प्रेम पूर्णिमा--मुंशी प्रेमचंद

Jemsbond
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धर्मसंकट

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धर्मसंकट


‘पुरुषों और स्त्रियों में बड़ा अन्तर है, तुम लोगों का हृदय शीशे की तरह कठोर होता है और हमारा हृदय नरम, वह विरह की आँच नहीं सह सकता।’
‘शीशा ठेस लगते ही टूट जाता है। नरम वस्तुओं में लचक होती है।’
‘चलो, बातें न बनाओ। दिन-भर तुम्हारी राह देखूँ, रात-भर घड़ी की सुइयाँ, तब कहीं आपके दर्शन होते हैं।’
‘मैं तो सदैव तुम्हें अपने हृदय-मंदिर में छिपाए रखता हूँ।’
‘ठीक बतलाओ, कब आओगे ?’
‘ग्यारह बजे, परंतु पिछला दरवाजा खुला रखना।’
‘उसे मेरे नयन समझो।’
‘अच्छा, तो अब विदा।’

2

पंडित कैलाशनाथ लखनऊ के प्रतिष्ठित बैरिस्टरों में से थे कई सभाओं के मंत्री, कई समितियों के सभापति, पत्रों में अच्छे-अच्छे लेख लिखते, प्लेटफार्म पर सारगर्भित व्याख्यान देते। पहले-पहले जब वह यूरोप से लौटे थे, तो यह उत्साह अपनी पूरी उमंग पर था; परंतु ज्यों-ज्यों बैरिस्टरी चमकने लगी, इस उत्साह में कमी आने लगी और यह ठीक भी था, क्योंकि अब बेकार न थे जो बेगार करते। हाँ, क्रिकेट का शौक अब ज्यों का त्यों बना था। वह कैसर क्लब के संस्थापक और क्रिकेट के प्रसिद्ध खिलाड़ी थे।
यदि मि. कैलाश को क्रिकेट की धुन थी, तो उनकी बहिन कामिनी को टेनिस का शौक था। इन्हें नित नवीन आमोद-प्रमोद की चाह रहती थी। शहर में कहीं नाटक हो, कोई थियेटर आये, कोई सरकस, कोई बायसकोप हो, कामिनी उनमें न सम्मिलित हो, यह असम्भ बात थी। मनोविनोद की कोई सामग्री उसके लिए उतनी ही आवश्यक थी, जितना वायु और प्रकाश।
मि. कैलाश पश्चिमी सभ्यता के प्रवाह में बहने वाले अपने अन्य सहयोगियों की भाँति हिंदू जाति, हिंदू सभ्यता, हिंदी भाषा और हिंदुस्तान के कट्टर विरोधी थे। हिंदू सभ्यता उन्हें दोषपूर्ण दिखाई देती थी ! अपने इन विचारों को वे अपने ही तक परिमित न रखते थे, बल्कि बड़ी ही ओजस्विनी भाषा में इन विषयों पर लिखते और बोलते थे। हिंदू सभ्यता के विवेकी भक्त उनके इन विवेकशून्य विचारों पर हँसते थे; परन्तु उपहास और विरोध तो सुधारक के पुरस्कार हैं। मि. कैलाश उनकी कुछ परवाह न करते थे। वे कोरे वाक्य-वीर ही न थे, कर्मवीर भी पूरे थे। कामिनी की स्वतंत्रता उनके विचारों का प्रत्यक्ष स्वरूप थी। सौभाग्यवश कामिनी के पति गोपालनारायण भी इन्हीं विचारों में रँगे हुए थे। वे साल भर से अमेरिका में विद्याध्ययन करते थे। कामिनी भाई और पति के उपदेशों से पूरा-पूरा लाभ उठाने में कमी न करती थी।

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लखनऊ में अल्फ्रेड थिएटर कम्पनी आयी हुई थी। शहर में जहाँ देखिए, उसी तमाशे की चर्चा थी। कामनी की रातें बड़े आनंद से कटती थीं रात भर थियेटर देखती, दिन को कुछ सोती और कुछ देर वही थियेटर के गीत अलापती सौंदर्य और प्रीति के नव रमणीय संसार में रमण करती थी, जहाँ का दुःख और क्लेश भी इस संसार के सुख और आनंद से बढ़कर मोददायी है। यहाँ तक कि तीन महीने बीत गए, प्रणय की नित्य नई मनोहर शिक्षा और प्रेम के आनंदमय अलाप-विलाप का हृदय पर कुछ-न-कुछ असर होना चाहिए था, सो भी इस चढ़ती जवानी में। वह असर हुआ। इसका श्रीगणेश उसी तरह हुआ, जैसा कि बहुधा हुआ करता है।
थियेटर हाल में एक सुधरे सजीले युवक की आँखें कामिनी की ओर उठने लगीं। वह रूपवती और चंचला थी, अतएव पहले उसे चितवन में किसी रहस्य का ज्ञान न हुआ नेत्रों का सुन्दरता से बड़ा घना सम्बन्ध है। घूरना पुरुष का और लजाना स्त्री का स्वभाव है। कुछ दिनों के बाद कामिनी को इस चितवन में कुछ गुप्त भाव झलकने लगे। मंत्र अपना काम करने लगा। फिर नयनों में परस्पर बातें होने लगीं। नयन मिल गए। प्रीति गाढ़ी हो गई। कामिनी एक दिन के लिए भी यदि किसी दूसरे उत्सव में चली जाती, तो वहाँ उसका मन न लगता। जी उचटने लगता। आँखें किसी को ढूँढ़ा करतीं।
अन्त में लज्जा का बाँध टूट गया। हृदय के विचार स्वरूपवान हुए मौन का ताला टूटा। प्रेमालाप होने लगा ! पद्य के बाद गद्य की बारी आयी और फिर दोनों मिलन-मंदिर के द्वार पर आ पहुँचे। इसके पश्चात जो कुछ हुआ, उसकी झलक हम पहले ही देख चुके हैं।

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इस नव युवक का नाम रूपचन्द था। पंजाब का रहने वाला, संस्कृत का शास्त्री, हिन्दी साहित्य का पूर्ण पण्डित, अँगरेजी का एम.ए., लखनऊ की एक बड़ी लोहे के कारखाने का मैनेजर था घर में रूपवती स्त्री, दो प्यारे बच्चे थे। अपने साथियों में सदाचरण के लिए प्रसिद्ध था। न जवानी की उमंग न स्वभाव का छिछोरापन। घर-गृहस्थी में जकड़ा हुआ था मालूम नहीं, वह कौन-सा आकर्षण था, जिसने उसे इस तिलस्म में फँसा लिया, जहाँ की भूमि अग्नि और आकाश ज्वाला है, जहाँ घृणा और पाप है। और अभागी कामिनी को क्या कहा जाय, जिसकी प्रीति की बाढ़ ने धीरता और विवेक का बाँध तोड़कर अपनी तरल-तरंग में नीति और मर्यादा की टूटी-फूटी झोपड़ी को डुबा दिया। यह पूर्वजन्म के संस्कार थे :
रात के दस बज गए थे। कामिनी लैम्प के सामने बैठी हुई चिट्ठियाँ लिख रही थी। पहला पत्र रूपचन्द के नाम था :

कैलाश भवन, लखनऊ

प्राणाधार !
तुम्हारे पत्र को पढ़कर प्राण निकल गये। उफ ! अभी एक महीना लगेगा। इतने दिनों में कदाचित तुम्हें यहाँ मेरी राख भी न मिलेगी। तुमसे अपने दुःख क्या रोऊँ ! बनावट के दोषारोपण से डरती हूँ। जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानती हूँ लेकिन बिना विरह-कथा सुनाए दिल की जलन कैसे जाएगी ? यह आग कैसे ठंडी होगी ? अब मुझे मालूम हुआ कि यदि प्रेम में दहकती हुई आग है, तो वियोग उसके लिए घृत है। थिएटर अब भी जाती हूँ, पर विनोद के लिए नहीं, रोने और बिसूरने के लिए। रोने में ही चित्त को कुछ शांति मिलती है, आँसू उमड़े चले आते हैं। मेरा जीवन शुष्क और नीरस हो गया है। न किसी से मिलने को जी चाहता है, न आमोद-प्रमोद में मन लगता है। परसों डाक्टर केलकर का व्याख्यान था, भाई साहब ने बहुत आग्रह किया, पर मैं न जा सकी। प्यारे! मौत से पहले मत मारो। आनन्द के गिने-गिनाए क्षणों में वियोग का दुःख मत दो। आओ, यथासाध्य शीघ्र आओ, और गले लगकर मेरे हृदय का ताप बुझाओ, अन्यथा आश्चर्य नहीं की विरह का यह अथाह सागर मुझे निगल जाय।

तुम्हारी कामिनी

इसके बाद कामिनी ने दूसरा पत्र पति को लिखा :

माई डियर गोपाल !
अब तक तुम्हारे दो पत्र आये। परन्तु खेद, मैं उनका उत्तर न दे सकी। दो सप्ताह से सिर में पीड़ा से असह्य वेदना सह रही हूँ किसी भाँति चित्त को शांति नहीं मिलती है। पर अब कुछ स्वस्थ हूँ। कुछ चिन्ता मत करना। तुमने जो नाटक भेजे, उनके लिए हार्दिक धन्यवाद देती हूँ। स्वस्थ हो जाने पर पढ़ना आरंभ करूँगी। तुम वहाँ के मनोहर दृश्यों का वर्णन मत किया करो। मुझे तुम पर ईर्ष्या होती है। यदि मैं आग्रह करूँ तो भाई साहब वहाँ तक पहुँचा तो देंगे, परन्तु इनके खर्च इतने अधिक हैं कि इनसे नियमित रूप से साहाय्य मिलना कठिन है और इस समय तुम पर भार देना भी कठिन है। ईश्वर चाहेगा तो वह दिन शीघ्र देखने में आएगा, जब मैं तुम्हारे साथ आनन्द पूर्वक वहां की सैर करूँगी। मैं इस समय तुम्हें कोई कष्ट देना नहीं चाहती। आशा है, तुम सकुशल होगे।

तुम्हारी कामिनी

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लखनऊ के सेशन जज के इलजास में बड़ी भीड़ थी। अदालत के कमरे ठसाठस भर गए थे। तिल रखने की जगह न थी। सबकी दृष्टि बड़ी उत्सुक्ता के साथ जज के सम्मुख खड़ी एक सुन्दर लावण्यमयी मूर्ति पर लगी हुई थी। यह कामिनी थी। उसका मुँह धूमिल हो रहा था। ललाट पर स्वेद-विंदु झलक रहे थे। कमरे में घोर निस्तब्धता थी। केवल वकीलों की कानाफूसी और सैन कभी-कभी इस निस्तब्धता को भंग कर देती थी। अदालत का हाता आदमियों से इस तरह भर गया था कि जान पड़ता था, मानो सारा शहर सिमिटकर यहीं आ गया है। था भी ऐसा ही। शहर की प्रायः दूकानें बंद थीं और जो एक आध खुली भी थीं, उन पर लड़के बैठे ताश खेल रहे थे, क्योंकि कोई ग्राहक न था। शहर से कचहरी तक आदमियों का ताँता लगा हुआ था। कामिनी को निमिष-मात्र देखने के लिए, उसके मुँह से एक बात सुनने के लिए, इस समय प्रत्येक आदमी अपना सर्वस्व निछावर करने पर तैयार था। वे लोग जो कभी पंडित दातादयाल शर्मा जैसा प्रभावशाली वक्ता की वक्तृता सुनने के लिए घर से बाहर नहीं निकले, वे जिन्होंने नवजवान मनचले बेटों को अलफ्रेड थियेटर में जाने की आज्ञा नहीं दी, वे एकांतप्रिय जिन्हें वायसराय के शुभागमन तक की खबर न हुई थी, वे शांति के उपासक, जो मुहर्रम की चहल-पहल देखने को अपनी कुटिया से बाहर न निकलते थे वे सभी आज गिरते-पड़ते, उठते-बैठते, कचहरी की ओर दौड़े जा रहे थे। बेचारी स्त्रियाँ अपने भाग्य को कोसती हुई अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़कर विवशतापूर्ण उत्सुक दृष्टि से उस तरफ ताक रही थीं, जिधर उनके विचार से कचहरी थी। पर उनकी गरीब आँखें निर्दय अट्टालिकाओं की दीवार से टकरा कर लौट आती थीं।

यह सब कुछ इसलिए हो रहा था कि आज अदालत में एक बड़ा मनोहर अद्भुत अभिनय होने वाला था, जिस पर अलफ्रेड थियेटर के हजारों अभिनय बलिदान थे। आज एक गुप्त रहस्य खुलने वाला था, जो अँधेरे में राई है, पर प्रकाश में पर्वताकार हो जाता है। इस घटना के सम्बन्ध में लोग टीका-टिप्पणी कर रहे थे। कोई कहता था, यह असंभव है कि रूपचंद-जैसै शिक्षित व्यक्ति ऐसा दूषित कर्म करे। पुलिस का यह बयान है, तो हुआ करे। गवाह पुलिस के बयान का समर्थन करते हैं, तो किया करें। यह पुलिस का अत्याचार है, अन्याय है। कोई कहता था, भाई सत्य तो यह है कि यह रूप-लावण्य, यह ‘खंजन-गंजन-नयन’और यह हृदयहारिणी सुन्दर सलोनी छवि जो कुछ न करे, वह थोड़ा है। श्रोता इन बातों को बड़े चाव से इस तरह आश्चर्यान्वित हो मुँह बनाकर सुनते थे, मानो देवावाणी हो रही है। सबकी जीभ पर यही चर्चा थी। खूब नमक-मिर्च लपेटा जाता था। परंतु इसमें सहानुभूति या सम्वेदना के लिए जरा भी स्थान न था।

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पंडित कैलाशनाथ का बयान खत्म हो गया और कामिनी इजलास पर पधारी। इसका बयान बहुत संक्षिप्त था—मैं अपने कमरे में रात को सो रही थी। कोई एक बजे के करीब चोर-चोर का हल्ला सुनकर मैं चौंक पड़ी और अपनी चारपाई के पास चार आदमियों को हाथापाई करते देखा। मेरे भाई साहब अपने दो चौकीदारों के साथ अभियुक्त को पकड़ते थे और वह जान छुड़ाकर भागना चाहता था। मैं शीघ्रता से उठकर बरामदे में निकल आयी। इसके बाद मैंने चौकीदारों को अपराधी के साथ पुलिस स्टेशन की ओर आते देखा।

रूपचंद ने कामिनी का बयान और एक ठंडी साँस ली। नेत्रों के आगे से परदा हट गया। कामिनी, तू ऐसी कृतघ्न, ऐसी अन्यायी, ऐसी पिशाचिनी, ऐसी दुरात्मा है ! क्या तेरी वह प्रीति, वह विरह-वेदना, वह प्रेमोद्गार, सब धोखे की टट्टी थी! तूने कितनी बार कहा है कि दृढ़ता प्रेम-मंदिर की पहली सीढ़ी है। तूने कितनी बार नयनों में आंसू भरकर इसी गोद में मुँह छिपाकर मुझसे कहा है कि मैं तुम्हारी हो गई, मेरी लाज अब तुम्हारे हाथ में है। परंतु हाय ! आज प्रेम-परीक्षा के समय तेरी वह सब बातें खोटी उतरीं। आह ! तूने दगा दिया और मेरा जीवन मिट्टी में मिला दिया
रूपचंद तो विचार-तरंगों में निमग्न था। उसके वकील ने कामिनी से जिरह करनी प्रारम्भ की।
वकील-क्या तुम सत्यनिष्ठा के साथ कह सकती हो कि रूपचंद तुम्हारे मकान पर अक्सर नहीं जाया करता था ?
कामिनी— मैंने कभी उसे अपने घर पर नहीं देखा।
वकील— क्या तुम शपथपूर्वक कह सकती हो कि तुम उसके साथ कभी थियेटर देखने नहीं गयीं ?
कामिनी— मैंने उसे कभी नहीं देखा।
वकील— क्या तुम शपथ लेकर कह सकती हो कि तुमने उसे प्रेम-पत्र नहीं लिखे?
शिकार के चंगुल में फँसे हुए पक्षी की तरह पत्र का नाम सुनते ही कामिनी के होश-हवाश उड़ गए, हाथ-पैर फूल गए। मुँह न खुल सका। जज ने, वकील ने और दो सहस्र आँखों ने उसकी तरफ उत्सुक्ता से देखा।
रूपचंद का मुँह खिल गया। उसके हृदय में आशा का उदय हुआ। जहाँ फूल था, वहाँ काँटा पैदा हुआ। मन में कहने लगा— कुलटा कामिनी ! अपने सुख और अपने कपट, मान-प्रतिष्ठा पर मेरे परिवार की हत्या करने वाली कामिनी ! तू अब भी मेरे हाथ में है। मैं अब भी तुझे इस कृतघ्नता और कपट का दंड दे सकता हूँ। तेरे पत्र, जिन्हें तूने सत्य हृदय से लिखा या नहीं, मालूम नहीं, परंतु जो मेरे हृदय के ताप को शीतल करने के लिए मोहिनी मंत्र थे, वह सब मेरे पास हैं और वह इसी समय तेरा सब भेद खोल देंगे। इस क्रोध से उन्मत्त होकर रूपचंद ने अपने कोट के पाकेट में हाथ डाला। जज ने, वकीलों ने और दो सहस्र नेत्रों ने उसकी तरफ चातक की भाँति देखा।

तब कामिनी की विकल आंखें चारों से हताश होकर रूपचंद की ओर पहुंचीं। उनमें इस समय लज्जा थी, दया-भिक्षा की प्रार्थना थी और व्याकुलता थी, मन-ही-मन कहती थी—मैं स्त्री हूँ, अबला हूं, ओछी हूं, तुम पुरुष हो, बलवान हो, साहसी हो, यह तुम्हारे स्वभाव के विपरीत है। मैं कभी तुम्हारी थी और यद्यपि समय मुझे तुमसे अलग किए देता है, किंतु मेरी लाज तुम्हारे हाथ में है, तुम मेरी रक्षा करो। आँखें मिलते ही रूपचंद उसके मन की बात ताड़ गए। उनके नेत्रों ने उत्तर दिया—यदि तुम्हारी लाज मेरे हाथों में है, तो उस पर कोई आँच नहीं आने पाएगी। तुम्हारी लाज पर मेरा सर्वस्व निछावर है।
अभियुक्त के वकील ने कामिनी से पुनः वही प्रश्न किया—क्या तुम शपथ-पूर्वक कह सकती हो कि तुमने रूपचंद को प्रेमपत्र नहीं लिखे ?
कामिनी ने कातर स्वर में उत्तर दिया— मैं शपथपूर्वक कहती हूँ कि मैंने उसे कभी कोई पत्र नहीं लिखा और अदालत से अपील करती हूँ कि वह मुझे इन घृणास्पद अश्लील आक्रमणों से बचाए।
अभियोग की कार्यवाई समाप्त हो गई। अब अपराधी के लिए बयान की बारी आयी। उसकी सफाई के कोई गवाह न थे। परन्तु वकीलों को, जज को और अधीर जनता को पूरा-पूरा विश्वास कि अभियुक्त का बयान पुलिस के मायावी महल को क्षण-मात्र में छिन्न-भिन्न कर देगा। रूपचंद इजलास के सम्मुख आया। उसके मुखारविंद पर आत्मबल का तेज झलक रहा था और नेत्रों से साहस और शांति। दर्शक-मंडली उतालवली होकर अदालत के कमरे में घुस पड़ी। रूपचंद इस समय का चाँद था या देवलोक का दूत। सहस्रों नेत्र उसकी ओर लगे थे। किंतु हृदय को कितना कौतूहल हुआ, जब रूपचंद ने अत्यंत शांत चित्त से अपना अपराध स्वीकार कर लिया। लोग एक दूसरे का मुँह ताकने लगे।
अभियुक्त का बयान समाप्त होते ही कोलाहल मच गया। सभी इसकी आलोना-प्रत्यालोचना करने लगे। सबके मुँह पर आश्चर्य था, संदेह था और निराशा थी। कामिनी की कृतघ्नता और निष्ठुरता पर धिक्कार हो रही थी। प्रत्येक मनुष्य शपथ खाने पर तैयार था कि रूपचंद निर्दोष है। प्रेम ने उसके मुँह पर ताला लगा दिया है। पर कुछ ऐसे भी दूसरे के दुःख में प्रसन्न होने वाले स्वभाव के लोग थे, जो उसके इस साहस पर हँसते और मजाक उड़ाते थे।

दो घंटे बीत गए। अदालत में पुनः एक बार शांति का राज्य हुआ। जज साहब फैसला सुनाने के लिए खड़े हुए। फैसला बहुत संक्षिप्त था। अभियुक्त जवान है, शिक्षित है और सभ्य है, अतएव आँखों का अंधा। इसे शिक्षाप्रद दंड देना आवश्यक है। अपराध स्वीकार करने से उसका दंड कम नहीं होता। अतः मैं उसे पाँच वर्ष के सपरिश्रम कारावास की सजा देता हूँ।
दो हजार मनुष्यों ने हृदय थामकर फैसला सुना। मालूम होता था कि कलेजे में भाले चुभ गए हैं। सभी का मुँह निराशाजनक क्रोध से रक्तवर्ण हो रहा था। यह अन्याय है, कठोरता है और बेरहमी है। परंतु रूपचंद के मुँह पर शांति विराज रही थी।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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दुर्गा का मन्दिर

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दुर्गा का मन्दिर

बाबू ब्रजनाथ कानून पढ़ने में मग्न थे और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में। श्यामा चिल्लाती थी कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता। मुन्नू रोता था कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली।
ब्रजनाथ ने क्रुद्ध होकर भामा से कहा- तुम इन दुष्टों को यहां से हटाती हो कि नहीं, नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूं।
भामा चूल्हे में आग जला रही थी, बोली-अरे तो अब क्या संध्या को भी पढ़ते ही रहोगे ? जरा दम तो ले लो।
ब्रजनाथ- उठा तो न जायगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघार रही हो। अभी एक आध को पटक दूँगा, तो वहाँ से गरजती आओगी कि हाय ! हाय ! बच्चे को मार डाला।
भामा- तो मैं कुछ बैठी या सोयी तो नहीं हूं, जरा एक घड़ी तुम्हीं लड़की को बहला दोगे तो क्या होगा ? कुछ मैंने ही उनकी नौकरी नहीं लिखाई !
बाबू ब्रजनाथ से कोई जवाब न देते बन पड़ा। क्रोध पानी के समान बहाव का मार्ग न पाकर और भी प्रबल हो जाता है। यद्यपि ब्रजनाथ नैतिक सिद्धांतों के ज्ञाता थे, पर उनके पालन में इस समय कुशल न दिखाई दी। मुद्दई और मुद्दालेह दोनों को एक ही लाठी हाँका और दोनों को रोते-चिल्लाते छोड़, कानून का ग्रंथ बगल में दबा, कालेज-पार्क की राह ली।

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सावन का महीना था। आज कई दिनों के बाद बादल खुले थे, हरे-भरे वृक्ष सुनहरी चादरें ओढ़े खड़े थे। मृदु समीर सावन के राग गाती थी और बगुले डालियों पर हिंडोले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेंच पर जा बैठे और किताब खोली, लेकिन इस ग्रंथ की अपेक्षा प्रकृति-ग्रंथ का अवलोकन अधिक चित्ताकर्षक था। कभी आसमान को पढ़ते, कभी पत्तियों को, कभी छविमयी हरियाली को और कभी सामने मैदान में खेलते लड़कों को।
यकायक उन्हें सामने घास पर कागज की एक पुड़िया दिखाई दी। माया ने जिज्ञासा की झाड़ में कहा- देखे इसमें क्या है ?
बुद्धि ने कहा- तुमसे मतलब ? पड़ी रहने दो।
लेकिन जिज्ञासा रूपी माया की जीत हुई। ब्रजनाथ ने उठ, पुड़िया उठा ली। कदाचित् किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिरे पड़े हैं। खोलकर देखा, वे सावरेन थे! गिना, पूरे आठ निकले। कुतूहल की सीमा न रही।
ब्रजनाथ की छाती धड़कने लगी। आठों सावरेन हाथ में लिये वे सोचने लगे- उन्हें क्या करूँ ? अगर यहीं रख दूँ, तो न जाने किसकी नजर पड़े, न मालूम कौन उठा ले जाय ! नहीं, यहाँ रखना उचित नहीं, चलूँ थाने में इसकी इत्तिला कर दूँ और ये सावरेन थानेदार को सौंप दूँ। जिसके होंगे, वह आप ले जाएगा या अगर उसे न भी मिले, तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा; मैं तो अपने उत्तर-दायित्व से मुक्त हो जाऊँगा।
माया ने पर्दे की आड़ से मंत्र मारना प्रारम्भ किया। वे थाने न गये; सोचा, चलूँ, भामा से एक दिल्लगी करूँ। भोजन तैयार होगा। कल इतमीनान से थाने जाऊँगा।
भामा ने सावरेन देखे, हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई। पूछा- किसकी हैं ?
‘मेरी।’
‘चलो, कहीं हो न।’
‘पड़ी मिली है।’
‘झूठी बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो तो सच बताओ, कहाँ मिलीं ? किसकी हैं?’
‘सच कहता हूँ, पड़ी मिली हैं।’
‘मेरी कसम ?’
‘तुम्हारी कसम ।’
भामा गिन्नियों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी।
ब्रजनाथ ने कहा- क्यों छीनती हो ?
भामा- लाओ, मैं अपने पास रख लूँ।
‘रहने दीजिए, मैं इनकी इत्तिला करने थाने जाता हूँ।’
भामा का मुख मलिन हो गया। बोली- पड़े हुए धन की क्या इत्तिला ?
ब्रजनाथ- हाँ और क्या, इन आठ गिन्नियों के लिए ईमान बिगाड़ूँ न ?
भामा- अच्छा, तो सबेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो आने में देरी होगी।
ब्रजनाथ ने भी सोचा, यही अच्छा है, थानेवाले रात को तो कोई कार्रवाई करेंगे नहीं। जब अशर्फियों को पड़ा ही रहना है, तब जैसे थाना वैसे मेरा घर।

गिन्नियां संदूक में रख दीं। खा-पीकर लेटे तो भामा ने हँसकर कहा- आया धन क्यों छोड़ते हो, लाओ मैं अपने लिए एक गुलूबंद बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।
माया ने इस समय हास्य का रूप धारण किया था।
ब्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा- गुलूबंद की लालसा में गले में फाँसी लगाना चाहती हो क्या ?

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प्रात: काल ब्रजनाथ थाने चलने के लिए प्रस्तुत हुए। कानून का एक लेक्चर छूट जायगा, कोई हरज नहीं। वे इलाहाबाद के हाईकोर्ट में अनुवादक थे। नौकरी में उन्नति की आशा देखकर साल-भर से वकालत की तैयारी में मग्न थे। लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे कि एक मित्र, मुंशी गोरेलाल आकर बैठ गए और अपनी पारिवारिक दुश्चिन्ताओं की विस्तृत राम-कहानी सुनाकर अत्यन्त विनय भाव से बोले- भाई साहब, इस समय मैं अपने झंझटों में ऐसा फँस गया हूँ कि बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादा नहीं, तीस रुपये दे दो। किसी-न-किसी तरह काम चला लूँगा। आज ता. 30 है। कल शाम को तुम्हें रुपये मिल जायेंगे।

ब्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे, किन्तु बड़प्पन की हवा बांध रखी थी। यह मिथ्याभिमान उनके स्वभाव की एक दुर्बलता थी। केवल अपने वैभव का प्रभाव डालने के लिए ही बहुधा मित्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को अर्पण कर दिया करते थे। लेकिन भामा तो इस, आत्मत्याग को व्यर्थ समझती थी। इसलिए जब ब्रजनाथ पर इस प्रकार का संकट पड़ता था, तब थोड़ी देर के लिए उनकी पारिवारिक शान्ति अवश्य भंग हो जाती थी। उनमें इनकार या टालने की हिम्मत न थी।
वे कुछ सकुचाते हुए भामा के पास गये और बोले- तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे? मुंशी गोरेलाल माँग रहे हैं।
भामा ने रुखाई से कहा- मेरे पास रुपये नहीं है।
ब्रजनाथ- होंगे तो जरूर, बहाना करती हो।
भामा- अच्छा, बहाना ही सही।
ब्रजनाथ- तो मैं उनसे क्या कह दूँ ?
भामा- कह दो, घर में रुपये नहीं हैं। तुमसे न कहते बने तो मैं पर्दे की आड़ से कह दूँ।
ब्रजनाथ- कहने को तो मैं कह दूँ, लेकिन उन्हें विश्वास न आएगा, समझेंगे बहाना कर रहे हैं।
भामा- समझेंगे, समझा करें।
ब्रजनाथ-मुझसे तो ऐसी बेमुरौवती नहीं हो सकती। रात-दिन का साथ ठहरा, कैसे इनकार करूँ ?
भामा- अच्छा, तो जो मन में आवे, सो करो। मैं एक बार कह चुकी हूँ कि मेरे पास रुपये नहीं हैं।
ब्रजनाथ मन में बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था कि भामा के पास रुपये हैं, लेकिन केवल मुझे लज्जित करने के लिए इनकार कर रही है। दुराग्रह के संकल्प को दृढ़ कर दिया। संदूक से दो गिन्नियां निकालीं और गोरेलाल को देकर बोले- भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपये दे जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं। मैं इसी समय देने जा रहा था। यदि कल रुपये न पहुँचे, तो मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा; कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा।

गोरेलाल ने मन में कहा- अमानत स्त्री के सिवा और किसकी होगी ? और गिन्नियां जेब में रखकर घर की राह ली।

4

आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाजे पर बैठे हुए गोरेलाल का इंतजार कर रहे हैं।
पांच बज गए, गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की आंख रास्ते की तरफ लगी हुई थी। हाथ में एक पत्र था, लेकिन पढ़ने में जी न लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे। लेकिन आज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है; आते ही होंगे। छह बजे। गोरेलाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ। वे आ रहे हैं। जरूर वे ही हैं। वैसा ही अचकन है। वैसी ही टोपी। चाल भी वही है। इसी तरफ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझ-सा उतरता मालूम हुआ। लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में विलीन हो गई।

ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वे एक बार कुरसी पर से उठे। बरामदे की चौखट पर खड़े होकर सड़क के दोनों तरफ निगाह दौड़ायी। कहीं पता नहीं। दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देखकर गोरेलाल का भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता।
सात बजे। चिराग जल गए। सड़क पर अंधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर कदम बढ़ाए। लेकिन हृदय काँप रहा था कि कहीं वे रास्ते में आते ही न मिल जायँ, तो समझेंगे कि थोड़े से रुपये के लिए इतने व्याकुल हो गए। थोड़ी ही दूर गये कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ, गोरेलाल हैं, मुड़े और सीधे बरामदे में आकर दम लिया। लेकिन फिर वहीं धोखा ! फिर वहीं भ्रान्ति ! तब सोचने लगे कि इतनी देर क्यों हो रही है। क्या अभी तक वे कचहरी से न आये होंगे ? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ्तर वाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस, दो बातें हो सकती हैं। या तो उन्होंने कल आने का निश्चय कर लिया, समझेंगे होंगे कि रात को कौन जाय या जान-बूझकर बैठे रहे होंगे; देना न चाहते होंगे। उस समय उनकी गरज थी, इस समय मेरी गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ, लेकिन किसे भेजूँ ? मुन्नू जा सकता है। सड़क ही पर मकान है। यह सोचकर कमरे में गये। लैम्प जलाया और पत्र लिखने बैठे, मगर आँखें द्वार ही की ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसी के पैर की आहट सुनाई दी। तुरन्त पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा तो पड़ोस का कुँजड़ा है, तार पढ़ाने आया है। उससे बोले- भाई, इस समय फुरसत नहीं है, थोड़ी देर में आना।

उसने कहा-बाबूजी, घर-भर के प्राणी घबराए हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए।
निदान ब्रजनाथ ने झुँझलाकर उसके हाथ से तार ले लिया और सरसरी दृष्टि से देखकर बोले- कलकत्ते से आया है, माल नहीं पहुँचा।
कुँजड़े ने डरते-डरते कहा- बाबूजी, इतना और देख लीजिए कि किसने भेजा है।
इस पर ब्रजनाथ ने तार को फेंक दिया और बोले- मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।
आठ बज गए। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी। मन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, मुझे आप ही जाना चाहिए; बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहाँ तक चिंता करूँ ? स्पष्ट कह दूँगा, मेरे रुपये दे दो। भलमनसी भलेमानसों से निभायी जा सकती हैं। ऐसे धूर्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी। घर में जाकर भामा से कहा- जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़ बन्द कर लो।
चलने को तो चले, लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखाई दिया; लैम्प जल रहा था। ठिठक गए और सोचने लगे- चल रहा क्या कहूँगा। कहीं उन्होंने जाते-जाते रुपये निकालकर दे दिये और देरी के लिए क्षमा माँगी, तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वे मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपये की बातचीत करूँ ही क्यों ? कहूँगा, भाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है, तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है। मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है। साफ कलई खुल जाएगी। उँह ! इस झंझट की जरूरत ही क्या है ? वे मुझे देखकर खुद ही समझ जाएँगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आएगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे चले जाते थे, जैसे नदी की लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती।

गोरेलाल का घर आ गया। द्वार बन्द था। ब्रजनाथ को उन्हें पुकारने का साहस न हुआ। समझे, खाना खा रहे होंगे। दरवाजे के सामने से निकले और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मील तक चले गये। नौ बजे की आवाज कान में आयी। गोरेलाल भोजन कर चुकें होंगे, यह सोचकर लौट पड़े। लेकिन द्वार पर पहुँचे तो अंधेरा था। वह आशारूपी दीपक बुझ गया था। एक मिनट तक दुविधा में खड़े रहे। क्या करूँ ? हाँ, अभी बहुत सबेरा है। इतनी जल्दी थोड़े ही सो गए होंगे। दबे पाँव बरामदे पर चढ़े। द्वार पर कान लगाकर सुना, चारों ओर ताक रहे थे कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीत की भनक कान में पड़ी। ध्यान से सुनो। स्त्री कह रही थी- रुपये तो सब उठ गए, ब्रजनाथ को कहाँ से दोगे ? गोरेलाल ने उत्तर दिया- ऐसी कौन-सी उतावली है, फिर दे देंगे ? आज दरखास्त दे दी है। कल मंजूर हो जाएगी, तीन महीने के बाद लौटेंगे तो देखा जाएगा।

ब्रजनाथ को ऐसा जान पड़ा, मानो मुँह पर किसी ने तमाचा मार दिया। क्रोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे से उत्तर आए। घर चले ते सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे दिन-भर का थका-माँदा पथिक।

5

ब्रजनाथ रात-भर करवटें बदलते रहे। कभी गोरेलाल की धूर्त्तता पर क्रोध आता था। कभी अपनी सरलता पर क्रोध होता था। मालूम नहीं किस गरीब के रुपये हैं, उस गरीब पर क्या बीती होगी। लेकिन अब क्रोध या खेद से क्या लाभ ? सोचने लगे- रुपये कहाँ से आएँगे; भामा पहले ही इनकार कर चुकी है, वेतन में इतनी गुंजायश तय नहीं; दस-पाँच रुपये की बात होती तो कोई कतर-ब्योंत भी करता। तो क्या करूँ, किसी से उधार लूँ ? मगर मुझे कौन देगा ? आज तक किसी से माँगने का संयोग नहीं पड़ा और अपना कोई ऐसा मित्र है भी तो नहीं ! जो लोग हैं, मुझी को सताया करते हैं, मुझे क्या देंगे। हाँ, यदि कुछ कानून छोड़कर अनुवाद करने में परिश्रम करूँ, तो रुपये मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मास का कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो गिर गई। हा निर्दयी ! तूने बड़ा दगा किया। न जाने, किस जन्म का बैर चुकाया। कहीं का न रखा!
दूसरे दिन से ब्रजनाथ को रुपयों की धुन सवार हुई। सवेरे कानून के लेक्चर में सम्मिलित होते। संध्या को कचहरी से तजवीजों का पुलिंदा घर लाते और आधी रात तक बैठ अनुवाद किया करते ! सिर उठाने की मुहलत न मिलती। कभी एक-दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिलकुल शिथिल हो जाता, तब विवश होकर चारपाई पर पड़ रहते।
लेकिन इतने परिश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता। कभी पाचन क्रिया में विघ्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ़ जाता। तिस पर भी वह मशीन की तरह काम में लगे रहते। भामा कभी-कभी झुँझला कर कहती -अजी लेट भी रहो; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे जैसे दस-पाँच आदमी और होते, तो संसार का काम ही बन्द हो जाता।

ब्रजनाथ इस बाधाकारी व्यंग्य का कोई उत्तर न देते। दिन निकलते ही फिर वही चरखा ले बैठते। यहाँ तक कि तीन सप्ताह बीत गये और 25 रु. हाथ आ गए। ब्रजनाथ सोचते थे, कि दो-तीन दिन में बेड़ा पार है। लेकिन इक्कीसवें दिन उन्हें प्रचंड ज्वर चढ़ आया और तीन दिन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पड़ी। शय्या-सेवी बन गए। भादों का महीना था। भामा ने समझा कि पित्त प्रकोप है। लेकिन जब एक सप्ताह तक डाक्टर की औषधि सेवन करने पर भी ज्वर न उतरा, तब वह घबरायी। ब्रजनाथ प्राय: ज्वर में बकझक भी करने लगते; भामा सुनकर डर के मारे कमरे से भाग जाती। बच्चों को पकड़कर दूसरे कमरे में बन्द कर देती। अब उसे शंका होने लगी थी कि कहीं यह कष्ट उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोगना पड़ रहा है। कौन जाने, रुपये वाले ने कुछ कर-धर दिया हो ! जरूर यही बात है, नहीं तो औषधि से लाभ क्यों नहीं होता ? संकट पड़ने पर हम धर्मभीरु हो जाते हैं। भामा ने भी देवताओं की शरण ली। वह जन्माष्टमी, शिवरात्रि और तीज के सिवा और कोई व्रत न रखती थी। इस बार उसने नौरात्र का कठिन व्रत पालन करना आरम्भ किया।
आठ दिन पूरे हो गए। अंतिम दिन आया। प्रभात का समय था। भामा ने ब्रजनाथ को दवा पिलायी और दोनों बालकों को लेकर दुर्गाजी की पूजा करने मंदिर में चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मंदिर के आँगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे दुर्गापाठ कर रहे थे। धूप और अगर की सुगंधि उड़ रही थी। उसने मंदिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविंद से एक विलक्षण दीप्ति झलक रही थी। बड़े उज्जव नेत्रों से प्रभा की किरणें आलोकित हो रही थीं। पवित्रता का एक समाँ-सा छाया हुआ था। भामा इस दीप्तिपूर्ण मूर्ति के सम्मुख सीधी आँखों से ताक न सकी। उसके अंत:करण में एक निर्मल विशुद्ध; भावपूर्ण भय उदय हो गया। उसने आँखें बन्द कर लीं, घुटनों के बल बैठ गई और कर जोड़कर करुण स्वर में बोली- माता ! मुझ पर दया करो।
उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानो देवी मुस्करायीं। उसे उन दिव्य नेत्रों से एक ज्योति-सी निकलकर अपने हृदय में आती हुई मालूम हुई। उसके कानों में देवी के मुँह से निकले ये शब्द सुनाई दिये- पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा।
भामा उठ बैठी। उसकी आँखों में निर्मल भक्ति का आभास झलक रहा था। मुखमंडल से पवित्र प्रेम बरसा पड़ता था। देवी ने कदाचित् उसे अपनी प्रभा के रंग में डुबा दिया था।

इतने में दूसरी एक स्त्री आयी। उसके उज्ज्वल केश बिखरे और मुरझाएँ हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साड़ी थी। हाथ में चूड़ियों के सिवा और कोई आभूषण न था। शोक और नैराश्य की साक्षात् मूर्ति मालूम होती थी। उसने भी देवी के सामने सिर झुकाया और दोनों हाथों से आँचल फैलाकर बोली- देवी- जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश करो।
जैसे सितार मिजराब की चोट खाकर थरथरा उठता है, उसी प्रकार भामा का हृदय अनिष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान उसके कलेजे में चुभ गए। उसने देवी की ओर कातर नेत्रों से देखा। उसका ज्योतिर्मय स्वरूप भयंकर था और नेत्रों से भीषण ज्वाला निकल रही थी। भामा के अंत:करण में सर्वत्र आकाश से, मन्दिर के सामने वाले वृक्षों से, मन्दिर के स्तम्भों से, सिंहासन के जलते हुए दीपक से और देवी के विकराल मुँह ये शब्द निकलकर गूँजने लगे- पराया धन लौटा दे, नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जाएगा।
भामा खड़ी हो गई और उस वृद्धा से बोली- क्यों माता ! तुम्हारा धन किसी ने ले लिया है ?
वृद्धा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानों डूबते को तिनके का सहारा मिला। बोली- हाँ बेटी।
‘कितने दिन हुए ?’
‘कोई डेढ़ महीना।’
‘कितने रुपये थे ?’
‘पूरे एक सौ बीस।’
‘कैसे खोए ?’
‘क्या जाने, कहीं गिर गए। मेरे स्वामी पल्टन में नौकर थे, आज कई बरस हुए, वे परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से 60 रु. साल पेंशन मिलती है। अबकी दो साल की पेंशन एक साथ मिली थी। खजाने से रुपये लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहाँ गिर पड़े, आठ गिन्नियाँ थीं।’
‘अगर वे तुम्हें मिल जायँ तो क्या दोगी ?’
‘अधिक नहीं, उनमें से 50 रुपये दे दूँगी।’
‘रुपये क्या होंगे, कोई उससे अच्छी चीज दो।’
‘बेटी! और क्या दूँ ? जब तक जीऊंगी, तुम्हारा यश गाऊँगी।’
‘नहीं, इसकी मुझे आवश्यकता नहीं।’
‘बेटी, इसके सिवा मेरे पास क्या है ?’
‘मुझे आशीर्वाद दो। मेरे पति बीमार हैं, वे अच्छे हो जाएँ।’
‘क्या उन्हीं को रुपये मिले हैं ?’
‘हाँ, वे उसी दिन से खोज रहे हैं।’
वृद्धा घुटनों के बल बैठ गई और आँचल फैलाकर कम्पित स्वर से बोली- देवी, इनका कल्याण करो। भामा ने फिर देवी की ओर आशंकित दृष्टि से देखा। उनके दिव्य रूप पर प्रेम का प्रकाश था। आँखों में दया की आनंद-दायिनी झलक थी। उस समय भामा ने अन्त:करण में कहीं स्वर्गलोक से यह ध्वनि सुनाई दी- जा, तेरा कल्याण होगा।

6

संध्या का समय है। भामा ब्रजनाथ के साथ इक्के पर बैठी तुलसी के घर उसकी थाती लौटाने जा रही है। ब्रजनाथ की बड़े परिश्रम की कमाई तो डाक्टर की भेंट हो चुकी है, लेकिन भामा ने एक पड़ोसी के हाथ अपने कानों के झुमके बेचकर रुपये जुटाए हैं। जिस समय झुमके बनकर आये थे, भामा बहुत प्रसन्न हुई थी। आज उन्हें बेचकर वह उससे अधिक प्रसन्न है।
जब ब्रजनाथ ने आठों गिन्नियां उसे दिखाईं थीं, उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई थी। लेकिन वह हर्ष मुख पर आने का साहस न कर सका था। आज उन गिन्नियों के हाथ से जाते समय उसका हार्दिक आनंद चमक रहा है, ओठों पर नाच रहा है, कपोलों को रँग रहा है और अंगों पर किलोलें कर रहा है। वह इंद्रियों का आनंद था, यह आत्मा का आनन्द है। वह आनंद लज्जा के भीतर छिपा हुआ था, यह आनन्द गर्व से बाहर निकल पड़ता है।

तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद ब्रजनाथ तकिए के सहारे बैठे थे ! वे बार-बार भामा को प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उसके बाह्य सौन्दर्य की शोभा देखी थी। आज वह उसका आत्मिक सौन्दर्य देख रहे हैं।
तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। ब्रजनाथ इक्के पर से उतरे और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों से सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपये लिए और दोनों हाथ फैलाकर आशीर्वाद दिया-दुर्गाजी तुम्हारा कल्याण करें!
तुलसी का वर्णहीन मुख यों खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियाँ खिल जाती हैं, सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियाँ मिटती देख पड़ी। ऐसा मालूम होता था, मानो उसका कायाकल्प हो गया।
वहाँ से आकर ब्रजनाथ अपने द्वार पर बैठ हुए थे कि गोरेलाल आकर बैठ गए। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया।
गोरेलाल बोले- भाई साहब, कैसी तबीयत है ?
ब्रजनाथ- बहुत अच्छी तरह हूँ।
गोरेलाल- मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे इसका खेद है कि आपके रुपये देने में इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीख को घर से एक आवश्यक पत्र आ गया और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहाँ की विपत्ति-कथा कहूँ तो समाप्त न हो। लेकिन आपकी बीमारी का शोक-समाचार सुनकर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिए रुपये हाजिर हैं। इस विलम्ब के लिये अत्यन्त लज्जित हूँ।

ब्रजनाथ का क्रोध शांत हो गया। विनय में कितनी शक्ति है ! बोले-जी हाँ, बीमार तो था, लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ। आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो, तो रुपये फिर दे दीजिएगा। मैं अब उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।
गोरेलाल विदा हो गए तो ब्रजनाथ रुपया लिये हुए भीतर आये और भामा से बोले- ये लो अपने रुपये, गोरेलाल दे गए।
भामा ने कहा- ये मेरे नहीं हैं तुलसी के हैं, एक बार पराया धन लेकर सीख गई।
‘लेकिन तुलसी के तो पूरे रुपये दे दिये गये।’
‘दे दिये गये तो क्या हुआ, ये उसके आशीर्वाद की न्योछावर हैं।’
‘कान में झुमके कहाँ से आयँगे ?’
‘झुमके न रहेंगे न सही, सदा के लिए कान तो हो गए।’


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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सेवा-मार्ग

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सेवा-मार्ग

तारा ने बारह वर्ष दुर्गा की तपस्या की। न पलंग पर सोयी, न केशो को सँवारा और न नेत्रों में सुर्मा लगाया। पृथ्वी पर सोती, गेरुआ वस्त्र पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका मुख मुरझाई हुई कली की भाँति था, नेत्र ज्योति हीन और हृदय एक शून्य बीहड़ मैदान। उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था, पर यह लौ दिल से नहीं जाती यही उसकी इच्छा थी, यही उसका जीवनोद्देश्य। क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी ? इस समय के देवता पत्थर के होते हैं। पत्थर को भी कभी किसी ने पिघलते देखा है ? देख, तेरी सखियाँ पुष्प की भाँति विकसित हो रही हैं, नदी की तरह बढ़ रही हैं; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती ?’ तारा कहती-‘माता, अब तो जो लगन लगी, वह लगी। या तो देवी के दर्शन पाऊँगी या यही इच्छा लिये संसार से प्रयाण कर जाऊँगी। तुम समझ लो, मैं मर गई।’

इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये और तब देवी प्रसन्न हुई। रात्रि का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मंदिर में एक धुँधला-सा घी का दीपक जल रहा था। तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी। यकायक उस पाषाण मूर्ति देवी के तन में स्फूर्ति प्रकट हुई। तारा के रोंगटे खड़े हो गए। वह धुँधला दीपक देदीप्यमान हो गया। मंदिर में चित्ताकर्षक सुगंध फैल गई और वायु में सजीवता प्रतीत होने लगी। देवी का उज्जवल रूप चन्द्रमा की भाँति चमकने लगा। ज्योतिमय नेत्र जगमगा उठे। होंठ खुल गए। आवाज आयी-तारा; मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। माँग, क्या वर माँगती है?

तारा खड़ी हो गई। उसका शरीर इस भाँति काँप रहा था, जैसे प्रातःकाल के समय कंपित स्वर में किसी कृषक के गाने का ध्वनि। उसे मालूम हो रहा था, मानो वह वायु में उड़ी जा रही है। उसे अपने हृदय में उच्च विचार और पूर्ण प्रकाश का आभास प्रतीत हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति-भाव से कहा-भगवती तुमने मेरी बारह वर्ष की तपस्या पूरी की, किस मुख से तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसार की वे अलभ्य वस्तुएँ प्रदान हो, जो इच्छाओं की सीमा और मेरी अभिलाषाओं का अंत है। मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूर्य को भी मात कर दे।

देवी ने मुस्कराकर कहा-स्वीकृत है।
तारा-वह धन, जो काल-चक्र को भी लज्जित करे।
देवी ने मुस्कराकर कहा-स्वीकृत है।
तारा-वह सौंदर्य, जो अद्वितीय हो।
देवी ने मुस्कराकर कहा-यह भी स्वीकृत है।

2

तारा कुंवरि ने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की। प्रभात काल के समय उसकी आँखें क्षण-भर के लिए झपक गई। जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहिरों से लदी हूँ। उसके विशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर रहे थे। सारा भवन संगमरमर से बना हुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा हुआ था। द्वार पर मीलों तक हरियाली छायी हुई थी। दासियाँ स्वर्णाभूषणों से लदी हुई सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं। तारा को देखते ही वे स्वर्ण के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ी। तारा ने देखा कि मेरा पलंग हाथीदाँत का है। भूमि पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं। सिरहाने की ओर एक बड़ा सुन्दर ऊँचा शीशा रखा हुआ है। तारा ने उसमें अपना रूप देखा, चकित रह गई। उसका रूप चंद्रमा को भी लज्जित करता था। दीवार पर अनेकानेक सुप्रसिद्ध चित्रकारों के मनमोहक चित्र टँगे थे। पर ये सब-के सब तारा की सुन्दरता के आगे तुच्छ थे। तारा को अपनी सुन्दरता का गर्व हुआ। वह कई दासियों को लेकर वाटिका में गयी। वहाँ की छटा देखकर वह मुग्ध हो गयी। वायु में गुलाब और केसर घुले हुए थे। रंग-विरंग के पुष्प, वायु के मंद-मंद झोंकों से मतवालों की तरह झूम रहे थे। तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता की अपने अधर-पल्लव से समानता करने लगी। गुलाब में वह कोमलता न थी। वाटिका के मध्य में एक बिल्लौर जड़ित हौज था।

इसमें हंस और बतख किलोलें कर रहे थे। यकायक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं ? दासियों से पूछा। उन्होंने कहा—‘वे लोग पुराने घर में हैं।’ तारा ने अपनी अटारी पर जाकर देखा। उसे अपना पहला घर एक साधारण झोंपड़े की तरह दृष्टिगोचर हुआ, उसकी बहिनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थीं। माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी। तारा पहले सोचा करती थी, कि जब मेरे दिन चमकेंगे, तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखूँगी और उनकी भली-भाँति सेवा करूँगी। पर इस समय धन के गर्व ने उसकी पवित्र हार्दिक इच्छा को निर्बल बना दिया था। उसने घर वालों को स्नेहरहित दृष्टि से देखा और तब वह उस मनोहर गान को सुनने चली गयी, जिसकी प्रतिध्वनि उसके कानों में आ रही थी।

एकबारगी जोर से एक कड़का हुआ, बिजली चमकी और बिजली की छटाओं से एक ज्योतिस्वरूप नवयुवक निकलकर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा—तुम कौन हो ?
नवयुवक ने कहा— श्रीमती, मुझे विद्युतसिंह कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञाकारी हूँ।
उसके विदा होते ही वायु के उष्ण झोंके चलने लगे। आकाश में एक प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ। यह क्षण-मात्र में उतरकर तारा कुँवरि के समीप ठहर गया उसमें से एक ज्वालामुखी मनुष्य ने निकलकर तारा के पदों को चूमा। तारा ने पूछा—तुम कौन हो ?
उस मनुष्य ने उत्तर दिया— श्रीमती, मेरा नाम अग्निसिंह है ! मैं श्रीमती का आज्ञाकारी सेवक हूँ।
वह अभी जाने भी न पाया था कि एकबारगी सारा महल ज्योति से प्रकाशमान हो गया। जान पड़ता था, सैकड़ों बिजलियां मिलकर चमक रही हैं। वायु सवेग हो गई। एक जगमगाता हुआ सिंहासन आकाश पर दीख पड़ा। वह शीघ्रता से पृथ्वी की ओर चला और तारा कुँवरि के पास आकर ठहर गया। उससे एक प्रकाशमान रूप का बालक, जिसके रूप से गम्भीरता प्रकट होती थी, निकलकर तारा के सामने निष्ठाभाव से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा— तुम कौन हो ?
बालक ने उत्तर दिया— श्रीमती ! मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञापालक हूँ।

3

धनी लोग तारा के भय से थर्राने लगे। उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया। बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। जिसकी ओर उसकी कृपा-दृष्टि हो जाती, वह अपना अहौभाग्य समझता, सदैव के लिए उसका बेदाम का गुलाम बन जाता।
एक दिन तारा अपनी आनंद-वाटिका में टहल रही थी। अचानक किसी के गाने का मनोहर शब्द सुनाई दिया। तारा विक्षिप्त हो गई। उसके दरबार में संसार के अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे; पर वह चित्ताकर्षकता, जो इन सुरों में थी, कभी अवगत न हुई थी। तारा ने गायक को बुला भेजा।

एक क्षण के अनंतर में वाटिका में एक साधु आया, सिर पर जटाएँ, शरीर में भस्म रमाए। उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था। उसी से वह प्रभावशाली स्वर निकालता था, जो हृदय के अनुरक्त स्वरों से कहीं प्रिय था। साधु आकर हौज के किनारे बैठ गया। उसने तारा के सामने शिष्टभाव नहीं दिखाया। आश्चर्य से इधर-उधर दृष्टि नहीं डाली। उस रमणीय स्थान में वह अपना सुर अलापने लगा। तारा का चित्त विचलित हो उठा। दिल में अनुराग का संचार हुआ। मदमत्त होकर टहलने लगी। साधु के सुमनोहर मधुर अलाप से पक्षी मग्न हो गए। पानी में लहरें उठने लगीं। वृक्ष झूमने लगे। तारा ने उन चित्ताकर्षक सुरों से एक चित्र खिंचते हुए देखा। धीरे-धीरे चित्र प्रकट होने लगा। उसमें स्फूर्ति आयी। और तब वह खड़ी नृत्य करने लगी। तारा चौंक पड़ी। उसने देखा कि यह मेरा ही चित्र है, नहीं, मैं ही हूं। मैं ही बीन की तान पर नृत्य कर रही हूं। उसे आश्चर्य हुआ कि मैं संसार की अलभ्य वस्तुओं की रानी हूँ अथवा एक स्वर-चित्र। वह सिर धुनने लगी और मतवाली होकर साधु के पैरों से जा लगी।। उसकी दृष्टि में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया सामने के फले-फूले वृक्ष और तरंगे मारता हुआ हौज और मनोहर कुंज सब लोप हो गए। केवल वही साधु बैठा बीन बजा रहा था, और वह स्वयं उसकी तानों पर थिरक रही थी। वह साधु अब प्रकाश मय तारा और अलौकिक सौंदर्य की मूर्ति बन गया था। जब मधुर अलाप बंद हुआ तब तारा होश में आयी। उसका चित्त हाथ से जा चुका था। वह उस विलक्षण साधु के हाथों बिक चुकी थी।

तारा बोली— स्वामीजी ! यह महल, यह धन, यह सुख और सौंदर्य, सब आपके चरण-कमल पर निछावर हैं। इस अँधेरे महल को अपने कोमल चरणों से प्रकाशमान कीजिए।
साधु-साधुओं को महल और धन का क्या काम ? मैं इस घर में नहीं ठहर सकता।
तारा— संसार के सारे सुख आपके लिए उपस्थित हैं।
साधु— मुझे सुखों की कामना नहीं।
तारा— मैं आजीवन आपकी दासी रहूँगी। यह कहकर तारा ने आइने में अपने अलौकिक सौंदर्य की छटा देखी ओर उसके नेत्रों में चंचलता आ गई।
साधु— तारा कुँवरि, मैं इस योग्य नहीं हूँ। यह कहकर साधु ने बीन उठायी और द्वार की ओर चला। तारा का गर्व टूक-टूक हो गया लज्जा से सिर झुक गया। वह मूर्च्छित होकर भूमिपर गिर पड़ी। मन में सोचा—मैं धन में, ऐश्वर्य में, सौंदर्य में जो अपनी समता नहीं रखती, एक साधु की दृष्टि में इतनी तुच्छ!

4

तारा को अब किसी प्रकार चैन नहीं था। उसे अपना भवन और ऐश्वर्य भयानक मालूम होने लगा। बस, साधु का एक चंद्रस्वरूप उसकी आँखों में नाच रहा था और उसका स्वर्गीय गान कानों में गूँज रहा था। उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और साधु का पता लगाने की आज्ञा दी। बहुत छानबीन के पश्चात् उसी कुटी का पता लगा। तारा नित्यप्रति वायुयान पर बैठकर साधु के पास जाती; कभी उस पर लाल, जवाहर लुटाती; कभी रत्न और आभूषण की छटा दिखाती। पर साधू इससे तनिक विचलित न हुआ। तारा के माया जाल का उस पर कुछ भी असर न हुआ।

तब तारा कुँवरि फिर दुर्गा के मंदिर में गयी और देवी के चरणों पर सिर रखकर बोली—माता, तुमने मुझे संसार के सारे दुर्लभ पदार्थ प्रदान किए। मैंने समझा था कि ऐश्वर्य में संसार को दास बना लेने की शक्ति है, पर मुझे अब ज्ञात हुआ कि प्रेम पर ऐश्वर्य ,सौंदर्य और वैभव का कुछ भी अधिकार नहीं। अब एक बार मुझ पर वही कृपा-दृष्टि हो। कुछ ऐसा कीजिए कि जिस निष्ठुर के प्रेम में मैं मरी जा रही हूँ उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आए। उसकी आँखों में भी नींद हराम हो जाए, वह भी मेरे प्रेम-मद में चूर हो जाए।
देवी के होंठ खुले, मुस्करायी। उसके अधर-पल्लव विकसित हुए बोली सुनाई दी—तारा, मैं संसार के पदार्थ प्रदान कर सकती हूँ, पर स्वर्ग-सुख मेरी शक्ति से बाहर है। ‘प्रेम’ स्वर्ग-सुख का मूल है।
तारा— माता, संसार के सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल जान पड़ते हैं। बताइए, मैं अपने प्रेम को कैसे पाऊँगी ?
देवी— उसका एक ही मार्ग है, पर ही वह बहुत कठिन। भला, तुम उस पर चल सकोगी ?
तारा— वह कितना कठिन हो, मैं उस मार्ग का अवलम्बन अवश्य करूँगी।
देवी— अच्छा, तो सुनो; वह सेवा-मार्ग है। सेवा करो, प्रेम सेवा ही से मिल सकता है।

5

तारा ने अपने बहुमूल्य जड़ाऊ आभूषणों और रंगीन वस्त्रों को उतार दिया। दासियों से बिदा हुई। राजभवन को त्याग दिया। अकेले नंगे पैर साधु की कुटी में चली आयी और सेवा-मार्ग का अवलम्बन किया।
वह कुछ रात रहे उठती। कुटी में झाड़ू देती। साधु के लिए गंगा से जल लाती। जंगलों से पुष्प चुनती। साधु नींद में होते तो वह उन्हें पंखा झलती। जंगली फल तोड़ लाती और केले के पत्तल बनाकर साधु के सम्मुख रखती। साधु नदी में स्नान करने जाया करते थे। तारा रास्ते से कंकर चुनती। उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाए। गंगा से पानी लाकर सींचती, उन्हें हरा-भरा देखकर प्रसन्न होती। उसने मदार की रुई बटोरी, साधु के लिए नर्म गद्दे तैयार किए। अब और कोई कामना न थी ! सेवा स्वयं अपना पुरस्कार और फल थी।

तारा को कई-कई दिन उपवास करना पड़ता। हाथों में गट्टे पड़ गए। पैर काँटों से चलनी हो गए। धूप से कोमल गात मुरझा गया। गुलाब-सा बदन सूख गया, पर उसके हृदय में अब स्वार्थ और गर्व का शासन न था। वहाँ अब प्रेम का राज था; वहां अब उस सेवा की लगन थी, जिससे कलुषता की जगह आनन्द का स्रोत बहता और काँटे पुष्प बन जाते हैं जहाँ अश्रु-धारा की जगह नेत्रों से अमृतृजल की वर्षा होती और दुःख-विलाप की जगह आनंद के राग निकलते हैं, जहां के पत्थर रुई से ज्यादा कोमल हैं और शीतल वायु से भी मनोहर। तारा भूल गई कि मैं सौंदर्य में अद्वितीय हूँ। धन विलासिनी तारा अब केवल प्रेम की दासी थी।

साधु को वन के खगों और मृगों से प्रेम था। वे कुटी के पास एकत्रित हो जाते ! तारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद में लेकर उनका दुलार करती। विषधर साँप और भयानक जंतु उसके प्रेम के प्रभाव से उसके सेवक हो गए।
बहुधा रोगी मनुष्य साधु के आशीर्वाद लेने आते थे। तारा रोगियों की सेवा-सुश्रूषा करती, जंगल से जड़ी-बूटियाँ ढूंढ़ लाती, उनके लिए औषधि बनाती, उनके घाव धोती, घावों पर मरहम रखती, रात-रात भर बैठी उन्हें पंखा झलती। साधु के आशीर्वाद को उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी।
इस प्रकार कितने ही वर्ष बीत गए। गर्मी के दिन थे, पृथ्वी तवे की तरह जल रही थी। हरे-भरे वृक्ष सूखे जाते थे। गंगा गर्मी से सिमट गई थी। तारा को पानी के लिए बहुत दूर रेत में चलना पड़ता। उसका। कोमल अंग चूर-चूर हो जाता। जलती हुई रेत में तलवे भुन जाते। इसी दशा में एक दिन वह हताश होकर एक वृक्ष के नीचे क्षण-भर दम लेने के लिए बैठ गई। उसके नेत्र बंद हो गए। उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपादृष्टि से मुझे देख रही है। तारा ने दौड़ कर उनके पदों को चूमा।
देवी ने पूछा— तारा, तेरी अभिलाषा पूरी हुई ?
तारा— हाँ माता, मेरी अभिलाषा पूरी हुई।
देवी— तुझे प्रेम मिल गया ?
तारा— नहीं माता, मुझे उससे भी उत्तम पदार्थ मिल गया। मुझे प्रेम के हीरे के बदले सेवा का पारस मिल गया। मुझे ज्ञात हुआ है कि प्रेम सेवा का चाकर है। सेवा के सामने सिर झुकाकर अब मैं प्रेम-भिक्षा नहीं चाहती। अब मुझे किसी दूसरे सुख की अभिलाषा नहीं। सेवा ने मुझे, आदर, सुख सबसेनिवृत्त कर दिया।

देवी इस बार मुस्करायी नहीं। उसने तारा को हृदय से लगाया और दृष्टि से ओझल हो गई।

6

संध्या का समय था। आकाश में तारे चमकते थे, जैसे कमल पर पानी की बूंदें। वायु में चित्ताकर्षक शीतलता आ गई थी। तारा एक वृक्ष के नीचे खड़ी चिड़ियों को दाना चुगाती थी, कि यकायक साधु ने आकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और बोला- तारा, तुमने मुझे जीत लिया। तुम्हारा ऐश्वर्य, धन और सौन्दर्य जो कुछ न कर सका, वह तुम्हारी सेवा ने कर दिखाया। तुमने मुझे अपने प्रेम में आसक्त कर लिया। अब मैं तुम्हारा दास हूँ। बोलो, तुम मुझसे क्या चाहती हो ? तुम्हारे संकेत पर अब मैं अपना योग और वैराग्य सब कुछ न्योछावर कर देने के लिए प्रस्तुत हूँ।

तारा- स्वामीजी ! मुझे अब कोई इच्छा नहीं। मैं केवल सेवा की आज्ञा चाहती हूँ।
साधु- मैं दिखा दूँगा कि ऐसे योग साधकर मनुष्य का हृदय भी निर्जीव भी नहीं होता। मैं भँवरे के सदृश तुम्हारे सौन्दर्य पर मंडराऊँगा। पपीहे की तरह तुम्हारे प्रेम की रट लगाऊँगा। हम दोनों प्रेम की नौका पर ऐश्वर्य और वैभव की नदी की सैर करेंगे, प्रेम कुंजों में बैठकर प्रेम-चर्चा करेंगे और आनंद के मनोहर राग गाएँगे।
तारा ने कहा- स्वामीजी, सेवा-मार्ग पर चलकर मैं सब अभिलाषाओं से परे हो गई। अब हृदय में और कोई इच्छा शेष नहीं है।
साधु ने इन शब्दों को सुना, तारा के चरणों पर माथा नवाया और गंगा की ओर चल दिया।


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शिकारी राजकुमार

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शिकारी राजकुमार

मई का महीना और मध्याह्न का समय था। सूर्य की आँखें सामने से हटकर सिर पर जा पहुँची थीं, इसलिए उनमें शील न था। ऐसा विदित होता था मानो पृथ्वी उनके भय से थर-थर काँप रही थी। ठीक ऐसी ही समय एक मनुष्य एक हिरन के पीछे उन्मत्त चाल से घोड़ा फेंके चला आता था। उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथपथ। किन्तु मृग भी ऐसा भागता था, मानो वायु-वेग से जा रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसके पद भूमि को स्पर्श नहीं करते ! इस दौड़ की जीत-हार पर उसका जीवन-निर्भर था।

पछुआ हवा बड़े जोर से चल रही थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो अग्नि और धूल की वर्षा हो रही हो। घोड़े के नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे और अश्वारोही के सारे शरीर का रुधिर उबल-सा रहा था। किन्तु मृग का भागना उसे इस बात का अवसर न देता था कि अपनी बंदूक को सम्हाले। कितने ही ऊँख के खेत, ढाक के वन और पहाड़ सामने पड़े और तुरन्त ही सपनों की सम्पत्ति की भाँति अदृश्य हो गए।

क्रमश: मृग और अश्वारोही के बीच अधिक अंतर होता जाता था कि अचानक मृग पीछे की ओर मुड़ा। सामने एक नदी का बड़ा ऊंचा कगार दीवार की भाँति खड़ा था। आगे भागने की राह बन्द थी और उस पर से कूंदना मानो मृत्यु के मुख में कूंदना था। हिरन का शरीर शिथिल पड़ गया। उसने एक करुणा भरी दृष्टि चारों ओर फेरी। किन्तु उसे हर तरफ मृत्यु-ही-मृत्यु दृष्टिगोचर होती थी। अश्वारोही के लिए इतना समय बहुत था। उसकी बंदूक से गोली क्या छूटी, मानो मृत्यु के एक महाभयंकर जय-ध्वनि के साथ अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला उगल दी। हिरन भूमि पर लोट गया।

2

मृग पृथ्वी पर पड़ा तड़प रहा था और उसने अश्वारोही की भयंकर और हिंसाप्रिय आँखों से प्रसन्नता की ज्योति निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसने असाध्य साधन कर लिया। उसने पशु के शव को नापने के बाद उसके सींगों को बड़े ध्यान से देखा और मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था कि इससे कमरे की सजावट दूनी हो जाएगी और नेत्र सर्वदा उस सजावट का आनन्द सुख से भोगेंगे।

जब तक वह इस ध्यान में मग्न था, उसको सूर्य की प्रचंड किरणों का लेश मात्र भी ध्यान न था, किन्तु ज्योंही उसका ध्यान उधर फिरा, वह उष्णता से विह्वल हो उठा और करुणापूर्ण आँखें नदीं की ओर डालीं, लेकिन वहाँ तक पहुँचने का कोई मार्ग न दीख पड़ा और न कोई वृक्ष ही दीख पड़ा, जिसकी छाँह में वह जरा विश्राम करता।
इसी चिंतावस्था में एक दीर्घकाय पुरुष नीचे से उछलकर कगारे के ऊपर आया और अश्वारोही उसको देखकर बहुत ही अचम्भित हुआ। नवागंतुक एक बहुत ही सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था। मुख के भाव उसके हृदय की स्वच्छता और चरित्र की निर्मलता का पता देते थे। वह बहुत ही दृढ़-प्रतिज्ञ, आशा-निराशा तथा भय से बिलकुल बेपरवाह-सा जान पड़ता था। मृग को देखकर उस संन्यासी ने बड़े स्वाधीन भाव से कहा- राजकुमार, तुम्हें आज बहुत ही अच्छा शिकार हाथ लगा। इतना बड़ा मृग इस सीमा में कदाचित् ही दिखाई पड़ता है।
राजकुमार के अचम्भे की सीमा न रही, उसने देखा कि साधु उसे पहचानता है।
राजकुमार बोला- जी हाँ ! मैं भी यही खयाल करता हूँ। मैंने भी आज तक इतना बड़ा हिरन नहीं देखा। लेकिन इसके पीछे मुझे आज बहुत हैरान होना पड़ा।
संन्यासी ने दयापूर्वक कहा- नि:संदेह तुम्हें दु:ख उठाना पड़ा होगा। तुम्हारा मुख लाल हो रहा है और घोड़ा भी बेदम हो गया है। क्या तुम्हारे संगी बहुत पीछे रह गए ?
इसका उत्तर राजकुमार ने बिलकुल लापरवाही से दिया, मानो उसे इसकी कुछ चिंता न थी !
संन्यासी ने कहा- यहाँ ऐसी कड़ी धूप और आंधी में खड़े तुम कब तक उनकी राह देखोगे ? मेरी कुटी में चलकर जरा विश्राम कर लो। तुम्हें परमात्मा ने ऐश्वर्य दिया है, लेकिन कुछ देर के लिए संन्यासश्रम का रंग भी देखो और वनस्पतियों और नदी के शीतल जल का स्वाद लो।

यह कहकर संन्यासी ने उस मृग के रक्तमय मृत शरीर को ऐसी सुगमता से उठाकर कंधे पर धर लिया, मानो वह एक घास का गट्ठा था और राजकुमार से कहा- मैं तो प्राय: कगार से ही नीचे उतर जाया करता हूं, किन्तु तुम्हारा घोड़ा सम्भव है, न उतर सके। अतएव ‘एक दिन की राह छोड़कर छ: मास की राह’ चलेंगे। घाट यहाँ से थोड़ी ही दूर है और वहीं मेरी कुटी है।
राजकुमार संन्यासी के पीछे चला। उस संन्यासी के शारीरिक बल पर अचम्भा हो रहा था। आध घंटे तक दोनों चुपचाप चलते रहे। इसके बाद ढालू भूमि मिलनी शुरू हुई और थोड़ी देर में घाट आ पहुँचा। वहीं कदम्ब-कुंज की घनी छाया में, जहाँ सर्वदा मृगों की सभा सुशोभित रहती, नदी की तरंगों का मधुर स्वर सर्वदा सुनाई दिया करता, जहाँ हरियाली पर मयूर थिरकते, कपोतादि पक्षी मस्त होकर झूमते, लता-द्रुमादि से सुशोभित संन्यासी की एक छोटी-सी कुटी थी।

3

संन्यासी की कुटी हरे-भरे वृक्षों के नीचे सरलता और संतोष का चित्र बन रही थी। राजकुमार की अवस्था वहाँ पहुँचते ही बदल गई। वहाँ की शीतल वायु का प्रभाव उस समय ऐसा पड़ा, जैसा मुरझाते हुए वृक्ष पर वर्षा का। उसे आज विदित हुआ कि तृप्ति कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों ही पर निर्भर नहीं है और न निद्रा सुनहरे तकियों की ही आवश्यकता रखती है।
शीतल, मंद, सुगंध, वायु चल रही थी। सूर्य भगवान् अस्पताल को प्रयाण करते हुए इस लोक को तृषित नेत्रों से देखते जाते थे और संन्यासी एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ गा रहा था-
‘ऊधो कर्मन की गति न्यारी।’
राजकुमार के कानों में स्वर की भनक पड़ी, उठ बैठा और सुनने लगा। उसने बड़े-बड़े कलावंतों के गाने सुने थे, किन्तु आज जैसा आनंद उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ था। इस पद ने उसके ऊपर मानो मोहिनी मंत्र का जाल बिछा दिया। वह बिलकुल बेसुध हो गया। संन्यासी की ध्वनि में कोयल की कूक सरीखी मधुरता थी।

सम्मुख नदी का जल गुलाबी चादर की भाँति प्रतीत होता था। कूलद्वय की रेत चंदन की चौकी-सी दीखती थी। राजकुमार को यह दृश्य स्वर्गीय-सा जान पड़ने लगा। उस पर तैरने वाले जल-जंतु ज्योतिर्मय आत्मा के सदृश दीख पड़ते थे, जो गाने का आनन्द उठाकर मत्त-से हो गए थे।
जब गाना समाप्त समाप्त हो गया, राजकुमार संन्यासी के सामने बैठ गया और भक्तिपूर्वक बोला- महात्मन्, आपका प्रेम और वैराग्य सराहनीय है। मेरे हृदय पर इसका जो प्रभाव पड़ा है, वह चिरस्थायी रहेगा। यद्यपि सम्मुख प्रशंसा करना सर्वथा अनुचित है, किन्तु इतना मैं अवश्य कहूँगा कि आपके प्रेम की गंभीरता सराहनीय है। यदि मैं गृहस्थी के बंधन में न पड़ा होता तो, आपके चरणों से पृथक् होने का ध्यान स्वप्न में भी न करता।
इसी अनुरागावस्था में राजकुमार कितनी ही बातें कह गया, जो कि स्पष्ट रूप से उसके आन्तरिक भावों का विरोध करती थीं। संन्यासी मुस्कराकर बोला- तुम्हारी बातों से मैं बहुत प्रसन्न हूँ और मेरी उत्कट इच्छा है कि तुमको कुछ देर ठहराऊँ, किन्तु यदि मैं जाने भी दूँ, तो इस सूर्यास्त के समय तुम जा नहीं सकते। तुम्हारा रीवाँ पहुँचना दुष्कर हो जाएगा। तुम जैसे आखेट-प्रिय हो, वैसा ही मैं भी कदाचित् तुम भय से न रुकते, किन्तु शिकार के लालच से अवश्य रहोगे।
राजकुमार को तुरन्त ही मालूम हो गया कि जो बातें उन्होंने अभी-अभी संन्यासी से कहीं थीं, वे बिलकुल ही ऊपरी और दिखावे की थीं और हार्दिक भाव उनसे प्रकट नहीं हुए थे। आजन्म संन्यासी के समीप रहना तो दूर, वहाँ एक रात बिताना उसको कठिन जान पड़ने लगा। घरवाले उद्विग्न हो जाएँगे और मालूम नहीं क्या सोचेंगे। साथियों की जान संकट में होगी। घोड़ा बेदम हो रहा है। उस पर 40 मील जाना बहुत ही कठिन और बड़े साहस का काम है। लेकिन यह महात्मा शिकार खेलते हैं, यह बड़ी अजीब बात है। कदाचित् यह वेदांती हैं, ऐसे वेदांती जो जीवन और मृत्यु मनुष्य के हाथ नहीं मानते, इनके साथ शिकार में बड़ा आनंद आएगा।
यह सब सोच-विचारकर उन्होंने संन्यासी का आतिथ्य स्वीकार किया और अपने भाग्य की प्रशंसा की जिसने उन्हें कुछ काल तक और साधु-संग से लाभ उठाने का अवसर दिया।

4

रात दस बजे का समय था। घनी अंधियारी छायी हुई थी। संन्यासी ने कहा- अब हमारे साथ चलने का समय हो गया है।
राजकुमार पहले से ही प्रस्तुत था। बंदूक कंधे पर रख, बोला- इस अधंकार में शूकर अधिकता से मिलेंगे। किन्तु ये पशु बड़े भयानक हैं।
संन्यासी ने एक मोटा सोटा हाथ में लिया और कहा- कदाचित् इससे भी अच्छे शिकार हाथ आएँ। मैं जब अकेला जाता हूँ, कभी खाली नहीं लौटता। आज तो हम दो हैं।
दोनों शिकारी नदी के तट पर नालों और रेतों के टीलों को पार करते और झाड़ियों से अटकते चुपचाप चले जा रहे थे। एक ओर श्यामवर्ण नदी थी, जिसमें नक्षत्रों का प्रतिबिम्ब नाचता दिखाई देता था और लहरें गाना गा रही थीं। दूसरी ओर घनघोर अंधकार, जिसमें कभी-कभी केवल खद्योतों के चमकने से एक क्षणस्थायी प्रकाश फैल जाता था। मालूम होता था कि वे भी अँधेरे में निकलने से डरते हैं।

ऐसी अवस्था में कोई एक घंटा चलने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ एक ऊँचे टीले पर घने वृक्षों के नीचे आग जलती दिखाई पड़ी। उस समय इन लोगों को मालूम हुआ कि संसार के अतिरिक्त और भी वस्तुए हैं।
संन्यासी ने ठहरने का संकेत किया। दोनों एक पेड़ की ओट में खड़े होकर ध्यानपूर्वक देखने लगे। राजकुमार ने बंदूक भर ली। टीले पर एक बड़ा छायादार वट-वृक्ष भी था। उसी के नीचे अंधकार में 10-12 मनुष्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित मिर्जई पहने चरस का दम लगा रहे थे। इनमें से प्राय: सभी लम्बे थे। सभी के सीने चौड़े और हृष्ट-पुष्ट। मालूम होता था कि सैनिकों का एक दल विश्राम कर रहा है।
राजकुमार ने पूछा- यह लोग शिकारी है। ये राह चलते यात्रियों का शिकार करते हैं। ये बड़े भयानक हिंसक पशु हैं। इनके अत्याचारों से गाँव के गाँव बरबाद हो गए और जितनों को इन्होंने मारा है, उनका हिसाब परमात्मा ही जानता है। यदि आपकों शिकार करना हो तो इनका शिकार कीजिए। ऐसा शिकार आप बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं पा सकते। यही पशु हैं, जिन पर आपको शस्त्रों का प्रहार करना उचित है। राजाओं और अधिकारियों के शिकार यही हैं। इससे आपका नाम और यश फैलेगा।

5

राजकुमार के जी में आया कि दो-एक को मार डालें। किन्तु संन्यासी ने रोका और कहा- इन्हें छेड़ना ठीक नहीं। अगर यह कुछ उपद्रव न करें, तो भी बचकर निकल जाएँगे। आगे चलो, सम्भव है कि इससे अच्छे शिकार हाथ आएँ।
तिथि सप्तमी थी। चंद्रमा भी उदय हो आया। इन लोगों ने नदी का किनारा छोड़ दिया था। जंगल भी पीछे रह गया था। सामने एक कच्ची सड़क दिखाई पड़ी और थोड़ी देर में कुछ बस्ती भी दीख पड़ने लगी। संन्यासी एक विशाल प्रासाद के सामने आकर रुक गए और बोले- आओ, इस मौलसरी के वृक्ष पर बैठें। परन्तु देखो, बोलना मत; नहीं तो दोनों की जान के लाले पड़ जाएँगे। इसमें एक बड़ा भयानक हिंसक जीव रहता है, जिसने अनगिनत जीवधारियों का वध किया। कदाचित् हम लोग आज इसको संसार से मुक्त कर दें।

राजकुमार बहुत प्रसन्न हुआ और सोचने लगा- चलो, रात-भर की दौड़ तो सफल हुई, दोनों मौलसरी पर चढ़कर बैठ गए। राजकुमार ने अपनी बंदूक सम्भाल ली और शिकार की, जिसे वह तेन्दुआ समझे हुए था, वाट देखने लगा।
रात आधी से अधिक व्यतीत हो चुकी थी। यकायक महल के समीप कुछ हलचल मालूम हुई और बैठक के द्वार खुल गए। मोमबत्तियों के जलने से सारा हाता प्रकाशमान हो गया। कमरे के हर कोने में सुख की सामग्री दिखाई दे रही थी। बीच में एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य गले में रेशमी चादर डाले, माथे पर केसर का अर्ध-लम्बाकार तिलक लगाए, मसनद का सहारे बैठा सुनहरी मुँहनाल से लच्छेदार धुँआ फेंक रहा था। इतने ही में उन्होंने देखा कि नर्तकियों के दल-के-दल चले आ रहे हैं। उनके हाव-भाव व कटाक्ष के शेर चलने लगे। समाजियों ने सुर मिलाया। गाना आरम्भ हुआ और साथ ही साथ मद्यपान भी चलने लगा।

राजकुमार ने अचम्भित होकर पूछा- यह तो बहुत बड़ा रईस जान पड़ता है ?
संन्यासी ने उत्तर दिया- नहीं, यह रईस नहीं है, एक बड़े मंदिर के महंत हैं, साधु हैं। संसार का त्याग कर चुके हैं। सांसारिक वस्तुओं की ओर आँख नहीं उठाते, पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान की बातें करते हैं। यह सब सामान इनकी आत्मा की प्रसन्नता के लिए है। इंद्रियों को वश किये हुए इन्हें बहुत दिन हुए। सहस्त्रों सीधे-साधे मनुष्य इन पर विश्वास करते हैं। इनको अपना देवता समझते हैं। यदि आप शिकार करना चाहते हैं, तो इनका कीजिए। यही राजाओं और अधिकारियों के शिकार हैं। ऐसे रँगे हुए सियारों से संसार को मुक्त करना आपका परम धर्म है। इससे आपकी प्रजा का हित होगा तथा आपका नाम और यश फैलेगा।

दोनों शिकारी नीचे उतरे ! संन्यासी ने कहा- अब रात अधिक बीत चुकी है। तुम बहुत थक गए होगे। किन्तु राजकुमारों के साथ आखेट करने का अवसर मुझे बहुत कम प्राप्त होता है। अतएव एक शिकार का पता और लगाकर तब लौटेंगे।
राजकुमार को इन शिकारों में सच्चे उपदेश का सुख प्राप्त हो रहा था। बोला- स्वामीजी, थकने का नाम न लीजिए। यदि मैं वर्षों आपकी सेवा में रहता, तो और न जाने कितने आखेट करना सीख जाता।
दोनों फिर आगे बढ़े। अब रास्ता स्वच्छ और चौड़ा था। हाँ, सड़क कदाचित् कच्ची ही थी। सड़क के दोनों ओर वृक्षों की पंक्तियाँ थीं। किसी-किसी आम्र वृक्ष के नीचे रखवाले सो रहे थे। घंटे भर बाद दोनों शिकारियों ने एक ऐसी बस्ती में प्रवेश किया, जहाँ की सड़कों, लालटेनों और अट्टालिकाओं से मालूम होता था कि बड़ा नगर है। संन्यासी जी एक विशाल भवन के सामने एक वृक्ष के नीचे ठहर गए और राजकुमार से बोले- यह सरकारी कचहरी है। यहाँ राज्य का बड़ा कर्मचारी रहता है। उसे सूबेदार कहते हैं। उनकी कचहरी दिन को भी लगती है रात को भी। यहाँ न्याय सुवर्ण और रत्नादिकों के मोल बिकता है। यहाँ की न्यायप्रियता द्रव्य पर निर्भर है। धनवान दरिद्रों को पैरों तले कुचलते हैं और उनकी गोहार कोई भी नहीं सुनता।

यहीं बातें हो रही थीं कि यकायक कोठे पर दो आदमी दिखलाई पड़े। दोनों शिकारी वृक्ष की ओट में छिप गए। संन्यासी ने कहा- शायद सूबेदार साहब कोई मामला तय कर रहे हैं।
ऊपर से आवाज आयी- तुमने एक विधवा स्त्री की जायदाद लेली है; मैं इसे भली-भाँति जानता हूँ। यह कोई छोटा मामला नहीं है। इसमें एक सहस्र से कम पर मैं बातचीत करना नहीं चाहता।
राजकुमार ने इससे अधिक सुनने की शक्ति न रही। क्रोध के मारे नेत्र लाल हो गए। यही जी चाहता था कि इस निर्दयी का अभी वध कर दूँ। किन्तु संन्यासीजी ने रोका बोले- आज इस शिकार का समय नहीं है। यदि आप ढूँढेंगे तो ऐसे शिकार बहुत मिलेंगे। मैंने इनके कुछ ठिकाने बतला दिये हैं। अब प्रात: काल होने में अधिक विलम्ब नहीं है। कुटी यहाँ से अभी दस मील दूर होगी। आइए, शीघ्र चलें।

6

दोनों शिकारी तीन बजते-बजते फिर कुटी में लौट आये। उस समय बड़ी सुहावनी रात थी, शीतल समीर ने हिला-हिलाकर वृक्षों और पत्तों की निद्रा भंग करना आरम्भ कर दिया था।
आध घंटे में राजकुमार तैयार हो गए। संन्यासी में अपनी विश्वास और कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनके चरणों पर अपना मस्तक नवाया और घोड़े पर सवार हो गए।
संन्यासी ने उनकी पीठ पर कृपापूर्वक हाथ फेरा। आशीर्वाद देकर बोले- राजकुमार, तुमसे भेंट होने से मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। परमात्मा ने तुम्हें अपनी सृष्टि पर राज करने के हेतु जन्म दिया है। तुम्हारा धर्म है कि सदा प्रजापालक बनो। तुम्हें पशुओं का वध करना उचित नहीं। दीन पशुओं के वध करने में कोई बहादुरी नहीं, कोई साहस नहीं; सच्चा साहस और सच्ची बहादुरी दीनों की रक्षा और उनकी सहायता करने में है; विश्वास मानो, जो मनुष्य केवल चित्तविनोदार्थ जीवहिंसा करता है, वह निर्दयी घातक से भी कठोर-हृदय है। वह घातक के लिए जीविका है, किन्तु शिकारी के लिए केवल दिल बहलाने का एक सामान। तुम्हारे लिए ऐसे शिकारों की आवश्यकता है, जिसमें तुम्हारी प्रजा को सुख पहुँचे। नि:शब्द पशुओं का वध न करके तुमको उन हिंसकों के पीछे दौड़ना चाहिए, जो धोखा-धड़ी से दूसरे का वध करते हैं। ऐसे आखेट करो, जिससे तुम्हारी आत्मा को शान्ति मिले। तुम्हारी कीर्ति संसार में फैले। तुम्हारा काम वध करना नहीं, जीवित रखना है। यदि वध करो, तो केवल जीवित रखने के लिए। यही तुम्हारा धर्म है। जाओ, परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें।

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बलिदान

मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का साहस नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से मित्रता कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो आंखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे मटियामेट कर दिया। धीर-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, गाहक टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। परन्तु उसके मुख पर अब भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है। इस पर काल की गति का प्रभाव नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। भले दिन मनुष्य के चरित्र पर सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा जमीन है, केवल दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।

लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।
हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी थी। वह बीमार जरूर पड़ता, कुआँर मास में मलेरिया से कभी न बचता था। लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए ही चंगा हो जाता था। इस वर्ष कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवाह न की। परन्तु अब की ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था। एक सप्ताह बीता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया, पर हरखू चारपाई से न उठा। अब उसे दवा की जरूरत मालूम हुई। उसका लड़का गिरधारी कभी नीम की सीखे पिलाता, कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़। पर इन औषधियों से कोई फायदा न होता था। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए।
एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गए। बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम नाम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा- बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; कुनैन क्यों नहीं खाते ? हरखू ने उदासीन भाव से कहा- तो लेते आना।

दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा- बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी की देह थोड़े है कि बिना दवा-दर्पण के अच्छे हो जाओगे।
हरखू ने उसी मंद भाव से कहा- तो लेते आना। लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर देना उसे दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची समवेदना से। न मंगलसिंह ने खबर ली, न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ही ने। हरखू दालान में खाट पर पड़ा रहता। मंगल सिंह कभी नजर आ जाते तो कहता-भैया, वह दवा नहीं लाए ?
मंगलसिंह कतराकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते, तो उनसे भी यही प्रश्न करता। लेकिन वह भी नजर बचा जाते। या तो उसे सूझता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को भी जान से प्रिय समझता था, अथवा जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी दशा दिनोंदिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया। गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूमधाम के साथ निकाला ! क्रियाकर्म बड़े हौसले से किया। कई गाँव के ब्राह्मणों को निमंत्रित किया।
बेला में होली न मनायी गई, न अबीर न गुलाल उड़ी, न डफली बजी, न भंग की नालियाँ बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढ़े को आज ही मरना था; दो-चार दिन बाद मरता।
लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनंद मनाता। वह शरीर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ोसी को रोने-पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती।

2

हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे। पाँचों बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद-पाँस से लदी हुई मेंड-बाँध से ठीक थी। उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं। हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धावे होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फँसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थीं। कोई साल-भर का लगान देने पर तैयार था, कोई नजराने की दूनी रकम का दस्तावेज लिखने पर तुला हुआ था। लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे। उनका विचार था कि गिरधारी के बाप ने खेतों को बीस वर्ष तक जोता है, इसलिए गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है। वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे, तो खेत उसी को देने चाहिए। अस्तु, जब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत्त हो गया और उससे पूछा- खेती के बारे में क्या कहते हो ?
गिरधारी ने रोकर कहा- सरकार, इन्हीं खेतों ही का तो आसरा है, जोतूँगा नहीं तो क्या करूँगा।
ओंकारनाथ- नहीं, जरूर जोतो खेत तुम्हारे हैं। मैं तुमसे छोड़ने को नहीं कहता। हरखू ने उसे बीस साल तक जोता। उन पर तुम्हारा हक है। लेकिन तुम देखते हो, अब जमीन की दर कितनी बढ़ गई है। तुम आठ रुपये बीघे पर जोतते थे, मुझे दस रुपये मिल रहे हैं और नजराने के सौ अलग। तुम्हारे साथ रियासत करके लगान वही रखता हूँ, पर नजराने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे।
गिरधारी- सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा ? जो कुछ जमा-जथा थी, दादा के काम में उठ गई। अनाज खलिहान में है। लेकिन दादा के बीमार हो जाने से उपज भी अच्छी नहीं हुई। रुपये कहाँ से लाऊँ ?
ओंकरानाथ- यह सच है, लेकिन मैं इससे ज्यादा रिआयत नहीं कर सकता।
गिरधारी-नहीं सरकार ! ऐसा न कहिए। नहीं तो हम बिना मारे मर जाएँगे। आप बड़े होकर कहते हैं, तो मैं बैल-बछिया बेचकर पचास रुपया ला सकता हूँ। इससे बेशी की हिम्मत मेरी नहीं पड़ती।
ओंकारनाथ चिढ़कर बोले- तुम समझते होगे कि हम ये रुपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंशी बजाते हैं। लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुजरती है, हम भी जानते हैं। कहीं यह चंदा, कहीं वह चंदा; कहीं यह नजर, कहीं वह नजर, कहीं यह इनाम, कहीं वह इनाम। इनके मारे कचूमर निकल जाता है। बड़े दिन में सैकड़ों रुपये डालियों में उड़ जाते हैं। जिसे डाली न दो, वही मुँह फुलाता है। जिन चीजों के लिए लड़के तरसकर रह जाते हैं, उन्हें बाहर से मँगवाकर डालियाँ सजाता हूँ। उस पर कभी कानूनगों आ गए, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहब का लश्कर आ गया। सब मेरे मेहमान होते हैं। अगर न करूँ तो नक्कू बनूँ और सबकी आँखों में काँटा बन जाऊँ। साल में हजार बारह सौ मोदी को इसी रसद-खुराक के मद में देने पड़ते हैं। यह सब कहाँ से आएँ ? बस, यही जी चाहता है कि छोड़कर चला जाऊँ। लेकिन हमें परमात्मा ने इसलिए बनाया है कि एक से रुपया सताकर लें और दूसरे को रो-रोकर दें, यही हमारा काम है। तुम्हारे साथ इतनी रियासत कर रहा हूँ। मगर तुम इतनी रियासत पर भी खुश नहीं होते तो हरि इच्छा। नज़राने में एक पैसे की भी रिआयत न होगी। अगर एक हफ्ते के अंदर रुपए दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे, नहीं तो नहीं। मैं कोई दूसरा प्रबंध कर दूँगा।

3

गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। 100 रुपये का प्रबंध करना उसके काबू के बाहर था। सोचने लगा, अगर दोनों बैल बेच दूँ तो खेत ही लेकर क्या करूँगा ? घर बेचूँ तो यहाँ लेने वाला ही कौन है ? और फिर बाप दादों का नाम डूबता है। चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेचकर 25 रुपये या 30 रुपये से अधिक न मिलेंगे। उधार लूँ तो देता कौन है ? अभी बनिये के 50 रुपये सिर पर चढ़ हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं हैं, नहीं उन्हीं को बेचता। ले देकर एक हँसली बनवायी थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है। साल-भर हो गया, छुड़ाने की नौबत न आयी। गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिंता में पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था। गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती। खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूक-सी उठने लगती। हाय ! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें मेड़ें रखीं, जिसकी मेड़ें बनायी, उसका मजा अब दूसरा उठाएगा।

वे खेत गिरधारी के जीवन का अंश हो गए थे। उनकी एक-एक अंगुल भूमि उसके रक्त में रँगी हुई थी। उनके एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो रहा था।
उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसो था, कोई बाईसो था, कोई नालबेला, कोई तलैयावाला। इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था। वह इन खेतों की चर्चा इस, तरह करता, मानो वे सजीव हैं। मानो उसके भले-बुरे के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मिठाइयाँ, सारे हवाई किले, इन्हीं खेतों पर अवलम्बित थे।

इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था। और वे ही सब हाथ से निकले जाते हैं। वह घबराकर घर से निकल जाता और घंटों खेतों की मेडों पर बैठा हुआ रोता, मानो उनसे विदा हो रहा है। इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बंदोबस्त न कर सका। आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने 100 रुपये नजराने देकर 10 रुपये बीघे पर खेत ले लिये। गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली। एक क्षण के बाद वह अपने दादा का नाम लेकर बिलख-बिलखकर रोने लगा। उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। ऐसा मालूम होता था, मानो हरखू आज ही मरा है।

4

लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के घर गयी। और उसकी स्त्री को खूब लथेड़ा- कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं। देखें, कौन मेरे खेत में हल ले जाता है ? अपना और उसका लोहू एक कर दूँ। पड़ोसिन ने उसका पक्ष लिया, तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे ? सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका चित्त बहुत शांत हो गया। किन्तु वही वायु, जो पानी में लहरे पैदा करती हैं, वृक्षों की जड़ से उखाड़ डालती है। सुभागी तो पड़ोसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती।
इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा ? अब यह जीवन कैसे कटेगा ? ये लड़के किसके द्वार पर जाएँगे ? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान को सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था। उसके घर में धन न था, पर मान था। नाई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार ये सब उसका मुँह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहाँ ? अब कौन उसकी बात पूछेगा ? कौन उसके द्वार आएगा ? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा। अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी। अब पहर रात रहे, कौन बैलों को नाँद में लगाएगा। वह दिन अब कहां, जब गीत गाकर हल चलाता था। चोटी का पसीना एड़ी तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी। अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर फूला न समाता था। खलिहान में अनाज का ढेर सामने रखे हुए अपने को राजा समझता था। अब अनाज को टोकरे भर-भरकर कौन लाएगा ? अब खेती कहाँ ? बखार कहाँ ?

यही सोचते-सोचते गिरधारी की आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी। गाँव के दो-चार सज्जन, जो कालिकादीन से जलते थे, कभी-कभी गिरधारी को तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनसे भी खुलकर न बोलता। उसे मालूम होता था कि मैं सबकी नजरों में गिर गया हूँ।
अगर कोई समझता था कि तुमने क्रिया-कर्म में व्यर्थ इतने रुपये उड़ा दिये, तो उसे बहुत दु:ख होता। वह अपने उस काम पर जरा भी न पछताता। मेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है वह होगा, पर दादा के ऋण से तो उऋण हो गया; उन्होंने अपनी जिंदगी में चार को खिलाकर खाया। क्या मरने के पीछे उन्हें पिंडे-पानी को तरसाता ?
इस प्रकार तीन मास बीत गए और आषाढ़ आ पहुँचा। आकाश में घटाएँ आयीं, पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे। बढ़ई हलों की मरम्मत करने लगा। गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता, कभी बाहर जाता, अपने हलों को निकाल देखता, इसकी मुठिया टूट गई है, इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैला नहीं है। देखते-देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया। दौड़ा हुई बढ़ई के यहाँ गया और बोला- रज्जू, मेरे हाल भी बिगड़े हुए है, चलो बना दो। रज्जू ने उसकी ओर करुण-भाव से देखा और अपना काम करने लगा। गिरधारी को होश आ गया, नींद से चौक पड़ा, ग्लानि से उसका सिर झुक गया, आंखें भर आयीं। चुपचाप घर चला आया।

गाँव में चारों ओर हलचल मची हुई थी। कोई सन के बीज खोजता फिरता था, कोई जमींदार के चौपाल से धान के बीज लिये आता था, कहीं सलाह होती, किस खेत में क्या बोना चाहिए। गिरधारी ये बातें सुनता और जलहीन मछली की तरह तड़पता था।

5

एक दिन संध्या समय गिरधारी खड़ा अपने बैलों को खुजला रहा था कि मंगलसिंह आये और इधर-उधर की बातें करके बोले- गोई को बाँधकर कब तक खिलाओगे ? निकाल क्यों नहीं देते?
गिरधारी ने मलिन भाव से कहा-हाँ, कोई गाहक आये तो निकाल दूँ।
मंगलसिंह- एक गाहक तो हमीं हैं, हमीं को दे दो।
गिरधारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कि तुलसी बनिया आया और गरजकर बोला- गिरधारी ! तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं, वैसा कहो। तीन महीने से हील-हवाला करते चले आते हो। अब कौन खेती करते हो कि तुम्हारी फसल को अगोरे बैठ रहें ?
गिरधारी ने दीनता से कहा-साह, जैसे इतने दिनों माने हो, आज और मान जाओ। कल तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा।
मंगल और तुलसी के इशारों से बातें की और तुलसी भुनभुनाता हुआ चला गया। तब गिरधारी मंगलसिंह से बोला- तुम इन्हें ले लो, तो घर-के-घर ही में रह जाऊँ। कभी-कभी आँख से देख तो लिया करूँगा।
मंगलसिंह- मुझे अभी तो कोई ऐसा काम नहीं, लेकिन घर पर सलाह करूँगा।
गिरधारी- मुझे तुलसी के रुपये देने है, नहीं तो खिलाने को तो भूसा है।
मंगलसिंह- यह बड़ा बदमाश है, कहीं नालिश न कर दे।
सरल हृदय गिरधारी धमकी में आ गया। कार्यकुशल मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का अच्छा सुअवसर मिला। 80 रुपये की जोड़ी 60 रुपये में ठीक कर ली।
गिरधारी ने अब तक बैलों को न जाने किस आशा से बाँधकर खिलाया था। आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया। मंगलसिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। आह ! ये मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले, जिनके लिए पहर रात से उठकर छांटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिन्ता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा दिन-भर हरियाली उखाड़ा करता था, ये मेरी आशा की दो आँखें, मेरे इरादे के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों के दो चिह्न, मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं।

जब मंगलसिंह ने रुपये गिनकर रख दिए और बैलों को ले चले, तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रखकर खूब फूट-फूटकर रोया। जैसा कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था। सुभागी भी दालान में पड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था !
रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया। चारपाई पर पड़ा रहा। प्रात:काल सुभागी चिलम भरकर ले गयी, तो वह चारपाई पर न था। उसने समझा, कहीं गये होंगे। लेकिन जब दो-तीन घड़ी दिन चढ़ आया और वह न लौटा, तो उसने रोना-धोना शुरू किया। गाँव के लोग जमा हो गए, चारों ओर खोज होने लगी, पर गिरधारी का पता न चला।

6

संध्या हो गई थी। अँधेरा छा रहा था। सुभागी ने दिया जलाकर गिरधारी ने सिरहाने रख दिया था और बैठी द्वार की ओर तार रही थी कि सहसा उसे पैरों की आहट मालूम हुई। सुभागी का हृदय धड़क उठा। वह दौड़कर बाहर आयी इधर-उधर ताकने लगी। उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नाँद के पास सिर झुकाएँ खड़ा है।
सुभागी बोल उठी- घर आओ, वहाँ खड़े क्या कर रहे हो, आज सारे दिन कहाँ रहे ?
यह कहते हुए वह गिरधारी की ओर चली। गिरधारी ने कुछ उत्तर न दिया। वह पीछे हटने लगा और थोड़ी दूर जाकर गायब हो गया। सुभागी चिल्लायी और मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।
दूसरे दिन कालिकादीन हल लेकर अपने नए खेत पर पहुँचे, अभी कुछ अँधेरा था। वह बैलों को हल में लगा रहे थे कि यकायक उन्होंने देखा कि गिरधारी खेत की मेड़ पर खड़ा है। वही, मिर्जई, वही पगड़ी, वही सोंटा।
कालिकादीन ने कहा- अरे गिरधारी ! मरदे आदमी, तुम यहाँ खड़े हो, और बेचारी सुभागी हैरान हो रही है। कहाँ से आ रहे हो ?
यह कहते हुए बैलों को छोड़कर गिरधारी की ओर चले। गिरधारी पीछे हटने लगा और पीछेवाले कुएँ में कूँद पड़ा। कालिकादीन ने चीखमारी और हल-बैल वहीं छोड़कर भागा। सारे गाँव में शोर मच गया, लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करने लगे ! कालिकादीन को गिरधारी वाले खेतों में जाने की हिम्मत न पड़ी।
गिरधारी को गायब हुए छ: महीने बीत चुके हैं। उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भट्टे पर काम करता है और 20 रुपये महीना घर आता है। अब वह कमीज और अँगरेजी जूता पहनता है, घर में दोनों जून तरकारी पकती है और जौ के बदले गेहूँ खाया जाता है, लेकिन गाँव में उसका कुछ भी आदर नहीं। अब वह मजूर है। सुभागी अब पराये गाँव में आये कुत्ते की भाँति दबकती फिरती है। वह अब पंचायत में भी नहीं बैठती, वह अब मजदूर की माँ है।

कालिकादीन ने गिरधारी के खेतों से इस्तीफा दे दिया है, क्योंकि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ मँडराया करता है। अँधेरा होते ही वह मेंड़ पर आकर बैठ जाता है और कभी-कभी रात को उधर से उसके रोने की आवाज सुनाई देती है। वह किसी से बोलता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं। उसे केवल अपने खेतों को देखकर संतोष होता है। दीया जलने के बाद उधर का रास्ता बंद हो जाता है।
लाला ओंकारनाथ बहुत चाहते हैं कि ये खेत उठ जाएँ, लेकिन गाँव के लोग उन खेतों का नाम लेते डरते हैं।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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