रोशन राय इस वक्त हवाखोरी के लिए अपनी जमीनों पर निकला हुआ था। वह घोड़े पर सवार आगे चल रहा था और उसके पीछे रौली और होली...अपने घोड़ों पर सवार चल रहे थे। दोनों ही आधुनिक हथियारों से लैसे थे।
रोशन राय अपने घोड़े की पीठ पर कमर अकड़ाये, गर्दन अकड़ाये और सिर ऊपर उठाये बैठा था। वह अपनी जागीर और अपनी जमीनों पर घूमकर बहुत खुश होता था। एक नशा-सा ही महसूस करता था। वह कभी दिमागी उद्विग्नता का शिकार होता....फौरन रौली-होली के साथ अपनी जमीनों की सैर करने निकल जाता।
जमीनों की सैर करते हुए वह अपनी आंखें उल्लू की तरह खुली रखता था...उसकी आंखों वैसे भी उल्लू की तरह गाल थी....इन्हीं आंखों को वह देखते हुए और अधिक फाड़ लिया करता था।
सैर करते हुए अगर उसे कभी अपनी पसन्द की कोई "शै दिखाई दे जाती थी, तो वह रौली की तरफ इशारा करके कहता-"देखो भई, हमारी जमीनों की शान...."
और रौली-होली को यह समझने में देर न लगती कि 'जमीनों की शान' कहकर किस शान की तरफ इशारा किया गया है। वे इस 'शान' को अच्छी तरह ताड़ लेते और फिर उनमें से एक उस 'शान' के पीछे लग जाता और उस वक्त तक उसके पीछे रहता....जब तक उस 'शान' को मालिक के हुजूर में पेश न कर दिया जाये।
हवाखोरी इस अय्याश जागीरदार का प्रिय शुगल था। इस शुगल के दौरान जमीनों की 'शान' की नहीं...और भी फैसले सुना दिये जाते थे और रौली-होली इन आदेशों पर ऐसे अमल करते जैसे इन्सान नहीं 'रोबट हों। भावनाओं से रिक्त मशीनों।
इस हवेली में पहले रौली आया था। हुलिया तो खैर उसका वही था, जो आज था....गंजा सिर और मोटी मूंछे, ल लेकिन चेहरे पर आज जो खूखारपन व शैतानियत थी, वह न थी। वह यतीम सूरत बनाए रोशन राय के हुजूर में पेश हुआ था। अब से दस साल पहले उसका कोई करीब रिश्तेदार रोशन राय का मुलाजिम था...उसी के जरिये रौली रोशन राय तक पहुंचा था और उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था- ओर रोशन राय ने उससे कुछ पूछने से पहले उसे सिर से पांव तक तीखी नजरों से देखा था और रौली उसे इस एक ही नजर में काम का आदमी दिखाई दिया था। शायद इसीलिस उसने रौली से नर्म लहजे में बात की थी।
__ "हां, बाबा। अभी कुछ बोलो भी या हाथ जोड़े ही खड़े रहोगे....."
"मालिक, एक फरियाद लेकर आया हूं...।"
"हां बाबा! बोलो। हम इधर बैठे ही किसलिए हैं? हम अगर लोगों की फरियाद नहीं सुनेंगे तो फिर कौन सुनेगा? हां, बाबा...बोलो...तुम्हें किसी ने परेशान किया है? क्या फरियाद हे तुम्हारी ?" रोशन राय ने उसे शह दी थी।
"मालिक....मुझे मेरे चाचा ने बहुत सताया है..।" रौली ने फरियाद की।
"अच्छा बाबा...अभी वह क्या कहता है...कोई जमीन.जायदाद की झगड़ा है क्या..?"
"हां, मालिक जमीन का ही झगड़ा है। आपने बिल्कुल ठीक अंदाज लगाया, सरकार!"
"तुम्हारी जमीन पर कब्जा करना चाहता है...?"
"नहीं मालिक! जमीन उसकी है....।" रौली ने बताया।
"अरे, बाबा...!" रोशन राय उसके इस जवाब पर चौंका था-"अगर जमीन उसकी है तो फिर झगड़ा कैसा...?"
"मालिक, मेरा चाचा..बिल्कुल अकेला है...न जोरू ना बच्चे.. और पांव भी कब्र में हैं। मैं कहता हूं कि जमीन मेरे हवाले कर दे...पर करता नहीं। देखें ना मालिक, यह जमीन कल भी मेरे नाम ही होनी है तो वो फिर जमीन का कब्जा छोड़ता क्यों नहीं...?" रौली ने बड़े भोलेपन से कहा।
यह सुनकर रोशन राय ने जोरदार कहकहा लगाया था और फिर मुस्कुराते हुए बोला था-"बाबा, बात तो तुम ठीक कहते हो। तुम्हारी फरियाद बड़ी जायज है। पर बाबा, अमी मैं इसमें क्या करूं..? देखो, कभी किसी चीज को हासिल करने का बस एक ही तरीका मेरी नजर में है.. अगर कोई तुम्हारा हक देने पर राजी न हो तो उससे छीन लो। तुम्हारा चाचा तुम्हारी होने वाली जमीनों पा सांप बना बैडा है तो बाबा, लाठी उठा और उसका सिर कुचल दे। जवान हो, ताकतवार हो, तुम्हारे लिए यह काम मुश्किल तो नहीं...."
___ "पुलिस से डरता हूं." रौली ने साफनाई से कहा था
"और पुलिस हमसे डरती है..?" रोशन राय ने सवाल भी किया व जवाब भी दिया ।
__ "जी, मालिक...!" रौली ने फिर हाथ जोड़ दिए थे।
"पुलिस को हम देख लेंगे। तुम अपने चाचा का देखो...."
रोशन राय ने फैसला सुनाया।
रौली खुश हो गया। वो रोशन राय की सरपरस्ती पाने को ही यहां आया था। उसके शुभचिन्तकों ने उसे यही मशवरा दिया था कि अगर मालिक ने तेरे सिर पर हाथ रख दिया तो तेरा बेड़ा पार है। मालिक ने भी उसके सिर पर यूं ही हाथ नहीं रखा था..इतनी बड़ी जागीर थी.....जागीर को सम्भालने के लिए हर किस्म के बन्दों की जरूरत थी। रौली उन्हीं बन्दों में से एक था।
बस फिर क्या था, मालिक का आशीर्वाद मिलते ही रौली ने अपने चाचा का 'कल्याण कर दिया था।
___ अपने चाचा को कत्ल करके जब वह फरार होकर हवेली की तरफ आ रहा था तो पुलिस ने उसे रास्ते में ही धर लिया था। साथ उससे 'आला कत्ल भी बरामर कर लिया था। थानेदार को रोशन राय ने यही हुक्म दिया था।
Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )
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Re: Horror अनहानी ( एक प्रेत गाथा )
रौली की गिफ्तारी की खबर रोशन राय को फौरन ही मिल गई थी, लेकिन उसने दो रातों तक रौली की कोई खबर नहीं ली। रौली लॉकअप में बन्द मालिक की तरफ से किसी मदद का इन्तजार करता रहा। दो रातें बीतने के बाद उसके छक्के छूट गए थे। वह अपने चाचा के कत्ल के इल्जाम में 'आला कत्ल के साथ पकड़ा गया था। अब फांसी के फन्दे से कोई नहीं बचा सकता था।
जब निराशा अपनी हदों को छूने लगी तो रोशन राय का चेहरा चमका। उसने थानेदार से दिखावे का 'सौदा किया और रौली पर यह जाहिर करके कि उसने पच्चीस हजार की मोटी रकम, नजराना अदा करके उसे छुड़ाया है...रौली को हमेशा के लिए अपने जाल में फंसा लिया।
रौली अब रोशन राय के लिए 'जर खरीद गुलाम' था।
वो रोशन राय के लिए बड़े काम का आदमी साबित हुआ और धीरे-धीरे वो रोशन राय का खास आदमी बन गया।
फिर एक साल बीतने के बाद रौली ने अपने जुड़वा भाई 'होली' का जिक्र रोशन राय से किया। होजल उस वक्त मुम्बई से फरार होकर अपने गांव पहुंचा था। रौली ने उसे रोशन राय की सेवा में पेश करने का इरादा कर लिया। रोशन राय ने होली के बारे में सुना तो वह भी उसे अपने काम का आदमी मालूम हुआ।
उसने रौली से कहा-"हां, बाबा....लाओ उसे....हम भी देखों बम्बई में वारदात करने वाले को.।"
फिर होली को एक नजर देखते ही रोशन राय ने उसे भी अपने साथ रखन का इरादा कर लिया। यूं जल्दी ही दोनों भाई रोशन राय के विश्वास के बन्दे बन गये।
अब एक लंबे समय से वे दानों रोश नराय के पास थे। दोनों साये की तरह उसके साथ रहते थे।
इसीलिए समीर उन्हें 'बाबा के फरिश्ते कहता था। ऐसे 'फरिश्ते जिनके बयान पर बाबा पकड़े जा सकते थे।
रोशन राय ने अचानक ही अपने दौड़ते हुए घोड़े की लगाम दे उसे रोका और घोड़े का रुख जरा-सा मोड़कर पीछे देखा। रौली ओर होली ज्यादा पीछे न थे। वे कुछ ही क्षणों में रोशन राय के निकट पहुंच गये....और खामोशी से उसकी तरफ देखने लगे।
रोशन राय ने अपने फरिश्तों की तरफ बारी-बारी गौर से देखा व फिर कदरे चिन्तित स्वर में बोला-"बाबा.....अपने इस लाडले समीर राय की अभी कुछ समझ में नहीं आ रही है। अभी तुम लोग उस पर नजर रखो.....।"
"जी, मालिका....।" रौली ने आदर के साथ कहा।
"देखो, जरा होशियारी से। उसे मालूम नहीं होना चाहिये कि कोई उसके पीछे लगा हुआ है....वरना वह उसे गोली मार देगा। उसे जब गुस्सा आ जाता है तो वह कुछ नहीं देखता।" रोशन राय अपने बेटे के मिजाज से भली-भांति वाकिफ था।
"जी, मालिक....आप फिक्र न करें....।" इस बार होली बोला-"मैं इस बात का ख्याल रखूगा।"
___ "आओ, अब वापिस चलें। शाम होने को है....।" कहते हुए रोशन राय ने अपने घोड़े को 'ऐड दी और घोड़ा देखते-ही-देखते हवा से बातें करने लगा।
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जब निराशा अपनी हदों को छूने लगी तो रोशन राय का चेहरा चमका। उसने थानेदार से दिखावे का 'सौदा किया और रौली पर यह जाहिर करके कि उसने पच्चीस हजार की मोटी रकम, नजराना अदा करके उसे छुड़ाया है...रौली को हमेशा के लिए अपने जाल में फंसा लिया।
रौली अब रोशन राय के लिए 'जर खरीद गुलाम' था।
वो रोशन राय के लिए बड़े काम का आदमी साबित हुआ और धीरे-धीरे वो रोशन राय का खास आदमी बन गया।
फिर एक साल बीतने के बाद रौली ने अपने जुड़वा भाई 'होली' का जिक्र रोशन राय से किया। होजल उस वक्त मुम्बई से फरार होकर अपने गांव पहुंचा था। रौली ने उसे रोशन राय की सेवा में पेश करने का इरादा कर लिया। रोशन राय ने होली के बारे में सुना तो वह भी उसे अपने काम का आदमी मालूम हुआ।
उसने रौली से कहा-"हां, बाबा....लाओ उसे....हम भी देखों बम्बई में वारदात करने वाले को.।"
फिर होली को एक नजर देखते ही रोशन राय ने उसे भी अपने साथ रखन का इरादा कर लिया। यूं जल्दी ही दोनों भाई रोशन राय के विश्वास के बन्दे बन गये।
अब एक लंबे समय से वे दानों रोश नराय के पास थे। दोनों साये की तरह उसके साथ रहते थे।
इसीलिए समीर उन्हें 'बाबा के फरिश्ते कहता था। ऐसे 'फरिश्ते जिनके बयान पर बाबा पकड़े जा सकते थे।
रोशन राय ने अचानक ही अपने दौड़ते हुए घोड़े की लगाम दे उसे रोका और घोड़े का रुख जरा-सा मोड़कर पीछे देखा। रौली ओर होली ज्यादा पीछे न थे। वे कुछ ही क्षणों में रोशन राय के निकट पहुंच गये....और खामोशी से उसकी तरफ देखने लगे।
रोशन राय ने अपने फरिश्तों की तरफ बारी-बारी गौर से देखा व फिर कदरे चिन्तित स्वर में बोला-"बाबा.....अपने इस लाडले समीर राय की अभी कुछ समझ में नहीं आ रही है। अभी तुम लोग उस पर नजर रखो.....।"
"जी, मालिका....।" रौली ने आदर के साथ कहा।
"देखो, जरा होशियारी से। उसे मालूम नहीं होना चाहिये कि कोई उसके पीछे लगा हुआ है....वरना वह उसे गोली मार देगा। उसे जब गुस्सा आ जाता है तो वह कुछ नहीं देखता।" रोशन राय अपने बेटे के मिजाज से भली-भांति वाकिफ था।
"जी, मालिक....आप फिक्र न करें....।" इस बार होली बोला-"मैं इस बात का ख्याल रखूगा।"
___ "आओ, अब वापिस चलें। शाम होने को है....।" कहते हुए रोशन राय ने अपने घोड़े को 'ऐड दी और घोड़ा देखते-ही-देखते हवा से बातें करने लगा।
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Re: Horror अनहानी ( एक प्रेत गाथा )
समीर ने जो सोचा था और जो कदम उठाने का फैसला किया था....उसे अंजाम देने के लिए उसने पोखर का ही चुना था।
समीर ने 'गोरकन पोखर को उस काम पर लगा दिया था।
पोखर जानता था कि यह खतरनाक काम है और इसकी भनक भी अगर बड़े मालिक को पड़ गई तो वह उसे बीवी-बच्चों सहित कुत्तों के आगे डलवा देंगे। पर उधर बड़े मालिक थे, तो इधर छोटे मालिक थे। छोटे मालिक भी कम न थे। वो अगर इंकार कर देता तो जान फिर भी सलामत न थी। एक तरफ खाई थी तो दूसरी तरफ कुआं। उसने अपनी जान जोखिम में डालकर समीर राय का साथ देने का इरादा कर लिया। पोखर को समीर से हमदर्दी हो गई थी।
वैसे भी वह छोटे मालिक थे...नौजवान थे..वह 'फातह के लिए हाथ उठाते तो उनकी आंखों भर आती थीं। आखिर इन कब्रों में क्या राज था? उन्हें इन कब्रों से दूर क्यों रखा गया था? इस जिज्ञासा व खुद-वुद ने भी पोखर को इस काम के लिए उकसाया था।
उसने आठ-दस फुट के फासले से ओर एक खास जगह से सुरंग खोदनी शुरू की थी। वहां झाड़ियां बहुत थीं। एक नजर देखने पर कोई अंदाज नहीं लगा सकता था कि वहां से सुरंग खोदी जा रही है। वैसे भी किसी की सोच इस तरफ नहीं जा सकती थी। अगर कब्र को 'पक्का न करा दिया गया होता तो सुरंग खोदने की जरूरत नहीं पड़ती। पोखर रातो-रात कब्र खोदकर दोबारा ज्यूं-का-त्यूं बन्द कर देता। अब ‘पक्की' कब्र को तोड़ा नहीं जा सकता था। तोड़ा जाता तो फिर कुछेक घन्टों में उसका पुनर्निर्माण सम्भव नहीं था और अगर किसी तरह कब्र को पक्का कर भी दिया जाता तो भी भेद खुलने का खतरा था।
बहरहाल, पोखर यह काम रात के अन्धेरे में अंजाम दे रहा था। वह रात के बारह बजे से सुबह चार बजे तक सुरंग खोदने को काम करता था। उसने दो रातों में सुरंग, नमीरा की कब्र तक पहुंचा दी।
फिर जब समीर मुंह-अंधेरे....प्रोग्राम के मुताबिक कब्रिस्तान पहुंचा और सुरंग में दाखिल होकर उसने एमरजेंसी लाइट में कब्र का निरीक्षण किया तो उसका शक यकी में बदल गया।
कब्र खाली थी। उसमें नमीरा की या किसी की भी लाश नहीं थी।
वह सुरंग बन्द करने का हुक्म देकर वापिस हवेली लोट आया। हवेली में सन्नाटा था। हालांकि आकाश पर हल्की-हल्की रोशनी उजागर हो चुकी थी..लेकिन हवेली के वासी अन्धेरों में पड़े नींद के मजे ले रहे थे।
हवेली के असली वासी थे कितने। गिनती के तीन । एक बाबा, एक मां और एक वह खुद। तीन रहने वाले और हवेली इतनी बड़ी कि एक साथ तीन सौ आदमी आसानी से समा जाएं। हवेली की रौनक नौकर-चाकरों सेथी। अगर वे न होते तो हवेली की स्थिति मरघट की-सी होती।
समीर राय को इस सन्नाटे से सख्त चिढ़ थी। शायद इसीलिए उसने होस्टल में रहना पसन्द नहीं किया था। मुम्बई में भी, वह चाहता तो अपने बांद्रा वाले बंगले में रह सकता था, लेकिन वह तो दूसरों के साथ.....दूसरों के बीच रहना चाहता था। हंगामों भरी जिन्दगी का ख्वाहिशमंद था। अपनी बीवी नमीरा को उसने इसी कारण यहां हवेली में छोड़ा हुआ था, लेकिन अब वह पछता रहा था।
काश! उसने नमीरा को हवेली में न छोड़ा होता।
और अब...अब तो वह मामला खासा उलझ गया था । नमीरा की हस्पताल में मृत्यु की बात झूठी थी। नमीरा की लाश भी कब्र में नहीं थी। लाश का न मिलना...इस बात का सबूत था, नमीरा को मौत नहीं हुई
समीर ने बच्चे की कब्र नहीं खुदवाई थी। पर, अब यकीन किया जा सकता था कि वह कब्र भी खाली ही होगी।
अगर मां-बेटी दोनों जिन्दा थीं, तो फिर उनकी मोत का यह नाटक क्यों? उन्हें मुर्दा क्यों जाहिर किया गया?
बहरहाल, कब्र में लाश न मिलने से समीर के दिल को कुछ तसल्ली हुई। उसे अब कम से कम अपनी बीवी व बच्ची के मिलने की उम्मीद तो गई थी।
समीर को हवेली में आए पांच-छ: दिन हो चुके थे, लेकिन उसने अभी तक एक दिन भी नाश्ता अपनी मां नफीसा बेगम के साथ नहीं किया था। इसका मौका ही नहीं मिला था।
आज सुबह मों ने सन्देहा भिजवाया था कि वह नाश्ता उसके साथ करेंगी।
फिर वह अपने हाथों से ट्रॉली धकेलती हुई समीर के कमरे में पहुंची थी।
समीर ने 'गोरकन पोखर को उस काम पर लगा दिया था।
पोखर जानता था कि यह खतरनाक काम है और इसकी भनक भी अगर बड़े मालिक को पड़ गई तो वह उसे बीवी-बच्चों सहित कुत्तों के आगे डलवा देंगे। पर उधर बड़े मालिक थे, तो इधर छोटे मालिक थे। छोटे मालिक भी कम न थे। वो अगर इंकार कर देता तो जान फिर भी सलामत न थी। एक तरफ खाई थी तो दूसरी तरफ कुआं। उसने अपनी जान जोखिम में डालकर समीर राय का साथ देने का इरादा कर लिया। पोखर को समीर से हमदर्दी हो गई थी।
वैसे भी वह छोटे मालिक थे...नौजवान थे..वह 'फातह के लिए हाथ उठाते तो उनकी आंखों भर आती थीं। आखिर इन कब्रों में क्या राज था? उन्हें इन कब्रों से दूर क्यों रखा गया था? इस जिज्ञासा व खुद-वुद ने भी पोखर को इस काम के लिए उकसाया था।
उसने आठ-दस फुट के फासले से ओर एक खास जगह से सुरंग खोदनी शुरू की थी। वहां झाड़ियां बहुत थीं। एक नजर देखने पर कोई अंदाज नहीं लगा सकता था कि वहां से सुरंग खोदी जा रही है। वैसे भी किसी की सोच इस तरफ नहीं जा सकती थी। अगर कब्र को 'पक्का न करा दिया गया होता तो सुरंग खोदने की जरूरत नहीं पड़ती। पोखर रातो-रात कब्र खोदकर दोबारा ज्यूं-का-त्यूं बन्द कर देता। अब ‘पक्की' कब्र को तोड़ा नहीं जा सकता था। तोड़ा जाता तो फिर कुछेक घन्टों में उसका पुनर्निर्माण सम्भव नहीं था और अगर किसी तरह कब्र को पक्का कर भी दिया जाता तो भी भेद खुलने का खतरा था।
बहरहाल, पोखर यह काम रात के अन्धेरे में अंजाम दे रहा था। वह रात के बारह बजे से सुबह चार बजे तक सुरंग खोदने को काम करता था। उसने दो रातों में सुरंग, नमीरा की कब्र तक पहुंचा दी।
फिर जब समीर मुंह-अंधेरे....प्रोग्राम के मुताबिक कब्रिस्तान पहुंचा और सुरंग में दाखिल होकर उसने एमरजेंसी लाइट में कब्र का निरीक्षण किया तो उसका शक यकी में बदल गया।
कब्र खाली थी। उसमें नमीरा की या किसी की भी लाश नहीं थी।
वह सुरंग बन्द करने का हुक्म देकर वापिस हवेली लोट आया। हवेली में सन्नाटा था। हालांकि आकाश पर हल्की-हल्की रोशनी उजागर हो चुकी थी..लेकिन हवेली के वासी अन्धेरों में पड़े नींद के मजे ले रहे थे।
हवेली के असली वासी थे कितने। गिनती के तीन । एक बाबा, एक मां और एक वह खुद। तीन रहने वाले और हवेली इतनी बड़ी कि एक साथ तीन सौ आदमी आसानी से समा जाएं। हवेली की रौनक नौकर-चाकरों सेथी। अगर वे न होते तो हवेली की स्थिति मरघट की-सी होती।
समीर राय को इस सन्नाटे से सख्त चिढ़ थी। शायद इसीलिए उसने होस्टल में रहना पसन्द नहीं किया था। मुम्बई में भी, वह चाहता तो अपने बांद्रा वाले बंगले में रह सकता था, लेकिन वह तो दूसरों के साथ.....दूसरों के बीच रहना चाहता था। हंगामों भरी जिन्दगी का ख्वाहिशमंद था। अपनी बीवी नमीरा को उसने इसी कारण यहां हवेली में छोड़ा हुआ था, लेकिन अब वह पछता रहा था।
काश! उसने नमीरा को हवेली में न छोड़ा होता।
और अब...अब तो वह मामला खासा उलझ गया था । नमीरा की हस्पताल में मृत्यु की बात झूठी थी। नमीरा की लाश भी कब्र में नहीं थी। लाश का न मिलना...इस बात का सबूत था, नमीरा को मौत नहीं हुई
समीर ने बच्चे की कब्र नहीं खुदवाई थी। पर, अब यकीन किया जा सकता था कि वह कब्र भी खाली ही होगी।
अगर मां-बेटी दोनों जिन्दा थीं, तो फिर उनकी मोत का यह नाटक क्यों? उन्हें मुर्दा क्यों जाहिर किया गया?
बहरहाल, कब्र में लाश न मिलने से समीर के दिल को कुछ तसल्ली हुई। उसे अब कम से कम अपनी बीवी व बच्ची के मिलने की उम्मीद तो गई थी।
समीर को हवेली में आए पांच-छ: दिन हो चुके थे, लेकिन उसने अभी तक एक दिन भी नाश्ता अपनी मां नफीसा बेगम के साथ नहीं किया था। इसका मौका ही नहीं मिला था।
आज सुबह मों ने सन्देहा भिजवाया था कि वह नाश्ता उसके साथ करेंगी।
फिर वह अपने हाथों से ट्रॉली धकेलती हुई समीर के कमरे में पहुंची थी।
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Re: Horror अनहानी ( एक प्रेत गाथा )
समीर अभी-अभी नहाकर बाथरूम से निकाल था और ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ा बाल संवार रहा था कि आईने में उसे अपनी मां की सूरत दिखाई दी।
वह बाल बनाते-बनाते रुक गया वह अपनी मां की सूरत देखने लगा। नफीसा बेगम ने भी उसकी नजरें अपने चेहरे पर महसूस कर ली....वह धीरे से मुस्कुराई और ट्रॉली मेज के करीब करके उस पर स नाश्ते की चीजें मेज पर रखने लगी।
"मां, हवेली के नौकर-नौकरानियों को क्या हुआ...?" समीर ने पूछा।
"सब हैं। मैंने सोचा आज मैं अपने बेटे को अपने हाथों नाश्ता करवाऊं..." नफीसा बेगम अपनत्व से बोली।
___ "ओह, थैक्स, मां...।" समीर मेज की तरफ बढ़ आया।
"थैक्स...!" नफीसा बेगम ने नागवारी दशाई-"मांक की कैसा थैक्स....? अब तू मां का भी शुक्रिया अदा करेगा....."
"बुरी बात है यह..."
"हां, बहुत बुरी। मां बोली-"आइन्दा मुझसे ऐसी दिखावे भरी बात न करना.....।"
"अच्छा, मां। माफी....!" समीर ने हाथ जोड़ दिये।
"जा माफ किया..।" नफीसा का चेहरा खिल उठा था।
"मां, क्या वाकई तुम कुछ नहीं जानती हो.?" समीर का लहजा एकाएक बदल गया था।
"अब क्या हुआ..?"
"मां, आखिर आपने मुझसे यह सब छिपाया क्यों.?" समीर का लहजा शिकवा भरा था।
"बेटा, मैंने तुमसे कुद नहीं छिपाया हैं कुछ भी नहीं...।"
नफीसा संजीदा होते हुए बोली-"मेरी यकीन करो...।"
"किस का यकीन करूं और किस का यकीन न करूं...मुझे समझ में नहीं आता.....।" समीर के लहजे में सख्ती भर आई थी-"अम्मी! मुझे अब यकीन हो गया है कि मेरी नमीरा और मेरी बच्ची जिन्दा हैं."
"नमीरा जिन्दा है...सच...!" नफीसा बेगम के चेहरे पर खुशी छा गई। जाने यह खुशी सच्ची थी या झूठी?
"हां, मां! नमीरा की कब्र दिखावटी बनाई गई है....।"
"दिखावटी...क्या मतलब? क्या कब्र भी दो नम्बर की बनने लगी हैं...?"
"हां, मां। कब्र में नमीरा की लाश नहीं है....।" समीर ने रहस्योदघाटन किया।
__ "हाय, अल्लाह!" नफीसा बेगम ने हैरान होकर अपने सीने पर हाथ रख लिया।
"मां, आखिर आप मुझे सच बता क्यों नहीं देती...?" समीर उन्हें घूरने लगा।
नफीसा बेगम अभी कुछ कहने ही वाली थी कि एक सेविका घबराई हुई अन्दर दाखिल हुई।
"क्या हुआ...?" समीर ने तेजी से पूछा।
"वो, मालकिन....वो....कब्रिस्तान में आग लग गई है....."
नौकरानी ने अपनी फूली हुई सांस के साथ बताया।
"कब्रिस्तान में आग लग गई है... | क्या बकवास कर रही है निगोड़ी।" नफीसा बेगम ने उसे डांटा।
"कब्रिस्तान में आग..ओह, माई गॉड....!" समीर नाश्ता बीच ही में छोड़ उठ खड़ा हुआ।
"बेटा.तुम नाश्ता करो, कहां जा रहे हो? में तुम्हारे अबू को बताती हूं... वह देख लेंगे।” नफीसा बेगम उठते हुए बोली।
"मां...मैं कब्रिस्तान जा रहा हूं। बाबा सो रहे होंगे....उन्हें सोने दें। मैं खुद जाकर सूरतेहाल देख आता हूं| नाश्ता आकर करता हूं...।" इतना कहकर समीर कमरे से निकल गया। उसने अपनी मां के जवाब का इन्तजार भी नहीं किया था।
वह बाल बनाते-बनाते रुक गया वह अपनी मां की सूरत देखने लगा। नफीसा बेगम ने भी उसकी नजरें अपने चेहरे पर महसूस कर ली....वह धीरे से मुस्कुराई और ट्रॉली मेज के करीब करके उस पर स नाश्ते की चीजें मेज पर रखने लगी।
"मां, हवेली के नौकर-नौकरानियों को क्या हुआ...?" समीर ने पूछा।
"सब हैं। मैंने सोचा आज मैं अपने बेटे को अपने हाथों नाश्ता करवाऊं..." नफीसा बेगम अपनत्व से बोली।
___ "ओह, थैक्स, मां...।" समीर मेज की तरफ बढ़ आया।
"थैक्स...!" नफीसा बेगम ने नागवारी दशाई-"मांक की कैसा थैक्स....? अब तू मां का भी शुक्रिया अदा करेगा....."
"बुरी बात है यह..."
"हां, बहुत बुरी। मां बोली-"आइन्दा मुझसे ऐसी दिखावे भरी बात न करना.....।"
"अच्छा, मां। माफी....!" समीर ने हाथ जोड़ दिये।
"जा माफ किया..।" नफीसा का चेहरा खिल उठा था।
"मां, क्या वाकई तुम कुछ नहीं जानती हो.?" समीर का लहजा एकाएक बदल गया था।
"अब क्या हुआ..?"
"मां, आखिर आपने मुझसे यह सब छिपाया क्यों.?" समीर का लहजा शिकवा भरा था।
"बेटा, मैंने तुमसे कुद नहीं छिपाया हैं कुछ भी नहीं...।"
नफीसा संजीदा होते हुए बोली-"मेरी यकीन करो...।"
"किस का यकीन करूं और किस का यकीन न करूं...मुझे समझ में नहीं आता.....।" समीर के लहजे में सख्ती भर आई थी-"अम्मी! मुझे अब यकीन हो गया है कि मेरी नमीरा और मेरी बच्ची जिन्दा हैं."
"नमीरा जिन्दा है...सच...!" नफीसा बेगम के चेहरे पर खुशी छा गई। जाने यह खुशी सच्ची थी या झूठी?
"हां, मां! नमीरा की कब्र दिखावटी बनाई गई है....।"
"दिखावटी...क्या मतलब? क्या कब्र भी दो नम्बर की बनने लगी हैं...?"
"हां, मां। कब्र में नमीरा की लाश नहीं है....।" समीर ने रहस्योदघाटन किया।
__ "हाय, अल्लाह!" नफीसा बेगम ने हैरान होकर अपने सीने पर हाथ रख लिया।
"मां, आखिर आप मुझे सच बता क्यों नहीं देती...?" समीर उन्हें घूरने लगा।
नफीसा बेगम अभी कुछ कहने ही वाली थी कि एक सेविका घबराई हुई अन्दर दाखिल हुई।
"क्या हुआ...?" समीर ने तेजी से पूछा।
"वो, मालकिन....वो....कब्रिस्तान में आग लग गई है....."
नौकरानी ने अपनी फूली हुई सांस के साथ बताया।
"कब्रिस्तान में आग लग गई है... | क्या बकवास कर रही है निगोड़ी।" नफीसा बेगम ने उसे डांटा।
"कब्रिस्तान में आग..ओह, माई गॉड....!" समीर नाश्ता बीच ही में छोड़ उठ खड़ा हुआ।
"बेटा.तुम नाश्ता करो, कहां जा रहे हो? में तुम्हारे अबू को बताती हूं... वह देख लेंगे।” नफीसा बेगम उठते हुए बोली।
"मां...मैं कब्रिस्तान जा रहा हूं। बाबा सो रहे होंगे....उन्हें सोने दें। मैं खुद जाकर सूरतेहाल देख आता हूं| नाश्ता आकर करता हूं...।" इतना कहकर समीर कमरे से निकल गया। उसने अपनी मां के जवाब का इन्तजार भी नहीं किया था।
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