Thriller इंसाफ

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Fuck_re
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Re: Thriller इंसाफ

Post by Fuck_re »

Are koushal bhai update kaha hai?
koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

मैं फरीदाबाद पहुंचा ।
सार्थक को मैं सख्त हिदायत देकर आया था कि बेवजह वो घर से बाहर कदम न रखे । उसकी हर सुख सुविधा का इन्तजाम मैं या तो करके आया था या उसे समझा के आया था कैसे कौन सा इन्तजाम फोन पर हो सकता था ।
मैटल बाक्स कारपोरेशन का आफिस तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत न हुई ।
उनका इलैक्ट्रिकल इंजीनियर दर्शन सक्सेना वहां मौजूद था ।
उसके छोटे से केबिन में मेरी उससे मुलाकात हुई ।
मुझे देखकर वो हैरान हुआ, फिर जब मालूम पड़ा कि मैं उसी से मिलने आया था तो उसके चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आये ।
“मैंने घर नहीं पहुंचना था ?” - वो बोला ।
“दरअसल” - मैंने निर्दोष मुस्कराहट से उसे नवाजा - “मैं इधर से गुजर रहा था । सोचा, मिलता चलूं ।”
“इधर से गुजर रहे थे !” - उसके स्वर में अविश्वास का स्पष्ट पुट था ।
“दूसरे, मैं उतावला जरा ज्यादा हूं ।”
“क्या चाहते हो ?”
“छोटी मोटी बात करना चाहता हूं ।”
“करो ।”
मैंने दूरबीन से सार्थक की कोठी में तांक झांक वाली बात उसे सरकाई ।
वो बहुत खफा हुआ ।
“क्या बकवास है ये ?” - वो गुस्से से बोला ।
“ये बकवास है कि आप अपने ड्राईंगरूम की खिड़की में खड़े होकर दूरबीन के जरिये अक्सर श्यामला को ताड़ते थे ?”
“हां, बकवास है । उस मादर... सार्थक ने बोला होगा ऐसा !”
“बोला तो उसी ने है !”
“फेंकता है साला । चण्डूखाने की उड़ाता है । क्योंकि मेरे खिलाफ है । क्योंकि एक बार मेरे गले पड़ा था तो मैंने पुलिस बुला ली थी । बड़ी मुश्किल से गिरफ्तार होने से बचा था । तभी से कुढ़ता भुनता है कमीना । अब वाही तबाही बक के तब की भड़ास निकालता है ।”
“हो सकता है ।”
“है ।”
“जरूर । जरूर । आपके पास तो, खुदा खैर करे, दूरबीन भी नहीं होगी !”
वो सकपकाया ।
“या है बाई चांस ?”
“है । लेकिन उस वाहियात काम के लिये नहीं है जिसका वो साला गोरखा मेरे पर इलजाम लगाता है ।”
“तो किस काम के लिये है ?”
“बर्ड वाचिंग के लिये है । हॉबी है मेरी बर्ड वाचिंग जिसके लिये मैं अक्सर ओखला जाता हूं असोला जाता हूं ।”
“बढ़िया हॉबी है । बर्ड्स को वाच करने का शौक मेरे को भी है लेकिन मैं वो जुदा तरीके से पूरा करता हूं और मेरा शौक चिड़िया फाख्ता तक ही सीमित है ।”
उसके चेहरे पर उलझन के भाव आये । प्रत्यक्षत: मेरी बात का मर्म उसके पल्ले नहीं पड़ा था ।
मैंने तसवीरों वाला वो लिफाफा जेब से निकाला जो शेफाली परमार की फैंसी मेड ने मुझे दिया था । मैंने उसमें से माधव धीमरे की तसवीर निकाली और उसे पेश की ।
“पहचानते हैं ?” - मैंने सवाल किया ।
“कहना मुहाल है । ...हम्म ...ये कम्प्यूटर प्रिंट आउट है इसलिये शार्प नहीं है । कैमरा प्रिंट होता तो... है कौन ये । क्या नाम है ?”
“नाम माधव धीमरे है । रोज़वुड क्लब में मैनेजर है । नेपाली है ।”
“नेपाली है ! ओह ! ओह ! अब आया पहचान में । ये शख्स सामने कोठी में आता जाता था । हाल ही में आया था । शायद नशे में था, क्योंकि कमला ओसवाल की कोठी की घन्टी बजा दी थी ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“कमला ने खुद बताया था । उसके गेट पर पहुंव जाने के बाद भी जिद कर रहा था कि सही जगह पहुंचा था । बड़ी मुश्किल से टला था ।”
“लगता है कमला ओसवाल से आपके अच्छे ताल्लुकात हैं !”
“हैं तो सही ।”
“फ्रेंडली ?”
“वो भी । लेकिन खबरदार जो और कुछ कहा ।”
“हो गया, जनाब, मैं खबरदार ।”
“वो तनहा औरत है । मेरी तरह कोठी में अकेली रहती है । कई बार फुरसत में मिलने चला जाता हूं एक चाय की प्याली शेयर करके लौट आता हूं । ऐनी प्राब्लम इन दैट ?”
“नो, सर, नो प्रॉब्लम । अच्छे पड़ोसियों को तो ऐसे मिलते जुलते रहना ही चाहिये ।”
“वही तो ?”
“कत्ल की रात को क्या आपने इस शख्स को देखा था ?”
“नहीं ।”
“जनाब, जरा सोच के जवाव दीजिये । दरख्वास्त है ।”
“सोच के ही जवाब दिया है । नहीं देखा था ।”
“अब ये तसवीर देखिये ।” - मैंने उसे शिखर बराल की तसवीर दिखाई ।
उसने एक उड़ती निगाह तसवीर पर डाली ।
“ये तो वही है !” - फिर बोला ।
“वही कौन ?”
“भई, वही कम्बख्त जो मेरे गले पड़ा था ।”
“सार्थक ?”
“हां ।”
“ये सार्थक की तसवीर है ?”
“हां ।”
“पक्की बात ?”
“पक्की कच्ची बात का क्या मतलब ?”
“प्लीज, जवाब दीजिये ।”
“हां, पक्की बात ।”
“जनाब, ये सार्थक के भाई की फोटो है ।”
“क्या बोला ?”
“ये सार्थक के बड़े भाई शिखर की फोटो है ?”
“तो... तुमने मुझे उल्लू बनाया !”
“नहीं, जनाब । खाली आपकी याददाश्त को, आपकी मेंटल अलर्टनैस को चैक किया ।”
“वो भी क्यों किया ?”
“सर, आई एम इनवैस्टिगेटिंग ए केस । जो जरूरी समझा, वो किया ।”
“मोटे तौर पर ये सारे गोरखे साले एक जैसे ही लगते हैं ।”
“लेकिन होते तो नहीं एक जैसे ! फिर आप कोई मामूली आदमी तो हैं नहीं ! आप तो श्यामला के मर्डर के केस में पुलिस के गवाह हैं !”
“यू सैड इट, मिस्टर प्राइवेट डिटेक्टिव, मैं पुलिस का गवाह हूं और पुलिस के पास अपनी गवाही दर्ज करा चुका हूं । केस की बाबत मेरा तुम्हारे से कोई बात करना जरूरी नहीं । ए वर्ड टु दि वाइज । नाओ, प्लीज गो अवे ।”
“अभी । अभी । एक आखिरी बात और । प्लीज ।”
“बोलो वो भी ।”
“आपने अपने बयान में कहा था कि कत्ल की रात आपने सार्थक बराल को सफेद आई-10 पर सवार अपनी कोठी से कूच करते देखा था । ठीक ?”
उसके नेत्र यूं सिकुड़े जैसे दिमाग पर जोर दे रहा हो ।
“ठीक ?”
“हां ।” - वो कठिन स्वर में बोला - “ठीक ।”
“लेकिन सार्थक के पास तो आई-10 नहीं है ! उसके पास तो सान्त्रो है !”
“सफेद है न ?”
“हां ।”
“तो मैंने सान्त्रो देखी होगी ! एक ही जैसी तो लगती हैं दोनों ।”
koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

“मैं भी यही कहना चाहता था । आपको तमाम गोरखा सूरतें एक जैसी लगती हैं, अभी आपको कार में भी कनफ्यूजन है कि सफेद सान्त्रो देखी थी या सफेद आई-10 देखी थी । या शायद सफेद रिट्ज देखी थी । क्या इसका ये मतलब नहीं कि उस रात आपने किसी और को देखा था लेकिन क्योंकि वो सार्थक की कोठी से निकला था इसलिये आपने उसे सार्थक समझ लिया था ।”
“नहीं, ये मतलब नहीं ।”
“क्यों ? क्यों ये मतलब नहीं ?”
“क्योंकि निकल लेने की हड़बड़ी में वो मेरी स्विफ्ट की टेल लाइट तोड़ कर गया था । तब उसकी भी हैडलाइट टूटी थी । अगर उस रात उसकी कार की एक हैडलाइट टूटी पायी गयी थी तो मैंने उसी को देखा था ।”
तभी उसके केबिन का दरवाजा खुला, चौखट पर एक उसी की उम्र का आदमी प्रकट हुआ और बोला - “सक्सेना, तुम्हारा इस्तीफा कबूल हो गया है लेकिन वो पहली तारीख से इफैक्टिव होगा । यानी ये महीना तुमने ड्यूटी पर आते रहना है । ओके ?”
उसने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
वो व्यक्ति दरवाजे पर से गायब हो गया ।
सक्सेना की सूरत से साफ जाहिर हो रहा था कि वो खबर मेरी मौजूदगी में डिलीवर किया जाना उसे नागवार गुजरा था ।
“नौकरी छोड़ रहे हैं ?” - मैं बोला ।
“अभी सुना तो तुमने !” - वो भुनभुनाया ।
“कोई बेहतर जॉब मिल गयी ?”
“नहीं, सन्यास धारण करके कैलाश मानसरोवर जा रहा हूं । चलोगे ?”
“नहीं, जनाब, मैं संसारी ही ठीक हूं ।” - मैं उठ खड़ा हुआ - “इजाजत चाहता हूं । सहयोग का शुक्रिया ।”
उसने जवाब न दिया ।
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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

मेरा उस रोज का अगला पड़ाव पुलिस हैडक्वार्टर था ।
इंस्पेक्टर देवेन्द्र यादव गर्मजोशी से मेरे से मिला ।
बेटे का बाप बनने की खुशी अभी भी उसके चेहरे पर थी अलबत्ता उस रोज न उसने कलेवा की फैंसी मिठाई पेश की, न उसे मेहमान के लिये कोई चाय काफी याद आयी ।
“अब तो तसल्ली हो गयी न कि लड़का ही हुआ है ?” - उसके सामने बैठता मैं बोला ।
“हां ।” - वो हंसा ।
“मेल फिक्सचर ऐन चौकस ?”
“हां, भई ।”
“फिर तो शक्ल देख ली होगी ?”
“हां ?”
“किस पर है ?”
“अरे, शेर बच्चे की शक्ल शेर पर ही होगी ।”
“यानी उस रोज का मूंछ का ताव काम आ गया । शिवेन्द्र सिंह यादव अपने रोबीले बांके छबीले बाप का अक्स है ?”
“हां ।”
“फिर से बधाई ।”
“बधाई कबूल । कैसे आया ? ...नहीं पहले मेरी बात सुन ।”
“कोई खास बात है ?”
“तेरे लिये खास है ।”
“सुनाओ ।”
“तेरी शिकायतें पुलिस के पास पहुंच रही हैं ।”
“कौन कर रहा है ?”
“वही लोग कर रहे हैं जिनसे तू पंगे ले रहा है ।”
“मसलन कौन ?”
“अमरनाथ परमार ने की है । तूने उसके घर में घुसकर उसके साथ बद्जुबानी की ।”
“झूठ ! बल्कि उसने मेरे साथ बेजा व्यवहार किया । मुझे बेइज्जत करके निकाला, दुत्कार के भगाया ।”
“शर्मा, बिना बुलाये मेहमान का ऐसी शिकायत करना नहीं बनता । वो बड़ा आदमी है, रसूख वाला आदमी है, वीआईपी है । उससे अप्वायंटमेंट लेकर उससे उसकी बिजनेस प्लेस पर मिलने की जगह उसकी कोठी पर पहुंच गया ! क्या हैसियत है तेरी उसके मुकाबले में ?”
“अगर बेटी के खून से उसके हाथ रंगे पाये गये तो तमाम रुतबा, हैसियत, रसूख धरा रह जायेगा । तब वो वीआईपी नहीं होगा, सजा का मुन्तजिर मुजरिम होगा ।”
“ख्वाब देख रहा है ।”
“और किसने की शिकायत ?”
“उसके सुपुत्र शरद परमार ने जिससे तूने कई लोगों के सामने रोज़वुड क्लब में मारपीट की ।”
“कुपुत्र शरद परमार । और मारपीट न की, खाली एक छोटी सी धक्की दी जो उस शराब की बैरल से सम्भाली न गयी, नाहक लुढ़क गया । वो भी इसलिये दी क्योंकि बहन से गन्दी, गाली गलौज की, बल्कि गटर वाली जुबान बोल रहा था और शरेआम उस पर हाथ उठाने जा रहा था ।”
“‘रॉक्स’ में जा के पंगा लिया । बारमैन के गले पड़ने की कोशिश की । मालिक दखलअन्दाज हुआ तो टला ।”
“ऐसा मालिक ने, रॉक डिसिल्वा ने कहा ?”
“हां ।”
“यानी छाज तो बोले ही बोले, छलनी भी बोले !”
“शुक्र मना कि मुंह जुबानी शिकायतें हुईं, एफआईआर की नौबत नहीं आयी । इसलिये तू सेफ है । फिलहाल । फिलहाल बोला मैंने ।”
“सुना मैंने ।”
“अमरनाथ परमार बड़ा आदमी है । रूलिंग पार्टी का एक पावरफुल नेता और सिटिंग एमपी उसका साला है । और भी बहुत ऊपर तक उसकी पहुंच है । उसके साथ पगा लेगा तो पछतायेगा ।”
“कातिल निकला तो एमपी बचा लेगा ? ऊपर तक की पहुंच बचा लेगी ?”
“निकाल के दिखा ।”
“कोशिश में तो हूं !”
“जब कामयाब हो जाये तो पसरना । अभी काबू में रह ।”
“सलाह के लिये शुक्रिया ।”
“शुक्रिया तो हुआ, सलाह मानेगा भी कि नहीं ?”
“मानूंगा ।”
“अच्छा करेगा । अपना ही भला करेगा । अब बोल, क्या किया अब तक ? क्या तीर मारा ?”
“बोलता हूं लेकिन पहले तुम बोलो ।”
“मैं क्या बोलूं ? कल सार्थक की जमानत हो गयी, मालूम पड़ा ही होगा । न मालूम पड़ने वाली कोई बात ही नहीं । आज अखबार में बाकायदा न्यूज थी ।”
“मैंने देखी थी ।”
“हमने बाजरिया सरकारी वकील जमानत की भारी मुखालफत की थी लेकिन बीस लाख की कैश बेल हमारी मुखालफत पर भारी पड़ी । बताओ तो ! किसी गुमनाम डोनर ने बेल अमाउन्ट को सप्लीमेंट करने के लिये छ: लाख रुपये कैश सरका दिये । हमें डोनर का पता लग जाये सही, फिर सबसे पहले उससे यही सवाल करेंगे कि क्या वो वाइट मनी है ! वाइट मनी है तो पेमेंट चैक या ड्राफ्ट से क्यों न की ! उस पर टैक्स भरा ? इतनी हैवी कैश ट्रांजेक्शन कानूनन जुर्म है । डोनर काबू में आ जाये सही, बहुत कुछ एक्सप्लेन करना पड़ेगा उसे ।”
“आयेगा तब न !”
“क्यों नहीं आयेगा ? ऐसी बातें नहीं छुपती । अन्त पन्त खुल के रहती हैं । देखना, वो खुद ही डींग हांकने लगेगा कि उसकी वजह से छोकरे की जमानत हो पायी थी ।”
“मुझे उम्मीद नहीं । उसने ऐसा करना होता तो आगे कैश सरकाने का रिस्क न लिया होता जिसमें कि भांजी मारी जा सकती थी ।”
“तू छोड़ वो बातें । तू न पुलिस की सलाहियात को जानता है, न ह्यूमन नेचर को ज्यादा समझता है । तू ये बोल, कैसे आया ?”
“कुछ पूछने का खयाल लाया ।”
“क्या पूछना चाहता है ?”
“तुमने बोला था कि कत्ल की रात को माधव धीमरे ‘रॉक्स’ में था । कैसे मालूम ? कोई एलीबाई पेश की ?”
“की न ! पहले बोला तो था ! वो वहां शरद परमार की सोहबत में था ।”
“शरद परमार उस रात फुल टुन्न था । इतना कि नशे में बहन की कार ठोक दी थी । उसकी आई-10 को बिजली के खम्बे में दे मारा था ।”
“मालूम है । कार भी देखी थी मैंने । कोई खास डैमेज नहीं किया था । खाली बायीं हैडलाइट फोड़ी थी ।”
“मैं अभी फरीदाबाद से आ रहा हूं जहां कि मैं उसकी वर्क प्लेस पर दर्शन सक्सेना से मिला था । यादव साहब, हत्या की रात का वो पुलिस का गवाह है सार्थक के खिलाफ लेकिन नहीं जानता कि सार्थक जो कार चला रहा था वो सान्त्रो थी या आई-10 थी । जमा, रात का वक्त था और आसमान में कोई पूर्णमासी का चान्द नहीं निकला हुआ था । और जमा, उसकी कोठी के सामने की दो स्ट्रीट लाइट्स के बल्ब फ्यूज थे । अभी और जमा, अपनी जुबानी कबूल करता है कि उसे सारे नेपाली एक जैसे लगते हैं ।”
“ऐसा कहता है वो ?”
“बराबर कहता है । अपनी सोच का सबूत भी दिया ।”
“कैसे ?”
“मैंने उसे शिखर बराल की तसवीर दिखाई, उसने उसे सार्थक बताया ।”
“सच कहता है, शर्मा ?”
“अरे, मैं ऐसी बात में झूठ क्यों बोलूंगा जिसकी तसदीक दूसरे सिरे से की जा सकती है ? बात करना उससे ।”
“मैं करूंगा ।”
“मेरा सवाल ये है कि क्या ऐसा गवाह कोर्ट में टिक पायेगा ?”
वो चिन्तित दिखाई देने लगा ।
“ये सरकारी वकील की सिरदर्द है ।” - फिर तनिक झुंझलाता सा बोला - “उसका काम है सुनिश्चित करना कि गवाह ने पुलिस को जो बयान दिया है, वो उससे हिलने न पाये ।”
“वो सुनिश्चित न कर पाया तो किरकिरी तो पुलिस की होगी !”
“हां, यार ।”
“इस सन्दर्भ में अब माधव धीमरे की एलीबाई पर पुनर्विचार करो । क्या उसके इस दावे में झोल नहीं हो सकता कि कत्ल की रात को वो शरद परमार के साथ ‘रॉक्स’ में था ?”
“भई, सिर्फ वो ही तो ऐसा नहीं कहता ! ओनर रॉक डिसिल्वा इस बात की तसदीक करता है । बारमैन विशू मीरानी इस बात की तसदीक करता है ।”
“मैं दोनों से मिल चुका हूं । मुझे दोनों में से कोई भी खास भरोसे का, ऊंचे किरदार का आदमी नहीं लगा था ।”
“तुमने इस बाबत उनसे सवाल किया था ?”
“सीधे सवाल नहीं किया था, घुमा के कुछ पूछा था ।”
“क्या ?”
“कुछ बोला था जो इशारे में पूछने जैसा ही था ।”
“अरे, क्या ? क्या बोला था ?”
“ये कि पड़ोस की कमला ओसवाल कहती है कि कत्ल की रात को उसने माधव धीमरे को मकतूला की कोठी में दाखिल होते देखा था ।”
“ब्लफ मारा ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“उन्हें हिलाने के लिये । अगर धीमरे की एलीबाई में कोई झोल था तो ये बात उसे बढ़िया हिला सकती थी ।”
“वो तुझे झूठा करार दे सकता था ।”
“मुझे झूठा करार देने के लिये उसे कमला ओसवाल को बीच में लाना पड़ता जो कि उपलब्ध नहीं ।”
“हूं ।”
“यादव साहब, मुझे तो कमला ओसवाल की कोठी को लगी आग में भी कोई भेद लगता है ।”
“क्या भेद लगता है ? एक हादसा था वो । बेध्यानी में कहीं सुलगा हुआ सिग्रेट छोड़ दिया जो कि कोठी को लगी आग की वजह बना ।”
“आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि हादसा था ।”
“मैं कहता हूं ।”
“ठीक है । अब एक दूसरी बात पर विचार कीजिये ।”
“वो भी बोलो ।”
“अमरनाथ परमार देवली के एक खास इलाके में आनन फानन जमीन और मकान खरीद रहा है क्योंकि उसका दुबई के किसी बिल्डर के साथ मेजर टाईअप वजूद में आने वाला है । उस प्रोजेक्ट में उसका एमपी साला भी उसकी मदद कर रहा है ।”
“वो क्या मदद कर रहा होगा ?”
“सुनिश्चित करता होगा कि सरकारी महकमात से डीलिंग में उसे कोई दिक्कत पेश न आयें जो कि आ सकती हैं क्योंकि काफी सारी खरीद बेनामी से हो सकती है । बेनामी की खरीद में खरीदार से सवाल हो जाता है कि वो इनवेस्टमेंट का सोर्स उजागर करे । कमेटी वाले अड़चनें लगाने लगते हैं । रजिस्ट्रार के दफ्तर में प्रॉपर्टी ट्रांसफर और रजिस्ट्रेशन में खुल्ली रिश्वत चलती है । ऐसी समस्यायें परमार के साथ पेश न आयें, इसका ध्यान नेताजी रखता होगा ।”
“हो सकता है, भई ।”
“और सबसे करारी बात ये है कि बेनामी डीलर में कमला ओसवाल की एक्टिव पार्टीसिपेशन है ।”
“अच्छा !”
“अब तक जो सवा सौ मकान परमार ने खरीदे हैं उनमें से तीस अकेली कमला ओसवाल के नाम हैं ।”
“क्या बात करता है !”
“यकीन करो मेरा । ये कनफर्म्ड न्यूज है ।”
“चलो, कबूल कि ये सब कुछ है । इसका कत्ल के केस से क्या रिश्ता है ?”
“आग के केस से हो सकता है ।”
“क्या ?”
“ये कि आग इत्तफाकन न लगी, इरादतन लगाई गयी ।”
“क्यों ?”
“कमला ओसवाल के लिये वार्निंग के तौर पर । बेनामी खरीद के मामले में कोई ऐसे ही किसी का भरोसा नहीं कर लेता, पहले उस शख्स को अच्छी तरह से हिला डुला के देखा जाता है, अच्छी तरह से परखा जाता है, उसे मुकम्मल तौर पर वफादार पाया जाता है तो तभी उस पर भरोसा किया जाता है लेकिन फिर भी लालच के हवाले कोई न कोई दगाबाजी पर उतर आता है । तब ताकत वाले लोग उसे लाइन पर वापिस लाने के लिये ताकत इस्तेमाल करते हैं । समझो कि कमला ओसवाल लाइन से बाहर जा रही थी, उसको लाइन पर लाने के लिये पहला कदम ये उठाया गया कि उसका घर जला दिया गया । नहीं बाज आयेगी तो अगली बार और गम्भीर वार्निंग होगी ।”
“शर्मा, बहुत खतरनाक बात कर रहा है !”
“तुम खतरे की छोड़ो, तुम बोलो ये बात तुम्हें मुमकिन लगती है या नहीं ?”
“जैसे तू कह रहा है, वैसे तो लगती है !”
“मैं और कहूं तो कमला ओसवाल गायब भी इसी वजह से है ।”
“जो शक्ल तुम बात को दे रहे हो, उसकी रू में हो सकता है । लेकिन तुम्हारा ये अन्दाजा ही तो है कि आग लगी नहीं, लगाई गयी थी ! इस बात को साबित करने के लिये तो तुम्हारे पास कुछ नहीं है न !”
“कुछ तो है !”
“क्या ?”
“मैं कोठी में घुसा था...”
“क्या ! शर्मा, दैट इज ट्रैसपासिंग ! दैट इज ऐन इललीगल एक्ट ।”
“अरे, सुनो तो ।”
“ओके । सुनाओ ।”
“कोठी में फ्रंट यार्ड को बैक यार्ड से कनैक्ट करने वाला साइड से एक छोटा सा अनकवर्ड पैसेज है । उस रास्ते से मैं पिछवाड़े में गया था जहां कि एक बरामदा है और जहां बिजली के मीटर हैं । वहां मैंने कुछ देखा था ।”
“क्या ?”
“इस बात की चुगली करने वाला कुछ कि आग सिग्रेट से नहीं, शार्ट सर्कट से लगी थी ।”
“क्या !”
“कुछ तारें यूं नंगी की गयी थीं कि शार्ट सर्कट होता ही होता ।”
“यानी वो आग एक्सीडेंट नहीं था, बाजरिया इलेक्ट्रिक शार्ट सर्कट अरेंज की गयी थी ।”
“हां ।”
“यानी अब एक आरसन (ARSON) का केस खड़ा है पुलिस तफ्तीश के लिये ।”
“मेरी बात पर ऐतबार लाओ तो खड़ा है वर्ना क्या फर्क पड़ता है !”
“नजरअन्दाज तो नहीं किया जा सकता अब इस बात को ! मैं मोतीबाग थाने से और फायर ब्रिगेड से बात करूंगा ।”
“करना ।” - मैं उठता हुआ बोला - “मैं फिर आऊंगा ।”
“फोन करना ।”
मेरी भवें उठी ।
“मिजाज क्या दिखाता है ? खाली मोतीबाग में ही तो कत्ल नहीं होता ! ये दिल्ली है, दो करोड़ की आबादी वाली । यहां रोज कत्ल की वारदात होती है । तू भूल गया जान पड़ता है कि मैं किस महकमे में हूं !”
“भूल ही गया था । ठीक है, फोन करूंगा ।”
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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

मैं सैनिक फार्म पहुंचा ।
‘रॉक्स’ पर उल्लू बोल रहे थे ।
मेन डोर पर एक गत्ते का साइन लटक रहा था जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में दर्ज था :
BAR IS CLOSED
बार बन्द है
वहां ये जानने का कोई साधन नहीं था कि बार उस रोज बन्द था, थोड़े अरसे के लिये बन्द था या हमेशा के लिये बन्द था । मैं वहां से रवाना हुआ, मैंने ग्रेटर कैलाश का रुख किया ।
मेरे अपने फ्लैट पर पहुंचने तक टाइम पांच से ऊपर का हो चुका था ।
सार्थक फ्लैट में नहीं था ।
बाहरले कमरे में सैंटर टेबल पर रखी ऐश ट्रे के नीचे एक कागज फड़फड़ा रहा था । मैंने कागज वहां से निकाला और उस पर निगाह दौड़ाई ।
वो एक रुक्का था जिस पर दर्ज था :
यहां दम घुट रहा है ।
हवा खाने जा रहा हूं । लौटता हूं ।
सार्थक
नाम के नीचे सवा एक बजे का टाइम दर्ज था । तब सवा पांच बजे थे । चार घंटे से हवा जा रहा था पट्ठा ।
मैं नीचे ग्राउन्ड फ्लोर पर पहुंचा ।
ग्राउन्ड फ्लोर पर मेरे वयोवृद्ध लैंडलार्ड ओक साहब रहते थे जो कि विद्वान व्यक्ति थे और इंगलैंड अमरीका तक मशहूर इतिहासविज्ञ थे । हर घड़ी बाहरले बरामदे में पाये जाते थे जो कि उनकी स्टडी केस थी, रिलैक्सेशन प्लेस थी, रैस्टरूम था । बरामदे में एक अरामदेय दीवान था, जब जरूरत महसूस करते थे उस पर पड़ जाते थे, उठते थे तो रॉकर पर शिफ्ट हो जाते थे और अपने लिखने पढ़ने के शौक में मशूगल हो जाते थे ।
मैंने उनसे अपने मेहमान की बाबत सवाल किया ।
मालूम हुआ उन्होंने सवा एक बजे उसे वहां से रुखसत पाते नहीं देखा था ।
क्या बड़ी बात थी ! उनकी तवज्जो तो कहीं और ही होती थी । उनसे पूछना ही गलत था । पूछ कर यूं समझिये कि मैंने उम्मीद के खिलाफ उम्मीद की थी कि उन्होंने कुछ देखा होगा ।
मैं वापिस फ्लैट में लौटा ।
मैंने एडवोकेट महाजन को काल लगाई लेकिन काल न लगी ।
काल बैक की प्रतीक्षा में मैंने बैडरूम में जा कर टीवी चलाया और बैड पर ढ़ेर हो गया ।
सात बजे उसकी काल आयी ।
मेरे मुंह खोल पाने से पहले ही वो बोल पड़ा - “सॉरी, तुम्हारी काल की तरफ तवज्जो न दे सका । बहुत बिजी था । अभी फारिग हुआ ।”
“क्या हुआ ?” - मैंने सशंक भाव से पूछा ।
“बुरा हुआ । शिखर बराल हस्पताल में है ।”
“अरे ! क्या हुआ उसे ?”
“फौजदारी हुई । खोपड़ी खुल गयी । दो पसलियां टूट गयीं । छोटी मोटी चोटें तो कई आयीं ।”
“लेकिन हुआ क्या ?”
“कहता है माधव धीमरे और शरद परमार ने धुन दिया ।”
“लेकिन क्यों ?”
“मालूम नहीं । अभी वो ठीक से कुछ बताने की हालत में नहीं है ।”
“लेकिन माधव धीमरे और शरद परमार का नाम साफ लिया ?”
“हां ।”
“कब की बात है ?”
“दोपहर के करीब की ।”
“कहां हुई फौजदारी ?”
“सैनिक फार्म की शापिंग माल की पार्किंग में ।”
“कोई, गवाह ?”
“कोई नहीं ।”
“पुलिस को बयान दे चुका ?”
“टूटा फूटा । डिटेल में बयान अभी देगा जबकि ऐसा कर पाने के काबिल हो जायेगा ।”
“आपको खबर कैसे लगी ?”
“पुलिस से लगी । पुलिस में एक वाकिफ था जो जानता था कि मैं सार्थक का वकील था । उसने सोचा उसके भाई के साथ हुए हादसे में मेरी दिलचस्पी होगी । उसने फोन लगा दिया मुझे ।”
“जब शिखर ने अपने हमलावरों की निशानदेयी की है तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया ? गिरफ्तार न सही, पूछताछ के लिये तो तलब किया होना चाहिये !”
“अभी वो दोनों उपलब्ध नहीं हैं ।”
“या मजाल नहीं हो रही परमार के पिल्ले पर हाथ डालने की...”
“शर्मा, माइन्ड मुलर लैंग्वैज ।”
“...‘रोज़वुड’ के मैनेजर पर हाथ डालने की क्योंकि परमार उसका प्रेसीडेंट है !”
“फोन कैसे किया था ?”
“मेरे पास भी बुरी खबर थी, सोचा आप सुनना चाहेंगे ।”
“ओ, गॉड । क्या ?”
“सार्थक गायब हो गया है ।”
“गायब हो गया है ! तुम्हारे फ्लैट से ?”
“हां । मैं उसे चेता के गया था कि उसने वहां से बाहर कदम नहीं रखना था लेकिन दोपहर को निकल किया । पीछे रुक्का छोड़ गया ‘दम घुट रहा है, हवा खाने जा रहा हूं, लौटता हूं’ ।”
“नहीं लौटा ?”
“सात घंटे हो गये हैं । अभी तक तो नहीं लौटा !”
“तुम्हारा क्या खयाल है, लौटेगा ?”
“मुझे तो उम्मीद नहीं । लौटना होता तो कबका लौट आया होता । जिम्मेदार बन के दिखाया होता तो गया ही न होता । मुझे तो लगता है कि न सिर्फ खिसक गया, बल्लि अब ऐसा गायब होगा कि ढूंढ़े नहीं मिलेगा ।”
“ईडियट ! सुपर ईडियट !”
“मैं !”
“अरे नहीं, भई, सार्थक । जो कत्ल के केस में हुई बेल जम्प करने का नतीजा नहीं जानता । बेल की रकम तो जब्त होगी ही, यूं अपने अपराध को समझो कि उसने खुद मोहरबन्द कर लिया । कम्बख्त ने ये भी न सोचा कि कितनी मेहनत से, कितनी मशक्कत से ‘सार्थक को इंसाफ दो’ कमेटी ने उसके लिये इतनी बड़ी रकम जमा की थी । खुद को तो मुसीबत में डाला ही, अपने हिमायतियों को भीं कोलोसल लैट डाउन दिया । पुलिस उसकी तलाश में जमीन आसमान एक कर देगी । कोर्ट की जो हमदर्दी उसे हासिल हुई थी, मूर्ख ने खुद उस पर खाक डाल दी । अब उसके खिलाफ नानबेलेबल वारन्ट जारी होगा, आल पायन्ट बुलेटिन जारी होगा, कोर्ट ने उसकी हरकत का और गम्भीर संज्ञान लिया तो शूट एट साइट आर्डर जारी होगा ।”
“ओह, नो !”
“वाई नो । भगोड़ा है वो । यही दर्जा होगा अब उसका कानून की निगाह में ।”
“ओह !”
“शर्मा, तुमने भी जो जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी गयी थी, उसे गम्भीरता से नहीं लिया । मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।”
“क्या करता मैं ! उसको हथकड़ी बेड़ी पहना कर रखता ! गन ले के हर घड़ी उसके सिरहाने खड़ा होता ? मुझे मालूम होता कि वो ऐसी हरकत करेगा - बल्कि आपको मालूम होता - तो क्या आप उसकी बेल करवाने की कोशिश करते ! वो भी की तो क्या आपको उसके मिजाज की, उसके मंसूबे की कोई भनक थी ! थी तो क्यों आपने उसे मेरे मत्थे मंढा ?”
“तुम्हें मालूम है क्यों ऐसा किया गया था ! ताकि वो मीडिया की प्रोबिंग, पब्लिक की निगाहों से दूर रहता ।”
“यानी आपको इमकान नहीं था वो फरार हो जायेगा ?”
“नहीं था ।”
“तो मुझे कैसे होता ?”
“ठीक ! ठीक ! लेकिन अब एक बड़ी प्राब्लम तो मुंह बाये खड़ी है न ! उसकी जमानत की एक अहम शर्त ये भी थी कि हर सुबह दस बजे उसने अपने थाने की हाजिरी भरनी थी और ये हाजिरी उसके वकील ने - यानी कि मैंने - सुनिश्चित करनी थी । अब कल क्या करूंगा मैं ! कैसे ये बात आम होने से रोकूंगा कि मेरा क्लायंट बेल जम्प कर गया था ?”
“क्या पता वो लौट आये !”
“ऐसी होपफुल सोच की कोई वजह ?”
“वजह तो कोई नहीं ! बस, उम्मीद के खिलाफ उम्मीद की है ।”
“नहीं पूरी होने वाली ।”
“आपके मुंह में घी शक्कर ।”
“अरे, मैंने कोई बुरा बोल नहीं बोला, सिर्फ ये कहा है कि ऐसे उम्मीदें पूरी नहीं होतीं । वो कहते नहीं कि इफ विशिज वर हार्सिज, ऐवरीबॉडी वुड हैव बिन राइडिंग दैम ।”
“एक बात बतायें । उसके शुभचिन्तक का, उस रहस्यमय दानकर्ता का जिसने छ: लाख रुपये नकद सरकाये, सार्थक की फरारी से कोई रिश्ता हो सकता है ?”
“हो तो सकता है, भई । खुद तुम्हारा क्या खयाल है ?”
“मेरे को तो पूरा पूरा रिश्ता उसी का लगता है । सार्थक ने कतई कोई ऐसा मिजाज नहीं दिखाया था कि वो खिसक जाने की फिराक में था । मेरे फ्लैट में टिका रहने को वो राजी था । बस, एक सवाल उसने किया था कि मैं घर में विस्की रखता था या नहीं, और कैन्ड स्टॉक की क्या पोजीशन थी ।”
“इसका मतलब है उसे बहकाया गया । जो कदम उसने उठाया उसके लिये प्रोम्प्ट किया गया और ये काम सीक्रेट डोनर ने किया !”
“उसको कैसे खबर हो सकती थी कि प्रोम्प्ट करने के लिये वो कहां उपलब्ध था !”
“सार्थक सीक्रेट डोनर को जानता होगा...”
“मैं नहीं मानता ।”
“...तुम्हारे पीठ फेरते ही खुद उसने उसे फोन किया होगा ! ऐसे उसे मालूम हुआ होगा कि सार्थक कहां था ।”
“हूं ।”
“फिर अभी गारन्टी कहां है कि सब किया धरा सीक्रेट डोनर का है !”
“कोई तो इस काम में उसका स्पांसर बराबर है । इतना बड़ा कदम वो अपने बलबूते पर नहीं उठा सकता । कोई स्पांसर मुझे सूझता है तो वो सीक्रेट डोनर ही है ।”
“शिखर ?”
“हस्पताल में न पड़ा होता तो मैं उसके नाम पर विचार कर लेता ।”
“ससुरा ?”
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