वापसी : गुलशन नंदा

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वापसी : गुलशन नंदा

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वापसी : गुलशन नंदा


(1)

“नो इट्स इम्पॉसिबल, मेजर रशीद, तुम्हें ज़रूर कोई ग़लतफ़हमी हुई है.”

“सर, मेरे आँखें एक बार धोखा खा सकती हैं, बार-बार नहीं. मैं पूरी ज़िम्मेदारी से कह रहा हूँ. आप तक बात पहुँचाने से पहले मैंने कई दिनों तक गौर से उस कैदी की जांच कर ली है.”

“ओह! आई सी…क्या नाम है उसका?” ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी आदत के मुताबिक भवों को सिकोड़ते हुए पूछा.

“रणजीत!”

“रैंक?”

“कैप्टन!”

“रेजिमेंट?”

“मराठा…थर्टी थ्री मराठा!”

“लेकिन तुम जानते हो मेजर, यह क़दम तुम्हें मौत के मुँह में ले जा सकता है. तुम अपने आप ही दुश्मन का शिकार बन सकते हो.” ब्रिगेडियर उस्मान ने मेजर रशीद की आँखें में झांकते हुये कहा.

फ़ौज में भर्ती होने से पहले मैंने इस बात पर अच्छी तरह गौर कर लिया था सर…सिपाही तो हर वक़्त कफ़न बांधे रहता है. वतन की खातिर मर जाने से बढ़कर और कौन सी शहादत हो सकती है.” मेजर रशीद जोश में आकर भावुक स्वर में बोला.

ब्रिगेडियर उस्मान चुपचाप इस नौजवान को देखता रहा, जो अपनी जान देने पर तुला हुआ था. जब ब्रिगेडियर ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, तो मेजर रशीद ने पूछा, “तो फिर अपने क्या सोचा सर?”

ब्रिगेडियर उस्मान की भवें कुछ ढीली हुई. मेजर रशीद के दृढ़ साहस ने उसे कुछ सोचने पर विवश कर दिया था. उसने पूछा, “तुम्हारे उस कैदियों वाला जत्था किस दिन लौट रहा है?”

“अगले जुम्मे के दिन.”

“लिस्टें जा चुकीं?”

“जी हाँ.”

“कोई फ़ैसला करने से पहले मैं ख़ुद उस कैदी को देखना चाहूंगा.”

“बड़ी ख़ुशी से सर.” मेजर रशीद प्रसन्न चित्त होकर बोला.उसे अपने सोचे हुए प्लान की सफलता की आस बंधने लगी थी.

थोड़ी ही देर बाद मेजर रशीद, ब्रिगेडियर और कर्नल रज़ा अली उस पुराने किले की ओर रवाना हो गये, जहाँ भारत के क़ैदी नज़रबंद थे, इस कैंप का कमांडर स्वयं मेजर रशीद था.

जैसे ही ब्रिगेडियर की फ्लैग कार किले के गेट पर पहुँची, गार्ड ने सावधान की पोज़ीशन में बंदूकों से सलामी दी.

शताब्दियों पुराना काले पत्थरों का बना यह किला अंधेरी रात में एक बड़ा मकबरा-सा प्रतीत हो रहा था. अंदर की तरफ़ कांटेदार तारों का एक सिलसिला दूर तक चला गया था. बाहर राइफलें उठाये फ़ौजी पहरेदार दे रहे थे.

ब्रिगेडियर की फ्लैग कार के पीछे मेजर रशीद की जीप थी. गाड़ियाँ रुकते ही तीनों अफ़सर नीचे उतर आये. सामने खड़े सूबेदार ने एड़ियों पर खटाक की आवाज़ से सैल्यूट किया और आगे बढ़कर मेजर रशीद से बोला, “सब ठीक है साहब!”

“किसी क़ैदी ने भागने की कोशिश तो नहीं की?”

“नो सर.”

“क़ैदी नंबर अठारह का क्या हाल है?”

“उसने भूख हड़ताल कर रखी है.” सावधान खड़े सूबेदार ने उत्तर दिया.

मेजर रशीद कैंप का ब्यौरा देते हुए दोनों अफ़सरों को लेकर पत्थर की उस कोठरी के पास पहुँचा, जिसमें कैप्टन रणजीत बंद था. लोहे का दरवाज़ा खुलते ही धुंधली रोशनी में अंगारों सी दो लाल आँखें चमकीं. अंदर खड़ा रणजीत दीवार का सहारा लेकर बैठने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगा.

इस आदमी को देखते ही ब्रिगेडियर उस्मान के मष्तिष्क को एक झटका सा लगा. कुछ देर तक वह क़ैदी को यों ही चुपचाप देखता रहा. फिर अचानक उसकी दृष्टि मेजर रशीद पर पड़ी. वह प्रकृति के इस अनोखे चमत्कार को विस्मय से देखने लगा. थोड़ी देर के लिए उसे यों लगा, मानो उसके सामने दो रशीद खड़ें हों. कर्नल रज़ा भी आश्चर्य से उसे देखता रहा.

“आखिर आप लोग इस तरह मुझे बार-बार क्यों देख रहे हैं?” रणजीत बड़बड़ाया.

“कुदरत का करिश्मा देख रहा हूँ. दो अलग-अलग मुल्कों , जुदा-जुदा कौमों के अफ़राद और इतने हमशक्ल की अक्ल धोखा खा जाये.”

“कौन है मेरा हमशक्ल?” वह कुछ झुंझलाकर बोला.

“आइना देखोगे?’

“नहीं.” वह गुस्से में बोला.

“टेक इट इज़ी कैप्टन.” ब्रिगेडयर उस्मान ने रणजीत को सांत्वना दी और अपने साथियों को बाहर चलने का संकेत किया.

दरवाज़ा फिर से बंद हो गया. कोठरी का अंधेरा गहरा हो गया. रणजीत दीवा से पीठ टिकाये फ़ौजी पहरेदारों के भारी जूतों की आवाज़ सुनने लगा, जो रात के सन्नाटे में दूर तक गूंज रही थी.

“समझ में नहीं अता, दो मुख्तलिफ़ अजनबी आदमियों में इतनी हैरतअंगेज मुशविहत कैसे हो सकती है.” ब्रिगेडियर उस्मान ने जीप में बैठने से पहले अपनी बात दोहराई.

“बज़ा फरमाया आपने.” कर्नल रज़ा अली ने कहा.

“तो अब हमें क्या करना चाहिए?” ब्रिगेडियर ने कुछ सोचते हुए कहा.

“मेरे मशविरे पर गौर.”

“लेकिन अच्छी तरह सोच-समझ लो. जज़्बात की रौ में आकर अपने घर की ख़ुशी बर्बाद न करो. तुम्हारी शादी हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं. ज़रा-सी भूल-चूक तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकती है.”

“ड्यूटी इज ड्यूटी.” मेजर रशीद ने गंभीरता से कहा, “और फिर मैं तो इस बात में यकीन रखता हूँ, फ़र्ज़ पहले, प्यार बाद में. वतन के लिए मर मिटना मेरे लिए फ़क्र की बात होगी.”
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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“माना, तुम रणजीत के हमशक्ल हो और कैप्टन रणजीत बनाकर हिंदुस्तान लौटाये जा सकते हो. लेकिन वहाँ तुम्हें कई इम्तिहानों से गुज़रना पड़ेगा. जाने से पहले उसने रिश्तेदारों, दोस्तों और अफ़सरों के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर लेनी होगी. रणजीत और उसके घरवालों की शौक व आदतें समझ लेनी होंगी.”

“जी हाँ….मैंने अपनी जिम्मेवारी को बखूबी समझ लिया है. मुझे यक़ीन है कि मैं यह काम अच्छी तरह कर गुजरूंगा.”

“जानते हो, तुम्हें क्या-क्या करना होगा?”

“जी हाँ…कैप्टन रणजीत के रूप में हिंदुस्तान के हवाई अड्डों और छावनियों की पोज़ीशन का अंदाज़ा लगाना. उनके नये हथियारों और फ़ौजी अहमियत की दूसरी इज़ादों के बारे में मालूमात हासिल करना. मैं जानता हूँ इस काम में जोखिम बहुत है, लेकिन मुझे लगता है कि इस मेरे हमशक्ल अफ़सर को क़ैदी के रूप में भेजकर क़ुदरत खुद हमारी मदद करना चाहती है. ऐसे मौकों का ज़रूर फ़ायदा उठाना चाहिए.”

यह कहकर मेजर रशीद आशा भरी दृष्टि से ब्रिगेडियर उस्मान की ओर देखने लगा.

ब्रिगेडियर उस्मान कुछ देर गहरी सोच में डूबा रहा. फिर उसने नज़र उठाई और मेजर रशीद की चमकती हुई आँखों में झाँकने लगा. इन आँखों में उसे साहस और विश्वास की रोशनी दिखाई दी. प्रशंसा से उसने अपने नौजवान अफ़सर को देखते हुए कहा, “तुम एक जाबांज और क़ाबिल अफ़सर हो. तुम्हारे जैसे बहादुर और तजुर्बेकार अफ़सरों को हम किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते.”

"लेकिन सर…” मेजर रशीद के चेहरे से एकाएक निराशा झलकने लगी.

ब्रिगेडियर उस्मान ने बीच में ही उसकी बात काटते हुए कहा, “घबराओ मत! अगर तुम्हारी यही दिली आरज़ू है, तो इसे पूरा करने में तुम्हारी पूरी मदद की जायेगी…गो अहेड…ख़ुदा हाफ़िज़!”

ब्रिगेडियर उस्मान ने मुस्कुराते हुए उसे अनुमति दे दी और कर्नल रज़ा अली को साथ लेकर कार में जा बैठा. ब्रिगेडियर की फ्लैग कार लहराती हुई कैंप से बाहर निकल गई.

मेजर रशीद ने सावधान स्थिति में सैल्यूट के लिए हाथ उठाया और असीम प्रसन्नता से न जाने कब तक यूं ही खड़ा रहा.

जब वह दफ़्तर लौटा, तो लगभग दो पहर रात बीत चुकी थी, उसका मन अपने कमरे में जाने का नहीं हुआ. वहीं दफ़्तर की कुर्सी पर बैठकर वह ध्यानपूर्वक कैदियों की फाइल का अध्ययन करने लगा. भाग्य उसका मार्ग साफ़ करता जा रहा था. दुश्मन की बाबत बहुत सी जानकारी उसे हासिल हो गई थी. वह कैदियों द्वारा प्राप्त हर सूचना को अपने मस्तिष्क में बैठाता जा रहा था.

१९६५ में भारत-पाकिस्तान युद्ध की ज्वाला ठंडी पड़ चुकी थी. बमों और तोपों की आवाज़ें समाप्त हो चुकी थीं, परन्तु कभी किसी रैक्की करते जहाज़ की आवाज़ रत के मौन वातावरण को थोड़ा झनझना देती और मेजर रशीद के विचारों की कड़ी थोड़ी देर के लिए भंग हो जाती. लेकिन सन्नाटा होते ही वह उस कड़ी को फिर जोड़ लेता.

ताशकंद समझौते के बाद भारत और पाकिस्तान में युद्ध विराम हो चुका था. इसी समझौते के अनुसार दोनों देशों को एक-दूसरे के अधिकार में लिए गए क्षेत्रों और कैदियों को लौटाया जा रहा था. यह समझौता ऐसी स्थिति में हुआ था, जबकि दोनों देशों में किसी की भी विजय, पराजय खुलकर सामने नहीं आई थी. समझौता हो चुका था, किन्तु युद्ध विराम द्वारा उभरी हुई घृणा अभी दूर नहीं हो पाई थी. दोनों ही पक्षों को काफ़ी क्षति पहुँची थी. लेकिन कोई भी पक्ष अपना नुकसान स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था.

मेजर रशीद एक साहसी और जोशीला पाकिस्तानी फ़ौजी अफ़सर था. युद्ध विराम से उसके सीने में सुलगती आग अभी ठंडी नहीं हुई थी. उसकी वे तमन्नायें, जो शांति की संधि से पूरी न हो सकी थी, कैप्टन रणजीत को देखकर उसके सीने में उभरने लगी थीं.

अचानक हवा से फड़फड़ाते कागज़ की आवाज़ ने उसके विचारों की श्रृंखला को काट दिया. वह क्लिप में लगे उस कागज़ की आवाज़ थी, जो आज ही शाम की डाक से आया था, उसकी प्रियतमा सलमा का प्यार भरा पत्र युद्ध के तूफ़ान में भी उसे ढूंढता हुआ उसके पास पहुँच जाता था और उसे याद दिलाता रहता था कि वह केवल अपने लिए नहीं, किसी और ले लिए भी जी रहा है. उसने हवा से फड़फड़ाते खत को क्लिप से निकाला और पढ़ने लगा-
“मेरे सरताज़! प्यार भरा सलाम!
याद रहे अगले बुध का दिन और तारीख़. खाली सफ़हे पर मत जाइए…आपके बगैर मेरी ज़िन्दगी भी इस सफ़हे की तरह ख़ाली है.”
आपकी मुन्तज़र
सलमा

इन चंद शब्दों को रशीद ने बार-बार पढ़ा और फिर उस पुर्जे को अपने होंठों से लगा लिया.

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(2)
रात का पहला पहर बीत चुका था.

दिन के कोलाहल के बाद वातावरण पर रात की निस्तब्धता छाती जा रही थी. कुछ घरों में रोशनियाँ बुझ चुकी थी. कुछ की अभी जगमगा रही थी. सड़क पर इक्का-दुक्का राहगीर आ-जा रहे थे. ब्लैक आउट समाप्त हो गया था. बहुत दिनों बाद ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शहर ने अपनी बंद आँखें खोली हैं. फिर सड़कों की बत्तियों पर अब भी स्याही पुती हुई थी, जिससे सड़क कुछ सोई-सोई सी लग रही थी.


सलमा घर के कम-काज से निबटकर, एकांत में बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थे. उस इस बात का खेद था कि उसके पत्र लिखने के बावजूद भी उसके पति मेजर रशीद अपनशादी की सालगिरह के दिन घर नहीं आये. उनकी शादी की यह पहली सालगिरह थी. यही दिन उसके लिए भरपूर ख़ुशियाँ लेकर आया था, लेकिन आज इसी दिन वह बिल्कुल अकेली है.

अचानक बाहर जीप की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ी. धड़कते दिल से लपककर उसने दरवाज़ा खोला. सामने मेजर रशीद की गाड़ी खड़ीं थी.

सलमा ने आगे बढ़कर व्याकुलता और प्रसन्नता मिश्रित स्वर में कहा – “आप आ गये.”

“क्यों यक़ीन नहीं आ रहा है?” मेजर रशीद ने मुस्कुराकर उसकी ओर बढ़ते हुए कहा.

“यक़ीन करने से डरती हूँ.”

“क्यों?”

“कहीं मेरी सौत फिर न बुला ले जाये. इस ज़ालिम ने तो आपको मुझसे बिलकुल ही छीन लिया.”

“अरे भई, अब तो जंग खत्म हो चुकी है, अब बेचारी को क्यों कोसती हो.” मेजर रशीद ने मुस्कुराते हुए कहा और फिर उसके पास जाकर धीरे से बोला, “क्या करूं, रात-दिन कैदियों के तबादले में लगा हुआ हूँ. एक लम्हे ही भी फ़ुर्सत नहीं मिलती. अब आया भी हूँ. तो खाली हाथ. इस मुबारक-दिन पर तुम्हारे लिए कोई तोहफ़ा भी नहीं ला सका.”

“आपसे बढ़कर मेरे लिए कौन सा तोहफ़ा हो सकता है. बस, आप आ गये, मुझे सबकुछ मिल गया.” सलमा ने प्यार भरी नज़रों से पति की ओर देखते हुए कहा और धीरे से सिमटकर उसकी बाहों में आ गई.

सलमा को यों अनुभव हुआ, जैसे कुछ क्षण के लिए वह स्वर्ग में आ पहुँची हो. पति की बाँहों की गर्मी से वह पिघली जा रही थी. कुछ देर तक आँखें बंद लिए हुए विभोर-सी वह उसके सीने से लगी रही. अचानक वह उछलकर पति से अलग हो गई और आँखें फाड़-फाड़कर जीप की ओर देखने लगी. जीप में से किसी के हल्केसे खखारने की आवाज़ आई थी. फिर उसने कोई छाया सी हिलती देखी. उसने घबराकर पति से पूछा, “आपके साथ और कौन है?”

“ओह…मैं भी कमाल का आदमी हूँ.” मेजर रशीद ने हल्के से ठहाके के साथ कहा – ‘तुमसे कोई मिलने आया और मैं भूल ही गया.” यह कहते हुए मेजर रशीद ने जीप गाड़ी की ओर मुँह करते हुए कैप्टन रणजीत को पुकारा.

एक अजनबी का नाम सुनकर पहले तो सलमा चौंकी और फिर जैसे ही रणजीत धीरे-धीरे सरकता हुआ अंधेरे से उजाले में आया कि उसके मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई. अपने पति के हमशक्ल को सामने खड़ा देखकर वह अचरज भरी निगाहों से कभी इस अजनबी को और कभी अपने पति को देखने लगे. असीम आश्चर्य से उसके चेहरे का रंग बदलने लगा.

कुछ क्षण के लिए वह मूर्तिमान स्थिर सी खड़ी रह गई. रणजीत ने जैसे ही हाथ जोड़कर ‘भाभी नमस्ते’ कहा, वह एक जंगली बांस की तरह लहराई और ‘उइ आल्लाह’ कहते हुए अंदर की ओर भाग गई.


केजर रशीद ने पत्नी की इस भोली-भाली अदा पर के जोरदार ठहाका लगाया और रणजीत को साथ लिए ड्राइंग रूम में आते हुये बोला, “क्यों दोस्त, मैं कहता था न कि तुम्हारी भाभी तुम्हें देखकर दंग रह जायेंगी.”

“उन्हें अब आप ज्यादा परेशान मत कीजिये. साफ़-साफ़ बता दीजिये कि मैं कौन हूँ.”

“डोंट वरी….तुम आराम से बैठो, मैं अभी जाकर उसे समझा देता हूँ.”

मेजर रशीद रणजीत को सोफे पर बैठाकर सलमा के पास अंदर चला गया. रणजीत ने ध्यानपूर्वक चारों ओर दृष्टि घुमाकर कमरे की ओर देखा. छोटा सा सुंदर ड्राइंग रूम बड़े सलीके से सजाया गया था. वह मन ही मन सलमा के सलीके को सराहने लगा.

सलमा का दिल अभी तक धड़क रहा था. वह इस बात को सोच-सोचकर लाज से पसीना-पसीना हुए जा रही थी कि एक अजनबी के सामने अपने पति से लिपट गई थी, क्या सोचता होगा वह…

इतने में अचानक पीछे से रशीद ने आकर उसकी पीठ पर हल्का-सा धप्प लगाते हुए कह, “तुम क्यों भाग खड़ी हुई?”

“और क्या करती? मुझे एक अजनबी के सामने बेपरदा कर दिया. कितनी बेशरमी की बात है.”

“तुम्हें क़ुदरत का अजीबोगरीब करिश्मा दिखाना चाहता था. हूबहू मेरी कॉपी मालूम होता है न.”

“कॉपी? मैं तो यह सोचकर कांप जाती हूँ कि अगर वह अकेला घर में आ जाता, तो मैं अंधेरे में…”

“हाँ-हाँ अंधेरे में क्या…” रशीद ने उसका चेहरा लाज से लाल होते देखकर मुस्कुराते हुए पूछा.

“कुछ नहीं.” सलमा ने माथे अपर बाल डाल लिए और झल्ला कर बोली, “आते ही बता दिया होता, तो आपका क्या बिगड़ जाता. आपने जानबूझकर उसके सामने मुझे शर्मिंदा किया. कौन है यह?”

“भारत का एक जंगी कैदी…कैप्टन रणजीत.”

“यहाँ क्यों ले आये?”

“मेरा कोई भाई नहीं है न! मैंने इसे अपना भाई बना लिया है.”

“सचमुच जुड़वा भाई मालूम होता है. लेकिन अगर भाग गया तो?”

“यह नामुमकिन है. दरअसल कुछ दूसरे क़ैदियों के साथ अपने अज़ीज़ों के नाम पैग़ाम देने के लिए इसे रेडियो-स्टेशन ले गया था. वापसी में इसे मैं साथ लेते आया. कल क़ैदियों का जो जत्था हिंदुस्तान जा रहा है, यह ही उसी के साथ चला जायेगा.”
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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“किसी बड़े अफ़सर ने उसे यहाँ देख लिया तो?”

“यह मेरे जिम्मेदारी है…और देखो आज की रात यह हमारा मेहमान है. इसकी खातिरदारी में कोई कमी न रहने पाये. ताकि जब यह हिंदुस्तान लौटे,तो हमारे वतन की ख़ुशबू भी अपने साथ ले जाये.”

“लेकिन नौकर तो जा चुका है. खाना कौन खिलायेगा इसे?”

“तुम जो हो.”

“बिलकुल ही बेपरदा हो जाऊं उसके सामने.”

“अपना देवर समझकर…मैं इज़ाज़त देता हूँ.”

“देवर’ के शब्द ने सलमा पर जादू का-सा असर किया. उसने होंठों पर भोली-भाली मुस्कराहट खेलने लग गई. उसने इस अजनबी अतिथि की रूचि और स्वाद के बारे में कई प्रश्न पूछ डाले.

मेजर रशीद ने ख़ुद गुशल करने के बाद रणजीत को भी गुशल के लिए कहा और उसके नहा चुकने के बाद दोनों खाने की मेज़ पर आ गये. उसने सामने स्वादिष्ट और सुगंधित खानों का ढेर लगा था. यह प्रबंध केवल अतिथि सत्कार के कारण ही नहीं था, बल्कि अपनी शादी की सालगिरह के उपलक्ष्य में सलमा ने आज पहले ही विशेष भोजन का प्रबंध कर रखा था. उसे आशा न थी कि उसने पति घर ज़रूर आयेंगे और हो सकता है कि किसी मित्र को भी साथ ले आयें.


अपने सामने नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन देखकर कैप्टन रणजीत सलमा की प्रशंसा किये बगैर नहीं रह सका. काफ़ी दिनों बाद आज उसे अच्छा खाना मिला था. लेकिन अचानक ही कुछ सोचकर उसकी आँखों में आँसू आते-आते रुक गये. रशीद ने उसकी भावनाओं को भांप लिया.

“क्यों कैप्टन, अचानक उदास क्यों हो गये?” रशीद ने पूछा.

“यों ही, घर की याद आ गई.” रणजीत ने बलपूर्वक मुस्कुराने का प्रयत्न किया.

“इसे भी अपना ही घर समझो…एक दोस्त का घर.”

“दोस्त ही समझकर तो यहाँ आया. एक ख़ास कशिश थी, जो मुझे यहाँ खींच ले आई, वरना दुश्मन के घर का नमक कौन खाता है.”

“अच्छा बिस्मिल्ला कीजिये.” सलमा ने उस दोनों की बातचीत लंबी होते देखकर कहा.

रणजीत ने दृष्टि उठाकर सलमा की ओर देखा. जो अभी तक मेज़ पर खाने के डोंगे सजा रही थी. रणजीत ने कहा, “भाभी आप हमारा साथ नहीं देंगी? आज आपकी शादी की सालगिरह में हम तीनों एक साथ खाते, तो कितना अच्छा होता.”

“वंडरफुल…” रशीद उसकी बात सुनकर उछल पड़ा, “भई तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली. अब तो सलमाँ को हमारे साथ बैठकर खाना ही पड़ेगा.”

सलमा ने बहाना बनाना चाहा, तो रणजीत ने कहने से हाथ खींच लिया और बोला, “आप साथ नहीं खायेंगी, तो मैं भी बिना खाये उठ जाऊंगा. मुझे देवर माना है, तो मेरे साथ खाने में आपको झिझक नहीं होनी चाहिए.”

विवश ह्होकर सलमा को भी साथ बैठना पड़ा. रणजीत तो जैसे खाने पर टूट पड़ा. हर ग्रास के साथ वह सलमा के बनाये हुए खाने की प्रशंसा कर रहा था, सलमा भी ख़ुशी से खिल उठी.

“मुझे क्या मालूम था कि आज ये आपको साथ ले आयेंगे.” सलमा ने पुलाव की प्लेट रणजीत की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘वर्ना मैं दो-चार चीज़ें और तैयार कर देती.”

“इतना क्या कम है. सच पूछो भाभी, जो मज़ा इस कहने में है, वह बड़ी से बड़ी पार्टियों में भी कभी नहीं मिला. काश, मैं फिर कभी आपकी सालगिरह में शरीक हो सकता.” रणजीत ने आत्मीयता भरे स्वर में कहा.

“कहाँ आप और कहाँ हम.” सलमा ने ठंडी सांस भरी और दुःख भरे स्वर में बोली, “ख़ुदा-ख़ुदा करके जबसे सीज़ फायर हुआ, तो जान में जान आई. हर वक़्त जान पर बनी हुई थी. दिन-रात तोपों के धमाके…हवाई जहाज की गड़गड़ाहट और खतरे के सायरन की आवाज़…न जाने इन लोगों को क्या हो गया है.”

“कुछ नहीं इंसान अपने हक़ के लिए लड़ता है.’

“कौन सा हक़…?” सलमा ने भोलेपन से पूछा.

“जो अब तक उसे नहीं मिला…और शायद वह जनता भी नहीं कि उसका हक़ है क्या?” रणजीत ने बोझिल आवाज़ में कहा.

रशीद ने विवाह को गंभीर रूप धारण करते हुए देखा, तो उसने दोनों की बात काटते हुए कहा, “बेहतर होगा, अगर हम थोड़ी देर के लिए अपने हक़ को भूलकर खाने के साथ इंसाफ़ करने.”

सलमा पति का संकेत समझ गई और बात का रुख बदलते हुए बोली, “कहिए क्या पैगाम दिया आपने अपने घरवालों के नाम?”

“बस खैर-खैरियत…” रणजीत ने ग्रास चबाते हुए उत्तर दिया.

“किसके नाम?”

“अपनी माँ ने नाम?’

“और आपके वालिद साहब…?”

“जब मैं माँ की गोद में ही था, तभी माँ को दुनिया में बेसहारा छोड़कर चले गए.”

“ओह! क्या हुआ था उन्हें?”

“पार्टीशन के वक़्त मार-धाड़ में मारे गये.”

“अरे कहाँ?”

“इसी सर जमीन पर, जिसे आप पाक़ कहते हैं.”

“ओह!” सलमा ने एक लंबी सांस ली और दुःख भरी आवाज़ में पूछा, “कितने भाई-बहन हैं आप?”

“बस अकेला हूँ.”
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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“लेकिन आपने रेडियो के प्रोग्राम में माँ के अलावा भी तो एक नाम लिया था.” मेजर रशीद ने बात-चीत में रूचि लेते हुए पूछा.

“वह मेरी प्रेमिका है.”

“कहाँ रहती हैं?” सलमा ने उत्सुकता से पूछा.

“दिल्ली में टेलीविज़न में काम करती है.”

“और आपकी माँ?”

“कुलू वादी के पास मनाली गाँव में.”

“क्या वह अकेली रहती हैं गाँव में?’

“जी हाँ, हम फौज़ियों की ज़िन्दगी खामाबदोशों जैसी है. आज यहाँ, कल वहाँ. माँ को साथ-साथ लिए कहाँ-कहाँ फिर सकता हूँ. और फिर माँ को कोई तकलीफ़ भी नहीं है. पास-पड़ोस के लोग बहुत ध्यान रखते हैं, बिलकुल रिश्तेदारों की तरह.”

“घर में बहू ले आइये, तो उनका बुढ़ापा संवर जायेगा.” सलमा ने मुस्कुराते हुए कहा.

सलमा की बात सुनकर रणजीत मुस्कुरा पड़ा और बोला – “आपके ख़यालात भी मेरी माँ से मिलते हैं. वह भी अक्सर यही कहा करती है.”

“तो फिर देर क्यों? उनकी ख़ुशी पूरी कर दीजिये.”

“हिम्मत नहीं होती. देखिये न, इसी जंग में अगर मैं मारा जाता या फिर हाथ-पैर ही गोला-बारूद से उड़ जाते तो…”

“अल्लाह न करे, आपको कुछ हो जाये.” सलमा ने जल्दी से उसकी बात काटकर कहा और फिर मुस्कुराकर बोली, “अब आप अपन वतन पहुँचते ही शादी कर लीजियेगा. लड़कियों को ज्यादा दिनों तक तरसना अच्छा नहीं होता भाईजान”

“बहुत अच्छा! लेकिन आप आयेंगी मेरी शादी में?”

“क्यों नहीं. आप बुलायें और हम न आयें.”

“चलिए ज़िन्दगी में एक भाई और भाभी की कमी थी, वह भी पूरी हो गई.” रणजीत ने कहा.

“लेकिन हमारी होने वाली भाभी का नाम तो अभी तक आपने बताया नहीं.” सलमा ने पूछा.

“पूनम.”

“वाह, कितना प्यारा नाम है…सूरत भी चाँद जैसी होगी.”

“इसका अंदाज़ा आप ख़ुद देखकर लगाइयेगा.”

“उनकी याद तो आती होगी?” सलमा ने फिर पूछा.

“यादों का सहारा लेकर ही तो इतने दिनों तक जी लिया हूँ.”

सलमा ने कनखियों से रणजीत को देखा. उसकी आँखों में मीठी यादों की परछाइयाँ तैरने लगी थीं. उसकी पलकें कुछ भीग गयी थीं. वह खाने में व्यस्त था, किंतु उसकी कल्पना न जाने कहाँ-कहाँ विचर रही थी.

कुछ देर के लिए कमरे में निस्तब्धता छा गई.

खाना समाप्त होते ही रशीद ने सिगरेट का डिब्बा उसकी ओर बढ़ाया.

“धन्यवाद! मैं सिगरेट नहीं पीता.” रणजीत ने कहा और फिर एकाएक न जाने मन में कौन-सा विचार उठा कि वह कुछ अधीर होकर मेजर रशीद से बोला, “एक गुज़ारिश है.”

“फ़रमाइये.” मेजर रशीद ने लाइटर से सिगरेट जलाते हुए कहा.

‘मेरे कागज़ात और जो चीज़ें आपके कब्जे में हैं, उनमें पूनम की तस्वीर और एक सिगरेट लाइटर भी है.”

“सिगरेट तो तुम पीते नहीं भाई, फिर यह सिगरेट लाइटर?” मेजर रशीद ने आश्चर्य से पूछा.

“दरअसल वह सिगरेट लाइटर नहीं, टेपरिकॉर्डर है.”

मेजर रशीद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो रणजीत ने झट उसकी घबराहट दूर करते हुए कहा, “घबराइए नहीं, यह रिकॉर्डर जासूसी के लिए नहीं है. दरअसल उसमें पूनम की आवाज़ भरी ह्हुई है, जिसे सुनकर मैं अपना जी बहला लिया करता था. वह आवाज़ और उसकी तस्वीर मेरे मन की शांति है. हो सके तो उसे लौटा दीजिएगा.”

मेजर रशीद ने संतोष की सांस ली और कहा, “मैं कोशिश करूंगा, अगर वे सब डिस्ट्रॉय नहीं कर दिए गए होंगे, तो ज़रूर आपको लौटा दिए जायेंगे.” यह कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ और रणजीत को साथ लेकर गेस्टरूम की ओर चला गया.

उनेक जाते ही सलमा ने जम्हाइयाँ लेते हुये जल्दी-जल्दी मेज़ से बर्तन समेटे और सोने के लिए अपने कमरे में चली गई.

दोनों दोस्त न जाने कितनी देर तक बैठे आपस में बातें करते रहे.

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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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