Thriller इंसाफ

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koushal
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Thriller इंसाफ

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इंसाफ


मैं अपने अशोक भवन स्थित आफिस में मौजूद था और सोच रहा था कि मेज का दाईं ओर का नीचे का दराज अभी खोलूं या थोड़ी देर बार खोलूं ।

उस दराज में रेमी मार्टिन की बोतल थी ।

जनवरी का महीना था, दोपहर हो चुकी थी लेकिन अभी तक सूर्य भगवान के दर्शन नहीं हुए थे । जनवरी के महीने में दिल्ली में कड़ाके की ठण्ड पड़ती थी और अगर कोहरा न छंटा हो और सूरज न निकला हो तो ऐसे माहौल में कोनियाक शैम्पेन - वी.एस.ओ.पी. का एक नीट घूंट ही स्वर्ग की अनुभूति कराने के लिये काफी था ।
लेकिन सवा बारह बजे ही !

बोतल की तरफ से ध्यान हटाने के लिये मैंने डनहिल का एक सिग्रेट सुलगा लिया और बड़े तृप्तिपूर्ण भाव से उसके कश लगाने लगा ।

उम्मीद है कि खाकसार को आप भूले नहीं होंगे । फिर भी मैं समझता हूं कि अपना तआरुफ दोहराने में कोई हर्ज तो न होगा ! बंदे को राज शर्मा कहते हैं और दिल्ली के प्राइवेट डिटेक्टिव सर्विसिज के धंधे में मेरी हैसियत अंधों में काना राजा जैसी है । यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस के नाम से अशोक भवन के एक बहुमंजिला आफिस काम्प्लेक्स में उसकी चौथी मंजिल पर मेरा छोटा सा दफ्तर है जिस में मैं यूं कभी कभार पाया जाता हूं जैसे हमारे माननीय प्रथानमंत्री जी भारत में कभी कभार पाये जाते हैं । बन्दे को तब से पीडी के कम में शिरकत का फख्र हासिल है जब कि ये धंधा भारत में अभी ठीक से पहचाना नहीं जाता था लेकिन अब ऐसी बात नहीं थी, अब वकीलों की तरह पीडीज की भी दिल्ली में भरमार थी इसलिये वो ऐसे काम भी करते थे जो तरीके से इस कारोबार के स्कोप में नहीं आते थे - जैसे मैट्रीमोनियल कनफर्मेशंस, कैरेक्टर वैरीफिकेशन, सिक्योरिटी सर्विस वगैरह - लेकिन युअर्स ट्रूली ने कभी ऐसे - अब क्या कहूं - टुच्चे कामों में दिलचस्पी नहीं ली थी ।
वजह !

शेर घास नहीं खाता ।

लिहाजा आपके खादिम को वही असाइनमेंट कबूल होती थी जिसमें कोई चैलेंज हो और जिस की बाबत क्लायंट का ये विश्वास पुख्ता हो भी चुका हो कि उस चैलेंज का कोई सामना कर सकता था तो वो था राज शर्मा, दि ओनली वन । इसी वजह से कई बार कई कई दिन मुझे खाली बैठना पड़ता था ।

जैसा कि आजकल हो रहा था ।

.....................

मेरा सिग्रेट खत्म हुआ तो बीच का दरवाजा खुला और चौखट पर रजनी प्रकट हुई ।

रजनी शर्मा मेरी सैक्रेट्री थी और मेरी गैरहाजिरी में फ्रंट आफिस सम्भालती थी । निहायत खूबसूरत होने के अलावा उसमें और भी कई खूबियां थीं लेकिन उन सब पर हावी एक खामी थी :
शरीफ लड़की थी ।

और भी कई खामियां थीं । जैसे :
एम्प्लायर की गोद में नहीं बैठती थी ।

उसे पप्पी नहीं देती थी ।

उसे अपने पर आशिक करवाने की कोशिश नहीं करती थी ।
‘वगैरह वगैरह’ नहीं करती थी ।

बहरहाल होशियार थी, वफादार थी, दुख सुख की साथी थी और शरीफ होने की वजह से ही चील के घौंसले में मांस थी, फिर भी सेफ थी ।

“क्या है ?” - मैं बोला ।

“मुझे क्या पता क्या है ?” - उसने तुनक कर जवाब दिया ।

“अरे, मेरा मतलब है किसलिये दर्शन दिये ? मेरे अंगने में क्या काम है तेरा ?”

“अच्छा वो ?”

“हां, वो । अब बोल !”

“कल जो क्लायंट बनने से बाल बाल बच गया था, उसका अभी फोन आया था ।”

“वकील का ? क्या नाम था ? कहीं नोट तो किया था मैंने ! देखता हूं ।”

“विवेक महाजन ।”

“हां, विवेक महाजन । एडवोकेट सैशन एण्ड हाईकोर्ट । अब क्या कहता था ?”

“एक केस डिसकस करने के लिये कल वो आपको अपने आफिस बुलाता था लेकिन आपको राजेन्द्रा प्लेस जाना कबूल नहीं हुआ था जहां कि उसका आफिस है । आप ने उसे यहां आने को बोला था तो उसने कहा था कि वो इतना मसरूफ था कि नहीं आ सकता था...”

“जैसे मैं खाली बैठा था !”

“था तो ऐसा ही !”

“क्या बोला ?”

“टेबल के खुले दराज में दोनों पांव टिका के कुर्सी पर ढ़ेर हुए ऊंघ रहे थे” - वो एक क्षण ठिठकी फिर कुटिल भाव से बोली - “सुबह से ही ।”

“जो कि टेलीफोन पर उस वकील के घोड़े को दिखाई दे रहा था !”

“आप को दिखाई दे रहा था । खाली बैठे थे । महीना होने को आ रहा है । फिर भी नखरा किया और ठोक दिया आप उससे ज्यादा बिजी थे, राजेन्द्रा प्लेस नहीं जा सकते थे ।”

“अरे, कारोबार की बेहतरी के लिये आन बान शान बना कर रखनी पड़ती है ।”

“झूठ बोल कर ?”

“झूठ बोल कर भी ।”

“ये खयाल न किया कि प्यासा कुएं के पास जाता है, कुआं प्यासे के पास नहीं जाता ।”

“तेरे को क्या पता प्यासा कौन है, कुआं कौन है !”

“पता तो है ! अब तो बिल्कुल ही पता है ।”

“क्या मतलब ?”

“वो यहां आ रहा है ।”

“देखा !” - मैं विजेता के से स्वर में बोला - “अब बोल प्यासा कौन और कुआं कौन ?”

“आधे घंटे में पहुंचने को बोल रहा था ।”

“फोन कब आया था ?”

“बीस मिनट पहले ?”

“फिर तो अभी पूरे दस मिनट बाकी हैं ।”

“तो ?”

“पूछती है तो ! अरे तेरे को नहीं पता ?”

“नहीं, नहीं पता ।”

“दरवाजा बंद कर और आ के मेरी गोद में बैठ ।”

वो निचला होंठ दबाकर हंसी ।

“अरी, कम्बख्त, समय का सदउपयोग करना सीख !”

वो और हंसी । दिलकश, दिलफरेब हंसी ।
koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

“आ के एक हाई स्पीड, हाई वोल्टेज, नान फैटनिंग, लो कैलरी विटामिन एनरिच्ड पप्पी दे ।”

वो अपनी जगह से हिली भी नहीं ।

“अरी कुछ दे नहीं सकती तो कुछ ले ही ले ।”

“क्या ?”

“पप्पी ।”

“फिर पहुंच गये एक आने वाली जगह पर !”

“अच्छा, ऐसा करते हैं, एक पप्पी आधी आथी कर लेते हैं । शेयर एण्ड शेयर अलाइक । उसमें तो कोई फांसी नहीं लग रही तेरे को !”

“जाती हूं । आप उठिये, जाके मुंह धोइये, बालों में कंघी फिराइये, टाई ठीक कीजिये और स्मार्ट, मुस्तैद दिखने की कोशिश कीजिये वर्ना...”

“वर्ना क्या ?”

“क्लायंट समझेगा खैराती धर्मशाला के केयरटेकर के रूबरू था ।”

“ठहर जा, कम्बख्त !”

वो चली गयी । बीच का दरवाजा बदस्तूर बंद हो गया ।
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क्लायंट पहुंचा ।

वो कोई पचपन साल का, अच्छी तन्दुरुस्ती और अधपके बालों वाला क्लीनशेव्ड व्यक्ति था जिसने सूरत ऐसी पाई थी कि वकील न होता तो - दो जहां का मालिक झूठ न बुलवाये - या पिम्प होता या जेबकतरा होता ।

मैंने उठ कर उससे हाथ मिलाया और विराजने को बोला ।

“आई एम एडवोकेट महाजन” - वो सुसंयत स्वर में बोला - “एण्ड यू आर राज शर्मा दि फेमस पीडी, आई परज्यूम !”

“यू परज्यूम करैक्ट । क्या खिदमत कर सकता हूं मैं आपकी ?”

“खिदमत ! वही कर सकते हो जिसमें माहिर बताये जाते हो ! सुना है इस धंधे में तुम्हारे से आगे कोई नहीं !”

“दुश्मन कहते तो हैं ऐसा ।”

“दुश्मन ?”

“दोस्त भी ।”

“खुद क्या कहते हो ?”

“हीरा मुख से न कहै, लाख हमारा मोल ।”

“गुड । कबीर जी को कोट किया । यानी काबिल ही नहीं, ज्ञानी भी हो । गुड, इनडीड । चार्ज कैसे करते हो ?”

“केस पर, उसकी टाइप पर, इनवैस्टिगेशन की ड्यूरेशन पर डिपेंड करता है ।”

“केस गम्भीर है, कत्ल का है और इनवैस्टिगेशन की ऐसी दरकार है कि जितनी जल्दी कोई मुफीद, कारआमद नतीजा हासिल हो, उतना ही अच्छा होगा ।”

“कत्ल का केस ?”

“हां । कातिल गिरफ्तार है । पुलिस का दावा है कि उनके पास उसके खिलाफ ओपन एण्ड शट केस है । कथित कातिल का दावा है कि वो बेगुनाह है ।”

“हमेशा ही होता है ।”

“हां, लेकिन हमेशा ही झूठ नहीं होता; अक्सर सच भी होता है ।”

“आपको सच लगता है ?”

“हां ।”

“आपका केस से, कथित कातिल से क्या रिश्ता है ?”

“वो मेरा क्लायंट है । मैं उसका वकील हूं ।”

“सुना है आप बड़े वकील हैं ?”

“लोग कहते तो हैं ऐसा !”

“क्लायंट आपकी फीस भर सकता है ?”

“भर सकता है ।”

“मेरी ?”

“तुम्हारी फीस मैं भरूंगा । आगे क्लायंट से चार्ज करूंगा । फीस बोलो ।”

“पहले केस बोलिये, फिर मैं मुर्दे के नाप का कफन या कफन के नाप का मुर्दा पेश करूंगा ।”

“क्या !”

“फीस बोलूंगा ।”

“ओह ! क्लायंट का नाम सार्थक बराल है ।” - उसने ठिठक कर अपलक मुझे देखा - “नाम से कोई घंटी बजी ?”

“बजी तो सही ! ‘सार्थक को इंसाफ दो’ । वही ?”

उसने सहमति में सिर हिलाया ।

सार्थक बराल अपनी पत्नी के कत्ल का अपराधी था और गिरफ्तार था लेकिन आम धारणा यह थी कि उसने कत्ल नहीं किया था, वो केवल विपरीत परिस्थितियों का शिकार हुआ था और पुलिस की जल्दबाजी की वजह से, केस की तह तक पहुंचने की कोशिश न करने की पुख्ता हो चुकी आदत की वजह से थाम लिया गया था । दिल्ली पुलिस का ऐसे केसों में काम करने का स्थापित तरीका था कि जो सस्पैक्ट ऐन नाक के आगे लहराता दिखाई देता था, उसे थाम लेते थे और फिर बिना दायें बायें झांके उसी को अपराधी सिद्ध करने के अभियान पर अपना सारा जोर लगा देते थे । सार्थक बराल के सिलसिले में दिल्ली की नौजवान पीढी को ये बात हज्म नहीं हुई थी और उन्होंने एकजुट होकर सार्थक बराल को बेगुनाह साबित करने का अभियान शुरू कर दिया था । आये दिन उसके नाम पर कैंडल लाइट मार्च होती थी और ‘सार्थक को इंसाफ दो’ के नारे लगाये जाते थे और बैनर लगाये जाते थे । जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन का पक्का ठिकाना खड़ा कर लिया गया था जहां वीकएण्ड पर तो इतनी भीड़ हो जाती थी कि पुलिस को बन्दोबस्त के लिये अतिरिक्त बल तलब करना पड़ता था । सार्थक को कानूनी सहायता मुहैया कराने के लिये और नौबत आने पर उसकी नकद जमानत जमा कराने के लिये चन्दा इकट्ठा किया जा रहा था जिसकी सुना था कि बहुत उम्दा रिस्पांस थी ।
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इतनी बातें तो मुझे बाजरिया डेली पेपर्स और टीवी की न्यूज चैनल्स मालूम थीं, बाकी, तफसील से वकील ने बयान कीं जो कि इस प्रकार थीं:

पिछले महीने शुक्रवार, सोलह दिसम्बर की आधी रात को जब सार्थक बराल मोतीबाग स्थित अपने आवास पर लौटा तो उसने अपनी इक्कीस साला शरीकेहयात श्यामला को ड्राईंगरूम के फर्श पर मरी पड़ी पाया ।

एक नेक और जिम्मेदार शहरी की तरह फौरन उसने पुलिस को फोन किया और वारदात की खबर दी । पुलिस आयी, उसने मौकायवारदात का मुआयना किया, हालात का जायजा लिया और पूरी मुस्तैदी दिखाते हुए पति को, यानी सार्थक बराल को, कत्ल के इलजाम में ताजीरातेहिन्द दफा तीन सौ दो के तहत गिरफ्तार कर लिया ।

“सार्थक मेरा क्लायंट है ।” - वकील विवेक महाजन संजीदगी से बोला - “जब वो कहता है कि वो बेगुनाह है तो उसकी बेगुनाही पर ऐतबार लाना मेरा फर्ज है । पुलिस के साथ दिक्कत ये है कि एक बार गिरफ्तारी को अंजाम दे चुकने के बाद वो मुलजिम की जिम्मेदारी मानती है कि वो खुद को बेगुनाह साबित करके दिखाये । मुसीबत का मारा मुलजिम जब ऐसी कोई कोशिश करता है तो उसके कहे पर कान नहीं देती और अपनी जिद पर अड़ी रहती है कि वो ही गुनहगार है । वकील अपने क्लायंट से ऐसे पेश नहीं आता, नहीं आ सकता । कोई क्लायंट अपने वकील से झूठ नहीं बोलता । जब मेरा क्लायंट कहता है कि वो बेगुनाह है तो वो बेगुनाह है, भले ही पुलिस कुछ भी कहे ।”

“ठीक ! आप को किसने ऐंगेज किया है ? सार्थक ने ?”

“हां ।”

“आप हाईप्राइस्ड वकील हैं, वो आपकी फीस भर सकता है ?”

वो हिचकिचाया ।

मैं खामोशी से जवाब की प्रतीक्षा करता रहा ।

“इस बाबत कोई खुलासा नहीं हुआ” - आखिर वो बोला - “कोई खुल कर बात नहीं हुई क्योंकि उसकी जरूरत न पड़ी । वो क्या है कि मेरा क्लायंट सार्थक बराल है, वकालतनामा उसने साइन किया है, लेकिन फीस का अश्वासन और समुचित एडवांस मुझे ‘सार्थक को इंसाफ दो’ कमेटी से हासिल हुआ है ।”

“फीस चन्दे में से आयेगी ?”

“हां ।”

“चन्दे में गुंजायश है ?”

“है । अब तक लाखों रुपया इकट्ठा हो चुका है और अभी और हो रहा है । तुमने केस कबूल किया तो तुम्हारी फीस भी वहीं से आयेगी ।”

“फिर तो खुशकिस्मत है सार्थक बराल ।”

“इसलिये क्योंकि हर किसी को उसकी बेगुनाही पर ऐतबार है और उससे गहरी हमदर्दी है ।”

हमदर्दी अपनी जगह थी - ऐसी हमदर्दियां दिल्ली वालों को होती ही रहती थीं - लेकिन अगर बेतहाशा चन्दा जमा हो रहा था तो उसका एक ही मतलब था :

अन्धे के पीछे अन्धा लग रहा था जो कि इस शहर की खासियत थी ।

‘मर्जी हुई फकीर की, दिया झोपड़ा फूंक’ वाली किस्म की ।

मंगता क्रासिंग की रैडलाइट पर एक रुपया मांग ले तो उसको ‘माफ करो, बाबा’ बोलेंगे लेकिन ऐसी लहर में शरीक होने के लिये जेबें खाली कर देने से गुरेज नहीं करेंगे । आखिर मीडिया कवरेज होती थी, टीवी पर जुलूस की, धरना-प्रदर्शन की क्लिप्स दिखाई जाती थीं ।

अभी कल तो पड़ोसी बोला था कि ‘मैं उसे जंतर मंतर की भीड़ के एक कोने में बिजली के एक खम्बे के पीछे खड़ा दिखाई दिया था, हमारे मोंटू ने, हमारी पिंकी ने साफ पहचाना था’ ।

“आप कहते हैं आपको अपने क्लायंट की बेगुनाही पर ऐतबार है” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “ऐसा उसूलन कहते हैं या इस ऐतबार की कोई बुनियाद भी है ?”

“बुनियाद भी है ।” - वकील आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला ।

“क्या ?”

“उसके पास पुख्ता एलीबाई है जो कहती है कि कत्ल के वक्त के दौरान वो मौकायवारदात से बहुत दूर कहीं और था ।”
“हे भगवान ! तो वो इस बाबत इतने अरसे से खामोश क्यों है ?”

“किसी की इज्जत का सवाल है ।”

“इज्जत का सवाल है ! जिसकी हिफाजत उसे अपनी जान दे कर करना भी कबूल है ?”

“ऐसी बात नहीं । जब जान पर आ बनेगी तो बोलेगा ।”

“कब ? जब फांसी का फन्दा गले में होगा ?”

“जब बतौर डिफेंस अटर्नी मैं फेल हो जाऊंगा । जब बतौर पीडी उस के लिये की गयी तुम्हारी कोशिशें किसी काम नहीं आयेंगी ।”

“दिस इज नानसेंस ! शियर नानसेंस !”

वो खामोश रहा ।

“क्या है उसकी एलीबाई ? किस की इज्जत का सवाल है ?”

“ये अभी तुम्हें नहीं बताया जा सकता ।”

“आपको मालूम है ?”

“हं - हां ।”

“फिर मुझे बताने में क्या हर्ज है ? हम तो चोर चोर मौसेरे भाई हुए न !”

“मुझे चोर कह रहे हो ?”

“खुद को भी । लेकिन मुहावरे को तौर पर ।”

“मुहावरे के तौर पर भी मत कहो ।”

“ओके । बतौर वकील आप ही कैसे चुने गये ? सुना है दिल्ली में चालीस हजार चो... वकील हैं ।”

“मेरा उससे पहले से लिंक बना हुआ था । एक केस में पहले भी वास्ता पड़ चुका था ।”

“कैसा केस ?”

“ड्रग्स का केस । मारिजुआना के साथ पकड़ा गया था ।”
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Re: Thriller इंसाफ

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“मारिजुआना ! मेरे खयाल से गांजा को कहते हैं !”
“तुम्हारा खयाल दुरुस्त है ।”
“कितनी मिकदार ?”
“पचास ग्राम ।”
“मेरा दूसरा खयाल है ये तो काफी होती है लम्बा नपवाने के लिये !”
“हां । इतनी मिकदार के साथ पकड़ा जाने वाला डीलर माना जाता है, ट्रेडर माना जाता है । तीन से पांच साल की लगती ।”
“बचा कैसे ?”
“मैं हूं न !”
“क्या किया ?”
“गिरफ्तारी को अंजाम देने वाली पुलिस टीम को कल्टीवेट किया । नतीजतन बरामदी पचास की जगह एक ग्राम दर्ज की गई । इतनी बरामदी से पकड़ा गया शख्स यूजर कहलाता है । फौरन जमानत हो जाती है । बाद में केस की भी अपने आप ही हवा निकल जाती है ।”
“आई सी । कल्टीवेट कैसे किया ?”
“सोचो । समझो ।”
“नावां चढ़ाया ?”
वो खाली मुस्कराया - धूर्त भाव से - मुंह से कुछ न बोला ।
“ग्रेट ! लिहाजा काफी करतबी, काफी हजरती आदमी हैं आप ?”
“आई गैट रिजल्ट्स ।”
“फिर भी मेरी, एक पीडी की, मदद की जरूरत है ?”
“हां ।”
“किस सिलसिले में ? क्या करना होगा मुझे ?”
जवाब में उसने अपनी विजीटर्स चेयर के पहलू में लगा खड़ा अपना चमड़ा मढ़ा ब्रीफकेस उठा कर मेज पर रखा, उसे खोला और भीतर से पीले रंग का एक ए-फोर साइज का लिफाफा बरामद किया और उसे मेरे सामने मेज पर रखा ।
“इस लिफाफे में केस की मुकम्मल जानकारी है” - वो बोला - “जो कि तुम्हारे काम आयेगी । केस की तफसील एफआईआर की कापी, गवाहों के बयानात की कापीज वगैरह और एक मेरा नोट जो एक्सप्लेन करता है कि तुमसे क्या किया जाना अपेक्षित है । सब इंगलिश में है । पढ़ लेते हो न !”
“जोक मारा ! साबित किया कि आप भी कम हाजिरजवाब नहीं !”
वो हंसा, फिर तत्काल संजीदा हुआ ।
“अब फीस बोलो ।” - वो बोला ।
“आपने तो हर बात का समापन पहले ही कर दिया, मेरी बोली फीस आपको न रास आयी तो ?”
“आयेगी । कोई भी मुनासिब फीस जरूर रास आयेगी ।”
“और गैरमुनासिब ?”
“वो भी ।”
“फिर क्या बात है !”
“इस पर गौर करो” - ब्रीफकेस में से निकाल कर उसने एक चैक मेरे सामने डाला - “और फिर बोलो ये मुनासिब है या गैरमुनासिब !”
मैंने चैक उठा कर निगाह के सामने किया । तत्काल मेरे नेत्र फैले ।
एक लाख ! पेयेबल टु यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस ।
राज शर्मा - मैंने खयालों में खुद अपनी पीठ थपथपाई - दि लक्की बास्टर्ड ।
“मुनासिब ।” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “मुनासिब से ज्यादा मुनासिब । आई एम ग्लैड ।”
“आई एम ग्लैड दैट यू आर ।” - उसने अपने ब्रीफकेस का ढ़क्कन गिराया - “तो अब मैं चलूं ?”
“नहीं” - मैं तनिक हड़बड़ाता सा, जल्दी से बोला - “अभी रुकिये ।”
उसकी भवें उठीं ।
“इस चैक पर आप के साइन हैं ।” - मैं बोला ।
“तो !” - वो बोला - “तुम्हें मेरी क्रेडिबलिटी पर शक है ?”
“नहीं, बिल्कुल भी नहीं । लेकिन आपने तो फरमाया था कि मेरी फीस ‘सार्थक को इंसाफ दो’ कमेटी अदा करेगी !”
“हां । तुम यूं समझो कि कमेटी ने फीस मुझे अदा की और मैंने आगे तुम्हें अदा की ।”
“लिहाजा मेरे क्लायंट आप नहीं, कमेटी है ?”
“यही समझ लो ।”
“या क्लायंट कोई और है, कमेटी पर्दा है !”
“क्या बोला ?”
“खुद आप भी ।”
“मैं भी क्या ?”
“पर्दा हैं ।”
“ये क्या पहेलियां बुझा रहे हो, भई ?”
“वो औरत बहुत खूबसूरत है और शादीशुदा है । ठीक ?”
“कौन औरत ?”
“जिससे सार्थक बराल की आशनाई है, जो उसकी एलीबाई है, जिस की बाबत वो अपनी जुबान खोलने को तैयार नहीं, जो असल में मेरी फीस अदा कर रही है ।”
वो मुंह बाये मुझे देखने लगा ।
“सर, आई एम ए डिटेक्टिव । रिमेम्बर ?”
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Re: Thriller इंसाफ

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उसका एकाएक लटक आया जबड़ा अपने मुकाम पर पहुंचा और मुंह बन्द हुआ, एक क्षण को उसके होंठ एक रहस्यमयी मुस्कराहट में फैले, फिर वो तत्काल संजीदा हुआ ।
“मुझे खुशी है” - फिर बोला - “कि मैंने ऐन माकूल पीडी चुना है । नाओ आई एम रिलीव्ड । जाता हूं ।”
“रहस्यमयी रमणी का नाम तो बताकर जाइये ।” - मैं व्यग्र भाव से बोला ।
“क्या !”
“उन मैडम का नाम तो बता के जाइये जो कि असल में मेरी क्लायंट है ?”
“यू आर ए डिटेक्टिव । रिमेम्बर ?” - उसने मेरे अल्फाज दोहराये - “पता लगाना ।”
वो चला गया ।
मैं कुछ क्षण बड़े अरमान से चैक को घूरता रहा, फिर उठ कर खड़ा हुआ और उसके साथ बाहरले आफिस में पहुंचा ।
रिसैप्शन पर बैठी रजनी ने आहट पा कर सिर उठाया और आंख भर कर मेरी तरफ देखा ।
“क्या देखती है ?” - मैं बोला ।
“खुदा की कुदरत देखती हूं ।”
“क्या मतलब ?”
“चेहरे पर ऐसी रौनक है जैसे बिलौटे को मलाई में मुंह मारने का मौका मिल गया हो ।”
“मुझे बिलौटा कहती है !”
“लो ! मैं भला क्यों बिलौटे की हैसियत कम करने लगी !”
“ठहर जा, कम्बख्त ।”
“वो तो आप कहते हैं तो ठहर जाती हूं वर्ना मैं तो पिक्चर देखने जाने लगी थी ।”
“क्या बोला ?”
“कुछ नहीं बोला । आपके कान बजे । अब बताइये क्या हुआ ? क्लायंट को सर्र ‘दि ओनली वन’ लगे या नहीं लगे ?”
“लगे । ये देख ।” - मैंने चैक उसके सामने डाल दिया ।
उसने चैक पर निगाह डाली, फिर उसके नेत्र फैले ।
“एक, दो, तीन, चार, पांच बिंदियां ।” - वो बोली - यानी कि लाख रुपये !”
“बिन्दियां गिने बिना नहीं सूझा तेरे को ! बायें वर्ड्स में लाख लिखा नहीं दिखाई दिया ?”
“सच पूछें तो नहीं ही दिखाई दिया । इतनी बिन्दियों पर ही निगाह अटक कर रह गयी । बधाई हो । नया साल बढ़िया शुरू हुआ आपका !”
“तेरा ।”
“जी !”
“हर वक्त तनखाह का रोना रोती रहती है कि पहली आयेगी तो पता नहीं मिलेगी या नहीं । तनखाह के खाते में एडवांस जान के रख ले ।”
“मैं रख भी लूंगी !”
“रख ले ।”
“लेकिन चैक तो फर्म के नाम है ! इसको रजनी शर्मा के नाम कीजिये ।”
“अरे, कौन से स्कूल की पढ़ी हुई है...”
“कॉलेज की ।”
“...ये कैसे होगा तेरे नाम ! इसको क्लीयरेंस के लिये बैंक में डाल । जब कैश हो जायेगा तो... देखेंगे ।”
“देखेंगे... देखेंगे बोला ! यानी मुकरने की गुंजायश पहले ही रख ली !”
“नहीं रख ली । मैं कल की डेट का तेरे नाम का चैक अभी बना देता हूं ।”
“जाने दीजिये । ये चैक डिसआनर हो गया तो...”
“तेरे मुंह में खाक !”
वो हंसी ।
मैंने बात आगे न बढाई । बस, उसकी दिलकश, दिलफरेब हंसी पर ही निहाल होता रहा ।
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