Thriller इंसाफ

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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

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“कत्ल पर आमादा कोई नहीं हो जाता ।”
“श्यामला का भाई कहता है कि सार्थक अक्सर श्यामला पर हाथ उठा बैठता था ?”
“कौन कहता है ?”
“पुलिस का इनवैस्टिगेटिंग आफिसर कहता है ।”
“नानसेंस । सार्थक ऐसा नहीं था । वो औरत पर - वो भी अपनी बीवी पर - हाथ नहीं उठा सकता था ।”
“साला शरद परमार ऐसा कहता है ।”
“उसकी क्या बात है ! जिस शख्स के कोई खिलाफ हो, उसके बारे में वो कुछ भी बकता है । फिर शरद परमार क्यों नहीं बकेगा ! साला साला जो ठहरा !”
“अपने दोस्त को बहुत बढ़िया डिफेंड कर रहे हैं आप !”
“मुझे उससे हमदर्दी है, खासतौर से इसलिये कि उसके इन-लॉज़ तो उसके साथ ऐसे पेश आ रहे हैं जैसे साबित हो भी चुका हो कि वो बीवी का हत्यारा था, बस अभी फांसी होने की देर थी । मिस्टर शर्मा” – वो व्यग्र भाव से बोला - “मुझे नहीं पता कि तुम कितने काबिल पीडी हो लेकिन अगर श्यामला के असल कातिल को ढूंढ़ निकालोगे तो ये सार्थक पर ऐसा उपकार होगा जिसके लिए जो जन्म जन्मान्तर के लिए तुम्हारा कजाई होगा ।”
“अगर वो बेगुनाह है तो बेगुनाह साबित हो के रहेगा । ऊपर वाले के घर देर है अन्धेर नहीं है । असली कातिल की तलाश में मैं अपनी कोई कोशिश उठा नहीं रखूंगा ।”
“मिस्टर शर्मा, अगर ऐसा आप कर सके तो ‘पिकाडिली’ में आपके लिये ये महीना ड्रिंक्स आन दि हाउस ।”
“फिर तो मैं जरूर ही करूंगा । इतना बड़ा इंसैंटिव भला मैं कैसे छोड़ सकता हूं !”
“यू आर मोस्ट वैलकम । फिर यहां सार्थक ही आप को सर्व करेगा ।”
“सूपर !”
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एक बजे मैं रोज़वुड क्लब पहुंचा ।
और रिसैप्शन पर पेश हुआ ।
“आई एम राज शर्मा ।” - मैं बोला – “मैं यहां...”
“यस, सर ।” - रिसैप्शनिस्ट तपाक से बोला – “यू आर एक्सपैक्टिड ।”
उसने करीब खड़े एक वेटर को रोका और उसे मुझे मैडम शेफाली परमार के पास पहुंचाने का हुक्म दिया ।
वेटर ने मुझे मेन हाल में पहुंचाया जहां कि बार से दूर, उसके दूसरी तरफ के सिरे की एक टेबल पर वो मुझे लेकर आया जहां कि शलवार कमीज और मैचिंग कार्डीगनधारी एक युवती बैठी थी ।
मुझे उसमें वो फैमिली रिजेम्बलेंस न दिखाई दी जो पिछले रोज शरद में दिखाई दी थी ।
“हल्लो !” - मैं जबरन मुस्कराता बोला ।
उसने सिर उठाया ।
“मिस्टर शर्मा !” - वो बोली ।
“दि ओनली वन ।” - मैं सिर नवा कर बोला ।
“आफकोर्स ! आफकोर्स ! प्लीज सिट डाउन ।”
“थैंक्यू । शेफाली ही हो न !”
“हां ।”
“जिसने मुझे सुबह काल करके सोते से जगाया था !”
“आई एम सॉरी । मालूम होता कि लेट उठते हो तो लेट फोन करती ।”
“नैवर माइन्ड ।”
“थैंक्यू । मे आई आफर यू ए ड्रिंक बिफोर वुई आर्डर लंच ?”
“यस, प्लीज । आई नैवर से नो टु ए फ्री ड्रिंक ।”
“वाट विल यू हैव ?”
“ऐनी सिंगल माल्ट । बैगर्स आर नाट चूजर्स ।”
“यू टाक नाइस । विल ग्लैनफिडिक डू ?”
“इट दिल डू वैरी वैल ।”
उसने वेटर को बुला कर अपने लिये ‘मिंट जेलप’ काकटेल और मेरे लिये ग्लैनफिडिक का आर्डर दिया ।
आर्डर सर्व हुआ ।
हम दोनों ने ‘चियर्स’ बोला ।
“कल पापा और शरद” - फिर वो बोली - “तुम्हारे से ठीक से पेश नहीं आये, इसका मुझे अफसोस है ।”
“नैवर माईन्ड । जो बीत गयी, सो बीत गयी ।”
“सो नाइस आफ यू । तो तुम पापा से सार्थक के बारे में कुछ बात करना चाहते थे ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“मैं डिटेक्टिव हूं मेरा काम है डिटेक्ट करना । ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करने की कोशिश करना ।”
“भले ही वो किसी काम की न निकले ।”
“वो बाद की बात होती है । भूसे से गेहूं अलग करना बाद की बात होती है ।”
“हूं । जो पूछना है, अब मेरे से पूछो ।”
“तुम्हें सब मालूम है ?”
“सब कैसे मालूम होगा ? कहां से मालूम होगा ? लेकिन जो पापा को मालूम है, जो शरद को मालूम है, वो मुझे मालूम है । हम आपस में कुछ नहीं छुपाते ।”
“दैट्स वैरी गुड ! वैरी एनकरेजिंग !” - मैंने एक क्षण ठिठक कर विस्की का एक घूंट पिया फिर बोला – “सुना है सार्थक कभी यहां बतौर रिसैप्शनिस्ट एम्पलायड था ?”
“ठीक सुना है । तभी तो श्यामला को अपने पर आशिक करवाया था !”
“सुना है तब उसने किसी मेम्बर के अपने पास सेफकीपिंग के लिए छोड़े गये बैग से दस हजार रुपये चुराये थे ?”
“ऐसा एक वाकया हुआ जरूर था लेकिन जो तुमने सुना है, उसमें दो खामियां हैं ।”
“अच्छा ?”
“हां । रकम दस नहीं, चार हजार थी और वो हरकत सार्थक की नहीं, उसके बड़े भाई शिखर की थी ।”
“शिखर की थी ! उसका यहां क्या काम ?”
“कोई काम नहीं । लेकिन आता था अक्सर । कभी भाई से मिलने । कभी किसी कैजुअल या परमानेंट जॉब की तलाश में ।”
“कैजुअल भी !”
“कभी कोई बड़ी ईवेंट होती है तो यहां ऐसी गुंजायश होती है । जैसे आजकल यहां आल इन्डिया चैस टूर्नामेंट का आयोजन है ।”
“लिहाजा वो अभी भी यहां चक्कर लगाता है !”
“नहीं, अब नहीं । तभी तक आता था, जब तक सार्थक यहां एम्पलाई था ।”
“आई सी । तो तुम्हारे खयाल से शिखर ठीक बन्दा नहीं था !”
“मिलके देखो । फिर खुद फैसला करना इस बाबत ।”
“मिला तो हूं ! लेकिन इस निगाह से नहीं मिला था ।”
“इस बार इस निगाह से मिल लेना ।”
“सोचूंगा मैं इस बारे में । बाई दि वे, क्या करती हो ?”
“क्या करती हूं ?”
“आई मीन, वाट इज युअर लाइन आफ बिजनेस ?”
“ओ, दैट ! कोई इन्डीपेंडेंट लाइन आफ बिजनेस नहीं है । पापा के रीयल एस्टेट बिजनेस में उनका हाथ बंटाती हूं ।”
“जायन्ट फैमिली का कन्सैप्ट इस सिलसिले में काफी कारगर साबित होता है ।”
“मैं जायंट फैमिली नहीं हूं । मैं अलग रहती हूं । सैक्टर तीन, पुष्पा विहार में मेरा अपना फ्लैट है । आना कभी ।”
“आई विल हैव दि ऑनर । भाई भी अलग रहता है ?”
“नहीं, वो ममी पापा के साथ रहता है । उसे पापा की छत्रछाया रास आती है । मुझे इन्डीपेंडेस पसन्द है ।”
मैंने अपलक उसे देखा ।
“जो सोच रहे हो, वही बात है ।” - वो निर्भीक भाव से बोली – “वही बात है जो मन में है लेकिन जुबान पर नहीं ला पा रहे हो । आई हैड ए लिव-इन रिलेशन विद ए गाई । जायन्ट फैमिली में ऐसा कैसे चलता !”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
“यू सैड यू हैड !” - फिर बोला ।
“हां । अफसोस कि चला नहीं ।”
“उसी का नुकसान हुआ !”
“तुम ऐसा सोचते हो तो शुक्रिया ।”
“शिकायत क्या हुई उसे ?”
“बता दूं ?”
“मर्जी है तुम्हारी ।”
“कहता था मैं तो कटखनी, जंगली बिल्ली थी ।”
“अरे !”
“कहता था तो कहता था, समझता था तो समझता था, लेकिन साला हरामी साल बाद बोला ऐसा ।”
“फिर तो भंवरा हुआ ! कली का रस चूसा और उड़ गया ।”
“हां ।” - उसने गहरी सांस ली - “उस वाकये के बाद ही मुझे ढ़ण्ग से मर्द की जात समझ में आयी ।”
“देर आयद दुरुस्त आयद । अलग रहने की बस यही एक वजह है ? इन्डीपेंडेंस पसन्द है !”
उसने जवाब न दिया ।
“एक वजह का मुझे कुछ अन्दाजा हो रहा है । इजाजत हो तो बोलूं ?”
“बोलो ।”
“बाप से, भाई से मिजाज नहीं मिलता ! नाइत्तफाकी रहती है !”
“है तो ऐसा ही कुछ कुछ । कोई मेरी जिन्दगी को रिमोट से कंट्रोल करने की कोशिश करे, ये मुझे गंवारा नहीं, भले ही वो मेरा बाप हो, भाई हो ।”
“तुम्हारी कोई गलती नहीं । इन्हीं खयालात, इन्हीं जज्बात की वजह से नौजवान नस्ल को बागी बोला जाता है ।”
“यू हैव ए प्वायंट देयर ।”
“इस सिलसिले में जबरदस्ती के जीजा जी सार्थक का भी कहीं दखल था ?”
“तुमने ठीक बोला उसे जबरदस्ती का जीजा जी । फैमिली सेंटीमेंट्स की रू में ये मेजर प्राब्लम थी उसके साथ । मैं तो कभी भी पूरी तरह से उसको अपना रिश्तेदार तसलीम न कर सकी !”
“पिता ? भाई ?”
“उनका भी ऐसा ही मिजाज था ।”
“तुम्हारी जाती राय क्या है ? सार्थक श्यामला का कातिल है ?”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“नहीं । हो सकता है श्यामला से उसकी शिकवा शिकायत हो, बतौर बीवी उसे नापसन्द करने लगा हो - मर्द की जात जो ठहरा ! - एण्ड दैन फैंसी वियर्स आफ यू नो...”
“आई नो ।”
“लेकिन उसने श्यामला का कत्ल किया हो, ये मैं नहीं मान सकती ।”
“शायद गैरइरादतन ऐसा कर बैठा हो ! हालात ऐसे बन गये हों कि वो हादसा उसके हाथों हो गया हो !”
“कैसे... कैसे हालात बन गये हों ?”
“तकरार में हमलावर तुम्हारी बहन हो, वो चारभुजी मूर्ति उठाकर वार करने के इरादे सार्थक पर झपटी हो, सार्थक ने बचाव में मूर्ति छीन ली हो और भड़क कर पलटवार कर दिया हो जिसका नतीजा श्यामला की मौत की सूरत में सामने आया हो !”
“नो, आई कैन नाट हैव इट । दैट्स दू फारफैच्ड ।”
“हैरानी है उस शख्स की ऐसी तरफदारी कर रही हो जिससे नापसन्दगी का इजहार करके हटी हो !”
“मैं नापसंदगी को नाइंसाफी का रास्ता नहीं बना सकती ।”
“वैरी नोबल आफ यू । लेकिन उसको बेगुनाह करार देने की कोई और वजह तो नहीं ?”
“और वजह क्या ?”
“तुम बोलो ।”
“नहीं, और कोई वजह नहीं ।”
वो प्रत्याशित जवाब था । अगर वो रहस्यमयी रमणी थी तो कैसे मेरे सामने अपनी जुबानी कबूल कर सकती थी कि कत्ल की रात को कत्ल के आसपास सार्थक उसके आगोश में था ।
लेकिन अगर बाई प्रॉक्सी वो ही मेरी क्लायंट थी तो देर सबेर इस बाबत मुझे अपना राजदां बना सकती थी । आखिर क्लायंट और पीडी का रिश्ता मरीज और डाक्टर जैसा होता था । जैसे मरीज को डाक्टर से कुछ नहीं छुपाना चाहिये, वैसे ही क्लायंट को भी प्राइवेट डिटेक्टिव से कुछ नहीं छुपाना चाहिये ।
लेकिन उस मामले में दिल्ली अभी दूर थी; अभी वो कबूल तो करती कि वो मेरी क्लायंट थी !
“तो” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “दो साल के शादीशुदा वक्फे में ही सार्थक तुम्हारी बहन को नापसन्द करने लगा था ?”
“इस सवाल का बेहतर जवाब सार्थक दे सकता है ।”
“ठीक ! लेकिन वो सवाल पूछने के लिए उपलब्ध नहीं है ।”
“दैट्स युअर प्राब्लम ।”
“अच्छा, ये ही बताओ कि मिजाज कैसा था ? खुशमिजाज था ? मिलनसार था ?”
“असल में कैसा है या था, मैं नहीं जानती लेकिन जैसा मुझे लगा, वो मैं बता सकती हूं ।”
“वो ही बताओ !”
“मिलनसार तो... नहीं था । पर्दादारी बहुत थी उसके किरदार में । थोड़े किये किसी पर ऐतबार नहीं लाता था । मुसीबत में है, फिर भी मुझे शक है कि विवेक महाजन से पूरी तरह से खुल कर नहीं बोला होगा ।”
“विवेक महाजन से वाकिफ हो ?”
“नहीं, खाली नाम से वाकिफ हूं । सार्थक से ताल्लुक रखती खबरें मेरे तक पहुंचती रहती हैं - आखिर मेरा जीजा है - इसलिये मुझे मालूम है कि अपने बचाव के लिये जो वकील उसने चुना है, वो एडवोकेट विवेक महाजन है ।”
“हूं ।”
“यू वांट एनदर ड्रिंक ?”
मैंने अपने गिलास पर निगाह डाली ।
खाली !
बातों में मुझे पता ही नहीं लगा था कि कब मैंने उसे खाली कर दिया था । अलबत्ता उसकी तवज्जो खाली जाम की तरफ गयी थी ।
“यस ।” - मैं बोला - “प्लीज ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और वेटर को इशारा किया ।
तत्काल मुझे नया ड्रिंक सर्व हुआ ।
अपनी काकटेल को उसने रिपीट न किया । उसका ‘मिंट जेलप’ का लम्बा गिलास अभी आधा भरा हुआ था ।
“तो” - नया जाम चुसकता मैं बोला – “सार्थक से ताल्लुक रखती खबरें तुम तक पहुंचती रहती हैं ?”
“हां । तमाम नहीं तो तकरीबन पहुंचती रहती हैं । क्यों पूछ रहे हो ?”
“उसके अफेयर की खबर पहुंची ?”
“अफेयर ! सार्थक का !”
“हां । मैंने सुना है ऐसा कि उसके किसी से निहायत खुफिया, नाजायज ताल्लुकात थे ।”
“मैंने नहीं सुना । इस बाबत मैंने कुछ नहीं सुना । ऐसी कोई खबर कभी मुझ तक नहीं पहुंची ।”
“आई सी ।”
“लेकिन सार्थक का अफेयर ! हैरानीहै ! यकीन नहीं आता कि वो श्यामला को चीट कर रहा था । क्या पता श्यामला के हरदम उखड़े मिजाज की यही वजह हो कि उसे इस बात की खबर थी । उसे मालूम था उसका हसबैंड उसके साथ बेवफाई कर रहा था । इस मामले में कोई औरत सहनशील बनके नहीं दिखा सकती; उसका जलना, कुढ़ना, कलपना स्वाभाविक होता है । खाविन्द की बेवफाई शादीशुदा औरत की बहुत बड़ी हत्तक हैजिसे वो बर्दाश्त नहीं कर सकती । ये हत्तक उसे आग का गोला बना सकती है । तुमने वो मसल सुनी होगी कि हैल हैथ नो फ्यूरी लाइक ए वुमेन स्कार्न्ड ।”
“सुनी है । तो ये वजह थी उन दोनों में अक्सर होने वाली भीषण तकरार की !”
“मुमकिन है ।”
“तुम्हारे पापा या भाई को या दोनों को ये अफेयर वाली बात मालूम हो सकती है ?”
“भई, वो मर्द लोग हैं, ज्यादा दुनियादार हैं, उनके रिसोर्सिज जुदा हैं, हो सकता है मालूम हो !”
“श्यामला तलाक का इरादा बना चुकी थी और अपना इरादा बड़े परमार साहब पर उजागर भी कर चुकी थी । तुम्हें मालूम हुई थी ये बात ?”
“हां, ये बात तो मालूम हुई थी, क्योंकि घर में जायन्ट डिसकशन का मुद्दा बन गयी थी ।”
“तलाक इसलिए क्योंकि उसका पति उसे धोखा दे रहा था ?”
“और क्या वजह होगी ?”
“हो तो सकती है और वजह !”
“क्या मतलब ?”
“जिस मर्ज का मारा सार्थक था उसकी श्यामला भी हो !”
“तुम्हारा मतलब है श्यामला का भी कोई अफेयर चल रहा हो ?”
“शायद ।”
तत्काल वो संजीदा हुई, खामोशी से उसने अपनी काकटेल चुसकी ।
मैं उसके बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“यकीन नहीं आता ।” - आखिर वो बोली ।
“एक दूसरी बात सुनो और बोलो कि उस पर यकीन आता है ! तुम्हारे भाई ने पुलिस को बयान दिया है कि सार्थक श्यामला पर हाथ उठाता था ।”
“झूठ बोलता है साला !” - वो आवेग से बोली ।
“साला ?”
“मेरा भाई ।”
“क्यों ? क्यों झूठ बोलता है ?”
koushal
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“क्योंकि उसे - मेरे पापा को भी - पूरा यकीन है कि सार्थक ने श्यामला का खून किया है । अपने यकीन को मजबूती देने के लिये और उसे आगे थोपने के लिए वो कुछ भी कह सकता है, क्योंकि वो सार्थक को फांसी पर झूलता देखना चाहता है ।”
“तुम्हारा पिता भी ?”
“हां ।”
“लेकिन तुम नहीं ! क्योंकि तुम्हारी निगाह में वो बेगुनाह है, उसने कत्ल नहीं किया !”
“हां ।”
“वो श्यामला पर हाथ नहीं उठा सकता ?”
“नहीं उठा सकता । सार्थक कैसा भी है, इतनी निम्न कोटि की हरकत वो नहीं कर सकता ।”
“फिर भी की हो तो ?”
“तो जरूर श्यामला ने अपनी किन्हीं हरकतों से उसे ऐसा करने के लिए उकसाया होगा ।”
“ये सार्थक की बड़ी तरफदारी है, जबकि वो तुम्हें कोई खास पसन्द भी नहीं था, और बहन पर कुछ ज्यादा ही सख्त आक्षेप है ।”
“मिस्टर शर्मा, मैं बाई हैबिट कंट्रोवर्शियल हूं क्योंकि कंट्रोवर्शियल फैमिली से बिलांग करती हूं ।”
“तुम्हारे पिता को सार्थक नापसन्द था, फिर भी उन्होंने बेटी की शादी उससे होने दी ।”
“इस सिलसिले में दो बातें काबिलेगौर हैं । एक तो हमेशा नापसन्द नहीं था, होता तो क्लब की मुलाजमत में हरगिज न रह पाता । पापा क्लब के प्रेसीडेंट हैं, उनकी मर्जी के बिना यहां पत्ता नहीं हिलता, कैसे सार्थक यहां रिसैप्शनिस्ट की नौकरी पर बना रह पाता ।”
“दूसरी बात ?”
“पापा शादी नहीं रोक सकते थे । जवान जहान लड़की पर जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती, की जा सकती है तो हमेशा नहीं की जा सकती । पापा श्यामला को ताले में बन्द करके नहीं रख सकते थे । वो ऐसी कोई कोशिश करते तो पहला मौका हाथ आते ही श्यामला सार्थक के साथ भाग जाती । यूं वो पापा की रिप्यूट को ज्यादा डैमेज करती ।”
“सुना है सार्थक और शरद में कभी अच्छी दोस्ती स्थापित थी !”
“कभी । अब का हाल तो ये है कि सार्थक को फांसी होगी तो शरद खुशी खुशी जल्लाद का रोल अदा करने की पेशकश करेगा ।”
“ओह ! अब एक नाजायज सवाल करने की इजाजत दो ।”
“पूछो वो भी ।”
“श्यामला कैरेक्टर की कैसी थी ? मैं शादी से पहले के दौर की बात कर रहा हूं ।”
“खराब ।”
“क्या बोला ?”
“रंगीन मिजाज थी । कोई लाइन मारे तो खफा होकर दिखाने की जगह पूरा भाव देने लगती थी ।”
“पूरा ?”
“हां । जो समझ रहे हो, उस सैंस में भी पूरा ।”
“कमाल है !”
मैं उससे पूछने ही लगा था कि क्या श्यामला के माधव धीमरे से भी दोस्ताना ताल्लुकात थे कि दो सजी धजी, जगमग जगमग महिलायें हमारी टेबल के करीब पहुंची । दोनों के बाल बड़े स्टाइलिश ढ़ण्ग से कटे हुए थे । एक के बाल काले थे जिनमें कहीं कहीं लाल लटें थीं, दूसरी के डाई कराये हुए भूरे थे ।
दोनों के जिस्म पर इतने जेवर थे कि ज्वेलरी की चलती फिरती दुकान जान पड़ती थीं; कोई भी देखता तो जरूर कहता कि सारा सोना दरीबे में ही नहीं था । इतना तो तब पहने थीं जबकि क्लब में मौजूद थीं, किसी शादी ब्याह में दिखाई दी होतीं तो शायद दरीबे की जगह दुबई का हवाला देना पड़ता ।
वो दोनों टेबल पर पहुंची तो शेफाली उठकर उनसे मिली ।
तब मैंने नोट किया कि दोनों के हाथ में ड्रिंक्स थे जो लाल रंग की वजह से और गिलास के रिम पर लेमन की स्लाइस टंगी होने की वजह से ब्लडी मेरी जान पड़ते थे । उनकी तमतमाई हुई सूरतों से लगता था कि वो उनके फर्स्ट ड्रिंक भी नहीं थे ।
उनकी आमद पर शेफाली का उठकर खड़ा होना जाहिर करता था कि वो नहीं चाहती थी कि वो दोनों उसके साथ टेबल शेयर करतीं ।
“हमने डिस्टर्ब तो नहीं किया ?” - भूरी बोली ।
“अरे, नहीं ।” - शेफाली ने जवाब दिया - “जरा भी नहीं ।”
“दूर से गोला कबूतर देखा” - लाल-काली धूर्त भाव से बोली - “करीब से देखने का दिल कर आया ।”
शर्तिया नशे में थी - मैंने मन ही मन सोचा - नार्मल होती तो ऐसी बात कहती !
“हल्लो ! हाउ आर यू ?”
मैं हड़बड़ाया, मुझे समझने में देर लगी कि वो मेरे से मुखातिब थी ।
“फाइन, मैम” - मैं बोला – “थैंक्यू फार आस्किंग ।”
“गोले कबूतर तो” - भूरी बोली - “मैंने सुना है जोड़ों में उड़ते हैं । तुम्हारा जोड़ा कहां छुपा है, भई ?”
वो भी बराबर नशे में थी ।
“मैं कम्पीटीटर साथ ले के नहीं चलता ।”
“अरे, लाना था न ! उसे हम सम्भाल लेतीं ! जैसे शेफाली ने तुम्हें सम्भाला हुआ है !”
“या वो आपको सम्भाल लेता ।”
वो खिलखिला कर हंसी, नशे वाली उमुक्त हंसी !
लाल-काली ने हंसी में उसका साथ दिया ।
तब शेफाली ने उनका परिचय दिया ।
भूरी का नाम संगीता निगम था ।
निगम ! ऐनी रिलेशन विद एमपी आलोक निगम !
और लाल-काली का बांसुरी कुशवाहा ।
“मुझे उम्मीद नहीं थी आज तुम्हारे यहां होने की ।” - संगीता शेफाली से सम्बोधित हुई - “क्योंकि तुम्हारी आई-10 पार्किंग में नहीं दिखाई दी थी मुझे !”
“वर्कशाप में है ।” - शेफाली बोली - “शरद ने ठीक दी । बिजली के खम्बे में दे मारी ।”
“काफी डैमैज हुआ ?”
“काफी तो नहीं लेकिन वर्कशाप भेजने लायक तो हुआ ही ।”
“रैश चलाता है । मैंने देखा एक दो बार ।”
“सभी का यही हाल है ।”
“चल न !” - बांसुरी उसको कोहनी से टहोकती बोली - “इन दोनों ने कोई अपनी बातें करनी होंगी !”
“हां, यार ।”
“अगली बार जब भी यहां आओ” - बांसुरी मेरी तरफ देखती बोली - “तो भाई को साथ लेके आना ।”
“भाई !” - मेरी भवें उठी ।
“गोला कबूतर ! जो तुम्हारा जोड़ा है ! या जिसका तुम जोड़ा हो ! फालोड ?”
“लाउड एण्ड क्लियर, मैम ।”
“दैट्स लाइक ए गुड ब्वाय ।”
इठलाती बल खाती दोनों वहां से चली गयीं ।
शेफाली वापस बैठ गयी । तब उसने मुझे उनका परिचय दिया ।
“संगीता मेरी मामी है ।” - वो बोली ।
“तुम्हारा मतलब है एमपी आलोक निगम की पत्नी है ?” - मैं बोला ।
“हां ।”
“इतनी उम्र की लगती तो नहीं थी ! वो तो तुम्हारी हमउम्र जान पड़ती थी !”
“है न कमाल ! बेफिक्र जिन्दगी हो तो ऐसा ही होता है । तब सजना और बजना दो ही तो काम होते हैं । जवानी ने कहां जाना है पल्ला झाड़ के !”
मैंने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
ऐसा न लगा कि मेरे हैरान होने की उसको कोई परवाह हुई हो ।
“दूसरी बांसुरी कुशवाहा थी ।” - वो बोली - “मामी की पुरानी सखी है ।”
“तुम्हारी मामी से ज्यादा खूबसूरत थी !”
“बाली उमरिया में मिस इण्डिया कंटैस्ट में फर्स्ट रनर अप थी ।”
“जरूर होगी । मिस यूनीवर्स में भी होती तो मुझे कोई हैरानी नहींहोती । शान थी ऊपर वाले की, जो रूप देने पर आता है तो खजाने खोल देता है ।”
“लार टपक रही है ?”
“दिखाई दे गयी ?”
“साफ ।”
“मैं भी क्या करूं ! ऊपर वाले ने मुझे बनाया ही ऐसा है ।”
“कैसा ?”
“लवर आफ ब्यूटी । तभी तो मेरा मिजाज लड़कपन से आशिकाना है ।”
“काफी खुशफहम आदमी जान पड़ते हो !”
“जान क्या पड़ता हूं, हूं ही ऐसा । दूसरे को हो न हो, खुद की खुद को कद्र तो होनी चाहिये न !”
“मैं तुम्हारे लिये रिपीट आर्डर करूं ?”
“क्या ! ओह, नो । नैवर । मेरे उस्ताद का सबक है कि वन ड्रिंक इज नाट एनफ एण्ड थ्री आर वन टू मैनी ।”
“अच्छा सबक है । तो लंच आर्डर करें ।”
“ठीक है ।”
मेरे से मशवरा करके उसने लंच आर्डर किया ।
जो हमें दो वेटरों ने सर्व किया ।
“माधव धीमरे से वाकिफ हो ?” - लंच के दौरान मैंने वो सवाल किया जो मेरे जेहन में बज रहा था ।
“हां, भई ।” - वो बोली - “मैनेजर है वो यहां का । तुम जानते हो उसे ?”
“सिर्फ नाम से वाकिफ हूं ।”
“नाम से कैसे वाकिफ हो ?”
“सार्थक ने वाकिफ कराया । अब यहां हूं तो उससे मिलके ही जाऊंगा । तुम मुलाकात करा देना, सहूलियत होगी ।”
“आज तो नहीं हो सकेगी मुलाकात ।”
“वजह ?”
“आज उसका वीकली ऑफ है ।”
“आज ! शुक्रवार को !”
“रोटेट होता रहता है ।”
“ओह ! बताओ कुछ उसके बारे में !”
“क्या बताऊं ! खुशमिजाज नौजवान है । नेपाली है लेकिन यहां कोई उससे नाक नहीं चढ़ाता । सब उसे पसन्द करते हैं । इस वजह से सबका दोस्त है ।”
“श्यामला का भी था ?”
“क्या कहना चाहते हो ?”
“खास कुछ नहीं । महज एक सवाल पूछा ।”
“भई, जब सब का था तो श्यामला का भी था ।”
“आई सी । बहरहाल कोई खामी नहीं उसमें । सब कुछ उजला ही उजला है, काला कुछ नहीं ! सलेटी भी कुछ नहीं !”
वो खामोश हो गयी ।
जवाब के इन्तजार में मैं उसकी तरफ देखता रहा ।
“भई, ऐसा तो कोई नहीं होता आज की दुनिया में ।” - आखिर वो बोली - “हर किसी के ढ़ोल में कोई न कोई पोल तो होती ही है !”
“उसके ढोल में कौन सी पोल है ?”
“भई, पुख्ता कुछ नहीं लेकिन ढंकी छुपी अफवाह है कि ड्रग्स के धंधे में कोई दखल है उसका । कोई कोई कहता कि बुकी भी है ।”
“रेस का ?”
“हां ।”
“उसमें तो गैरकानूनी कुछ नहीं !”
“गैरकानूनी न सही लेकिन नाजायज तो है न ! अनइथिकल तो है न ! जब यहां का फुल टाइम मुलाजिम है तो और धंधों में टांग फंसा के रखने का क्या मतलब ?”
“कोई मतलब नहीं । लेकिन ये भी तो बोला न, कि अफवाह है, पुख्ता कुछ नहीं !”
“हां, बोला तो सही !”
“और ?”
“और शरद का दोस्त है । काफी गहरी छनती है दोनों में ।”
“श्यामला का भी था ?”
“मिस्टर शर्मा, प्लीज डोंट ट्राई टु पुट वर्ड्स इन टु माई माउथ ।”
“सॉरी !”
“नैवर माइन्ड । तुम बात को यूं समझो कि वो फैमिली फ्रेंड है । श्यामला फैमिली थी इसलिये उसका भी फ्रेंड था । शरद का जरा ज्यादा फ्रेंड था ।”
“सार्थक कत्ल के आल्टरनेट कैंडीडेट के तौर पर उसका नाम लेता है ।”
“नानसेंस !”
“सार्थक उसका कर्जाई था । अस्सी हजार रुपये का ।”
“अच्छा !”
“हां । सार्थक कहता था कि रकम की वापिसी की बाबत उस पर दबाव बनाने के लिए वो श्यामला को निशाना बनाने का इरादा रखता था ।”
“कैसे ?”
मैंने बताया ।
“ओ, माई गॉड !” - वो नेत्र फैलाती बोली - “ओ माई गुड गॉड ! बट दैट इज शियर नानसेंस !”
“सार्थक ऐसा कहता है ।”
“बकता है । कैद की तनहाई में उसका दिमाग हिल गया है इसलिये उलटी सीधी सोचता है, ऐसी बातों को इरादतन हवा देता है जो उस पर से फोकस हटा सकें । पर ऐसा नहीं होने वाला । पुलिस वाले क्या पागल बैठे हैं ? वो सब समझते हैं । दूसरे, मैंने सुना है कत्ल की रात को कत्ल के वक्त के आसपास माधव धीमरे शरद के साथ था । धीमरे की जगह तुमने सार्थक के भाई शिखर का नाम लिया होता तो कोई बात भी थी । मोटे तौर पर शिखर और धीमरे एक ही जैसे हैं लेकिन कोई मुझ से पूछे तो शिखर ज्यादा कम्बख्त है, ज्यादा काईयां है । तुम्हारी जानकारी के लिए सार्थक से पक्का टांका भिड़ने से पहले श्यामला थोड़े अरसे के लिए थोड़ा सा शिखर की ओर भी झुकी थी ।”
“कमाल है !”
“श्यामला के मिजाज की बाबत मैंने बोला तो था ! शी लाइक्ड मेल कम्पनी । शी एनजायड मेल अटेंशन ।”
“अगर ऐसा है तो क्या हो सकता है कि शिखर के साथ उसके ताल्लुकात हाल तक भी बरकरार रहे हों ?”
“जब बात श्यामला की हो तो कुछ भी हो सकता है । शादी करके वो घर बैठ गयी थी । घर बैठना उसके रसिक मिजाज से मेल नहीं खाता था । सार्थक दिन भर घर से बाहर रहता था और वो घर में अकेली बैठी बोर होती थी । ऐसे में उसने दिलजोई का कोई जरिया तलाश कर लिया हो या रिवाइव कर लिया हो तो श्यामला के केस में ये कोई बड़ी बात नहीं ?”
“मरहूम बहन के लिए ऐसे उद्गार प्रकट करना कुछ ज्यादती नहीं उसके साथ ?”
उसने जवाब न दिया ।
“तुम्हारे खुद के कैसे ताल्लुकात थे जीजा जी के साथ ?”
“मैं फ्रैंक जवाब दूंगी तो तुम फिर श्यामला मरहूम के साथ ज्यादती का गिला करने लगोगे !”
“नहीं करूंगा ।”
“तो सुनो । उसको मेरा सार्थक से ज्यादा इन्टीमेट होना पसन्द नहीं था और अपनी नापसन्दगी वो मेरे से छुपाती भी नहीं थी ।”
“वैसे तुम्हारे और सार्थक के बीच कुछ था ?”
“नहीं, कुछ नहीं था ।”
“बहन तुम्हारी कोई खास फेवरेट नहीं थी, तुम्हारे कलेजे से नहीं लगी हुई थी !”
“ऐसा ही था ।”
“वजह ?”
“थी कोई ।”
“तभी तुम्हें उसकी मौत का कोई खास अफसोस नहीं है ।”
“अफसोस है बराबर । हर जवान मौत का मुझे अफसोस है ।”
“वो जवानी में मर गयी, इसलिये अफसोस है, इसलिये नहीं कि बहन थी !”
वो फिर खामोश हो गयी ।
“तुम चाहती हो सार्थक निर्दोष साबित हो, वो अपनी मौजूदा दुश्वारी से निजात पाये ?”
“हां । लेकिन इसलिये नहीं क्योंकि वो मेरी बहन का हसबैंड है, मेरा जीजा है, बल्कि इसलिये कि मुझे यकीन है वो बेगुनाह है ।”
अगला सवाल जो मेरे जेहन में आया, उसे जुबान पर लाने कीमजाल मेरी न हुई । सवाल था : क्या श्यामला का कत्ल सार्थक और उसके सामूहिक षड़यन्त्र का नतीजा था ? क्या इसीलिये उसे बहन की मौत की कोई परवाह नहीं थी और सार्थक की रिहाई के लिए वो व्यग्र थी !
तभी शरद वहां आ धमका ।
उसने कुछ क्षण सन्दिग्ध भाव से मुझे देखा, फिर उसकी तवज्जो बहन की तरफ मुड़ गयी ।
“क्यों इस... इस घौंचू के साथ वक्त जाया कर रही है !” - वो बहन से बोला – “गधे घोड़े में कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता तेरे को ?”
वो इतने ऊंचे स्वर में बोला कि आसपास की टेबलों पर बैठे लोगों की भी तवज्जो हमारी तरफ हो गयी ।
“गो अवे ।” - वो दांत पीसती दबे स्वर में बोली ।
“क्यों ? तेरा आगे का प्रोग्राम बिगड़ रहा है ?”
“गो अवे, डैम यू ।”
“जरूर ये जिगालो है जिसे तू खिला पिला के तैयार कर रही है अपनी...”
वो मुट्ठियां भींचती उठके खड़ी हुई, उसने मेज पर से पानी का भरा हुआ गिलास उठाया और पानी उसके मुंह पर फेंक कर मारा ।
मैं सकपकाया । आसार अच्छे नहीं थे । क्या मेरा भाई बहन के बीच के उस ड्रामे में दखलअन्दाज होना बनता था ! जब मैंने भाई को बहन पर झपटने को तत्पर पाया तो फैसला किया, बनता था । मैं कुर्सी से उठा, मैंने बहन पर प्रचण्ड प्रहार करने को तत्पर भाई का हाथ रास्ते में ही थामा और जोर से उसे पीछे को धक्का देते हाथ छोड़ दिया ।
वो धड़ाम से फर्श पर ढ़ेर हुआ, उसके मुंह से यूं सिसकारी निकली जैसे गैस के गुब्बारे में से हवा निकली हो ।
पता नहीं कहां से एकाएक बांसुरी कुशवाहा प्रकट हुई और शरद को सम्भालने लगी ।
“ये क्या हो रहा है ?”
मैं आवाज की तरफ घूमा तो मैंने अपने पहलू में एक हट्टे कट्टे, तन्दुरुस्त, सूरत से गोवानी लगने वाले व्यक्ति को खड़ा पाया । उसके मुंह में एक सुलगा हुआ सिगार दबा हुआ था जिसको मुंह से निकाले बिना ही वो बोला था । सिगार शक्ल में ऐसा था जैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था । कसैला धुंआ छोड़ रहा था लेकिन जिसके मुंह में दबा था, उसे धुयें की कोई परवाह नहीं जान पड़ती थी ।
“कुछ नहीं हो रहा, मिस्टर डिसिल्वा ।” - शेफाली बोली - “डियर ब्रदर ज्यादा ड्रिंक कर गया लगता है । बेध्यानी में पांव फिसल गया और गिर गया । अभी उठ खड़ा होगा ।”
तो ये था डिसिल्वा - रॉक डिसिल्वा - क्लब का केटरिंग कांट्रेक्टर और नेबरहुड बार रॉक्स का प्रोप्राइटर !
“आई सी ।” - डिसिल्वा सन्दिग्ध भाव से बोला ।
शरद बांसुरी का सहारा लेकर उठने का प्रयत्न कर रहा था ।
“चलो ।” - शेफाली ने हुक्म दिया, उसने मेरी बांह थामी और मुझे साथ चलाती बाहर को चल दी ।
“बुरा हुआ ।” - रास्ते में मैं बोला ।
“कुछ नहीं हुआ ।” - वो बोली – “हम भाई बहनों में ऐसी फौजदारी चलती ही रहती है । पुराना सिलसिला है ये । गर्म मिजाज है न सबका...”
“पब्लिक में !”
“...कुछ बुरा हुआ तो” - उसने मेरी बात पर ध्यान न दिया, अपनीही झोंक में कहती रही - “ये बुरा हुआ कि लंच में विघ्न पड़ गया जिसके लिये मैं सॉरी बोलती हूं ।”
वो हाल के बाहर तक मेरे साथ आयी ।
“गुड बाई, मिस्टर शर्मा” - वहां ठिठक कर वो बोली - “बैटर लक नेक्स्ट टाइम ।”
“विल देयर बी ए नैक्स्ट टाइम ?”
“यस, आफकोर्स । एण्ड वैरी सून इट विल बी । सी यू ।”
वो मुझे वहीं खड़ा छोड़ कर उलटे पांव हाल में दाखिल हो गयी ।
मैंने पार्किंग की तरफ कदम बढ़ाये जहां कि मेरी कार खड़ी थी ।
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Chapter 3
आइन्दा दो दिन बेनतीजा गुजरे ।
मेरी भागदौड़ तो बरकरार रही लेकिन नतीजा सिफर निकला, कुछ हाथ न आया ।
सोमवार आया तो मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस दिशा में कदम उठाऊं । वकील को रिपोर्ट चाहिये थी । दो दिन उसने ये बात हज्म कर ली थी कि रिपोर्ट करने को मेरे पास कुछ नहीं था, आइन्दा शायद मिजाज दिखाता ।
फिरंगियों का कहना है, ‘वैन इन कनफ्यूजन, डू नथिंग’ लेकिन यूअर्स ट्रूली का जाती तजुर्बा है कि ‘वैन इन कनफ्यूजन, कंसल्ट रजनी शर्मा’ ।
मैंने रजनी को अपने केबिन में तलब किया ।
“मैं तुझे अपनी हालिया नाकामी की दास्तान सुनाने लगा हूं ।” - मैं बोला - “गौर से सुनना ।”
“यस, सर्र ।”
“संजीदगी से सुनना ।”
“यस, सर ।
मैंने तमाम कथा उसके सामने की और उसे बताया कि बुधवार से मैंने क्या कुछ किया था ।
“मेरे को लगता है” - आखिर में मैं बोला - “केस की रहस्यमयी रमणी शेफाली परमार है ।”
“जीजा का साली से अफेयर ?” - रजनी बोली ।
“क्या बड़ी बात है ! वो कहते नहीं है कि साली आधी घरवाली ! तेरी बहन मेरी शरीकेहयात होती तो क्या मैं तेरे जैसी पटाखा साली पर नीयत मैली करने से बाज आ जाता ?”
“और अभी आप मुझे संजीदगी से सब सुनने की राय देकर हटे हैं !”
मैं हड़बड़ाया ।
“सॉरी !” - फिर बोला ।
“सारी, आधी, तीन चौथाई जैसी भी है, कबूल । आगे बढ़िये ।”
“अब सवाल ये है कि क्या शेफाली बहन के कत्ल में शरीक हो सकती है ?”
“अगर वो ही औरत सार्थक की सीक्रेट एलीबाई है तो हो सकती है । अगर उसकी सार्थक से सैटिंग है तो वो उसके लिए झूठी गवाही दे सकती है ।”
“देती क्यों नहीं ?”
“वकील कहता तो है कि देगी ! जब पानी सिर से ऊंचा उठ जायेगा तो देगी !”
“तब तक सार्थक भुगते ?”
“मजबूरी है । आखिर शेफाली को अपनी इज्जत का भी तो खयाल करना है ! क्या पता आपके किये या कैसे भी कोई करिश्मा हो जाये और उसकी गवाही की नौबत ही न आये !”
“वकील भी यही कहता था, शेफाली का, रहस्यमयी रमणी का, नाम लिये बिना कहता था लेकिन कहता था ।”
“सो देयर ।”
“सार्थक के बड़े भाई शिखर के बारे में क्या कहती हो ?”
“अगर शेफाली ठीक कहती है कि शादी से पहले श्यामला उस पर भी मेहरबान थी तो उसका कहीं न कहीं कोई दखल बनता तो है ! क्या पता जो आग कभी सुलगी थी, उसकी कोई चिंगारी राख के नीचे देर तक दबी रही हो !”
“कविता न कर ।”
“क्या पता शिखर अभी भी श्यामला पर दिल रखता हो !”
“और वो शिखर पर !”
“क्या पता !
“प्रेम त्रिकोण में नौबत कत्ल की आ गयी !”
“क्या बड़ी बात है ! बुरे काम के बुरे नतीजे !
“ओह !”
“ये कहावत आपकी समझ में आ गयी न !”
मैंने घूर कर उसे देखा ।
वो होंठ दबा कर हंसी ।
“उसने सार्थक को एलीबाई देने की कोशिश की थी ?” - मैं आगे बढ़ा ।
“सड़ी हुई एलीबाई दी थी जो हाथ के हाथ बोगस साबित हो गयी थी । वो यही चाहता होगा । उसने एलीबाई दी ही इसलिये थी क्योंकि उसेमालूम था वो सार्थक का कोई भला नहीं करने वाली थी । मेरी मानें तो जानबूझकर उसने झोलझाल एलीबाई दी थी ताकि जब वो झूठी, गढ़ी हुई साबित होती तो पुलिस का सार्थक पर शक दोबाला हो जाता । उसने एलीबाई न दी, एलीबाई देने का ड्रामा किया; यूं कि वो सार्थक का कोई भला तो करती नहीं, बुरा कहीं ज्यादा करती ।”
“यानी शिखर कातिल हो सकता है ?”
“उसकी तमाशे जैसी एलीबाई तो इसी बात की ओर इशाराकरती है ।”
“हूं । क्यों किया होगा उसने कत्ल ?”
“मालूम कीजिये । पता निकालिये । आखिर डिफेक्टिव हैं ।”
“क्या बोला ?”
“आखिर डिटेक्टिव हैं ।”
“मुझे तो कुछ और ही सुनाई दिया था !”
“आपकी क्या बात है ! आप तो आप हैं !”
“खुश्की उड़ा रही है मेरी ?”
“मेरी ये मजाल !”
“मजाल तो तेरी आकाश पताल को छूने वाली हो सकती है लेकिन...खैर । माधव धीमरे के बारे में क्या कहती है ?”
“उसके बारे में क्या कहूं ? आप कहते हैं कत्ल के वक्त की उसके पास एलीबाई है; शिखर जैसी फटेहाल नहीं, परफैक्ट एलीबाई है !”
“वो तो है । लेकिन कत्ल के केसों में अक्सर पर्फेक्शन में ही खोट निकलती पायी गयी है ।”
“निकालिये ।”
“होती तो पुलिस निकाल चुकी होती । जैसे सार्थक की एलीबाई में निकाली थी ।”
“फिर तो हारे को हरि नाम ।”
“हारा कौन ? मैं ?”
“जब आप की कोई पेश नहीं चल रही तो...”
उसने जानबूझ कर वाक्य बीच में छोड़ दिया और होंठ दबा के हंसी ।
“ठहर जा, कम्बख्त !”
“ठहरने को बहुत कहते हैं ! ठहरे को ठहरने को कहना है तो ठहर के कह लेना, अभी तो मतलब की बातें हो रही हैं । हो रही हैं न ?”
“हां ।”
“या ठिठोली चल रही है ?”
“मतलब की बातें हो रही हैं ।”
“मुझे कुछ कहने की इजाजत दें तो अर्ज है कि आप केस पर पुलिसिया स्टाइल से विचार कर रहे हैं ।”
“क्या मतलब ?”
“नाक की सीध में देख रहे हैं, दायें बायें नहीं झांक रहे ।”
“दायें बायें क्या है ?”
“दायें बायें और सस्पैक्ट्स हैं ।”
“नानसेंस ।”
“सम्भावित सस्पैक्ट्स हैं ।”
“कौन ? नाम ले किसी का । सारी कथा पूरी तफसील से मैंने तेरे सामने की है, नाम ले किसी का !”
तभी मेरे मोबाइल की घन्टी बजी ।
मैंने फोन उठ कर स्क्रीन पर निगाह डाली ।
जो नम्बर उस पर दर्ज था, वो मेरी पहचान में न आया ।
मैंने काल रिसीव की ।
“हल्लो ।” - मैं बोला ।
“मिस्टर शर्मा !” - जनाना आवाज आई - “राज शर्मा !”
“यस ।”
“मैं शेफाली बोल रही हूं ।”
“ओह ! हाउ आर यू... सर ।”
“सर !”
“ए वर्ड टु दि वाइज ।”
“कोई सुन रहा है ?”
“हां ।”
“तभी ।”
“कैसे याद फरमाया ?”
“मैं शुक्रवार के लंच के बारे में सोच रही थी जिसमें कि विघ्न आ गया था ।”
“उसमें आप की क्या गलती थी ?”
“वजह तो मैं थी !”
“अरे, जो बीत गयी, सो बीत गयी ।”
“मैं चाहती हूं वो फिर बीते ।”
“जी !”
“निर्विघ्न डिनर की बाबत क्या कहते हो ?”
“कब ?”
“आज ।”
“कहां ?
“मेरे घर ।”
“पता बोलो ।”
“अरे, पुष्पा विहार, सैक्टर थ्री तो मैंने बोला ही था । सैक्टर थ्री पहुंचकर फोन करना, बोलूंगी आगे कहां पहुंचना है ! जो नम्बर स्क्रीन पर आया है वो सेव कर लो ।”
“वक्त पर फोन न लगा तो ?”
“तो सैक्टर थ्री के एक एक घर की घंटी बजाना । या बुलन्द आवाज में गाना गाना - तू कहां ये बता, इस नशीली रात में माने न मेरा दिल दीवाना । लाइक देवानन्द । नो ?”
“यस । टाइम बोलो ।”
“तुम्हें ऐतराज न हो तो मुझे लेट डिनर पसन्द है ।”
“कितना लेट ?”
“नौ, साढ़े नौ ।”
“इट सूट्स मी फाइन ।”
“मैं इन्तजार करूंगी ।”
लाइन कट गयी ।
राज शर्मा । दि लक्की बास्टर्ड !
इस बार तो न मैंने आंखों में अपना फेमस मिकनातीसी सुरमा लगाया था और न सोचा था कि कच्चे धागे से बंधे सरकार चले आयेंगे । इस बार तो न कच्चे धागे की जरूरत पड़ी थी और न मिकनातीसी सुरमे के करतब की ।
“मानसिक व्याभिचार सम्पूर्ण हो गया हो” - रजनी बोली - “तो इस नश्वर संसार में लौट आइये ।”
मैं हड़बड़ाया ।
“क्या बोला ?” - मैंने नकली तेवर दिखाये ।
“किसी बहन जी का फोन था ।”
“तुझे क्या मालूम ?”
“मुझे ही मालूम । मेरी मौजूदगी में किसी मुर्गाबी जैसी बहन जी का फोन हो तो आप सशंक, छुपी निगाह मेरी तरफ दौड़ाने लगते हैं, चेहरे पर चोर जैसी अलर्टनैस का जाती है और आंखों में गुलाबी डोरे तैर जाते हैं ।”
“मुझे चोर कहती है !”
“अभी ये सब नोट किया मैंने ।”
“अरे, डिटेक्टिव मैं हूं या तू ?”
“इन मामलों में आपकी जासूसी नहीं चल सकती, मेरी ही चलती है ।”
“अच्छा, अच्छा । हम कहां थे ?”
“वहीं, जहां अभी भी हैं । यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस के आफिस में ।”
koushal
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“अरे, जो डिसकशन हमारे में चल रही थी, उसमें हम कहां थे ? हां, याद आया । तू किसी सम्भावित सस्पैक्ट का नाम लेने जा रही थी । नहीं ?”
“हां ।”
“अब ले नाम । सुझा कोई आल्टरनेट सस्पैक्ट ।”
रजनी ने सशंक भाव से मेरे मोबाइल की तरफ देखा ।
“मैं इसे स्विच ऑफ कर देता हूं ।”
“बहन जी लैंड लाइन बजा देगी ।”
“मैं उसके फोन को उखाड़ के खिड़की के बाहर फेंकता हूं ।”
वो हंसी ।
मैंने गहरी सांस ली ।
“शाम तक कुछ कह लेगी या अगली सुबह का इन्तजार करना होगा ?”
“दर्शन सक्सेना ।”
“कौन ?”
“दर्शन सक्सेना ।”
“वो कातिल कैसे हो सकता है ? वो तो सार्थक के खिलाफ गवाह है ?”
“आप तो यूं कह रहे हैं जैसे कह रहे हों कि वो औरत कैसे हो सकता है, वो तो मर्द है !”
मैंने मुंह बाये उसकी तरफ देखा ।
“उसकी गवाही में झोल हो सकता है ।” - रजनी आगे बढ़ी - “उसे याद है कि कत्ल की रात कोई बहुत रौशन रात नहीं थी और गली की, आजू बाजू की दो स्ट्रीट लाइट अरसे से फ्यूज थीं । ऐसे माहौल में फासले से उसने कैसे पहचान लिया कि पड़ोसन के डस्टबिन में कुछ फेंकने वाला शख्स सार्थक था ? दूर से तो क्या, मेरे को तो करीब से भी सारे हमउम्र नेपाली एक से जान पड़ते हैं । क्या उसके साथ ऐसा नहीं होगा ?”
“उसने उसको उसकी कोठी से निकलते देखा था !”
“आपने खुद बोला कि वहां नेपालियों की अक्सर आवाजाही रहती थी । और मैंने बोला कि फासले से सारे हमउम्र नेपाली एक से जान पड़ते हैं । ऊपर से आप कहते हैं कि वे नेपाली ड्रेस पहने था । अब आप बताइये कि उस कथित गवाह ने नेपाली ड्रैस पहचानी या ड्रैस पहने शख्स की सूरत पहचानी ?”
“हूं ।”
“मुझे तो ड्रैस का आडम्बर ही इसलिये किया गया लगता है कि कनफ्यूजन पैदा हो, कोई गवाह निकल आये तो उसकी गवाही में झोल पैदा हो ।”
“अच्छा !”
“हां । अब सोचिये कैसे वो - दर्शन सक्सेना - गारन्टी कर सकता था कि उस रात जिसको उसने देखा था, वो सार्थक था ?”
“शिनाख्त और बातों से भी होती है - जैसे हाव भाव से, चाल ढाल से...”
“नहीं भी होती । पड़ोसी कहां तवज्जो देता है पड़ोसी की इन स्पैशलिटीज की तरफ ! खासतौर से जब कि पड़ोसी कोई मिलनसार शख्स भी न हो !”
“उस शख्स ने झूठी गवाही दी ?”
“दी हो सकती है ।”
“किसलिये ?”
“लो ! ये भी अब मुझे ही बताना पड़ेगा ?”
“हां । सयानी, बड़ी अम्मा जो ठहरी तू ।”
वो हंसी, फिर बोली - “अपने गुनाह की पर्दादारी करने के लिए ।”
“गुनाह ! कत्ल !”
“हां ।”
“कातिल वो ? दर्शन सक्सेना ?”
“हो सकता है । अगर सार्थक निर्दोष है तो किसी ने तो कातिल होना ही है, फिर क्यों नहीं वो ?”
“वजह ?”
“फिर पहुंच गये वहीं ! अरे, मालूम कीजिये । आखिर डिफे... डिटेक्टिव हैं आप !”
मैं खामोश रहा । मैंने मेज पर पड़े अपने डनहिल के पैकेट की तरफ हाथ बढ़ाया लेकिन कुछ सोचकर वापिस खींच लिया ।
“आपने माधव धीमरे के नाम पर बतौर मर्डर सस्पैक्ट विचार किया...”
“क्योंकि खुद सार्थक ने ऐसा सुझाया ।”
“काले चोर ने सुझाया । लेकिन विचार किया । फिर क्यों नहीं दर्शन सक्सेना ने कोठी से निकलते धीमरे को देखा हो सकता और उसे सार्थक समझा हो सकता ?”
“अभी सक्सेना को कातिल बोल रही थी, अभी फिर उसको विटनेस के रोल में ले आयी !”
“मैं बड़े पीडी की सैक्रेट्री हूं ।” - वो शान से बोली - “हर सम्भावना पर विचार करती हूं ।”
“और विचार कर । और सोच ।”
“मैंने गंजी नहीं होना ।”
“अरे, यूं मर्द गंजे होते हैं ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“तो सुनिये । देहरादून से आकर मुम्बई जाने वाली सवारी गाड़ी प्लैटफार्म नम्बर तीन की जगह प्लैटफार्म नम्बर सात पर आ रही है । धन्यवाद ।”
मैं हक्का बक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
वो होंठ दबा कर हंसी ।
“तू नहीं सुधर सकती । तुझे कोई नहीं सुधार सकता ।
“जानते है क्यों ?”
“क्यों ?”
“क्योंकि मैं पहले ही सुधरी हुई हूं । सुधरी को कौन सुधारेगा ।”
“मैं झपकी लेने लगा हूं । मतलब की बात पर पहुंच जाये तो मुझे आवाज देना ।”
“कमला ओसवाल ।” - उसका लहजा संजीदा हुआ ।
“क्या कमला ओसवाल ?”
“अगर एक गवाह खुद कातिल हो सकता है तो दूसरा भी हो सकता है - उन्हीं वजुहात से दूसरा भी हो सकता है जिनसे पहला हो सकता है । जो लॉजिक केस के एक गवाह दर्शन सक्सेना पर लागू है, वो दूसरे गवाह कमला ओसवाल पर भी लागू है ।”
मैंने उसकी बात न काटी ।
क्योंकि मेरा फेवरेट कैण्डीडेट अभी भी माधव धीमरे था ।
जिससे अभी तक भी मेरी मुलाकात नहीं हुई थी ।
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मैंने रोज़वुड क्लब फोन किया तो मालूम हुआ कि उस रोज वो दो बजे से पहले क्लब में उपलब्ध नहीं था ।
मैं मदनगीर पहुंचा । माधव धीमरे के आवास तक पहुंचने में मुझे कोई दिक्कत न हुई । वहां मदनगीर के उस हिस्से में काफी नेपाली बसते थे, जिस पहले शख्स से मैंने पता पूछा, उसने न सिर्फ पता बताया, समझाया बल्कि मुझे खुद वहां तक छोड़ के गया ।
पता एक छोटा सा, क्वार्टरनुमा एकमंजिला मकान निकला ।
मैंने कालबैल बजाई ।
तत्काल दरवाजा खुला और चौखट पर एक नेपाली प्रकट हुआ ।
“माधव धीमरे ?” - मैं बोला ।
“कौन पूछ रहा है ?” - वो सन्दिग्ध भाव से बोला ।
मैंने उसे अपना नाम बताया और एक विजिटिंग कार्ड नजर किया ।
“नाम सुना है मैंने ।” - वो बोला - “अभी हाल ही में । यहां कैसे पहुंच गये ? क्या चाहते हो ?”
“दो मिनट बात करना चाहता हूं ।”
“मैं नहीं करना चाहता ।”
“यानी हो माधव धीमरे !”
उसने हामी न भरी । लेकिन इंकार भी न किया ।
सबसे पहले मैंने उसकी शक्ल सूरत, कद काठ का जायजा लिया ।
कद काठ में वो सार्थक जैसा ही था और उसी की तरह क्लीनशेव्ड था । रंगत और सूरत उसकी टिपीकल नेपाली थी, लिहाजा नेपालियों से गैरवाकिफ कोई शख्स फासले से उसकी शिनाख्त सार्थक के तौर पर करता तो कोई बड़ी बात न होती । ठण्ड में उस मौसम में भी वो एक घिसी हुई जींस और बिना स्लीव की गोल गले की काली टी-शर्ट पहने था ।
“शरद परमार ने कहा था” - मैंने झूठ का सहारा लिया - “कि अगर मैं उस के हवाले से तुम्हारे पास पहुंचूंगा तो तुम मेरे से बात करने में हील हुज्जत नहीं करोगे ।”
शरद के नाम से उसका मिजाज बदला, वो चौखट पर से हटा । मैं भीतर दाखिल हुआ तो मैंने खुद को एक माचिस की डिबिया से जरा बड़े कमरे में पाया । उसने एक कुर्सी की तरफ इशारा किया जिसकी बाबत बरबस मुझे सोचना पड़ा कि वो मेरा वजन सम्भाल पायेगी या नहीं ।
सम्भल कर मैं उस पर बैठा ।
“बोलो ।” - मेरे सामने बैठता वो शुष्क स्वर में बोला ।
वो बहुत उतावला हो के दिखा रहा था । लिहाजा कोई भूमिका बनाने का हाल नहीं था ।
“सुना है” - मैं बोला – “हाल में सार्थक बराल से तुम्हारी कोई पंगेबाजी चल रही थी !”
“अगर ये बात करनी है तो... निकल लो ।”
“बात तो यही करनी है !”
“गो अवे ।”
“शरद सुनेगा कि तुम मेरे से ऐसे पेश आये थे तो क्या सोचेगा वो ! मेरी नहीं तो शरद की तो लाज रखो जो इतनी ऊंची हैसियत वाला होके भी तुम्हें अपना दोस्त मानता है !”
उसकी त्योरी ढ़ीली पड़ी ।
मैंने फिर अपना सवाल दोहराया । और जोड़ा - “तुमने उसकी कार की हैडलाइट फोड़ दी थी !”
“कौन बोला ऐसा ?” - वो फिर भड़कने को हुआ - “वो साला सार्थक ही बोला होगा !”
“कोई बोला । तुम बात की तसदीक करो या उससे इंकार करो ।”
“हां, फोड़ी थी मैंने सार्थक की सान्त्रो की हैडलाइट । करता न कुछ मेरे खिलाफ ! कोई एक्शन ले के दिखाता ।”
“उसकी बीवी का भी फाश ढ़ण्ग से जिक्र किया ! धमकी दी कि उसकी गुस्ताखी का खामियाजा श्यामला को भुगतना पड़ेगा । भुगतना पड़ा । जान से गयी बेचारी । लिहाजा जो कहा, वो कर दिखाया !”
“डोंट टाक नानसेंस ! मेरे पास श्यामला के कत्ल की आयरनक्लैड एलीबाई है जिसे कोई नहीं हिला सकता ।”
“लोन शार्किंग तुम्हारा रेगुलर साइड बिजनेस है ।”
“बिजनेस नहीं है, सबाब का, पुन्य का काम है । इस तरीके से मैं फैलो नेपालियों की हैल्प करता हूं साथ में थोड़ी सी अपनी भी हैल्प कर लेता हूं तो क्या गुनाह करता हूं ? मैं कोई साधु महात्मा धर्मात्मा तो नहीं ! वालंटियर तो नहीं ! जो लोगों को फोकट में माली इमदाद पहुंचाऊं ! मुफ्त में कुछ नहीं मिलता इस दुनिया में, मिस्टर । न मुझे, न सार्थक को, न किसी और को । समझे ?”
“तुम रोजवुड क्लब में बतौर मैनेजर मुलाजिम हो । कितनी तनख्वाह है ?”
“तुमसे मतलब ?”
“लाख से कम क्या होगी ! या डेढ़ लाख ! दो लाख !”
“पागल हुए हो !”
“कोई और प्रॉफिटेबल साइड बिजनेस ?”
“किस फिराक में हो ?”
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