जंगल में लाश

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rajan
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जंगल में लाश

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जंगल में लाश

गर्मियों की अँधेरी रात थी। घण्टों करवटें बदलने के बाद कोतवाली इंचार्ज इन्स्पेक्टर सुधीर की बस आँख लगी ही थी कि एक सब-इन्स्पेक्टर ने आ कर उसे जगा दिया।

“क्या है भई, क्या आफ़त आ गयी?” वह झल्लाता हुआ बोला।

“क्या बताऊँ साहब, अजीब मुसीबत में जान है। शायद कोई क़त्ल हो गया है।" सब-इन्स्पेक्टर ने कहा।

“शायद क़त्ल हो गया है...? क्या मतलब...?"

“एक आदमी धर्मपुर के जंगलों में एक लाश देख कर ख़बर देने आया है।"

___“इतनी रात गये धर्मपुर के जंगलों में वह आदमी क्या कर रहा था?" इन्स्पेक्टर सुधीर ने बिस्तर से उतरते हुए कहा।

“मैंने उससे कोई सवाल नहीं किया। सीधा यहाँ चला आया।” सब-इन्स्पेक्टर ने जवाब दिया।

दोनों तेज़ क़दमों से चलते हुए दफ़्तर जा पहुँचे। इन्स्पेक्टर सुधीर ने ख़बर लाने वाले अजनबी को घूर कर देखा। वह एक नौजवान था। उसके चेहरे पर घबराहट नज़र आ रही थी। टाई की गाँठ ढीली हो कर कॉलर के नीचे लटक आयी थी। बालों पर जमी हुई धूल से ज़ाहिर हो रहा था कि वह बहुत दूर का सफ़र करके आ रहा है। उसकी साँस अभी तक फूल रही थी।

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"क्यों भई...क्या बात है?" सुधीर ने तेज़ आवाज़ में पूछा।

__“मैं अभी-अभी...धर्मपुर के जंगल में एक औरत की लाश देख कर आ रहा हूँ।” उसने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।

"लेकिन आप इस वक़्त धर्मपुर के जंगल में क्या कर रहे थे?” सुधीर ने कहा।

“मैं दरअसल जलालपुर से वापस आ रहा था।"

“जलालपुर से...? जलालपुर यहाँ से लगभग बीस मील की दूरी पर है। आप किस सवारी पर आ रहे थे?"

“मोटर साइकिल पर...जब मैं जोज़फ़ रोड से पीटर रोड की तरफ़ मुड़ने लगा तो मैंने सड़क के किनारे एक औरत की लाश देखी। उसका ब्लाउज़ खून से तर था। उफ, मेरे ख़ुदा...कितना भयानक मंज़र था...मैं उसे ज़िन्दगी भर न भुला सकूँगा।"

“तो आप जलालपुर में रहते हैं?"

“जी नहीं...मैं यहीं इसी शहर में रहता हूँ। एक दोस्त से मिलने जलालपुर गया था।” ।

“तो इतनी रात गये वहाँ से वापसी की क्या ज़रूरत पड़ गयी थी?"

___ “सर, मैं यह क़त्ल खुद करके आपको ख़बर देने नहीं आया।" अजनबी ने झंझला कर कहा। “मैंने एक लाश देखी और एक शहरी होने की हैसियत से अपना फ़र्ज़ समझा कि पुलिस को इत्तला दे दूँ।"

“नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं...!'' सुधीर ने संजीदगी से कहा। “मैं भी अपना फ़र्ज़ ही अदा कर रहा हूँ...आप का क्या नाम है?"

“मुझे रणधीर सिंह कहते हैं।"

“आप क्या काम करते हैं?"

“उफ मेरे खुदा! मैंने यहाँ आ कर ग़लती की। अजनबी ने परेशान होते हुए कहा।

“अरे साहब, मैं आपके साथ ही चलूँगा।"

__“चलना तो पड़ेगा ही... खैर, अच्छा , आप बहुत ज़्यादा थोड़ा परेशान मालूम होते हैं, फिर सही...दरोगा जी ज़रा जल्दी से तीन कॉन्स्टेबलों को तैयार कर लीजिए और इस वक़्त ड्यूटी पर जो ड्राइवर हो, उसे भी बुलवा लीजिए।

थोड़ी देर बाद पुलिस की लॉरी पीटर रोड पर धर्मपुर की तरफ़ जा रही थी। रात बहुत अँधेरी थी। सन्नाटे में लॉरी की आवाज़ दूर तक सुनायी दे रही थी। लॉरी की हेड लाइटों की रोशनी दूर तक सड़क पर फैल रही थी। सड़क के मोड़ से लगभग दो फ़रलाँग की दूरी पर एक बड़ा-सा पेड़ सड़क पर गिरा हुआ नज़र आया।

“अरे यह क्या...?” अजनबी चौंक कर बोला।

लॉरी पेड़ के पास आकर रुक गयी।

“मैं आपसे क़सम खा कर कहता हूँ कि अभी आध घण्टा पहले जब मैं इधर से गुज़रा तो यह पेड़ यहाँ नहीं था।” अजनबी ने परेशान होते हुए कहा।

सब लोग लॉरी से उतर आये।
“आप भी कमाल करते हैं! आपकी बात पर किसे यक़ीन आयेगा! ज़ाहिर है, आज आँधी भी नहीं आयी। यह भी साफ़ है कि पेड़ काटा गया है और आधे घण्टे में इतने मोटे तने वाले पेड़ को काट डालना आसान काम नहीं।

“अब मैं आपसे क्या कहूँ।" अजनबी ने अपने सूखे होंटों पर ज़बान फेरते हुए कहा।

_ “खैर, यह बाद में सोचा जायेगा।" कोतवाली इंचार्ज तेज़ आवाज़ में बोला। “अब वह जगह यहाँ से कितनी दूर है?"
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“ज़्यादा-से-ज्यादा दो, ढाई फ़रलाँग...!" अजनबी ने जवाब दिया।
लॉरी वहीं छोड़ कर यह पार्टी टॉर्च की रोशनी में आगे बढ़ी। सुनसान सड़क पुलिस वालों के भारी-भरकम जूतों की आवाज़ से गूंज रही थी।

___“उफ मेरे खुदा...!'' अजनबी ने चलते-चलते रुक कर कहा।

“क्यों, क्या बात है?' कोतवाली इंचार्ज बोला।

“कहीं मैं पागल न हो जाऊँ।” अजनबी ने बेचैनी में अपनी नाक रगड़ते हुए कहा।

“ऐ मिस्टर! तुम्हारा मतलब क्या है?" कोतवाली इंचार्ज ने गरज कर कहा।

___“मैंने वह लाश यहीं देखी थी...मगर...मगर...!”

“मगर-मगर क्या कर रहे हो...यहाँ तो कुछ भी नहीं है।'

“यही तो हैरत है।"

“सरकार, यहाँ भूत-प्रेत भी ज़्यादा रहते हैं।" एक कॉन्स्टेबल ने मिनमिनाती हुई आवाज़ में कहा।

“बको मत!” कोतवाली इंचार्ज चीख़ कर बोला। वह गुस्से में तमतमा रहा था।

“मैं तो बड़ी मुश्किल में फँस गया।" अजनबी ने धीमी आवाज़ में कहा।

“अभी कहाँ...अब फँसेंगे आप मुश्किल में।" कोतवाली इंचार्ज ने कड़क आवाज़ में कहा। “ज़बर्दस्ती परेशान किया। क्या तुमने रुक कर क़रीब से लाश देखी थी?"

__“जी हाँ...उसके सीने से खून उछल रहा था।"

“अजीब लाश थी, कहीं ज़मीन पर खून का धब्बा तक दिखायी नहीं देता।" कोतवाली इंचार्ज ने झुक कर टॉर्च की रोशनी में ज़मीन को गौर से देखते हुए कहा।

“मैं क़सम खा कर...!"

“बस-बस...रहने दो। बेकार ही वक़्त बर्बाद कराया।" कोतवाली इंचार्ज ने उसकी बात काटते हुए कहा।

“मैं कहता हूँ सरकार, भूत...!”

“ठाँय...!'' अचानक फ़ायर की आवाज़ ने सब को बौखला कर रख दिया। कोतवाली इंचार्ज का हाथ पिस्तौल के केस ही पर था कि दूसरा फ़ायर हुआ। फिर तीसरा...चौथा...अब ऐसा मालूम हो रहा था जैसे बहुत-से आदमी एक साथ बंदूने चला रहे हों। कोतवाली इंचार्ज और सब-इन्स्पेक्टर ने अपने पिस्तौल निकाल कर पेड़ों की आड़ ले ली। लेकिन उन्हें जल्द ही वहाँ से भागना पड़ा, क्योंकि उनके पीछे से भी फ़ायर होने शुरू हो गये थे। तभी एक चीख़ सुनायी दी...फिर दूसरी और एक सिपाही लड़खड़ा कर गिर पड़ा। फिर उठ कर भागा। ये लोग छुपते-छुपाते लॉरी तक पहुँच पाये। जिस वक़्त ड्राइवर लॉरी बैक कर रहा था, क़रीब ही से दोबारा फ़ायर होने शुरू हो गये।

लॉरी तेज़ रफ़्तार से शहर की तरफ जा रही थी। फ़ायर अब तक सनायी दे रहे थे। एक सिपाही के बाजू पर गोली लगी थी। वह कराह रहा था।

“लेकिन...वह...वह कहाँ गया?" सब-इन्स्पेक्टर ने भर्रायी हुई आवाज़ में कहा।

“जहन्नुम में...!” कोतवाली इंचार्ज ने चीख़ते हुए कहा। मुझसे ज़्यादा बेवकूफ़ शायद दूसरा न मिले। आख़िर मैं अच्छी तरह इत्मीनान किये बगैर उसके साथ चला क्यों आया। कमबख़्त का पता भी तो मालूम न हो सका। हम लोगों की जान लेने की एक बेहतरीन साज़िश थी।"

“मगर साहब...वह किसी तरह भी झूठा नहीं मालूम होता था।” सब-इन्स्पेक्टर ने कहा।
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“बाईस साल से इस महकमे में झक नहीं मार रहा, दरोगा जी।” कोतवाली इंचार्ज ने कहा। “अभी आपका तजरुबा ही कितना है। मैं एक मील से मुजरिम की बू सूंघ लेता हूँ। मुझे शुरू से ही उस पर शक था। आख़िर वही हुआ जिसका डर था। मगर यह किसी बहुत बड़े गिरोह का काम मालूम होता है।"

“अरे, इसका तो मुझे ख़याल ही न आया था।” सब-इन्स्पेक्टर जल्दी से बोला। “हम लोग बाल-बाल बच गये।"

“अलबत्ता, बेचारा किरन सिंह बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया।" कोतवाली इंचार्ज ने कहा। “अब मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि “मैं सुप्रिन्टेण्डेंट साहब को अपनी इस बेवकूफ़ी का क्या जवाब दँगा।"

। थोड़ी देर बाद वह सब चुप हो गये। अलबत्ता, किरन सिंह की कराहें अब तक जारी थीं। ग़नीमत यह हुआ था कि गोली हड्डी को कोई नुक़सान पहुँचाये बगैर बाजू के गोश्त को भेदती हुई निकल गयी थी।

___"क्यों न हम लोग फिर वहीं चलें, इस तरह भाग निकलना तो ठीक नहीं।” सब-इन्स्पेक्टर ने कहा।

“पागल हो गये हो।' इंचार्ज बोला। "हमारे पास दो पिस्तौलों के अलावा और है ही क्या। उधर न जाने कितने हों। मेरा ख़याल है कि पन्द्रह-बीस से कम न होंगे।"

“अजीब बेवकूफ़ी हुई।'' सब-इन्स्पेक्टर धीरे से बोला।
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सड़क पर जूता
दूसरे दिन सुबह छै बजे धर्मपुरा का जंगल असलहों से लैस पुलिसवालों के जूतों की आवाज़ों से गूंज रहा था। आस-पास के देहातों से तक़रीबन तीन सौ आदमी शक में गिरफ़्तार किये गये, जिन पर कोतवाली में बेतहाशा लाठियाँ और जूते बरस रहे थे। इनमें से कई तो इतनी बुरी तरह पिटे थे कि बेहोश हो गये थे, लेकिन नतीजा कुछ न निकला...कोई सुराग़ न मिल सका।

आख़िर चार-पाँच घण्टों की लगातार उठा-पटक के बाद मामला जासूसी विभाग के सुपुर्द कर दिया गया।

राजरूप नगर केस के मशहर इन्स्पेक्टर फ़रीदी और सार्जेंट हमीद कोतवाली पहुँच चुके थे। सारे क़िस्से की जानकारी उन्हें पहले ही से थी, लेकिन उन्होंने कोतवाली इंचार्ज वगैरह के बयान दोबारा सुने और एक चक्कर धर्मपुरा के जंगलों का भी लगा आये। दिन भर की दौड़-धूप के बाद जब कोतवाली वापस आये तो कई चेहरे उन पर मुस्कुरा रहे थे। फ़रीदी तो इस तरह की बातों को हँस कर टाल देता था। लेकिन सार्जेंट हमीद ने नाक-भौं ज़रूर चढ़ा ली थी, लेकिन फिर जल्द ही किसी सोच में डूब गया। तभी सोचते-सोचते एकदम से उसकी आँखें चमक उठीं।

“इन्स्पेक्टर साहब...!” उसने फ़रीदी की तरफ़ देखते हुए कहा। "हम लोग भी कितने बुद्धू हैं।"

“क्या मतलब।” फ़रीदी ने उसे घूरते हुए कहा।

___“मतलब क्या? वही मिसाल है...बच्चा बग़ल में, ढिंढोरा शहर में। अरे...कहने का मतलब यह कि मुलज़िम का सुराग़ मिल गया।” हमीद ने चुटकी बजाते हुए कहा।

"क्या तुम्हें मुझ पर शक है।” फ़रीदी ने मुस्कुरा कर कहा।

“खैर, वह तो पुरानी चीज़ है। मेरी पीठ ठोकिए...कहिए, तो बताऊँ।"

___ “मुझे अफ़सोस है कि इस वक़्त ठोंकने की कोई चीज़ मेरे हाथ में नहीं। खैर, तुम बताओ।"

“मोटर साइकिल...मुलज़िम ने अपनी मोटर साइकिल रात यहीं छोड़ी थी न।” हमीद ने कहा।

“बहुत देर में पहुँचे...मुझे सुबह ही ख़याल आया था, लेकिन उसकी मोटर साइकिल ऐसी नहीं हो सकती जो उसका पता-ठिकाना बता दे।” फ़रीदी ने सिगार सुलगाते हुए कहा।

__ “फिर भी देख लेने में क्या बुराई है।” हमीद ने उठते हुए कहा।

दोनों कोतवाली इंचार्ज के साथ वहाँ पहुँचे, जहाँ रात मुलज़िम ने अपनी मोटर साइकिल । छोड़ी थी। मोटर साइकिल अभी तक वहीं खड़ी थी।

“देखो...मैं न कहता था।" फ़रीदी ने कहा। "नम्बर-प्लेट निकाल ली गयी है।"

“लेकिन कम्पनी का नम्बर तो ज़रूर होगा।" हमीद ने झुक कर देखते हुए कहा।

“ओह यह भी रेत दिया गया है।” फ़रीदी ने क़हक़हा लगाया।

हमीद भी खिसियाना हो कर हँसने लगा।

“हम लोग निरे घामड़ नहीं हैं...फ़रीदी साहब!” कोतवाली इंचार्ज ने हँस कर कहा। “पहले ही देख कर इत्मीनान कर चुके हैं।"

“लेकिन ठहरिए...!” फ़रीदी ने ज़मीन पर कुछ देखते हुए कहा। “आपने एक बात न देखी होगी।”

“क्या...?"

“यही कि कम्पनी का नम्बर यहीं कोतवाली में इसी जगह आज ही किसी वक़्त साफ़ किया गया है।"

“जी...!'' कोतवाली इंचार्ज ने हैरत से दीदा फाड़ते हुए कहा।

“जी हाँ...यह देखिए। क्या आप ज़मीन पर लोहे के ज़र्रे नहीं देख रहे हैं?

“उफ ओह...बड़ी ग़लती हुई।" कोतवाली इंचार्ज ने हाथ मलते हुए कहा।

“इन्हीं बारीकियों के लिए तो हम दोनों को तकलीफ़ दी जाती है।” सार्जेंट हमीद ने तन कर सीने पर हाथ मारते हुए कहा।

___ “लेकिन इससे क्या...मुलज़िम बहरहाल अभी तक हमारी पहुँच से दूर ही है।'' कोतवाली इंचार्ज ने झुंझला कर कहा।

“जी नहीं, बस यह समझिए कि अब वह हमारी जेब में रखा हुआ है।" हमीद ने मुस्कुरा कर कहा।

“खैर, देखा जायेगा। न घोड़ा दूर, न मैदान।" कोतवाली इंचार्ज ने जाने के लिए मुड़ते हुए कहा।

सार्जेंट हमीद सीटी बजाने लगा।

कोतवाली में बैठे फ़रीदी का दिमाग़ इस गुत्थी को सुलझाने में लगा था। आख़िरकार वह कोतवाली इंचार्ज से बोला।
“दरोगा जी...अब यह बात तो अच्छी तरह साफ़ हो गयी कि मुलज़िम या मुलज़िमों का निशाना आप ही थे।"

“क्यों...मैं ही क्यों था?” कोतवाल चौंक कर बोला।

“आपके बयान के मुताबिक़ रात को पाँच सब-इन्स्पेक्टर और चालीस सिपाही ड्यूटी पर थे। उनमें से आप किसी को भी चुन सकते थे। इसलिए उनमें से किसी एक को मार डालने का सवाल ही नहीं पैदा होता और ज़ाहिर है कि धर्मपुर कोतवाली ही के क्षेत्र में है, इसलिए क़त्ल या और किसी वारदात के सिलसिले में मौक़ा-ए-वारदात पर आप ही को पहँचना होता है।"

“ओह...इसका तो मुझे ख़याल ही नहीं आया था।" कोतवाली इंचार्ज ने बेचैनी से कहा।

“अब आप यह बताइए कि आपका शक किस पर है?"

“भला मैं कैसे बताऊँ...शहर का हर बदमाश मेरा दुश्मन हो सकता है।" कोतवाली इंचार्ज ने कुछ सोचते हुए कहा।

“बहरहाल, आप हमें कोई मदद नहीं दे सकते।” हमीद ने हँस कर कहा।

“हमीद साहब, मैं आपसे माफ़ी माँगता हूँ...!”

“हमीद, तुम चुप रहो।” इन्स्पेक्टर फ़रीदी ने हमीद को घूरते हुए कहा। "हाँ, दरोगा जी, क्या पीटर रोड के चौराहे के क़रीब कोई बस्ती भी है?"

“हाँ, एक छोटा-सा गाँव है, लक्ष्मनपुर। लेकिन उसकी दूरी यहाँ से लगभग चार फ़रलाँग होगी।'
rajan
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“मेरा ख़याल है कि मैं इस वक़्त वहाँ जा कर तफ़तीश करूँ।” इन्स्पेक्टर फ़रीदी ने कहा।

"लेकिन आपको वहाँ इस वक़्त सिर्फ औरतें और बच्चे मिलेंगे। वहाँ के सारे मर्द तो यहीं हवालात में हैं।"

"तब तो और भी अच्छा है।" हमीद ने अपने निचले होंट पर ज़बान फेरते हुए कहा। फ़रीदी ने उसे फिर घूर कर देखा और वह एक़दम संजीदा हो गया। लेकिन यह संजीदगी इतनी मज़ाक़िया थी कि झल्लाया हुआ कोतवाली इंचार्ज भी मुस्कुराये बगैर न रह सका। हमीद की बेवक़्त की बेतुकी हरकतें फ़रीदी को अकसर बुरी लग जाती थीं। उसकी इसी आदत के चलते फ़रीदी अकसर कहा करता था कि वह ज़िन्दगी भर एक अच्छा जासूस नहीं बन सकता।

फ़रीदी को उसकी उस वक़्त की बेतुकी बातों पर सख़्त गुस्सा आ रहा था। लेकिन थोड़ी देर बाद उसका ज़ेहन फिर अपने काम में लग गया।

लक्ष्मनपुर की तरफ़ रवाना होते वक़्त फ़रीदी ने उस इन्स्पेक्टर को भी साथ ले लिया जो रात वाले हादसे में कोतवाली इंचार्ज के साथ था। धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ता ही जा रहा था। इन्स्पेक्टर फ़रीदी की कार सड़क छोड़ कच्चे रास्ते पर चली जा रही थी।

“इन्स्पेक्टर फ़रीदी साहब! एक बात मेरी समझ में नहीं आती।” सब-इन्स्पेक्टर बोला। "ख़ुद आप भी होते तो उसकी हालत देखते हुए उसके बयान की सच्चाई में शक न करते।"

“यह सब कुछ ठीक है।” फ़रीदी ने बुझा हआ सिगार सुलगाते हए कहा। "लेकिन मैं उसका सही पता-ठिकाना जाने बगैर हरगिज़ उसके साथ न जाता। हैरत तो इस बात पर है कि सुधीर साहब ने रवानगी लिखने की भी ज़हमत गवारा न की।"

“नहीं साहब...रवानगी तो लिखी गयी थी।" सब-इन्स्पेक्टर ने जल्दी से कहा।

“दरोगा जी, मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं। क्या मैं इतना भी नहीं समझ सकता कि रवानगी हादसे के बाद लिखी गयी है।” फ़रीदी ने बुरा-सा मुँह बना कर कहा।

“खैर, यह कोई नयी बात नहीं। आप ही नहीं...आपका विभाग यूँ भी हम लोगों के लिए कोई अच्छी राय नहीं रखता, लेकिन यह आप किस तरह कह सकते हैं कि रवानगी हादसे के बाद लिखी गयी है और इसका क्या सुबूत है कि रोज़नामचे में इस नम्बर का कोई कमरा है ही नहीं। और सरताज होटल का एक-एक चप्पा पुलिस का देखा हुआ है। उस जैसे बदनाम होटल का नक्शा तो मेरे ख़याल से मामूली-से-मामूली कॉन्स्टेबल के ज़ेहन में भी होगा क्योंकि पुलिस कई बार उस पर छापा मार चुकी है।"

“असली वाक़या मुझसे सुनिए। आप लोग बगैर पूछताछ किये, मुलज़िम के साथ चल पड़े थे। बाद में सुधीर साहब को इस ग़लती का एहसास हुआ। वापसी पर जब वे रवानगी लिखने बैठे तो घबराहट में कमरे का नम्बर लिख गये। मैंने केस हाथ में लेने के बाद सबसे पहले रवानगी ही देखी थी। उस वक़्त सुधीर साहब भी मौजूद थे। शायद उसी वक़्त उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हुआ। उसके बाद अभी थोड़ी देर पहले मुलज़िम के हुलिये के लिए मुझे दोबारा रवानगी देखनी पड़ी। आपको यह सुन कर हैरत होगी कि कमरे का पहला नम्बर ब्लेड से खुरच कर उसकी जगह दसरा नम्बर लिख दिया गया था। जिसकी स्याही काग़ज़ खुरदरा हो जाने की वजह से फैल गयी थी।” फ़रीदी ख़ामोश हो गया और हमीद हँसने लगा।

“साहब, यह बात मेरी समझ में तो आयी नहीं। वाक़ई आप लोग हम लोगों के बारे में बहुत बुरे ख़याल रखते हैं।”

सब-इन्स्पेक्टर ने झेंप मिटाने की कोशिश करते हुए कहा।
___हम लोग आप लोगों के बारे में बुरे ख़याल रखने पर मजबूर हैं। आख़िर कोई हद भी है।

कोतवाली में रखी हई मोटर साइकिल का नम्बर कोई रेत कर चला जाये और आप लोगों को ख़बर भी न हो।"

“वाक़ई इस पर तो ज़रूर हैरत है।" सब-इन्स्पेक्टर ने कहा।

__“मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोतवाली का कोई फ़र्द सुधीर साहब की जान का दुश्मन है या फिर उनके दुश्मनों से मिला है। कोई बाहर का आदमी इतनी हिम्मत नहीं कर सकता।” फ़रीदी ने कहा।

“आपका ख़याल ठीक है, लेकिन वह कौन हो सकता है?"

“यही तो देखना है।"

कार लक्ष्मनपुर में दाख़िल चुकी थी। वहाँ तक़रीबन दो घण्टे तक छान-बीन करने के बाद भी कोई सुराग़ न मिल सका। लेकिन इतना ज़रूर मालूम हुआ कि वहाँ के लोगों ने फ़ायरों की आवाजें सुनी थीं। लेकिन यह उनके लिए कोई नयी बात न थी, क्योंकि वहाँ आये दिन शिकारियों की बन्दूक़े चला ही करती थीं।

वापसी में सब-इन्स्पेक्टर ने फ़रीदी से कहा, "इन्स्पेक्टर साहब, क्या बताऊँ...वाक़ई हम लोगों ने सख़्त ग़लती की कि मुलज़िम का पता मालूम किये बगैर उसके साथ चले गये और यह भी सही है कि रवानगी हादसे से बाद लिखी गयी थी। लेकिन मुझे उम्मीद है कि आप लोग यह बात अपने ही तक रखेंगे।"

“मगर यह कैसे मुमकिन है।'' हमीद जल्दी से बोला।

फ़रीदी ख़ामोश था। उसकी निगाहें बाहर अँधेरे में भटक रही थीं। उँगलियों में दबा हुआ सिगार बुझ चुका था। दिन भर की दौड़-धूप के बावजूद कोई ख़ास नतीजा हाथ न लगा था। यह शायद पहला मौक़ा था कि तफ़तीश का एक दिन इस तरह बेकार हो रहा था।

“अगर मैंने इसकी कोई ख़ास ज़रूरत न समझी तो उसे पर्दे ही में रतूंगा।” फ़रीदी ने धीरे से कहा और सिगार सुलगाने लगा।

“शुक्रिया...!'' सब-इन्स्पेक्टर ने इत्मीनान की साँस ली।

फिर ख़ामोशी छा गयी।

कार की तेज़ रोशनी अँधेरे का सीना चीरती हुई तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। अचानक सड़क के बायें किनारे की झाड़ियों से तीन-चार गीदड़ निकल कर सड़क पार करते हुए दायें किनारे की झाड़ियों में घुस गये। इनमें से एक मुँह में दबी हुई कोई चीज़ सड़क पर गिर पड़ी। कार तेज़ी में उसे रौंदती हुई आगे निकली जा रही थी कि तभी फ़रीदी चीख़ा। "हमीद...रोको...गाड़ी रोको।"

कार एक झटके से रुक गयी।

“क्या बात है?” इन्स्पेक्टर हैरान होते हुए बोला।
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“आइए...आइए! हमीद, ज़रा मुझे टॉर्च देना।” फ़रीदी ने कार से उतरते हुए कहा। टॉर्च की रोशनी सड़क पर पड़े हुए जूते के चारों तरफ़ घेरा बना रही थी।

फ़रीदी ने जूते को उठा कर टॉर्च की रोशनी में देखना शुरू किया।

“जूता तो नया मालूम होता है, लेकिन यह यहाँ कैसे आया?” हमीद ने कहा।


“यह इन्हीं गीदड़ों में से एक के मुँह में दबा हुआ था।” फ़रीदी जूते पर नज़रें जमाये धीरे से बोला। टॉर्च की रोशनी में झाड़ियों से उलझता हुआ वह आगे बढ़ रहा था। हमीद और सब-इन्स्पेक्टर भी उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। उन्हें उसके इस रवैये पर सख़्त हैरत थी, लेकिन वे ख़ामोश थे।

अचानक फ़रीदी रुक गया। झाड़ियाँ हटा कर वह दूसरी तरफ़ कुछ देख रहा था। सब-इन्स्पेक्टर और हमीद भी रुक गये। थोड़ी देर बाद फ़रीदी मुड़ कर बोला। “दरोगा जी, आप भूतों पर यक़ीन रखते हैं या नहीं?"

___“मैं आपका मतलब नहीं समझा।" सब-इन्स्पेक्टर ने कहा। लेकिन न जाने क्यों वह काँपने लगा।
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“मतलब यह कि अगर आप इस वक़्त इस जंगल में किसी जगह एक आदमी की टाँग ज़मीन के अन्दर से निकली हुई देख लें तो आपका क्या हाल होगा?”
rajan
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“मेरे ख़याल से इनकी रूह इनका जिस्म छोड़ कर निकल जायेगी।" हमीद हँस कर बोला।

“अच्छा , तो पहले तुम ही आओ...!'' फ़रीदी ने संजीदगी से कहा।

हमीद आगे बढ़ा। लेकिन दूसरे ही पल उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने उसे पीछे धकेल दिया हो। वह बुरी तरह कॉप रहा था।

“ज़ज...ज़रूर...भभू...त...!” हमीद हकलाने लगा।

“बस, निकल गयी सारी शरारत...!” फ़रीदी ने हँस कर कहा। “आइए दरोगा जी, आप भी देखिए।"

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“जी...जी...मैं...!” सब-इन्स्पेक्टर हमीद की हालत देख कर आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका।

"भई, कमाल कर दिया आप लोगों ने। आइए मेरे साथ।” कहते हुए फ़रीदी झाड़ियों में घुस गया। हमीद और सब-इन्स्पेक्टर को भी साथ देना ही पड़ा। एक जगह थोड़ी खुदी हुई ज़मीन से एक इन्सानी पैर बाहर निकला हुआ था। पतलून का पाँयचा कई जगह से फटा हुआ था और नंगे पाँव में लम्बी-लम्बी ख़राशें थीं।

“क्या समझे।'' फ़रीदी अपने दोनों डरे हुए साथियों की तरफ़ मुड़ कर बोला।

दोनों ख़ामोशी से उसका मुँह ताक रहे थे।

“यह जूता उसी पैर का है। गीदड़ों ने यहाँ की ज़मीन खोदी है। वे लाश की एक टाँग निकाल पाये थे कि मोटर के शोर की वजह से उन्हें भागना पड़ा। शायद वे उसकी टाँग खींच कर बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे। उसी जेद्दो-जेहद में उसका जूता उतर गया और एक गीदड़ ले भागा।” फ़रीदी बोला। फिर उसने आगे कहा, “अरे भई...यूँ खड़े मेरी सूरत क्या देख रहे हो।"

“जो बताइए, वह किया जाये।" सब-इन्स्पेक्टर अपने सूखे होंटों पर ज़बान फेरते हुए बोला।

“आओ, मिट्टी हटा कर इसे निकालें।" फ़रीदी ने बैठते हुए कहा। "हमीद, तुम टॉर्च दिखाओ।"

फ़रीदी और सब-इन्स्पेक्टर ने मिट्टी हटानी शुरू की। एक घण्टे की मेहनत के बाद वे लाश को निकालने में कामयाब हो गये।

“अरे...!'' सब-इन्स्पेक्टर चौंक कर पीछे हट गया।

“क्या बात है?" फ़रीदी ने पूछा।

“यह वही है, ख़ुदा की क़सम वही है।" सब-इन्स्पेक्टर ज़ोर से चीख़ उठा। “वही जो हमें कल रात यहाँ लाया था।"

“बहरहाल...!” फ़रीदी ने इत्मीनान की साँस ले कर कहा। "कभी-कभी मेरे हवाई क़िले भी सच्चे हो जाते हैं। मुझे शुरू ही से इसकी उम्मीद थी।"

"बड़ी अजीब घटना है। मेरी तो अक़्ल चक्कर खा रही है।'' सब-इन्स्पेक्टर परेशानी की सूरत में बोला। लगभग आधे घण्टे तक तीनों वहीं खड़े लाश के बारे में बात करते रहे।

“खैर, अब यहाँ इस तरह खड़े रहना ठीक नहीं है। आइए उसे उठा कर कार तक ले चलें।" फ़रीदी ने सिगार एक तरफ़ फेंकते हुए कहा।
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4."
शक का घेरा

इस नये खुलासे पर दूसरे दिन सारे शहर में हलचल मच गयी। अब यह मामला काफ़ी पेचीदा हो गया था। वह शख़्स जिसे लोग मुजरिम समझ रहे थे, खुद किसी का शिकार साबित हुआ।

लाश अभी तक कोतवाली ही में थी। फ़रीदी और कुछ दूसरे जासूस लाश का मुआयना कर रहे थे। मरने वाला एक खूबसूरत नौजवान था। लेकिन उसके पास से ऐसी कोई चीज़ बरामद न हुई जिससे उसकी शिनाख्त की जा सके। मोटर साइकिल का लाइसेंस नम्बर और कम्पनी का नम्बर...दोनों पहले ही ग़ायब हो चुके थे। फ़रीदी उलझन में पड़ गया था।

“क्यों भई हमीद, क्या ख़याल है।” फ़रीदी ने सार्जेंट हमीद से कहा।

___“अभी तक तो ख़याल का ख़याल भी नदारद है।" हमीद ने कहा। "लेकिन यह आप किस तरह समझे कि यह आदमी मुजरिमों का साथी नहीं था?"

"तुम्हारे इस सवाल से ज़ाहिर होता है कि तुम्हारा ज़ेहन किसी ख़ास लाइन पर काम कर रहा है।” फ़रीदी ने कहा।

“क्या यह नहीं हो सकता कि कोतवाली इंचार्ज के बच निकलने पर मुजरिमों ने अपने साथी को इसलिए मौत के घाट उतार दिया हो कि कहीं वह पुलिस के हत्थे चढ़ कर सारा राज़ न बता दे।” हमीद ने सिर खुजाते हुए कहा।

___“यह तो कोई बात न हुई।” फ़रीदी बोला। “अँधेरे में सही तौर पर भी गोली लग जाने का इमकान है। हाँ, यह भी हो सकता है, लेकिन यह क्यों मान लिया जाये कि यह आदमी मुजरिमों का साथी ही था। सिर्फ इसलिए कि ऐसी सूरत में उसे दफ़्न करने की ज़रूरत नहीं थी। अगर उन्हें इस बात का शक होता कि वे उसकी वजह से पहचान लिये जायेंगे तो वे उसे कभी कोतवाली न भेजते और अगर उन्हें इसका अन्देशा नहीं था तो फिर लाश को दफ़्न करने की वजह समझ में नहीं आ रही।" फिर फ़रीदी हमीद को समझाते हुए बोला, “देखो, किसी लाश को दफ़्न करना आसान काम नहीं। लाश दफ़्न करने के लिए कम-से-कम तीन घण्टे तो चाहिएँ। अगर वह उनका साथी था तो इसका मतलब यह हुआ कि वह ख़ुद भी अपनी जान देना चाहते थे। या बिलकुल ही बेवकूफ़ थे, क्योंकि उन्हें इसका भी ख़याल न आया कि इतनी देर में अगर पुलिस वाले क़रीब के किसी गाँव से कुछ आदमी ले कर वापस आ गये तो क्या होगा। लाश दफ़्न कर देना उनके लिए यक़ीनन बचाव की सूरत रखता था। तभी उन्होंने इतना बड़ा ख़तरा मोल लिया। जैसा कि तुम्हारा ख़याल है कि यह हरकत किसी बहुत बड़े गिरोह की है, तो यह अच्छी तरह समझ लो कि ऐसा गिरोह अपने किसी पुराने या आसानी से पहचान लिये जाने वाले आदमी को ऐसे कामों के लिए नहीं चुनता। इस के लिए वह हमेशा किसी नये आदमी को फाँसता है, ताकि अगर वह पकड़ लिया जाये तो किसी क़िस्म का कोई राज़ ज़ाहिर न हो सके।"

___ "चलिए, मैंने मान लिया।" हमीद ने कहा।
"लेकिन अब यह सवाल पैदा होता है कि अगर मुजरिमों को ख़ास तौर से उसी आदमी को क़त्ल करना था तो आख़िर इतना हंगामा करने की क्या ज़रूरत थी। इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने पुलिस को बाकायदा चैलेंज करके एक आदमी को क़त्ल किया। इस तरह तो उन्होंने अपने आप एक मसीबत मोल ले ली। अगर उसे मारना ही था तो यूं ही मार कर दफ़्न कर देते।

__ “तुम्हारी अक़्लमन्दी का क़ायल हूँ।'' फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला। “क्या यह नहीं हो सकता कि इस तरह उन्होंने पुलिस को रास्ते पर लगाने की कोशिश की हो। मान लो कि मैं तुम्हारा क़त्ल करना चाहता हूँ। अगर मैंने तुम्हें क़त्ल करके दफ़्न कर भी दिया तो तुम्हारे गुम हो जाने के बाद लोग तुमको ढूँढेंगे और अगर उनको मुझ पर थोड़ा भी शक होगा कि मैं तुम्हें क़त्ल कर सकता हूँ तो यही चीज़ मेरे लिए मुसीबत बन जायेगी।

लेकिन अगर मैं थोड़ी होशियारी से तुमको ख़त्म करूँ तो उसके लिए मुझे तुम्हारा खुले आम क़त्ल करना होगा। अब इसका तरीक़ा सुनो। मान लो तुम दो बजे रात को धर्मपुर के जंगलों से गुजर रहे हो और मुझे मुर्दा समझ कर यक़ीनन पुलिस को इसकी ख़बर देने जाओगे और यह भी समझ रखो कि तुम्हारी क़ब्र भी मैं पहले ही तैयार कर रखंगा। जैसे ही तुम पुलिस को साथ ले कर आओगे, तुम लोगों पर गोलियों की बौछार शुरू हो जायेगी और दूसरों को बचाते हुए सिर्फ तुम निशाना बना दिये जाओगे। गोलियों की अन्धा-धुन्ध बौछार से घबरा कर दूसरे लोग भाग खड़े होंगे। इसके बाद मैं तुम्हारी लाश पहले से खुदे हुए गड्ढे में दफ़्न कर दूँगा। वापसी में जब पुलिस वाले तुम्हें साथ न पायेंगे तो तुम्हारे बारे में उनका शक यक़ीन में तब्दील हो जायेगा और वे तुम्हें मुजरिम समझ कर तुम्हारी तलाश शुरू कर देंगे। इस तरह एक तरफ़ तो मैं तुम्हें क़त्ल भी कर ट्रॅगा और तुम्हें ही मुजरिम भी बनवा दूँगा और ख़ुद आराम से मजे करूँगा। क्या समझे...! और फिर मैं तुम्हारी मोटर साइकिल के नम्बर भी ग़ायब कर दूँगा। वह भी बीच कोतवाली से...लेकिन अफ़सोस सद अफ़सोस कि मैं इन कमबख़्त गीदड़ों का कुछ न बिगाड़ सकूँगा और आख़िरकार उन्हीं की बदौलत मेरी गिरफ़्तारी भी हो जायेगी।"

___“मगर साहब! न जाने क्यों मेरा दिल कह रहा है कि यह शख़्स मुजरिमों का साथी है।" हमीद ने कहा।

“भई, यह है जासूसी का मामला...इश्क़ का मसला तो है नहीं कि दिल की आवाज़ पर काम किया जाये। यहाँ तो सिर्फ दिमाग़ की बातें ही मानी जाती हैं।' फ़रीदी ने बुझे हुए सिगार को सुलगाते हुए कहा।

“खैर, चलिए! अगर मैं इसे मान भी लूँ तो पेड़ वाला मामला समझ में नहीं आता। आधे घण्टे में इतने मोटे तने वाले पेड़ को काट गिराना नामुमकिन है।"
rajan
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Re: जंगल में लाश

Post by rajan »

_ “तो मैं कब कहता हूँ कि यह मुमकिन है। हो सकता है, पेड़ के काटने का काम सुबह ही से शुरू कर दिया गया हो और उसका उतना हिस्सा काट कर छोड़ दिया गया हो कि बाक़ी का हिस्सा थोड़ी देर की मेहनत से काट कर पेड़ गिराया जा सके। तुमने शायद गौर नहीं किया...उसी लाइन के कई और पेड़ भी काटे गये हैं। शायद यह काम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ़ से हो रहा है। हालाँकि मुझे इसमें शक है। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अलावा कोई और इन पेड़ों को क़ानूनन कटवा भी नहीं सकता और यह भी नहीं हो सकता कि कोई सरकारी दफ़्तर अपनी ज़िम्मेदारी पर इतने बड़े पेड़ को ऐसी ख़तरनाक हालत में छोड़ जाये जो आधे घण्टे की मेहनत से गिराया जा सके। क्योंकि इतना भारी-भरकम पेड़ ऐसी हालत में तेज़ हवा का एक झोंका भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।"

“वाक़ई मानता हूँ।" हमीद ने हैरत से फ़रीदी को देखते हुए कहा। “वल्लाह आपको तो स्कॉटलैण्ड यार्ड में होना चाहिए था। यहाँ आपकी कोई क़द्र नहीं। अब इसी को देख लीजिए कि आप आज तक चीफ़ इन्स्पेक्टर न हो सके।"

“तो मैं चीफ़ इन्स्पेक्टर होना कब चाहता हूँ।” फ़रीदी ने मुस्कुरा कर कहा। “चीफ़ इन्स्पेक्टर होने के बाद मेरी हैसियत एक कलर्क की-सी हो जायेगी और यह तो तुम जानते ही हो कि मैं इस लाइन में पैसा पैदा करने नहीं आया और न मझे ओहदों ही का लालच है। मेरे पास इतना पैसा मौजूद है कि बेकार रह कर भी शहज़ादों की-सी ज़िन्दगी गुज़ार सकता हूँ। अगर हिन्दुस्तान में प्राइवेट जासूसों के लिए क़ानूनन कोई जगह होती तो मझे इतना सरदर्द मोल लेने की कोई ज़रूरत न थी।"

“आप कहेंगे मैं चापलूसी कर रहा हूँ।" हमीद ने कहा, "लेकिन मैं कहे बगैर नहीं रह सकता कि आप जैसा आदमी आज तक मेरी नज़रों से नहीं गुज़रा। कभी-कभी तो मैं यह सोचने लगता हूँ कि शायद आप लोहे के बने हैं।"

“और बहुत-से लोग मुझे लोहे का चना भी समझते हैं।” फ़रीदी ने हँस कर कहा।

“लेकिन यह आज तक मेरी समझ में न आया कि आख़िर आप औरतों से क्यों दूर भागते हैं। शादी क्यों नहीं करते...”

“फिर वही औरत...!'' फ़रीदी ने हमीद को घूरते हुए कहा। “आख़िर तुम्हारे सिर पर औरत क्यों सवार है। कहीं से बात शुरू हो, तुम्हारी तान हमेशा औरत ही पर टूटती है। यह क्या बेवकूफ़ी है।"

“आप इसे बेवकूफ़ी कहते हैं।" हमीद ने संजीदगी से कहा।

“अच्छा, बको मत...अभी बहुत काम करना है। चलो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के दफ़्तर चलें।"

डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के दफ़्तर में इन दोनों की आमद से भूचाल-सा आ गया। मामूली-से चपरासी से ले कर चेयरमैन तक ख़ुद को चोर महसूस करने लगे। लोकल सेल्फ़ गवर्नमेंट के किसी भी डिपार्टमेंट के दफ्तर में किसी जासूस के अचानक आ जाना वहाँ के पूरे स्टाफ़ के लिए झटके से कम नहीं होता। उनकी सारी पिछली धाँधलेबाज़ियाँ उनकी आँखों के सामने नाचने लगती हैं और हर शख्स को लगता है कि आज वह पकड़ लिया जायेगा। लेकिन यहाँ फ़रीदी अपने किसी दूसरे काम से आया था। दफ़्तर में जब यह मालूम हुआ कि वह उन मज़दूरों से मिलना चाहता है जो धर्मपुर के जंगलों में पेड़ काट रहे थे तो उनकी जान-में-जान आयी। धर्मपुर के जंगलों का हादसा काफ़ी मशहूर हो चुका था। इसलिए वे यही समझे कि ये लोग थोड़ी छानबीन के सिलसिले में आये हैं। वहाँ के मज़दूरों में से सिर्फ दो उस वक़्त मौजूद थे। फ़रीदी उन्हें अलग ले गया।

“तुम लोगों ने एक ख़तरनाक ग़लती की है।" फ़रीदी ने धीरे से कहा।

“दोनों के चेहरे फ़क हो गये और वे एक-दूसरे की तरफ़ अजीब तरह से देखने लगे।"

__“तुमने वह पेड़ सड़क की तरफ़ क्यों गिराया था...?"
"

“साहब! सड़क की तरफ़ तो हम लोगों ने कोई पेड़ नहीं गिराया।" उन में से एक बोला।

“याद करो वह पीपल का पेड़ जो चौराहे से कुछ दूर हट कर था।"

“नहीं साहब! हम ऐसी ग़लती नहीं कर सकते।"

“खैर, अगर तुमने गिराया नहीं था तो उसे ऐसी हालत में छोड़ दिया था कि पेड़ तेज़ हवा चलने पर अपने आप गिर जाये।"

“नहीं तो...मगर साहब।"

“साफ़-साफ़ बताओ।” फ़रीदी तेज़ आवाज़ में बोला।

___ “मुझसे सुनिए साहब...!” दूसरा बोला। “अब तो ग़लती हो ही गयी है और सज़ा भुगतनी ही होगी।"

“हाँ-हाँ, डरो नहीं...हम ग़रीबों का ख़ास तौर पर ख़याल रखते हैं। मगर सच्चाई शर्त है।” फ़रीदी उसका कन्धा थपथपाते हुए बोला।

“ख़ुदा आपको ख़ुश रखे...हम लोग बिलकुल बेक़सूर हैं। हमारी ग़लती बस...!"

"हाँ-हाँ, कहो।”


“साहब, हुआ यह कि हम चार आदमी उस पेड़ को काट रहे थे। शाम हो गयी थी और पेड़ इतना कट गया था कि उसकी डालों से रस्सी फँसा कर उसे आसानी से दूसरी तरफ़ गिराया जा सकता था। हम लोग सुस्ताने लगे थे और इरादा था कि अब उसे दूसरी तरफ़ गिरा दें कि अचानक किसी के चीख़ने की आवाज़ आयी। हम लोग चौंक पड़े। एक आदमी हमें अपनी तरफ़ दौड़ता हुआ दिखायी दिया। वह “हाय मार डाला...हाय लूट लिया" कहता हुआ हमारे क़रीब गिर पड़ा। हम लोगों के पूछने पर उसने बताया कि वह ज़िलेदार है, गाँव से रुपये वसूल करके ला रहा था कि अचानक दो आदमियों ने उसे मार-पीट कर रुपये छीन लिये। उसके बयान के मुताबिक़ हादसा क़रीब ही हुआ था, इसलिए हम चारों शोर मचाते हुए उसके बताये हुए रास्ते पर दौड़ने लगे। वह भी हमारे साथ था। एक जगह वह रुक गया और एक झाड़ी से एक थैली उठा कर हमें दिखायी और कहा कि इसी थैली में रुपये हैं। शायद घबराहट में यह उन बदमाशों के हाथ से गिर गयी। उसने वह थैली ज़मीन पर उलट दी और बैठ कर रुपये गिनने लगा। वाक़ई उस थैली में हज़ारो रुपये थे। उसने हम लोगों से कहा कि हम उसके साथ शहर चलें, क्योंकि वह पुलिस में रिपोर्ट करना चाहता था और उसे यह डर था कि कहीं राह में वे बदमाश फिर न मिल जायें। हम लोगों ने इनकार किया, लेकिन उसने हमें हज़ार रुपये देने का वादा करके राज़ी कर लिया। हम लौट आये और कुल्हाड़े वगैरह सँभाल कर शहर की तरफ़ चल पड़े। हज़ार रुपयों के लालच ने हमें यह भी न सोचने दिया कि पेड़ को ख़तरनाक हालत में छोड़ कर जा रहे हैं। शहर पहँच कर उसने कहा कि अब पलिस में रिपोर्ट करना बेकार ही है, क्योंकि रुपये तो मिल गये हैं। फिर वह हमें एक शराबख़ाने में ले गया। हम लोग कभी-कभी देसी शराब पी लेते हैं, वहाँ अंग्रेज़ी शराब देख कर हमारे मुँह में पानी भर आया। हम में से एक ऐसा भी था जो शराब नहीं पीता था, लेकिन और दूसरी खाने-पीने की अच्छी-अच्छी चीजें देख कर वह भी तैयार हो गया। हमें कुछ अच्छी तरह याद नहीं कि हमने कितनी पी। बहरहाल, जब हमें होश आया तो हमने ख़ुद को एक वीरान क़ब्रिस्तान में पाया। शायद उस वक़्त रात के तीन बज रहे होंगे। यह है सरकार हमारी राम कहानी। अब आप जो सज़ा चाहें दें।"

___“बहरहाल...!” फ़रीदी लम्बी साँस ले कर बोला। “मैं कोशिश तो करूँगा कि तुम लोगों पर कोई आँच न आने पाये। अच्छा, यह तो बताओ कि तुमने उस ज़िलेदार को उससे पहले भी कभी देखा था।"

“जी नहीं...हमने पहले उसे कभी नहीं देखा था।"
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“अगर तुम उसे देखो तो पहचान लोगे।"

“अच्छी तरह सरकार...अच्छी तरह।'' दोनों एक साथ बोले।

“अच्छा उसका हुलिया तो बताओ।"
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