मंगल सूत्र by munshi prem chand

Jemsbond
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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पं देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असंभव था, मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आप-ही-आप झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों हैं? कर्म और संस्कार का आश्रय ले कर वह कहीं न पहुँच पाते थे। सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो फिर यह भेद क्यों है? क्यों एक आदमी जिंदगी-भर बड़ी-से-बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पाँव न हिलाने पर भी फूलों की सेज पर सोता है। यह सर्वात्म है या घोर अनात्म? बुद्धि जवाब देती – यहाँ सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधना के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है मगर शंका पूछती -सबको समान अवसर कहाँ है? बाजार लगा हुआ है। जो चाहे वहाँ से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता है। मगर खरीदेगा तो वही जिसके पास पैसे हैं। और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाए? इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बुद्धि ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पड़ी थी। जो इस प्रश्न को वैयक्तिक अंत तक ले जाती। इस वक्त उनकी दशा उस आदमी की-सी थी जो रोज मार्ग में ईटें पड़े देखता है और बच कर निकल जाता है। रात को कितने लोगों को ठोकर लगती होगी, कितनों के हाथ-पैर टूटते होंगे, इसका ध्यान उसे नहीं आता। मगर एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खा कर अपने घुटने फोड़ लेता है तो उसकी निवारण-शक्ति हठ करने लगती है। और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता है। देवकुमार को वही ठोकर लगी थी। कहाँ है न्याय? कहाँ है? एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोच कर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है। दूसरा अमीर आदमी दिन-दहाड़े दूसरों को लूटता है और उसे पदवी मिलती है,सम्मान मिलता है। कुछ आदमी तरह-तरह के हथियार बाँध कर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक जमा कर अपना गुलाम बना लेते हैं। लगान और टैक्स और महसूल और कितने ही नामों से उसे लूटना शुरू करते हैं, और आप लंबा-लंबा वेतन उड़ाते हैं,शिकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंग-रेलियाँ मनाते हैं। यही है ईश्वर का रचा हुआ संसार? यही न्याय है?

हाँ, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहे हैं। उन्हें अब भी संसार धर्म और नीति पर चलता हुआ नजर आता है। वे अपने जीवन की आहुति दे कर संसार से विदा हो जाते हैं। लेकिन उन्हें देवता क्यों कहो? कायर कहो, स्वार्थी कहो, आत्मसेवी कहो। देवता वह है जो न्याय की रक्षा करे और उसके लिए प्राण दे दे। अगर वह जान कर अनजान बनता है तो धर्म से फिरता है, अगर उसकी आँखों में यह कुव्यवस्था खटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मूर्ख भी, देवता किसी तरह नहीं। और यहाँ देवता बनने की जरूरत भी नहीं। देवताओं ने ही भाग्य और ईश्वर और भक्ति की मिथ्याएँ फैला कर इस अनीति को अमर बनाया है। मनुष्य ने अब तक इसका अंत कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से कहीं अच्छा होता। नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पड़ेगा। दरिंदों के बीच में उनसे लड़ने के लिए हथियार बाँधना पड़ेगा। उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जड़ता है। आज जो इतने ताल्लुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं। और क्या उन्होंने वह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया? पितरों को पिंडा देने के लिए गया जा कर पिंडा देना और यहाँ आ कर हजारों रुपए खर्च करना क्या जरूरी था? और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक-मंडली खोल कर हजारों रुपए उसमें डुबाना अनिवार्य था? वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिंता नहीं हुई? अगर उन्हें मुफ्त की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लड़के क्यों न मुफ्त की संपत्ति भोगें? अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लड़के क्यों तपस्या करें?

और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है और जुआ खेल कर या दूसरों के लोभ और आसक्ति से फायदा उठा कर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दाँव-पेंच से। बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं। नीति कहती है कि उस जायदाद को बेच कर उसके बीस हजार दे दिए जाएँ, बाकी उन्हें मिल जाए। अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस लेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता। इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू से विचार किया और वह उनके मन में जम गया। अब किसी तरह नहीं हिल सकता और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और फूले हुए थे, मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो ।

एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जा कर साफ-साफ कह दिया – अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लड़के आपके ऊपर दावा करेंगे।

गिरधर दास नए जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेनेवाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे, और बाजार अच्छा देख कर बेच देते थे। एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे। सारा कारोबर अंग्रेजी ढंग से करते थे। उनके पिता सेठ मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्चित करते रहते थे। गिरधर दास पक्के जड़वादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे। कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पड़े तो सूद पर रुपए देते थे। मक्कूलाल जी साल-साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे।

हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे,डालियाँ देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे, और हाथ बाँधे खड़े रहते थे। चलते वक्त आदमियों को दो-चार रुपए इनाम दे आते थे। गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे, और बराबरी का व्यवहार करते थे, और आदमियों के साथ केवल इतनी रियायत करते थे, कि त्योहारों में त्योहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद कराके। अपने हकों के लिए लड़ना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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देवकुमार का यह कथन सुन कर चकरा गए। उनकी बड़ी इज्जत करते थे। उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे, और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे। पंडा-पुजारियों के नाम से चिढ़ते थे, दूषित दान प्रथा पर एक पैंफलेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे, और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।

एक क्षण तो वह देवकुमार के मुँह की ओर देखते रहे। उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आया। फिर खयाल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। बेतुकी बातें कर रहे हैं। देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देख कर उनका यह खयाल और मजबूत हो गया।

सुनहरी ऐनक उतार कर मेज पर रख कर विनोद भाव से बोले – कहिए, घर में सब कुशल तो है।

देवकुमार ने विद्रोह के भाव से कहा – जी हाँ, सब आपकी कृपा है।

- बड़ा लड़का तो वकालत कर रहा है न?

- जी हाँ।

- मगर चलती न होगी और आप की पुस्तकें भी आजकल कम बिकती होंगी। यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रों का यह अनादर। आप यूरोप में होते तो आज लाखों के स्वामी होते।

- आप जानते हैं, मैं लक्ष्मी के उपासकों में नहीं हूँ।

- धन-संकट में तो होंगे ही। मुझ से जो कुछ सेवा आप कहें, उसके लिए तैयार हूँ। मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरुष से मेरा परिचय है। आप की कुछ सेवा करना मेरे लिए गौरव की बात होगी।

देवकुमार ऐसे अवसरों पर नम्रता के पुतले बन जाते थे। भक्ति और प्रशंसा दे कर कोई उनका सर्वस्व ले सकता था। एक लखपती आदमी और वह भी साहित्य का प्रेमी जब उनका इतना सम्मान करता है तो उससे जायदाद या लेन-देन की बात करना उन्हें लज्जाजनक मालूम हुआ। बोले – आप की उदारता है जो मुझे इस योग्य समझते हैं।

- मैंने समझा नहीं आप किस जायदाद की बात कह रहे थे।

देवकुमार सकुचाते हुए बोले – अजी वही, जो सेठ मक्कूलाल ने मुझसे लिखाई थी।

- अच्छा तो उसके विषय में कोई नई बात है?

- उसी मामले में लड़के आपके उपर कोई दावा करनेवाले हैं। मैंने बहुत समझाया, मगर मानते नहीं। आपके पास इसीलिए आया था कि कुछ ले-दे कर समझौता कर लीजिए, मामला अदालत में क्यों जाए? नाहक दोनों जेरबार होंगे।

गिरधर दास का जहीन, मुरौवतदार चेहरा कठोर हो गया। जिन महाजनी नखों को उन्होंने भद्रता की नर्म गद्दी में छिपा रखा था, वह यह खटका पाते ही पैने और उग्र हो कर बाहर निकल आए।

क्रोध को दबाते हुए बोले – आपको मुझे समझाने के लिए यहाँ आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लड़कों ही को समझाना चाहिए था।

- उन्हें तो मैं समझा चुका।

- तो जा कर शांत बैठिए, मैं अपने हकों के लिए लड़ना जानता हूँ। अगर उन लोगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेरे पास है।

अब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकी। जैसे लड़ाई का पैगाम स्वीकार करते हुए बोले – मगर आपको मालूम होना चाहिए वह मिल्कियत आज दो लाख से कम की नहीं है।

- दो लाख नहीं, दस लाख की हो, आपसे सरोकार नहीं।

- आपने मुझे बीस हजार ही तो दिए थे।

- आपको इतना कानून तो मालूम ही होगा, हालाँकि कभी आप अदालत में नहीं गए, कि जो चीज बिक जाती है वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं की जाती। अगर इस नए कायदे को मान लिया जाए तो इस शहर में महाजन न नजर आएँ।

कुछ देर तक सवाल-जवाब होता रहा और लड़नेवाले कुत्तों की तरह दोनों भले आदमी गुर्राते, दाँत निकालते, खौंखियाते रहे। आखिर दोनों लड़ ही गए।

गिरधर दास ने प्रचंड हो कर कहा – मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी।

देवकुमार ने भी छड़ी उठा कर कहा – मुझे भी न मालूम था कि आपके स्वार्थ का पेट इतना गहरा है।

- आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं।

- कुछ परवाह नहीं।

देवकुमार वहाँ से चले तो माघ की उस अँधेरी रात की निर्दय ठंड में भी उन्हें पसीना हो रहा था। विजय का ऐसा गर्व अपने जीवन में उन्हें कभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजय पाई थी। यह विजय थी। जीवन में एक नई प्रेरणा, एक नई शक्ति का उदय।

उसी रात को सिन्हा और संतकुमार ने एक बार फिर देवकुमार पर जोर डालने का निश्चय किया। दोनों आ कर खड़े ही थे, कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भाव से कहा – तुम लोगों ने अभी तक मुकदमा दायर नहीं किया। नाहक क्यों देर कर रहे हो?

संतकुमार के सूखे हुए निराश मन में उल्लास की आँधी-सी आ गई। क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ? जरूर कोई दैवी शक्ति है। भीख माँगने आए थे, वरदान मिल गया।

बोला – आप ही की अनुमति का इंतजार था।

- मैं बड़ी खुशी से अनुमति देता हूँ। मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं।

उन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुई वह कह सुनाई।

सिन्हा ने नाक फुला कर कहा – जब आपकी दुआ है तो हमारी फतह है। उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहाँ भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।

संतकुमार ऐसा खुश था गोया आधी मंजिल तय हो गई। बोला – आपने खूब उचित जवाब दिया।

सिन्हा ने तनी हुई ढोल की-सी आवाज में चोट मारी – ऐसे-ऐसे सेठों को उँगलियों पर नचाते हैं यहाँ।

संतकुमार स्वप्न देखने लगे – यहीं हम दोनो के बँगले बनेंगे, दोस्त।

- यहाँ क्यों, सिविल लाइन्स में बनवाएँगे।

- अंदाज से कितने दिन में फैसला हो जाएगा?

- छह महीने के अंदर।

- बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवाएँगे।
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

Post by Jemsbond »

मगर समस्या थी, रुपए कहाँ से आएँ। देवकुमार निस्पृह आदमी थे। धन की कभी उपासना नहीं की। कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करते। किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते। अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेच कर उन्हें पाँच हजार मिले थे। वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे। अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी जहाँ से कोई बड़ी रकम मिलती। उन्होंने समझा था संतकुमार घर का खर्च उठा लेगा। और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे। लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बाँध कर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं? उनके भक्तों की काफी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रद्धा उनके चरणों में अर्पण करें। मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रखा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे, और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे। वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया हो।

और शीघ्र ही इसका परिणाम निकला। एक भक्त ने प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जाए और उन्हें साहित्य-प्रेमियों की ओर से एक थैली भेंट की जाए। क्या यह लज्जा और दुख की बात नहीं है कि जिस महारथी ने अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य-सेवा पर अर्पण कर दिए, वह इस वृद्धावस्था में भी आर्थिक चिंताओं से मुक्त न हो? साहित्य यों नहीं फल-फूल सकता। जब तक हम अपने साहित्य-सेवियों का ठोस सत्कार करना न सीखेंगे, साहित्य कभी उन्नति न करेगा और दूसरे समाचारपत्रों ने मुक्त कंठ से इसका समर्थन किया। अचरज की बात यह थी कि वह महानुभाव भी जिनका देवकुमार से पुराना साहित्यिक वैमनस्य था, वे भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने लगे। बात चल पड़ी। एक कमेटी बन गई। एक राजा साहब उसके प्रधान बन गए। मि. सिन्हा ने कभी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ी थी, पर वह इस आंदोलन में प्रमुख भाग लेते थे। मिस कामत और मिस मलिक की ओर से भी समर्थन हो गया। महिलाओं को पुरुषों से पीछे न रहना चाहिए। जेठ में तिथि निश्चित हुई। नगर के इंटरमीडिएट कॉलेज में इस उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं।

आखिर वह तिथि आ गई। आज शाम को वह उत्सव होगा। दूर-दूर से साहित्य-प्रेमी आए हैं। सोराँव के कुँवर साहब वह थैली भेंट करेंगे। आशा से ज्यादा सज्जन जमा हो गए हैं। व्याख्यान होंगे, गाना होगा, ड्रामा खेला जाएगा, प्रीति-भोज होगा, कवि-सम्मेलन होगा। शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं। सभ्य-समाज में अच्छी हलचल है। राजा साहब सभापति हैं।

देवकुमार को तमाशा बनने से नफरत थी। पब्लिक जलसों में भी कम आते-जाते थे। लेकिन आज तो बरात का दूल्हा बनना ही पड़ा। ज्यों-ज्यों सभा में जाने का समय समीप आता था उनके मन पर एक तरह का अवसाद छाया जाता था। जिस वक्त थैली उनको भेंट की जाएगी और वह हाथ बढ़ा कर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा। जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं फैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले? यह दान ही है, और कुछ नहीं। एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया। इस अवसर पर उनके लिए शोभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें। उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा,लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है। वह पंडाल में पहुँचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाए-से लगते थे। नेकनामी की लालसा एक ओर खींचती थी, लोभ दूसरी ओर। मन को कैसे समझाएँ कि यह दान दान नहीं, उनका हक है। लोग हँसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पड़ा। उनका जीवन बौद्धिक था, और बुद्धि जो कुछ करती है नीति पर कस कर करती है। नीति का सहारा मिल जाए तो फिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती। वह पहुँचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई। मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी जिसके सिर में दर्द हो रहा हो। उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए। कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। सभी विद्वान हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, ऊपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और सारा यशगान अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा, किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें सँभाले रखा, वह कौन-सा प्रकाश था जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।

सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हलकी-सी सुर्खी दौड़ गई। यह दान नहीं, प्राविडेंट फंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता रहा है। क्या वह दान है? उन्होंने जनता की सेवा की है, तन-मन से की है, इस धुन से की है, जो बड़े-से-बड़े वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्या लाज आए?

राजा साहब ने जब थैली भेंट की तो देवकुमार के मुँह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थी।
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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मि.सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं उन्हें ेदेखकर सभी आदमी आइए, आइए करते हैं,लेकिन उनके पीठ गेरते ही कहते हैं-बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं उनका पेशा है मुकदमे बनाना जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं न जाने वह कवि क्यों नहीं हुए- मगर कवि होकर वह साहित्य की चाहे जितनी वृध्दि कर सकते, अपना कुछ उपकार न कर सकतेब कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिध्दियां मिल गई थीं शानदार बंगले में रहते थे, बडे बडे रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी। रोब भी था। कलम में ऐसा जादू था। कि मुकदमे में जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बडे-बडे घाघ जज भी उसकी तह तक न पहुंच सकते सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबध्द होता था। कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह सन्तकुमार के साथ के पढै हुए थे दोनों में गहरी दोस्ती थी। सन्तकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमे रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है

नौ बजे होंगे वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेटे हुए हैं गोरे-चिक्रे आदमी, उंचा कद, एकहरा बदन, बडे-बडे बाल पीछे को कंघी से ऐंचे हुए, मूंछें साग, आंखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान, ऐसा जान पडता है कोई बड़ा रईस है सन्तकुमार नीची अचकन पहने, गेल्ट कैप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैं

सिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो मैं कहता हूं हमारी -तेह है ऐसी सैकड़ो नजीरें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूख कराये हैं पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल है

सन्तकुमार ने दुविधा में पडकर कहा-लेकिन गादर को भी तो राजी करना होगा उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा

-उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है

-लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है

-तो उन्हें भी गोली मारोब हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग मे खलल है

-यह साबित करना आसान नहीं है जिसने बड़ी-बड़ी किताों लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे-

सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा-यह सब मैं देख लूंगा किताा लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बातब मैं तो कहता हूं, जितने लेखक हैं, सभी सनकी हैं-पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं अगर यह लोग अपने होश मे हों तो किताों न लिखकर दलाली करें, यह खोंचे लगायें यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है रूपये का जुगाड तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड दो और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू देना चाहिए तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो यह समझ लो, वह सब-जज साहब की अकेली लडकी है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो उस चुडैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो गिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका जो रूपवान् हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देखकर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है,मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पडेगी तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी जरा मुश्किल से काबू में आयेगी अपनी सारी कला खर्च करनी पडेगी

-यह कला मैं खूब सीख चुका हूं

-तो आज शाम को आना क्लब में

-जरूर आउंगा

-रूपये का प्रबंध भी करना

-वह तो करना ही पडेगा

इस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा, गोरा चिक्राब जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था। ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी।, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाबब उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढती थी।, मगर संसार की गति से वाकिफ थी।, और अपनी उपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी।, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था। और प्रांजल भाषा मेब मिजाज में नगासत इतनी थी। कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असफ्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी। कि किसी स्त्रीया पुरूष में जरा भी कुरूचि या भोंडापन देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी। और पुरूष-समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था। और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रूचि न थी।, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती थी।, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरूषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।
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तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

Post by Jemsbond »

मगर इसके साथ ही वह सरल न थी। और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी ही रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महभव न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकर निराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतज्र्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता,जो विहृलता देखी थी। उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतना थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी। और उनके मनोरहस्यों को पढने की चेष्टा करती थी। सन्तकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण्ा अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था। और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी। जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के गूहडपन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी।, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था। कि वह पुष्पा को देख पाती तो सन्तकुमार का पक्ष लेकर उससे लडती

एक दिन उसने सन्तकुमार से कहा-तुम उसे छोड क्यों नहीं देते-

सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रहकर समाज के कानून तो मानने ही पडेगे फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है उसने तो अपने आपको नहीं बनाया ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई ।

-मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड गई है मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकालकर किसी खंदक में फेंक दें मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं

सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।

तिब्बी अधीर होकर बोली-तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है- अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।

सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथा।र्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है

फीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी ृ समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोडना तो असीव है केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है

संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आई नौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ

तिब्बी ने डांटकर कहा-कुर्सियां साग क्यों नहीं कीं- देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है- मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी,मगर तुझे याद ही नहीं रहती बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगी

नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साग कर दीं और फिर जाने को हुआ

तिब्बी ने गिर डांटा-तू बार-बार भागता क्यों है मेजें रख दीं- टी-टेबल क्यों नहीं लाया- चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे-

उसने बूढे नौकर के दोनो कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली-बिल्कुल गादी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है

बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रूपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी। पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रध्दा थी। वह उसे इस घर से बांधे हुए थी। और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड के थे लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी।, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी। उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनो ही घरों में लडकियां भी थीं बहुए भी थीं सब उसका आदर करती थीं बहुएं तो उससे लजाती थीं अगर उससे कोई बात बिगड भी जाती तो मन में रख लेती थीं उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहाब बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष लेकर उनसे लडती थी। और यह लडकी बडे-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती लोग कहते हैं पढने से अक्ल आती है यही है वह अक्ल उसके मन में विद्रोह का भाव उठा-क्यों यह अपमान सहे- जो लडकी उसकी अपनी लडकी से भी छोटी हो, उसके हाथों क्यों अपनी मूंछें नुचवाये- अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है

घूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।

तिब्बी ने कहा-जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाय
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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