Thriller मकसद

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rangila
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Re: Thriller मकसद

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“ये बढ़िया है । जो मैं कहूं उसी को तू तोते की तरह रट दे । यूं ही रात बीत जाएगी, फिर दिन में कोई नया खेल खेलेंगे । ठीक है !”

वो खामोश रहा ।
“साले मैं अगवा की कहानी पूछ रहा हूं । क्यों किया मेरा अगवा । क्यों जरूरी है मेरा मदान के छोटे भाई के घर ग्यारह वजे पहुंचाया जाना? ये कहानी बोल । समझा ?”
“मुझे कुछ नहीं मालूम ।”
“क्या !” मैं आंखें निकालकर वोला ।
“भैय्ये मैं सच कह रहा हूं । पचास हजार की फीस के बदले में मुझे एक काम सौंपा गया था जो कि मैं कर रहा था ।”
“मुझे अगवा करके आगे डिलीवर करने का काम ?”
“हां ।”
“इतने से काम की फीस पचास हजार रुपए ?”
“ज्यादा नहीं है । इस फीस में एक कत्ल भी शामिल था ।”

“हामिद का ?”
“हां ।”
“तू अपने शागिर्द का कत्ल करता!”
“वो मेरा कुछ नहीं । वो महज भाड़े का टट्टू था जो इस उम्मीद में उछल-उछलकर मेरा साथ दे रहा था कि फीस में उसकी पचास फीसदी की शिरकत थी ।”
“जबकि ऐसी फीस उसे देने का तेरा कोई इरादा नहीं था ।”
“मुर्दे” उसके चेहरे पर एक क्रूर मुस्कराहट आई, “कहीं फीस वसूल करते हैं !”
“मदान ने भी ऐन यही सोचा होगा पचास हजार रुपए की फीस मुकर्रर करते हुए ।”
“क्या ?”
“यही मुर्दे कहीं फीस वसूल करते हैं !”
वो चौंका । उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव आए ।

“मदान साहब” फिर वह धीरे-से बोला, “मेरे साथ यूं पेश नहीं आ सकते ।”
“क्यों? तू आसमान से उतरा है ? तू उसका सगेवाला है ?”
“मैंने उनकी बहुत खिदमत की है ।”
“फीस लेकर । फोकट में भी की हो तो बोल ।”
वो खामोश रहा । उसके चेहरे पर चिंता के भाव गहराने लगे ।
“अब अगवा की कहानी बोल ।”
“मुझे कुछ नहीं मालूम ।”
“अपने अंजाम से बेखबर तो होगा नहीं तू !”
“तू मेरा भी खून करेगा ?”
“खून खराबा मेरा काम नहीं ।”
“ये तब कह रहा है जबकि अभी पांच मिनट पहले एक खून करके हटा है ।”

“बक मत । मैंने सेल्फ डिफेंस में गोली चलाई थी ।”
“वो क्या होता है ?”
“आत्मरक्षा । अपनी जान बचाने के लिए गोली चलाई थी मैंने हामिद पर । विल्कुल अनपढ़ है ?”
“खून नहीं करेगा तो क्या करेगा मेरा ?”
“मैं तुझे पुलिस के हवाले करूंगा ।”
“क्यों ? मैंने क्या किया है ! खून-खच्चर तो तूने फैलाया है ।”
“साले ! मेरा अगवा नहीं किया ? जानता नहीं आई पी सी में कितनी सजा है अगवा की ?”
”हें.. हें .. हें । तू कोई औरत है ! तुझे कोई जबर-जिना का खतरा था ! तेरी कोई इज्जत लुट रही थी !”

“साले, मसखरी करता है !”
“मौजूदा हालात में पुलिस को यकीन दिला लेगा कि तेरा अगवा हुआ है ।”
“क्या हुआ है हालात को ?”
“तुझे नहीं पता ? भीतर एक लाश पड़ी है जिसे लाश तूने बनाया है । मैं बंधा हुआ हूं । तू आजाद है । फिर भी तेरा अगवा हुआ है । हा हा हा ।”
मेरा खून खौल उठा । रिवॉल्वर की नाल की एक भरपूर दस्तक मैंने उसके नाक पर दी । वो पीड़ा से बिलबिला उठा । वैसे ही मैंने उसके कत्थई दांत खटखटाए, उसकी खोपड़ी ठकठकाई ।
“अल्लाह !” वो कराहता हुआ बोला, “अल्लाह !”

“मार के आगे भूत भागते हैं ।” मैं क्रूर स्वर में बोला, “पलस्तर उधेड़ दूंगा मार-मार के ।”
“भैय्ये तू नाहक मेरे पर जुल्म ढा रहा है । अल्लाह कसम, मुझे कुछ नहीं मालूम । मैंने लेना क्या था मालूम करके ! एक काम मिला । मैंने कर दिया । उसकी गहराई में जाने की मुझे क्या जरूरत है ?”
“हां । अब सुर में बोला है ।”
वो खामोश रहा ।
“सिगरेट पिएगा ?”
“फंकी लगाऊंगा ।”
मैंने उसकी जेब से तंबाकू की पुड़िया बरामद की और उसमें से कुछ तंबाकू उसके खुले मुंह में टपकाया । खुद मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया ।

“तो वाकई तुझे नहीं मालूम” मैं बोला “कि मेरे अगवा की क्या जरूरत आन पड़ी थी ?”
“नहीं मालूम ।” वो पुरजोर ढंग से इनकार में सिर हिलाता हुआ वोला, “कसम उठवा लो ।”
“हाल कैसा है आजकल तेरे बाप का ? कारोबार कैसा चल रहा है ?”
“हाल खराब है । कारोबार मंदा है ।”
“अच्छा ! ऐसा क्यों ?”
“कई पंगों में फंसा हुआ है, मदान साहब ! मुख्तलिफ किस्म के दबाव हैं उस पर जिन्हें वो झेल नहीं पा रहा ।”
“इतने बड़े दादा की बाबत ये बात कह रहा है ?”
वो खामोश रहा ।
“जवाब दे !”

उसने तंबाकू में रची-बसी थूक की एक पिचकारी परे दीवार की ओर फेंकी और फिर धीरे-से बोला, “मदान के वारे में क्या जानता है ?”
“खास कुछ नहीं ।”
“तभी तो । खास कुछ जानता होता तो मुझे मालूम होता कि वो बड़ा दादा नहीं खुशकिस्मत दादा है ! उसकी ताकत, मेहनत या सूझ ने नहीं, उसकी तकदीर ने उसे कुछ खास बुलंदियों तक पहुंचाया था और अब उसकी तकदीर ही उसको दगा दे रही है । और तकदीर पर भैय्ये कहां जोर चलता है किसी का वो सिर्फ दिल्ली का दादा है, उन बड़े दादाओं के सामने उसकी क्या औकात है जो सारे हिन्दोस्तान पर बल्कि सारे एशिया पर छाए हुए हैं ।”
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rangila
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“ऐसे बड़े गैंगस्टर भी उसकी आंख में डंडा किए हैं ?”
“पूरा पूरा ।”
“क्यों ?”
“उनकी माकूल खिदमत नहीं की । उनसे बाहर जा के अपना वजूद बनाने की कोशिश की । वो खफा हो गए । नतीजतन दो नम्बर के तमाम धंधों से मदान को अपना हाथ खींचना पड़ा । न खींचता तो बड़े दादाओं के हाथों कुत्ते की मौत मरता ।”
“और ?”
“और ऊपर से सरकार से पीछे पड़ गई । टैक्स वाले पीछे पड़ गए । कुछ गलत किस्म की लीडरान की शह पर कई सरकारी महकमात में ऐसे पंगे फंसा बैठा कि दिल्ली के लाट साहब तक खफा हो गए उससे और ऐसे ऐसे हुक्म फरमा बैठे कि आइन्दा दिनों में मदान साहब को रोटी के लाले पड़ जाएं तो बड़ी बात नहीं ।”

“कमाल है ।”
उसने थूक की एक और पिचकारी छोड़ी ।
“और ?” मैं मंत्रमुग्ध सा बोला ।
“और कोढ़ में खाज जैसा काम ये किया” वो धीरे से बोला, “कि बुढौती में ऐसी कड़क नौजवान छोकरी से शादी कर ली जो हीरे-जवाहरात जड़ी पौशाकें पहनती है, सोने का निवाला खाती है ।”
“कितनी उम्र होगी मदान की ?”
“पचपन के पेटे में तो शर्तिया है ।”
“और छोकरी ? “
“वो है कोई तेईस चौबीस साल की ।”
“बहुत खूबसूरत है ?”
“ताजमहल देखा है ?”
“हां ।”
“कैसा है ?”
“ओह ! इतनी खूबसूरत है ?”
“इससे ज्यादा । इतनी ज्यादा खूबसूरत है कि देखकर ही यकीन आता है ।”

“मैं देखूंगा ।”
“बस देख ही पाएगा । और उसे भी अपनी खुशकिस्मती समझना ।”
“पहलवान ! इस पंजाबी पुत्र की” मैंने अपनी छाती ठोकी, “खुशकिस्मती का जुगराफिया बड़ा टेढ़ा है । खासतौर से खूबसूरत औरतों के मामले में ! आखों में ऐसा मिकनातीसी सुरमा लगाता हूं कि एक बार कोई आंखों में झांक ले तो कच्चे धागे से बंधी पीछे खिंची चली आए । बल्कि कच्चे धागे की भी जरूरत नहीं ।”
वो खामोश रहा । प्रत्यक्षत: मेरी वैसी किसी खूबी से उसे कोई इत्तफाक नहीं था ।
“शादी क्यों की ?” मैंने नया सवाल किया, “खूबसूरत औरत को हासिल करने के लिए मदान जैसे अण्डरवर्ल्ड डान कहीं शादी के बंधन में बंधते हैं !”

“नहीं बंधते । मदान साहब की भी ऐसी कोई मर्जी नहीं थी । लेकिन और किसी तरीके से वो छोकरी पुट्ठे पर हाथ ही नहीं रखने देती थी मदान साहब को । उसको हासिल करने की वाहिद शर्त शादी थी मदान साहब के सामने ।”
“अपना जलाल दिखाया होता ।”
“दिखाया था । काम न आया । मदान साहब उसकी पीठ पीछे गरजता था कि उठवा दूंगा, बोटी-बोटी काटकर चील कौवों को खिला दूंगा, ये कर दूंगा, वो कर दूंगा, लेकिन जब छोकरी के सामने पड़ता था तो भीगी बिल्ली की तरह मिमियाने लगता था । जादू कर दिया था अल्लामारी ने मदान साहब पर । सात फेरों के लपेटे में लेकर ही मानी कमबख्त मदान साहब को ।”

“थी कौन ? करती क्या थी ?”
“चिट्ठियां ठकठकाती थी पुनीत खेतान के दफ्तर में ।”
“टाइपिस्ट थी ?”
“यही होगी अंग्रेजी में ।”
“और ये पुनीत खेतान कौन साहब हुए ?”
“खेतान साहब मदान साहब का कोई नावें-पत्ते का सलाहकार है और कोरट कचहरी की भी कोई सलाह मदान साहब को चाहिए होती है तो मदान साहब उसी के पास जाता है ।”
“फाइनांशल एंड लीगल एडवाइजर !”
“वही होगा अंग्रेजी में ।”
“इतनी खूबसूरत लड़की उसकी मुलाजमत में थी तो उसने नहीं हाथ रखा उस पर ?”
“कोशिश तो जरूर की होगी । खीर का कटोरा सामने पाकर कोई उसमें चम्मच मारने की कोशिश से बाज आता है !”

“यानी कि कोशिश करने वाले कई थे लेकिन वो खीर खाई मदान साहब ने ही ।”
“यही समझ ले ।” वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला, “वैसे मुझे तो अफसोस ही हुआ था !”
“क्यों ?”
“अरे, इतना वड़ा दादा, इतना बड़ा साहब, गिरा तो एक चिट्ठियां ठकठकाने वाली छोकरी की जूतियों में जाकर ! और छोकरी भी कम्बख्त ऐसी खर्चीली कि देख लेना मदान साहब को नंगा करके छोड़ेगी । लाखों रुपये से कम कीमत की चीज की ख्वाहिश ही नहीं करती पट्ठी । और वो भी मदान साहब की ऐसी हालत के दिनों में जबकि न धंधा साथ दे रहा है न तकदीर !”

“विनाशकाले विपरीत बुद्धि ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं । तो पट्ठा बुझती चिलम में फूंके मार-मार के नौजवानी के मजे लूट रहा है । हजम हो या ना हो, खीर खा रहा है ।”
“हां । फिलहाल तो बैठा है सांप की तरह कुंडली मारकर हुस्नो-शबाब की दौलत पर ।”
“वाह, खलीफा ! बहुत उम्दा जुमला कसा । और अभी कहते हो कि अनपढ़ हूं ।”
वो दांत निकालकर एक भद्दी-सी हंसी हसा ।
“यूं तो” मैं बोला, “तेरा उम्रदराज बॉस कभी हुस्न के सैलाब में बह जाएगा, जोबन के पहलू में दम तोड़ देगा ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।”

“पहले तो वो देवनगर में कहीं रहता था । अब भी वहीं रहता है ?”
“नहीं । अब तो वो एक होटल में रहता है ।”
“कौन से होटल में ?”
“जो बाराखम्भा रोड पर नया बना है । उसकी सबसे ऊपरली मंजिल तमाम की तमाम मदान साहब के कब्जे में है ।”
“और कौन रहता है वहां ?”
“कोई नहीं ।”
“भाई भी नहीं ?”
“वो तो अलग कोठी में रहता है ।”
“कहां ।”
“मेटकाफ रोड । कोठी नंबर दस ।”
“जहां कि तू मुझे दिन के ग्यारह बजे पहुंचाने वाला था ?”
“हां ।”
“छोटे भाई का नाम क्या है ?”

“शशिकांत ।”
“शादीशुदा है ?' “
“नहीं ।”
“वहां मेटकाफ रोड पर अकेला रहता है ?”
“हां ।”
“भाई के पास क्यों नहीं रहता ?”
“वजह नहीं मालूम ।”
“अब साथ नहीं रहता या पहले भी साथ नहीं रहता था ?”
“जहां तक मुझे मालूम है, पहले भी साथ नहीं रहता था ।”
“मेरे अगवा का हुक्म तुझे लेखराज मदान से मिला लेकिन मुझे अगवा करके तूने मुझे उसके छोटे भाई की कोठी पर पहुंचाना है । ऐसा क्यों ? उसी के पास क्यों नहीं जिसने कि अगवा का हुक्म दिया ?”
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Re: Thriller मकसद

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“पता नहीं ।”
“सुर बदल रहा है, पहलवान । एकाध दांत हलक में उतर गया नहीं देखना चाहता तो पहले वाले सुर का ही रियाज रख ।”

“अल्लाह कसम, नहीं पता ।”
“मैं मालूम करूंगा ।”


“तू उससे मिलने जाएगा ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ! मैं तो मरा जा रहा हूं ये जानने के लिए कि क्यों वो मेरे अगवा का तलबगार है ।”
“वो बताएगा ?”
“राजी से तो नहीं बताएगा ।”
“तू तो यूं कह रहा है जैसे तू मदान साहब के साथ कोई जोर-जबरदस्ती कर सकता है ।”
“ठीक पहचाना ।”
उसके चेहरे पर विश्वास के भाव न आए ।
“जिन्दा लौट के नहीं आएगा ।” वो बोला ।
“यकीनन आऊंगा । साथ में इस बात की भी मुकम्मल जानकारी लेकर आऊंगा कि जिसको तू ताजमहल का दर्जा दे रहा है, वो ताजमहल जैसी अजीमोश्शान है भी या नहीं ।”

“भैय्ये, अगर तेरे ऐसे ही इरादे हैं तो तू मदान साहब की गोली से नहीं मरेगा, तू और तरीके से मरेगा ?”
“और तरीके से कैसे ?”
“तू मदान साहब की हुस्नपरी पर निगाह डालेगा और गश खा जाएगा । फिर पछाड़ खाकर उसके कदमों में गिरेगा और इस फानी दुनिया से रुखसत फरमा जाएगा ।”
“देखेंगे ।” मैं लापरवाही से बोला और उठ खड़ा हुआ ।
“मेरा क्या होगा ?” एकाएक वो व्याकुल भाव से बोला ।
“कुछ नहीं होगा । थोड़ा वक्त तुझे यहां यूं ही गुजारना पड़ेगा । मैं तेरे बॉस को तेरी खबर करूंगा, फिर आगे वो ही फैसला करेगा कि तेरा क्या होगा ।”

“वो मुझे जान से मार डालेगा ।”
“काहे को ! तूने क्या किया है ?”
“मैं काम को अंजाम जो न दे सका । मैं तेरे को उस तक पहुंचा जो न सका ।”
“तो क्या हुआ ? मैं खुद ही पहुंच रहा हूं । समझ ले तेरी खातिर मैं उसके हुजूर में खुद पेश हुआ ।”
“लेकिन...”
“तुझे इस बात पर शक है कि मैं तेरे बॉस के पास जा रहा हूं ।”
“वो बात तो नहीं है लेकिन...”
“क्या लेकिन ? तू क्या चाहता है कि मैं तेरे को आजाद कर दूं और ये रिवॉल्वर तुझे थमा दूं ताकि अपने ओरिजिनल प्रोग्राम के मुताबिक तू मुझे बकरी की तरह हांक के अपने बाप के खूटे से बांध आए और पचास हजार रुपए की फीस वसूल कर ले । यही चाहता है न ?”

“चाहता तो मैं यही हूं ।” वो बड़ी संजीदगी से बोला, लेकिन भैय्ये, ऐसा हो तो नहीं सकता न !”
“सोच कोई तरकीब ।”
वो खामोश रहा ।
“तंबाकू थूक ।” मैंने आदेश दिया ।
वो असमंजसपूर्ण ढंग से मेरी ओर देखने लगा ।
मैंने जेब से रूमाल निकालकर उसका एक गोला सा बनाया और बोला, “मुंह खोल ।”
तब मेरा इरादा उसकी समझ में आया ।
“मेरा दम घुट जाएगा ।” उसने आर्तनाद किया ।
“नहीं घुटेगा ।”
“मैं मर जाऊंगा ।”
“नहीं मरेगा ।”
“भैय्ये, रहम कर, मैं...”
“खलीफा, दिन चढे तक तेरी हालत कितनी भी बद क्यों न हो जाए, उस हालत में तू फिर भी नहीं पहुंचेगा जिसमें बाहर गलियारे में पड़ा तेरा जोड़ीदार पहुंचा हुआ है ।”

मैंने रूमाल जबरन उसके मुंह में ठूंस दिया ।
फिर मैंने उसकी जेबें टटोली ।
एक जेब से एक लंबा, रामपुरी, कमानीदार चाकू बरामद हआ । चाकू देखकर मुझे अपनी अक्ल पर बहुत अफसोस हुआ । तलाशी का वो काम मुझे तब करना चाहिए था जबकि वो टॉयलेट के फर्श बेहोश पड़ा था । वो खतरनाक चाकू उसके हक में बाजी पलट सकता था लेकिन गनीमत थी कि ऐसा हुआ नहीं था ।
यानी कि इस पंजाबी पुत्तर की फेमस लक ने अभी उसका साथ देना बंद नहीं किया था ।
उसकी एक और जेब से चौंतीस सौ रूपये के नोट बरामद हुए ।

“पहलवान ।” मैं बोला ये उस झापड़ की एबज में कब्जा रहा हूं जो तूने मुझे मारा था ।”
उसकी ऑखें अपनी कटोरियों में बड़ी बेचैनी से घूमी ।
गैरेज में खड़ी कार की चाबियां मैंने गलियारे में जाकर हामिद की जेब से बरामद कीं । इतनी रात गए मुझे आसानी से कोई सवारी मिलने वाली जो नहीं थी ।
आखिर में मैंने हर उस स्थान को रगड़-रगड़ कर पोंछा जहां से मेरी उंगलियों के निशान बरामद होने की सम्भावना हो सकती थी ।
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Re: Thriller मकसद

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Chapter 2

वातावरण में भोर का उजाला फैल रहा था जबकि मैंने अपने अपहरणकर्ताओं से झपटी एम्बेसडर बाराखम्बा रोड के उस होटल की लॉबी में ले जाकर रोकी, बकौल हबीब बकरा, जिसके पेंथाउस अपार्टमेंट में लेखराज मदान नाम का सुपर गैंगस्टर रहता था ।
भीतर पहुंचने पर मुझे मालूम हुआ कि तेरहवीं मंजिल पर स्थित उसके पेंथाउस तक एक लिफ्ट सीधी जाती थी जो कि उस वक्त मजबूती से बंद थी ।
“ये लिफ्ट” पूछने पर रिसेप्शन पर मौजूद क्लर्क ने मुझे बताया, “मदान साहब अपने अपार्टमेंट से एक बटन दबाते हैं तो खुलती है ।”
“ऐसा कब होता है ?” मैंने पूछा ।

“नौ बजे से पहले तो कभी नही होता ।”
“ऐसा क्यों ?”
“मदान साहब देर से सो के उठते हैं । वो नौ बजे से पहले डिस्टर्ब किया जाना पसन्द नहीं करते ।”
“रास्ता यही एक है ऊपर पहुंचने का ?”
“जी हां ।”
“लेकिन मेरी तो उनसे मुलाकात बहुत जरूरी है । बहुत ही जरूरी है । हकीकत ये है कि वो ही पसंद नहीं करेंगे कि मैं देर से उन्हें रिपोर्ट करूं ।”
“ऐसा है तो आप” उसने काउंटर पर पड़ा एक फोन मेरी तरफ सरका दिया, “उन्हें फोन कर लीजिए ।”
“गुड ।” मैंने रिसीवर उठाकर हाथ में लिया, “नम्बर बोलो ।”

“वो तो” क्लर्क मुस्कराया, “आपको मालूम होना चाहिए ।”
मैंनै हौले से रिसीवर वापस क्रेडल पर रख दिया ।
यानी कि राष्टषति भवन में दाखिला आसान था दादा लोगों की डेन में दाखिला मुश्किल था ।
नौ बजे लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था ।
नौ बजने में अभी तीन घंटे बाकी थे ।
मैं मोतीबाग जाकर हबीब बकरे से वहां का नम्बर उगलवा सकता था, आखिर उसने फोन पर मदान से बात की थी, लेकिन एक तो उसमें भी ढेर वक्त लगता और दूसरे मुझे फिर ऐसे घर में कदम डालने पड़ते जहां कि गोलियों से बिंधी एक लाश मौजूद थी ।

वक्तगुजारी के लिए मैंने अपने दोस्त मलकानी के पास जाने का फैसला किया जो कि करीब ही पहाड़गंज में एक साधारण सा होटल चलाता था ।
नौ बजे तक मैं वापस होटल की लॉबी में पहुंचा तो तब मुझे सीधे पेंथाउस जाने वाली लिफ्ट लॉबी में खड़ी मिली जिसमें सवार होने से मुझे किसी ने न रोका ।
सुपरफास्ट लिफ्ट पलक झपकते तेरहवीं मजिल पर पहुंच गई ।
मैं लिफ्ट से निकला तो वहां सामने मुझे एक ही दरवाजा दिखाई दिया जिसकी चौखट में कॉलबैल का पुश लगा हुआ था । मैंने पुश को दबाया और प्रतीक्षा करने लगा ।

कुछ क्षण बाद दरवाजे में एक झरोखा सा खुला और मुझे उसमें से दो हिरणी जैसी काली कजरारी मदभरी आंखें दिखाई दीं ।
“यस” साथ ही एक खनकता हुआ स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“मदान साहब से मिलना है ।” मैं बोला ।
“क्यों मिलना है ?”
“उनके लिए एक संदेशा है ।”
“किसका ?”
“हबीब बकरे का ।”
“किसने मिलना है ?”
“बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं ।”
“वेट करो ।”
झरोखा बंद हो गया ।
मैं प्रतीक्षा करने लगा ।
दो मिनट बाद दरवाजा खुला ।
दरवाजे पर रेशमी गाउन में लिपटी हुई रेशम जैसी ही अनिद्य सुंदरी प्रकट हुई । उस पर एक निगाह पड़ते ही आपके खादिम की हालत बद हो गई और ओर फिर बद से बदतर हो गई । अगर वही औरत लेखराज मदान की बीवी थी तो हबीब बकरे ने गलत नहीं कहा था कि मैं उस पर एक निगाह डालूंगा और गश खा जाऊंगा, फिर पछाड़ खाकर उसके कदमों में गिरूंगा और इस फानी दुनिया से रुखसत फरमा जाऊंगा ।

मेरी पसंद की हर चीज उसमें थी, न सिर्फ थी, ढेरो में थी ।
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लंबा कद । छरहरा बदन । तनी हुई सुडौल भूरपूर छातियां जो अंगिया के सहारे की कतई मोहताज नहीं थीं और अगर खाकसार की निगाहबीनी गलत नहीं थी तो अपने रेशमी गाउन के नीचे अंगिया वो पहने भी नहीं हुई थी । गोरे चिट्टे हाथ-पांव । खूबसूरत नयन-नक्श । पतली कमर । भारी नितंब । सरू सा लंबा कद । सुराहीदार गर्दन । रेशम से मुलायम सुनहरी रंगत लिये भूरे बाल। हुस्न की दौलत से मालामाल होने के अभिमान से दमकता चेहरा । कोई खराबी थी तो वो ये कि वो इतने शानदार जिस्म को लिबास से ढके हुए थी ।

उस घड़ी मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि उस मुजस्सम हुस्न की शान में मेरे मुंह से आह निकलनी चाहिये थी या वाह !
या शायद कराह !

“हो गया ?” वो अपने सुडौल मोतियों जैसे दांत चमकाती हुई उसी खनकती आवाज में बोली जो कुछ क्षण पहले मैंने बंद दरवाजे के पार से सुनी थी ।”

“क्या ?” मैं हड़बड़ाकर बोला ।

“ब्रेकफास्ट ।”

“जी !”

“आंखों ही आंखों में हज्म तो कर रहे हो मुझे ।”

“ओह ! खाकसार आपकी पैनी निगाह की दाद देता है और कबूल करता है कि ये गुनहगार आंखें उसी काम को अंजाम दे रही थीं जिसका कि आपने जिक्र किया ।”


“ब्रेकफास्ट का !” वो अपने दांतों से अपना निचला होंठ चुभलाती हुई तनिक कुटिल स्वर में बोली ।

“जी हां ।”

“पेट भर गया ?”

“पेट तो भर गया लेकिन नीयत नहीं भरी । अब बंदा ब्रेकफास्ट के फौरन बाद, हाथ के हाथ लंच और डिनर का भी तमन्नाई है ।”

“इतना खाना इकट्ठा खाओगे तो बदहजमी हो जाएगी ।”

“तो क्या होगा ?”

“मर जाओगे ।”

“तो क्या बुरा होगा ! खाली पेट मरने से तो ऐसी मौत बेहतर ही होगी ।”

“खुशबू का लुत्फ उठाओ और जायके के ख्वाब लो ।” वो अपना एक नाजुक हाथ चौखट से हटाकर अपने कूल्हे के खम पर टिकाती हुई बोली, “तुम्हारी किस्मत में बस इतना ही लिखा है ।”


“हू नोज, मैडम ! मर्द की किस्मत को तो देवता नहीं जान पाते ।”

वो हंसी और फिर बोली, “नाम क्या बताया था तुमने अपना ?”

“सुधीर कोहली” मैं तनिक सिर नवाकर बोला, “दि ओनली वन ।”

“कोई टॉप के हरामी मालूम होते हो ।”

“दोनों बातें दुरुस्त । हरामी भी हूं और टॉप का भी । आम, मामूली हरामियों से तो यह शहर भरा पड़ा है । टॉप का हरामी एक ही है राजधानी में और आसपास चालीस कोस तक । सुधीर कोहली । दि ओनली वन ।”

“बातें बढिया करते हो ।”

“और भी कई काम बढ़िया करता हूं । कभी आजमाकर देखिए ।”

“देखेंगे” एकाएक वह चौखट पर से हटी, “कम इन एंड सिट डाउन । साहब आते हैं ।”

“थैंक्यू ।” मैंने भीतर कदम रखा तो उसने मेरे पीछे अपार्टमेंटं के इकलौते प्रवेशद्वार को मजबूती से बंद कर दिया । बड़े ऐश्वर्यशाली ढंग से सुसज्जित ड्राइंगरूम की ओर मेरे लिए हाथ लहराती हुई वो पिछवाड़े का एक दरवाजा खोलकर मेरी निगाहों से ओझल हो गई ।

मैंने बैठने का उपक्रम न किया मैंने डनहिल का एक सिगरेट सुलगा लिया और मन ही मन उसके नंगे जिस्म की कल्पना करते हुए मदान की प्रतीक्षा करने लगा ।

मैं नया सिगरेट सुलगा रहा था जबकि मदान ने वहां कदम रखा ।

मदान एक लाल भभूका चेहरे वाला विशालकाय व्यक्ति था । उसके तीन-चौथाई बाल सफेद थे, कनपटी पर लंबी सफेद कलमें थीं लेकिन दाढ़ी-मूंछ सफाचट थीं । उसकी आंखों के लाल डोरे, आंखो के नीचे थैलियों की तरह लटकती खाल और खमीरे की तरह फूला हुआ अति विशाल पेट उसके दारू-कुकड़ी का भारी रसिया होने की चुगली कर रहा था । वो एक तम्बू जैसा महरून कलर का ड्रेसिंग गाउन पहने था ।

उस घड़ी में उस पहाड़ जैसे जिस्म के नीचे उस नाजुक बदन हसीना की कल्पना - बदमजा कल्पना किये बिना न रह सका जो अभी-अभी वहां बिजली की तरह चमक के गई थी ।

मैंने कभी एक मेंढक की कहानी पढ़ी थी जो शहजादी द्वारा चूमे जाने पर खूबसूरत नौजवान बन गया था । मदान उस घड़ी मुझे एक ऐसे विशालकाय मेंढक जैसा लगा जिस पर शहजादी के चुंबन का भी कोई असर नहीं हुआ था ।

वो मेरे से बगलगीर होकर मिला ।

मुझे बहुत हैरानी हुई ।
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