बदनसीब रण्डी
ट्रक हिचकोले खाते हुए पंजाब की कच्ची सड़क को पार करता अपने मुकाम की ओर बढ़ रहा था। ट्रक में जमा ‘माल़ ‘ 14 औरतें / लड़कियां थी। कुछ कुंवारियां थी जिन्हें मुंबई या दिल्ली में काम दिलाने का वादा किया गया था पर अब किसी की गुलाम बनने वाली थी। इनमें से लगभग हर एक रो रही थी। एखाद दो पुरानी रंडियां थी जो एक कोठे से बिक कर दूसरे कोठे के लिए नीलाम हो रही थी।
ऐसी ही दो औरतें मिली। एक थी 18 साल की काली, जो बंगाल में खुद को पांच हजार रुपए में बेच कर एक रण्डी की जिंदगी अपनाने को खुद को तयार कर रही थी। दूसरी थी 37 साल की फुलवा, जिसे उसके बाप ने 18 की होते ही कोठे पर बेचा और फिर एक मर्द से दूसरे मर्द को जाती रही।
काली ने अपने डर को दबाने के लिए फुलवा से उसकी कहानी पूछी। फुलवा को एहसास था की यह उसका आखरी सफर है और कल उसे कोई याद नहीं रखेगा। किसी की यादों में ही सही पर जिंदा रहने की चाहत बड़ी तेज़ होती है।
भोली काली की सहमी हुई आंखों में देखते हुए बेजान सी आंखों की फुलवा अपनी कहानी बताने लगी।
.........................................
1
फुलवा पैदाइशी बदनसीब थी। उसकी मां गांव की रण्डी थी। उसका सबसे बड़ा भाई छोड़ बाकी सब उसके पिता के बच्चे नहीं थे। फुलवा के पैदा होने के कुछ साल बाद उसकी मां एक और बार पेट से हो गई। फुलवा की मां ने बच्चा गिराने के लिए जो दावा खाई उस से वह भी मर गई।
फुलवा के बापू ने उसकी मां से शादी के अलावा कोई काम करने का किसी को याद नहीं। जब छोटी की बच्ची घर की औरत बनी तब उसे मदद करने वाला सिर्फ एक था। फुलवा का बड़ा भाई शेखर उस से 6 साल बड़ा था और गांव में चोरी कर अपने भाइयों और बहन को संभालता था। फुलवा के जुड़वा भाई बबलू और बंटी फुलवा से 3 साल बड़े थे। शेखर सबके लिए खाने का इंतजाम करता तो बबलू और बंटी फुलवा को संभालते।
जैसे चारों बढ़ने लगे शेखर मजदूरी करने लगा तो बबलू और बंटी चोरियां करते। फुलवा घर में रहकर सबके लिए खाना बनाती और घर संभालती। फुलवा बड़ी होने लगी तो सबको पता चल गया कि वह अपनी मां जैसी खुबसूरती की मिसाल बनेगी। शेखर ने फुलवा को पराए मर्दों से दूर रहने को कहा और खुद सबकी बेहतर जिंदगी के लिए शहर चला गया। कुछ सालों बाद बबलू और बंटी गांव में गुंडागर्दी करते और फुलवा इन सब की वजह से दुनिया से अनजान अपने घर में बेखबर बची रही।
शेखर हर महीने पैसे भेजता पर बबलू और बंटी अपने बापू से परेशान हो कर अपने भाई की मदद करने 18 के होते ही चले गए। जाते हुए बंटी ने फुलवा को अपने बापू से बच कर रहने को कहा पर भला बापू से क्यों डरना? वह तो अपना है ना? है ना?
जब फुलवा जवानी की कगार पर आ गई तो उसके बापू ने उसकी तारीफ करना शुरू कर दिया। कैसे उसकी खूबसूरती उसकी मां जैसी थी। जिसे अपनी मां याद नहीं उसके लिए इस से ज्यादा खुबसूरती कुछ नही। बापू फुलवा को अक्सर कहता कि वह अपनी राजकुमारी के लिए शहर का राजकुमार लाएगा।
जवानी की कगार पर लड़खड़ाती हसीना के लिए इस से बेहतरीन सपना क्या होगा?
फुलवा के 18वे जन्मदिन पर बापू एक गाड़ी लेकर आया।
बापू ने फुलवा को बताया की यह गाड़ी उसे और फुलवा को शहर ले जायेगी जहां उसका दोस्त फुलवा के लिए लड़का ढूंढने में उनकी मदद करेगा। फुलवा को बापू पर शक करने की जरूरत नहीं पड़ी और वह अपने कुछ अच्छे कपड़े लेकर बापू के साथ चली गई।
बापू ने गाड़ी दोपहर से रात तक चलाई और देर रात को लखनऊ के बाहर एक सुनसान जगह पर रुक गए।
बापू, “रात बहुत हो चुकी है। इतनी रात किसी के घर पहुंचना ठीक नहीं। हम इस जगह पर आज की रात रुकेंगे और कल सुबह मेरे दोस्त से मिलेंगे।“
फुलवा गांव के बाहर पहली बार आई थी और इस बड़ी हवेली को देख कर अंदर देखने को उत्सुक हो गई। फुलवा का हाथ पकड़ कर बापू उसे अंदर ले गया।
दरवाजा छूते ही खुल गया और दोनों के अंदर दाखिल होते ही बंद हो गया। फुलवा को इस साफ और सुंदर महल में कुछ अजीब बू आ रही थी। वह गंदी थी पर इंसान को अपनी ओर आकर्षित करती थी। फुलवा को अपने हर कदम के साथ घुंगरू के आवाज सुनाई दे रहे थे पर उसने तो पायल भी नहीं पहनी थी।
फुलवा, “बापू! ये कैसी जगह है? मुझे डर लग रहा है!”
अंधेरे में से बापू की आवाज अजीब सी हो गई।
बापू, “मेरी बच्ची ये “राज नर्तकी की हवेली” है। आओ, दरबार की इस बड़ी कुर्सी पर बैठो। मैं तुम्हें उसकी कहानी बताता हूं!”
फुलवा सिंहासन पर बैठ गई और उसे ऐसे लगा जैसे किसी जानवर ने उस पर अपनी ठंडी सांस छोड़ी हो। फुलवा सिकुड़ कर बैठ गई और बापू कहानी बताने लगा।
..................