'आज उस घटना को व्यतीत हए लगभग बीस वर्ष हो चुके हैं, चक्रवाल। द्रविड़राज अवरुद्ध स्वर में बोले—'परन्तु मैं अब तक राजमहिषी को भूल नहीं सका हूं। वह न्याय था, जिसका मैंने पालन किया था। अब शोकाग्नि में भस्म होता हआ, उनके प्रति हृदय में जो अगाध प्रेम निहित है, उसका प्रतिपालन मैं कर रहा हूं, चक्रवाल.....।'
चारण चक्रवाल द्रविड़राज के समक्ष अपनी निस्तब्ध वीणा लिए हुए चुपचाप बैठा था। अभागे द्रविड़राज की दुर्दशा पर अश्रु कणों की वर्षा करता हुआ।
.......... निर्वासन के पश्चात् कई बार मैंने उनकी खोज की, जंगल-पहाड़, नगर गांव सभी स्थान खोज डाले, परन्तु उस देवी का पता न लगा। वह गर्भवती थीं- मेरे हृदय का एक अंश लिए वह न जाने कहां विलुप्त हो गईं, चक्रवाल! आज सोचता है—मैंने न्याय की रक्षार्थ उन्हें आजन्म निर्वासन का दंड दिया था, तो क्या उस प्रेम की रक्षार्थ में स्वयं, यह राजपाट त्यागकर उनके साथ भयानक वन में जाकर नहीं रह सकता था...? उस समय मैंने कितनी भारी भूल की थी कि मुझे अब तक दाहक अग्नि से भस्मीभूत होना पड़ रहा है....।'
'धैर्य, संतोष और सहनशीलता आपका भूषण होना चाहिए, श्रीसम्राट। चक्रवाल ने संयत स्वर में कहा।
उस युवक गायक के मुख पर असीम गंभीरता एवं प्रगाढ़ सहानुभूति नर्तन कर रही थी।
'कब तक धैर्य रखें चक्रवाल....! तुम्हारा व्यथापूर्ण गायन सुनकर तो हृदय और भी व्यग्र हो उठा है। न जाने क्यों तुम्हें सदैव व्यथापूर्ण गायन ही प्रिय लगते हैं...?'
'सुख प्रदान करने वाले गीतों से, मेरा स्वर असंयत हो जाता है, श्रीसम्राट....!'
'असंयत हो जाता है....? ऐसा क्यों अनुभव करते हो, वत्स.....? जिसकी गायनकला मरणोन्मुख को जीवन प्रदान करने वाली है, असमय में भी जल-वर्षा करने वाली है, दिवस के प्रखर प्रकाश में भी दीपक प्रज्जवलित करने वाली है---उसका स्वर कभी असंयत हो सकता है, चक्रवाल! जब तुम वीणा के तारों से खेलते हुए गाने लगते हो तो....परन्तु देखना, युवराज से यत हो जातान प्रदान करने वाली है- उमा यह सब तुम कदापि न कहना, नहीं तो उसे अपनी माता की करुण कथा सुनकर महान दुख होगा। अभी तक मैंने उससे इस गाथा को पूर्णतया गुप्त रखा है।' एकाएक द्रविड़राज ने पूछा
— 'युवराज अभी तक आखेट से नहीं लौटा...?' द्वारपाल द्वार पर आकर खड़ा हो गया था और द्रविड़राज ने यह बात उसी से पूछी थी।
'श्रीयुवराज आहत अवस्था में आखेट से पधारे हैं। अनुचर उन्हें शैया पर लिटाकर ला रहे हैं।' द्वारपाल ने विनम्न स्वर में कहा।
द्रविड़राज व्यग्र स्वर में बोले उठे—'आहत अवस्था में, हुआ क्या है उसे....?' वे दौड़ पड़े युवराज के प्रकोष्ठ की ओर। चक्रवाल भी उनके पीछे-पीछे आया। आहत एवं चेतनाहीन युवराज एक पलंग पर पड़े थे। दौड़ते हुए सम्राट आ पहुंचे–'क्या हुआ युवराज...?' उन्होंने पूछा। परन्तु युवराज बोल न सके, वे चेतनाहीन थे। कई घड़ी की अविराम सेवा के पश्चात वे चैतन्य हुए तो द्रविड़राज के हर्ष का पारावार न रहा, अपनी अमूल्य निधि का सुरक्षित अवलोकर कर उनहोंने पूछा- क्या हो गया था, युवराज?'
'भयानक वन में शुकर का पीछा किया था मैंने। एक वृक्ष की शाखा से मस्तक टकरा गया और वह भयानक घाव...ओह...!' मस्तक हिल जाने से युवराज कराह उठे—'और एक किरात कुमार मिल गया था, उससे भी युद्ध हो गया...।'
'युद्ध हो गया...?' द्रविड़राज उतावली के साथ पूछ बैठे।
'हा, उसकी वीरता देखकर मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ, पिताजी...!'
'विजय किसकी हुई...? द्रविड़राज की वीरता में कलंक कालिमा तो नहीं लगी?'
'मैं आहत हो गया था, पिताजी।'
Romance कुमकुम complete
- rajsharma
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Re: Romance कुमकुम
'आहत हो गये थे तो क्या हुआ? तुम्हें प्राण देकर भी अपने क्षत्रियत्व की लज्जा रखनी परमावश्यक थी...।'
'मैंने ऐसा ही किया है पिताजी ! मैं तब तक युद्ध करता रहा, जब तक कि अशक्त होकर भूमि पर न गिर पड़ा—मैंने निश्चय कर लिया है कि शीघ्र ही हम दोनों किसी स्थान पर मिलकर अपने बलाबल का निर्णय करेंगे। देखें हमारी यह आकांक्षा कब सफल होगी...।' युवराज शिथिल वाणी में बोले।
महामाया के सुविशाल राजमंदिर के प्रांगण में कई प्रकोष्ठ निर्मित थे। जिनमें एक में महापुजारी पौत्तालिक, दूसरे में युवक गायक चक्रवाल एवं तीसरे में अप्सरा-सी सुंदरी किन्नरी निहारिका, ये तीन ही व्यक्ति निवास करते थे।
निहारिका, महामाया मंदिर की कित्ररी थी। यौवनराशि द्वारा प्रोद्भासित उसकी मधुयुक्त मुखराशि अतीव मनोहर दृष्टिगोचर होती थी।
उसकी सघन घटा जैसी श्यामल केश-राशि का एकाध केश हवा का सहारा पाकर, जब उसके आरक्त कपोलों पर नृत्य करने लगता तो ऐसा लगता था मानो समग्र संसार का सौंदर्य उस कलामय किन्नरी के कपोलों पर उतर आया है।
उसके मृगशावक सदृश नयनों में उपस्थित थी तीन मादकता एवं मधुरिमा। काली-काली पुतलियां ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो जगत की सारी सुषमा का प्रवेश हो उनमें। जब उसके रक्त-रंजित अधर हर्षातिरेक उत्फुल्ल होकर चतुर्दिक अपनी हृदयवेधी मुस्कान बिखेर देते तो ऐसा ज्ञात होता,जैसे कलाधर अपनी सम्पूर्ण कलाओं सहित प्रकाशमान हो उठा है।
उसके सुपुष्ट वक्षस्थल पर कसी हुई रत्नजड़ित लसित कंचुकी, कटिप्रदेश में झलझलाता हुआ लहंगा एवं पैरों में लसित नुपुरराशि वास्तव में ऐसे लगते थे मानो देवराज की कोई अप्सरा पथभ्रांत होकर इस शस्यश्यामला भूमि पर चली आई हो।
गायक चक्रवाल का प्रकोष्ठ किन्नरी निहारिका के प्रकोष्ठ के पार्श्व में ही था। दोनों अपनी अपनी कला में उत्कृष्ट थे। चक्रवाल चारण था, उसकी गायन-कला अपूर्व थी—निहारिका किन्नरी थी, उसकी नर्तन-कला मुग्धकारी थी।
परन्तु दोनों कला के भिन्न-भिन्न अंगों में पारंगत होते हुए भी एक न हो सके थे। उनके व्यवहार, उनकी शालीनता में कोई अंतर न था। अवकाश मिलने पर दोनों एकांत में बैठकर वार्तालाप करते थे।
पूजनोत्सव से लौटकर कभी-कभी निहारिका जब अपने प्रकोष्ठ में आकर कपाटों को भीतर से बंद कर, वस्त्र परिवर्तन करने लगती-तभी चक्रवाल आ पहुंचता। द्वार पर खट्ट-खट्ट की ध्वनि सुनकर निहारिका अनुमान कर लेती कि वह चक्रवाल है।
फिर भी वह पूछती—'कौन है?'
"मैं हूं...!' बाहर खड़ा हुआ चक्रवाल कहता।
'जाओ इस समय!' किन्नरी अनचाहे कह देती।
'मैंने ऐसा ही किया है पिताजी ! मैं तब तक युद्ध करता रहा, जब तक कि अशक्त होकर भूमि पर न गिर पड़ा—मैंने निश्चय कर लिया है कि शीघ्र ही हम दोनों किसी स्थान पर मिलकर अपने बलाबल का निर्णय करेंगे। देखें हमारी यह आकांक्षा कब सफल होगी...।' युवराज शिथिल वाणी में बोले।
महामाया के सुविशाल राजमंदिर के प्रांगण में कई प्रकोष्ठ निर्मित थे। जिनमें एक में महापुजारी पौत्तालिक, दूसरे में युवक गायक चक्रवाल एवं तीसरे में अप्सरा-सी सुंदरी किन्नरी निहारिका, ये तीन ही व्यक्ति निवास करते थे।
निहारिका, महामाया मंदिर की कित्ररी थी। यौवनराशि द्वारा प्रोद्भासित उसकी मधुयुक्त मुखराशि अतीव मनोहर दृष्टिगोचर होती थी।
उसकी सघन घटा जैसी श्यामल केश-राशि का एकाध केश हवा का सहारा पाकर, जब उसके आरक्त कपोलों पर नृत्य करने लगता तो ऐसा लगता था मानो समग्र संसार का सौंदर्य उस कलामय किन्नरी के कपोलों पर उतर आया है।
उसके मृगशावक सदृश नयनों में उपस्थित थी तीन मादकता एवं मधुरिमा। काली-काली पुतलियां ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो जगत की सारी सुषमा का प्रवेश हो उनमें। जब उसके रक्त-रंजित अधर हर्षातिरेक उत्फुल्ल होकर चतुर्दिक अपनी हृदयवेधी मुस्कान बिखेर देते तो ऐसा ज्ञात होता,जैसे कलाधर अपनी सम्पूर्ण कलाओं सहित प्रकाशमान हो उठा है।
उसके सुपुष्ट वक्षस्थल पर कसी हुई रत्नजड़ित लसित कंचुकी, कटिप्रदेश में झलझलाता हुआ लहंगा एवं पैरों में लसित नुपुरराशि वास्तव में ऐसे लगते थे मानो देवराज की कोई अप्सरा पथभ्रांत होकर इस शस्यश्यामला भूमि पर चली आई हो।
गायक चक्रवाल का प्रकोष्ठ किन्नरी निहारिका के प्रकोष्ठ के पार्श्व में ही था। दोनों अपनी अपनी कला में उत्कृष्ट थे। चक्रवाल चारण था, उसकी गायन-कला अपूर्व थी—निहारिका किन्नरी थी, उसकी नर्तन-कला मुग्धकारी थी।
परन्तु दोनों कला के भिन्न-भिन्न अंगों में पारंगत होते हुए भी एक न हो सके थे। उनके व्यवहार, उनकी शालीनता में कोई अंतर न था। अवकाश मिलने पर दोनों एकांत में बैठकर वार्तालाप करते थे।
पूजनोत्सव से लौटकर कभी-कभी निहारिका जब अपने प्रकोष्ठ में आकर कपाटों को भीतर से बंद कर, वस्त्र परिवर्तन करने लगती-तभी चक्रवाल आ पहुंचता। द्वार पर खट्ट-खट्ट की ध्वनि सुनकर निहारिका अनुमान कर लेती कि वह चक्रवाल है।
फिर भी वह पूछती—'कौन है?'
"मैं हूं...!' बाहर खड़ा हुआ चक्रवाल कहता।
'जाओ इस समय!' किन्नरी अनचाहे कह देती।
- rajsharma
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Re: Romance कुमकुम
'मैं नहीं जाता—देखू कब तक द्वार नहीं खुलता।' चक्रवाल द्वार पर जमकर बैठ जाता, परन्तु कान भीतर की ओर लगे रहते।
भीतर से वीणा-विनिन्दित स्वर में एक मधुर रागिनी निकल पड़ती—'तुम आग लगाने क्यों आये?'
चक्रवाल चुप रहता। भीतर से पुन: वही ध्वनि यावत् प्रकृति को विकल करती हुई प्रतिध्वनित हो उठती—'तुम आग लगाने क्यों आये?'
चक्रवाल का गायक हृदय स्थिर न रह पाता। वह झूम-झूमकर गाने लगता 'मधुर स्मृति आलिंगन-देवता मधुर पीड़ित चुम्बन ! कण-कण में तड़पन और जलन... अंदर से रागिनी निकलती मेरे उर की सूखी बगिया में, तुम आग लगाने क्यों आये? तुम आग जलाने क्यों आये?' गायन समाप्त हो जाता और प्रकोष्ठ के द्वार खुल जाते। चक्रवाल उठकर मन्थर गति से प्रकोष्ठ के भीतर प्रवेश करता। उसकी गंभीरतापूर्ण मुखाकृति पर तनिक भी हास्य की रेखा प्रस्फुटित न होती।
वह शून्य दृष्टि से किन्नरी की और निहारकर पुकारता—'किन्नरी...!'
. .......
...............' निहारिका अपलक नयनों द्वारा चक्रवाल की सिद्धहस्त अंगुलियों का निरीक्षण करती रहती।
ये अंगुलियां, जो वीणा के चमचमाते तारों पर अविराम गति से दौड़ती हुई प्रकृति के कोलाहलपूर्ण वातावरण को शांत कर देने की क्षमता रखती थीं।
'एक बात पूछ् ?' चक्रवाल ने प्रश्न किया।
'पूछो न...?' कहते-कहते किन्नरी की दंत-पंक्तियां सघन घन में विद्युत छटा-सी आलोकित हो उठती।
'आज उपासना समाप्त हो जाने पर जब श्रीयुवराज के शुभ ललाट पर कुंकुम लगाने के लिए उद्यत हुई थी तो मैंने ध्यानपूर्वक देखा था कि उनके सामने तुम्हारे हाथ कांप उठे थे। तुमने अपने नेत्रों की सारी सुषमा श्रीयुवराज के मुखमंडल पर केंद्रित कर दी थी। तुम्हारे उज्ज्वल मुख पर लज्जाजनित सौंदर्य प्रस्फुटित हो उठा था। जब तुमने थोड़ा-सा कुंकुम उठाकर श्रीयुवराज के मस्तक पर लगाया था, उस समय तुम्हारे कम्पित करों ने अपना कार्य सुन्दरतापूर्वक पूर्ण नहीं किया था। फलत: कुंकुम का थोड़ा-सा भाग युवराज की नासिका पर गिर गया था। श्रीयुवराज के अधरद्वय, मधुर मुस्कान की प्रभा से परिपूर्ण हो उठे थे—तुम्हारी असावधानी देखकर ! जीवन में आज प्रथम बार श्रीयुवराज तुम्हारी ओर देखकर मुस्कराये थे...यों तो तुम नित्यप्रति ही महामाया के मंदिर में श्रीयुवराज एवं श्रीसम्राट के समक्ष नृत्य करती हो, उपासना समाप्त हो जाने पर प्रतिदिन तुम अपने करों द्वारा श्रीयुवराज के देदीप्यमान मस्तक पर कुंकुम की रेखा खींचती हो, परन्तु आज तक श्रीयुवराज ने तुमसे तनिक भी सम्भाषण नहीं किया था...।'
'कैसे सम्भाषण कर सकते हैं, श्रीयुवराज...?' किन्नरी निहारिका ने हृदय की आंतरिक पीड़ा को एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर बहिर्गत किया और बोली-'वे हैं एक परमोज्ज्चल कूल के अनमोल रत्न और मैं हूँ एक अधम किन्नरी। मेरे और उनके मध्य कहां गगनमण्डल का एक महान् अंतर है, चक्रवाल...। कहां निर्मल धवल चन्द्र और कहां एक तारिका।'
'एक बात तो है! लोकलज्जा एवं बाह्याडम्बर के वशीभूत होकर वे चाहे तुमसे संभाषण न कर सकते हों, मगर उनके हृदय में तुम्हारे प्रति एवं तुम्हारी कला के प्रति अपार आदर एवं प्रेम है। मुझसे बहुत बार वे तुम्हारी नर्तन-कला की प्रशंसा कर चुके हैं। आज भी तुम्हारे विषय में मुझसे बहुत-सी बातें कर रहे थे...।'
'सच?'
'और नहीं तो क्या?'
'आजकल श्रीयुवराज मंदिर में नहीं पधार रहे हैं?'
'कई दिन पूर्व वे आखेट को गये थे, वहीं आहत हो गये थे। आशा है कल वे राममंदिर में पधारेंगे। सच पूछो तो युवरज के बिना पूजनोत्सव सूना-सा लगता है। मुझसे गाया नहीं जाता और तुम्हारी तो सम्पूर्ण कला ही फीकी हो जाती है, श्रीयुवराज को अनुपस्थित देखकर। बड़े सहृदय हैं, श्रीयुवराज....।'
भीतर से वीणा-विनिन्दित स्वर में एक मधुर रागिनी निकल पड़ती—'तुम आग लगाने क्यों आये?'
चक्रवाल चुप रहता। भीतर से पुन: वही ध्वनि यावत् प्रकृति को विकल करती हुई प्रतिध्वनित हो उठती—'तुम आग लगाने क्यों आये?'
चक्रवाल का गायक हृदय स्थिर न रह पाता। वह झूम-झूमकर गाने लगता 'मधुर स्मृति आलिंगन-देवता मधुर पीड़ित चुम्बन ! कण-कण में तड़पन और जलन... अंदर से रागिनी निकलती मेरे उर की सूखी बगिया में, तुम आग लगाने क्यों आये? तुम आग जलाने क्यों आये?' गायन समाप्त हो जाता और प्रकोष्ठ के द्वार खुल जाते। चक्रवाल उठकर मन्थर गति से प्रकोष्ठ के भीतर प्रवेश करता। उसकी गंभीरतापूर्ण मुखाकृति पर तनिक भी हास्य की रेखा प्रस्फुटित न होती।
वह शून्य दृष्टि से किन्नरी की और निहारकर पुकारता—'किन्नरी...!'
. .......
...............' निहारिका अपलक नयनों द्वारा चक्रवाल की सिद्धहस्त अंगुलियों का निरीक्षण करती रहती।
ये अंगुलियां, जो वीणा के चमचमाते तारों पर अविराम गति से दौड़ती हुई प्रकृति के कोलाहलपूर्ण वातावरण को शांत कर देने की क्षमता रखती थीं।
'एक बात पूछ् ?' चक्रवाल ने प्रश्न किया।
'पूछो न...?' कहते-कहते किन्नरी की दंत-पंक्तियां सघन घन में विद्युत छटा-सी आलोकित हो उठती।
'आज उपासना समाप्त हो जाने पर जब श्रीयुवराज के शुभ ललाट पर कुंकुम लगाने के लिए उद्यत हुई थी तो मैंने ध्यानपूर्वक देखा था कि उनके सामने तुम्हारे हाथ कांप उठे थे। तुमने अपने नेत्रों की सारी सुषमा श्रीयुवराज के मुखमंडल पर केंद्रित कर दी थी। तुम्हारे उज्ज्वल मुख पर लज्जाजनित सौंदर्य प्रस्फुटित हो उठा था। जब तुमने थोड़ा-सा कुंकुम उठाकर श्रीयुवराज के मस्तक पर लगाया था, उस समय तुम्हारे कम्पित करों ने अपना कार्य सुन्दरतापूर्वक पूर्ण नहीं किया था। फलत: कुंकुम का थोड़ा-सा भाग युवराज की नासिका पर गिर गया था। श्रीयुवराज के अधरद्वय, मधुर मुस्कान की प्रभा से परिपूर्ण हो उठे थे—तुम्हारी असावधानी देखकर ! जीवन में आज प्रथम बार श्रीयुवराज तुम्हारी ओर देखकर मुस्कराये थे...यों तो तुम नित्यप्रति ही महामाया के मंदिर में श्रीयुवराज एवं श्रीसम्राट के समक्ष नृत्य करती हो, उपासना समाप्त हो जाने पर प्रतिदिन तुम अपने करों द्वारा श्रीयुवराज के देदीप्यमान मस्तक पर कुंकुम की रेखा खींचती हो, परन्तु आज तक श्रीयुवराज ने तुमसे तनिक भी सम्भाषण नहीं किया था...।'
'कैसे सम्भाषण कर सकते हैं, श्रीयुवराज...?' किन्नरी निहारिका ने हृदय की आंतरिक पीड़ा को एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर बहिर्गत किया और बोली-'वे हैं एक परमोज्ज्चल कूल के अनमोल रत्न और मैं हूँ एक अधम किन्नरी। मेरे और उनके मध्य कहां गगनमण्डल का एक महान् अंतर है, चक्रवाल...। कहां निर्मल धवल चन्द्र और कहां एक तारिका।'
'एक बात तो है! लोकलज्जा एवं बाह्याडम्बर के वशीभूत होकर वे चाहे तुमसे संभाषण न कर सकते हों, मगर उनके हृदय में तुम्हारे प्रति एवं तुम्हारी कला के प्रति अपार आदर एवं प्रेम है। मुझसे बहुत बार वे तुम्हारी नर्तन-कला की प्रशंसा कर चुके हैं। आज भी तुम्हारे विषय में मुझसे बहुत-सी बातें कर रहे थे...।'
'सच?'
'और नहीं तो क्या?'
'आजकल श्रीयुवराज मंदिर में नहीं पधार रहे हैं?'
'कई दिन पूर्व वे आखेट को गये थे, वहीं आहत हो गये थे। आशा है कल वे राममंदिर में पधारेंगे। सच पूछो तो युवरज के बिना पूजनोत्सव सूना-सा लगता है। मुझसे गाया नहीं जाता और तुम्हारी तो सम्पूर्ण कला ही फीकी हो जाती है, श्रीयुवराज को अनुपस्थित देखकर। बड़े सहृदय हैं, श्रीयुवराज....।'
- kunal
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Re: Romance कुमकुम
बढ़िया मस्त अपडेट है
अगले अपडेट का इंतज़ार रहेगा
अगले अपडेट का इंतज़ार रहेगा