Thriller इंसाफ

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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

मैं सैनिक फार्म्स और आगे वहां की शापिंग माल पहुंचा ।
टोक्यो एप्लायंसिज का स्टाल तलाशने में मुझे कोई दिक्कत न हुई । शिखर वहां मौजूद था और लोगों के एक छोटे से हुजूम को फूड प्रॉसेसर की डिमांस्ट्रेशन दे रहा था ।
वो ही शिखर बराल था, ये मैं उससे तसदीक किये बिना भी कह सकता था क्योंकि वो सार्थक का ओल्डर वर्शन ही जान पड़ता था ।
वो काफी बड़ा स्टाल था जिसके बायें दो तिहाई भाग में इलैक्ट्रानिक एपलायंसिज का डिस्पले था और डिमांस्ट्रेशन का इन्तजाम था और जहां कि उस घड़ी शिखर व्यस्त था । दायें एक तिहाई भाग की धज आफिस जैसी थी । वहां फ्रंट में एक रिसैप्शन बना हुआ था जहां एक नौजवान लड़की विराजमान थी जो खुले कालर वाली सफेद कमीज के साथ जनाना स्टाइल का काला कोट पहने थी और उस ड्रैस में बहुत आकर्षक लग रही थी । पृष्ठ भाग में एक एग्जीक्यूटिव कक्ष था जिस में बैठे सूटबूटधारी जापानी को एड़ियों पर उचक कर ग्लास विंडो के पार देखा जा सकता था ।
मैं रिसैप्शन डैस्क पर पहुंचा ।
युवती ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा, तत्काल उसके चेहरे पर मशीनी मुस्कराहट आयी ।
“मे आई हैल्प यू सर ।” - वो बोली ।
“यस ।” - मैं उसके सामने बैठता बोला - “प्लीज ।”
“हाउ कैन आई हैल्प यू सर ।”
“यहां किसी से मिलने का एक मामूली काम है मुझे लेकिन पहले मैं एक खास काम करना चाहता हूं ।”
“खास काम ! क्या ?”
“एक सवाल करना चाहता हूं ।”
“किससे ?”
“भई, जिसके रूबरू हूं उससे और किससे !”
“कीजिये ।”
“शाम को छुट्टी कितने बजे करती हो ?”
वो हड़बड़ाई, उसने सशंक भाव से मेरी तरफ देखा ।
मैंने अपनी गोल्डन जुबली, सिड्युसिंग, विनिंग मुस्कराहट पेश की ।
फिर एकाएक वो भी मुस्कराई ।
“कोई फिक्स टाइम नहीं” - और बोली - “जब हसबैंड लेने आ जाता है । कभी लेट भी हो जाती हूं उसके लेट हो जाने की वजह से । लेकिन अमूमन वक्त पर ही आता है ।”
“हसबैंड ?”
“हां ।”
“जो हंस के बैंड बजाता है ?”
“क्या बोला ?”
“मंगलसूत्र नहीं, सिन्दूर नहीं, टीका नहीं, शादी की अंगूठी नहीं.. स्वर्ग की सीढी चढ़ने का इरादा नहीं जान पड़ता !”
“क्या मतलब ?”
“भई, झूठे तो स्वर्ग में सीट के अधिकारी नहीं बन पाते न !”
वो हंसी, फिर बोली - “किससे मिलना है, सर ?”
“मेरी सैकण्ड चायस शिखर बराल है ।”
“सैकंड ?”
“हां । फर्स्ट ने तो झूठ बोल कर पल्ला झाड़ लिया !”
वो फिर हंसी ।
“लाइन मारने में डिप्लोमा प्राप्त मालूम होते हो !” - फिर बोली ।
“डिग्री । गोल्ड मैडेलिस्ट है बन्दा । इस महकमे में मेरे से आगे कोई दूसरा मिल जाये दिल्ली शहर में या आसपास चालीस कोस तक तो समझना करिश्मा हुआ ।”
“क्या कहने !”
“बचपन से दो ही ख्वाहिशे थीं - एक ताजमहल देखने की और दूसरी किसी ऐसी लड़की के रूबरू होने की जो कालर वाली सफेद कमीज पहनती हो, काला कोट पहनती हो, जिसके बाल स्टाइल से कटे हुए हों और जिसके जिस्म पर कहीं न कहीं काला तिल हो । ताजमहल मैं परसों देख आया था, दूसरी ख्वाहिश आज पूरी हो गयी ।”
“काला तिल दिखाई दे गया !”
“मैंने कहीं न कहीं बोला न ! तमाम जगह देखने का इत्तफाक अभी कहां हुआ है !”
“एक बात बोलूं ?”
“दो बोलो ।”
“एक ही काफी है ।
“बोलो ।”
“टॉप के हरामी जान पड़ते हो !”
“वो तो मैं हूं । फील्ड कोई भी हो, आदमी का बच्चा हो तो टॉप पर हो वर्ना न हो ।”
“विजिटिंग कार्ड रखते हो ?”
“हां ।”
“उस पर ये क्वालीफिकेशन दर्ज है ?”
“नहीं, ये सीक्रेट है । भांपनी पड़ता है । जैसे तुमने भांप ली ।”
“काफी फन्देबाज आदमी हो, लेकिन बस करो अब । शिखर अभी फ्री होता है ।”
“फिर बिजी हो जायेगा । डिमांस्ट्रेशन के ख्वाहिशमंदों का तांता तो लगा ही रहता होगा ?”
“बीच बीच में ब्रेक लेने का तरीका है, तुमसे मिलना चाहेगा तो ले लेगा । नाम बोलो अपना ।”
मैंने अपना एक विजिटिंग कार्ड उसके सामने रखा ।
“राज शर्मा ?” - उसने कार्ड पर से पढ़ा ।
“दि ओनली वन ।” - मैं शान से बोला ।
“प्राइवेट डिटेक्टिव ?”
“यूं समझो कि दशहरी आम ।”
“काफी खुशफहम आदमी हो !”
“वो तो मैं हूं बराबर ।”
“इस बात को ‘दशहरी आम’, ‘दि ओनली वन’ जैसा कोई फुन्दना नहीं लगाया ?”
“ये बात अपने आप में फुन्दना है । फुन्दने को फुन्दना लगाने का क्या मतलब ?”
“हूं ।”
वो उठी और मेज के पीछे से निकलकर दायें विंग की ओर बढ़ी । वो शिखर के पास पहुंची, उसने उसे मेरा कार्ड सौंपा और जुबानी कुछ कहा ।
शिखर ने घूमकर, सिर उठा कर मेरी तरफ निगाह दौड़ाई । फिर उसका सिर सहमति में हिला ।
युवती वापिस लौट आयी ।
“मेरी तो सारी जन्मकुण्डली बाच ली” - मैं बोला - “अब अपने बारे में भी तो कुछ बताओ ।”
“क्या बताऊं ?”
“कुछ भी ।”
“क्या कुछ भी ?”
“बल्कि सब कुछ ?”
“क्या सब कुछ ?”
“मसलन डिओडरेंट कौन सा इस्तेमाल करती हो, लिपस्टिक कौन सी लगाती हो, अंगिया कौन से साइज की पहनती हो...”
“ओ, शट अप !”
“...मर्द में कौन सी खूबी को जरूरी समझती हो ? करंट स्टेडी कौन है ? आगे वेकेंसी की क्या पोजीशन है...”
“आई सैड शट अप !”
“कहती हो तो हो जाता हूं ।”
“कहती हूं ।”
“ओके ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
koushal
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Post by koushal »

“यहां सिग्रेट पीना मुनासिब होगा ?” - फिर मैं बोला ।
“नहीं, नहीं मुनासिब होगा । मुझे सिग्रेट के धुंए से अलर्जी है ।”
“ओह !”
“ये बड़ी बोर नौकरी है इसलिये मैंने तुम्हें इतना कुछ कह लेने दिया जिसका कोई जुदा मतलब लगाना नादानी होगी । मैं मानती हूं कि तुम दिलचस्प आदमी हो, दिलचस्प बातें करते हो लेकिन अगर बस नहीं करोगे तो शिखर से मुलाकात का इंतजार कहीं और जा कर करोगे । तुम चाहते हो ऐसा ?”
“नहीं ।” - मैं बोला ।
“तो फिर खामोश बैठो ।”
“अभी । खाली एक बात और बता दो ।”
“क्या ?”
“तुम्हारा नाम क्या है ?”
“मेरा नाम उस राह जैसा है जिस पर तुमने नहीं जाना । क्या करोगे जान कर ! फिर वो कहते नहीं हैं कि रोज बाई एनी अदर नेम !”
“ओके । तो मेरे लिये तुम्हारा नाम रोज ! वैसे कुछ भी हो । कभी कहीं फिर मुलाकात हुई तो मैं तुम्हें रोज कहकर पुकारूंगा । कोई हर्ज ?”
“नहीं । पुकारना ।”
“और ये ।”
मैंने एक और विजिटिंग कार्ड निकाला और हाथ बढ़ा कर उसके सामने रखा ।
“ये किसलिये ?” - उसकी भवें उठीं - “कार्ड दे तो चुके हो !”
“ये तुम्हारे लिये ।”
“मैं क्या करूंगी ?”
“अरे, कभी ‘कच्चे धागे से बन्धे सरकार चले आयेंगे’ वाला मिजाज बना तो कैसे जानोगी कहां पहुंचना है !”
उसने कार्ड उठाया, उसके चार टुकड़े किये और डस्टबिन में डाल दिया ।
मैं मुंह बाये उसे देखने लगा ।
नैवर माइन्ड । - फिर खुद को तसल्ली दी - यू विन सम, यू लूज सम, दि लाइफ गोज आन ।
“मैं सच में शादीशुदा हूं ।” - वो शुष्क स्वर में बोली - “एक बेटी भी है ।”
“बेटी भी है !” - मैं हाहाकारी लहजे से बोला ।
“हां । और खबरदार जो फिर मुझे झूठा कहा !”
इससे पहले मैं कुछ कह पाता, एक हाथ मेरे कन्धे पर पड़ा । मैंने घूमकर देखा तो अपने पीछे शिखर को खड़ा पाया । मैं उठ खड़ा हुआ ।
“थैंक्यू मैडम मैरीड विद ए किड ।” - मैं युवती से बोला - “जो हुआ, उसका मुझे अफसोस है; जो न हो सका, उसका मुझे ज्यादा अफसोस है ।”
उसने मुंह बिचकाया ।
शिखर ने बाहर की तरफ इशारा किया । मैं उसके साथ हो लिया ।
दायें विंग के करीब से गुजरते वक्त मैंने देखा उसके काउंटर पर ‘क्लोज्ड’ की तख्ती लगी थी ।
वो मुझे एक करीबी कैफे में ले आया जहां उसने मुझे काफी पेश की । काफी के साथ हम दोनों स्टूल से जरा बड़ी एक मेज पर आमने सामने बैठ गये ।
“मैं तुम्हारे नाम और काम दोनों से वाकिफ हूं ।” - वो बोला ।
“कैसे ?” - मैंने सहज भाव से पूछा ।
“एडवोकेट विवेक महाजन ने बड़ा बखान किया न !”
“कब ! मेरे से मिल के आने के बाद ?”
“पहले ।”
“मैं असाइनमेंट से इंकार कर देता तो ?”
“उसे गारन्टी थी कि नहीं करने वाले थे ।”
“कमाल है !”
“बड़ा वकील है, ऐसे कमाल करता ही रहता है ।”
“वो समझता है मैं पता लगा लूंगा श्यामला का असली कातिल कौन है ?”
“हां ।”
“तुम्हें यकीन है तुम्हारा भाई बेगुनाह है ?”
“पूरा । वन हण्डर्ड पर्सेंट ।”
“सबको यकीन है । काश इतने टकसाली यकीन को भुना सकने का कोई तरीका होता । तुम्हारे यकीन को सलाम । अब अपना कोई अन्दाजा बोलो, कौन है कातिल ?”
“मुझे नहीं मालूम । लेकिन ये मालूम है कि कौन नहीं है कातिल । मेरा भाई नहीं है । मैं नहीं हूं ।”
“अपने बारे में तो तुम ऐसा कह सकते हो, भाई के बारे में इतने यकीन के साथ कैसे कह सकते हो ?”
“वो मेरा भाई है । उसकी बात पर यकीन करना मेरा फर्ज है । वो कहता है वो कातिल नहीं है तो नहीं है, दुनिया भले ही कुछ भी कहे । इसी विश्वास के तहत मैंने उसे एलीबाई देने की कोशिश की थी, बोला था उस रात हम दोनों भाई इकट्ठे ड्रिंकिंग स्प्री पर निकले हुए थे । लेकिन...”
वो खामोश हो गया ।
“एलीबाई चली नहीं !” - मैं बोला - “जल्दी ही बैकफायर कर गयी ! हवा निकल गयी !”
उसने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“पुलिस को पता लग गया कि उस रात तुम ड्रिंकिंग स्प्री पर तो थे लेकिन अकेले थे ।”
“हां । हम निकले इकट्ठे थे लेकिन बीच में थोड़ा अरसा ऐसा हुआ था कि वो मेरे साथ नहीं था । पुलिस कहती है उसी अरसे में उसने कत्ल किया । वो तो झूठी गवाही के इलजाम में और कातिल का जोड़ीदार होने के इलजाम में मुझे भी थामने वाले थे लेकिन एडवोकेट महाजन के दखल पर छोड़ दिया । बदले में मुझे इकबालिया बयान दर्ज कराना पड़ा कि अपने भाई के हक में मेरी एलीबाई फर्जी थी, सार्थक उस रात हर घड़ी मेरे साथ नहीं था ।”
“उस रात तुम्हारा ड्रिंकिंग सैशन कहां चला था ?”
“’रॉक्स’ में । बार है सैनिक फार्म के इलाके में । मालिक रॉक डिसिल्वा के नाम पर नाम रखा गया है । उस रात वहां था मैं ।”
“तुम्हारा भाई रोज़वुड क्लब के मैनेजर माधव धीमरे को कातिल करार दे रहा है, तुम्हें इस बात की खबर है ?”
“है तो सही !”
“तुम्हारा क्या खयाल है इस बारे में ?”
“हो सकता है । उस रात माधव धीमरे भी ‘रॉक्स’ में था ।”
“अच्छा !”
“हां । नौ बजे तक मैंने उसे वहां देखा था, उसके बाद वहां मैं ही नहीं था इसलिये मुझे नहीं मालूम कि वो वहीं टिका था या” - वो अर्थपूर्ण स्वर में बोला - “कहीं चला गया था ।”
“कैसा आदमी है ?”
“चालू रकम है । काइयां है । अपना उल्लू सीधा करने में माहिर है ।”
“सार्थक उसका कर्जाई था ।”
“था तो सही !”
“अस्सी हजार खासी बड़ी रकम होती है । क्योंकर दे दी ?”
“राज की बात है ।”
“तो राज से करो ।”
“सूद पर पैसा देना उसका पार्ट टाइम कारोबार है । एक्स्ट्रा इंकम का जरिया है । औरों को भी देता है ढंके छुपे ढ़ण्ग से ।”
“वसूली कर लेता है ?”
“कर ही लेता है । क्योंकि फौजदारी में भी तो कम नहीं है !”
“ऐसा ?”
“हां ।”
“सार्थक से की फौजदारी ?”
“ट्रेलर तो दिखाया !”
“कैसे ?”
“उसको डराने धमकाने की गरज से उसकी सान्त्रो की एक हैडलाइट फोड़ दी ।”
“अरे ! तुमने देखा उसे ऐसा करते ?”
“मैंने नहीं देखा, लेकिन सुना ।”
“किससे ?”
“सार्थक से ।”
“उसने देखा ?”
“नहीं ।”
“तो उसे कैसे मालूम था कि वो हरकत माधव धीमरे की थी ?”
“ऐसे मालूम था कि और किसी की हो ही नहीं सकती थी ? । अपना कर्जा न लौटाने वालों को स्टैण्डर्ड वार्निंग जारी करता था कि डैमेज असाल्ट शुरू कर देगा । पहले वार्निंग के तौर पर कोई छोटा मोटा डैमेज करेगा, छोटी मोटी चोट पहुंचायेगा जो रकम की अदायगी न होने की सूरत में मुतवातर बड़ी होती चली जायेगी । यानी शुरू में ट्रेलर, आखिर में फुल फीचर फिल्म ।”
“कमाल है !”
“सार्थक को एक वर्बल वार्निंग भी जारी की थी उसने । बोलता था सार्थक फौरन उसका कर्जा नहीं चुकायेगा तो आइन्दा खामियाजा वो नहीं, उसकी बीवी भुगतेगी ।”
“बीवी भुगतेगी ?”
“यही बोलता था ।”
“क्या करता ? जो उसने किया ?”
“उससे बुरा करता ।”
“क्या ?”
शिखर ने काफी का मग नीचे रख दिया, बायें हाथ की तर्जनी उंगली और अंगूठे को मिला कर एक गोल दायरा बनाया और बड़े अर्थपूर्ण भाव से दूसरे हाथ की तर्जनी उंगली दायरे में आगे पीछे सरकाने लगा ।
“तौबा !” - मैं नेत्र फैलाता बोला ।
उसने अपना एक्शन बन्द कर दिया और मग उठा लिया ।
“सुना है उसकी शरद परमार से अच्छी यारी है !” - मैं बोला ।
“है तो सही !”
“जब कि शरद क्लब के प्रेसीडेंट का सुपुत्र है और धीमरे क्लब का मुलाजिम है !”
“दोस्ती होती है तो राजा और रंक में फर्क नहीं करती ।”
“मैं कुछ और कहने की कोशिश कर रहा हूं । कैसे कोई शख्स अपने दोस्त की बहन के साथ बलात्कार करने का चैलेंज उछाल सकता है ! मजाक में भी भला कैसे कोई अपने दोस्त की बहन की बाबत ऐसे फाश खयालात जाहिर कर सकता है !”
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“भई, इसका बेहतर जवाब तो ऐसा भौंकने वाला ही दे सकता है । हो सकता है दोस्ती बराबर उंस वाली न हो । जितना शरद उसे अपना दोस्त समझता हो, उतना वो शरद को नहीं समझता होगा और ये बात शरद से बड़ी चालाकी से छुपाकर रखता होगा ।”
“हो सकता है ।”
उसने अपना मग खाली किया और कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
“एक आखिरी सवाल ।” - मैं जल्दी से बोला - “सार्थक के घर तुम्हारा आना जाना अक्सर होता था ?”
“होता तो था !”
“उसकी घर में गैरमौजूदगी में भी ?”
“तुम्हारा मतलब है श्यामला से मिलने ?”
“यही समझ लो ।”
“नहीं । ऐसा इत्तफाक तभी होता था जब श्यामला खुद मुझे बुलाती थी । वो मुझे फोन करके बुलाती थी, मैं जाता था तो मालूम होता था कि सार्थक घर पर नहीं था ।”
“बुलावे की वजह क्या होती थी ?”
“कोई खास नहीं । कभी कभार कोई काम होता था जो वो समझती थी कि मैं सार्थक से बेहतर कर सकता था या मैं ही कर सकता था । कभी मां का हाल चाल जानने के लिए बुलाती थी । कभी ये शिकवा करने के लिए बुलाती थी कि हम लोग उनसे मिलते जुलते नहीं थे ।”
“कत्ल की रात को भी उसका बुलावा था ? उसके बुलावे पर तुम वहां गये थे ?”
“नहीं ।” - वो सहज भाव से बोला ।
“पक्की बात !”
“हां ।”
वार्तालाप उससे आगे न चला ।
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अमरनाथ परमार की कोठी एक फार्म हाउस में थी और सैनिक फार्म्स के इलाके के उस हिस्से में थी जहां और भी छोटे बड़े कई फार्म थे । फार्म को सड़क से अलग करता एक विशाल फाटक था जो उस घड़ी बन्द था । बन्द फाटक के बाजू में वाचमैन बॉक्स था ।
मैंने कार का हार्न बजाया ।
एक वर्दीधारी वाचमैन बॉक्स से निकलकर मेरे करीब पहुंचा ।
“परमार साहब घर पर हैं ?” - मैंने पूछा ।
“आप कौन ?” - वाचमैन बोला ।
“उनका एक मुलाकाती ।”
“नाम बोलिए ।”
मैंने अपना एक विजिटिंग कार्ड उसे थमाया ।
“यहीं रुकिये ।” - वो बोला और वापिस चला गया ।
मैंने एक सिग्रेट सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
सिग्रेट समाप्त हुआ तो फाटक खुला और उसका एक पल्ला थामे वाचमैन मुझे दिखाई दिया । उसने हाथ हिला कर मुझे इशारा किया ।
तत्काल मैंने कार आगे बढ़ाई । फाटक के पार एक लम्बी राहदारी थी जिसके दोनों तरफ पेड़ थे और रंग बिरंगे फूलों की क्यारियां थीं । आगे राहदारी अर्धवृत्ताकार में घूमी, फिर मुझे कोटा स्टोन की बनी वैभवशाली कोठी दिखाई दी । मैं उसकी पोर्टिको में पहुंचा तो कोठी के आगे की सीढ़ियों पर मुझे एक सूटधारी युवक खड़ा दिखाई दिया । मैं कार से बाहर निकला तो उसने मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया । उसके पीछे मैं कोठी के भीतर दाखिल हुआ तो मैंने स्वयं को एक डबल हाइट वाली लॉबी में पाया जो कि किसी फाइव स्टार होटल की तरह सुसज्जित थी ।
“यहां रुकिये ।” - वो बोला ।
फिर ‘रुकिये’ !
वो आगे बढ़कर पिछवाड़े के एक दरवाजे के पीछे गायब हो गया ।
मैंने मुंह बाये चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
क्या ठाठ थे ! क्या बादशाही थी ! क्या शाहखर्ची का ताजमहल जैसा इश्तिहार था !
किसी श्याने ने कहा है कि अमीर का किफायत से रहना जरूरी नहीं होता । उसको राज शर्मा का जवाब है कि जो किफायत से रह सकता हो, उसका अमीर होना भी जरूरी नहीं होता ।
तभी वहां का शाह और शाहजादा वहां पहुंचे ।
अमरनाथ परमार बलिष्ठ शरीर का स्वामी, साठ के पेटे में पहुंचा आदमी था, उसके बाल तमाम के तमाम सफेद थे लेकिन चेहरे पर रौनक थी, चमक थी । बालों के विपरीत उसके भवें और मूंछ काली थीं । जो चैक की शर्ट, नीली जींस और महरून पुलोवर पहले था । गले में उसने वैसे रेशमी स्कार्फ बांधा हुआ था जैसे फौजी अफसरान यूनीफार्म के साथ बांधते थे ।
उसके साथ जो नौजवान था, वो सूट पहने था, क्लीनशेव्ड था और उससे आधी उम्र का जान पड़ता था । फैमिली रिजेम्बलेस मुझे उसमें साफ दिखाई दी जो मेरे अन्दाजे की तसदीक करती थी कि वो उसका सुपुत्र शरद परमार था ।
मेरा विजिटिंग कार्ड उस घड़ी उसके हाथ में था ।
मैंने सीनियर परमार का अभिवादन किया ।
गर्दन के खम के साथ उसने मेरा अभिवादन स्वीकार किया, हाथ मिलाने की कोई पेशकश उसने न की ।
“यस ?” - वो भावहीन स्वर में बोला ।
“मेरा नाम राज शर्मा है” - मैं सादर बोला - “मैं प्राइवेट डिटेक्टिव हूं ।”
“वो तो तुम्हारे कार्ड पर भी दर्ज है ! चाहते क्या हो ? स्टेट युअर बिजनेस ।”
“वो क्या है कि...”
“किसी ऐसे केस पर काम कर रहे हो जिसमें हमारा कोई दखल है ?”
“जी हां ।”
“एक्सप्लेन ।”
“आप एडवोकेट विवेक महाजन से वाकिफ हैं ?”
“हां ।”
“मुझे उन्होंने रिटेन किया है ।”
“किसलिये ?”
“सार्थक बराल के केस पर काम करने के लिये ।”
“क्या काम करने के लिये ?”
“उसे बेगुनाह साबित करने का काम करने के लिये ।”
तत्काल उसका मिजाज बदला ।
पुत्र का भी ।
“वाट !” - वो कहरभरे स्वर में बोला - “तुम्हारी - एक कातिल के हिमायती की - यहां कदम रखने की जुर्रत हुई !”
“मुझे यकीन दिलाया गया है कि सार्थक आप की बेटी का कातिल नहीं है ।”
“आउट !” - बेटा बाप से भी ज्यादा कहरबरपा लहजे में फुंफकारा ।
वो नथुने फैलाता यूं आगे बढ़ा जैसे मुझे रौंदता हुआ गुजर जाने का इरादा रखता हो ।
बाप ने उसके रास्ते में बैरियर की तरह हाथ फैला कर उसे ऐसा कर पाने से रोका, फिर उसने भी जैसे सुपुत्र के साथ डुएट गाया - “गैट आउट दिस मिनट । एक मिनट में दफा हो जाओ वर्ना ट्रेसपासिंग के इलजाम में गिरफ्तार करा दूंगा ।”
“कैसी ट्रैसपासिंग ! मैं बाइजाजत यहां आया हूं ।”
“बोलना पुलिस को । अभी जाते हो या...”
“आपका भड़कना मेरी समझ से बाहर है । आपने जवान बेटी गंवाई है, आपका कातिल के लिए रोष समझ में आता है लेकिन आप इस अहम बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि अगर सार्थक कातिल नहीं है तो कातिल छुट्टा घूम रहा है । क्या आप नहीं चाहते कि असल कातिल जल्द-अज-जल्द कानून की गिरफ्त में दिखाई दे और...”
“गैट दि हैल आउट आफ हेयर डैम यू !” - शरद गर्जा ।
“दफा हो जाओ ।” - बाप ने सुर में सुर मिलाया ।
मैंने असहाय भाव से गर्दन हिलायी, मुझे कुछ कहने का मौका देना तो दूर, वो दोनों तो मुझे जुबान खोलने देने को तैयार नहीं थे ।
कूच करने के अलावा कोई चारा नहीं था । वहां फौजदारी होती तो अंतपंत उन्हीं की सुनी जाती । ऐसे ही तो कहा नहीं जाता कि अपनी गली में तो कुत्ता भी शेर होता है ।
मैंने एक उंगली से पेशानी को छूकर बनावटी सैल्यूट मारा और घूमकर वापिस लौट चला ।
बाप बेटा मेरी पीठ पर निगाहों से भाले बर्छियां बरसाते रहे ।
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।
लेकिन पीडी के धंधे में वो कोई बड़ी बात नहीं थी । दुलार और फटकार साथ साथ ही चलते थे ।
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