अधूरी हसरतों की बेलगाम ख्वाहिशें
जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि मैं मूलतः भोपाल का रहने वाला हूँ लेकिन पिछले तीन साल से लखनऊ में जमा हुआ हूँ और अब तो यहाँ मन ऐसा लग चुका है कि कहीं जाने का दिल भी नहीं करता।
तो इस बीच गुज़रे वक़्त में से जो पहला किस्सा मैं अर्ज़ करूँगा वो एक ऐसी खातून से जुड़ा है, जिनके सऊदी में रहने वाले शौहर आरिफ भाई से मेरी दोस्ती किसी दौर में फेसबुक पर हुई थी।
यह दोस्ती सालों से थी लेकिन इसकी तरफ ध्यान तब गया जब एक दिन आरिफ भाई को मेरी मदद की ज़रूरत पड़ी। असल में मैंने पहले कभी इस बात पे ध्यान ही नहीं दिया था कि वे लखनऊ के ही रहने वाले थे और जिस टाइम मैं दिल्ली से लखनऊ शिफ्ट हुआ हूँ, ठीक उसी वक़्त में वे वापस सऊदी गये थे।
एक दिन उन्होंने मुझसे अर्ज की थी कि मैं उनकी बीवी रज़िया की थोड़ी मदद कर दूँ, क्योंकि उनके पीछे घर में जो माँ बाप थे, वे कोर्ट कचहरी करने की सामर्थ्य नहीं रखते थे और जो उनका छोटा भाई था वो किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में बंगलुरु गया हुआ था।
दरअसल उनका एक बच्चा था जिसके एडमिशन के लिये बर्थ सर्टिफिकेट बनवाना था और इसमें कई झंझट थे जो कि उनकी बीवी के अकेली के बस की बात नहीं थी।
उन्होंने रज़िया का नंबर दिया और अपने घर का पता बताया.. हालाँकि यह झंझटी काम था और मैंने सोचा था कि चला जाता हूँ लेकिन किसी बहाने से टाल दूंगा।
पता सिटी स्टेशन की तरफ मशक गंज का था.. पूछते पुछाते किसी तरह मैं उनके घर तक पहुंचा।
डोरबेल बजाने पर सामना आरिफ भाई के वालिद से हुआ, मैंने उन्हें सलाम किया तो जवाब देते हुए उन्होंने अन्दर बुला लिया। शायद आरिफ भाई उन्हें बता चुके थे।
ड्राइंगरूम में बिठा कर वे मेरे बारे में पूछने लगे.. थोड़ी देर बाद चाय नाश्ता लिये रज़िया भी आ गयी। मैंने हस्बे आदत गहरी निगाहों से उसका अवलोकन किया।
चौबीस-पच्चीस से ज्यादा उम्र न रही होगी उसकी.. फिगर ठीक ठाक थी, तगड़ी तंदरुस्त थी। नाक नक्शा उतना अच्छा नहीं था लेकिन जो ख़ास बात थी उसमे, वो यह कि वो खूब गोरी, एकदम झक सफ़ेद थी और उसकी तवचा भी काफी चिकनी थी।
नाश्ते की ट्रे रखते हुए उसकी निगाह मुझसे मिली थी और एक लहर सी मेरे शरीर में गुज़र गयी थी। कुछ तो था उसकी निगाह में.. जो मैं समझ नहीं पाया।
बहरहाल आगे यह तय हुआ कि चूँकि मैंने भी कोर्ट कचहरी की दौड़ पहले नहीं लगायी तो मैं बहुत ज्यादा मददगार तो नहीं हो सकता लेकिन अगर वे चाहें तो अपने तौर पर जो हो सकता है, मदद ज़रूर कर दूंगा। कल वे खुद साथ चलें कचहरी और वहां देखते हैं कि क्या हो सकता है, तब तक मैं पता भी कर लेता हूँ कि यह किस तरह हो पायेगा।
और अगले दिन मैंने रज़िया को सिटी स्टेशन के पास से पिक किया।
कचहरी केसरबाग में थी जो ज्यादा दूर नहीं था। रज़िया ने खुद को नकाब से ढक रखा था और इस सूरत में बस उसकी आँखें ही दिखाई दे रही थीं।
कचहरी में पूरा दिन खर्च हो गया.. वकील से एफिडेविट बनवाया, चालान बनवाया और जनसुविधा केंद्र में उसे पास कराने में आधे दिन से ज्यादा निकल गया। खाना वहीं बाहर फुटपाथ पे खाया.. तत्पश्चात चालान जमा कराया और फिर सारे कागज़ एसडीएम के पास मार्क कराने ले गये तो फार्म लेके कल आने को बोल गिया गया।
इसके बाद मैंने रज़िया को जहाँ से पिक किया था, वहीँ छोड़ दिया और घर चला आया।
पहले मेरा इरादा काम को टालने का था लेकिन अगर इस बहाने एक औरत के करीब रहने को मिल रहा था तो यह किया जा सकता था, यह सोच कर मैंने आज आधे दिन छुट्टी तक करनी गवारा कर ली थी। अब तो कल भी छुट्टी होनी थी.. दिन भर मैंने रज़िया से बात करने की कोशिश की थी लेकिन वो बंद गठरी बनी रही थी।