: बोले- मैंने आपको इतना दुर्बल हृदय नहीं समझा था कि अपने ही न्याय के प्रति, आप स्वयं पश्चाताप करेंगे...। अनर्थ हो जाएगा-प्रलय आ जायेगी श्रीसम्राट...।'
महापुजारी रुके कुछ देर के लिए। उन्होंने आगे बढ़कर द्रविड़राज का कम्पित कर पकड़ लिया और उनके मुख पर अपने प्रज्जवलित नेत्र स्थिर कर दिए। सम्राट को लगा जैसे महापुजारी की वे क्रूर आंखें उनके अंत:स्थल में प्रवेश करती जा रही हैं।
'श्रीसम्राट...!' महापुजारी ने पुकारा दृढ़ स्वर में।
'महापुजारी जी...।' सम्राट का स्वर लड़खड़ा गया था।
'आपको इन अनिष्टकारी कल्पनाओं से दूर रहना पड़ेगा। बिगत घटनाओं को पुन: स्मृतिपट पर लाकर प्रलय का आह्वान कीजिये। द्रविड़राज का 'न्याय' हिमराज-सा अटल है, आप व्यथित है, व्यथा के शमनार्थ चक्रवाल की आवश्यकता है आपको। मैं उसे अभी भेजता हूं। वह अपने सुमधुर गायन द्वारा आपके कर्ण-कुहरों में अमृतवर्षा कर देगा। भूल जायेंगे आप इन सारी दुश्चिन्ताओं को।'
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महामाया के मंदिर में उपासना के समय नृत्य करने वाली किन्नरी निहारिका के साथी का नाम था चक्रवाल!
जब किन्नरी निहारिका, महामाया की प्रतिमा के समक्ष अपनी समस्त कलाओं का एकत्रीकरण कर नृत्य करती तो चक्रवाल अपनी वीणा पर खेलता हुआ अपने सुमधुर गायन द्वारा उस नृत्य में मोहिनी-शक्ति उत्पन्न कर देता। जिस प्रकार किन्नरी की नृत्य-कला अपूर्व थी, जीवनदायिनी थी—उसी प्रकार थी चक्रवाल की गायन कला।
वह चारण था। संगीत के ललित प्रवाह से द्रविड़राज को प्रसन्न रखना ही उसका कार्य था। द्रविड़राज, महापुजारी एवं युवराज-सभी विमुग्ध थे उस युवक चारण की गायन-कला पर। ऐसा था चक्रवाल! बीस वर्ष का युवक...मुख पर दीनतापूर्ण गंभीरता। आंखों में जैसे आंसुओं का आगाध सागर भरा पड़ा हो। कभी हंसता न था। रो लिया करता था—कभी-कभी।
सम्राट चुपचाप निश्चल बैठे थे।
'बोलिए श्रीसम्राट! आप चुप क्यों हैं...?' महापुजारी बोले।
'क्या कहूं महापुजारी जी...'' द्रविड़राज के मुख से बहिर्गत इस छोटे से वाक्य में वेदना की अगमराशि निहित थी।
"अजब अंधेरी रात साथी, अजब अंधेरी रात!
" पग-पग पर छाया अंधियारा, बही जा रही जीवनधारा...
'आली! तेरे नयनों में है आज घिरी बरसात! साथी...!
'इस कर्णप्रिय मधुर संगीत से सारा प्रकोष्ठ गूंज उठा।
ऐसा लगा, मानो स्वर्ग का कोई किन्नर भू पर उतर आया हो। पवन निश्चल हो गया, पल्लवों ने हिलना बंद कर दिया, पक्षियों का गुंजरित कलरव मधुर नीरवता में परिणत हो गया।
गाते हुए चक्रवाल की वह मधुर गीत-लहरी वातावरण में सरसता घोलती रही 'बिछड़ गये वो मन के वासी छाई तेरे मुख पै उदासी सूख गये हैं बिरह में उनके मृदुल मनोहर गात–साथी अजब अंधेरी रात।'
'श्रीसम्राट...!' महापुजारी की मुखाकृति कठोर हो गई—'आपको भूल ही जाना होगा इन सारी अनिष्टकारी बातों को, अन्यथा...!' महापुजारी के ललाट पर दुश्चिन्ता की रेखायें खिंच आयीं। एक दीर्घ श्वास लेकर वे पुन: बोले- मैंने आपको इतना दुर्बल हृदय नहीं समझा था कि अपने ही न्याय के प्रति, आप स्वयं पश्चाताप करेंगे...। अनर्थ हो जाएगा-प्रलय आ जायेगी श्रीसम्राट...।'
महापुजारी रुके कुछ देर के लिए। उन्होंने आगे बढ़कर द्रविड़राज का कम्पित कर पकड़ लिया और उनके मुख पर अपने प्रज्जवलित नेत्र स्थिर कर दिए। सम्राट को लगा जैसे महापुजारी की वे क्रूर आंखें उनके अंत:स्थल में प्रवेश करती जा रही हैं।
'श्रीसम्राट...!' महापुजारी ने पुकारा दृढ़ स्वर में।
'महापुजारी जी...।' सम्राट का स्वर लड़खड़ा गया था।
'आपको इन अनिष्टकारी कल्पनाओं से दूर रहना पड़ेगा। बिगत घटनाओं को पुन: स्मृतिपट पर लाकर प्रलय का आह्वान कीजिये। द्रविड़राज का 'न्याय' हिमराज-सा अटल है, आप व्यथित है, व्यथा के शमनार्थ चक्रवाल की आवश्यकता है आपको। मैं उसे अभी भेजता हूं। वह अपने सुमधुर गायन द्वारा आपके कर्ण-कुहरों में अमृतवर्षा कर देगा। भूल जायेंगे आप इन सारी दुश्चिन्ताओं को।'
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महामाया के मंदिर में उपासना के समय नृत्य करने वाली किन्नरी निहारिका के साथी का नाम था चक्रवाल!
जब किन्नरी निहारिका, महामाया की प्रतिमा के समक्ष अपनी समस्त कलाओं का एकत्रीकरण कर नृत्य करती तो चक्रवाल अपनी वीणा पर खेलता हुआ अपने सुमधुर गायन द्वारा उस नृत्य में मोहिनी-शक्ति उत्पन्न कर देता। जिस प्रकार किन्नरी की नृत्य-कला अपूर्व थी, जीवनदायिनी थी—उसी प्रकार थी चक्रवाल की गायन कला।
वह चारण था। संगीत के ललित प्रवाह से द्रविड़राज को प्रसन्न रखना ही उसका कार्य था। द्रविड़राज, महापुजारी एवं युवराज-सभी विमुग्ध थे उस युवक चारण की गायन-कला पर। ऐसा था चक्रवाल! बीस वर्ष का युवक...मुख पर दीनतापूर्ण गंभीरता। आंखों में जैसे आंसुओं का आगाध सागर भरा पड़ा हो। कभी हंसता न था। रो लिया करता था—कभी-कभी।
सम्राट चुपचाप निश्चल बैठे थे।
'बोलिए श्रीसम्राट! आप चुप क्यों हैं...?' महापुजारी बोले।
'क्या कहूं महापुजारी जी...'' द्रविड़राज के मुख से बहिर्गत इस छोटे से वाक्य में वेदना की अगमराशि निहित थी।
"अजब अंधेरी रात साथी, अजब अंधेरी रात!
" पग-पग पर छाया अंधियारा, बही जा रही जीवनधारा...
'आली! तेरे नयनों में है आज घिरी बरसात! साथी...!
'इस कर्णप्रिय मधुर संगीत से सारा प्रकोष्ठ गूंज उठा।
ऐसा लगा, मानो स्वर्ग का कोई किन्नर भू पर उतर आया हो। पवन निश्चल हो गया, पल्लवों ने हिलना बंद कर दिया, पक्षियों का गुंजरित कलरव मधुर नीरवता में परिणत हो गया।
गाते हुए चक्रवाल की वह मधुर गीत-लहरी वातावरण में सरसता घोलती रही 'बिछड़ गये वो मन के वासी छाई तेरे मुख पै उदासी सूख गये हैं बिरह में उनके मृदुल मनोहर गात–साथी अजब अंधेरी रात।'
- rajsharma
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Re: Romance कुमकुम
'लीजिये...! चक्रवाल तो स्वयं इधर ही आ रहा है...।' महापुजारी ने कहा। उसी समय बीस वर्षीय युवक चारण वहां आ उपस्थित हुआ। चक्रवाल ने झुककर महापुजारी के चरण छुए एवं द्रविड़राज को अभिवादन किया। 'क्या श्रीसम्राट अस्वस्थ हैं...?' उसने विनम्रता से पूछा।
'तुम अपनी कला द्वारा श्रीसम्राट को स्वस्थता प्रदान करो...।' कहते हुए महापुजारी प्रकोष्ठ से बाहर चले गए।
चक्रवाल ने आगे बढ़कर प्रकोठ में रखी हुई वीणा उठा ली। वीणा के तार झंकार उठे-झन्न! झन्न!! चक्रवाल की अभ्यस्त अंगुलियां वीणा के तारों पर अविराम गति से दौड़ चलीं। मधुर झनकार ने हततन्त्री के तारों को झंकृत करना प्रारंभ कर दिया। प्रकृति कांपने-सी लगी। धवल चन्द्र खिलखिला उठा। दिशायें हंस पड़ीं।
'अब रहने दो, चक्रवाल! हृदय सम्राट के प्रखर आघात को यह वीणा की झंकार और द्विगुणित कर रही है...।'
'क्या श्रीसम्राट को कोई मानसिक व्यथा कष्ट दे रही है?' चक्रवाल ने वीणा रखते हुए पूछा।
'तुम युवक हो...तुम क्या जान सकोगे उस व्यथा की बात...?' सम्राट के मुख पर करुण मुस्कान नत्य करने लगी।
'मैं सुनना चाहता हूं, श्रीसम्राट...! आपकी व्यथा की कहानी अवश्य सुनूंगा...।'
"सुनोगे...? जिस करुण गाथा को आज पच्चीस वर्ष से अपने अंतरा में छिपाये मैं जल रहा है, उसे सुनोगे तुम?' द्रविड़राज बोले-'न सुनो चक्रवाल! शायद तुम भी व्यथाग्रस्त हो जाओ...बह एक दु:खद कहानी है, इसलिए तो अभी तक युवराज को भी नहीं बतलाया है मैंने। सम्भवत: सुनकर मुझसे भी अधिक व्यथित हो जायेगा वह...। खैर! तुम सुन लो मगर युवराज को मत सुनाना—यह उसकी माता की कहानी है—यह मेरे न्याय की कहानी है...।'
चक्रवाल कुछ आगे खिसक आया।
द्रविड़राज कहने लगे—'आज से पच्चीस वर्ष पूर्व...।'
जी हां, आज से पच्चीस वर्ष पूर्व, सम्राट युगपाणि बाईस वर्ष के नवयुवक योद्धा एवं प्रतिभासम्पन्न शासक थे।
उस समय द्रविड़राज का संसार हरीतिमा-सा मनोहर एवं मुकुलपुष्प-सा सौंदर्यपूर्ण था। वे अपनी धर्मपत्नी राजमहिषी त्रिधारा का अपूर्व प्रेम प्राप्त करते हुए सुखमय दाम्पत्य जीवन का उपभोग कर रहे थे, परन्तु बहुत दिन व्यतीत हो जाने पर भी अभी तक उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी।
यही एक कारण ऐसा था जिससे राजदम्पती के मधुर मुस्कान युक्त मुख पर कभी-कभी वेदना की प्रखर कालिमा छा जाती थी।
यों तो सम्राट द्रविड़राज भी इस बात के लिए कम चिंतित नहीं थे, परन्तु राजमहिषी त्रिधारा की चिंता असीम थी। वे रात-दिन इसी चिंता से व्याकुल रहतीं। यद्यपि द्रविड़राज राजमहिषी के दुख का, चिंता का कारण पूर्णतया समझते थे, मगर सब व्यर्थ। पुष्पपुर की सारी प्रजा राजदम्पती के इस कष्ट से दुखी थी। पुष्पपुर का अतुलित वैभव एवं श्रीसम्पन्न वातावरण सूना-सा प्रतीत होता था
—बिना एक युवराज के। कई मास व्यतीत हो गए।
घनघोर गर्जन के साथ बरसते हुए काले-काले बादल जब शिशिर की मधुमयी ओस में परिवर्तित हो गये
अब हिमाच्छिदित हिमराज के उच्चतम शिखरों ने नीलाकाश का चुम्बन करते हुए दुग्धवत श्वेत रंग धारण कर लिया।
जब पुष्पपूर नगरी पर शिशिर ने अपने कलापूर्ण कर्णों द्वारा अगाध सुषमा बिखेर दी
तब एक रात्रि को द्रविड़राज युगपाणि राजमहिषी त्रिधारा के साथ सुसज्जित शयन-कक्ष में विश्राम कर रहे थे, उन्होंने राजमहिषी के मुख पर आज प्रसन्नता की प्रोज्वल रेखायें देखी तो उन्हें आश्चर्य हुआ।
"तुम अतीव प्रसन्न दिखाई दे रही हो, राजमहिषी...। तुम्हारे क्लांत मुख पर इस समय चन्द्रदेव की मधुरिमा नृत्य कर रही है इसका कारण...? इसका कारण बता सकती हो, राजमहिषी?' पूछा उन्होंने।
'तुम अपनी कला द्वारा श्रीसम्राट को स्वस्थता प्रदान करो...।' कहते हुए महापुजारी प्रकोष्ठ से बाहर चले गए।
चक्रवाल ने आगे बढ़कर प्रकोठ में रखी हुई वीणा उठा ली। वीणा के तार झंकार उठे-झन्न! झन्न!! चक्रवाल की अभ्यस्त अंगुलियां वीणा के तारों पर अविराम गति से दौड़ चलीं। मधुर झनकार ने हततन्त्री के तारों को झंकृत करना प्रारंभ कर दिया। प्रकृति कांपने-सी लगी। धवल चन्द्र खिलखिला उठा। दिशायें हंस पड़ीं।
'अब रहने दो, चक्रवाल! हृदय सम्राट के प्रखर आघात को यह वीणा की झंकार और द्विगुणित कर रही है...।'
'क्या श्रीसम्राट को कोई मानसिक व्यथा कष्ट दे रही है?' चक्रवाल ने वीणा रखते हुए पूछा।
'तुम युवक हो...तुम क्या जान सकोगे उस व्यथा की बात...?' सम्राट के मुख पर करुण मुस्कान नत्य करने लगी।
'मैं सुनना चाहता हूं, श्रीसम्राट...! आपकी व्यथा की कहानी अवश्य सुनूंगा...।'
"सुनोगे...? जिस करुण गाथा को आज पच्चीस वर्ष से अपने अंतरा में छिपाये मैं जल रहा है, उसे सुनोगे तुम?' द्रविड़राज बोले-'न सुनो चक्रवाल! शायद तुम भी व्यथाग्रस्त हो जाओ...बह एक दु:खद कहानी है, इसलिए तो अभी तक युवराज को भी नहीं बतलाया है मैंने। सम्भवत: सुनकर मुझसे भी अधिक व्यथित हो जायेगा वह...। खैर! तुम सुन लो मगर युवराज को मत सुनाना—यह उसकी माता की कहानी है—यह मेरे न्याय की कहानी है...।'
चक्रवाल कुछ आगे खिसक आया।
द्रविड़राज कहने लगे—'आज से पच्चीस वर्ष पूर्व...।'
जी हां, आज से पच्चीस वर्ष पूर्व, सम्राट युगपाणि बाईस वर्ष के नवयुवक योद्धा एवं प्रतिभासम्पन्न शासक थे।
उस समय द्रविड़राज का संसार हरीतिमा-सा मनोहर एवं मुकुलपुष्प-सा सौंदर्यपूर्ण था। वे अपनी धर्मपत्नी राजमहिषी त्रिधारा का अपूर्व प्रेम प्राप्त करते हुए सुखमय दाम्पत्य जीवन का उपभोग कर रहे थे, परन्तु बहुत दिन व्यतीत हो जाने पर भी अभी तक उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी।
यही एक कारण ऐसा था जिससे राजदम्पती के मधुर मुस्कान युक्त मुख पर कभी-कभी वेदना की प्रखर कालिमा छा जाती थी।
यों तो सम्राट द्रविड़राज भी इस बात के लिए कम चिंतित नहीं थे, परन्तु राजमहिषी त्रिधारा की चिंता असीम थी। वे रात-दिन इसी चिंता से व्याकुल रहतीं। यद्यपि द्रविड़राज राजमहिषी के दुख का, चिंता का कारण पूर्णतया समझते थे, मगर सब व्यर्थ। पुष्पपुर की सारी प्रजा राजदम्पती के इस कष्ट से दुखी थी। पुष्पपुर का अतुलित वैभव एवं श्रीसम्पन्न वातावरण सूना-सा प्रतीत होता था
—बिना एक युवराज के। कई मास व्यतीत हो गए।
घनघोर गर्जन के साथ बरसते हुए काले-काले बादल जब शिशिर की मधुमयी ओस में परिवर्तित हो गये
अब हिमाच्छिदित हिमराज के उच्चतम शिखरों ने नीलाकाश का चुम्बन करते हुए दुग्धवत श्वेत रंग धारण कर लिया।
जब पुष्पपूर नगरी पर शिशिर ने अपने कलापूर्ण कर्णों द्वारा अगाध सुषमा बिखेर दी
तब एक रात्रि को द्रविड़राज युगपाणि राजमहिषी त्रिधारा के साथ सुसज्जित शयन-कक्ष में विश्राम कर रहे थे, उन्होंने राजमहिषी के मुख पर आज प्रसन्नता की प्रोज्वल रेखायें देखी तो उन्हें आश्चर्य हुआ।
"तुम अतीव प्रसन्न दिखाई दे रही हो, राजमहिषी...। तुम्हारे क्लांत मुख पर इस समय चन्द्रदेव की मधुरिमा नृत्य कर रही है इसका कारण...? इसका कारण बता सकती हो, राजमहिषी?' पूछा उन्होंने।