Fantasy मोहिनी

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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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मैंने चौंककर देखा। कुलवन्त प्रेमलाल के अकड़े हुए जिस्म से लिपटी सिसक रही थी। माला को जब सच्चाई का आभास हुआ तो वह भी फूट पड़ी। प्रेमलाल को जुदा हुए चन्द लम्हे गुजरे थे कि उसका शरीर बुरी तरह अकड़ गया। कुटी अब शोकाकुल हो गयी थी। मैंने मोहिनी की तरफ दृष्टि डाली। प्रेमलाल की मौत ने उस रहस्यमय मोहिनी को भी शोकाकुल कर दिया था। और फिर एक सप्ताह तक मैं इसी पहाड़ी पर रहा। प्रेमलाल का क्रिया-कर्म मुझको ही करना पड़ा। कुलवन्त ने चिता की राख अपने बदन पर मल कर कुटी संभाल ली। वह हर समय चटाई पर बैठी न जाने क्या जाप करती रहती थी। उसकी यह हालत देख दिल बहुत कुढ़ता था, परन्तु उसे इससे बहुत खुशी थी और जैसे यही अब उसके जीवन का मिशन था।

एक सप्ताह बाद जब मैं विदा होने लगा तो कुलवन्त ने गले लगाकर माला को भाव-भीनी विदाई दी। उसने मुझसे कहा–
“राज, तुम्हारा नया जीवन शुभ हो! मेरी मंगलकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं। माला डॉली की कमी दूर करेगी और हाँ, कभी-कभी मुझे भी याद कर लिया करना।”

मैंने उसके हाथ पकड़ लिये। मेरा दिल चाहता था कि आज बहुत रोऊँ और माला को छोड़कर कुलवंत को ले जाऊँ। वह कुछ ऐसे गमजदा अन्दाज में हमें विदा कर रही थी कि फौलाद भी नरम पड़ जाता। मैंने उसके मर-मरी हाथ को चुंबन दिया। विदाई के वह क्षण बड़े दर्दनाक थे। माला कुलवन्त की जुदाई के कारण उसकी याद में तड़प रही थी। किंतु हर बेटी एक दिन अपना घर छोड़ती ही है। उसे अपने पति के साथ नया घर-संसार बसाना होता है।

शहर लौटकर मैं उस होटल में गया जहाँ मेरा सामान और कैश था। मैनेजर इतनी अवधि गुजर जाने के बाद मुझे देखकर हक्का-बक्का रह गया। मेरे कपड़े तार-तार हो चुके थे। मैंने उससे अपना सामान माँगा तो वह आंय, बांय, शांय करने लगा। परिणामस्वरूप मुझे मोहिनी को संकेत करना पड़ा और उसी दिन शाम तक मैं उत्तम वस्त्रों सहित एक शानदार होटल में ठहरने योग्य हो गया था। माला को मूल्यवान साड़ियाँ और आभूषणों से लाद दिया।

मैंने उसका उर्वशी जोड़ा निकलवाया। जब उसने वह जोड़ा पहना तो उसे देखकर मैं आँखें पट-पटाने लगा। वह इतनी दिलकश और नाजुक लग रही थी कि सिर्फ देखने और बातें करने को जी चाहता था। अजीब बात यह थी कि लगातार तन्हाई और लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी मेरा दिल यही कहता था कि अभी और प्रतीक्षा करो। अभी ठहरो, इस कली की बहार देखो। इस नवयौवना को पहले जी भर कर देख लो।

वह मेरी हैरानी देखकर पूछती– “यह तुम मुझे सामने बिठा कर क्या ताकते रहते हो ?”

“मैं प्रकृति के इस हसीन शहकार का दीदार कर रहा हूँ।”

सोचता था कि उसके योग्य नहीं हूँ। मैंने बहुत सब्र किया पर कब तक ? सब्र के बन्धन आखिर टूट ही गए। दिल उसके रूप का बोझ सह न सका और उसका यौवन भरा अस्तित्व मुझ पर छाता चला गया।

मोहिनी की शोखियाँ भी वापिस आ गयी थीं। एक रोज जब माला स्नान कर रही थी तो उसने मुझसे कहा– “राज! तुम तो माला में ऐसे खो गए कि हमारी पुच्छ-गुच्छ भी गयी।”

मैंने मुस्कराकर उत्तर दिया– “तुम क्या मुझसे अलग चीज हो ? मैं तो समझता हूँ तुम मेरा अहसास हो। जब मैं महसूस करता हूँ तो तुम भी महसूस करती होगी।”

“यह तो टालने वाली बात हो गयी।” मोहिनी ने चंचल स्वर में कहा।

“मोहिनी, माला ने जिंदगी ही बदल दी है! सच मैंने ऐसा कभी महसूस नहीं किया था।” मैंने भावुकता से कहा।

“राज, माला के साथ-साथ प्रेमलाल ने जो शक्ति तुम्हें दान की है उसके मुकाबले में बड़े-बड़े बलवानों की शक्ति भी कुछ नहीं। अगर तुमने माला का हाथ थामने से इनकार कर दिया होता तो प्रेमलाल मरने से पहले तुम्हें जलाकर भस्म कर देता ? यह बात हमेशा ज़हन में रखना कि माला को कोई कष्ट न होने पाए। वरना हालात खराब हो सकते हैं।”

“माला को कौन अधर्मी दु:ख देगा ? तुम तो कभी-कभी पागलों जैसी बातें करने लगती हो। मैं तुमसे खुद कह रहा था कि माला को कोई कष्ट न होने पाए। माला तो बहार है और बहार की कौन इच्छा नहीं करता। मैं सोचता हूँ मैंने जिंदगी अब शुरू की है।”


“तुम डॉली को इतनी जल्दी भूल गए। यह मर्द भी बड़े हरजाई होते हैं। हर हसीन औरत के बारे में ऐसी बातें कहते हैं।”

“मोहिनी! डॉली का जिक्र तुमने बेवक्त छेड़ दिया।” डॉली का नाम सुनकर मैं त़ड़प गया और दिल मसोस कर बोला– “डॉली की बात और थी, माला की बात और है। तुमने अच्छा किया जो मुझे चेता दिया। अरी पगली, डॉली को कौन भूल सकता है! माला ने कुछ ऐसा जादू कर दिया है कि मैं स्वयं भूल गया हूँ। यह भी भूल गया कि मुझे अभी हरि आनन्द से बदला लेना है। मैं अपनी प्रतिज्ञा भूल गया था। हे ईश्वर, मैं कितना स्वार्थी हो गया था! मैंने प्रतिज्ञा पूरी करके डॉली से मिलने का वचन दिया था। चलो मोहिनी, सामान बाँधते हैं। सुहागरात मनाते हुए मैं मर क्यों नहीं गया। अब चलते हैं और उस कमीने तांत्रिक को ठिकाने लगाते हैं। मैं उसे कभी क्षमा नहीं करूँगा।”

मोहिनी मेरी गम्भीरता और झल्लाहट पर एक सर्द आह भरती हुई बोली–”राज! उचित है कि हरि आनन्द से पहले तुम अपने एक और शत्रु से मिल लो। वही त्रिवेणी दास। वह बड़ा मक्कार और फरेबी है। उसने तुम्हें प्रेमलाल का पता इसलिए दिया था कि तुम मुसीबत में गिरफ्तार हो जाओ और वह चैन की बंसी बजाता रहे। पहले तुम्हें उस कमीने से हिसाब चुकाना है। उसने तुम्हें धोखा दिया था।”

“तुमने मुझे उसी समय क्यों नहीं बता दिया था ?” मैं क्रोध से तिलमिलाता हुआ बोला। “मैं उसी दिन उस हरामजादे का टेंटुआ दबा देता।”

“मुझे इसका ख्याल उस समय आया था राज जब तुम माला से हाथापाई कर रहे थे। मैं तुम्हें परिस्थितियों से खबरदार करना चाहती थी लेकिन अवसर नहीं मिल सका। हालात अचानक हमारे विरूद्ध हो गए थे। लेकिन यह जो भी हुआ, अच्छा ही हुआ।”

माला के वहाँ आ जाने से बातों का सिलसिला समाप्त हो गया।

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उसी शाम पहली गाड़ी से मैं पूना के लिये रवाना हो गया। माला से इस संबंध में बात करना उचित नहीं था। पूना पहुँचकर मैं उसी होटल में ठहरा। जहाँ दो बार पहले भी आ चुका था। होटल वाले मेरी दरियादिली से वाकिफ थे। उन्होंने बड़े तपाक से मेरा स्वागत किया। माला को देखकर वे चौंके अवश्य परन्तु कोई पूछताछ नहीं की। माला को होटल में छोड़कर मैंने एक दोस्त से मिलने का बहाना किया और बाहर निकलते ही सीधे त्रिवेणी दास की हवेली का रूख किया। उस समय रात के नौ बजे होंगे जब मैं त्रिवेणी की हवेली पर पहुँचा। मोहिनी ने मेरे सिर से उतर कर हवेली के चौकीदार का ध्यान बँटा दिया था इसलिए मुझे अंदर प्रविष्ट होने में किसी प्रकार की रूकावट पेश नहीं आयी। मैं सीधा त्रिवेणी के शयनकक्ष में आ गया। दरवाजा अंदर से बंद था। मैंने चाबी वाले सुराख से अंदर झाँका तो मेरा खून खौल उठा। उसका वही अंदाज था। एक हसीन लड़की उसके पहलू में बैठी हुई थी और मेज गिलासों और बोतलों से भरी हुई थी। लड़की बेहयाई से त्रिवेणी के गले में बाहें डाले बातों में व्यस्त थी।

अपने इस बदतरीन दुश्मन के कारण मुझे डेढ़ साल मैसूर की पहाड़ियों में कष्ट सहने पड़े थे। मेरे बुरे दिनों का प्रारंभ भी इसी के कारण हुआ था। उसे ऐशो-आराम में देखकर मेरा दिमाग उलट गया। मैंने आव देखा न ताव, पूरी शक्ति से दरवाजे पर लात मारी।

“कौन बदतमीज है ?” त्रिवेणी की आवाज आयी।

“मैं हूँ तेरा बाप! कुँवर राज ठाकुर। दरवाजा खोलो!”

मेरी गरजदार आवाज सुनकर अवश्य ही त्रिवेणी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी होगी। चंद क्षणों तक दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं मिला। फिर दरवाजा खोल दिया गया। मैं लपक कर अंदर प्रविष्ट हुआ तो क्रोध के बजाय हँसी आ गयी। मेज पर रखी शराब और गिलासों की जगह इस समय कोई पुस्तक रखी हुई थी। लड़की निश्चय ही दूसरे कमरे में चली गयी होगी। त्रिवेणी ने मेरी आवाज सुनकर यह ढोंग रचा लिया था। अभी मैं कमरे का निरीक्षण कर ही रहा था कि त्रिवेणी सहमा हुआ सा मेरे पास आया और हाथ जोड़कर बोला–
“प्रणाम कुँवर साहब! आइए पधारिए।”

मैंने त्रिवेणी का चेहरा गौर से देखा। उसकी आँखों से आश्चर्य और बौखलाहट झलकती थी। चेहरा उसी समय पीला पड़ गया था जब उसने दरवाजे पर मेरी सूरत देखी थी। मैं दिल ही दिल में ताव खाता हुआ एक सोफे पर बैठ गया।

“सुनाओ त्रिवेणी दास जी। क्या हाल-चाल हैं तुम्हारे ?”

“आपकी कृपा है कुँवर साहब।” त्रिवेणी ने हाथ जोड़कर कहा। बस गुजर रही है।”

“बहुत बदले-बदले नजर आ रहे हो त्रिवेणी जी। आज तो यह बेडरूम भी सूना पड़ा है। कोई तितली नजर नहीं आ रही है। पंछी कहाँ उड़ गए ?”

“राम-राम कुँवर साहब।” त्रिवेणी ने कानों पर हाथ लगा कर कहा। “सब कस बल निकल गये। अब तौबा कर ली है। बस भगवद् गीता और रामायण पढ़ता रहता हूँ।”

“राज!” मोहिनी ने मेरे कानों में सरगोशी की। “बराबर वाले कमरे में एक सुन्दर लड़की मौजूद है। तुम्हारी आवाज सुनकर इसने उसे छिपा दिया है।”

मैंने स्वीकृति में सिर को जुम्बिश दी। फिर त्रिवेणी से कहा– “मैं तुम्हारा शुक्रिया अदा करने आया था त्रिवेणी। तुमने प्रेमलाल का पता बताकर मुझ पर बड़ा अहसान किया है। उसने मेरी बड़ी मदद की।”

त्रिवेणी मेरी बात सुनकर चौंका। फिर खिसियानी हँसी हँसकर बोला– “कुँवर साहब ? आपकी सेवा करना अपना धर्म समझता हूँ! जो कुछ मेरे पास है सब आपका दिया हुआ है। यह बताइये कि आप क्या पियेंगे ? चाय, कॉफी या ठण्डा ?”

“मैं यहाँ कुछ और ही पीने के इरादे से आया हूँ।” मैंने व्यंग्य से कहा।

“अच्छा, अच्छा! मैं समझा!” त्रिवेणी भौंडे अंदाज में हँसने लगा।

“त्रिवेणी, तुम्हारा खून पिया जाये तो कैसा रहेगा ?” मैंने इत्मीनान से पूछा।

“खी... खी... खी... आपके लिये तो जान भी हाजिर है।” त्रिवेणी झेंपकर बोला।

“अच्छा छोड़ो! यह बताओ कि तुम अपने लिये कौन सी सजा पसंद करोगे ?”

“ज... जी, कुँवर साहब ?” त्रिवेणी कंपकंपा गया। “मैंने आपसे फरेब नहीं किया था कुँवर साहब। विश्वास कीजिए। मैं आपका मित्र हूँ।”

“कमीने! मेरी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करता है। मैं तुझे बताऊँगा कि मैं क्या हूँ।” मैं क्रोध में उठकर खड़ा हो गया। त्रिवेणी के बाल पकड़कर उसे झटका देते हुए मैंने कहा– “तू समझता था मुझे खतरों में फँसाकर तू आराम की जिन्दगी बसर करेगा और यहाँ तू अब भी मेरे जिन्दा होते हुए रंगरेलियाँ मना रहा है। मेरी आवाज सुनी तो अपनी बहन को दूसरे कमरे में छिपा दिया। सुन ले, ओ मक्कार पंडित! आज मैं यहाँ समय नष्ट करने नहीं आया हूँ।”

मेरे मस्तिष्क में प्रेमलाल की दी हुई तमाम यातनाएँ ताजा हो गयीं और मेरी मुठ्ठियाँ भिंच गयी।

“आज तेरी अय्याशी का आखिरी दिन है। मैं तुझे सड़कों पर भीख माँगने पर मजबूर करूँगा। तू एड़ियाँ रगड़-रगड़कर सड़कों पर मर जाएगा। वही तेरे लिये उचित जगह है।”

“कुँवर साहब, मुझे क्षमा कर दीजिए!” त्रिवेणी मेरे पाँव पकड़कर बाकायदा रोने लगा।

“पिछली बातें याद कर फरेबी।” मैंने घृणा भरी दृष्टि उस पर डालते हुए कहा। “कमबख्त, तूने भी कभी मेरे हाल पर तरस खाया था ? तूने मुझे बर्बाद करने में कौन सी कसर छोड़ी थी।”

“वह मेरी भूल थी कुँवर साहब।” त्रिवेणी ने मेरे कदमों में अपना सिर फोड़ना शुरू कर दिया। “अब मैं तौबा करता हूँ, मुझे क्षमा कर दीजिए!”

उसकी गिड़गिड़ाहट से मेरा गुस्सा और भड़क गया। त्रिवेणी के विरूद्ध मेरे मस्तिष्क में जो नफरत थी वह उसकी गिड़गिड़ाहट से कैसे दूर हो सकती थी। मैंने ठोकर मारकर त्रिवेणी को फर्श पर धकेला और उछलकर उसकी छाती पर सवार हो गया। त्रिवेणी ने सिर पर मौत मंडराते देखी तो तिलमिलाने लगा लेकिन मैं जैसे बहरा हो गया था। मैंने पहले पूरी शक्ति से दस-बारह थप्पड़ उसके मुँह पर मारे फिर उंगलियाँ उसकी आँख में गड़ाकर बाहर खींच लीं तो उसकी आँख हल्के से बाहर निकल आयीं। उसका चेहरा खून से तर हो गया। उसकी दर्दनाक चीखें दीवारें हिला रही थी। मुझे उस पर तब भी रहम नहीं आया। उसे फर्श पर तड़पता छोड़कर मैं तेजी से उठा। मुझ पर जुनून सवार था। मैंने आतिशदान के निकट रखी लोहे की वह छड़ उठायी जिससे आतिशदान की राख कुरेदी जाती है फिर पलटकर त्रिवेणी के निकट आया और दीवानों की तरह वह छड़ उसके घुटनों पर मारने लगा।
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आखिर त्रिवेणी चेतना शून्य हो गया लेकिन छड़ उस समय तक उस पर बरसती रही जब तक उसके दोनों घुटने चूर-चूर नहीं हो गए। त्रिवेणी को खून से लथपथ छोड़कर मैंने छड़ को फेंका और वापसी के इरादे से पलटा।

मोहिनी ने सहमी हुई आवाज में कहा– “राज ? दूसरे कमरे में इन घटनाओं का एक गवाह मौजूद है। एक सुन्दर और तंदरूस्त लड़की। मैं बहुत दिनों से प्यासी हूँ मेरे मालिक।”

मोहिनी के इस अन्दाज का मतलब मुझे मालूम था। उस लड़की को मैं बिल्कुल भूल गया था जिसे त्रिवेणी ने मेरी आवाज सुनकर दूसरे कमरे में छिपा दिया था। मोहिनी के रोकने पर मुझे ख्याल आया कि वह मेरे लिये अकारण मुसीबत बन सकती है। सम्भव है उसने दूसरे कमरे में छिपकर मुझे देख भी लिया हो। मैंने बढ़कर दूसरे कमरे में कदम रखा तो वह लड़की सहमी हुई नजर आयी। कदाचित उसने सारी वारदात देख ली थी।

मोहिनी मेरे सिर पर एकदम खड़ी थी और होंठों पर जीभ घुमा रही थी। उसकी आँखों में खूनी प्यास थी और वह बेचैन होती जा रही थी। लड़की का सारा बदन पसीने से नहाया हुआ था और कपड़े बदन से चिपक गए थे। मुझे सामने देखकर वह घिघियाने लगी और काँपती हुई आवाज में बोली–
“भगवान के लिये मुझे मत मारो। मैं बेकसूर हूँ। मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करने के लिये तैयार हूँ।”

“शादीशुदा हो ?” मैंने उसकी बात नजरअन्दाज करते हुए पूछा।

“नहीं! अलबत्ता मेरी मँगनी हो चुकी है। अगले माह मेरा विवाह होने वाला है!” लड़की ने गिड़गिड़ाकर उत्तर दिया। “भगवान के लिये मुझे मत मारो। मैं वचन देती हूँ कि तुम्हारा राज किसी पर जाहिर नहीं करूँगी।”

“इसकी बातों में न आना राज।” मोहिनी ने जल्दी कहा। “यह कोई साधारण चीज नहीं है। इसके संबंध यहाँ पुलिस ऑफिसरों से भी है। अगर इस समय तुमने इसे छोड़ दिया तो तुम खतरों से घिर जाओगे। फिर मेरे हलक में काँटे भी तो पड़े हैं। मैं मरी जा रही हूँ। राज, ओ मेरे प्यारे मेरे राजा, मेरे मालिक! देर न करो, मैं मरी जा रही हूँ। अपनी मोहिनी का तो ख्याल करो।”

मैं मोहिनी का सुझाव मानकर आगे बढ़ा तो लड़की कमरे में इधर-उधर भागने लगी। वह पागलों की तरह चीखने-चिल्लाने लगी। लेकिन वह जाती कहाँ। जल्दी से मैंने उसे कब्जा लिया। वह थर-थर काँपने लगी। उधर मोहिनी झूम रही थी।

“मार डालो इसे! मार डालो मेरे आका! मेरे लिये क्या चीज है, क्या गर्म खून है!”

एकाएक लड़की को न जाने क्या हुआ कि उसने अपने कपड़े फाड़ने शुरू कर दिए। कदाचित् इस तरह वह मेरा ध्यान अपने सुडौल शरीर की तरफ आकर्षित करना चाहती थी लेकिन उसके इस कार्य से मेरा क्रोध और भड़क उठा। उसकी चीख पुकार से दरवाजे पर खटखटाहट होने लगी। दरबान जोर-जोर से दरवाजा पीट रहा था। लड़की ने और जोर से चीखना शुरू कर दिया।

उसी क्षण मोहिनी ने मुझसे कहा– “राज! इसे ठोकर मारो, जल्दी! फिर तुम यहाँ से चले जाना। मैं दरबान के सिर पर जा रही हूँ। मैं सब सँभाल लूँगी।”

मैंने लड़की के गले में अपना शिकंजा कस दिया फिर उसे जोर से फर्श पर पटक दिया और एक जोरदार ठोकर से उसका मुँह खोल दिया।

मोहिनी किसी जहरीली छिपकली की तरह मेरे सिर से रेंग चुकी थी। मैंने लड़की पर एक नफरत भरी दृष्टि डाली फिर दरवाजे की तरफ बढ़ गया। मैं जानता था मोहिनी अब तक दरबान के सिर पर जा चुकी होगी। शेष काम वह अपने ढंग से पूरा कर लेगी। मैंने दरवाजा खोल दिया। दरबान ने मेरी तरफ नहीं देखा। वह सम्मोहन की सी मुद्रा में चलता हुआ दूसरे कमरे में जा पहुँचा। मैं जानता था अब त्रिवेणी की हवेली में मोहिनी क्या गुल खिलाने वाली है।

मैं दबे कदमों से बाहर निकल गया।

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