Thriller गहरी साजिश

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adeswal
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Thriller गहरी साजिश

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गहरी साजिश


एक जून 2016

बड़े ही नर्वस भाव से मैंने सिगरेट का पैकेट निकाल कर एक सिगरेट सुलगाया और थोड़ा आगे बढ़कर सीढ़ियों के दहाने पर जाकर बैठ गया। भीतर स्टडी रूम में एक लाश पड़ी थी। वीभत्स! दिल दहला देने वाली लाश! उसके जिस्म पर मौजूद कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे। उसके गाल, छातियों और जननांगों को दांतों से नोंचा गया था, जहां से खून का रिसाव अभी भी जारी था। आंखें अपनी कटोरियों से बाहर को निकल आई थीं, मुंह खुला हुआ था और जुबान बाहर को लटक रही थी। गले पर उंगलियों के दबाव से बने लाल चकते जैसे निशान दिखाई दे रहे थे जो अमूनन गला घोंट कर मारे जाने पर अस्थाई तौर से उभर आते हैं।

जरूर किसी होमीसाइडल! किसी वहशी! का काम था।

मकतूला का नाम मंदिरा चावला था, उम्र मुश्किल से 22-23 साल रही होगी। वो शो बिजनेस से ताल्लूक रखती थी। कई टीवी सीरियल्स में छोटे-मोटे रोल कर चुकी थी! अलबत्ता उसका पसंदीदा काम मॉडलिंग था, जिसके लिए वो बेहतर ढंग से जानी-पहचानी जाती थी।

मकतूला से मेरी पुरानी हाय-हैलो थी। हमारी पहली मुलाकात करीब तीन साल पहले हुई थी। तब वो मेरे किसी पुराने क्लाइंट के रिकमेंड करने पर मेरे ऑफिस आई थी। उन दिनों आपके खादिम ने उसे ब्लैकमेलिंग के एक ऐसे केस से निजात दिलाया था जिसमें वह खामखाह जा फंसी थी।

उसके बाद हमारी चार या पांच मुलाकातें और हुई थीं! उन मुलाकातों में कोई काबिले-जिक्र बात रही हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। अलबत्ता वैसी हर मुलाकात में मैंने उसपर फंदा डालने की फुल कोशिश की थी, जिसपर उसने कोई नोटिस लिया हो, ऐसा कम से कम उसने अपने हाव-भाव से जाहिर नहीं होने दिया था। लिहाजा ये स्वीकार करते हुए मुझे बड़ी शरम सी महसूस हो रही है कि मैं उसे फांसने की अपनी मुहीम में नाकामयाब रहा था! अपनी भरपूर कोशिशों के बावजूद नाकामयाब रहा था।

उससे मेरी आखिरी मुलाकात तकरीबन छह महीने पहले लाजपत नगर के एक रेस्टोरेंट में हुई थी। जहां इत्तेफाकन हम दोनों ही डिनर के लिए पहुंचे थे।

मकतूला की फितरत बटरफ्लाई जैसी थी। उसका ज्यादातर वक्त समाज के ऊपरले तबके की लेट नाइट चलने वाली पार्टियों में विचरते हुए बीतता था। उसपर सोशलाइट गर्ल का तमगा भी लगा हुआ था। हकीकत तो ये थी कि लोग बाग उसे अपनी पार्टियों में बुलाने के लिए मरे जाते थे, क्योंकि उसकी शिरकत से पार्टी को चार चांद लग जाते थे और रंगीन मिजाज मर्दों की तो जैसे लॉटरी निकल आती थी।

इस वक्त उसी के बुलावे पर मैं साकेत के इस दो मंजिला मकान में पहंुचा था, जहां ग्राउंड फ्लोर उसने किराये पर ले रखा था, जबकि मकान का बाकी पोर्शन किराये के लिए खाली था। फोन पर उसने बताया था कि वो मुझसे कोई खास बात डिसकस करना चाहती थी। वो खास बात क्या थी? फोन पर उसने हिंट तक नहीं दिया था और अब जैसा की जाहिर है वो कुछ बताने लायक बची ही नहीं थी।

मैं तकरीबन सवा पांच बजे यहां पहुंचा था! तकरीबन मैंने इसलिए कहा क्योंकि यहां पहुंचकर घड़ी देखने का खयाल मुझे तब आया, जब लाश को देखकर - जी भर कर हैरान हो चुकने के बाद - शॉक जैसी स्थिति से मैंने खुद को बाहर निकाला। तब पांच बजकर बीस मिनट हुए थे।

यहां पहुंचकर मेरा माथा तो तभी ठनका था, जब दरवाजे के दोनों पल्ले मुझे खुले हुए मिले। मगर भीतर मेरा सामना मंदिरा की लाश से होने वाला था, ऐसा तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था। बहरहाल यहां पहुंचकर खुले दरवाजे से मैं उसको आवाजें लगाता हुआ भीतर दाखिल हुआ, तो आगे स्टडी का दरवाजा मुझे खुला हुआ मिला। वहां पहुंचकर जब मैंने भीतर का नजारा किया तो पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई।
सामने पीठ के बल उसकी लाश पड़ी थी और उसके शरीर से भल-भल करके खून बाहर को उबलता प्रतीत हो रहा था। हुस्न की मल्लिका अपने बनाने वाले के पास पहुंच चुकी थी - भेज दी गई थी।

पूरे कमरे में अस्त-व्यस्तता का बोल बाला था, कुर्सियां उलटी पड़ी थीं, फूलदान नीचे गिरा हुआ था। लाश के पास ही वाइन की एक बोतल टूटी पड़ी थी जिसके पास ही दो - एक ही जैसे दिखने वाले - गिलास लुढ़के हुए थे। आस-पास कुछ फाइलें और किताबें पड़ी थीं जो कातिल और मकतूला के संघर्ष के दौरान मेज से नीचे गिरी हो सकती थीं। कमरे की जो हालत थी उसे देखकर लगता था कि वह आसानी से हत्यारे के हाथ नहीं आई थी! उसने कातिल के साथ जमकर संघर्ष किया था।

मकूतला के जिस्म पर चीथड़ों की शक्ल में आसमानी रंग का सलवार-कुर्ता था और थोड़ी दूरी पर एक शॉल जैसा दुपट्टा पड़ा हुआ था जिसपर रेशमी धागे से कढ़ाई की गई थी।

टूटी हुई वाइन की बोतल के पास ही एक अधजला सिगरेट पड़ा हुआ था जिसपर मैरून कलर की लिपस्टिक का दाग लगा हुआ था। मगर वो कोई क्लू नहीं था, क्योंकि मकतूला के होंठों की लिपस्टिक का रंग भी मैरून था, लिहाजा इस बात की पूरी संभावना थी कि उसी के होंठों ने उस सिगरेट की शोभा बढ़ाई थी। वो सिगरेट पीती थी या नहीं यह अभी जांच का मुद्दा था।

लाश से करीब एक फुट की दूरी पर एक और अधजला सिगरेट पड़ा हुआ था, मगर लिपस्टिक के दाग उसपर नहीं थे। मैंने दोनों टुकड़ों को गौर से देखा तो पाया कि दोनों एक ही ब्रांड - गोल्ड फ्लैक - के थे। अलबत्ता वहां सिगरेट का कोई पैकेट या लाइटर मुझे खोजने पर भी नहीं मिला।
adeswal
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Re: Thriller खतरनाक साजिश

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इधर-उधर भटकती मेरी निगाह आखिरकार लाश की बंद मुट्ठी पर गई तो जैसे वहीं चिपक कर रह गयी। उसकी दायें हाथ की मुट्ठी से खाकी रंग के कपड़े का एक टुकड़ा और काले रंग की कोई चीज बाहर झांक रही थी। उत्सुकतावश मैंने मुट्ठी खोलकर देखा तो काले रंग वाली चीज एक नेमप्लेट निकली जिसपर अंग्रेजी में ‘एस.आई. नरेश चौहान‘ लिखा था और खाकी रंग का कपड़ा निश्चय ही छीना-झपटी के दौरान नेमप्लेट के साथ फटकर उसके हाथ में आ गया था।

यही वो बात थी जो उस घड़ी मुझे सबसे ज्यादा आंदोलित कर रही थी।

एक सब-इंस्पेक्टर नरेश चौहान को मैं भी जानता था। इन दिनों वो इसी इलाके के थाने में तैनात था और एसएचओ नदीम खान के मातहत काम कर रहा था।

नरेश चौहान तकरीबन 28 साल का, छह फुटा नौजवान था। जो अपने रख-रखाव से पुलिसवाला कम और कोई मॉडल या फिल्म स्टार अधिक नजर आता था।

अभी साल भर पहले ही उसकी बहाली इस इलाके में हुई थी। पहले वो महरौली थाने में था, जहां पहली बार मेरी उससे मुलाकात हुई थी। अच्छा नौजवान था, कभी भी पुलिसिया फूं-फां के साथ पेश नहीं आता था। कई बार कई मामलों में वो मेरे लिए ऐसी कांटे की जानकारियां मुहैया करा चुका था, जो कोई पुलिसवाला ही करा सकता था। लिहाजा हमारे बीच जल्दी ही दोस्ताना रिश्ते कायम हो गये थे।

क्या ये सब उसका किया धरा हो सकता था? कैसे हो सकता था वो क्या कोई होमीसाडल था! जरूर ये नेम प्लेट किसी दूसरे पुलिसिये की थी, इत्तेफाकन जिसका नाम नरेश चौहान था। मगर उस जवाब से जो राहत मुझे मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिली।

मैंने उसके मोबाइल पर फोन लगाया।

घंटी जाती रही, मगर दूसरी तरफ से कॉल अटैंड नहीं की गयी। मैंने फिर और फिर ट्राई किया मगर नतीजा सिफर रहा। काल अटैंड नहीं की गई।

मैंने उसका मोबाइल ट्राई करना बंद किया और थाने में फोन लगाकर एस.आई. नरेश चौहान से बात कराने को कहा। जवाब मिला साहब का आज वीकली ऑफ है, मोबाइल पर फोन कर लो! फिर उसने नरेश चौहान का मोबाइल नंबर मुझे नोट करवा दिया। ये वही नंबर था जिसपर मैं अब तक कई बार ट्राई कर चुका था।
जनाब जब बात बिगड़नी होती है तो यही होता है, आप चाहे कितनी भी कोशिश कर लें बिगड़ कर ही रहती है।

काश! उस रोज चौहान से मेरी बात हो गयी होती। मगर होनी को कौन टाल सकता है। उसकी किस्मत में तो कुछ और ही बदा था। मैंने उसे कॉल करने की एक अंतिम कोशिश की जो कि पहले की तरह ही नाकाम साबित हुई।

अब मुझे पुलिस को वारदात की सूचना देने की बेहूदा जिम्मेदारी निभानी थी।

मैंने पुलिस का पेटेंट नम्बर ‘वन डबल जीरो‘ डायल करने की बजाय एसएचओ नदीम खान को फोन करके वारदात की सूचना दे दी। दूसरी तरफ से जैसा की हमेशा होता है - हुक्म हुआ - मैं पुलिस के आने तक वहीं रूकूं, खिसकने की कोशिश ना करूं।

साहबान! ये कतई ना सोचें कि मैं कोई जिम्मेदार नागरिक हूं जो पुलिस को किसी वारदात की सूचना देना अपना फर्ज समझता है। उल्टा ‘लाश‘ देखकर जो पहला विचार मेरे जहन में आया वो यही था कि मैं चुपचाप मौकायेवारदात से खिसक जाऊं! मगर दो कारणों से मैंने ऐसा नहीं किया। एक तो ये कि मकान के ठीक सामने खड़ी मेरी नई नकोर बलेनो को बहुत से लोगों ने देखा होगा और हो सकता था कि उनमें से किसी को कार का नम्बर भी याद रह गया हो। आखिर बाज लोगों की निगाहें दूर तक मार करती हैं। दूसरी, कदरन ज्यादा अहम वजह ये थी कि यहां आने से पहले मैंने इस मकान से दो बिल्डिंग पहले एक पनवाड़ी से ना सिर्फ सिगरेट का पैकेट खरीदा था बल्कि उससे इस मकान का पता भी पूछा था। जिसे की मेरी सूरत यकीनन याद रह गयी होगी। लिहाजा वहां से खिसकने का कोई फायदा मुझे नहीं पहुंचने वाला था।

सिगरेट समाप्त होने पर मैं दूसरा सिगरेट सुलगाने जा रहा था, जब एक पुलिस जीप मेरी कार के बगल में आन खड़ी हुई। जिसमें से एसएचओ समेत कई पुलिसिए उतरकर मेरी ओर बढ़े।

नदीम खान मेरे पास पहुंचकर ठिठका, ठिठक कर उसने मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूरा - जैसा कि कोई पुलिसिया ही किसी को घूर सकता था - ‘‘किधर है?‘‘

‘‘भीतर, उल्टे हाथ का पहला दरवाजा।‘‘ मैंने बताया।

‘‘यहीं रूकना, खिसक मत जाना।‘‘

मैंने सहमति में सिर हिलाकर हामी भर दी।

नदीम खान एक सब-इंस्पेक्टर के साथ स्टडी की ओर बढ़ गया। एक पुलिसिया गेट के पास तन कर खड़ा हो गया, बाकी दो मेन गेट पर पहले से ही जमे हुए थे। जहां पड़ोसियों का जमघट लगना शुरू हो भी चुका था। उन दोनों को शायद इसीलिए वहां तैनात किया गया था ताकि वे किसी को भीतर ना आने दें।

दस मिनट बाद भीतर गये दोनों पुलिसिए वापस लौटे। खान मेरे करीब पहुंचा, जबकि उसका सब इंस्पेक्टर जीप की ओर बढ़ गया।

‘‘शुरू हो जाओ।‘‘ खान बोला।

‘‘क्या शुरू हो जाऊं?‘‘

‘‘अरे भई बताओ मुझे कि तुम इस पूरे घटनाक्रम में कहां फिट बैठते हो।‘‘

जवाब में मैंने उसे मंदिरा चावला की फोन काल के बारे में बता दिया।
‘‘सौ नम्बर पर फोन क्यों नहीं किया?‘‘
‘‘क्योंकि जनाब ये जगह आपके थाने के अंडर में आती है और इत्तेफाक से मैं आपको जानता भी था। आपकी बजाय मैंने सौ नम्बर पर कॉल लगाई होती, तो जवाब में यहां पहुंचे पुलिसवालों ने मुझे बेवजह हलकान करना शुरू कर दिया होता। फिर अंत-पंत तो आपने यहां आना ही था, समझ लीजिए मैंने शार्टकट मारा और सीधा आपको कॉल कर दिया।‘‘
‘‘और...!‘‘
‘‘क्या और?‘‘
‘‘और क्या वजह थी मुझे कॉल करने की, असल वजह क्या थी?‘‘
मैंने बड़े ही आहत भाव से उसकी ओर देखा।
‘‘नौटंकी मत करो! असली वजह बयान करो, पीसीआर को कॉल ना करने की! या फिर कह दो कि और कोई वजह नहीं थी। वक्ती तौर पर मैं तुम्हारी बात पर यकीन कर लूंगा, मगर सिर्फ वक्ती तौर पर! क्या समझे।‘‘

‘‘जनाब थी तो एक मुख्तर सी वजह - मैं धीरे से बोला - मगर बात जुबान पर लाने की हिम्मत नहीं हो रही।‘‘

‘‘तो हिम्मत करो! साफ-साफ बोलो क्या कहना चाहते हो।‘‘

‘‘उसका संबंध मकतूला की मुट्ठी में दबी चीज से है।‘‘

‘‘हूं...! - उसने एक लम्बी हुकार भरी - तो मेरा अंदाजा सही था, मकतूला की मुट्ठी तुमने खोली थी। जानते नहीं हो मौकायेवारदात पर किसी एवीडेंस से छेड़छाड़ करना कानूनन जुर्म है।‘‘

‘‘आज आप ने बता दिया तो जान गया जनाब, आगे से ऐसी खता नहीं करूंगा प्रॉमिश।‘‘

जवाब में वह कुछ क्षण मुझे घूरता रहा फिर बोला, ‘‘तो तुम्हे वो होमीसाइडल, सैक्स मैनियाक लगता है।‘‘
‘‘मेरी बात की गलत तजुर्बानी कर रहे हो खान साहब! उल्टा मैं चाहता हूं कि मेरा अंदेशा गलत साबित हो! किसी भी तरह उस काबिल नौजवान का नाम इसमें ना घसीटा जाय! यही वजह है कि मैंने आपको फोन किया ना कि सौ नम्बर डॉयल करके पीसीआर को वारदात की इत्तिला दी।‘‘

‘‘अच्छा किया! - वो संतुष्टि भरे स्वर में बोला - समझ लो इस बात ने दिल्ली पुलिस में तुम्हारा क्रेडिट स्कोर बढ़ा दिया। मैं याद रखूंगा! भले ही सब किया धरा चौहान का निकल आए, मगर तुम्हारा क्रेडिट स्कोर कायम रहेगा।‘‘

‘‘शुक्रिया।‘‘

‘‘मरने वाली कैसे जानती थी तुम्हें।‘‘
मैंने बताया।

‘‘और क्या जानते हो उसके बारे में।‘‘

‘‘इसके अलावा कुछ नहीं कि उसका ताल्लुक शो बिजनेस से था। बतौर मॉडल उसकी दिल्ली शहर में अच्छी पूछ थी। कई टीवी सीरियल्स में भी छोटे-मोटे रोल अदा कर चुकी थी।‘‘
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‘‘ठीक है, अभी तुम जा सकते हो, तुम्हारे सहयोग को ध्यान में रखते हुए मैं नहीं चाहता कि तुम्हे परेशान होना पड़े मगर! - कहकर उसने घड़ी देखी - अभी सात बज रहे हैं, हम दो घंटे में यहां से फ्री हो जायेंगे। आगे दो घंटे और मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम ऐसा करो नौ, नहीं दस बजे तक थाने पहुंच जाना।‘‘
‘‘जी जरूर, शुक्रिया।‘‘

मैं बाहर आकर अपनी कार में सवार हो गया। पौना घंटा हैवी ट्रैफिक में ड्राइविंग करता मैं कालका जी पहुंचा जहां एक फ्लैट में नरेश चौहान रहता था। मैं पहली मंजिल पर स्थित उसके फ्लैट तक पहुंचा। अभी मैं कॉल बेल बजाने ही जा रहा था कि मेरा ध्यान लोहे के जालीदार दरवाजे के पार लकड़ी के दरवाजे पर गया। दरवाजा पूरी तरह चौखट से लगा हुआ नहीं था।
मैंने एक बार अपने अगल-बगल देखा, कहीं कोई नहीं था। मैंने जालीदार दरवाजे कोे खोला और भीतरी दरवाजे को कुछ यूं धकेलता हुआ मैं भीतर दाखिल हुआ कि गलती से भी मेरे फिंगर प्रिंट वहां ना बनें।
यह वन बीएचके फ्लैट था। मेरे दाईं तरफ किचन था और बाईं तरफ वॉशरूम! आगे मुझे बेडरूम का दरवाजा भी खुला दिखाई दिया। क्या माजरा था, इतना लापरवाह तो नहीं था चौहान! छोटे से हाल से गुजरकर मैं बेडरूम तक पहुंचा और दरवाजे पर पहुंचते ही थमक कर खड़ा हो गया। वो डबल बेड पर फुल वर्दी में चित्त पड़ा हुआ था। कपड़ों पर लगा खून और फटी हुई नेम प्लेट की खाली जगह, अपनी कहानी आप बयान कर रही थी। बेड के बगल में फर्श पर ब्लैक लेबल की एक खाली बोतल लुढ़की पड़ी थी। बोतल के पास ही कांच के दो गिलास पड़े थे जिनमें से एक टूटा हुआ था।
मैं सावधानी बरतता हुआ उसके करीब पहुंचा। उसे आवाजें दीं, हिलाया-डुलाया, मगर वो टस से मस नहीं हुआ। वह गहरे नशे में था। मैंने उसे जगाने की बहुतेरी कोशिशें कीं मगर कोई फायदा नहीं हुआ। हालांकि उसे नशे की तरंग से बाहर लाने के और भी रास्ते थे, मगर मेरे पास वक्त नहीं था। किसी भी वक्त पुलिस वहां पहुंच सकती थी और अगर ऐसा हो जाता, तो उसका तोे जाने कुछ बिगड़ता या नहीं मैं जरूर बुरी तरह से फंस जाता।
यह होम करते हाथ जलाने वाली बात होती जो कि सरासर नासमझी की श्रेणी में आती है।
मैं नासमझ नहीं था।
बेडरूम से निकलकर मैं बाहरी दरवाजे की ओर बढ़ा तो यहां भी दरवाजे के पास फर्श पर एक अधजला सिगरेट पड़ा दिखाई दिया। मैंने झुककर मुआयना किया तो पाया कि उसपर भी मैरून कलर की लिपस्टिक के दाग लगे हुए थे। ब्रांड भी वही था - गोल्ड फ्लैक!
क्या गोरख धंधा था!
बाहर निकलकर मैं जालीदार दरवाजा बंद करने ही लगा था कि मेरी निगाह जाली में अटके एक धागों के गुच्छे पर पड़ी। वो रेशम के आसमानी और सफेद रंग के धागे थे। वहां पर जाली के दो तार टूटे पड़े थे, उन्ही में धागों का वो गुच्छा उलझा हुआ था। यह वैसा ही गुच्छा था जो किसी साड़ी या डुपट्टे को बिना पीको कराये पहना जाय तो किनारों से निकलने लगता था। मुझे फौरन याद हो आया कि मंदिरा चावला की शॉल पर भी मैंने उसी रंग के धागों की कढ़ाई देखी थी।
मैंने पूरी सावधानी से दरवाजा बंद कर दिया।
अब इस पुलिसिए का भगवान ही मालिक था।
बाहर आकर मैं अपनी कार को वहां से निकालकर बगल वाली बिल्डिंग के सामने ले आया और एक सिगरेट सुलगाकर इंतजार करने लगा।
दस मिनट बाद एक पुलिस जीप वहां पहुंची। उसमें से उतरकर चार पुलिसिए बिल्डिंग में घुस गये।
फिर दो मिनट बाद भीतर गये पुलिसियों में से एक बाहर आया और सिगरेट का कस लगाता हुआ वहीं टहलने लगा।
पंद्रह मिनट और गुजर गये। पुलिसिया वहीं टहलता रहा।
फिर बीसवें मिनट में नदीम खान और उस इलाके का एसएचओ प्रवीण शर्मा, दोनों लगभग आगे-पीछे ही वहां पहुंचे थे। दोनों में कुछ मंत्रणा हुई इसके बाद दोनों बिल्डिंग में दाखिल हो गये।
मैंने अपनी कार से उतरने की कोशिश नहीं की!
लगभग आधे घंटे बाद एक और गाड़ी वहां पहुंची। एक ऐसी गाड़ी, जिसके वहां पहुंचने की मुझे तनिक भी उम्मीद नहीं थी। वो फोरेंसिक टीम की गाड़ी थी। वे लोग भी बिल्डिंग में दाखिल हो गये।
मैं हक्का-बक्का सा रह गया। उनका भला वहां क्या काम था। कहीं नरेश चौहान नशे की हालत में टें तो नहीं बोल गया। मेरे इस ख्याल ने मुझे आंदोलित कर के रख दिया। अब मेरा कार में बैठे रहना दूभर हो गया।
अब तक आस-पास लोगों में उत्सुकता बढ़ने लगी थी। वो बिल्डिंग के सामने एकत्रित होने लगे। थोड़ी देर बाद मैं भी कार से बाहर निकलकर तमाशाइयों की भीड़ का हिस्सा बन गया। सब की जुबान पर एक ही सवाल था, क्या हुआ? मगर जवाब किसी के पास नहीं था। तभी एक व्यक्ति सीढ़ियों से नीचे उतरता दिखाई दिया। वो ना तो पुलिसवाला था और ना ही फोरेंसिक टीम से हो सकता था। मैं उसकी ओर लपकने ही लगा था कि मेरे बगल में खड़ा युवक मुझसे ज्यादा फुर्तीला निकला, वो एकदम उसका रास्ता रोककर खड़ हो गया।
‘‘भाई साहब! - वो बड़े ही उतावले स्वर में बोला - क्या हो गया ऊपर?‘‘
‘‘मर्डर हुआ है! चौैदह नम्बर में एक औरत को कत्ल कर दिया किसी कमीने ने, पता नहीं क्या जमाना आ गया है। स्साला कोई सेफ नहीं इस शहर में।‘‘
कहकर वो आगे बढ़ने को हुआ तो एक अन्य व्यक्ति ने उसका रास्ता रोक लिया, ‘‘कातिल पकड़ा गया या नहीं।‘‘
‘‘अरे नहीं भाई, ऐसे कातिल पकड़े जाने लगें तो दिल्ली पुलिस की तो चांदी हो जाय।‘‘
मेरे दिमाग में सांय-सांय होने लगी। तेरह नम्बर राकेश चौहान का था, लिहाजा उसके दायें या बांये वाला चौदह नम्बर हो सकता था। हालांकि ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं थी, मगर फिर भी मेरे दिमाग में एक सवाल तेजी से दस्तक देने लगा - ‘क्या दूसरे कत्ल का रिश्ता भी चौहान से जुड़ने वाला था।‘
मैं दोबारा अपनी कार में आकर बैठ गया, मैं नहीं चाहता था कि वहां मेरा सामना नदीम खान से हो।
थोड़ी देर बाद एक एम्बुलेंस वहां पहुंची। सफेद यूनीफार्म में चार लोग दो स्टेचर उठाए, सीढ़ियां चढ़ने लगे। जाहिर था दूसरा स्टेचर चौहान के लिए था। जरूर उसके होशो-हवास अभी तक ठिकाने नहीं आये थे।
मैंने घड़ी देखी साढ़े नौ बज चुके थे। आगे मुझे उम्मीद थी कि नदीम खान को अभी वहां आधा घंटा और लगना था। पास में ही एक रेस्टोरेंट था - खाना खजाना - मैंने वहां डिनर करने का फैसला किया।
सवा दस बजे मैं थाने पहुंचा।
पता चला एसएचओ साहब अभी फील्ड में थे।
मैं वहीं बैठकर इंतजार करने लगा।
पौने ग्यारह बजे नदीम खान के कदम थाने में पड़े। उसे देखकर मैं उठने ही लगा था कि तभी उसकी निगाह भी मुझपर पड़ गई।
‘‘पांच मिनट बाद आना।‘‘
जवाब में सहमति में सिर हिलाता मैं वापिस बैठ गया।
पांच की बजाय दस मिनट बाद एक पुलिसिये ने आकर मुझसे कहा कि साहब बुला रहे हैं।
मैं उठकर एसएचओ के कमरे में पहुंचा। वो मोबाइल पर किसी से बातें कर रहा था, इशारे से उसने मुझे बैठने को कहा। मैं एक विजिटर चेयर पर बैठ गया।
‘‘हां भाई! -वो मोबाइल से फारिग होता हुआ बोला - बताओ।‘‘
‘‘बताऊं! क्या बताऊं जनाब! - मैं तनिक हड़बड़ाकर बोला - आपने ही तो मुझे दस बसे यहां पहुंचने को कहा था।‘‘
‘‘अरे हां याद आया - कहकर उसने मेज पर रखी घंटी पुश कर दी - क्या करूं यार एक नया बवेला खड़ा हो गया था उसी से निपटकर आ रहा हूं, दिमाग हिला हुआ है मेरा।‘‘
‘‘जरूर कोई खास बात हो गयी होगी।‘‘
‘‘खास ही समझो...‘‘ कहता-कहता वो अदर्ली को भीतर आया देखकर खामोश हो गया। कमीना दो मिनट बाद नहीं आ सकता था। तब तक दूसरे कत्ल के बारे में कुछ ना कुछ जानकारी तो मैं हासिल कर ही लेता।
‘‘तुम साहब को हेमचंद के पास ले जाओ, उससे कहना शाम वाले कत्ल की बाबत इनका बयान दर्ज करना है।‘‘
‘‘जी जनाब।‘‘ कहकर अर्दली ने मेरी तरफ देखा।
‘‘मैं बयान नोट करवाकर आता हूं।‘‘
‘‘जरूरत नहीं, तुम बयान देकर घर जा सकते हो।‘‘
लिहाजा मेरा आखिरी दांव भी खाली चला गया।
अर्दली ने मुझे राइटर के कमरे में पहुंचा दिया।
रात एक बजे मैं थाने से फ्री हुआ। वहां से तारा अपार्टमेंट पहुंचने में मुझे मुश्किल से दस मिनट लगे थे। अपने फ्लैट पर पहुंचकर मैं पूरे कपड़ों में ही बिस्तर पर ढेर हो गया। जल्दी ही मुझे नींद आ गयी।
दो जून 2017
ग्यारह बजे के करीब मैं साकेत स्थित अपने रैपिड इंवेस्टिगेशन के ऑफिस पहुंचा।
मेरी रिसेप्शनिष्ट-कम सेक्रेटरी-कम लेगमैन-कम पार्टनर-कम मेरी सबकुछ! शीला वर्मा हमेशा की तरह अपनी जगमग मुस्कान के साथ रिसेप्शन पर सुशोभित थी।
‘‘गुड मार्निंग मिस्टर गोखले।‘‘
‘‘गुड मार्निंग मिस वर्मा, हाऊ आर यू फीलिंग नाऊ?‘‘
‘‘एक्जेटली कल की तरह सर!‘‘
‘‘और कल कैसा फील कर रही थीं आप?‘‘
‘‘परसों से थोड़ा बैटर सर!‘‘
‘‘और परसों?‘‘
‘‘जाहिर है कल से थोड़ा खराब!‘‘
‘‘कमीनी।‘‘ बड़बड़ाता हुआ मैं अपने केबिन की ओर बढ़ गया। पीछे से उसकी खनकती हंसी सुनाई दी। यूं लगा गिटार के तारों को हौले से छेड़ दिया गया हो। क्या हंसी थी कम्बख्त की, सुनकर कोमा का मरीज भी उठकर बैठ जाता।
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अपने केबिन में पहुंचकर मैंने अखबार की सूर्खियों पर एक नजर डाली, मगर कल के दोनों वाकायात में से किसी का भी जिक्र उसमें नहीं था। मैंने रिमोट उठाकर टीवी पर न्यूज लगाया तो मेरी मुराद पूरी हो गयी। मंदिरा के कत्ल की न्यूज चल रही थी। नीचे एक न्यूज लाइन फ्लैश हो रही थी - किसने की सुनीता गायकवाड़ की हत्या! क्या मॉडल कम अभिनेत्री, मंदिरा चावला और सुनीता गायकवाड़ का हत्यारा एक ही है। क्या राजधानी में औरतें अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं!
तो दूसरी औरत - जिसका कत्ल नरेश चौहान के बगल वाले फ्लैट में हुआ था - का नाम सुनीता गायकवाड़ था।
तभी एक रिपोर्टर कार में बैठने जा रहे किसी नेता से प्रश्न पूछने लगा।
‘‘सर आपका क्या कहना है इन दोनों घटनाओं के बारे में।‘‘
नेता जी तनिक हकबकाये फिर टिपिकल अंदाज में बोले, ‘‘सब हमारी पार्टी का नाम खराब करने की चाल है। चुनाव नजदीक हैं, जनता हमारे साथ है। ऐसे में मौजूदा सरकार को हमारी पार्टी से खतरा नजर आने लगा है, देखना आगामी चुनावों में हम इस सरकार का तख्ता पलट कर रख देंगे।‘‘
सुनकर रिपोर्टर हड़बड़ा उठा। जाहिर था नेता जी को उन दोनों वारदातों की कोई खबर नहीं थी। मगर रिपोर्टर काबिल था उसने फौरन बात संभाली।
‘‘अच्छा सर अब ये बताइये कि बीती रात राजधानी में जो दो औरतों की बर्बरता पूर्वक, उनके घरों में हत्या कर दी गयी, उसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे।‘‘
‘‘भई क्या कहें उस बारे में - नेता जी सम्भलते हुए बोले - जंगल राज आ गया है इस पार्टी के शासनकाल में। रोजाना ऐसी वारदातें घटित होती हैं और किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। लोगों का कानून व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है। लोग सहमें हुए हैं, अक्सर हमारी पार्टी के वकर्रों से गुहार लगाते हैं कि हम कुछ करें। दिल्ली को सुरक्षित बनायें ताकि आवाम सुख-चैन के साथ जिंदगी बसर कर सके। हम जनता की तकलीफ को समझते हैं। जानते हैं कि दिल्ली की जनता बदलाव चाहती है। देखना बहुत जल्द हम इस मुद्दे को असैम्बली में उठाएंगे।‘‘
‘‘सर क्या लगता है आपको किसने किया होगा ये सब।‘‘
‘‘नो कमेंट प्लीज!‘‘ कहकर नेता जी अपनी कार में बैठ गये फिर कार यह जा वह जा।
‘‘तो जैसा की आपने देखा! - पीछे रिपोर्टर लगभग चिल्लाता हुआ बोला - विपक्ष का मानना है कि इसके लिए सरकारी हुक्मरान जिम्मेदार हैं। उन्होंने ये भी कहा कि दिल्ली में जंगल राज आ गया है। आपको क्या लगता है, क्या सचमुच दिल्ली में जंगल राज आ गया है, अपना जवाब भेजने के लिए अभी टाइप करें....।‘‘
मैंने रिमोट उठाकर टीवी बंद कर दिया।
तभी मेज पर रखा इंटरकॉम बजने लगा। मैंने काल अटैंड की। शीला की सुरीली आवाज मुझे सुनाई दी, ‘‘थाने से फोन है क्या बोलूं! तुम अभी चांद पर गये हो या कह दूं कि तुम्हारा इंतकाल हो गया है! बस दो ही रास्ते हैं तुम्हे जेल जाने से बचाने के।‘‘
‘‘शीला, माई स्वीट हार्ट! - मैं जबरन सब्र बरतता हुआ बोला - कितनी बार तुझसे कहा है कि अपना भेजा मत इस्तेमाल किया कर।‘‘
‘‘गलत समझ रहे हो, ये तो मैं तुम्हारा भेजा इस्तेमाल कर रही हूं। अपना करती तो कॉल फौरन तुम्हें ट्रांसफर ना कर देती। भला पुलिसवालों को होल्ड कराना कोई अक्लमंदी होती है।‘‘
‘‘लाइन ट्रांसफर कर फौरन।‘‘ इस बार मैं सख्त लहजे में बोला।
‘‘फौरन तो अब नहीं कर सकती।‘‘
‘‘क्यों?‘‘
‘‘क्योंकि फौरन तो तब होता जब अभी तक मैं ट्रांसफर कर चुकी होती।‘‘
मैंने खामोशी से एक गहरी सांस ली।
‘‘यूं खसम की तरह खुंदक खाकर मत दिखाओ, मैसेज है तुम्हारे लिए, नदीम खान को फोन कर लो। उसने तुम्हारा मोबाइल ट्राई किया था जो कि ऑफ पड़ा है। उसने कहा है, बल्कि हुक्म दनदनाया है कि तुम जहां भी हो फौरन तुम्हें उससे बात करने को कहा जाय।‘‘
मैंने रिसीवर रख दिया। रात को मैं मोबाइल ऑफ करके सोया था और सुबह उसे ऑन करना भूल गया था। जेब से मोबाइल निकालकर ऑन किया तो खान के तीन मिस्ड काल और एक मैसेज था जिसमें उसने फौरन काल करने को लिखा था।
मैंने उसके मोबाइल पर काल लगाई।
‘‘गुडमार्निंग खान साहब।‘‘
‘‘गुड मार्निंग, कहां हो भई तुम! सुबह से तुमसे कांटेक्ट करने की कोशिश कर रहा हूं।‘‘
‘‘माफी चाहता हूं जनाब! बताइए क्या हुक्म है।‘‘
‘‘अपना जवान तुमसे मिलने को तड़प रहा है। कहता है उससे तुम्हारी फौरन बात कराई जाय।‘‘
‘‘नरेश चौहान!‘‘
‘‘और कौन होगा।‘‘
‘‘वो गिरफ्तार है!‘‘
‘‘हां भई मैंने बहुतेरी कोशिश की, मगर उसको गिरफ्तार होने से नहीं बचा पाया। गिरफ्तार तो उसने होना ही था, मगर मैं चाहता था किसी भी तरह उसे थोड़ा वक्त हांसिल हो जाता जिसमें वो अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए कुछ कर पाता। मैंने अपने एसीपी को मना भी लिया था, मगर डीसीपी साहब ने साफ कह दिया कि ऐसा नहीं किया जा सकता। तमाम सबूत उसके खिलाफ हैं, लिहाजा उसे सिर्फ इसलिए ढील नहीं दी जा सकती कि वह महकमे का आदमी है।‘‘
‘‘दूसरी हत्या भी उसी ने की है।‘‘
‘‘अब तक के हालात और इंवेस्टिगेशन का तबसरा तो यही है। अलबत्ता मेरा मन नहीं मानता, कि वो ऐसे भयानक तरीके से किसी की हत्या कर सकता है।‘‘
‘‘वो क्या कहता है इस बारे में।‘‘
‘‘वही जो हर मुजरिम कहता है, हर बेगुनाह भी कहता है - वो बेगुनाह है उसने कुछ नहीं किया, उसे फ्रेम किया गया है।‘‘
‘‘आपको क्या लगता है केस में गुंजायश है कोई।‘‘
‘‘मुश्किल है, ये सीधा-सीधा ओपेन एण्ड शट केस जान पड़ता है। मुझे नहीं लगता कि हमारा डिपार्टमेंट उसे बचाने के लिए कुछ कर पायेगा।‘‘
‘‘जनाब माफी के साथ अर्ज कर रहा हूं कि - ऐसा जवाब थाने के एसएचओ के मुंह से कुछ जंच नहीं रहा।‘‘
‘‘मैं तुम्हारा इशारा खूब समझ रहा हूं। देखो बात अगर सिर्फ दूसरी औरत के कत्ल की होती तो शायद हम उसे बचा लेते। मगर मंदिरा चावला कोई आम लड़की नहीं थी, उसके बहुत बड़े-बड़े कांटेक्ट थे। उसकी मौत पर मीडिया तो जमकर हमारी मिट््टी-पलीद कर ही रही है, साथ ही सुबह से शहर की कई बड़ी हस्तियों के फोन भी आ चुके हैं हमारे एसीपी साहब के पास, कि जल्द से जल्द हत्यारे को गिरफ्तार किया जाय।‘‘
‘‘मतलब क्या हुआ इसका, अभी तक आपने चौहान की गिरफ्तारी शो नहीं की।‘‘
‘‘नहीं, आज शनिवार है और कल संडे, परसों हम उसे सीधा डयूटी मजिस्टेªट के सामने पेश करेंगे। जहां सरकारी वकील उसके रिमांड की मांग करेगा जो कि अमूमन मिल ही जाती है। लिहाजा परसों से पहले उसे सामने लाने की हमें कोई जरूरत नहीं है। रिमांड मिलने के बाद ही सबको पता चलेगा कि उन दोनों हत्याओं के लिए एक पुलिसवाला जिम्मेदार है। अभी अगर हमनें शो कर दिया कि हत्यारे को हमने गिरफ्तार कर लिया है तो इन दो दिनों में मीडिया और आम पब्लिक हमारा जीना हराम कर देगी।‘‘
‘‘ओह!‘‘
‘‘तो मैं उसे खबर कर दूं कि तुम आ रहे हो।‘‘
‘‘बिल्कुल जनाब मैं बस दस मिनट में हाजिर हुआ।‘‘
ठीक दस मिनट बाद मैं थाने के बाहर अपनी कार पार्क कर रहा था।
डयूटी रूम में पूछने पर पता चला चौहान साहब अपने कमरे में थे। सुनकर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। आखिर वो पुलिसवाला था और अपने ही थाने में गिरफ्तार था तो लॉकअप में क्यों रखते उसे। लॉकअप तो जनाब सिर्फ गरीब-गुरबा लोगों के लिए होता है। उन लोगों के लिए, जिन्हें रात को पुलिस वालों की बेहिसाब मार खानी होती है! मार भी कैसी बेवजह की, जो भी पुलिसिया उधर से गुजरता है लॉकअप खोलकर जमकर अपना गुस्सा उतारता है और चला जाता है। इस तरह के लोग जीओ के अनलिमिटेड ऑफर की तरह होते हैं जितना भी यूज कर लो कोई पाबंदी नहीं, कोई शिकायत नहीं।
adeswal
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Re: Thriller खतरनाक साजिश

Post by adeswal »

मैं चौहान के कमरे में पहुंचा, उसने नजर उठाकर मेरी तरफ देखा फिर बैठने का खामोश इशारा किया। मैं उसकी मेज के सामने एक विजिटर चेयर पर बैठ गया। उसकी शक्ल पर इस वक्त जो फटकार बरस रही थी वो शब्दों में बयान नहीं की जा सकती थी।
‘‘कैसा है गोखले।‘‘ वो टूटे हुए स्वर में बोला।
‘‘बढ़ियां तुम बताओ।‘‘
जवाब में उसने बड़े ही कातर भाव से मुझे देखा।
‘‘हैरानी हो रही है, साथ में खुशी भी कि तुम यहां मुझे लॉकअप में नहीं मिले।‘‘
‘‘तो तेरी निगाहों में भी मुझे पुलिस लॉकअप या जेल में होना चाहिए, नहीं!‘‘
‘‘मेरा वो मतलब नहीं था, दरअसल जिन हालात में तुम इस वक्त फंसे हुए हो उसमें यूं तुम्हारा अपने कमरे में मौजूद होना बड़ी बात है।‘‘
‘‘हूं....मतलब तू अभी भी वही गोखले है, एक दिन पहले वाला! मेरा खास वाला ना सही मगर दोस्त है! ठीक कहा न मैंने।‘‘
‘‘बिल्कुल हूं, हमेशा रहूंगा।‘‘
‘‘गुड! मुझे पूरा यकीन था, बहरहाल यहां आने के लिए शुक्रिया, एक सिगरेट दे।‘‘
मैंने सिगरेट का पैकेट और लाइटर दोनों उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने बड़े ही नर्वश भाव से एक सिगरेट सुलगाया और हवा में धुंए का छल्ला बनाता हुआ बोला, ‘‘खान साहब की वजह से मैं लॉकअप की बजाय अपने कमरे में हूं। समझ ले उन्होंने मेरा लिहाज किया।‘‘
‘‘ओह।‘‘
‘‘सच मान गोखले अगर बात सिर्फ कत्ल की होती तो मैं इतना हलकान हरगिज नहीं होता। मगर यहां तो मुझे होमीसाइडल करार दिया जा रहा है, सेक्स मैनियाक करार दिया जा रहा है। ये जिल्लत मैं ताउम्र हरगिज भी नहीं ढो सकता। दिल करता है रिवाल्वर की एक बुलेट अपनी खोपड़ी में उतार लूं।‘‘
‘‘अरे नहीं।‘‘
मैंने हकबकाकर उसकी ओर देखा, इस वक्त उसका चेहरा चट्टान की तरह सख्त नजर आ रहा था। कोई बड़ी बात नहीं थी अगर पस्ती के आलम में वो ऐसा कर गुजरता।
तभी एक लड़का हमारे सामने कॉफी के दो कप रख गया।
‘‘कॉफी पी।‘‘
कहकर उसने एक कप मेरी ओर बढ़ दिया और दूसरा खुद उठा लिया।
‘‘जानता है अभी थोड़ी देर पहले मैं यहां जिस-जिस के सामने से गुजरा, वो फौरन किसी ना किसी काम में बिजी होने का दिखावा करने लगा। जैसे मैं स्साला कोई छूत की बिमारी था जिसकी तरफ देखने से भी इंफेक्सन का खतरा हो! यहां के स्टॉफ को ही जब मुझपर यकीन नहीं है, तो भला और कोई क्यों यकीन करेगा मुझपर।‘‘
‘‘मुझे यकीन है।‘‘
‘‘उसके लिए तेरा दिल से शुक्रिया बोलता हूं। कम से कम कोई तो ऐसा है जो ये मानता है कि मैं कत्ल नहीं कर सकता।‘‘
‘‘तुम गलत समझ रहे हो, मैं ये नहीं कह रहा कि तुम कत्ल नहीं कर सकते।‘‘
‘‘फिर!‘‘ उसकी भौहें तन सी गईं।
‘‘मेरा मतलब है, अगर ये कत्ल तुमने किया होता तो तुम्हारे महकमे को तुम्हारा अपराध साबित करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते। ना कि तुम यूं उनके हाथ लग जाते, जैसे बकरे ने खुद कसाई के छुरे के नीचे अपनी गर्दन रख दी हो, ले भाई जिबह कर ले मुझे।‘‘
‘‘देखो तो, जैसे स्साला मैं कोई अक्ल का अंधा हूं।‘‘
‘‘मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि तुम्हारा डिपार्टमेंट इस बात पर कोई नोटिस क्यों नहीं लेता, कि अगर ये सब तुम्हारा किया धरा होता तो साथ में अपने बचाव का कोई ना कोई इंतजाम तुमने जरूर करना था! ना कि कत्ल के बाद - फ्लैट पर पहुंचकर, खून सनी वर्दी पहने हुए - घोड़े बेचकर सो जाते। जैसे दरवाजे पर कोई बोर्ड लगा दिया हो - एस.आई. नरेश चौहान, सबसे बड़ा अक्ल का अंधा, गिरफ्तारी के लिए उपलब्ध! कृपया बेडरूम में आकर गिरफ्तार करें, दरवाजा खुला है - हकीकत तो ये है कि तुमने अपने बचाव के लिए उतनी भी सावधानी नहीं बरती जितना एक आम अपराधी भी बरत लेता है। बावजूद इसके कि तुम पुलिस में हो! अपराध और अपराधियों से तुम्हारा रोज पाला पड़ता है।‘‘
‘‘चलो तुमने ये तो माना, कि कम से कम ये दोनों हत्यायें मैंने नहीं की हैं। समझो दिल को सकून हासिल हो गया।‘‘
‘‘काश उस सकून से तुम्हारी बेगुनाही सिद्ध हो पाती।‘‘
सुनकर वो हौले से हंस दिया।
‘‘अब क्या इरादा है।‘‘
‘‘मैं चाहता हूं कि तू अपने तमाम जरूरी, गैर-जरूरी कामों को कुछ अरसे के लिए मुल्तवी कर दे। आइंदा तेरे पास सिर्फ और सिर्फ एक ही काम हो - मंदिरा और सुनीता के कातिल को ढ़ूंढ निकालने का काम - इस दौरान तूने कोई केस नहीं लेना है, किसी भी क्लाइंट का कोई काम नहीं करके देना है। अभी और इसी वक्त से मुझे बेगुनाह साबित करने की मुहीम पर निकल जा। कुछ कर पाया तो मेरी किस्मत, नहीं कर पाया तो मेरी किस्मत! मुझे तुझसे कोई शिकायत नहीं होगी। तू अभी से मुझे अपना पेइंग क्लाइंट समझ! जो एडवांस बोल मैं देता हूं। ‘‘
‘‘अब तुम मुझे शर्मिंदा कर रहे हो, तुम्हे अंदाजा भी नहीं कि बीते रोज मैंने तुम्हें बचाने के लिए क्या-क्या पापड़ बेले थे। मगर तुम्हारी तो जैसे किस्मत ही रूठ गई थी भैया।‘‘ कहकर मैंने उसे कल की सारी आपबीती सुना दी।
वो हैरानी से मेरा मुंह तकने लगा।
साहबान ये बिल्कुल जरूरी नहीं कि आप किसी पर एहसान करें, पर गलती से अगर आप ऐसा कर बैठे हैं तो उसे इस बात का एहसास जरूर करायें। वरना आपके एहसान की कोई कीमत नहीं रह जायेगी। ‘नेकी कर दरिया में डाल‘ वाली कहावत आज बीते जमाने की बात हो चुकी है। आज के दौर में तो लोग भिखारी को पांच का सिक्का भी देते हैं तो अगले दिन उसकी फोटो फेसबुक पर पोस्ट कर देते हैं और आपसे रिक्वेस्ट करते हैं कि आप उसे शेयर करें, लाइक करें। हालात तो इतने बद्तर हो चुके हैं कि गर्ल-फ्रैंड, व्हाट्सएप्प पर किसी बुके की फोटो भेज कर अगले दिन याद दिलाने से बाज नहीं आती कि - जानू मैंने कल रात को फूलों का गुलदस्ता भेजा था, तुमने देखा या नहीं - कहने का तात्पर्य ये है जनाब कि एहसान करने से ज्यादा एहसान को सामने वाले की निगाह में लाना जरूरी होता है।
बहरहाल ये बातेें तो आम इंसानों पर लागू होती हैं। पुलिसवाला आम इंसान कहां होता है, दूसरों का एहसान याद रखना तो जैसे इन्हें सिखाया ही नहीं जाता, तभी तो आपका खादिम गाहे-बगाहे उन्हें इस बाबत याद दिलाते रहना अपना फर्ज समझता है। इस वक्त भी मैं वही करने की कोशिश कर रहा था।
‘‘शुक्रिया।‘‘ उसने कॉफी का आखिरी घूंट भरा और कप एक तरफ सरका दिया।
‘‘अब तुम मेरे एक सवाल का एकदम सच्चा जवाब दो।‘‘ मैं बोला।
‘‘पूछो।‘‘
‘‘ये दोनों कत्ल तुमने किये हैं?‘‘
जवाब में उसने बड़े ही असहाय भाव से मेरी ओर देखा।
‘‘जवाब ये सोचकर देना कि उससे तुम्हारा बचाव करने की मेरी मुहीम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।‘‘
‘‘नहीं! - वो बेहिचक बोला - कभी खयाल तक नहीं आया कि मुझे किसी के खून से अपने हाथ रंगने पड़ेंगे।‘‘
‘‘मंदिरा चावला से वाकिफ थे तुम!‘‘
‘‘हां जानता था मैं उसे।‘‘
‘‘कैसे जानते थे?‘‘
‘‘तीन महीने पहले एक पार्टी में मुलाकात हुई थी। वहीं जान-पहचान हो गयी। पार्टी आधी रात तक चलती रही थी, उस दौरान हम काफी घुल-मिल गये। पार्टी के बाद मैं उसे उसके फ्लैट तक छोड़कर आया था। हालिया मुलाकात की बात करूं तो वो करीब एक महीने पहले हुई थी। उस रोज मैंने उसे लंच पर इनवाइट किया था। लंच के दौरान कुछ हल्की-फुल्की बातें हुई हमारे बीच, फिर हम दोनों अपनी अपनी राह लग लिए।‘‘
‘‘कल वो तुम्हारे फ्लैट पर आई थी।‘‘
‘‘अरे हां, उसका जिक्र करना तो मैं भूल ही गया।‘‘
‘‘आई थी!‘‘
‘‘हां भई आई थी।‘‘
‘‘क्यों?‘‘
‘‘पता नहीं! - कहकर उसने तुरंत आगे जोड़ा - बाई गॉड मुझे नहीं पता, कि वो कल मेरे यहां क्यों आयी थी। चार बजे के करीब उसने मुझे फोन करके पूछा था कि मैं क्या कर रहा था। जवाब में मैंने बता दिया कि आज मेरा ऑफ है इसलिए मैं अपने फ्लैट पर ही हूं। तब उसने पूछा - क्या वो थोड़ी देर के लिए मुझसे मिलने मेरे फ्लैट पर आ सकती थी - जवाब में मैंने वैलकम बोल दिया।
आधे घंटे बाद कालबेल बजी तो मैं उठकर दरवाजे तक पहुंचा। आगंतुक वही थी। उस घड़ी वो आसमानी रंग का सलवार सूट पहने थी, जिसमें वो कोई आसमानी परी ही जान पड़ती थी। ये वही कपड़े थे जो कत्ल के बाद उसके शरीर पर चीथड़ों की शक्ल में पाये गये थे।
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