लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

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mastram
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

Post by mastram »

‘‘पुलिस जब तुम्हारे पीछे पड़ेगी तो मेरा अलावा भी कोई ना कोई गवाह खोज निकालेगी, जिसने ऐन कत्ल के वक्त तुम्हें हवेली के भीतर या उसके आस-पास देखा होगा। प्रकाश के कमरे से तुम्हारे फिंगर प्रिंट भी अवश्य ही बरामद होंगे। देखो गुलेगुलजार हर सबूत तुम्हारे खिलाफ है, तुम बच नहीं सकती। हरगिज-हरगिज भी नहीं बच सकती।“
‘‘ओह गॉड ये आदमी तो मुझे कातिल साबित करने की कसम खाये बैठा है।‘‘
‘‘मैं नहीं, तुम्हारे कुकर्म तुम्हें कातिल साबित करेंगे। फिर अपने घर से हजारों मील दूर इस शहर में अपनी मौजूदगी का क्या जवाब है तुम्हारे पास! नहीं मैडम तुम नहीं बच सकतीं।‘‘
‘‘मगर मैंने प्रकाश का कत्ल नहीं किया है।‘‘
‘‘ये बात तुम पुलिस को समझाना।‘‘
”सुनो! तुम इस किस्से को यहीं खत्म क्यों नहीं कर देते?“
‘‘कर देता हूं मगर पहले तुम मुझे सारी बात बताओ, बिना कुछ छिपाये, बदले में मैं तुमसे वादा करता हूं कि कम से कम मेरी वजह से पुलिस तुम तक नहीं पहुंचेगी। खुद तलाश कर ले तो जुदा बात है।‘‘
‘‘तुम इन बेवजह के पचड़ों में क्यों पड़ते हो, भूल क्यों नहीं जाते ये सब?‘‘
कहती हुई वो मेरे पहलू में मुझसे सटकर बैठ गई उसका एक उरोज मेरी कोहनियों पर दस्तक देने लगा। अचानक जैसे उसे याद हो आया था कि वो एक लड़की थी - एक ऐसी लड़की जिसपर जवानी झूम कर आई थी। जिसका अंग-अंग सांचे में ढला हुआ था। लिहाजा उसने अपना आखिरी हथियार आजमाना शुरू कर दिया था।
”नहीं भूल सकता - अब ये किस्सा खत्म नहीं हो सकता।“
”हो सकता है“ - वो अपना एक हाथ मेरी जांघ पर रखती हुई बोली - ”तुम्हारे किए हो सकता है।“
मैं खामोश रहा।
वह धीरे से उठकर खड़ी हो गई। उसने अपना गाउन उतार कर एक तरफ फैंक दिया। मैंने हड़बड़ा कर राकेश की तरफ देखा। वो खामोशी से बैठा हुआ सिगरेट फूंक रहा था।
”देखो“ - रोजी बोली - मैं प्रकाश के कमरे में गई थी, इसकी खबर सिर्फ तुम्हें है, इस बाबत अगर तुम खामोशी अख्तियार कर लो तो पुलिस को हरगिज-हरगिज भी ये पता नहीं चलेगा की मैं मौका-ए-वारदात पर गई थी।‘‘
”मैं ऐसा क्यों करूँगा?“
”मेरी खातिर, अपनी रोजी की खातिर, देखना कितनी ऐश कराती है ममा तुम्हे।“
मैं हकबकाया! कैसी हर्राफा थी वो, अभी यार की चिता भी नहीं जली थी और वो मुझे अपनी जवानी के हिंडोले पर झूला झुलाने की तैयारी कर रही थी।
‘‘तुमने कभी जन्नत की सैर की है?‘‘ वो बोली।
‘‘नहीं।‘‘
‘‘मैं कराऊंगी, बस इस कहानी को यहीं खत्म कर दो।‘‘
कहकर उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर बड़े ही मादक अंदाज में अंगड़ाई ली।
मुझे अपना गला सूखता सा प्रतीत हुआ।
”मैं कैसी लग रही हूँ?“
‘‘एक नम्बर की छिनाल।“
तत्काल उसके चेहरे पर हाहाकारी भाव आये। मुझे लगा वो मुझपर झपटने वाली है। मगर ऐसा नहीं हुआ। वहीं खड़ी वो अपनी मुट्ठियां खोलती बंद करती रही। इस दौरान उसके चेहरे पर एक के बाद दूसरे भाव आये और चले गये।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया।
‘‘आराम से बैठ जाओ बहन-जी, और यकीन जानों बिना जुबान खोले तुम्हारी खलासी नहीं होने वाली।‘‘
जवाब मैं वह कुछ कहते-कहते चुप हो गयी। उसने एक नजर राकेश पर डाली मगर उधर से कोई प्रोत्साहन मिलता ना पाकर धम्म से सोफे पर बैठ गयी।
‘‘क्या जानने चाहते हो?“
”सबसे पहले तो तुम हवेली में घटित एक महीने पुरानी घटना का खुलासा करो। तुमने जूही के डैडी पर चाकू से हमला करने का अभिनय क्यों किया, जूही द्वारा गोली चलाये जाने के बावजूद तुम जिन्दा कैसे बच गई और फिर प्रकाश ने तुम्हे कब्र में दफनाने का अभिनय क्यों किया?“
”देखो मैंने जो भी किया - प्रकाश के कहने पर किया, अपने प्यार के हाथों मजबूर होकर किया। इसलिए किया क्योंकि मैं प्रकाश की सलामती के प्रति फिक्रमंद थी।“
”यानी की जूही के हाथों कत्ल होने का अभिनय करने के लिए तुम्हें प्रकाश ने कहा था।“
”हाँ।“
”क्यों?“
‘‘मैं सिर्फ इतना जानती हूं कि कोई लाल हवेली खरीदना चाहता था, और प्रकाश उसकी मदद कर रहा था।‘‘
‘‘खरीददार कौन था?‘‘
”मैं नही जानती प्रकाश ने मुझे इस बारे में कभी कुछ नहीं बताया।“
”लेकिन तुम्हारे कत्ल की नौटंकी से हवेली कैसे बिक सकती थी?“
”क्योंकि वो जो कोई भी था, जूही के डैडी को ब्लैकमेल करके उनसे लाल हवेली का सौदा करना चाहता था। जिस वक्त जूही ने मुझ पर फायर किया उस वक्त की कुछ तस्वीरें ले ली गई थीं। उन्हीं तस्वीरों को हथियार बनाकर मानसिंह को ब्लैकमेल करने का प्लान था। मगर इससे पहले कि वो ऐसा कुछ कर पाता मानसिंह की मौत हो गई और कहानी खत्म।“
”बाद में उसने वैसी ही कोई कोशिश जूही पर क्यों नहीं की?“
”की गई थी, ये काम दिलावर सिंह को सौंपा गया। मगर जूही किसी भी कीमत पर हवेली का सौदा करने को राजी नहीं हुई, जेल भिजवाने की धमकी का भी उसपर कोई असर नहीं हुआ। दिलावर सिंह के जरिए उसपर कई बार दबाव बनाने की कोशिश की गयी मगर कोई फायदा नहीं हुआ।“
”क्या मानसिंह की मौत में दिलावर का हाथ हो सकता है?“
‘‘ईडिएट वो महज एक दुर्घटना थी, दूसरी बात अगर ऐसा नहीं भी था तो दिलावर को उसकी मौत से कुछ भी हॉसिल नहीं था, उल्टा अगर वे कुछ दिन और जिन्दा रह जाते तो दिलावर उन्हे हवेली बेचने का मजबूर कर सकता था, और हवेली के असली खरीदार से उसे मोटी रकम हासिल हो सकती थी।“
”वो खलीफा जो कोई भी है, वो हवेली क्यों खरीदना चाहता है?“
”मुझे नहीं मालूम।“
”प्रकाश के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?“
”क्या मतलब?“
”उसका कत्ल क्यों हुआ?“
”अब मैं क्या कह सकती हूँ?“
”कोई अंदाज तो लगा ही सकती हो।“
फौरन उसने इंकार में सिर हिलाया।
”क्या उसका कत्ल दिलावर सिंह ने किया या करवाया हो सकता है?“
”मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकती।“
”फिर किस बारे में कहोगी?“
वो खामोश रही।
”तुम लाल हवेली क्यों गई थी?“
”प्रकाश के बुलावे पर।“
”अक्सर जाती हो।“
”नहीं, मानसिंह की मौत के बाद ये मेरा दूसरा फेरा था।“
‘‘पहले फेरे में भूत बनकर जूही को डराने गयी थीं।‘‘
‘‘हां।‘‘
”आज क्यों गई थी?“
”कहा न प्रकाश के बुलाने पर।“ वो झल्ला उठी।
”मैंने सुना था, मेरी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं, मैं ये जानना चाहता हूँ कि प्रकाश ने तुम्हें क्यों बुलाया था?“
”मुझे नहीं मालूम।“
”या फिर बताना नहीं चाहती।“
”देखो मुझे सचमुच नहीं मालूम की प्रकाश ने मुझे क्यों बुलाया था। मुझसे मुलाकात हो पाने से पहले ही वो कत्ल कर दिया गया। लिहाजा कारण जो भी था वो प्रकाश के साथ ही खत्म हो गया।“
”ऐसा तुम कहीं इसलिए तो नहीं कह रहीं क्योंकि तुम्हारी किसी भी बात को झूठा साबित करने के लिए प्रकाश अब जीवित नहीं है।“
”मैं सिर्फ और सिर्फ हकीकत बयान कर रही हूँ।“
”चलो मान लिया कि तुम सच कह रही हो, तुमसे मुलाकात होने से पहले ही प्रकाश का कत्ल हो चुका था, मगर जब तुम्हें मालूम था कि प्रकाश मर चुका है, तो फिर तुम दोबारा उसके कमरे में क्या करने गई थी?“
”वो .... वो.... मैं अपना पर्स भूल आई थी, जो कि मेरा रिश्ता प्रकाश के कत्ल से जोड़ सकता था, उस पर्स के सहारे पुलिस बड़ी आसानी से मुझ तक पहुंच जाती। वो पर्स लेने के लिए मैं दोबारा प्रकाश के कमरे में गई।“
”तुम झूठ बोल रही हो।“
”क.....क.....क्या?“ वह हकलाती हुई बोली - ”क्या कहना चाहते हो तुम?“
”यही कि प्रकाश के कमरे में दोबारा तुम इसलिए नहीं गई क्योंकि वहाँ तुम्हारा पर्स रह गया था बल्कि इसलिए गई क्योंकि तुम्हें वो चिट्ठी चाहिए थी जो अभी भी तुम्हारे गिरेबां में तुम्हारी अंगिया के भीतर मौजूद है।“
मेरी बात सुनकर वो हकबका सी गई। जबकि राकेश अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ, वो सधे कदमों से चलता हुआ रोजी के करीब पहुंचा।
”चटाख।“ - अपने दाहिने हाथ का एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसने रोजी के गाल पर रसीद कर दिया।
”हरामजादी“ - वो नफरत भरे स्वर में बोला - ‘‘तू मुझे डबल क्रास करना चाहती थी।“
रोजी के मुंह से बोल तक न फूटा।
”अगर तेरी इस हरकत की खबर दिलावर साहब को लग गई तो वह तुझे जिंदा दफन करवा देंगे।“
”तुम गलत समझ रहे हो, मेरा वैसा कोई इरादा नहीं था। अगर होता तो मैं यहां वापस लौटकर क्यों आती?“
”तो फिर यहां आते के साथ ही तूने ये क्यों कहा कि वह प्रोनोट तुझे नहीं मिला। वो प्रकाश के पास था ही नहीं, और अगर था तो कातिल उसे अपने साथ ले गया।“
”वो तो मैंने यूंही मजाक में कह दिया था, मेरा इरादा बाद में उसकी बाबत सबकुछ तुम्हें सच-सच बता देने का था।“
”ठीक है तू सही है, मैं ही बेवजह तुझ पर शक कर बैठा। अब ला वो प्रोनोट मुझे दे दे।“
कहते हुए राकेश ने अपना एक हाथ उसके आगे फैला दिया।
”नहीं“ -रोजी दो कदम पीछे हट गई - ”वो चिट्ठी मैं तुम्हें नहीं दूंगी।“
”क्यों?“
”मुझे तुम पर ऐतबार नहीं है।“
”अब हो जायेगा“ - कहते हुए राकेश ने रिवाल्वर निकालकर उस पर तान दिया - ‘‘अब क्या कहती है?“
”वो प्रोनोट मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर नहीं दूँगी।“
”चाहे जान चली जाए।“
रोजी खामोश रही, उसने एक बार अपने सूख आये होठां पर जुबान फिराकर उन्हें तर किया फिर मदद मांगती निगाहों से मेरी तरफ देखा।
उसकी निगाहों का अनुसरण करता हुआ राकेश मेरी तरफ घूम गया।
”ओह तो जनाब जिन्दा हैं, अभी तक।“
”क्या मतलब?“ - मैं हड़बड़ाया।
”मतलब ये ......धांय।“ उसने गोली चला दी।
ठीक उसी वक्त रोजी ने उसे धक्का दे दिया। निशाना चूक गया। गोली मेरे सिर के काफी ऊपर से गुजर गई।
वह सम्भला, सम्भलकर उसने पुनः मुझे निशाना बनाना चाहा। मैंने तत्काल अपनी रिवाल्वर निकालकर राकेश की दिशा में फायर झोंक दिया। गोली उसकी खोपड़ी में जा घुसी। खोपड़ी के परखच्चे उड़ गये। रोजी दरवाजे की तरफ भागी, हड़बड़ाकर मैं उसके पीछे दौड़ा। तब तक वो दरवाजा पार कर चुकी थी। कमरे से निकलकर मैंने अपने आजू-बाजू निगाह दौड़ाई, वो मुझे सीढ़ियां उतरती दिखाई दी। मैं पूरी ताकत से उसकी दिशा में दौड़ पड़ा।
ग्रॉउंड फ्लोर पर पहुंच पाने से पहले ही मैंने उसे दबोच लिया।
”छोड़ो-छोड़ो“ - वो मेरी पकड़ में छटपटाती हुई बोली - ”मैं किसी को नहीं बताऊँगी की राकेश का कत्ल तुमने किया है। बदले में तुम्हें मेरी जानबख्शी करनी होगी।“
”नॉनसेंस मैंने आत्मरक्षा के लिए उस पर गोली चलाई थी, अगर मैं ऐसा नहीं करता तो वह मुझे जान से मार देता, वो सिर्फ सैल्फ डिफेंस था ना कि कत्ल।“
‘‘फिर तो मैं तुम्हारे लिए बहुत काम की साबित हो सकती हूँ, मैं तुम्हारे पकड़े जाने पर एक चश्मदीद गवाह की हैसियत से तुम्हारे हक में गवाही दे सकती हूँ, यू नो।“
”यस स्वीट हार्ट।“
”मेरे कत्ल से तुम्हे क्या हॉसिल होगा।“
”कुछ भी नहीं।“
”फिर तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो?“
”क्या बकती हो मैं ऐसा क्यों चाहूँगा?“
”तो फिर मुझे पकड़ने के लिए क्यों दौड़े थे?“
”तुम वहां से भागी ही क्यों?“
”मैंने सोचा“ - वो बड़े ही मासूम अंदाज में बोली - ”कि राकेश का कत्ल करने के बाद तुम मेरा भी कत्ल कर दोगे, क्योंकि मैंने तुम्हें उसका कत्ल करते देख लिया था। बस यही सोचकर मैं वहाँ से भाग खड़ी हुई।“
”वो फ्लैट किसका था?“
”मालूम नहीं, वैसे राकेश कहता है कि वो उसके किसी फ्रैंड का है जो कि इन दिनों कहीं बाहर गया हुआ है। जाने से पहले वो देखभाल के लिए फ्लैट की चाभी राकेश को सौंप गया था।“
”यानी की तुम यहां नहीं रहती हो।“
”नहीं।“
”तो फिर कहाँ रहती हो?“
”आर्य नगर में।“
”अब वहीं जाओगी।“
‘‘हाँ।‘‘
”अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ वहां तक चल सकता हूं।“
”थैंक्यू“ - वो बोली - ”तुम अच्छे आदमी लगते हो। इसलिए मैं जो कुछ भी जानती हूं तुम्हें बता देना चाहती हूं।‘‘
बाहर आकर हम दोनों एक साइकिल रिक्शा पर सवार हो गये।
पूरे रास्ते वो मुझसे सटी सिमटी-सी बैठी रही। और यदा-कदा रिक्शे वाले को तेज चलने के लिए हाँक लगा देती थी।
तकरीबन बीस मिनट पश्चात। हम आर्य नगर पहुंचे। रिक्शे वाले को उसने तीस रूपये देकर सड़क से ही वापस लौटा दिया।
तत्पश्चात वो मुझे एक दो मंजिला मकान के सामने ले गई।
”तुम यहां रहती हो।“
”हाँ।“ - वो दरवाजा खोलती हुई बोली - ”ये हमारा लव-नेस्ट था। मैंने और प्रकाश ने बहुत सारी रातें यहां इकट्ठे बिताई हैं, आओ।“
दरवाजा बंद करके वो मेरी तरफ घूमी।
”तुम बैठो“ - वो बोली - ”मैं कॉफी बना कर लाती हूँ।“
मैंने सहमती में सिर हिला दिया। वो सामने की तरफ एक दरवाजे के पीछे जाकर मेरी नजरों से ओझल हो गई।
मैं फौरन दरवाजे के पास पहुंचा। मैंने सावधानी पूर्वक दरवाजा खोलकर भीतर झांका, वह एक लम्बा-चौड़ा कमरा था जो कि इस वक्त खाली पड़ा था, दाई तरफ एक और दरवाजा नजर आया, मैंने उसे खोलकर देखा, मगर आश्चर्य रोजी वहां भी नहीं थी।
अभी मैं वापस जाने की लगा था कि मुझे रोजी की आवाज सुनाई दी।
”हल्लो, मैं यहां हूँ।“
मैं आवाज की दिशा में पलट गया।
सामने रोजी खड़ी थी, अब तो मेरी हालत रंगे हाथों पकड़े जाने जैसी होकर रह गई।
”किसे तलाश रहे हो?“
”तु...तुम्हें..... और भला कौन है यहाँ?“
”कोई खास वजह थी।“
‘‘माचिस‘‘
”माचिस।“ - वो तनिक चौंकी।
”सिगरेट सुलगाना है मेरा लाइटर काम नहीं कर रहा।“
‘‘अभी लाई।‘‘
उसने एक माचिस लाकर मेरी हथेली पर रख दिया।
एक सिगरेट सुलगाने के पश्चात् मैंने माचिस उसे वापस लौटा दिया, वो माचिस लेकर अंदर चली गई, मैं वापस बैठक में आ गया।
थोड़ी देर बाद वो कॉफी की ट्रे हाथ में पकड़े हुए ड्राइंग रूम में दाखिल हुई। कपों को सेंट्रल टेबल पर रखने के पश्चात् वो एक स्टूल पर बैठ गई।
‘‘क्या है उस चिट्ठी में जिसके लिए राकेश इतनी बुरी तरह पेश आया था तुम्हारे साथ?“
‘‘लो तुम खुद देख लो।‘‘
कहकर उसने अपनी अंगिया से वो चिट्ठी निकालकर मेरे हवाले कर दी। मगर वो कोई चिट्ठी नहीं थी, एक स्टॉम्प पेपर था। जिसके एक कोने में जूही के सिग्नेचर मौजूद थे, कागज पर दो लोगों के हस्ताक्षर और थे जिनमें से एक किसी वकील के थे और दूसरा खुद प्रकाश का था। दोनों व्यक्तियों ने अपने सिग्नेचर के आगे अपना पूरा नाम और पता लिखा था। मैंने चिट्ठी पढ़ना शुरू किया। इबारत कुछ यूं थी।
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

Post by mastram »

”मैं कु. जूही सिंह पुत्री स्व. श्री मानसिंह अपनी मर्जी से अपने पूरे होशोहवास में अपनी निजी मिल्कियत लाल हवेली को पचास लाख रुपयों में श्री दिलावर सिंह पुत्र स्व. श्री बछेड़ू सिंह को बेच दिया है। अब इस हवेली पर मेरा कोई अधिकार शेष नहीं बचा है।
मैं यह घोषणा करती हूं कि उक्त हवेली सिर्फ और सिर्फ मेरी मिल्कियत है, जिसे बेचने का पूरा अधिकार मेरे पास है। मैं अपनी सुविधा अनुसार अगले छह महीनों में कभी भी यह हवेली खाली कर दूंगी।
अगर छह महीने में मैं हवेली खाली नहीं करती हूं तो खरीददार श्री दिलावर सिंह को मेरे खिलाफ किसी भी तरह की कानूनी कार्रवाई का पूरा अधिकार होगा।
कुमारी जूही सिंह।“
नीचे उसके सिग्नेचर थे।
पढ़कर मैं सन्नाटे में आ गया, मेरी खोपड़ी भिन्ना सी गई।
”क्या सचमुच ऐसा कोई सौदा हुआ था?“ मैं रोजी को अपलक घूरता हुआ बोला।
”नहीं“ - वो इंकार में सिर हिलाती हुई बोली - ”सवाल ही नहीं उठता।“
”जूही के हस्ताक्षर जाली हैं।“
”नहीं।“
”वो तैयार कैसे हुई ऐसी किसी तहरीर पर हस्ताक्षर करने के लिए?“
”जब जूही ने सिग्नेचर किए थे तब ये स्टॉम्प पेपर कोरा था, सौदे की बाबत टाइपिंग बाद में की गई, तब की गई, जबकि जूही इस पर सिग्नेचर कर चुकी थी।“
‘‘पर ऐसे किसी ब्लाइंड सिग्नेचर की नौबत ही क्यों कर आई?“
”प्रकाश ने करवाया था।“
”मैं समझा नहीं, अच्छा होगा अगर तुम कहानी को टी.वी. सीरियल की तरह किस्तों में बयान करने की बजाय एक ही बार में, किसी फिल्म की तरह बयान कर डालो।“
”ओके“ - वो पहली बार मुस्कराई - ”मैं तुम्हे पूरी फिल्म दिखाती हूँ। एक ही बार में दिखाती हूँ। सुनो छह या सात रोज पहले एक सुबह प्रकाश इस कोरे स्टॉम्प पेपर को हाथ में लिए जूही के पास गया और उससे इसपर साइन करने को कहा।“
”तब क्या जूही ने उससे ये सवाल नहीं किया होगा कि वो ब्लैंक स्टॉम्प पेपर पर उसके दस्तखत क्यों करवाना चाहता है?“
”किया था मगर तब प्रकाश यह कहकर बात टाल गया कि ”घबराओ मत मैं तुम्हारी प्रापर्टी नहीं हड़पूंगा।“ जवाब में जूही भी हंस पड़ी और फिर उसी हंसी मजाक के माहौल में उसने दस्तखत कर दिये थे।‘‘
”मगर प्रकाश ने ऐसा क्यों किया?‘‘
”उसकी मजबूरी थी। दिलावर से लाल हवेली बिकवा देने की बात कहके दस लाख का कमीशन एडवांस लिया था, और कुछ ही दिनों में सारा पैसा जुए में हार गया था। उधर उसकी लाख कोशिशों के बाद भी जूही हवेली बेचने को तैयार नहीं हुई। तब दिलावर उससे अपने पैसों का तकादा करने लगा। मगर प्रकाश के पास होते तब तो देता। तब उसने प्रकाश को यह स्टॉम्प पेपर लाकर दिया और कहा कि अगर वो इसपर जूही के हस्ताक्षर कराकर दे दे तो वह अपने पैसों का तकादा छोड़ देगा।“
‘‘मुझे नहीं लगता ऐसी कोई तहरीर कोर्ट में मान्य हो सकती है, वह भी तब जब तहरीर लिखने वाला उसे चैलेंज करने के लिए उपलब्ध हो। ऐसे में तो सालों साल मुकदमेंबाजी होती रहती और तब तक हवेली पर जूही का कब्जा बरकरार रहता।‘‘
‘‘हो सकता है दिलावर का इरादा उसकी हत्या करा देने का रहा हो। उसकी मौत के बाद जब वह हवेली पर कब्जा जमा लेता तो किसमें दम था कि वह दिलावर को बेदखल कर पाता।‘‘
‘‘दम तो है तुम्हारी बात में, लेकिन एक बात अभी भी समझ में नहीं आई कि दस लाख रूपये इतनी बड़ी रकम तो नहीं थी जो प्रकाश उसका इंतजाम नहीं कर पाता। वह अपने पिता से ले सकता था, जूही से उधार मांग सकता था।‘‘
‘‘उसके पिता ने बहुत पहले उसे घर से निकाल दिया था। तब भी वजह यही थी जुए की लत! मुम्बई में वह लाखों रूपये जुए में उड़ा चुका था और लाखों का कर्जदार हो चुका था। एक तो बिजनेस मैन का बेटा था ऊपर से उसके पिता की अच्छी साख थी इसलिये बड़ी आसानी से उसे उधार मिल जाता था, जो बात उन लोगों को नहीं मालूम थी वो ये थी कि श्यामसिंह का बिजनेस चरमराया हुआ था। उनकी माली हालत लगातार खराब होती जा रही थी।
मुसीबत तब हुई जब गैम्बलिंग का रैकेट चलाने वालों के रिकवरी एजेंट्स ने प्रकाश पर दबाव बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे उनका दबाव बढ़ता चला गया और एक वक्त वो भी आया जब उन लोगों ने प्रकाश को इतनी बुरी तरह मारा कि वह आठ दिन तक कोमा में रहा था। सारी बात जब उसके पिता को पता चली तो उन्होंने जैसे-तैसे रूपयों का-जो कि इंट्रेस्ट लगाकर एक करोड़ चालीस लाख हो चुका था-का इंतजाम कर प्रकाश का उन लोगों से पीछा छुड़वाया था। इस कोशिश में उन्हें अपना घर तक बेचना पड़ा था। सच पूछो तो उसने अपने पिता को सड़क पर पहुंचा दिया था। इसके बाद बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने डूबते बिजनेस को बचाया था।‘‘
‘‘और ऐसे लड़के से तुम प्यार करती थी?‘‘
‘‘गलत मैं एक ऐसे लड़के से प्यार करती थी जो हर वक्त नोट चमकाया करता था। और फिर मैं कौन सी दूध की धुली थी। जब उससे मेरी मुलाकात हुई तो मैं मुम्बई के एक बियर बार में डांस किया करती थी, और तब तक जाने कितने मर्दों का बिस्तर गरम कर चुकी थी। मुझमें उसे जाने क्या नजर आया कि देखते ही मुझपर फुल फिदा हो गया।‘‘
‘‘रोज बार खुलते ही आ बैठता और बंद होने से पहले हिलता तक ना था। मुझपर लाइन मारना उसका फुल टाइम जॉब बन गया। नहीं जानता था कि वह बेवजह मेहनत कर रहा था, वरना अपनी अंटी थोड़ी ढीली करता और मुझे पा लेता, मगर वो मुझे उस तरह पाने का तमन्नाई नहीं था। वो तो मुझपर हमेशा के लिए अपना क्लेम ठोक देना चाहता था।‘‘
‘‘किस्मत का खेल देखो कि उन्हीं दिनों महाराष्ट्र में बीयर बारों पर पाबंदी लगा दी गई। हजारों बार बालाओं की तरह मैं भी खड़े पैर बेरोजगार हो गयी। तब प्रकाश ने मेरे रहने खाने और ऐश का सारा इंतजाम करके दिया। मैंने भी उस दिन के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसे ही अपना भगवान मान लिया, वो जो कहता गया मैं करती गई। मगर जब उसने अपनी बहन को धोखा देने की कोशिश की तो मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने उसकी जी भरकर लानत-मलानत की। नतीजा ये हुआ कि वह दिलावर के यहां से यह पेपर - जाने कैसे - मगर चुरा लाया।“
”सच पूछो तो उसकी मौत की वजह मैं ही थी। मैंने ही उसे दिलावर से मुखालफत के लिए उकसाया और यही बात उसकी मौत का कारण बन गयी। काश मैंने उसे ऐसा करने को नहीं कहा होता तो शायद वो जिन्दा बच जाता।“
कहती हुई वो सिसक उठी।
मैंने उसे चुप कराने की कोशिश नहीं की बल्कि खामोश रहकर उसके चुप होने का इंतजार करने लगा।
कुछ एक मिनट यूं ही गुजरे। वह शांत हुई। मैंने अपना रुमाल उसे दे दिया। वो आंसुओं से भीगा अपना चेहरा साफ करने के पश्चात रुमाल मुझे वापस लौटाती हुई बोली - ”थैंक्यू।“
जवाब में मैंने अपने सिर को हल्की सी जुम्बिस दी फिर उसकी आंखों में देखता हुआ बोला- ”तुम्हें क्या लगता है प्रकाश का कत्ल दिलावर सिंह ने किया है।“
‘‘और कौन करेगा?“
”क्या पता उसका कत्ल किसी और ने किया हो?“
”इम्पॉसिबल“ - वो निर्णायक स्वर में बोली - ”प्रकाश का कत्ल दिलावर सिंह का ही किया धरा है।“
”अगर ऐसा है तो फिर कत्ल करने वाले ने इस कागज को वहीं क्यों छोड़ दिया, क्यों नहीं वो इस प्रोनोट को अपने साथ ले गया?“
‘‘क्योंकि तभी मैं वहां पहुंच गई थी। मुझे यकीन है कि जब मैं वहां पहुंची थी तो कातिल अभी भीतर ही था। मैंने भीतर से उभरती आहट स्पष्ट सुनी थी। फिर जब मैं कमरे में दाखिल हुई तो मैंने पाया कि बॉलकनी का दरवाजा धीरे-धीरे बंद हो रहा था, यानि उसी पल कोई उसे खोलकर बाहर निकला था।‘‘
‘‘तुमने जानने की कोशिश नहीं की - वह कौन था।‘‘
‘‘नहीं क्योंकि तभी मेरी निगाह प्रकाश की लाश पर पड़ गई। मैंने बड़ी मुश्किल से खुद को चीखने से रोका। खुद पर काबू पाया और चुपचाप जैसे वहां पहुंची थी वैसे ही बाहर निकल गयी। फिर बाहर आकर मैंने राकेश को फोन किया और उसे प्रकाश के कत्ल की बाबत बता दिया।‘‘
‘‘फिर क्या हुआ?‘‘
‘‘दो मिनट बाद मेरे मोबाइल पर राकेश का फोन आया उसने मुझे इस स्टॉम्प पेपर के बारे में बताते हुए कहा कि मैं दोबारा प्रकाश के कमरे में जाऊं और इसे तलाशने की कोशिश करूं। सुनकर मैं हैरान रह गई, मुझे नहीं मालूम था कि प्रकाश इसे दिलावर से हांसिल करने में कामयाब हो गया था।‘‘
‘‘मगर राकेश का तुमपर क्या होल्ड था, तुम क्यों मजबूर थी उसकी बात मानने को?‘‘
‘‘इसकी दो वजह थी। पहला ये कि उसने मुझसे कोई रिक्वेस्ट नहीं की थी बल्कि बाकायदा धमकी दी थी कि अगर मैंने उसकी बात नहीं मानी तो मेरा अंजाम बुरा होगा। दूसरी कदरन ज्यादा अहम वजह ये थी कि अगर ये प्रेनोट प्रकाश ने हासिल कर लिया था तो मुझे हरगिज भी ये गवारा नहीं था कि ये दोबारा दिलावर सिंह के हाथ लगे।‘‘
‘‘मगर सवाल ये उठता है कि इतने अहम काम के लिए उन लोगों ने तुम्हें ही क्यों चुना?‘‘
‘‘शायद इसलिए क्योंकि उस वक्त मैं हवेली के एकदम करीब थी। उन्हें वहां पहुंचने में टाइम लग सकता था। उस दौरान किसी को प्रकाश के कत्ल की खबर लग सकती थी। ऐसे में अगर पुलिस उनसे पहले वहां पहुंच जाती तो उनका किया धरा बेकार हो जाता। दूसरी वजह ये रही हो सकती है कि वे लोग अपना नाम प्रकाश के कत्ल से जुड़ने देना नहीं चाहते होंगे। मैं अगर किसी तरह फंस भी जाती तो उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला था।‘‘
‘‘तुम ठीक कह रही हो, दूसरी बात ही ज्यादा अहम लगती है।‘‘
‘‘तुम सचमुच प्रकाश के बुलावे पर ही वहां गई थीं।‘‘
‘‘हां उसी ने मुझे फोन करके वहां बुलाया था।‘‘
”किसलिए?“
”वह जूही को दिलावर सिंह द्वारा फैलाये जा रहे षड़यंत्र के बारे में बताना चाहता था। उसने आज जूही को सबकुछ बताने का फैसला किया था। यह भी कि मैं उसकी चलाई गई गोली से मरी नहीं थी बल्कि जिन्दा थी। मगर अफसोस कि ऐसा कुछ कर पाने से पहले ही उसकी हत्या कर दी गई।“
तभी जोर जोर से दरवाजा भड़भड़ाया जाने लगा।
”कौन?“ रोजी शंकित स्वर में बोली।
”पुलिस।“ - बड़ा ही अप्रत्याशित जवाब मिला।
हम दोनों उल्लूओं की तरह एक दूसरे की शक्ल देखने लगे।
”दरवाजा खोलो“ - रौबदार आवाज गूँजी - ” वरना हम इसे तोड़ देंगे।“
”तुम पिछले कमरे में चले जाओ“ -रोजी हड़बड़ाकर बोली - ”मैं दरवाजा खोलती हूँ। पता नहीं पुलिस यहाँ क्यों आई है? मुझे तुम्हारे साथ देखकर नाहक ही शक करेंगे।“
सहमति में सिर हिलाता मैं उठ खड़ा हुआ।
पिछले कमरे में पहुँचकर मैंने दरवाजे को थोड़ा सा खुला छोड़ दिया, और यूं बनी झिर्री से बाहर देखने लगा।
दरवाजे के करीब पहुँचकर रोजी ने जैसे ही दरवाजा खोला उसे एक तरफ धकेलते हुए दो पहलवानों जैसे डील-डौल वाले व्यक्ति भीतर घुस आये जो कि कहीं से भी मुझे पुलिसिये नहीं लगे उल्टा उनके हाव-भाव गुण्डे-बदमाशों जैसे थे।
उनके अगले एक्शन ने यह साबित भी कर दिया कि वो पुलिसवाले नहीं थे।
उनमें से एक ने पीछे घूमकर दरवाजे की सिटकनी चढ़ा दी। जबकि दूसरे ने रोजी के बाल पकड़े और उसे सोफे पर धकेल दिया।
”और कौन है तेरे साथ यहाँ?“
”कोई नहीं“ - मुझे रोजी की धीमी और भय से कांपती हुई आवाज सुनाई दी - ”मैं यहाँ अकेली ही रहती हूँ।“
”हमें पहचानती है।“
”नहीं।“
”मेरा नाम जमील है“ - उनमें से एक बोला - ”और यह सलाउद्दीन है! मैं बारूद हूँ और यह तोप है क्या समझी?“
”समझ गई प्रकाश ने बताया था तुम दोनों के बारे में। तुम दोनों दिलावर सिंह के शूटर हो।‘‘
‘‘बस!‘‘
‘‘नहीं उसने एक बात और बताई थी।“
‘‘क्या?‘‘
‘‘यही कि तुम दोनों को अपने बाप का नाम नहीं मालूम।‘‘
‘‘ठहर जा स्साली, हराम का जना बताती है हमको।‘‘ कहते हुए उसने एक जोर का थप्पड़ जड़ दिया रोजी के चेहरे पर। उसकी आंखें छलछला आईं मगर मुंह से उफ! तक ना निकलने दिया उसने।
‘‘मेरे पास तेरे लिए एक सवाल है‘‘ वो कहर भरे स्वर में बोला, ‘‘जो कि मैं दोबारा नहीं पूछूंगा - बता वो स्टॉम्प पेपर कहां है? जो तू प्रकाश के कमरे से उठाकर लाई थी।‘‘
‘‘मुझे वहां ऐसा कोई कागज नहीं मिला था।‘‘
”यानी कि तड़प रही है अपनी दुर्दशा करवाने को।“ इसबार दूसरा पहलवान बोला।
”मैं मरने से नहीं डरती, अगर मेरी मौत तुम्हारे हाथों ही लिखी है तो उसे कोई नहीं रोक सकता। वैसे भी प्रकाश की मौत के बाद मेरे भीतर से जीने की चाह खत्म हो चुकी है।“
”गलत, बिल्कुल गलत तेरी मौत मेरे हाथ नहीं बल्कि जमील के हाथ लिखी है, क्यों जमील?“
”तुझे कैसे मालूम?“ जमील बोला।
”मालूम तभी तो बोला, मैंने इसके गॉड का लाइफ एण्ड डाई रजिस्टर देखा था। उसमें लिखा था कि की रोजी को गोली जमील मारेगा ना कि सलाउद्दीन।“
कहकर वो जोर-जोर से हंस पड़ा।
”देख छोकरी बहुत सारे तरीके आते हैं हमें जुबान खुलवाने के, ऐसे तरीके जिनके बारे में तूने कभी कल्पना तक नहीं की होगी, इसलिए आखिरी मौका देता हूं जमील जो चाहता है उसे बता दे। बदले में हम तुझे जिन्दा और सही सलामत सीतापुर से निकल जाने देंगे?“ सलाउद्दीन कर्कश स्वर में बोला।
जवाब में रोजी ने कसकर अपने होंठ भीच लिए।
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mastram
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

Post by mastram »

”जमील“ - सलाऊद्दीन चीखा - ”गोली मारकर घुटना तोड़ दे स्साली का।“ उसका इतना कहना था कि जमील ने रिवाल्वर की नाल रोजी के घुटने से सटा दिया, ट्रीगर पर धीरे-धीरे उसकी अंगुलियां कसने लगीं। रोजी ने अपनी आंखें बंद कर लीं। वक्त बहुत ही कम था, वह किसी भी क्षण रोजी को अपाहिज कर सकता था। जबकि रोजी तो मानो मौत को गले लगाने के लिए तैयार बैठी थी। उसका चेहरा चट्टान की तरह सख्त नजर आ रहा था। हालांकि यह इमोशंस दिखाने का वक्त नहीं था मगर यूं अपनी आंखों के सामने किसी खूबसूरत लड़की की दुर्दशा होते देखना बंदे को हरगिज भी बर्दाश्त नहीं था।
”अबे सोचता क्या है?“ - सलाउद्दीन बोला - ”गोली चला।“
तत्तकाल जमील की अंगुलियों में हरकत हुई, उस वक्त मेरे सामने रोजी की पीठ थी, उसके घुटने पर रिवाल्वर टिकाये जमील के सिर का बस ऊपरी हिस्सा मुझे नजर आ रहा था। मैंने बिना एक क्षण गंवाये जमील की नीचे झुकी खोपड़ी का निशाना लेकर गोली चला दी। अगर मेरा निशाना जरा सा भी चूक जाता तो वो गोली जमील की बजाय रोजी को ढेर कर जाती। शुक्र था खुदा का कि ऐसा नहीं हुआ।
जमील तत्काल फर्श पर ढेर हो गया। जमील का हश्र देखकर सलाउद्दीन के हौसले पस्त हो गये। उसने फौरन दरवाजा खोलकर बाहर छलांग लगा दी।
ठीक तभी रोजी अपनी जगह से उठी। उसने फर्श से जमील का रिवाल्वर उठाकर हाथ में लिया और खुले दरवाजे से बाहर निकल गई। मैं हड़बड़ाया, यह एक निहायती अहमकाना हरकत थी। सलाउद्दीन बाहर कहीं छुपा हो सकता है। या भागते हुए वह, पलटकर रोजी पर फायर झोंक सकता था। जबकि पता नहीं रोजी ने कभी रिवाल्वर चलाया भी था या नहीं!“
”रोजी“ - मैंने आवाज दी - ”कहाँ जा रही हो?“ उसने जवाब नहीं दिया।
”रोजी रूक जाओ।“
मैं लगभग चीख सा पड़ा। ठीक तभी ”धांय“ गोली चलने की आवाज! फिर रोजी की चीख तत्पश्चात दूसरा फायर! पुनः एक दर्दनाक चीख! और फिर सबकुछ एकदम शांत। मैं सावधानी बर्तता हुआ बाहर पहुँचा सामने ही दरवाजे से थोड़ा अलग हटकर रोजी की लाश पड़ी थी और उससे चंद कदमों की दूरी पर सलाऊद्दीन मरा पड़ा था।
मैं घुटनों के बल रोजी के करीब बैठ गया, अभी उसके शरीर में हरकत थी, वो जिन्दा थी।
”रोजी“ - मैंने उसे पुकारा - ”तुम मेरी आवाज सुन रही हो।“
जवाब में उसकी बंद पलकों में हल्का सा कम्पन हुआ और फिर उसने धीरे-धीरे आंखें खोल दी।
”रोजी तुम मेरी आवाज सुन रही हो।“
उसने पलकें झपकाकर हामी भरी।
‘‘तुमने ऐसा क्यों किया, क्यों जानबूझकर मौत को गले लगाया?‘‘
जवाब में उसके होंठ फड़फड़ाये। मुझे लगा वो कुछ कहना चाहती है मगर कह नहीं पा रही।
उसने दोबारा कोशिश की।
”मैं.......अब जीकर.....भी.....क्या.....करती?“ वह बहुत ही कठिनाई से बोल रही थी - ”किसके लिए जीती मेरा प्रकाश तो ..... पहले ........... ही ... मुझसे दूर जा चुका है..... अब मैं ..... जिन्दा रहकर .....भी क्या करती.....मैं जा रही.....हूँ अपने प्रकाश के .....और हां एक बात का.....।
उसने जोर से हिचकी ली उसका वाक्य अधूरा रह गया और गर्दन एक ओर को लुढ़क गई।
रोजी की मौत ने न जाने क्यों मुझे हिलाकर रख दिया। हालांकि उससे मेरी वाकफियत चंद घंटों की ही थी। मगर फिर भी मैं उस जैसी खूबसूरत-हुस्नोशान युवती की मौत पर दहल सा गया। भला ये भी कोई उम्र थी मौत को गले लगाने की। मैं पुनः उसके बेडरूम में जा घुसा, मोटे तौर पर वहां की तलाशी ली मगर कुछ हांसिल नहीं हुआ। कुछ हासिल होने की मुझे उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि मुझे यकीन था कि रोजी ने जो कुछ भी बताया था वह सच था।
‘‘हिलना नहीं, वरना शूट कर दूंगा।‘‘ दरवाजे से बाहर निकलते मेरे कदम जहां के तहां ठिठक गये। एक रिवाल्वर की नाल मेरी पसलियों को टकोह रही थी। मेरे सामने सीओ महानायक सिंह राजपूत बावर्दी खड़ा था।
‘‘भीतर चलो।‘‘ उसने हुक्म दिया, ‘‘और खबरदार जो कोई बेजा हरकत की।‘‘
‘‘जनाब आपको गलतफहमी हुई....।‘‘
‘‘जुबान बंद रखो और अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लो।‘‘
ठीक तभी किसी कैमरे की फ्लैश लाइट चमकी। हम दोनों की निगाह एक पल को उधर चली गयी।
‘‘ऐ कौन हो तुम?‘‘ वो फोटो खींचने वाले पर चीखा।
‘‘प्रेस रिपोर्टर हूं साहब! आपने तो कमाल कर दिया, कातिल को रंगे हाथों गिरफ्तार कर दिखाया।‘‘
सुनकर वो शायद खुश हो गया। दोबारा मुझे भीतर जाने को कहने की बजाय मुझे वहीं कवर किये हुए उसने महकमें को फोन लगाया। फिर उसने मुझे जबरन अपनी जीप में सवार कराया और इंतजार करने लगा।
दस मिनट बाद इंस्पेक्टर जसवंत सिंह अपने दल-बल के साथ वहां हाजिर हुआ। मुझे कुछ कहने का मौका दिए बगैर मेरे हाथों में हथकड़ियां डाल दी गयीं। मेरी रिवाल्वर पुलिस ने अपने अधिकार में कर ली। फिर मुझे कोतवाली ले जाया गया जहां मुझे हवालात में ठूंस दिया गया।
हालात अच्छे नहीं थे। पता नहीं मुझपर कौन-कौन सी धाराएं लगाई जाने वाली थीं। मैं कोतवाल जसवंत सिंह से कुछ उम्मीद कर सकता था मगर अपने अधिकारी के खिलाफ जाकर भला वो मेरी मदद क्यों करता।
मेरी वो रात हवालात में गुजरी। रात को मुझे कदरन अच्छा खाना दिया गया, जिसकी मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। मेरा मोबाइल भी कम्बख्तों ने ले लिया था वरना कम से कम डॉली को अपनी गिरफ्तारी की खबर कर सकता था। मैंने कई बार अलग-अलग पुलिसयों के माध्यम से जसवंत सिंह को मैसेज भिजवाया कि मैं उससे बात करना चाहता था। मगर हर बार मुझे यही जवाब मिला कि साहब अभी बिजी थे।
इस दौरान मेरा सिगरेट भी खत्म हो चुका था। शुक्र था मेरा बटुआ कब्जाने का ख्याल उन लोगों को नहीं आया था। मैंने एक सिपाही को कीमत से सौ रूपये ज्यादा दिए तो उसने मुझे सिगरेट का पैकेट और माचिस लाकर दे दिया। मगर किसी भी कीमत पर कम्बख्त ना तो फोन करने के लिए अपना मोबाइल देने को तैयार हुआ ना ही मेरा मैसेज कहीं पहुंचाने को तैयार हुआ।
‘‘चलो साहब ने बुलाया है।‘‘ हवालात का दरवाजा खोलते हुए एक पुलिसिया बोला। मैंने घड़ी देखी, दोपहर के दो बजे थे। आगे अभी पता नहीं क्या होने वाला था। मुझे लेकर वह कोतवाली इंचार्ज के कमरे में पहुंचा। जहां इस्पेक्टर जसवंत सिंह, डॉली और जूही के अलावा, दो अन्य लोग भी मौजूद थे।
‘‘फिलहाल तुम्हे रिहा किया जा रहा है‘‘ - जसवंत सिंह बोला - ‘‘मगर पुलिस को इंफार्म किए बिना तुम शहर से बाहर नहीं जा सकते और फरदर इंवेस्टिगेशन के लिए हर वक्त अवेलेबल रहना है।‘‘
मैंने सिर हिलाकर हामी भरी।
तत्पश्चात हम सभी बाहर निकले। मालूम हुआ जो दो अजनबी लोग हमारे साथ थे, उनमें से एक सत्तारूढ़ पार्टी का एमएलए था और दूसरा वार्ड कमीश्नर था। मैंने दोनों महानुभावों का तहेदिल से शुक्रिया अदा किया।
‘‘ठीक है बेटा हम चलते हैं‘‘ - एमएलए जूही से मुखतिब था, ‘‘कभी भी कैसी भी जरूरत हो निःसंकोच फोन करना। तुम्हारे पिता के लिए हम सभी के दिलों में बहुत इज्जत है। ऊपर से वे हमारे भाई जैसे दोस्त थे, तुम्हारे किसी काम आये तो सोचेंगे दोस्ती का फर्ज अदा किया। मुझे प्रकाश के बारे में भी पता चला, सुनकर बहुत दुख हुआ। इत्मिनान रखो कातिल को उसके किये की सजा जरूर मिलेगी। भगवान दोनों की आत्मा को शांति दें।‘‘ कहकर वो और वार्ड कमीश्नर एक ही कार में सवार हो गये।
फिर मैं डॉली के साथ इम्पाला में आगे बैठ गया और जूही पीछे सवार हो गई।
‘‘खबर कैसे लगी‘‘
‘‘किस बात की? प्रकाश के कत्ल की या तुम्हारी गिरफ्तारी की।‘‘
‘‘दोनों की बता।‘‘
‘‘वो क्या है कि कल जब दिन भर की माथा-पच्ची के बाद शाम को मैं हवेली पहुंची तो वहां पुलिस अपना डेरा डाले हुए थी। पता चला प्रकाश का कत्ल हो गया था। सुनकर जब मैंने तुम दोनों को तलाशने की कोशिश की तो कुछ पता नहीं चला। तब मैंने तुम्हारा मोबाइल ट्राई किया, एक-दो बार उस बेल गई फिर स्विच ऑफ बताने लगा। जूही को फोन किया तो पता चला यह हॉस्पीटल में थी। मैं चुपचाप हवेली से खिसक कर हॉस्पिटल पहुंची। मैंने इससे तुम्हारे बारे में पूछा तो ये सिर्फ इतना ही बता सकी कि तुम इंवेस्टीगेशन पर थे।‘‘
‘‘मैंने इसे बताया कि प्रकाश के साथ क्या हो गया था तो ये हवेली जाने की जिद करने लगी। तब इसे डिस्चार्ज कराकर हम हवेली पहुंचे। तुम्हारे बारे में सोच सोच कर मेरा दम निकले जा रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि तुम्हें कहां तलाश करूं। उधर ये रो रोकर जान देने पर उतारू थी। मैंने जैसे तैसे इसे सम्भाला और सुबह होने का इंतजार करने लगी।‘‘
‘‘आज सुबह मुझे कोतवाल को फोन करने का ख्याल आया। मेरे पास उसका नम्बर नहीं था। तब मैंने गूगल पर कोतवाली का नम्बर सर्च करके उससे बात की तो पता चला तुम हवालात में अपनी खातिरदारी करवा रहे थे। ये बात जब मैंने जूही को बतायी तो इसी ने तुम्हे वहां से छुड़ाने का इंतजाम किया, वरना मैं तो किसी को जानती नहीं थी।‘‘
‘‘ओह बहरहाल तुम दोनों का शुक्रिया।‘‘
‘‘हमने तुम्हारा शुक्रिया कबूल किया।‘‘
कहकर वो खामोश हो गयी।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और धीरे-धीरे कश लेने लगा, ‘‘कल जो तूने इस केस पर भाग दौड़ की उसका क्या रहा?‘‘
‘‘कुछ खास नहीं।‘‘
‘‘तू भूल रही है कि बॉस मैं हूं, तेरा काम सिर्फ रिपोर्टिंग करना है, नतीजे निकालना नहीं।‘‘
‘‘यस बॉस।‘‘
‘‘हां ये टोन कुछ ठीक है। अब बता कल क्या क्या किया?‘‘
उसने बताया, सबकुछ बताया, वो भी बताया कम्बख्त ने जिसे बताने की कोई जरूरत नहीं थी। जैसे कि - उसने अपने नाखून काटे, नेलपॉलिश लगाई, और एक खास बात और कि उसने दो बार लिपस्टिक लगाई थी।
बस कंघी करने के बारे में बताने ही लगी थी कि हम हवेली के गेट पर जा पहुंचे और उसे खामोश हो जाना पड़ा।
हवेली पहुंचकर मैंने नित्यकर्मों से फारिग होने के बाद हैवी डोज नाश्ता लिया फिर कार लेकर बाहर निकल गया। कुछ बातें मेरे दिमाग में घुमड़ रही थीं जिनका फौरी जवाब तलाशने का एक रास्ता मुझे दिखाई दे रहा था। इस वक्त मैं वहीं जा रहा था।
एक घंटे बाद मैं वहां ‘नई सुबह‘ अखबार के लोकल दफ्तर पहुंचा। उस वक्त वहां कुल मिलाकर पांच लोगों का स्टॉफ था। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया, और आने का मंतब्य बताया तो पता चला वे सभी मेरे नाम से वाकिफ थे। उनमें से एक मेरा विजटिंग कार्ड लेकर सामने के केबिन में घुस गया, फिर तुरंत बाद बाहर निकलकर मुझे भीतर भेज दिया।
भीतर पहुंचते ही मैं थमककर खड़ा हो गया। यह वही युवक था जिसने कल रोजी का पीछा करते वक्त मुझे अपनी बाइक पर लिफ्ट दी थी और बाद में फेवीक्विक के जोड़ की तरह मुझसे चिपक कर रह गया था। जाहिर था उसे ‘मियां बीवी और वो‘ के बखेड़े वाली कोई स्टोरी मिलने की उम्मीद थी।
मुझे देखकर वो हकबकाया, ‘‘तुम!‘‘
‘‘जी साक्षात!‘‘
‘‘तो तुम प्राइवेट डिटेक्टिव हो।‘‘ वो मेरे विजटिंग कार्ड पर निगाह जमाये बोला, ‘‘राज शर्मा नाम है तुम्हारा।‘‘
‘‘जी जनाब।‘‘
‘‘प्लीज हैव ए सीट।‘‘
मैं उसके सामने विजिटर चेयर पर बैठ गया।
दस सेकेंड के भीतर पानी का गिलास और अगले मिनट चाय हाजिर हो गयी। जिस युवक के सामने इस वक्त मैं कुर्सी पर बैठा था पता चला वह वहां का ब्यूरो चीफ था, उसका नाम सुशांत तिवारी था। वो बेहद खुशमिजाज इंसान साबित हुआ।
‘‘कल तो यार तुमने अपनी बीवी के यार को जान से ही मार दिया। मुझे मालूम होता तो मैं हरगिज भी वहां से नहीं हिलता।‘‘ कहकर वो हंस पड़ा।
‘‘वैसे जनाब भागे क्यों थे आप वहां से?‘‘
‘‘फोन पर खबर मिली थी कि लाल हवेली में कोई कत्ल हो गया था। वो खास न्यूज थी इसलिए मुझे तुम्हारा पीछा छोड़ना पड़ा। फिर मुझे क्या पता था तुम वहां कोई कत्ल करने वाले हो वरना मैं हिलता ही नहीं वहां से।‘‘
‘‘आपके सामने वो वाकया होता तो क्या आप रोकने की कोशिश करते मुझे?‘‘
‘‘नहीं भई, मैं न्यूज हाउंड हूं। मेरा पेशा खबरें परोसना है, खबरें बनने से रोकना नहीं। तुम अपना काम कर चुके होते तो मैं जनता को बताता कि कितनी निर्ममता से तुमने अपनी बीवी के आशिक को उस वक्त गोली मार दी जब वह तनहा कमरे में तुम्हारी बीवी के साथ उसकी मर्जी से गुलछर्रे उड़ा रहा था।‘‘
इस बार हम दोनों एक साथ हंसे।
‘‘लगता है पुलिस को खबर नहीं लगी अभी तक तुम्हारी।‘‘
‘‘आप बतायेंगे।‘‘
‘‘क्यों भई मैं क्या पुलिस की नौकरी करता हूं?‘‘
‘‘नहीं‘‘
‘‘सो देयर।‘‘
‘‘वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मैंने उसे सेल्फ डीफेंस में गोली मारी थी।‘‘
‘‘ओह फारगेट इट यार!‘‘ वो लापरवाही से बोला, ‘‘स्साला एक नम्बर का मवाली था। दिलावर के लिए काम करता था। अच्छा हुआ धरती का बोझ कुछ हलका हुआ।‘‘
मैंने हैरान निगाहों से उसकी तरफ देखा।
‘‘हां तो राज साहब बताइए क्या सेवा कर सकता हूं आपकी?‘‘ इस बार वो पूरी गम्भीरता से बोला।
‘‘जनाब ठीक-ठीक कुछ कह पाना तो मुहाल है मेरे लिए कि मैं क्या जानना चाहता हूं। फिर भी कोशिश करता हूं अपनी बात आपके सामने रखने की।‘‘
‘‘जरूर मैं सुन रहा हूं।‘‘
‘‘देखिए मुझे पता चला है कि मानसिंह की मौत से एक रोज पहले उनकी किले जैसी हवेली की बाउंडरी वॉल से कोई वाहन टकराया था जिससे उस तरफ की दीवार ढह गयी थी।‘‘
‘‘आपकी जानकारी दुरूस्त है जनाब, वो दस पहियों वाला ट्रक था जिसे शायद ट्रेलर कहते हैं। बाउंड्री टोड़ता हुआ वो आधा से ज्यादा हवेली के भीतर जा घुसा था।‘‘
‘‘क्या ड्राइवर नशे में था?‘‘
‘‘नहीं, वहां सभी को लगभग यकीन था कि वो जरूर किसी नशे में था मगर जांच में पता चला कि ऐसी कोई बात नहीं थी।‘‘
‘‘नया ड्राइवर था?‘‘
‘‘नहीं, दस सालों से लांग रूट की गाड़ी चला रहा था कभी कोई एक्सीडेंट उसके खाते में दर्ज नहीं था।‘‘
‘‘ये बात आपको कुछ अजीब नहीं लगती, कि एक मंझे हुए ड्राइवर से ऐसी गलती हुई वो भी एकदम खुली जगह में, और फिर लाख रूपये का सवाल ये कि वह हवेली की तरफ गया ही क्यों था, उधर से तो कोई आम रास्ता नहीं निकलता।‘‘
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

Post by mastram »

‘‘यू हैव ए प्वाइंट राज, हमने भी उससे यही सवाल किया था। जवाब में जानते हो उसने क्या कहा। वो बोला कि उसकी बीवी बच्चा जनने वाली थी इसलिए वो मानसिंह से आशीर्वाद लेने हवेली ही जा रहा था कि अचानक उसकी आंख में कुछ पड़ गया। वह आंखें मिचमिचा ही रहा था कि जाने कैसे स्टैरिंग बाईं ओर को मुड़ गई और ट्रक हवेली की दीवार तोड़ता भीतर घुस गया। उसकी बीवी के बच्चा होने वाला था यह बात सच थी। हमने जच्चा-बच्चा केंद्र में पूछताछ करवाई थी।‘‘
‘‘ठीक है अब जरा अगले रोज हुए उसके कत्ल पर रोशनी डालिए प्लीज, ऐसा क्योंकर हुआ कि एक मामूली ट्रक ड्राइवर अचानक ही दो बार सुर्खियों में आ गया।‘‘
‘‘देखो उसके कत्ल की बाबत हमारा बल्कि पुलिस का यह वर्शन है कि वह महज राहजनी की वारदात थी, उसे लूटने की कोशिश की गई, वह नहीं माना तो उसे गोली मार दी गयी।‘‘
‘‘गोली उसके जिस्म पर कहां लगी थी?‘‘
‘‘माथे पर ऐन दोनों भौंहों के बीच जहां सुहागनें बिन्दी लगाती हैं। उसे प्वाइंट ब्लैंक रेंज से शूट किया गया था। उसकी बॉडी आधा ट्रक से बाहर और आधा भीतर लटकी पाई गयी थी।‘‘
‘‘ओह उसके संदर्भ में कोई और खास बात जो आप बताना चाहें।‘‘
‘‘हां है, एक बहुत ही अहम बात है, जो सभी को खटकी थी मगर जवाब किसी के पास नहीं था। उसकी मौत से एक दिन पहले उसके सेविंग एकाउंट में एकमुश्त एक लाख रूपये जमा हुए थे। वो रूपये उसके पास कहां से आये किसी को खबर नहीं, उसके बीवी बच्चों को भी नहीं। ये बात किसी को पता नहीं चलती अगरचे की बैंक मैनेजर ने अखबार में उसके कत्ल की खबर पढ़कर पुलिस को इसकी जानकारी ना दी होती।‘‘
‘‘एक लाख रूपये इतनी बड़ी रकम तो ...।‘‘
‘‘उसके लिए थी, उसके परिवार में बारह लोग थे। सब उसी पर डिपेंड थे। बैंक में उसने आजीवन कभी एकमुश्त पांच हजार रूपये से ज्यादा नहीं जमा कराया था। लिहाजा एक लाख की रकम उसके लिए बहुत बड़ी बात थी।‘‘
‘‘मेरा ख्याल है एक लाख पर आपका जोर किसी और वजह से भी है।‘‘
‘‘हां, मेरा अपना अंदाजा ये कहता है कि उसने ये एक लाख किसी को धोखा देकर कमाये थे जिसने बाद में उसका कत्ल कर दिया। या फिर किसी को मालूम था कि उसके पास एक लाख की नकदी थी और गाड़ी पर जाते वक्त वह उसे साथ लेकर जाने वाला था, और उसी ने मौका देखकर उसका काम तमाम कर दिया।‘‘
‘‘जनाब एक और वजह भी हो सकती है, इजाजत हो तो बयान करूं?‘‘
‘‘हां प्लीज गो अहैड।‘‘
‘‘वो एक लाख उजरत थी हवेली की दीवार में टक्कर मारने की।‘‘
‘‘हे भगवान! कितनी फसादी बात कह रहे हो यार।‘‘
‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता?‘‘
‘‘देखो दोस्त होने को तो इस दुनियां में कुछ भी हो सकता है और यह बात हम अखबार वालों से बेहतर कौन समझ सकता है। मगर मोटिव क्या था, दीवार में टक्कर मारने का कोई उसे एक लाख क्यों....ओह गॉड, ओह माई गुड गॉड‘‘-वह बेध्यानी में कुर्सी से उछलकर उठ खड़ा हुआ, ‘‘मोटिव था, बहुत बड़ा मोटिव था। हवेली में मुख्य द्वार से गुजरे बिना छत पर पहुंचने का रास्ता बनाना। मैंने टूटी दीवार देखी थी, वहां पत्थरों का यूं ढेर लग गया था कि उनपर चढ़कर बड़े आराम से पहली मंजिल की बॉलकनी में फिर वहां से सीढ़ियों के रास्ते छत पर पहुंचा जा सकता था। मगर इसका मतलब तो ये हुआ कि मानसिंह जी की हत्या हुई थी।‘‘
‘‘यस सर! असल वजह ये थी दीवार तोड़ने की, अगर आप मेरी इस थ्यौरी पर यकीन करें तो ड्रायवर का कत्ल क्यों हुआ आप समझ सकते हैं।‘‘
‘‘एक्जेटली! उसका मुंह बंद करने के लिए!‘‘ - कहकर वह तनिक रूका फिर बोला - ‘‘भाई कमाल के आदमी हो तुम! एक झटके में तुमने मुझे यकीन दिला दिया कि मानसिंह किसी हादसे का शिकार नहीं हुए थे बल्कि उनका सुनियोजित ढंग से कत्ल किया गया था।‘‘
‘‘जनाब अगर सम्भव हो तो अपने अखबार के माध्यम से आप इस बात को बस इतनी हवा दें कि बात कातिल के कानों तक पहुंचे बिना ना रहे।‘‘
‘‘भई अखबार में छापना मतलब ढिंढोरा पीटने जैसा होगा। मुझपर इसकी जवाबदारी आयद होगी, पूरा शहर हिल जायेगा। खासतौर से पुलिस डिपार्टमेंट तो पगलाये सांड की तरह मेरी ओर झपटेगा। खैर वो मेरा डिपार्टमेंट है मैं संभाल लूंगा किसी तरह। मगर तुम इससे क्या हांसिल होने की उम्मीद कर रहे हो।‘‘
‘‘देखो कातिल पहले से ही बौखलाया हुआ है। पहले मानसिंह, फिर नरेश नाम का दिलावर सिंह का प्यादा, फिर प्रकाश, फिर राकेश, फिर दिलावर सिंह के शूटर जमील और सलाउद्दीन, उसके बाद रोजी! पूरी सात जानें जा चुकी हैं इस सिलसिले में। अब अगर अखबार में यह खबर छप गई तो उसे लगने लगेगा कि धीरे-धीरे उसका भेद खुल रहा है, उसकी सारी योजना चौपट हो रही है। ऐसे में वह कोई ना कोई ऐसा कदम जरूर उठाएगा जो उसे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा देगा।‘‘
‘‘जरा ठहरो तुमने अभी एक नाम लिया रोजी! उस लड़की के कत्ल से लाल हवेली का क्या रिश्ता?‘‘
मैं बेवजह मुस्कराया।
‘‘देखो यार अगर कुछ जानते हो तो बता दो प्लीज। क्योंकि पुलिस इस एंगल से नहीं सोच रही और हमारे पास भी कोई लीड नहीं है, जो प्रकाश और रोजी के कत्ल को आपस में लिंकअप कर सकें। अगर ऐसा कुछ है तो देखना कल के एडीशन से आग लगा दूंगा मैं।‘‘
‘‘वह प्रकाश की गर्लफ्रेंड थी। मुम्बई की रहने वाली थी और एक महीने पहले ही वो प्रकाश के बुलावे पर यहां पहुंची थी। दिलावर के शूटर उसे जान से मार देने पर उतारू थे। मगर अचानक हालात कुछ यूं बदले कि उसने जमील की रिवाल्वर से सलाउद्दीन को शूट कर दिया और सलाउद्दीन के रिवाल्वर से निकली गोली रोजी का काम तमाम कर गई। दोनों ने लगभग एक वक्त पर गोली चलाई थी।‘‘
‘‘तुम तो यार बहुत कुछ जानते हो - अच्छा जमील को किसने मारा, इसका जवाब अगर दे दो तो गुरू मान लूंगा तुम्हें और ये आप-आप कहना बंद करो यार!‘‘
‘‘ठीक है बताता हूं, पहले वादा करो कि ये बात अखबार में नहीं छपेगी।‘‘
‘‘डरते हो?‘‘
‘‘आप! सॉरी-तुम भूल रहे हो मैं जिस धंधे में हूं उसमें डरकर काम नहीं किया जा सकता।‘‘
‘‘ओके किया वादा, अब बताओ, जमील को किसने मारा?‘‘
‘‘मैंने।‘‘
‘‘फट्टा है।‘‘
‘‘मैं सच कह रहा हूं, पुलिस में तुम्हारे कांटेक्ट होंगे पता कर लो?‘‘
‘‘जरूरत नहीं, समझो मुझे तुम्हारी बात पर यकीन है। और दिल से कहता हूं मैंने तुम्हारे जैसा गुरू आदमी नहीं देखा, आज से तुम मेरे सिर माथे पर, हुक्म करो और क्या सेवा कर सकता हूं?‘‘
‘‘हैं तो सही कुछ काम अगर तुम्हें करना गंवारा हो तो‘‘
‘‘अरे अभी कहा न तुम मेरे गुरू हुए, हुक्म करो।‘‘
‘‘देखो इतना तय है कि मानसिंह की हत्या हुई है, और इसलिए हुई है क्योंकि कोई है जो लाल हवेली खरीदने के लिए मरा जा रहा है। जब मानसिंह के सामने उसकी पेश ना चली तो, उनका कत्ल कर दिया या करवा दिया। फिर उसने जूही को धमकाकर हवेली खरीदनी चाही मगर कामयाब फिर भी ना हुआ। फिर हवेली में भूतों का उपद्रव शुरू हो गया, ताकि वह घबराकर हवेली बेचकर भाग जाय। उसे मेंटल केस बनाने की भी भरपूर कोशिश की गई। मगर हत्यारा अपने मकसद में फिर भी कामयाब नहीं हुआ। तब उसने प्रकाश को अपने चंगुल में फांसा मगर मुराद पूरी होती ना पाकर उसका भी कत्ल कर दिया।‘‘
‘‘कौन है वो?‘‘
‘‘मालूम नहीं सिर्फ एक आदमी है जो उसे जानता है मगर उसकी जुबान खुलवाना और भाई को दुबई से इंडिया लेकर आना एक ही बात है।‘‘
‘‘और वो है दिलावर सिंह, है न?‘‘
‘‘हां, हर जगह उसकी टांग फंसी हुई है। हवेली में वाकया हुए सभी ड्रामों की स्क्रिप्ट उसी ने लिखी है। हर जगह उसके आदमियों की दखलअंदाजी है। हर जगह वह पान में लौंग की तरह फिट है। और इन सबके पीछे एक ही वजह है कि वे लोग जूही को इतना खौफजदा कर देना चाहते हैं कि वह या तो हवेली छोड़कर भाग जाय या उसे बेचने को मजबूर हो जाय।‘‘
‘‘ये ‘ड्रामे‘ वाली बात का जरा खुलासा करो, कंकालों वाली बात तो मुझे पता है, क्योंकि पुलिस में उसकी कंप्लेन की गई थी। ये अलग बात थी कि जांच में ना कुछ हांसिल होना था ना ही हुआ।‘‘
जवाब में मैंने उसे सारा किस्सा सुना डाला।
सुनकर वह मंत्रमुग्ध रह गया कुछ देर तक उसके हलक से आवाज तक न निकली।
‘‘कमाल है यार! इतना बड़ा षड़यंत्र चल रहा था हवेली में और हम उस लड़की को पागल करार देकर अपने फर्ज की इंतिहा समझ रहे थे।‘‘
‘‘तुम्हारी सोचों से भी परे, अभी तो कितनी ऐसी बातें हैं जिनका खुलासा होना बाकी है।‘‘
‘‘ये तो विकट स्थिति है, दिलावर सिंह से पार पाना लगभग असंभव है। बहुत ऊपर तक पहुंच है उसकी। मुख्यमंत्री तक सीधी पहुंच बताते हैं उसकी,‘‘ - तिवारी बोला - ‘‘खैर अब ये बताओ कि तुम मुझसे क्या चाहते हो?‘‘
‘‘देखो सारे फसाद की जड़ वो हवेली है। कोई उसे खरीदने को मरा जा रहा है, तो कोई उसे बेचने को तैयार नहीं है। क्यों चाहिए किसी को वो हवेली, कहीं ऐसा तो नहीं कि मानसिंह के पुरखों ने किसी से ये हवेली छीनी हो और अब हवेली के ओरिजनल मालिकान का कोई होता-सोता निकल आया हो जो इसे दोबारा हांसिल करना अपने लिए आन-बान और शान की बात समझता हो।‘‘
‘‘यार हमारे शहर में जमीन से जुड़े विवाद तो आये दिन होते ही रहते हैं। खून खराबा भी आम बात है, परिवार के परिवार कत्ल कर दिये जाते हैं। जमीन की लड़ाई में मैंने गांव के गांव तबाह होते देखे हैं इसलिए मुझे तम्हारी बात से इत्तेफाक है। ठीक है मैं इस एंगल से टटोलता हूं लाल हवेली का इतिहास।‘‘
‘‘साथ ही पिछले पांच-छह महीनों में अपने शहर में घटित तमाम छोटी बड़ी बातों को दिमाग में ताजा करने की कोशिश करो, क्या पता कुछ ऐसा घटित हुआ हो जिसका कोई मतलब ना निकलता हो। जिसके होने की कोई वजह ना दिखाई देती हो। जो इस सिलसिले की जड़ तक पहुंचने में मदद कर सके।‘‘

‘ओके मैं ये भी करता हूं।‘‘
‘‘कभी सिगमा ब्रदर्स एण्ड कम्पनी का नाम सुना है।‘‘
‘‘शायद नहीं, क्या बला है ये।‘‘
जवाब में मैंने उसे जमीनों के खरीद-फरोख्त वाली कहानी सुना दी। जिसकी जानकारी मुझे डॉली से हांसिल हुई थी।
‘‘इस कम्पनी के असली मालिकान के बारे में अगर कोई जानकारी हासिल कर सको तो मजा आ जाय।‘‘
‘‘सारे काम होंगे गुरू और इत्मिनान रखो युद्ध स्तर पर होंगे।‘‘
‘‘शुक्रिया अब मैं चलता हूं।‘‘
‘‘ठीक है ये मेरा कार्ड रख लो कभी भी जरूरत पड़े बेहिचक कॉल करना, रात और दिन का ख्याल मत करना गुरू।‘‘
मैंने सहमति में सिर हिलाया और बाहर निकल गया।
अगली सुबह तकरीबन दस बजे मैं शेष नारायण शुक्ला के निवास पर पहुंचा। प्रकाश के बताये अनुसार यह मानसिंह के बेहद करीबी लोगों में से एक था और यही वो व्यक्ति था जिसने मानसिंह की पार्टी में गैराहाजिरी सबसे पहले नोट की थी और उन्हें खोजना शुरू कर दिया था। वैसे तो मेरा मानना है कि किसी के बारे में सबसे करामद जानकारी उसका कोई दुश्मन ही दे सकता है, मगर यहां अभी तक कोई दुश्मन सामने नहीं आया था, लिहाजा मैंने मतकूल के दोस्त को टटोलने का फैसला किया था।
कॉल बेल पुश करने के पश्चात मैं दरवाजा खुलने का इंतजार करने लगा।
प्रकाश की लाश अभी भी पुलिस के अधिकार में ही थी। अलबत्ता इंस्पेक्टर जसवंत सिंह ने आश्वासन दिया था कि आज पोस्टमार्टम के बाद लाश फौरन हवेली पहुंचा दी जायेगी। प्रकाश के मां-बाप को उसके कत्ल की मनहूस खबर सुनाने का काम इस नाचीज को ही करना पड़ा था।
दरवाजा खुला, और एक नौकर टाइप आदमी प्रकट हुआ।
”किससे मिलना है?“
मैंने बताया तो वो मुझे भीतर लिवा ले गया।
”आपका नाम।“ वो बैठक में पहुंचकर बोला।
”राज शर्मा।“
”आप बैठिए मैं साहब को खबर करता हूँ।“
मैंने सहमती में सिर हिला दिया।
तकरीबन बीस मिनट पश्चात! जबकि मैं इंतजार करता-करता ऊब चुका था, और अब किसी भी वक्त उठकर बिना इजाजत अंदर दाखिल होने का मन बनाने लगा था। ठीक तभी एक उम्रदराज व्यक्ति जो कि खद्दर का कुर्ता पैजामा पहने हुए था। बड़े ही शान से चलता हुआ मेरे करीब पहुंचा।
”नमस्ते।“ - मैं दोनों हाथ जोड़ता हुआ बोला।
जवाब में उसने अपने सिर को हल्की सी जुम्बिस दी और मेरे सामने बैठता हुआ गम्भीर स्वर में बोला - ”बैठो।“
तब जाकर मुझे इस बात का अहसास हुआ कि अंजाने में मैं सोफे से उठ खड़ा हुआ था।
”शुक्रिया।“ - कहकर मैं पुनः बैठ गया।
”क्या चाहते हो?“ - उसने प्रश्न किया।
”मानसिंह जी के संदर्भ में चंद सवालात करना चाहता हूं, सुना है आप उनके खास और करीबी दोस्तों में से एक थे......।
”किससे सुना?“ - मेरा वाक्य काटकर वो यूं बोला मानो उसे मानसिंह का करीबी बताकर मैंने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो, उसकी बात सुनकर पहले तो मैं हड़बड़ा सा गया तुरंत बाद सम्भला। और सम्भलते ही जवाब दिया - ”जूही से“
”जूही“ - उसने दोहराया- ”मानू की बेटी! अच्छी लड़की है, बस पिता की मौत के सदमें से वह अभी तक उबर नहीं पाई है। तो ये गड़े मुर्दे उखाड़ने का काम तुम मानू की बेटी के कहने पर कर रहे हो।“
”मानू?“ - मैं तनिक उलझे स्वर में बोला।
”मानसिंह। हम उसे मानू ही कहते थे।“
”जानकर खुशी हुई।“
”मगर क्यों?“
”जी“ - मैं पुनः उलझन में पड़ गया।
”मेरा मतलब है तुम ये सब क्यों कह रहे हो?“
”मैंने पहले भी अर्ज किया था जनाब कि ऐसा मैं जूही की वजह से कर रहा हूँ। उसे शक है कि उसके पिता अपनी आई मौत नहीं मरे बल्कि उन्हें मार दिया गया।“
”बकवास, सब बकवास है“ - वह बड़े ही अजीबोगरीब अंदाज में बोला - ”मैंने खुद मानू की लाश देखी थी। वह साफ-साफ एक्सीडेंट केस नजर आ रहा था। कोई भी लाश को एक नजर देखते ही कह सकता था कि उसकी मौत सिर के बल जमीन पर गिरने से हुई थी।“
”मगर जनाब वो दुर्घटना किसी ने जानबूझकर भी तो क्रियेट किया हो सकता है।“
”तुम्हारा मतलब है किसी ने मानू की हत्या की नीयत से उसे छत से नीचे धकेल दिया था।“
”क्या ऐसा नहीं हो सकता?“
वो सोचने लगा फिर कुछ क्षणोपरांत बोला - ”तुम्हारे और जूही के बीच कोई इश्क मुहब्बत वाला चक्कर तो नहीं चल रहा।“
”जी“ - मैं हड़बड़ाया - ‘‘क्या कह रहे हैं बंदापरवर?“
”कुछ खास नहीं बस तुम्हारी उम्र और हरकतों की वजह से पूछ बैठा। अक्सर लोग-बाग मोहब्बत में ऐसी हरकतें करने से बाज नहीं आते। जिसकी वजह से बाद में आजीवन उन्हें पछताना पड़ता है। मैंने भी किया था, मगर जासूसी नहीं बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा, जानते हो क्या? कत्ल, कत्ल किया था मैंने, अपनी प्रेमिका के एक इशारे पर अपने ही क्लास में पढ़ने वाले लड़के को इतना मारा, इतना मारा कि उसकी जान ही चली गई। मगर हॉसिल क्या हुआ तनहाई और सिर्फ तनहाई। खैर बात तुम्हारी हो रही थी। देखो अगर ऐसी कोई बात है तो ये खामखाह की जासूसी छोड़ दो, मेरी पुलिस विभाग में काफी पहुंच है। मैं केस को फिर से इंवेस्टिगेट करवा सकता हूँ।“
”माफ कीजिएगा जनाब आपकी सोच कोरी कल्पना है क्योंकि हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं है।“
”तो फिर तुम ये बेवजह पूछताछ क्यों कर रहो हो?“
”क्योंकि ये मेरा पेशा है।“
”तुम पुलिस में हो।“
”जी नहीं, प्राइवेट डिटेक्टिव हूं।“
”भई पहले कभी किसी प्राइवेट जासूस का नाम तो नहीं सुना अपने शहर में।“
”मैं दिल्ली से आया हूँ।“
”तभी तो .....तभी तो......।“
कहकर वो खामोश हो गया। मैं उसकी बात का कोई मतलब तलाशने की कोशिश में लग गया।
”ठीक है“ - कुछ देर पश्चात वो अहसान जताता हुआ बोला - ”बोलो क्या जानना चाहते हो।“
‘‘मानसिंह जी के बारे में ही बताइए, उनका कोई झगड़ा कोई पुरानी रंजिश या फिर कोई ऐसा व्यक्ति जो कि उन्हें सख्त नापसंद करता हो या कोई ऐसा जो उन्हें नापसंद रहा हो।“
”नहीं था“ - वो बोला - ”ऐसा कोई व्यक्ति हो ही नहीं सकता। तुम दुश्मनी की बात करते हो मैं तो कहता हूँ कि उसकी कभी किसी से कोई छोटी-मोटी तकरार भी नहीं हुई थी। वो तो हमें भी अक्सर समझाते हुए कहता था - ‘कितनी छोटी उम्र दी है ईश्वर ने मानव को, आज हो तो कल नहीं हो, बना सको तो दोस्त बनाओ, दुश्मनी के लिए वक्त ही कहां है?‘ अब उम्मीद है तुम्हे अपनी बात का जवाब मिल गया होगा।“
”जी हाँ, शुक्रिया।“
”आगे बढ़ो।“
”अब जनाब से गुजारिश है कि आप कुछ देर के लिए दुर्घटना वाली बात को भूलकर ये सोचिए कि अगर मानसिंह का कत्ल हुआ था, तो कातिल कौन हो सकता है, ऐसा कौन है जिसे कि उनकी मौत से कोई फायदा पहुंचता हो?“
”सिर्फ वो जिसने कि तुम्हें इस केस की इंक्वायरी के लिए दिल्ली से यहाँ सीतापुर बुला लिया।“
”आपका मतलब है जूही।‘‘
”ठीक समझे।“
”क्या वो अपने पिता का कत्ल कर सकती है?“
”बिल्कुल नहीं“ - वो बोला - ”मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि अगर मानू की मौत से किसी को तगड़ा लाभ हुआ है तो वो जूही है। क्योंकि मानू की मौत के बाद उसकी तमाम चल-अचल सम्पति पर अब सिर्फ और सिर्फ उसकी इकलौती बेटी जूही का अधिकार है।“
”और अब अगर जूही न रहे।“
”क्या कहना चाहते हो भई?“
”समझने की कोशिश कीजिए जनाब, जिस तरह मानसिंह की मौत से उनकी सारी सम्पत्ति जूही की हो गई। उसी तरह खुदा न करे अगर जूही को कुछ हो गया तब उस स्थिति में जायदाद का मालिक कौन होगा?“
”जाहिर है श्याम सिंह।“
”ये श्याम सिंह कैसे आदमी हुए?‘‘
”ठीक ही हैं अलबत्ता मानू की तरह मिलनसार तो हरगिज भी नहीं है। बहुत कम बोलता है, कुछ ज्यादा ही रिर्जव टाइप आदमी है। उसके लड़के के कत्ल का पता चला मुझे, सुनकर बहुत अफसोस हुआ। किसने किया होगा उसका कत्ल, भला उस बच्चे से किसी की क्या अदावत हो सकती है।‘‘
”यही तो वो लाख रूपये का सवाल है जनाब जिसपर आपही कोई रोशनी डाल सकते हैं,‘‘ कहकर मैं तनिक रूका फिर बोला, ‘‘जनाब आपको किसी ऐसे व्यक्ति की खबर है जो कि मानसिंह से लाल हवेली खरीद लेना चाहता था और ना सिर्फ खरीदने का इच्छुक था बल्कि किसी भी कीमत पर, आई रिपीट किसी भी मुनासिब-गैरमुनासिब कीमत पर खरीदना ही चाहता था।“
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