Fantasy मोहिनी

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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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शाम का अंधेरा छाने लगा और आसमान पर तारें चमकने लगे। किसी आबादी के आसार मिलने की उम्मीद बँधने लगी। थोड़ी दूर चलने के बाद मैं बिल्कुल खुली वादी में आ गया। वृक्षों का सिलसिला अब समाप्त हो गया था। सामने एक समतल मैदान था।

मैदान देखकर मेरा दिल धड़कने लगा। मैदान में रोशनी के धमाके नज़र आए जैसे वहाँ आग के अलाव रोशन हो। अंधेरे में वह रोशनी दहशतनाक लग रही थी। निश्चय ही वहाँ आबादी होगी।

मैंने अपनी रफ्तार और तेज कर दी। मैं शीघ्र ही आबादी में पहुँच जाना चाहता था। रोशनियों के निकट पहुँचा तो अजीब मंजर देखा। मैदान में अनेक कद्दावर पुतले खड़े थे जिनके निकट कई जगह बड़े-बड़े आग के अलाव रोशन थे। मैं एक पुतले के पीछे छिपकर मैदान का जायजा लेने लगा।

हर अलाव के गिर्द पुतले ठीक सामने लम्बी जटाओं और पास में एक सुंदर नग्न स्त्री मौजूद थी। आग की रोशनी में लड़कियों के जिस्म सुर्ख नज़र आ रहे थे। हर आदमी आग में कुछ चीज़ डालता और आग भड़क उठती। फिर देखते ही देखते आग तेज हो गयी।

उस समय तमाम लड़कियाँ आग के सामने दंडवत गिर गईं। अभी मैं यह दृश्य देख ही रहा था कि अचानक मेरे निकट एक हौलनाक कहकहा गूँज उठा और मैं काँप गया।

मेरे दाएँ-बाएँ चार-पाँच भयानक चेहरों वाले इंसान मुझे घेरे खड़े थे। उनकी कटोरे की तरह बड़ी-बड़ी खौफनाक सुर्ख आँखें थीं। बड़े-बड़े सफ़ेद दाँत बाहर निकले हुए थे। भय से मेरी चीख निकल गयी। जाने क्यों उस वक्त मैं एक साधारण हैसियत का इंसान बनकर रह गया था।वह भयानक आवाज़ें निकालते हुए मेरी तरफ़ बढ़े और मुझे मेरे बाज़ू से पकड़कर घसीटने लगे। मैंने अपने शरीर की संपूर्ण शक्ति लगाकर अपने को उनकी गिरफ्त से छुड़ाना चाहा किंतु उनकी फौलादी शक्ति के सामने मेरी शक्ति कुछ न थी। वह मुझे बुरी तरह घसीटते हुए काफ़ी दूर तक ले गए। और एक बड़े घर के सामने जाकर रुक गए।

उनमें से एक व्यक्ति अंदर गया बाकी मुझे पकड़े हुए बाहर खड़े रहे। कुछ ही क्षण में अंदर गया इंसान बाहर निकला और मुझे अंदर ले चलने का संकेत किया गया।

अंदर अजीब क़िस्म का मंजर था। सामने एक भीमकाय नंग-धड़ंग साधु बैठा था। सिर की जटाएँ और दाढ़ी के घने लम्बे बाल उसके सीने पर फैले हुए थे। मैंने ध्यानपूर्वक उसे देखा। उसकी आँखें अंगारों की तरह चमक रही थीं। उसके बावजूद वह ग्रान्डोल साधु एक पहुँची हुई चीज़ मालूम होती थी।

अंदर रोशनी फैली हुई थी। रोशनी कहाँ से आ रही थी इसका पता नहीं चल रहा था। दीवारों में इंसानी और जानवरों की खोपड़ियाँ टँगी थी। ज़मीन पर पुआल बिछा हुआ था। कोने में एक मेज और मिट्टी के तरह-तरह के बर्तन रखे हुए थे।

साधु ने अपनी गर्जन भरी आवाज़ में कहा- ”तू यहाँ क्यों आया है ?”

“मैं इधर से गुज़र रहा था। यह लोग मुझे यहाँ पकड़ लाए। मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि मेरा कसूर क्या है ?” मैंने कहा।

साधु ने हिकारत से कहा– “तुझे मालूम नहीं, यहाँ अजनबियों का आना सख़्त मना है। और अगर भूल से भी कोई आ जाए तो उसकी सजा जानता है ?”

“मैं यहाँ खुद नहीं आया। बुलाया गया हूँ।”

“बुलाया गया है ? किसने बुलाया और कहाँ जाना है ?”

“यहाँ कहीं मोहिनी देवी का मंदिर है। मैं वहीं जा रहा हूँ।” मोहिनी का नाम सुनकर वह चौंका।

“तो तू वहाँ क्यों जाना चाहता है ?”

“यह तो मुझे खुद नहीं मालूम कि वहाँ जाकर करना क्या है। बस मोहिनी देवी ने स्वप्न में दर्शन दिए थे और मुझे अपनी मंज़िल का पता बताया था।” मैंने उससे झूठ बोला।

“हूँ!” वह नफ़रत से कठोर स्वर में बोला। “सच-सच बता तुझे किसने भेजा है ?”

“मैं सच-सच कह रहा हूँ। खुद मोहिनी देवी की आज्ञा पर मैं यहाँ आया हूँ।”

“क्या तू सच बोल रहा है ?”

“तुम तो पहुँचे हुए साधु हो। क्या सच और झूठ भी नहीं पहचान सकते ?”

वह चौंककर खड़ा हो गया। कुछ पल तक मुझे घूरता रहा फिर अपने स्थान से मुड़ा। पीछे एक दरवाज़ा था। उसने दरवाज़ा खोला और अंदर प्रविष्ट हो गया। चंद क्षणों बाद वह वापस लौटा और नम्र स्वर में बोला-
“देवी मुझे क्षमा करें! मुझसे बड़ी भूल हुई जो तेरे दास को कष्ट उठाना पड़ा।”

उसके संकेत से ख़तरनाक शक्लों के इंसान बाहर चले गए। उसने किसी जानवर का सींग उठाया और उस पर कुछ पढ़ना शुरू किया।

चंद क्षण गुजरे थे कि बाहर के दरवाज़े से एक बेहद हसीन जवान लड़की अंदर प्रविष्ट हुई। वह लड़की मुझे देखकर चौंकी। लड़की को देखकर मेरा दिमाग़ भिन्ना उठा। वह सिर से पाँव तक नंगी थी। भरा-भरा जिस्म था, चौथा चकला सीना, उभरे गुदाज, ठोस पिंड, भारी-भारी कूल्हे, रानों और पिंडलियों की चमकती हुई चिकनी-चिकनी मछलियाँ। उसकी आयु भी कुछ अधिक नहीं थी। सुनहरे बाल हवा में लहरा रहे थे। शरीर के ख़ास हिस्से में रंगीन धारियों की कलाकारी थी। लड़की ने मुझे आश्चर्य से देखा।
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साधु ने परिचय कराया– “यह मेरी बेटी सुनीता है। मोहिनी देवी की पुजारिन है।”

मोहिनी देवी की पुजारिन सुनकर मैंने अदब से सिर झुकाया। फिर वह सुनीता से संबोधित हुआ– “बेटी, इनके लिए कुछ ले आओ! यह मेहमान है।”

वह अंदर गयी और एक तश्तरी में फल ले आई। और मिट्टी के प्याले में ठंडा शर्बत मेरे सामने रख दिया। भूख से आँतें मरोड़ खा रही थी। मैंने साधु से आज्ञा लेकर फल खाए और एक ही साँस में शर्बत पी गया। शर्बत पीते ही थकान खत्म हो गयी। दम ताज़ा हो गया। इस दौरान मेरी नज़रें सुनीता की तरफ़ मटकती रही।

सुनीता भी मेरी तरफ़ देख रही थी। साधु ने मुझे आराम करने की हिदायत दी। मैं साधु की आज्ञा पर पुआल पर ही लेट गया। लेटते ही गहरी नींद की आगोश में चला गया।

न जाने कब तक मैं सोता रहा।फिर एकाएक आँख खुली। मैं जाग उठा। अंदर दिन की रोशनी फैली हुई थी। रात गुजरने का अहसास ही नहीं हुआ था।

मैंने लेटे-लेटे कमरे का जायजा लिया। वृक्षों से काटी गयी लकड़ियों से दीवार बनाई गयी थी। दीवार के अंदरूनी हिस्से में मिट्टी का प्लास्टर हुआ था जिससे दीवार मज़बूत मालूम होती थी। छत भी लकड़ियों और पत्तों की बनी हुई थी।

फिर मुझे साधु के संबंध में ख़्याल आया। वह कौन व्यक्ति हैं और यहाँ किस उद्देश्य से रहता है। जानवरों-इंसानों की खोपड़ियों से इसका क्या संबंध है। पहले वह कठोरता से पेश आया था फिर उसने मेरा भरपूर स्वागत किया। मुझे इसका पता लगाना चाहिए।

मैं अभी सोच रहा था कि सुनीता अपनी तमामतर बिजलियों को गिराती कमरे में जलवागीर हुई। उसके लबों पर दिलकश मुस्कराहट थी।

रात मैं भूख और थकान के कारण सुनीता के सुंदरता का अनुमान नहीं लगा सका था। दिन के उजाले में उसका हुस्न निखरा हुआ था।

उसके गोरे जिस्म पर रंगीन धारियाँ सुंदर लग रही थीं। नयन कक्ष बड़े खूबसूरत थे। भरी-भरी मांसल देह थी। सम्मोहित कर देने वाली आँखें थी जो अपनी तरफ़ खींच रही थी। ऐसा सुडौल गुदाज जिस्म था कि बाहों में भर लेने को जी चाहता था।

मुझे अपनी अय्याशियाँ याद आने लगी। एक मुद्दत हो गयी थी जब से मैंने स्त्री के सौंदर्य से किनाराकशी कर ली थी। और जब मैं इस पथ पर चला था तो मेरे मन में मोहिनी ही मोहिनी थी। मोहिनी का नशा था। लेकिन यह नशा भी कुछ कम न था।

मैं सुनीता से कुछ सुन लेने के मंसूबे बनाने लगा। लेकिन एक चोर मेरे मन में खटक रहा था। जिस साधु ने मुझे प्राण दान दिया था उसने मुझे यह सीख भी दी थी कि मैं पाप से दूर रहूँ। परस्त्रीगमन भी पाप ही था।

सुनीता मेरे पास बैठ गयी तो साँसें धड़कनों में फँसने लगी।

“रात को किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं हुआ ?” सुनीता ने पूछा।

“यहाँ कष्ट का अहसास कहाँ होता है ?” मैंने उत्तर दिया।

सुनीता के गुदाज बदन में ऐसी महक थी कि इंसान पागल हो जाए। ऐसी महक में भावनाओं पर क़ाबू पाना मुश्किल हो जाता है। यही कैफियत मेरी थी। मेरे खून की गर्दिश तेज होने लगी। मैं बर्दाश्त के बाहर होता जा रहा था। मैं तुरंत उठ खड़ा हुआ।

सुनीता ने आश्चर्य से कहा- “क्या मेरा तुम्हारे समीप आना अच्छा नहीं लगा ?”

मैंने उसकी तरफ़ देखे बिना कहा- “मुझमें बराबरी का साहस नहीं है। तुम धूप हो तो मैं छाँव हूँ। और छवि की जगह धूप के क़दमों में होती है। धूप न हो तो छाँव भी नहीं होती।”

“नहीं, यहाँ कोई धूप नहीं! कोई छाँव नहीं। सब बराबर की हैसियत रखते हैं।”

“लेकिन मैं यहाँ एक अजनबी हूँ।”

वह शायद अधिक बातें करती परंतु उसी समय साधु आ गया।

मैंने सिर झुकाकर अभिवादन किया। उसने हाथ के इशारे से बैठने के लिए कहा। तन्हाई में सुनीता से मेरी बातचीत से संभव था कि उसे अच्छा न लगा हो। लेकिन उसके चेहरे से ऐसा कुछ प्रकट नहीं होता था।

साहस बटोरकर मैंने उससे उसका नाम और पता पूछ ही लिया। और फिर अपने आगमन का उद्देश्य भी सुना दिया।
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“मेरा नाम गोरखनाथ है। यही मेरा स्थान है और मैं मोहिनी देवी का सेवक हूँ। मोहिनी देवी ने मुझे बड़ा ऊँचा स्थान दिया है। मुझे यहाँ आने वालों के किस्मत का फ़ैसला करने के लिए छोड़ा है। बड़ी-बड़ी शक्ति रखने वाले भी यहाँ मेरे फ़ैसले के सामने सिर नवाते है। अगर वह मेरी आज्ञा का उल्लंघन करते हैं तो मोहिनी देवी के कहर से नहीं बच पाते। लोग यहाँ मोहिनी देवी के दर्शन को आते हैं क्योंकि मोहिनी देवी के दर्शन उपरांत कोई शक्ति शेष नहीं रह जाती है।

“अब तुम भी इसी इरादे को लेकर आए हो लेकिन तुम वह पहले मेहमान हो जिसके लिए मोहिनी देवी ने खुद मुझे हुक्म दिया है कि तुम्हें उनके पास पहुँचा दूँ।

“लेकिन तुम्हें जिन मुसीबतों से गुजरना पड़ेगा उसके लिए तुम्हें यहाँ परीक्षा देनी पड़ेगी। तभी मैं तुम्हें आगे जाने की आज्ञा दूँगा। बोलो, क्या तुम परीक्षा देने के लिए तैयार हो ?”

“हाँ, मैं तैयार हूँ! मैं अपने प्राण तक दे सकता हूँ।” मैंने जोश में कहा।

“तो फिर आओ मेरे साथ, समय बहुत कम है।”

वह मुझे लेकर बाहर निकला। थोड़ी दूर चलकर एक ऐसी जगह ले आया जहाँ दो-तीन झोंपड़ियाँ थी, मध्य भाग में पत्थरों का एक चबूतरा बना था। गोरखनाथ ने ताली बजाई। उसी क्षण सामने झोंपड़ी में से एक साँवले रंग की जवान नग्न शरीर की लड़की बरादम हुई। मैंने लड़की की तरफ़ सरसरी दृष्टि से देखा। गोरखनाथ लड़की के पास गया उसके कान में धीरे से कुछ कहा। लड़की तुरंत अंदर गयी और एक बड़ा सा प्याला, एक तेज धार का हथियार और एक टोकरी लेकर आई।

लड़की ने तीनों चीज़ें चबूतरे पर रख दी। फिर लड़की ने तीनों चीज़ों पर से ढकना उठाया तो सफ़ेद रंग का मोटा, पाँच फीट लम्बा साँप लहराता हुआ बाहर निकला। साँप को देखकर मेरा दिल तेज-तेज धड़कने लगा। गोरखनाथ ने हथियार उठाया और दूसरे हाथ से साँप का फन पकड़कर प्याले के मध्य रखा और साँप का फन काट दिया। साँप के खून की धार प्याले में गिरी। जब साँप के जिस्म से खून निकल चुका तो लड़की को संकेत से अपने क़रीब बुलाया। साँप के खून से भरा प्याला लड़की के सीने से लगाकर कुछ पढ़ने लगा जो साफ़ तौर से सुनाई नहीं पड़ रहा था।अब जो मंजर देखने वाला था उसे देखकर मैं काँप उठा।

गोरखनाथ ने तेज धार वाला हथियार लड़की के सीने में घोंप दिया। खून का फव्वारा निकलकर प्याले में गिरने लगा। प्यारा खून से लबालब भर गया। लड़की ने उफ तक नहीं की। बड़ी साहसी लड़की थी। वह निढाल होकर चबूतरे पर लेट गयी। गोरखनाथ ने कुछ मंतर पढ़कर खून भरे प्याले पर फूँक मारी और मुझे पेश किया।

“देवी के नाम का जाम पियो।”

इस पेशकश से मेरा दिमाग़ फटने लगा। मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि साँप और इंसान का मिश्रित खून पीने को मिलेगा। लेकिन मोहिनी मेरे दिलों दिमाग़ पर छाई थी। मेरा जीवन उसी का दान दिया था। उसके प्रति समर्पित था।

मैंने काँपते हाथ से प्याला थामा। मोहिनी देवी के दर्शन के लिए अगर यह कोई शर्त थी तो मैं तैयार था। मैंने प्याला होंठों से लगा लिया और आँखें बंद करके खून के घूँट उतारने लगा। साँस रुकी हुई महसूस हो रही थी। जिस्म काँप रहा था और मैंने चंद क्षणों में प्याला खाली कर दिया। ज़ोर की मितली आने लगी। पर उबकाई आने से पहले ही मैंने मुँह पर हाथ रख लिया। वह क्षण भी गुज़र गया।

मैंने गोरखनाथ की ओर देखा। उसका चेहरा ख़ुशी से खिल रहा था।

“शाबाश! तुमने बहुत साहस से काम लिया। आओ मेरे साथ।”

उसने साँप के कटे हुए सिर का बाकी हिस्सा उठाया और चल दिया। मैं भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा। मेरा सिर चकरा रहा था पर मैं ज़ाहिर नहीं होने देना चाहता था।

गोरखनाथ के घर के सामने आग जल रही थी। सुनीता हम लोगों को देखकर बाहर निकली और गोरखनाथ के हाथ से साँप लेकर चली गयी। मैं भी गोरखनाथ के साथ-साथ झोंपड़ी में प्रविष्ट हो गया और पुआल पर बैठ गया। सुनीता ने उस समय साँप को मेज़ पर रखा। छूरे से उसके टुकड़े-टुकड़े किए और एक लोहे की सीख में पिरोकर बाहर निकाली। फिर आग पर सीख रख दी। चंद क्षणों बाद साँप के माँस के जलने की सड़ांध फैली। बदबू नथनों में पहुँची तो साँस लेना दुर्भर हो गया। ज़ोरदार खाँसी आ गयी। मैं स्तब्ध बना यह दृश्य देख रहा था। जब साँप का माँस भुन चुका तो उसकी सीख मेरे पास आई। गोरखनाथ के हुक्म पर उसने मुझे सीख थमा दी।

“लो इसे खा लो! देवी का प्रसाद है। और जो संकट तुम पर आने वाले हैं उनसे सुरक्षित रहोगे।”

मुझे झुरझुरी सी आ गयी। मैंने सोचा इनकार कर दूँ किंतु इसका साहस अब कहाँ रहा था। मैंने खुद पर क़ाबू रखकर खाने की हिम्मत पैदा की और साँप की भुनी हुई बोटियाँ निगलने लगा। बोटियाँ हलक में अटकती लेकिन जबरन करके उन्हें हलक से नीचे उतार लिया।

जो अंदर गया था वह भी बाहर आने को तैयार था। हज़म करना बर्दाश्त के बाहर था। मैंने झटपट पानी पिया और पुआल पर लेट गया। आँखें बंद करके करवटें बलदने लगा। न जाने कितना समय बिता और मैं करवटें बदल-बदल कर पेट में जो कुछ था उसे हज़म करता रहा।
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