Thriller अलफाँसे
श्री गणेश ही गलत हुआ।
वह संदिग्ध हो उठा। विजय अपनी नई कोठी के बरामदे में खड़ा हुआ अन्दर प्रविष्ट होने के सम्बन्ध में सोच ही रहा था कि तभी उसकी कनपटी पर एक घूंसा पड़ा। अभी वह सम्हलने भी नहीं पाया था कि कुछ घूंसे और पड़े। घूंसे कुछ इतनी फुर्ती और तेजी से पड़े थे कि विजय को संभलने का अवसर ही नहीं मिला। उसके सिर से कोई चीज टकराई और वह बेहोश होकर गिर पड़ा।
बेहोश होने से पहले गिरते समय विजय केवल अबे...अबे...कहता ही रह गया। लेकिन बेहोश होने के बाद उसे कुछ पता नहीं लगा कि उसके साथ क्या हो रहा है। उसे कहां ले जाया जा रहा है।
लेकिन जब वह होश में आया तो उसने अपने आपको एक पलंग पर रस्सी से कसा हुआ पाया। अच्छा सजा हुआ कमरा था और उसकी अपनी कोठी से मिलता जुलता सा था। वह रस्सियों के कुछ इस प्रकार कसा हुआ था कि करवटें तक नहीं बदल सकता था न वह अपने हाथ ही हिला सकता था।
कमरे में एक बल्ब जल रहा था और उसकी रोशनी में उसने देखा कि कमरा उसकी कोठी से मिलता जुलता ही नहीं है। बल्कि उसकी कोठी का ही है। वह इस समय अपने ही कमरों में रस्सियों से बंधा हुआ था।
यह कोठी उसने अभी लगभग एक सप्ताह पूर्व ही खरीदी थी सिंगही से टकराने के समय ही उसकी कोठी सिंगही द्वारा नष्ट कर दी गई थी।
उसके पश्चात वियज ने एक प्लैट लिया था और फिर एक छोटा सा मकान और अब कहीं जाकर वह अपने मन माफिक कोठी खरीद पाया था।
लेकिन इस कोठी को खरीदे हुए उसे अभी सप्ताह भर भी नहीं हुआ था कि यह घटना पेश आ गई। वह रघुनाथ के यहां से सीधा अपनी कोठी आया था। लेकिन यहाँ उसका स्वागत घूंसों से किया गया। विजय इतनी जल्दी और इतनी आसानी से काबू मे आने वाला मनुष्य नहीं था। लेकिन अन्धकार और आकस्मिक आक्रमण ने उसे विवश कर दिया था कि वह अपने बचाव के लिए कुछ कर भी नहीं पाया था।
उसने अपने शरीर को करव्ट देने की कोशिश की लेकिन पाया कि वह हिल नहीं पायेगा। रस्सियाँ बहुत मोटी और कसकर बंधी हुई थी। विजय पलंग पर पड़ हुआ मचलता रहा और बराबर के कमरों से खड़खड़ाहट की आवाज आती रहीं। ऐसा मालूम पड़ रहा था जैसे काफी सामान उठा पटक किया जा रहा है।
विजय सोचने लगा कि आज चोरों ने उसका ही माल साफ कर देना है। उसने इधर उधर गरदन घुमाकर देखा तो कमरे की एक खिड़की में किसी व्यक्ति को खड़े हुआ पाया। वह व्यक्ति एकटक विजय को घूरे जा रहा था। उसके हाथ में रिवाल्वर था, जो कि उसने खिड़की पर रखा हुआ था। लेकिन रिवाल्वर का दस्ता उसके हाथ में दबा हुआ था।
‘प्यारे भाई।’ विजय ने उसे सम्बोधित करके बड़े ही प्यार भरे स्वर में पूछा-‘तुम विवाहित हो अथवा कुँवारे।’
‘क्यों तुम क्या मेरा विवाह करा दोगे?’
‘अभी तो मैं अपना ही विवाह नहीं करा पाया हूं।’ विजय ने एक लम्बी साँस के साथ कहा-!लेकिन अगर तुम भी कुंआरे हो तो हम दोनों मिलकर एक संस्था बनायेंगे। जिसका नाम होगा कुंआरा समिति। जब हम काफी हो जायेंगे तो हम सबके विरुद्ध आंदोलन चलायेंगे। कि सरकार कुंआरों को विशेष सुविधायें प्रदान करने की और ध्यान दे। हम अपने मांग पत्र में कहेंगे कि देश की आजादी में कुंआरों ने जितना अधिक सहयोग दिया है उतना विवाहित पुरुष भी नहीं दे पाये है। जब उन लाल मुंह वाले बन्दरों की गालियां चलती थीं तो कुंआरे केवल अपने देश की याद लेकर ही मरते थे। लेनिक ये विवाहित पुरुष मरते हुए अपने परिवार के सम्बन्ध में सोचते थे। महान कौन? जो मरते समय देश के सम्बन्ध में सोचे अथवा वह जो अपने परिवार के सम्बन्ध में ही सोचता है?’
वह व्यक्ति उसे मुस्कराता हुआ देखता रहा। विजय ने उसकी और देखा और बोला-‘यहाँ मेरे निकट आओ मेरे प्यारे भाई। मैं तुम्हें अभी पैदा होने वाली अपनी संस्था के विचार और उद्देश्य अच्छी तरह से समझाना चाहता हूं।’
‘नहीं प्यारे भाई।’ वह व्यक्ति मुस्करा कर बोला-‘तुम आराम से सो जाओ। रात काफी गहरी हो गई है। अच्छी आदमी इतनी देर तक नहीं जागा करते।’
‘तो फिर तुम क्यों जाग रहे हो?’ विजय ने किसी जिद्दी बच्चे की भांति पूछा- ‘क्या तुम अच्छे आदमी नहीं हो?’
‘नहीं।’ वह लापरवाही से बोला।
‘तो आओ प्यारे।’ विजय ने उसे पुकारा-‘मैं तुम्हें अच्छा आदमी बना दूं।’
‘धीरे बोलो।’
‘अच्छा मैं धीरे ही बोलूंगा। लेकिन तुम मेरे पास तो जाओ। मैं तुम्हें अच्छा आदमी बना दूंगा।’
‘अबे बन जाओ ना।’ विजय खुशामद करने के से स्वर में बोला- ‘देखो तुम अच्छे आदमी बन जाओगे। अर्थात तुम्हारा सुधार हो जायेगा और मेरा काम हो जायेगा। दस पांच तुम्हारे जैसे आदमियों को सुधारने के बाद मैं लोगों में काफी प्रिय हो जाऊंगा। लोग मेरी भी बुद्ध भगवान अथवा चैतन्य महाप्रभु की भांति पूजा करा करेंगे। भगवान की कसम बड़ा मजा आ जाएगा।’
‘तुम वास्तव में बहुत बकवास करते हो।’
‘वास्तव में तो मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं प्यारे भाई।’ विजय बोला ‘वास्तव में तो मैं रस्सियों से बंधा हुआ विवश पड़ा हुआ हूं। अगर मैं आजाद होता तो इस समय तुम्हारी कमर में हाथ डालकर रम्बा नाच रहा होता।’
वह व्यक्ति कुछ नहीं बोला बल्कि आराम से खड़ा हुआ उसकी निगरानी करता रहा। उसकी आंखें विजय पर जमीं हुई थीं और हाथ रिवाल्वर पर रखा हुआ था।
‘आखिर तुम इस प्रकार मुझे क्यों घूर रहे हो।’ विजय फिर बोला- उसकी जबान चुप रह ही नहीं पा रही थी- ‘यह ठीक है कि हम बहुत सुन्दर हैं। लेकिन इतने सुन्दर भी नहीं हैं कि तुम हमें एक टक घूरे ही जाओ।’
वह मुस्करा कर रह गया।
बराबर के कमरे में अभी भी खड़खड़ाहट की आवाज आ रही थी। विजय ने उस खड़खड़ाहट को सुना और उस आदमी को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘प्यारे भाई। अपने साथियों से कहो कि वह कोई और घर जाकर ढूँढें। उन्हें यहां कुछ नहीं मिलेगा।’
‘तो तुम आराम से आँखें बन्द करके सो क्यों नहीं जाते?’
‘तुम्हारे रहते हुए मैं कैसे सो सकता हूं।’ विजय उदास स्वर में बोला, विजय यद्यपि उससे बातें किये जा रहा था लेकिन फिर भी उसकी समझ में नही आ रहा था कि वह उससे बातें क्यों कर रहा है। लेकिन वह चुप भी तो नहीं रह सकता था। वह आदमी उसकी बातों में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं ले रहा था।
काफी देर तक वह बराबर के कमरे में होने वाली खड़खड़ाहट को सुनता रहा। फिर उसके पश्चात न जाने उसे कब नींद ने धर दबाया। लेकिन जब वह जागा तो दिन निकल चुका था। वह अभी भी रस्सियों से बंधा हुआ था। उसने आंखें खोली और खिड़की की ओर देखा खिड़की खुली थी। उसमें से अब दिन का प्रकाश अन्दर आ रहा था। बराबर की तिपाई पर रखे हुये फोन की घन्टी लगातार बजती रही। लेकिन हाथ बंधे होने के कारण विजय उसे उठाने में विवश था।
उसने मुस्कुरा कर फोन की ओर देखा और बोला- ‘बजे जाओ प्यारे।’
फिर उसने एक ठंडी साँस के साथ फोन को एक शे’र सुना दिया-
वो सुनके नहीं सुनते जिनको तुम सुनाते थे,
वो तो बंधे पड़े हैं जो तुमको उठाते थे।
फोन की घन्टी काफी देर तक बजती रही। लेकिन विजय ने उसे नहीं उठाया। क्योंकि वह उठा भी नहीं सकता था। उसके बाद घन्टी खामोश हो गई और विजय भी खामोशी से छत को ताकता रह गया।