Thriller बहुरुपिया शिकारी

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koushal
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Thriller बहुरुपिया शिकारी

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बहुरुपिया शिकारी

वो मुर्गाबी थी ।


जो खुद ही मेरे सिर पर आ कर बैठ गयी थी ।

इसलिये यूअर्स ट्रूली को उस सैंस आफ अचीवमेंट का अहसास नहीं हो रहा था जिसका कि मैं आदी था ।

जनवरी का महीना था और सांझ ढ़ले से वो भगवान दास रोड वाले मेरे नये फ्लैट पर मेरे साथ थी । उस वक्त ग्यारह बजने को थे और मैं समझता था कि सत्संग काफी हो गया था, पिकनिक काफी से ज्यादा हो गयी थी, लिहाजा अब मेरा जेहन उसको रुखसत करने की कोई तरकीब सोचने में मशगूल था - कोई ऐसी तरकीब जिसके तहत मुझे उसको रुखसत करना न पड़ता, वो खुद ही रुखसत हो जाती ।

बाइज्जत । बिना कोई ऑफेंस फील किये ।
वैसे ऐन उलट भी होता तो मुझे कोई एतराज नहीं था ।

पांच घंटे के मुतवातर मौजमेले के बाद, फुल ट्रीटमेंट के बाद, काहे को होता भला !

छ: महीने से मैं उससे वाकिफ था और उस दौरान उसे लाइन मारने का कोई मौका मैंने नहीं छोड़ा था लेकिन नाउम्मीदी ही हाथ लगी थी, आंखों का मिकनातीसी सुरमा भी उस बार काम नहीं आया था, कच्चे धागे से बंधे सरकार नहीं चले आये थे ।

और आज जब ऐसा हुआ था तो कच्चे धागे की भी जरूरत नहीं पड़ी थी । जैसा कि मैंने पहले अर्ज किया, मुर्गाबी खुद ही मेरे सिर पर आ बैठी थी । अब हाजिर को हुज्जत कौन करता है, दान की बछिया के दांत कौन गिनता है !

लेकिन ये बात रह रह कर मेरे जेहन में कुनमुना रही थी कि ऐसा हुआ तो क्योंकर हुआ ! कोई वजह तो मेरी समझ में न आयी लेकिन यूअर्स ट्रूली का जाती तजुर्बा है कि जिस बात का कोई मतलब न हो, उसका जरूर कोई मतलब होता है ।

पांच घंटे की लम्बी तफरीह से मैं राजी था, संतुष्ट था, तृप्त था और अब तफरीह को फुलस्टाप लगाने का ख्वाहिशमंद था - बावजूद किसी गूढ़ ज्ञानी महानुभाव के कथन के कि ‘सैक्स इज नैवर एनफ’ । इस संदर्भ में खाकसार अपनी जाती राय ये जोड़ना चाहता है कि इस फानी दुनिया में सैक्स से बेहतर कुछ हो सकता है, सैक्स से बद्तर कुछ हो सकता है लेकिन सैक्स जैसा कुछ नहीं हो सकता ।

दूसरे, आप के खादिम के साथ कुछ अच्छी बीते तो उसे दहशत होने लगती है कि पता नहीं आगे क्या बुरा होने वाला था जिसकी कि वो भूमिका थी !

तीसरे, आदमी का बच्चा प्रलोभन से नहीं बच सकता क्योंकि वो पूरा खयाल रखता है कि प्रलोभन उससे बचके न निकल जाये ।

इसीलिये गुजश्ता पांच घंटों से वो मेरे पहलू में थी ।

साहबान, मुझे उम्मीद ही नहीं, यकीन है कि इतने से ही आपको अहसास हो गया होगा कि राज शर्मा, दि ओनली वन, एक बार फिर आप से मुखातिब है । लोग मुझे ‘लक्की भाई’ भी कहते हैं - कितनी ही बार मैं खुद भी अपने को इसी अलंकार से नवाज कर खुद अपनी पीठ थपथपाता हूं - लेकिन कोसने के तौर पर नहीं, गाली के तौर पर नहीं, तारीफ के तौर पर कहते है, अलबत्ता ये तफ्तीश का मुद्दा है कि कहते वक्त उनका जोर ‘लक्की’ पर ज्यादा होता है या ‘भाई’ पर । बहरहाल आपके खादिम को इस अलंकरण से कोई एतराज नहीं क्योंकि किसी भी वजह से सही, नाम तो है न राज शर्मा का दिल्ली शहर में और आसपास चालीस कोस तक - ‘बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा’ के अंदाज से !

जो शोलाबदन खातून उस वक्त मेरी शरीकेफ्लैट थी, जो मेरे साथ हमबिस्तर थी और ड्रिंक शेयर कर रही थी - और भी पता नहीं क्या कुछ शेयर कर रही थी, कर चुकी थी, अभी आगे करना चाहती थी - उसका नाम अंजना रांका था और मेरे और उसके उस घड़ी के साथ की अहमतरीन वजह यही थी कि खाकसार की पसंद की हर चीज उसमें थी । लम्बा कद । छरहरा बदन । तनी हुई सुडौल भरपूर छातियां - जो ब्रा के सहारे की कतई मोहताज नही थीं - पतली कमर । भारी नितम्ब । लम्बे, सुडौल, गौरे चिट्टे हाथ पांव । खुबसूरत नयननक्श रेशम से मुलायम, खुले, काले बाल ।
एण्ड वाट नाट !

कोई खामी थी तो बस यही थी कि शिकारी ने शिकार का सुख नहीं पाया था, शिकार खुद ही शिकारी के हवाले हो गया था ।

“वाह !” - एकाएक मेरी छाती पर से सिर उठा कर वो बोली - “मजा आ गया ।”

“पक्की बात ?” - मैं बोला ।

“हां ।”

“दैट्स गुड न्यूज ।”

“आफ कोर्स इट इज ।”

“तो फिर छुट्टी करें ?”

“क्या !”

“शैल वुई काल इट ए डे ?”

“अरे, क्या कह रहे हो ?”

“तुमने बोला न, मजा आ गया । यानी कि मिशन अकम्पलिश्ड । तो फिर रात खोटी करने का क्या फायदा ?”

“क्या ! अरे, तुम पागल तो नहीं हो ?”

“हूं । तभी तो तुम्हारे साथ हूं ।”

“क..क्या बोला ?”

“तुम्हारा पगल ! दीवाना ! शैदाई !”

“ओह !”

“तुमने क्या समझा था ?”

“मैंने ! मैंने तो...आई विल हैव अनदर ड्रिंक ।”

“अभी हुक्म की तामील होती है, मालिकाआलिया । अभी ड्रिंक पेश होता है । लेकिन लेटे लेटे तो ड्रिंक नहीं बनाया जा सकता न ! न सर्व किया जा सकता है ! नो ?”

“यस ।”

“तो फिर मेरी छाती पर से उठो ।”

“ओह !”

उसने परे करवट बदली ।

मैंने उठ कर दो ड्रिंक्स तैयार किये ।”

“रिफ्रेशंड चियर्स !” - एक उसे सौंपता मैं बोला ।

“चियर्स !” - वो उत्साह से बोली - “एण्ड नैनी हैपी रिटर्न आफ दि डे ।”

“एण्ड नाइट !”

“आमीन !” - उसने विस्की का एक घूंट हलक से उतारा और होंठ चटकाये - “मजा आ गया !”

“फिर आ गया ?” - मैं बोला ।

“हां ।”

“अरे, रोक के रखना था, पहले जाने क्यों दिया ?”

“मालूम ?”

“क्या ?”

“म्यूजिक हो । ड्रिंक्स हों । सैक्स हो । और क्या चाहिये ?”

“क्या चाहिये ?”

“मैंने बोला था एक दिन मैं खुद ही चली आऊंगी । देख लो, चली आयी !”

“इसी बात का तो अफसोस है ।”
koushal
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बहुरुपिया शिकारी-1

Post by koushal »

“क्या !”

“इतनी देर लगा दी चली आने में ! तरसा दिया !”

“ओह ! मैं तो कुछ और ही समझी थी ।”

“तुम क्या समझी थीं ?”

“छोड़ो ।”

“कुछ कम समझती हो, जानेमन, कुछ और ज्यादा समझती हो !”

“वैसे एक बात बोलूं ?”

“दो बोलो ।”

“यू नो हाउ टु सर्व ए वुमेन । किसी को अच्छा हसबैंड नसीब होगा ।”

“स्वीटहार्ट, तुम्हें तो इतना ही मालूम है, मेरे को तो ये भी मालूम है कि किसे नसीब होगा !”

“अच्छा ! किसे नसीब होगा ?”

“तुम्हें ।”

वो खामोश हो गयी ।

जैसे जो मैंने कहा था, उसे समझने की कोशिश कर रही हो - हावी होते नशे को दरकिनार करके समझने की कोशिश कर रही हो ।

“मैं समझी नहीं ।” - फिर बोली ।

“मैं समझाता हूं न ! देखो, छ: महीने से हम एक दूसरे से वाकिफ हैं । आज के रफ्तार के जमाने में ये अरसा कोई कम नहीं । अब हम हमेशा वाकिफ ही तो बने नहीं रह सकते न ! मेरे खयाल से अब हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिये ।”

“भविष्य के बारे में सोचना चाहिये ! क्या ?”

“बल्कि सोचना क्या है, जानेमन, शादी कर लेते हैं । समझो हो गया भविष्य के बारे में सोचना ।”’

“शादी !” - वो हड़बड़ाई ।

“खानाआबादी !” - मैं बोला, जबकि शादी के मामले में मेरी जाती राय ‘खानाबर्बादी’ के ज्यादा करीब थी - “अभी हसबैंड के बारे में मैंने जो कहा था, लगता है, सच में हीं नहीं समझी ।”

“लेकिन शादी !”

“और मैंने क्या कहा ?”

“इतनी जल्दी !”

“कोई जल्दी नहीं, डार्लिंग, रफ्तार के जमाने के लिहाज से कोई जल्दी नहीं ।”

“हूं ।”

“मैंने तो ये सोच के कहा कि तुम्हारे मन की भी यही मुराद होगी !”

“वो तो...वो तो...है ।”

“तो फिर ?”

“ठीक है । एक डेढ़ महीने में हम एंगेजमेंट की रसम अदा कर लेंगे, फिर भगवान ने चाहा तो एक डेढ़ साल बाद....”

“एक डेढ़ साल बाद ! पागल हुई हो ! अभी ।”

“तुम्हारा मतलब है आज कल में ?”

“अरे, अभी । अभी । मैंने ‘अभी’ बोला कि नहीं बोला ?”

“वाट नानसेंस ! मेरी जॉब का क्या होगा ?”

“तुम कोई जॉब करती हो ! ये तो तुमने मुझे कभी बताया ही नहीं !”

“अरे, वुडलैंड क्लब में, जहां तुम अक्सर आते हो, और मैं क्या करती हूं ?”

“वो भी जॉब कहलाती है ?”

“और नहीं तो क्या ?”

“तफरीह, मौजमस्ती भी जॉब होती है ! कमाल है ! मैं तो समझा था वो तुम्हारा शाम का महज शगल था । जॉब तो वो होती है न, जो रैगुलर, नाइन टू फाइव हो ।”

“नानसेंस । जवाब दो ।”

“सवाल का पता लगे तो जवाब दूं न !”

“मैंने कहा था मेरी जॉब का क्या होगा ?”

“क्या होगा ! एक घंटे की छुट्टी ले लेना ।”

“ए...एक घंटे की छुट्टी ! अरे, शादी करनी है या आईब्रोज बनवानी हैं ?”

“ओके, हाफ डे की सही ।”

“लेकिन इतनी जल्दी शादी तो कोर्ट में भी नहीं होती ! पहले एक महीने का नोटिस देना पड़ता है ।”

“हम मंदिर में शादी करेंगे । गांधर्व विवाह । जो कि हमारी सदियों पुरानी परंपरा है । एक हार तुम मुझे पहनाओगी, एक मैं तुम्हें पहनाऊंगा । बस, हो गयी शादी ।”

“मजाक कर रहे हो !”

“मैं सीरियस हूं । तुमने शादी के अटू...ट बंधन में बंधने से इंकार किया या आनाकानी की तो मैं समझूंगा कि हम इतने करीब होते हुए भी हकीकतन अजनबी हैं । हैं ?”

“न - नहीं ।”
koushal
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Re: शिकारी

Post by koushal »

“गुड ! तो फिर कल सुबह ही हम पति पत्नी होंगे । फिर हनीमून होगा, एक्सटेंडिड हनीमून होगा, बच्चे होंगे...”

“ब...बच्चे...बच्चे होंगे ?”

“और क्या नहीं होंगे ? और क्या मैं ‘वो’ हूं ? या तुम ‘वो’ हो ?”

“वो तो ठीक है लेकिन बच्चे...”

“बारह से कम मुझे हरगिज कुबूल नहीं होंगे । सबके सब क्रिकेटर । मुल्क में एक सचिन है, हमारे घर में ग्यारह सचिन होंगे । जमा, अपना एम्पायर । इस वास्ते...”

“तुम...तुम पागल हो !”

“दीवाना माई डियर, दीवाना ! शैदाई ! पहले भी बोला । तुम्हारा ! फुल ! दीवाना कहके लोगों ने मुझे अक्सर बुलाया है...मालूम ?”

“वाट नानसेंस !”

“अगर पूछा किसी ने हाल ये किसने बनाया है, मैं तेरा नाम लूंगा, सुष्मिता !”

“सुष्मिता ! मेरा नाम सुष्मिता है !”

“मालूम ! मालूम ! वही तो बोला । सुष्मिता ! माई हनीपॉट...”

“तुम्हें नशा हो गया है । अरे, मेरा नाम अंजना है...”

“दो दो नाम ! वाह ! एक टिकट के दो मजे ! कभी अंजना, कभी सुष्मिता” - मैं तरन्नुम में बोला - “कभी सुष्मिता कभी अंजना, हाय अल्लाह मर जायें दिल वाले....”

“राज शर्मा...”

“यस, माई लव !”

“तुम्हारा दिमाग चल गया है ।”

“अरे ! कहां गया चल के ! साला कहीं इतनी दूर न निकल जाये कि शादी में पंगा पड़ जाये । क्योंकि मैंने दिल से शादी करनी है दिल से ।”

“अभी तो कह रहे थे मेरे से शादी करनी है ।”


“दिल से तुम्हारे से शादी करनी है ।”

“मैं...मैं जाती हूं...”

“जाती है तो जा” - मैं फिर तरन्नुम में बोला - “ओ जाने वाली जा । मेरे दिल से, धड़कन से जा सके तो जानूं...”

“...जब दिमाग ठिकाने आ जाये तो खबर करना ।”

“अच्छा ! तो ये बात है !”

“क्या बात है ?”

“अब आयी न असलियत सामने !”


“कौन सी असलियत ?”

“जो मैं तुम्हारे चेहरे पर से किताब की तरह पढ़ सकता हूं ।”

“क्या पड़ सकते हो ?”

“पढ़ चुका हूं ।”

“अरे, क्या ?”

“जो तुम इस घड़ी अपने आप से कह रही हो ।”

“ओ, माई गॉड । अरे क्या ? क्या ?”

“तुम अपने आप से कह रही हो, मैं क्या हूं और ये राज क्या है ! क्यों मैं इस जैसे ढक्कन के साथ अपना वक्त बर्बाद कर रही हूं !”

“मैं ! मैं कह रही हूं तुम्हें ढ़क्कन !”

“देख लो । अभी भी कह रही हो !”

“लेकिन...”

“माना कि तुम सुंदर हो, अति सुंदर हो, बढ़िया बनी हुई हो, सामने से कोहनी तक आती हो और मैं तुम्हारे मुकाबले में कहीं नहीं ठहरता - खासतौर से सामने से कोहनी तक...कहीं तक नहीं आता लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम मुझे ढ़क्कन समझो !”

“ओ गॉड ! यकीन नहीं आता । अरे, मैंने तो कभी भी...”

“खुद मुझे यकीन नहीं आता...”

“तुम्हें क्या यकीन नहीं आता ?”

“...कि हमारे बीच सब खत्म है ।”

“सब खत्म है ?”

“रोमांस ! कोर्टशिप ! शादी ! गृहस्थी ! बच्चे ! यकीन करने के लिये मैं तुम्हारी जुबानी सुनना चाहता था, अब वो भी सुन लिया ।”

“क्या ? सब खत्म ?”

“यकीन तो नहीं आता लेकिन...समझो । मेरे टूटे दिल की आवाज सुनो । जब दिल टूटता है तो बड़ी दर्दभरी आवाज निकलती है जो कभी कहती है ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना’ तो कभी कहती है, ‘ओ जाने वाले बालमवा, लौट के आ लौट के आ’ । खैर, जिंदगी ऐसे ही चलती है । यू विन सम, यू लूज सम । माई किस्मत इज सच दैट आई विन लैस एण्ड लूज मोर । लेकिन परवाह नहीं । अब जा मेरी एक्स...”

“एक्स ! अभी से ! अभी तो पूरा एक मिनट भी...”

“जा के अपनी पसंद का अपना घर संसार बसा, किसी नानढ़क्कन से दिल, जिगर, किडनी कलेजा, फेफड़े पैनक्रियास लगा । इंकी, पिंकी, पप्पू टीनू बना । फिर भी इस हकीर-फकीर - राज का खयाल आये तो कभी आना । अपने बच्चों को भी लाना ।” - मैं फिर तरन्नुम-मोड में पहुंचा - “अपने उन को भी लाना, चाय वाय पी के जाना, कभी हफ्ते महीने या साल भर में...”
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Re: शिकारी

Post by koushal »

“राज शर्मा ।” - वो उछल कर खड़ी हुई और दांत पीसती बोली ।

“यस, माई डियर !”

“फक यू ।”

“आई रेसीप्रोकेट दि फीलिंग्स, माई हनीपॉट ।”

आनन फानन वो कपड़े पहनने लगी ।

मिशन अकम्पलिश्ड - मैं मन ही मन बोला ।

तभी काल बैल बजी ।

वो सकपकाई ।

उसने सशंक भाव से पहले दरवाजे की तरफ और फिर मेरी तरफ देखा ।

टाइम से मैं बेखबर नहीं था लेकिन फिर भी अनायास मेरी निगाह वाल क्लॉक की ओर उठी ।

ग्यारह बजकर पांच मिनट ।

“कौन होगा ?” - वो बोली ।

मैंने अनभिज्ञता से कंधे उचकाये ।

“मैं नहीं चाहती किसी को यहां मेरी मौजूदगी की खबर लगे ।”

“किसको ? यहां कौन जानता है तुम्हें ?”

उसने जवाब न दिया ।

“सच पूछो तो मुझे भी कौन जानता है यहां ! खुद मैं यहां नया हूं ।”

“तो फिर ?”

“फिर क्या ?”

“कॉम्पलेक्स का ही कोई होगा ! शायद सिक्योरिटी स्टाफ !”

“उन्हें मेरी यहां मौजूदगी की खबर नहीं लगनी चाहिये ।”

“यू आर टाकिंग नानसेंस । सिक्योरिटी को पहले से खबर है । वर्ना यहां पहुंच ही न पायी होती ।”

“कोई और हुआ तो ?”

“तो बैडरूम में नहीं घुस आयेगा । यहीं टिकना ।”

“दरवाजा खोलना जरूरी क्यों है ? जो आया है, जवाब नहीं मिलेगा तो टल जायेगा ।”

“तुम बात का बतंगड़ बना रही हो । रात की इस घड़ी कोई कालबैल बजा रहा है तो नाहक नहीं बजा रहा होगा ! कोई खास ही बात होगी । यहीं टिको । देखता हूं ।”

अनिश्चित भाव से उसने सहमति में सिर हिलाया ।

मैंने अपने जिस्म को एक ड्रैसिंग गाउन से ढंका और बाहर जाकर दरवाजा खोला ।

चौखट पर मुझे एक अधेड़ महिला दिखाई दी । वो हुड वाली बरसाती ओढे थी जो कि पूरी तरह से भीगी हुई थी । जाहिर था कि बाहर बारिश हो रही थी - या हो के हटी थी - अपने अभिसार के दौर में जिसकी मुझे खबर नहीं लगी थी ।

“यस ?” - मैं बोला ।

“मैं भीतर आ सकती हूं ?” - वो कातर भाव से बोली ।

सहमति में सिर हिलाता मैं एक तरफ हटा ।

भीतर आकर उसने खुद ही अपने पीछे दरवाजा बंद किया और फिर सबसे पहले अपनी बरसाती उतारी । नीचे वो शलवार सूट और मैचिंग कार्डीगन पहने थी, उसका जिस्म कसा हुआ था, कद लम्बा था और उम्र में वो पैंतालीस के करीब की जान पड़ती थी । ज्यादा की भी हो सकती थी लेकिन रखरखाव बढ़िया हो, पैकिंग पालिश उम्दा हो, मुखर्जी की जुबान में ठीक से डेंटिड पेंटिंड हो तो क्या पता लगता था उम्र का ।

“आप राज शर्मा ही हैं न !” - वो बोली - “फेमस प्राइवेट डिटेक्टिव !”

“राज शर्मा हूं मैडम” - मैं बोला - “पीडी हूं । फेमस के बारे में सुना ही है कि हूं ।”

“मैं नाम से ही वाकिफ थी । नाम के पीछे किसी नौजवान की उम्मीद नहीं कर रही थी ।”

“तो अब क्या करेंगी ? नाउम्मीद हो के लौट जायेंगी ?”

“नहीं, नहीं । ऐसा कैसे हो सकता है !”

“आप ज्यादा मुतमईन होती अगरचे कि मैं कोई उम्रदराज शख्स होता ! जिसकी उम्र ही इस बात की गवाही दे रही होती कि उसे पीडी होने का बीस साल का तजुर्बा था, तीस साल का तजुर्बा था, चालीस साल का...”

“मिस्टर शर्मा, आई डिडंट मीन ऐनी ऑफेंस ।”

“आपकी तारीफ ?”

“मेरा नाम श्यामली तोशनीवाल है ।”

तोशनीवाल !

मेरे जेहन में कहीं घंटी खड़की । मैंने नये सिरे से उसका मुआयना किया तो मुझे उसके कानों में हीरे के टॉप्स और एक उंगली में हीरे की अंगूठी के दर्शन हुए । गले में वो जो हार सा पहने थी वो भी प्रेशस स्टोंस का था जिनकी पहचान मुझे नहीं थी अलबत्ता वो हीरे नहीं थे लेकिन हीरों जैसे कीमती बराबर थे ।

उसने बरसाती दरवाजे के करीब पड़ी एक टेबल पर डाल दी और हैंडबैग से एक रुमाल निकाल कर अपना मुंह माथा पोंछने लगी ।
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Re: शिकारी

Post by koushal »

“बेमौसम की बरसात है ।” - वो बोली ।

“फिर भी तैयारी से निकलीं !”

“तैयारी !”

मैंने मेज पर पड़ी बरसाती की तरफ इशारा किया ।

उसने मेरी निगाह का अनुसरण किया और फिर बड़े अनिश्चित भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“तशरीफ रखिये ।”

जो कि उसने एक सोफे पर रखी । मैं उसके सामने एक सोफाचेयर पर बैठ गया ।

“अब फरमाइये” - मैं बोला - “इतवार, तेरह जनवरी सन दो हजार तेरह की रात को ग्यारह बजकर ग्यारह मिनट पर मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूं ?”

उसने सकपका कर मेरी ओर देखा ।

“मिस्टर शर्मा” - फिर बोली - “मुझे अपनी बेवक्त की हाजिरी का पूरा अहसास है...”

“मैडम, मौत और क्लायंट का कोई भरोसा नहीं, कभी भी आ सकते हैं ।”

“...और मैं उसके लिये माफी चाहती हूं । आप यकीन जानिये मेरी समस्या गंभीर न होती तो मैं हरगिज आपको यूं डिस्टर्ब न करती ।”

“नैवर माइंड । आपको मेरे इस मुकाम की खबर थी ?”

“थी तो नहीं लेकिन निकाली किसी तरीके से ।” - वो एक क्षण ठिठकी, फिर बोली - “बाई दि वे, मैं शिव मंगल तोशनीवाल की पत्नी हूं ।”

लिहाजा उसकी बाबत जो मैंने सोचा था, वो ठीक निकला था ।

शिव मंगल तोशनीवाल बड़ा व्यवसायी था, धनकुबेर था, जो कि बाहर से कहीं से - सुना था कि नेपाल से - आकर दिल्ली में स्थापित हुआ था । बाहर से ही वो अपने साथ दौलत का अम्बार लाया था जिसको उसने दिल्ली में विभिन्न व्यवसायों मे लगाया था, खूब तरक्की की थी और दिल्ली के व्यवसायिक वर्ग में अपनी पुख्ता शिनाख्त बनाई थी । इकानमिक टाइम्स में अक्सर उसकी बाबत खबर होती थी, उसकी तसवीर छपती थी इसलिये मैं उसके नेम-फेम-अक्लेम और सूरत से वाकिफ था ।

“आपके हसबैंड” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “बड़े, रसूख वाले आदमी हैं, मैं उनके नाम से वाकिफ हूं । अब बताइये, आपकी आमद का क्या मैं ये मतलब लगाऊं कि इतने बड़े आदमी की बीवी को मेरी - एक मामूली पीडी की - प्रोफेशनल सर्विसिज की जरुरत है ?”

“है तो ऐसा ही” - वो बोली - “बशर्ते कि आपको मेरी मदद करना क़ुबूल हो ।”

“क्या मदद चाहती हैं ?”

“मदद का आश्वासन पाऊं तो बोलूं !”

“मैडम, आई एम ए प्रोफेशनल । आई वर्क फॉर ए फी । मुनासिब उजरत हासिल होगी, काम मेरे रेंज में होगा तो क्यों भला मैं उसे नहीं करूंगा ?”

“फीस की आप फिक्र न करें, मिस्टर शर्मा, मुंहमांगी हासिल होगी ।”

“फिर क्या बात है ! अब कहिये, क्या प्रोब्लम है आपकी ?”

“बताती हूं लेकिन पहले मैं आपको एक चिट्ठी दिखाना चाहती हूं ।”

“चिट्ठी !”

“जिसके जरिये आप मेरे कहे से बेहतर समझ पायेंगे कि क्यों मुझे आपकी मदद की जरूरत है ।”

“आई सी ।”

उसने अपने पर्स में से एक दो बार मोड़ कर तह किया हुआ कागज बरामद किया और मुझे सौंपा ।

मैंने कागज को खोल कर सीधा किया तो पाया उस पर दर्ज तहरीर कंप्यूटर से टंकित थी । मैंने उसे पढ़ना शुरू किया ।
लिखा था :
शिव मंगल तोशनीवाल,
यू सन आफ ए बिच !

बाइस साल पहले तूने मेरी दो बेशकीमती चीजों से मुझे महरूम किया था - मेरी बीवी से और हम दोनों की साझी मिल्कियत कोयला खदानों में मेरे हिस्से से । कोयला खदानों को ले कर जो बिजनेस डील, जो व्यवसायिक कौल करार हम दोनों में हुआ था, उसकी वजह से और तेरी कमीनीगी की वजह से मेरी जान जाते जाते बची थी । जान तो बनाने वाले ने भली की कि बच गयी लेकिन और कुछ न बचा । अब मैं तेरे से वो सब छीन लूंगा जो तेरे पास है - तेरी जान भी - और जिस पर तू इतराता है । ये मेरा तेरे से वादा है ।

बाइस साल पहले का वो दिन न मैं भूला हूं, न तू भूला होगा जबकि तू मुझे नेपाल के एक बर्फीले पर्वत शिखर कोंटी टॉप पर पिकनिक के बहाने तफरीह के बहाने एडवेंचर के बहाने ले गया था । मुझ मूर्ख का तेरे पर ऐसा ऐतबार था कि मैं न समझ सका कि असल में तेरे मन में क्या था । तेरे पर भरोसा बल्कि अकीदा, रखने वाला मैं उस वक्त की तेरी खुफिया, शातिर, बदकार, यारमार चाल को न समझ सका । समझना तो दूर, कोई मुझे उस बाबत खबरदार भी करता तो मुझे हरगिज यकीन न होता कि तू मेरे...मेरे खिलाफ - अपने दोस्त, अपने बिजनेस पार्टनर के खिलाफ कोई घिनौनी, जलील, बेगैरत चाल चल सकता था । जब सम्भलने का, खबरदार होने का मौका हाथ से निकल गया था तब - बहुत देर बाद - मेरी समझ में आया था कि क्यों तूने मुझे आगे चलने को बर्फीले पवर्त के शिखर पर पहले पहुंचने को कहा था । इसलिये कहा था ताकि तू चुपचाप मेरे पीछे पहुंचकर मुझे शिखर से धक्का दे पाता, मुझे खत्म कर पाता, यूं मेरी हस्ती मिटा पाता कि बाद में जान पड़ता कि मेरी मौत एक हादसा थी ।

एक्सीडेंट ! न कि डेलीब्रेट, कोल्डब्लडिड मर्डर !

कैसा अहमक था मैं कि तुम्हारी बातों में आ कर मैंने तुम्हारे साथ वो करार किया था जो कि मेरी आंखों पर दोस्ती की, दोस्त के साथ वफादारी की पट्टी न बंधी होती तो मुझे साफ दिखाई देता कि मेरी आइन्दा मौत की भूमिका था । हम दोनों में हुए उस करार पर - जो कहता था कि हम दोनों में से कोई एक मर जाता तो दूसरा अपने आप ही पूरे बिजनेस का मालिक बन जाता - तुम्हारा सारा जोर इसी वजह से था कि शुरू से ही तुम्हारा मकसद यारमारी था - यार को मार कर उसकी बिजनेस में बराबर की हिस्सेदारी को हड़पना था ।
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