Horror अगिया बेताल

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Dolly sharma
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Horror अगिया बेताल

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अगिया बेताल

मैं उस दृश्य को देख रहा था। इससे पहले भी मैंने लोगों के मुँह से सुना था, पर मुझे यह सब देखने का अवसर पहली बार मिला था। मैं स्तब्ध था कि यह सब जो मैं देख रहा हूँ - इसमें कितनी सच्चाई है। कल तक जो बात कानो सुनी थी, वह प्रत्यक्ष नजर आ रही थी।

हवा बर्फ की तरह सर्द थी। ऊपर से पानी बेहिसाब बरस रहा था। बादल आसमान का सीना फाड़े दे रहे थे और कुछ-कुछ समय का आराम दे कर इस प्रकार गड़गड़ा उठते जैसे पास की पहाड़ी पर सैकड़ो डायनामाइट फट गए हो। हवा की सायं-सायं उस वक़्त जब बदल शांत होते, महसूस होता कि जैसे बदल कुछ देर के लिए सांस ले रहे हो। एकाएक बिजली कौंधती और सारी धरती तेज़ उजाले में स्नान करती प्रतीत होती।

यह एक बेहद बरसाती तूफानी रात थी। हालाँकि मेरे शरीर पर बरसाती थी पर पानी से सराबोर हो चुकी थी। बरसाती यूँ जान पड़ती जैसे मैंने बर्फ की चादर ओढ़ ली हो।

हवा नश्तर बन कर चुभ रही थी। रह-रह कर मैं सिर से पांव तक दहल जाता। यदि मैं अकेला होता तो मेरे कदमो में ठहराव न रहता और कभी का ज़मीन पर लोट चुका होता। दहशत दिल में राज कर लेती, पर सौभाग्य से मेरे साथ लठैत थे, जिनके पास कहने को एक-एक गज का कलेजा हुआ करता था। सांझ होते ही जब मैं चला था तो मैंने उन्हें साथ ले लिया था। इसलिए नहीं कि मैं डरपोक था, इसलिए भी नहीं की रास्ते में चोर डाकुओं का भय रहा हो। असल बात यह थी की उस इलाके में जहाँ हमे जाना था आदमखोर चीते का आतंक फैला हुआ था और वह इक्के-दुक्के आदमी पर कहीं भी हमलावर हो सकता था। इस कारण मैंने दो लठैतो को साथ ले लिया था।

जब मैं चला तो सांझ घिर आई थी। बादल तो सुबह से ही आसमान पर अपना कब्ज़ा किये हुए थे और दो मील चलते-चलते बूंदा-बांदी भी होने लगी थी। अब तो चलते-चलते चार घंटे बीत गए थे। बारिश का अन्देशा पहले से ही था इसलिए बरसाती लेता आया था, साथ में शिकारी टार्च थी और कंधे पर आवश्यक सामन का एक थैला लटका हुआ था।

मुझे खबर मिली थी की मेरे पिता का देहांत हो गया है इसलिए जाना लाजमी था, क्योंकि मेरे अलावा पिता की कोई संतान नहीं थी। यूँ तो मेरे पिता ने बहुत बार मुझे बुलाने का प्रयास किया था परन्तु मैं कभी वहां गया ही नहीं था। बचपन तो वहां बीता ही था, जिसकी धुंधली सी स्मृतियाँ शेष थी। कभी कभार पिता की चिठ्ठी पत्री भी आ जाया करती थी। मैं शहरी आबोहवा में पला था। मेरे चाचा की कोई संतान नहीं थी। वे शहर में रहते थे और मुझे बहुत ज्यादा प्यार करते थे, और उन्होंने भरसक प्रयास किया था कि मैं अपने पिता की छत्र-छाया में न पलूं।

बचपन में कुछ घटनायें ऐसी भी घटी जिसके कारण मैं अपने पिता से भयभीत हो गया था और उनसे नफरत करने लगा था। जब थोड़ा समझदार हुआ तो मुझे इसका कारण भी समझ में आ गया कि मेरे चाचा ने क्यों मुझे पिता की छाया से दूर रखा और उनका यह सोचना मेरे हित में था। यदि ऐसा ना होता तो मैं विज्ञान का स्नातक न बन पाता और मेरी जिन्दगी में जो खुशहाली आने वाली थी, वह मुझसे दूर हो जाती और मैं भी अपने पिता सामान घृणित गन्दी जिंदगी व्यतीत कर रहा होता।

छः माह पहले मेरा अप्वाइन्मेंट विक्रमगंज में हुआ था। मुझे ख़ुशी हुई कि मैं अपने गाँव के करीब बनने वाले एक सरकारी अस्पताल में डॉक्टर की हैसियत से आया हूँ। पर इस दौरान मैं एक बार भी पिता से मिलने नहीं गया था। हलकी सी खबर मेरे कान में पड़ी कि मेरे पिता पागलों के समान आचरण करने लगे हैं। यह भी खबर सुनी थी की पिता ने तीसरा विवाह कर लिया है बुढ़ापे में किसी युवती को रख लिया है। ये उड़ती-उड़ती खबरें मुझे प्राप्त होती रहती थीं पर इस पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता था। मेरे पिता के आचरण को देखते हुए यह स्वाभाविक बात थी। इससे पहले सौतेली मां की मार तो बचपन में भी खा चुका था और अपनी मां की शक्ल तो जेहन में भी नहीं उभर पाती थी। बस सुना ही सुना था की मेरी मां धार्मिक विचारों की थी और उसकी मेरे पिता से कभी भी नहीं निभ पाई थी।
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Dolly sharma
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मेरे पिता एक तांत्रिक थे और पूरे इलाके में मेरे पिता साधुनाथ का भय व्याप्त था। हर बुरे काम जादू-टोने, तंत्र-मंत्र के लिए सधुनाथ प्रसिद्ध था और उसने कईयों के घर बर्बाद कर दिए थे। न जाने कितनी स्त्रियों और कुंवारी लड़कियों से उसने अवैध सम्बन्ध कायम किया था और उनकी कारगुजारियों के खिलाफ कोई आवाज नहीं निकालता था। जो ऐसा करता उसे तांत्रिक का दंड भुगतना पड़ता। बहुत से लोग मेरे पिता के पास इसलिए आते ताकि दूसरों को हानि पंहुचा सकें और बदले में मेरे पिता उनसे मोटी-मोटी रकम ऐंठा करते।

वह अधर्मी क्रूर और साक्षात यमराज लगता था। यहाँ यह कहने में मुझे जरा भी हिचक नहीं कि मैं अपने बाप से अत्यंत घृणा करता था। मेरे मन में उनके प्रति कभी कोई आदर की भावना नहीं ऊपजी। और यदि उसे पहले मालूम हो जाता की मैं उनके चंगुल में नहीं आऊंगा तो वह मेरे टुकड़े-टुकड़े कर देता।

परन्तु उसकी मौत का समाचार पाकर मुझे दुःख हुआ कि हम बाप बेटों में कभी सुलह ही नहीं हुई। एक तनाव भरा वक़्त गुजरकर हाथ से निकल गया और वह तांत्रिक सदा के लिए दुनिया छोड़कर चला गया।

न जाने कितने लोगों ने चैन की सांस ली होगी पर मुझे दुःख तो था ही। कुछ भी हो, वह मेरा बाप था। मुझमे उसी का रक्त संचार हो रहा था।

विक्रमगंज से बारह मील दूर एक पुराना रजवाड़ा था सूरजगढ़। अब वह कस्बे में बदल गया था... पर सूरजगढ़ी अब भी वहां मौजूद थी। सूरजगढ़ी में रजवाड़े के वंशज ही रहते थे। इन दिनों ठाकुर भानुप्रताप उस गढ़ी के मालिक थे, जिनका आज भी पूरे क्षेत्र में दबदबा था। परन्तु लोग कहते है कि ठाकुर की सधुनाथ से ठनी हुई थी और दोनों एक-दूसरे के जानी दुश्मन थे। इस बात में कितनी सच्चाई थी, मैं नहीं जनता था और न उनकी आपसी दुश्मनी का कारण जानता था।

इस वक़्त तो मैं अपने सफ़र पर चलता-चलता रुक गया था। कोई सवारी न मिलने के कारण हम लोग पैदल ही चल निकले थे, क्योंकि सवेरे से पहले अपने पिता का दाह संस्कार करने मुझे वहां पहुँचना था।

बादलों का गर्जन कानों के परदे फाड़े डाल रहा था।

मेरी निगाह उसी तरफ जमी थी।

सारे वातावरण में रात की काली चादर तनी थी। मूसलाधार वर्षा के कारण अन्धकार और भी हो गया था। मुझे अपने साथ चलने वाले लठैत के क़दमों की चाप सुनाई देती, पर उनके शरीर नजर न आते। टार्च के प्रकाश से मैं उन्हें देख लेता। कभी-कभी हम एक दूसरे से बातें कर लिया करते, ताकि भयपूर्ण वातावरण हम पर हावी ना हो जाए।

मेरे ठिठकने का कारण नदी का वह विशाल अलाव था जो प्रचंड वेग से आकाश की ऊँचाइयों तक उठता और क्षण भर में ही सिमटकर गायब हो जाता। देखते-देखते वह विकराल रूप धारण कर लेता, फिर अनेक शोले वायुमण्डल में दूर तक तैरते चले जाते। इतनी भयंकर वर्षा में इस प्रकार का अलाव का जलना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। इसीलिए मैंने लठैतों को भी रुकने का आदेश दिया।

“क्या बात है साहब बहादुर?” उनमे से एक ने पूछा “आप रुक क्यों गये?”

“वह देखो...।” मैंने उस तरफ इशारा किया – “ऐसा विचित्र दृश्य तुमने कभी नहीं देखा होगा। मुसलाधार पानी बरस रहा है और वहां आग लगी है।”

दूसरा लठैत कुछ सहमे स्वर में बोला – “वह शमशान घाट है साहब बहादुर। हमे उस तरफ देखने की बजाय आगे बढ़ना चाहिए।”

“शमशान घाट, तो क्या इस वक़्त वहां कोई चिता जल रही है?”

“नहीं साहब बहादुर... वहां एक पुराना बरगद का पेड़ है, आग उसी के नीचे है। वह कोई चिता नहीं,पानी बरस रहा है, ऐसे में चिता आग कैसे पकड़ सकती है।”
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“तुम्हारा मतलब वह आग नहीं है।”

“जी नहीं... और यह कोई नई बात नहीं। अक्सर वहां यह होता रहता है।”

“तुम कहना क्या चाहते हो?”

दोनों लठैत चुप हो गये। शायद वह दिल की बात कहने में सकुचा रहे थे, या किसी प्रकार के भय ने उन्हें जकड़ लिया था।

“क्या बात है शम्भू – तुम चुप क्यों हो गये?”

“साहब बहादुर वह आग नहीं – अगिया बेताल है।” वह कुछ सहमे स्वर में बोला – “और हमारा इस प्रकार की लीला देखना ठीक नहीं।”

“क्या... अगिया बेताल... यह क्या होता है?”

“बेताल बेताल होता है साहब...जिन्न।”

“नॉनसेंस – तुम लोग न जाने किस दुनिया में रहते ही – चलो चलकर देखा जाए।”

“साहब बहादुर...” दूसरा लठैत घबराये स्वर में बोला – “ऐसा सहस दिखाना बेवकूफी है शम्भू ठीक कहता है। अगर हमने उनके खेल में बाधा डाली तो हम जिन्दा नहीं बचेंगे।”

“लेकिन मैं यह बकवास नहीं मानता।”

“तो साहब बहादुर ! आप ही बताओ खुले आसमान के नीचे इतनी तेज़ बारिश में चिता कैसे जल सकती है?”

अब मैं खामोश हो गया। इस प्रश्न का जवाब खोजने के लिए तो मैं वहां रुका था। यह हड्डियों की फास्फोरस का चमत्कार भी नहीं हो सकता था। हालाँकि वह स्थान हमसे अधिक दूर नहीं था। मैंने सुना था की मेरे पिता ने जो नया मकान बनाया था, वह मरघट के नजदीक ही पड़ता था और तंत्र सिद्धि के लिए वे शमशान घाट पर ही अपना अधिक समय बिताया करते थे। कुछ लोगों का कथन था कि सधुनाथ ने वह मकान भूतों के लिए बनाया है और वे असंख्य प्रेत उसी में रहते है।

मेरे पिता का शव उसी मकान में रखा गया था और सूरजगढ़ का कोई इंसान इस क्रियाकर्म में सम्मिलित नहीं होना चाहता था।

मैं शमशान में जाकर उस आग का प्रत्यक्ष दृश्य देखना चाहता था, परन्तु मेरे साथी लठैत किसी भी कीमत पर वहां जाने के लिए तैयार नहीं थे।

“अगर हम अपने नए मकान तक पहुँचने के लिए वही रास्ता अपनाये तो क्या बुराई है। यदि वह अगिया बेताल है तो मुझे उससे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हो जायेगा।” मैंने कहा।

“आप कैसी बातें करते हैं साहब बहादुर... इस वक़्त हम आपके साथ है, हम आपको वहां हरगिज नहीं जाने देंगे। अगर हमारी बात पर विश्वास न हो तो दिन निकलते ही आप वह जगह देख लेना। यह इस जगह के लिए कोई नई बात नहीं है। इस वक़्त हम आपके साथ हैं और हरगिज आपको वहां नहीं जाने देंगे।”
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एक सर्द लहर चली और बादलों ने घमासान युद्ध छेड़ दिया फिर चकाचोंध पैदा करती कड़कड़ाती बिजली की लहर जमीन की तरफ दैत्याकार जिव्हा की तरह लपकी और बारूद की गुफा फट जाने जैसा जबरदस्त धमाका हुआ।

“कहीं बिजली गिरी है...।” सहमा सा दूसरा लठैत बोला।

अगर मौसम इतना खतरनाक नहीं होता तो शायद मैं अपने निर्णय से पीछे नहीं हटता। पर ऐसे भयानक मौसम में दिल स्वाभाविक रूप से कमजोर हो जाता है। सांय-सांय की आवाज़ कानों से टकरा रही थी, जो पास बहने वाली नदी की थी।

हम वहां अधिक देर नहीं ठहर सके। बिजली चमकती तो उसका उजाला चारो तरफ फैलने पर कोई हलचल नजर नहीं आती।

मैं उन बातों पर विश्वास नहीं करता था, परन्तु हालत ऐसे थे कि मुझे विश्वास करना पड़ रहा था। इस अनोखे घटना चक्र के बीच जूझता मैं अपनी मंजिल तय कर रहा था पर मैंने मन ही मन यह तय कर लिया था कि इस भेद को अवश्य जानूँगा – भले ही इसके लिए मुझे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। यह तो प्रकृति की एक रहस्यमय खोज साबित होगी।

मेरे भीतर का मानव मुझे इस खोज के लिए प्रेरित कर रहा था। झाड़-झुरमुट और काले दैत्यों के सामान झूमते वृक्षों के तले हम आगे बढ़ रहे थे। अब मंजिल अधिक दूर नहीं थी।

हमें सीधे नए मकान में जाना था, क्योंकि मेरे पिता का शव वही रखा गया था। कुछ देर बाद ही मकान का प्रकाश चिन्ह नजर आना शुरू हो गया।

हमारे बीच सारे रास्ते रहस्यमय खामोशी छाई रही।

पगडण्डी मकान के निकट से गुजरती चली गई थी। यह अकेला मकान तूफानी वर्षा से संघर्ष करता प्रतीत हो रहा था।आसपास कोई मकान नहीं था। पूर्व में स्याह जंगल के चिन्ह और मकान के पीछे खंडहरों का ऐसा सिलसिला जो कहीं भी ख़त्म होता प्रतीत नहीं होता था।

बिजली की चमक में रह-रह कर मकान के आस-पास का हिस्सा नजर आ जाता था। मकान में गहरी ख़ामोशी व्याप्त थी। किसी का भी रुदन सुनाई नहीं पड़ता था और न कोई आदमी नजर आ रहा था।

मुख्य दरवाजे के पास लालटेन लटकी हुई थी जिसका मद्धिम प्रकाश बरामदे को भय से मुक्त करने का असफल प्रयास कर रहा था। सामने एक छोटा सा सेहन था, झाड़ियाँ जिसमें उगी नजर आ रही थीं। सेहन के चारो तरफ तारों का घेरा कसा था और बीच में लकड़ी का बेढंगा सा फाटक, जो आधा टूट गया था।

दायें भाग में एक बड़ा वृक्ष खड़ा था उस पर पत्तियों का कोई चिन्ह नजर नहीं आता था, सिवाये सूखे तनो के। उसके पास अपना कहने को कुछ नहीं था।
हमने बरामदे में कदम रखा।

हवा के झोंके ने लालटेन पर जोर अजमाया और वह थोड़ा टसमस होती प्रतीत हुई, पर उसकी रौशनी पर कोई अंतर नहीं पड़ा।

बरामदे की छाया में पहुँच कर तनिक राहत मिली। हवा के झोंके अब भी रहा सहा क्रोध प्रकट कर रहे थे, शायद हमारे यहाँ सफल पहुँच जाने पर हारे हुए जुआरी की तरह झुंझला रहे थे। हमने कपडे झाड़ कर उन्हें रुखसत किया फिर मैं दरवाजे की तरफ बढ़ा।

दरवाज़ा भीतर से बंद था। मैंने उसे जोर-जोर से थपथपाया। कुछ देर तक भीतर की आहट सुनने के लिए हाथ रोक दिया। थपथपाहट की प्रतिक्रिया तुरंत हुई। किसी की भारी पदचाप सुनाई दी जो निरंतर दरवाजे के निकट आ रही थी। पदचाप दरवाजे के निकट रुकी, फिर दरवाज़ा चरमराता हुआ खुल गया।
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लालटेन के प्रकाश में पीला सा रुग्ण चेहरा नजर आया। मेरे लिए यह चेहरा अजनबी था। मैं पुरे अट्ठारह वर्ष बाद इस तरफ आया था, इसलिए जिन लोगों को जानता भी था, उनकी स्मृति भी अब शेष नहीं रही थी।

“पैलागन बाबा!” लठैत संभु ने उस अजनबी को दंडवत किया –”हम साहब बहादुर को ले आये।”

सारे लठैतों ने भी पैलागन किया।

“तुम आ गए बेटा रोहताश।” बूढ़े बाबा ने गंभीर स्वर में कहा – “पहचानने में भी नहीं आते, बहुत बदल गए हो।”

मैंने हाथ जोड़ दिए।

“पहचाना नहीं।” बूढ़ा बोला – “मैं ब्रह्मानंद हूँ...।”

“ओह ताऊ जी...।”

“हाँ बेटा।” बूढ़े ने झुंझलाए स्वर में कहा – “मैंने सोचा ऐसे समय में क्यों साथ छोड़ा जाये। मुझे कल ही खबर मिली थी कि साधू अंतिम घड़ी गिन रहा है... आओ आओ बेटा...।” बूढा बाबा मुड़ गया।

यूँ ब्रह्मानंद मेरे सगे ताऊ नहीं थे। पर उनके मेरे पिता पर बहुत से अहसान थे। मैं क्या सारा सूरजगढ़ उन्हें या तो ताऊ जी कहता था या बाबा। वे सारी उम्र ब्रह्मचारी रहे थे। बाद में वे सन्यासी हो गए और सारी सम्पति मेरे पिता को दे दी थी। मैं उनके बारे में अधिक कुछ नहीं जानता था।

मकान के भीतर की दीवारें मैली कुचैली थी और कोई स्थान ऐसा नहीं था, जिसे साफ़ सुथरा कहा जाए।

भीतर के कमरे में पांच छः आदमी थे, वे भी शायद कर्त्तव्य भावना के वश आ गए थे। इतने बड़े सूरजगढ़ में उनकी मृत्यु का शोक मानाने वाले वे ही आदमी थे। हम लोगों ने परिचय प्राप्त करने की अनोपचारिकता बरती... फिर मुझे पिता के शव के अंतिम दर्शन कराये गए। पिता का चेहरा पहचानने में नहीं आता था।

सब कुछ बड़ी ख़ामोशी से हो रहा था।

बाप बेटे का संघर्ष ख़त्म हो गया था। मुझे दुःख इसी बात का था कि हमारे बीच कभी समझौता नहीं हुआ। फिर मैं वापिस आकर सब लोगों के बीच बैठ गया, जो साधुनाथ के गुणों का बखान करते हुए उनकी आत्मा को शांति पंहुचा रहे थे। मकान के सभी कमरे बंद थे।

मैं अपनी सौतेली मां के बारे में पूछने की सोच रहा था, परन्तु न जाने क्यों खामोश ही रहा। अब मैं यहाँ आ गया था तो सब कुछ धीरे-धीरे मालूम हो ही जायेगा।

“न जाने कैसे उसे पहले ही अपनी मृत्यु का आभास हो गया था... उसने मुझे तार दे दिया था।” ताऊ जी ने कहा – “मैं तो उसे सारी जिंदगी समझाते-समझाते हार गया मगर उसने तंत्र-मंत्र की दुनिया नहीं छोड़ी। भगवन जाने वह क्या सिद्धि प्राप्त करना चाहता था।”

“क्या वे बीमार थे?” मैंने पूछा।

“नहीं बेटा कोई बीमारी नहीं थी।” एक बुजुर्ग ने कहा।
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