Thriller इंसाफ

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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

“उसके जले पर नमक छिड़कने नहीं आने वाला । वो तो उसकी बेल के ही खिलाफ था । बाकायदा बयान दिया था ऐसा । बेटी के कातिल की वो मदद करेगा ?”
“शायद मन साफ हो गया हो ! सार्थक उसको विश्वास दिलाने में कामयाब हो गया हो कि वो श्यामला का कातिल नहीं था !”
“इतने थोड़े समय में ?”
मैं खामोश रहा ।
“ससुरा उसका हिमायती ! नो, आई कैननाट बाई इट ।”
“तो ?” - मैं बोला ।
“पता लगाओ क्या माजरा है ! सीक्रेट डोनर को एक्सपोज करके बताओ । या उसका या उनका अता पता निकाल कर बताओ, जिसने या जिन्होंने सार्थक को फरार होने के लिये उकसाया, उसकी मदद की । मैं तुम्हारी फीस डबल कर दूंगा ।”
“जी !”
“आईल डबल युअर फी, शर्मा ।”
“डू आई हैव युअर वर्ड ?”
“यू हैव माई अनब्रेकेबल वर्ड ।”
“मैं करता हूं ।” - मैं जोश से बोला - “पूरी कोशिश करता हूं ।”
मैंने सम्बन्धविच्छेद किया और ‘पिकाडिली’ साउथ एक्स का - वो रेस्टोबार जिसमें सार्थक नौकरी करता था - फोन लगाया और मैनेजर प्रधान से बात की ।
“सार्थक की जमानत हो गयी है ।” - मैं बोला - “मालूम पड़ा ?”
“हां ।” - आवाज आयी - “आज के पेपर से मालूम पड़ा ।”
“आई सी । ‘पिकाडिली’ पहुंचा ?”
“नहीं !”
“भई, ड्यूटी पर बहाल होने नहीं, आपसे मिलने आया हो !”
“नहीं, नहीं आया ।”
“शायद आये । आये तो मेरे को खबर कीजियेगा । मुझे उससे जरूरी काम है लेकिन मेरा उससे कांटैक्ट नहीं हो पा रहा ।”
“ओके ।”
“एक बात और बताइये । सार्थक आपसे पनाह मांगे तो उसे हासिल होगी ?”
“कैसी पनाह ?”
“मीडिया की तवज्जो से बचके रहने के लिये वो कुछ अरसा आपके घर रहने की खाहिश करे तो आप उसकी मदद करेंगे ?”
“मुश्किल है ।”
“अच्छा ।”
“मैं छोटे से किराये के फ्लैट में रहता हूं । तीन बच्चे हैं । मेरे स्टे-इन मेहमान रख पाने के साधन नहीं हैं ।”
“ठीक ! कहां रहते हैं ?”
उसने मालवीय नगर का एक पता बताया ।
मैंने शेफाली परमार का फोन बजाया ।
तत्काल वो लाइन पर आयी ।
“राज बोल रहा हूं ।” - मैं बोला ।
“ओ, मिस्टर शर्मा, मैं तुम्हें याद ही कर रही थी ।”
“वजह ?”
“फौजदारी ।”
“फिर ?”
“हां । दिल्ली वायलेंस की राजधानी बनती जा रही है । यहां हर किसी का खून गर्म ही नहीं, उबाल पर है । रोडरेज के जितने केस दिल्ली में रोजाना होते हैं, शायद ही कहीं और होते हों । लेकिन वो किस्सा फिर कभी ।”
“तुम्हारे साथ हुई फौजदारी ? शरद फिर भड़क गया ?”
“नहीं मेरे साथ नहीं...”
“शुक्र है !”
“किसी ने सार्थक के भाई शिखर को ठोक दिया । हस्पताल में है । पुलिस पापा के फार्महाउस पर तफ्तीश के लिये पहुंची थी क्योंकि पुलिस को दिये अपने बयान में उसने शरद की निशानदेयी की है !”
“उस बात की मुझे खबर है । वो अपनी दुरगत के लिये शरद परमार और माधव धीमरे को जिम्मेदार ठहराता है ।”
“तुम्हें ऐतबार आता है शिखर की बात पर ?”
“बेऐतबारी की कोई वजह तो नहीं दिखाई देती !”
वस्तुत: एक वजह दिखाई तो मुझे देती थी लेकिन मैं उस घड़ी उसे जुबान पर न लाया ।
“पापा का मूड बहुत खराब है ।” - वो कह रही थी ।
“क्यों ? शिखर की बात पर यकीन आ गया है उन्हें ?”
“यकीन तो नहीं आ गया लेकिन शरद के मिजाज से तो वाकिफ हैं न वो ! ऊपर से उन्हें अन्देशा है कि पुलिस शरद को हिरासत में ले सकती थी । मेरे सामने अपने वकील से बात कर रहे थे और उससे ऐन्टीसिपेटरी बेल की बाबत मशवरा ले रहे थे ।”
“शरद खुद क्या कहता है ?”
“कहता है उसका उस वाकये से कोई वास्ता नहीं ।”
“साबित कर सकता है ? वाकये के वक्त की अपने हक में कोई गवाही पेश कर सकता है ?”
“मालूम नहीं । लेकिन जो वक्त उस वारदात के वाकया हुई होने का बताया जाता है, वो वक्त उसका ‘रॉक्स’ में हाजिरी भरने का होता है ।”
मैंने इस बात का जिक्र न किया कि ‘रॉक्स’ बन्द था क्योंकि मुझे खबर नहीं थी कि उस पर ‘क्लोज्ड’ का नोटिस आज ही टांगा गया था या पहले से टंगा हुआ था ।
“पता नहीं कैसे दिन गुजर रहे हैं !” - वो कह रही थी - “क्या होने जा रहा है !”
“कुछ तो हो भी चुका है ।”
“क्या ?”
“सार्थक की जमानत हो गयी है, खबर है न ?”
“हां ।”
“जमानत होते ही गायब हो गया है ।”
“ग - गायब हो गया है !”
“सीधी जुबान में कहा जाये तो फरार हो गया है । बेल जम्प कर गया है जो गम्भीर मसला है - उसके लिये भी और बेल कराने वालों के लिये भी ।”
“गॉड !”
“सब ठीक हो जायेगा ।”
“झूठी तसल्ली है, फिर भी शुक्रिया ।”
“मिलता हूं ।”
मैंने फोन डिसकनैक्ट किया और अहिल्या बराल को काल लगाई ।
“सार्थक वहां आया था ?” - मैंने पूछा ।
“नहीं ।”
उसने यूं तपाक से जवाब दिया कि वो मुझे झूठ बोलती लगी ।
“आपसे मिलने नहीं आया ?” - मैं फिर बोला ।
“नहीं । हैरान हूं ।”
“शिखर की खबर लगी ?”
“हां । पुलिस ने उसकी बाबत फोन किया तो लगी । जान निकल गयी मेरी । दौड़ी हस्पताल गयी । अभी लौटी हूं ।”
“शायद आपकी गैरहाजिरी में सार्थक वहां आया हो !”
“तो हस्पताल पहुंचता । मैं उसकी बाबत पड़ोस में बोल के गयी थी ।”
“आई सी । अब शिखर कैसा है ?”
“ठीक नहीं है ।” - उसका स्वर रुआंसा हुआ ।
“मैडम, ये वक्त तो नहीं ऐसी बातें करने का लेकिन एक बात पूछने की फिर भी इजाजत दीजिये ।”
“पूछो ।”
“श्यामला के कत्ल की रात को शिखर कहां था ?”
“घर था । उस रात - जैसा कि उसने अपने बयान में भी कहा था - साढ़े नौ बजे घर लौट आया था । लेकिन साढ़े ग्यारह के करीब सार्थक की काल आने पर घर से फिर निकला था ।”
“लौटा कब था ?”
“मुझे खबर नहीं । मैं जल्दी सो जाती हूं ।”
“फिर भी उसके साढ़े ग्यारह बजे जाने की खबर है ?”
“बोल के गया था ।”
“ओह !”
“लौटा कब, ये नहीं मालूम । उसके पास मेनडोर की चाबी होती है इसलिये उसका कालबैल बजाना जरूरी नहीं होता ।”
“आई सी ।”
“मुझे अपने बेटों का आसरा है ।” - मुझे उसकी सिसकी सुनाई दी - “दोनों ही मुसीबत में हैं । कैसे बीतेगी परदेस में !”
मैंने हौले से लाइन डिसकनैक्ट कर दी ।
जिन्दगी इम्तहान लेती है ।
कभी रूबरू मिल के वृद्धा को समझाऊंगा कि दो सुखों के बीच का वक्फा दुख होता था, दो दुखों के बीच का वक्फा सुख होता था । यदि आप सुखी हैं तो समझिये दुख आने वाला है, दुखी हैं तो समझिये सुख मोड़ पर खड़ा है, बस आप तक पहुंचने ही वाला है । जैसे रात जाती है तो दिन आ जाता है, दिन जाता है तो रात आ जाती है, वैसे ही दुख जाता है तो सुख आ जाता है, सुख जाता है तो दुख आ जाता है । दुख सुख का पहिया चलता है, यही नसीबा कहलाता है ।
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Fuck_re
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Re: Thriller इंसाफ

Post by Fuck_re »

Update kaha hai bhai??????
koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

रात के एक बजे फोन की निरन्तर बजती घन्टी ने मुझे गम्भीर निद्रा से झकझोर कर जगाया ।
उस रात मैं ग्रेटर कैलाश वाले फ्लैट पर ही टिका था क्योंकि उम्मीद के खिलाफ उम्मीद कर रहा था कि जैसे एकाएक सार्थक वहां से चल दिया था, वैसे ही एकाएक लौट आयेगा ।
मैंने काल रिसीव की ।
लाइन पर घबराई बौखलाई, बल्कि आतंकित, सगीता निगम थी ।
“मिस्टर शर्मा ?”
“यस ।”
“आई एम सॉरी आई कॉल्ड यू ऐट सच एन अनगॉडली आवर लेकिन...”
“इट्स आल राइट, मैडम ।
“बात बहुत जरूरी है ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“बात... सार्थक की बाबत है...”
“मैडम, आप रात की इस घड़ी का खयाल कीजिये और जो कहना है, भूमिका बांधे बिना कहिये ।”
“आज रात लेट नाइट में रॉक डिसिल्वा निगम साहब से मिलने आया था । इत्तफाक से मुझे उनके वार्तालाप के कुछ अंश सुनाई दे गये थे । वो सार्थक के बारे में ऐसी बातें कर रहे थे जिनसे मुझे एक ही अन्दाजा हुआ कि उसका कोई नया बुरा होने वाला था उस पर कोई नयी मुसीबत टूटने वाली थी । और वजह मैं बनने वाली थी ।”
“आप बनने वाली थीं ! कहीं आपने बोल तो नहीं दिया था कि सार्थक कहां था... आई मीन, जेल से छूटने के बाद वो कहां गया था ?”
“नहीं, नहीं ! वो नहीं बोला था मैंने । लेकिन पिछली रात हमारी बहुत तू तू मैं मैं हुई थी । तब कुछ ऐसी बातें मेरे मुंह से निकल गयी थीं जो नहीं निकलनी चाहिये थीं । कुछ अपने भड़के मिजाज में मैंने खुद कह दी थी...”
“ड्रिंक किए थीं ?”
“भई, वो रुटीन है मेरी ईवनिंग की । आई एम ए वैरी फ्रस्ट्रेटिड वूमेन, मिस्टर शर्मा ।”
“आई अंडरस्टैण्ड । आप कहिये जो कह रही थीं !”
“वो... वो क्या है कि... कि अपने उस वक्त के आपे से बाहर मिजाज के तहत मैं ये भी बोल बैठी थी कि कत्ल की रात को कत्ल के वक्त के आसपास सार्थक मेरे साथ था ।”
“ओह, नो ।”
“मैंने बोला न, कुछ बातें मुंह से निकल गयी थीं और कुछ नशे की वजह से... मैंने.. मैंने बोला न, आई वाज ड्रंक ।”
“ऐसा और क्या बोला ?”
“और बोला कि मैं सार्थक के हक में कोर्ट में गवाही देने का फैसला कर चुकी थी ।”
“गॉड ! कल इतना कुछ बोल दिया और आज छुप कर उन लोगों की खुफिया बातें सुन लीं !”
“उनको नहीं मालूम कि मैंने उनकी बातें सुनी थीं ।”
“आपको क्या मालूम ?”
“सुनी होती तो एक नया फसाद खड़ा हो गया होता ।”
“जो कि नहीं हुआ ?”
“हां ।”
“फिर आप खौफजदा क्यों हैं ?”
“प - पता नहीं ।”
“कहां हैं आप इस वक्त ? साकेत में ?”
“नहीं, आर पी. रोड पर ।”
“आप चाहती हैं मैं वहां पहुंचूं ?”
“चाहती तो हूं... क्योंकि मुझे किसी की सपोर्ट की जरूरत है लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“ये सरकारी कोठी है, आर.पी. रोड हाई सिक्योरिटी एरिया है, रात की इस घड़ी तुम्हारे यहां आने से मेरी तो कोई मदद होगी नहीं, तुम्हारे लिये प्राब्लम खड़ी हो जायेगी ।”
“तो फिर...”
“कल आना । दस बजे । तब तक निगम साहब जा चुके होंगे ।”
“फिलहाल आपको वहां कोई खतरा नहीं ? आप...”
“वो जाग गये जान पड़ते हैं, मैं...”
“आप हैं कहां ?”
“बाथरूम में । कट करती हूं ।”
काल डिसकनैक्ट हो गयी ।
नींद तो उड़ ही गयी थी इसलिये मैंने एक सिग्रेट सुलगा लिया और वस्तुस्थिति पर विचार करने लगा ।
स्थिति उसकी कल्पना से ज्यादा गम्भीर हो सकती थी । अगर सांसद की और रॉक डिसिल्वा की उस खुफिया मन्त्रणा का सब्जैक्ट सार्थक था तो ये उसके वजूद के लिये खतरे की गम्भीर घन्टी थी । अगर आलोक निगम ने सार्थक को ठिकाने लगवाने का फैसला कर लिया था तो वही अंजाम उसकी बीवी का भी हो सकता था । बेवफाई को कोई जोरावर हसबैंड यूं ही माफ नहीं कर देता, वो एक पार्टनर को सजा का मुश्तहक समझता है तो यकीनन दूसरे को भी समझता । सार्थक उसके लिये काला चोर था और बीवी का भी उसे कुछ मीठा नहीं था । वो चुटकियों में ऐसा इन्तजाम करा सकता था कि दोनों भुंगों की तरह मसल दिये जाते ।
उस औरत की जान को खतरा मुझे बराबर जान पड़ता था लेकिन मामला वीआईपी का था । पोलिटिकल वीआईपी का था, रात की उस घड़ी मैं कुछ नहीं कर सकता था । मैं पुलिस को काल लगाता तो अफवाहें फैलाने के इलजाम में वो लोग मेरे को ही थाम लेते ।
फिर मैंने तसवीर के दूसरे रुख पर गौर किया ।
आलोक निगम पोलिटिकल लीडर था, अपने कैरियर के मौजूदा दौर में वो कोई स्कैण्डल खड़ा होना अफोर्ड नहीं कर सकता था । बाद में - उसके मंत्री पद का फैसला हो जाने के बाद में - जो होता सो होता, अभी संगीता निगम का कोई अहित नहीं होने वाला था ।
और सार्थक के किसी अहित का इन्तजाम करने से पहले उसको लोकेट किया जाना जरूरी था जो कि मौजूदा हालात में मुश्किल साबित हो सकता था ।
लिहाजा मेरी अक्ल ने आखिरी फैसला यही किया कि फिलहाल स्थिति यथापूर्व ही रहने वाली थी ।
मैंने सिग्रेट को तिलांजलि दी, लाइट ऑफ की और फिर नींद के हवाले हो गया ।
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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

फोन की घंटी बजी ।
लाइन पर एडवोकेट महाजन था ।
मैंने घड़ी पर निगाह डाली तो पाया आठ बज चुके थे ।
मैंने काल रिसीव की ।
“बुरी खबर है ।” - बिना दुआ सलाम वो बोला ।
सवेरे अखबार आता था, दूध आता था, यूअर्स ट्रूली के यहां बुरी खबर आती थी ।
“सार्थक की ?” - मैं बोला - “एनकाउन्टर में मार गिराया पुलिस ने ?”
“अरे, नहीं, भई ।”
“ओह ! महज गिरफ्तार हुआ !”
“अरे, सुनो, भई ।”
“सॉरी !”
“मेरे को उसका फोन आया था सुबह सवेरे ।”
“कहां से ?”
“पता नहीं । कोई लैंडलाइन का फोन था । शायद किसी पीसीओ से बोल रहा था ।”
“क्या बोला ?”
“बोला क्या, बोल के नाशुक्रापन दिखाया । बोला, उसे अब किसी लीगल रिप्रेजेंटेशन की जरूरत नहीं थी ।”
“क्यों ? क्यों जरूरत नहीं थी ?”
“क्योंकि उसका इस मुल्क के कायदे कानून से विश्वास उठ गया था ।”
“ऐसा बोला वो ? ‘इस मुल्क’ बोला ?”
“हां ।”
“इसका तो एक ही मतलब हो सकता है ।”
“क्या ?”
“वो वापिस नेपाल खिसक लेने का हिन्ट दे रहा था ।”
“मुझे भी ऐसा ही लगा था । इसीलिये तुम्हारी राय जानने के लिये मैंने तुम्हें फोन लगाया ।”
“मैं भी नाशुक्रा ही कहूंगा उसे जिसने ‘सार्थक को इंसाफ दो’ वाली सारी मूवमेंट पर ही थूक दिया । इतनी मेहनत से हुई लाखों की कलैक्शन को यूं राइट ऑफ कर दिया ! वकील साहब, जो उसने सोचा है, वो पुलिस के जेहन में भी आयेगा । नहीं पहुंच पायेगा नेपाल ।”
“फिर तो हो सकता है हम उसकी नीयत की बाबत गलत अन्दाजे लगा रहे हों !”
“लेकिन वो ये भी तो बोला कि उसे किसी लीगल रिप्रेजेंटेशन की जरूरत नहीं थी !”
“जरूर किसी और कॉन्टेक्स्ट में कहा उसने ऐसा जिसका मैंने ये - गलत - मतलब लगाया कि वो बतौर वकील मुझे डिसमिस कर रहा था ।”
“तो फिर फोन ही क्यों किया उसने आपको ?”
“बहुत कम्पलैक्स किरदार है इस लड़के का । मिले तो कुछ समझ में आये !”
“ठीक ।”
“मेरा मार्निंग में कोर्ट में एक केस है जो मुझे सारा दिन बिजी रखेगा । मैं चाहता हूं तुम संगीता निगम से मिलो और मालूम करो कि क्या उसके पास भी सार्थक की कोई फोन काल आयी थी ?”
“मैं मिलूं ?”
“क्या हर्ज है ? कोई नया काम तो नहीं करोगे ! एक बार मिल तो चुके हो !”
“आप फोन क्यों नहीं लगाते ?”
“लगाया था । जवाब नहीं मिला था ।”
“ओह !”
मैं सोचने लगा कि उसे संगीता निगम की मिडनाइट काल की बाबत बताऊं या न बताऊं । मैंने बताने का फैसला किया । मैंने बताया ।
“यानी कि” - वो बोला - “उससे मिलने तो तुमने जाना ही जाना है । फिर मेरे जाने को कहने पर झिझक के क्यों दिखा रहे थे ?”
“नेता कोई खतरनाक कदम उठा सकता है ?”
“भई, बीवी को तो शायद माफ कर दे लेकिन बीवी के यार को माफ नहीं करने वाला ।”
“ओह !”
“जोरावर जोर आजमाने से बाज नहीं आता ।”
“क्या करेगा ? मरवा देगा ?”
“आये दिन फैटल रोड एक्सीडेंट होते हैं, लोग बाग कारों की, बसों की, ट्रकों की चपेट में आ के मरते ही रहते हैं । ऐसी एक एक्स्ट्रा मौत की कहां कहीं हाजिरी लगेगी !”
“आपका इशारा पकड़ा मैंने । अब एक बात बताइये ।”
“पूछो ।”
“अभी पुलिस को ये इमकान न होगा कि उनका जमानती गायब था । लेकिन जब वो दस बजे की हाजिरी पर थाने नहीं पहुंचेगा तो क्या होगा ?”
“आज कुछ न हो, इसका इंतजाम मैंने किया है । मेरा एक जूनियर थाने जायेगा जो उन्हें खबर करेगा कि सार्थक एकाएक बीमार पड़ गया था, थाने नहीं पेश हो सकता था । वो लोग मैडीकल सर्टिफिकेट की मांग करेंगे जिसके लिये आज का टाइम तो जरूर ही देंगे । जमा, मैं नामी वकील हूं मेरा भी कोई लिहाज होगा उन्हें । बहरहाल आज का दिन टल जायेगा, कल की कल देखेंगे ।”
“ठीक !”
“शर्मा, फिलहाल तुमने भी किसी को ये नहीं कहना है कि सार्थक गायब है । ताकीद है ।”
“कोई सवाल करे तो झूठ बोलूं ?”
“हां । मेरे को मालूम है ऐसा तुम कोई पहली बार नहीं करोगे । या करोगे ?”
मैंने जवाब न दिया ।
लाइन कट गयी ।
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