Fantasy मोहिनी

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ramangarya
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Re: Fantasy मोहिनी

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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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अब उस किस्से को सुनाने की क्या जरूरत है कि अगले दिन त्रिवेणी के घर होने वाली इन खूनी घटनाओं के बारे में बड़ी दिलचस्प और हंगामे से भरी खबरें छपी। मैं कोई चार रोज और पूना में रहा। पूना में रहकर कुलवंत की याद आती रही। यूँ मेरी एक बार फिर पूना आने की इच्छा थी ताकि मैं त्रिवेणी को अपनी आँखों से भीख माँगता देख सकूँ और उसकी हथेली पर किसी दिन एक दस का नोट रख सकूँ। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी तो हुआ था। मोहिनी को मैंने हिदायत कर दी थी कि वह त्रिवेणी की तमाम सम्पत्ति पर दृष्टि रखे और जब वह अस्पताल से वापिस आए तो उसके पास सिर छिपाने का कोई ठिकाना नहीं होना चाहिए।

यह इत्मीनान करने के बाद मैं कलकत्ते रवाना हो गया। कोलकाता यानी बंगाल वैसे भी जादू-टोने के लिये सारी दुनिया में मशहूर है। वहाँ इस तरह के कई मठ या मन्दिर हैं जहाँ तन्त्र साधना होती है। कुछ ऐसे छिपे हुए स्थल भी है जहाँ बलि दी जाती है। परंतु मेरा उद्देश्य आनंदमठ से था। यह कोलकाता के पूर्वी छोर पर ऐन एक पहाड़ी पर स्थापित था और एक घना जंगल इसके चारों तरफ आबाद था। ऊपर पहाड़ी पर वह मंदिर स्थापित था जहाँ यात्री लोग काली के दर्शन करने भी जाया करते थे। इस मठ की व्यवस्था एक मंडल के हाथों में थी और त्रिवेणी भी इसी मण्डल का सदस्य था। मठ में बड़े पुजारी भी रहते थे। माला को इस बात का ज्ञान नहीं था। रास्ते में जब मैंने उसे अपनी मंजिल बतायी तो वह उदासी से बोली–
“भगवान के लिये कलकत्ते की बजाय कहीं और चलो।”

“क्यों ?” मैंने उसे उदास देखकर पहलू में समेट लिया।

“बाबा ने शायद तुम्हें नहीं बताया था कि मेरे माँ-बाप और परिवार के लोग कलकत्ते में रहते हैं। अगर उन्होंने मुझे तुम्हारे साथ देख लिया तो बहुत बुरा होगा। मेरा सुख-चैन गारत हो जाएगा।” माला ने मेरे सीने पर सिर रखकर कहा।

“क्यों ? क्या मैं तुम्हें भगाकर लाया हूँ ? आखिर तुम मेरी धर्मपत्नी हो और तुम्हारी तरफ कोई आँख उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर सकता। मेरा नाम कुँवर राज ठाकुर है। तुम बेकार परेशान होती हो। तुम्हारे लिये तो जान पर खेल जाऊँगा।”

“तुम नहीं जानते राज, वह बड़े जालिम लोग हैं।”

माला मुझे बराबर समझाती रही कि मैं कलकत्ते का सफर न करूँ पर मैंने उसे समझा बुझाकर चुप करा दिया। अगर वह न मानती तो भी मैं किसी कीमत पर यह यात्रा रद्द न करता। बंगाल अब मेरी मंजिल थी। आखिरी मंजिल। जहाँ मुझे आनन्दमठ के पुजारियों से लड़ना था। जहाँ तंत्र-मंत्र का महाभारत छिड़ने वाला था। जहाँ मेरा दुश्मन हरि आनंद छिपा बैठा था।

मोहिनी, प्रेमलाल की दान की हुई माला, मुम्बई की कोठी, बेशुमार दौलत। इन सब चीजों का आनंद उठाने के लिये आवश्यक था कि मैं अपने सिर से बोझ उतार दूँ। अगर मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं करता तो मेरा जीवन बेमानी हो जाता और कदाचित यही मेरी जिंदगी की आखिरी जंग थी। मेरी जिंदगी में बहुत खूनखराबा हो चुका था परंतु इस खून में हरि आनंद का खून भी सम्मिलित होना आवश्यक था।

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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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मुझे पूरा विश्वास था कि हरि आनंद अपने आपको मुझसे न बचा सकेगा। मेरे पास एक तो मोहिनी थी, दूसरी प्रेमलाल की दान की हुई शक्ति। किसी जमाने में त्रिवेणी ने मोहिनी को मुझसे छीन कर दर-ब-दर ठोकरें खाने पर मजबूर कर दिया था। अब हरि आनंद ने डॉली को छीन कर मेरे जीवन का चैन छीन लिया था। मोहिनी मुझे वापिस मिल गयी, खोई हुई दौलत भी। पर मेरी प्यारी डॉली की वापसी की कोई सूरत नहीं थी। वह ऐसी जगह पहुँच गयी थी जहाँ से कोई वापिस नहीं आता। त्रिवेणी से तो मैं निपट चुका था। अब हरि आनंद की बारी थी। कलकत्ते पहुँचते ही मैंने सबसे पहले आनंद मठ की जानकारी प्राप्त करनी शुरू कर दी।

आनंद मठ के सदस्य बड़े ही कट्टरपंथी थे। वे तंत्र पूजा करते थे और काली के भक्त थे। उनकी सीमा में मोहिनी कोई करतब न दिखा सकती थी। यूँ इस बात का भी खतरा था कि वे मुझे पहचानते होंगे। परंतु इतना अरसा बीत जाने के बाद कदाचित उन्हें याद भी न होगा और फिर उनमें से कौन ऐसा था जिसने मेरी सूरत देखी थी। मैंने वहाँ से आनंद मठ जाने के लिये तुरंत ही प्रस्थान किया। माला को अपने होटल में छोड़ दिया था।

मठ एक पहाड़ी पर था। यहाँ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता था। रविवार और शनिवार को अधिक भीड़ रहती थी। जब मैं उसके समीप पहुँचा तो मोहिनी ने साथ छोड़ दिया–
“राज, मैं अंदर नहीं जा सकती! यहीं रुककर तुम्हारा इंतजार करूँगी। तुम हर कदम सावधानी से उठाना। बस किसी तरह उसे बाहर लाने में सफल हो जाओ। याद रखना अंदर खून-खराबा करने से उचित है कि तुम उसे किसी तरह बाहर ले आओ। काश, मैं तुम्हारे साथ चल सकती!”

“तुम इत्मीनान रखो मोहिनी। मेरे साथ प्रेमलाल की आत्मा है। मुझे उसका आशीर्वाद प्राप्त है। मेरा ख्याल है, मैं आसानी से उस तक पहुँच जाऊँगा।”

“नहीं, नहीं! तुम वहाँ मजबूर होगे। वह काली का मंदिर है और हरि आनंद काली का सेवक है।” मोहिनी ने बेचैनी से कहा।

जब मैं मठ के अंदर प्रविष्ट हुआ तो मोहिनी चुपचाप मेरे सिर से उतर गयी। मैं स्वयं को पूरी तरह तैयार करके आगे बढ़ने लगा। कुछ सीना ताने, नथुने फुलाए, जैसे कोई पहलवान अखाड़े में दाखिल हो। उस समय मेरे बदन पर एक धोती और कुर्ता था। मंदिर में आने जाने वाले पुजारी और पुजारिन मेरी तरफ कनखियों से देख रहे थे। मैंने किसी को कोई महत्व नहीं दिया। देता भी कैसे जबकि मेरे इरादे किसी बिगड़े हुए शेर के से थे। सीढ़ियाँ पार करके मैं अंदरूनी हिस्से में दाखिल हो गया जहाँ एक अहाता था। अहाते के बीच एक हरा-भरा बगीचा था। वहाँ पंडित, पुजारी और खूबसूरत पुजारिन बैठे बातें कर रहे थे। सामने एक मेहरावी दरवाजे के अंदर घण्टे बजने और भजन गाने की आवाजें आ रही थीं। मैं उस ओर बढ़ा जहाँ से भजन की आवाजें आ रही थीं। मेहरावी दरवाजे के सामने एक दिलकश दासी ने हाथ जोड़कर मुझे प्रणाम किया। वह नजरें नीची किए कतरा कर जाने लगी तो मैंने बिना हिचक हाथ बढ़ाकर उसकी कलाई थाम ली। वह सिटपिटा गयी परंतु मेरी आँखों की गंभीरता देखकर प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखने लगी। मैंने उससे पूछा–
“मंदिर का बड़ा पुजारी इस समय कहाँ मिलेगा ?”

“तुलसी आनंद महाराज इस समय अपनी कुटिया में होंगे।” दासी ने दण्डवत करते हुए उत्तर दिया फिर मेरे अनुरोध पर बड़े पुजारी की कुटिया तक मार्ग दर्शन भी कर दिया जो अहाते के पूर्वी हिस्से में थी। कुटिया के अन्दर से ज्ञान ध्यान की आवाजें आ रही थीं। तुलसी आनंद उस समय दूसरे पंडित-पुजारियों को दरस दे रहा था। मैंने तत्काल उसे छेड़ना उचित नहीं समझा। दासी मुझे कुटिया के पास छोड़कर जाने लगी तो मैंने कुछ सोचकर दोबारा लगावट भरी दृष्टि से उसके हसीन सरापा का जायका लेते हुए कहा–
“सुन्दरी, तुमने मुझे अपना शुभ नाम नहीं बताया।”

“मेरा नाम बसन्ती है।” उसने मेरी आँखों की गर्मी को पिघलाते हुए, लजाते हुए कहा।

मेरा ज़हन उस समय केवल हरि आनंद पर उलझा हुआ था। मैंने दासी को और शर्माने के लिये विवश किया। “तुम्हारा नाम भी तुम्हारी तरह सुन्दर है।”

“क्यों बनाते हो महाराज!” दासी छुई-मुई की तरह अपने अस्तित्व में सिमटने लगी।

“बसन्ती, तुम यहाँ कब से हो ?” मैंने सरगोशी की।

“मुझे चार साल हो गए।” उसने दृष्टि झुकाकर उत्तर दिया।

“चार साल!” मैंने आश्चर्य प्रकट किया। “और तुम्हारा यहाँ दिल लग गया ?”

“हाँ!” उसने किसी कदर उदासी से कहा। “यहाँ मनुष्य शांत रहता है, चैन से रहता है।”

“खाक रहता है। तुम्हारी जगह यह मन्दिर नहीं, तुम्हें तो किसी महल में होना चाहिए।”

“मैं यहाँ बहुत ठीक हूँ। संसार बहुत बुरा है महाराज।”

मैं समझ गया कि वह दुखी है और यहाँ भी खुश नहीं है। मैंने उससे प्यार भरी बातें की तो वह मुझसे काफी प्रभावित हो गयी। अब अवसर था कि मैं उससे अपने मतलब की बात करूँ।

मैंने राजदारी से कहा। “ऐ बसन्ती सुनो, क्या तुम मेरा एक काम करोगी ?”

“कहो महाराज!” बसन्ती ने अपनी पलकें उठाकर दृष्टि मेरे चेहरे पर जमा दी।

“मुझे हरि आनन्द महाराज से मिलना है। एक पुजारी ने मुझे बताया था कि हरि आनन्द मुझे इस मन्दिर में मिल सकता है। क्या तुम हरी आनन्द को जानती हो ? मैं सिर्फ उससे मिलना चाहता हूँ।”

उत्तर में बसन्ती ने मुझे आश्चर्यचकित दृष्टि से देखा। मेरी बात सुनकर उसका चेहरा अचानक पीला पड़ गया। उसकी सारी शेखी एक पल में गायब हो गयी। उसने घबराए हुए अंदाज में अपने दाएँ-बाएँ देखा फिर भयभीत स्वर में बोली– “तुम्हारा नाम कुँवर राज ठाकुर तो नहीं ?”

मैं उत्तर देते हुए झिझका। परन्तु मैंने साहस से उत्तर दिया– “मेरा नाम कुँवर राज ठाकुर ही है। क्यों ?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

किन्तु बसन्ती पहले से भी अधिक सहमे स्वर में बोली– “तुरन्त भाग जाओ यहाँ से। किसी ने तुम्हें पहचान लिया तो तुम्हारे साथ-साथ मेरी भी शामत आएगी।”

“तुम चिन्ता न करो बसन्ती! मेरे होते हुए तुम्हारी ओर कोई नजर नहीं उठा सकता। यह मेरा वचन है।” मैंने बसन्ती को दिलासा देते हुए कहा।

मुझे यकीन हो चला था कि बसन्ती हरि आनन्द के बारे में बहुत कुछ जानती है और वह किसी बहाने से उसे बाहर ला सकती है।
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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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“बसन्ती! तुम किसी तरह हरी आनन्द को बाहर ले आओ और अगर यह सम्भव न हो तो मुझे किसी तरह उसके पास पहुँचा दो। फिर मैं तुम्हारी हर आशा पूरी करूँगा। तुम शायद नहीं जानती कि मैं महान शक्ति का स्वामी हूँ। मोहिनी देवी भी मेरे पास है। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।”

बसन्ती किसी सहमी हुई हिरनी की तरह पलकें झपका-झपका कर मुझे देख रही थी। उसने कुछ कहने की खातिर अपने होंठ खोले फिर तेजी से पलटकर भागी और मेरी नजरों से ओझल हो गयी। उसका यूँ अचानक भाग जाना अकारण नहीं हो सकता था। गोया मठ में मेरे नाम की खासी धूम थी। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि किससे संपर्क स्थापित करूँ। मैंने पलटकर इधर-उधर देखा। तुलसी आनंद की कुटिया के बाहर एक देव सरीखा पुजारी खड़ा मुझे संदिग्ध दृष्टि से देख रहा था। मुझे मोहिनी की चेतावनी याद आ गयी। उसने मुझे सावधान रहने की चेतावनी दी थी। बसन्ती का यूँ अचानक भाग जाना और इस पुजारी का संदिग्ध दृष्टि से मुझे घूरना निरर्थक नहीं हो सकता था। निश्चय ही मेरे बारे में उन्हें लगभग सारी जानकारी थी और वे मुझे पहचानते भी थे। यह एक अजीब बात थी। मैं यहाँ कभी नहीं आया था और वे मेरे बारे में निस्संदेह सब कुछ जानते थे और कदाचित उन्हें विश्वास था कि मैं यहाँ एक न एक दिन अवश्य आऊँगा।

यह बातें सोचकर मेरी आँखों में खून उतर आया। मुझे अनुमान हो गया था कि डॉली का निर्दयी कातिल हरि आनन्द मन्दिर के किसी ऐसे भाग में छिपा है जहाँ तक मेरी पहुँच आसानी से नहीं हो सकती। अब उसे मेरे आक्रमण से बचाने के लिये हर व्यक्ति तैयार था। इसका अर्थ यह था कि मेरा मुकाबला केवल हरि आनन्द से नहीं, पूरे आनन्द मठ से है और मैं भी खाली हाथ वापस लौटने वाला नहीं था तो फिर जो कुछ होना था, आज ही हो जाए। मैंने यह तय कर लिया था। मैं चाहता था कि वह सीधी तरह हरि आनन्द को मेरे हवाले कर दें। मैंने स्वयं को तैयार करके घूरने वाले पुजारी की आँखों में आँखें डाल दीं। वह मेरे निकट आया और शुष्क स्वर बोला–
“महाशय, तुम कोई नये पुजारी दिखायी देते हो! तुम्हारा शुभ नाम क्या है ?”

“क्यों, इस मठ में किसी नये पुजारी का आना बंद है ? मैंने तो सुना था कि दरबार सब के लिये खुला है। मुझे दिखायी देता है कि तुम इस समय कुछ व्याकुल भी हो। कारण ?”

“अधिक चतुर बनने की कोशिश मत करो। मैंने तुम्हारा नाम पूछा था।” पुजारी के माथे पर अनगिनत सलवटें पड़ गयी।

“जाओ अपना काम करो। मुझे तुमसे कोई मतलब नहीं। मैं हर पुजारी को छेड़ना नहीं चाहता।” मैंने कुछ बिगड़े स्वर में कहा।

“तुम मुझे चाल-ढाल से कोई पुजारी नहीं दिखायी देते।” पुजारी ने नफरत भरी दृष्टि से देखते हुए कहा। “काली के चरणों में तुम्हारा बहुरूप बनाकर आने साहस कैसे हुआ ? यहाँ केवल वही मनुष्य आ सकता है जिसके मन में कोई खोट न हो। तुम शायद गलत रास्ते पर आ गए हो। तुम्हें अपना नाम बताना ही पड़ेगा महाशय। तुम तुलसी आनंद की आँखों में धूल नहीं झोंक सकते।”

“ओह! तो तुम हो तुलसी आनंद। इस मठ के सबसे बड़े पुजारी।” मैंने साँस खींचकर लापरवाही से कहा। “आश्चर्य है, इतना बड़ा पुजारी मेरा नाम नहीं जान सका। तो तुलसी आनंद जी सुनो– मैं यहाँ जिस उद्देश्य से आया हूँ तुम उससे अच्छी तरह वाकिफ हो। मैं समय नष्ट नहीं करूँगा। मेरी जुबान से मेरा नाम सुनना ही चाहते हो तो सुनो। मेरा नाम कुँवर राज ठाकुर है। यहाँ मैं उस पापी और अधर्मी हरि आनंद की तलाश में आया हूँ जिसे तुम लोगों ने छिपा रखा है। बात बढ़ाने से कोई लाभ नहीं होगा। इतना ध्यान रखना कि अब कोई शक्ति इस कमीने हरि आनंद को मेरे हाथों से बचा नहीं सकती। तुम भी नहीं। हालाँकि तुम मुझे कुछ शक्ति वाले दिखायी देते हो। मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम सीधी तरह उसे मेरे हवाले कर दो।”

“मूरख!” तुलसी आनन्द ने गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए घृणा भरे स्वर में कहा। “इस मठ में काली का मंदिर है। यहाँ केवल देवी की शक्ति का राज है। इस पवित्र स्थान पर आकर तूने देवी का अपमान किया है। तूने घोर पाप किया है। चला जा यहाँ से, चला जा। अगर मन्दिर के दूसरे पुजारियों को तेरी खबर लग गयी तो तुझे भस्म कर देंगे।”

“तुलसी आनंद।” मैंने ठण्डे स्वर में कहा। “मुझे आश्चर्य है कि तुम इस बड़े मठ के महान पुजारी कैसे हो गए। तुम्हें तो यह भी नहीं मालूम कि मैं अकेला नहीं आया। मेरे साथ न जाने कितने योद्धा हैं और कितनी शक्ति है। अगर तुम्हें अपना जीवन प्यारा है तो सीधी तरह बता दो तुमने हरि आनंद को कहाँ छिपा रखा है ? इनकार किया तो तुम्हारा अंजाम भी अच्छा न होगा।”

“तू काली माई के मन्दिर में महान पुजारी तुलसी आनंद को धमकी दे रहा है। पापी। ठहर जा, मैं तुझे अभी मजा चखाता हूँ।” तुलसी ने काँपते हुए कहा।

“मैं हरि आनंद को चाहता हूँ, उसे मेरे हवाले कर दो। मैं फिर तुमसे कहता हूँ, बात अधिक न बढ़ाओ।”

“मैं उसे तेरे हवाले नहीं कर सकता। वह काली माई की शरण में है।”

“फिर तुम मुझे उसका पता बताओ, मैं स्वयं उससे मिल लूँगा।”

“मैं तुझे नरक का पता बता सकता हूँ पापी।” पुजारी ने कहा।
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