वापसी : गुलशन नंदा
(1)
“नो इट्स इम्पॉसिबल, मेजर रशीद, तुम्हें ज़रूर कोई ग़लतफ़हमी हुई है.”
“सर, मेरे आँखें एक बार धोखा खा सकती हैं, बार-बार नहीं. मैं पूरी ज़िम्मेदारी से कह रहा हूँ. आप तक बात पहुँचाने से पहले मैंने कई दिनों तक गौर से उस कैदी की जांच कर ली है.”
“ओह! आई सी…क्या नाम है उसका?” ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी आदत के मुताबिक भवों को सिकोड़ते हुए पूछा.
“रणजीत!”
“रैंक?”
“कैप्टन!”
“रेजिमेंट?”
“मराठा…थर्टी थ्री मराठा!”
“लेकिन तुम जानते हो मेजर, यह क़दम तुम्हें मौत के मुँह में ले जा सकता है. तुम अपने आप ही दुश्मन का शिकार बन सकते हो.” ब्रिगेडियर उस्मान ने मेजर रशीद की आँखें में झांकते हुये कहा.
फ़ौज में भर्ती होने से पहले मैंने इस बात पर अच्छी तरह गौर कर लिया था सर…सिपाही तो हर वक़्त कफ़न बांधे रहता है. वतन की खातिर मर जाने से बढ़कर और कौन सी शहादत हो सकती है.” मेजर रशीद जोश में आकर भावुक स्वर में बोला.
ब्रिगेडियर उस्मान चुपचाप इस नौजवान को देखता रहा, जो अपनी जान देने पर तुला हुआ था. जब ब्रिगेडियर ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, तो मेजर रशीद ने पूछा, “तो फिर अपने क्या सोचा सर?”
ब्रिगेडियर उस्मान की भवें कुछ ढीली हुई. मेजर रशीद के दृढ़ साहस ने उसे कुछ सोचने पर विवश कर दिया था. उसने पूछा, “तुम्हारे उस कैदियों वाला जत्था किस दिन लौट रहा है?”
“अगले जुम्मे के दिन.”
“लिस्टें जा चुकीं?”
“जी हाँ.”
“कोई फ़ैसला करने से पहले मैं ख़ुद उस कैदी को देखना चाहूंगा.”
“बड़ी ख़ुशी से सर.” मेजर रशीद प्रसन्न चित्त होकर बोला.उसे अपने सोचे हुए प्लान की सफलता की आस बंधने लगी थी.
थोड़ी ही देर बाद मेजर रशीद, ब्रिगेडियर और कर्नल रज़ा अली उस पुराने किले की ओर रवाना हो गये, जहाँ भारत के क़ैदी नज़रबंद थे, इस कैंप का कमांडर स्वयं मेजर रशीद था.
जैसे ही ब्रिगेडियर की फ्लैग कार किले के गेट पर पहुँची, गार्ड ने सावधान की पोज़ीशन में बंदूकों से सलामी दी.
शताब्दियों पुराना काले पत्थरों का बना यह किला अंधेरी रात में एक बड़ा मकबरा-सा प्रतीत हो रहा था. अंदर की तरफ़ कांटेदार तारों का एक सिलसिला दूर तक चला गया था. बाहर राइफलें उठाये फ़ौजी पहरेदार दे रहे थे.
ब्रिगेडियर की फ्लैग कार के पीछे मेजर रशीद की जीप थी. गाड़ियाँ रुकते ही तीनों अफ़सर नीचे उतर आये. सामने खड़े सूबेदार ने एड़ियों पर खटाक की आवाज़ से सैल्यूट किया और आगे बढ़कर मेजर रशीद से बोला, “सब ठीक है साहब!”
“किसी क़ैदी ने भागने की कोशिश तो नहीं की?”
“नो सर.”
“क़ैदी नंबर अठारह का क्या हाल है?”
“उसने भूख हड़ताल कर रखी है.” सावधान खड़े सूबेदार ने उत्तर दिया.
मेजर रशीद कैंप का ब्यौरा देते हुए दोनों अफ़सरों को लेकर पत्थर की उस कोठरी के पास पहुँचा, जिसमें कैप्टन रणजीत बंद था. लोहे का दरवाज़ा खुलते ही धुंधली रोशनी में अंगारों सी दो लाल आँखें चमकीं. अंदर खड़ा रणजीत दीवार का सहारा लेकर बैठने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगा.
इस आदमी को देखते ही ब्रिगेडियर उस्मान के मष्तिष्क को एक झटका सा लगा. कुछ देर तक वह क़ैदी को यों ही चुपचाप देखता रहा. फिर अचानक उसकी दृष्टि मेजर रशीद पर पड़ी. वह प्रकृति के इस अनोखे चमत्कार को विस्मय से देखने लगा. थोड़ी देर के लिए उसे यों लगा, मानो उसके सामने दो रशीद खड़ें हों. कर्नल रज़ा भी आश्चर्य से उसे देखता रहा.
“आखिर आप लोग इस तरह मुझे बार-बार क्यों देख रहे हैं?” रणजीत बड़बड़ाया.
“कुदरत का करिश्मा देख रहा हूँ. दो अलग-अलग मुल्कों , जुदा-जुदा कौमों के अफ़राद और इतने हमशक्ल की अक्ल धोखा खा जाये.”
“कौन है मेरा हमशक्ल?” वह कुछ झुंझलाकर बोला.
“आइना देखोगे?’
“नहीं.” वह गुस्से में बोला.
“टेक इट इज़ी कैप्टन.” ब्रिगेडयर उस्मान ने रणजीत को सांत्वना दी और अपने साथियों को बाहर चलने का संकेत किया.
दरवाज़ा फिर से बंद हो गया. कोठरी का अंधेरा गहरा हो गया. रणजीत दीवा से पीठ टिकाये फ़ौजी पहरेदारों के भारी जूतों की आवाज़ सुनने लगा, जो रात के सन्नाटे में दूर तक गूंज रही थी.
“समझ में नहीं अता, दो मुख्तलिफ़ अजनबी आदमियों में इतनी हैरतअंगेज मुशविहत कैसे हो सकती है.” ब्रिगेडियर उस्मान ने जीप में बैठने से पहले अपनी बात दोहराई.
“बज़ा फरमाया आपने.” कर्नल रज़ा अली ने कहा.
“तो अब हमें क्या करना चाहिए?” ब्रिगेडियर ने कुछ सोचते हुए कहा.
“मेरे मशविरे पर गौर.”
“लेकिन अच्छी तरह सोच-समझ लो. जज़्बात की रौ में आकर अपने घर की ख़ुशी बर्बाद न करो. तुम्हारी शादी हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं. ज़रा-सी भूल-चूक तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकती है.”
“ड्यूटी इज ड्यूटी.” मेजर रशीद ने गंभीरता से कहा, “और फिर मैं तो इस बात में यकीन रखता हूँ, फ़र्ज़ पहले, प्यार बाद में. वतन के लिए मर मिटना मेरे लिए फ़क्र की बात होगी.”