Thriller कागज की किश्ती

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rajan
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Re: Thriller कागज की किश्ती

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खुर्शीद का घर वास्तव में दो कमरों का था इसलिए असल में उसकी बहन और मां को घर से कहीं चले जाने की जरूरत नहीं होती थी। उसकी बहन सोयी पड़ी थी लेकिन मां जाग रही थी। आधी रात को एक मर्द के साथ अपनी बेटी को घर आया देखकर उसके कान पर जूं भी न रेंगी।
खुर्शीद उसे जिस खूब सजे हुए बैडरूम में लाई, लल्लू उससे बहुत प्रभावित हुआ। वह बैडरूम क्या था, कीमती चीजों का गोदाम था।
“एक रण्डी के घर के लिहाज से कैसा है?” — खुर्शीद गर्वपूर्ण स्वर में बोली। लेकिन जब उसने लल्लू के चेहरे के भाव देखे तो उसे वह फिकरा जुबान से निकालने का अफसोस होने लगा।
“अब तू रण्डी नहीं है।” — लल्लू आहत भाव से बोला — “अब तू मेरी रानी है। पहले भी बोला।”
“मैं तो मजाक कर रही थी, किचू।”
“पहले तू कुछ भी थी, अब तू वो नहीं है। मेरी बीवी भला वो कैसी हो सकती है!”
“बीवी! तेरी बीवी!”
“हां। तू।”
“तू मुझे अपनी बीवी बनाना मांगता है?”
“हां।”
“क्यों?”
“अरी मूर्ख, जब तक बीवी नहीं बनेगी, बच्चे कैसे पैदा करेगी?”
“बच्चे!”
“मेरे बच्चे। हमारे बच्चे।”
“मैं तेरी बीवी कैसे बन सकती हूं?”
“क्यों नहीं बन सकती? मेरे पास पैसा है। अपनी बीवी के लिए। अपने बच्चों के लिए। अपने कुनबे के लिए। जब राजा हो” — उसने अपनी छाती को टहोका — “रानी हो” — उसने खुर्शीद का गाल थपथपाया — “तो राजकुमार भी तो होने चाहियें।”
खुर्शीद भावुक हो उठी।
“ऐसी बातें मेरे से आज तक किसी ने नहीं कीं।” — वह भर्राये स्वर में बोली।
“ऐसी बातें उसी दिल से निकलती हैं जिसमें किसी का प्यार बसा हो।”
“तू कितने बरस का है रे, किचू?”
“देख।” — लल्लू ने आंखें तरेरीं — “अगर मेरी बीवी बनना है तो मुझे किचू कहना बन्द कर। मैं कोई बच्चा हूं! मैं बालिग हूं। मर्द हूं।”
“लेकिन कितने बरस का?”
“इक्कीस बरस का।”
“और मैं चौबीस की।” — खुर्शीद संकोचपूर्ण स्वर में बोली — “यह क्या जोड़ी हुई!”
“और मैं जो देखने में भैंसा लगता हूं। यह क्या जोड़ी हुई?”
“इतनी बातें कहां से सीखा?”
“अपने उस्ताद से। टोनी से।”
“टोनी! वो तो बहुत खतरनाक गैंगस्टर है, बहुत बुरा आदमी है।”
“औरों के लिए होगा, मेरे लिए नहीं। मुझे मंगते से किसी काबिल टोनी ने बनाया है। मालूम?”
“कैसे बनाया? तुझे भी चोरी, डकैती, स्मगलिंग की राह पर लगाकर?”
“यह मैं नहीं बता सकता।”
“मैं कुर्बान जाऊं। बीवी बनाना चाहता है लेकिन यह नहीं बताना चाहता कि गृहस्थी बसाने के लिए जो पैसा दरकार होता है, वो कैसे कमाता है!”
“जब बीवी बन जाएगी तो सब कुछ बता दूंगा।”
“अभी क्या कोई कसर रह गई है बीवी बनने में?”
“हां।”
“क्या?”
“तेरी मां तो यहां नहीं आती?”
“नहीं।”
“तो फिर पास आ, बताता हूं क्या कसर रह गयी है!”
खुर्शीद पास आयी तो लल्लू बाज की तरह उस पर झपटा।
“मालूम?” — थोड़ी देर बाद जबरन उसे अपने से दूर धकेलती खुर्शीद बोली।
“क्या?” — लल्लू बोला।
“मैं तेरे से शादी बनाने को तैयार हूं।”
“बढ़िया।” — लल्लू खुश होकर बोला — “मैं कल ही तुझे अपनी मां के पास लेकर चलता हूं ताकि वो हमारी शादी करा दे।”
एंथोनी को पता था कि रात के दो बजे भी गुलफाम कहां हो सकता था।
पास्कल के बार में वो उसे जुए की मेज पर जमा मिला।
एंथोनी के इशारे पर वह उठा और उसके करीब पहुंचा। एंथोनी उसकी बांह थामकर उसे एक कोने में ले आया और बोला — “यह मैं नागप्पा के बारे में क्या सुन रहा हूं? सुना है वो मुंह फाड़ रहा है?”
“अब नहीं फाड़ रहा।” — गुलफाम धीरे से बोला।
“मतलब?”
“अभी कोई” — गुलफाम ने घड़ी पर निगाह डाली — “पचास मिनट पहले वो अपने बनाने वाले के पास पहुंच गयेला है। मुंह की जगह गले से हंसता हुआ।”
“तू उस वक्त कहां था?”
“यहीं। शाम से ही इधर ही बैठेला है। पास्कल से पूछ ले। और किसी से पूछ ले। तेरी कहीं और बात नहीं बनती तो समझ ले तू भी यहीं था।”
“हूं तो सही मैं यहीं।”
“बरोबर।”
“वो क्या मुंह फाड़ रहा था? क्या भौंकना चाहता था?”
“बोलता था विलियम का कत्ल किसी” — गुलफाम अर्थपूर्ण स्वर में बोला — “और वजह से हुआ था।”
“अच्छा! उस पिनके से डोप पैडलर में इतनी अक्ल थी?”
“थी नहीं तो कहीं से आ गई होयेंगी।”
“लेकिन अब वो चैन की नींद सो रयेला है?”
“हां।”
“तो मैं भी जा के चैन की नींद सोऊं?”
“मजे से।”
एंथोनी ने बड़े कृतज्ञ भाव से गुलफाम का कन्धा थपथपाया और वहां से विदा हो गया।
अष्टेकर हस्पताल पहुंचा।
पुलिस के एक्सपर्ट उससे पहले वहां पहुंच चुके थे और फिंगरप्रिंट्स उठवाने का और फोटो वगैरह खींचने का काम हो रहा था।
उसने नागप्पा की तरफ यूं देखा जैसे अभी भी उसके उठकर बैठ जाने की उम्मीद कर रहा हो।
फोटग्राफर को लाश के गिर्द ज्यादा ही फुदकते पाकर अष्टेकर चिढ़कर बोला — “लाश की फोटो खींच रहा है कि सिनेमा की शूटिंग कर रहा है?”
“साहब” — फोटोग्राफर विनयशील स्वर में बोला — “मेरे पर क्यों खफा होते हो? मैं तो सिर्फ अपनी ड्यूटी कर रहा हूं!”
“हां। मेरे को मालूम। हम सभी अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। यह भी।” — उसने आग्नेय नेत्रों से पाण्डुरंग की तरफ देखा — “यह भी अपनी ड्यूटी करके हटा है। पूरी मुस्तैदी से।”
“साहब” — पाण्डुरंग कांपते स्वर में बोला — “मैं तो...मैं तो...”
“बकरी की तरह मिमियाने की ड्यूटी बेहतर कर सकता हूं। यही कहने जा रहा था न!”
पाण्डुरंग के मुंह से बोल न फूटा।
तभी प्लास्टिक का एक बैग हाथ में थामे ए.एस.आई. पाकीनाथ वहां पहुंचा।
“चौथे माले के टायलट के कूड़ेदान में से यह बैग बरामद हुआ है।”
अष्टेकर ने उसमें से निकली आर्डरली की वर्दी का मुआयना किया। वर्दी की कमीज के सारे अग्रभाग पर खून के छींटे दिखाई दे रहे थे।
“इसे लैब में भिजवाओ।” — अष्टेकर बोला — “उम्मीद तो नहीं लेकिन शायद बटनों से कोई फिंगरप्रिंट उठाए जा सकते हों। यह भी चैक कराओ कि इस पर लगा खून नागप्पा के ब्लड ग्रुप से मिलता है या नहीं!”
“यस, सर।”
वर्दी के नाप को देखकर अनायास ही उसका ध्यान गुलफाम अली की ओर जा रहा था। वह वर्दी ऐन गुलफाम अली के साइज की मालूम होती थी लेकिन वह जानता था कि उससे कुछ साबित नहीं होता था। गुलफाम अली के साइज के हजारों आदमी मुम्बई में तो क्या, उस इलाके में ही हो सकते थे।
पाकीनाथ को अभी भी अदब से सामने खड़ा पाकर अष्टेकर बोला — “अब क्या है?”
“नागप्पा की खोली से बरामद जो उस्तुरा हमने लैब में भिजवाया था, उसकी रिपोर्ट आई है।”
“क्या कहती है रिपोर्ट?”
“रिपोर्ट कहती है कि उस्तुरे पर जो खून लगा पाया गया था, वह विलियम के ब्लड ग्रुप का नहीं मिलता। लेकिन साहब, विलिमय के कत्ल को तो तीन महीने हो चुके हैं। हो सकता है वह उस्तुरा किसी और के कत्ल में दोबारा...”
अष्टेकर को घूरता पाकर वह खामोश हो गया। तब उसे अनुभव हुआ कि वह अपने अफसर को बहुत मामूली बात समझाने की कोशिश कर रहा था।
“सॉरी, सर।” — वह धीरे से बोला।
“मरने वाले का कोई होता सोता है?”
“नहीं।” — पाकीनाथ इंकार में सिर हिलाता बोला — “अपनी खोली में बिल्कुल अकेला रहता था। पहले इसका एक भाई इसके साथ रहता था लेकिन वो भी पता नहीं कहां गया।”
“मुझे पता है कहां गया!” — अष्टेकर बोला — “वो जेल गया। वो पिछले डेढ़ साल से जेल में है और अभी ढ़ाई साल और वहां रहेगा।”
“ओह!”
“यह भी अजीब इत्तफाक है कि यूं मरने वालों के या तो रिश्‍तेदार होते नहीं, होते हैं तो जेल में होते हैं।”
“विलियम के साथ तो ऐसा नहीं था!”
“हां, उसके साथ ऐसा नहीं था!” — अष्टेकर धीरे से बोला — “उसके रिश्‍तेदार हैं। हैं उसके रिश्‍तेदार।”
अष्टेकर पाण्डुरंग की तरफ घूमा।
“साहब” — पाण्डुरंग लगभग गिड़गिड़ाता बोला — “मेरी कोई गलती नहीं है। मैं तो...”
“नहीं” — अष्टेकर बोला — “तेरी कोई गलती नहीं है, पाण्डुरंग। गलती तो मेरी है। नागप्पा के सिरहाने पहरे पर मुझे खुद बैठना चाहिए था। मैंने गलती की जो घर सोने चला गया।”
“साहब, मैं तो एकदम...”
“और फिर कत्ल तो होते ही रहने चाहियें। कत्ल नहीं होंगे तो हमारी नौकरियों का क्या बनेगा? कातिल ने तो हमारे पर मेहरबानी की है कि उसने हमारे इतने सारे आदमियों को” — उसने अर्धवृत में अपने मातहतों की तरफ अपना एक हाथ घुमाया — “काम करने का, अपने जौहर दिखाने का मौका दिया है।”
“साहब, मैं आग से धोखा खा गया। वो आग...”
“कोई बात नहीं। अब घर जा! तेरी बीवी, तेरे बच्चे, तेरा दूध वाला, तेरा अखबार वाला, सब तेरा इन्तजार कर रहे होंगे। जा। शाबाश।”
पिटा-सा मुंह लिए पाण्डुरंग वहां से हिला।
rajan
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कल्याण में सुबह सवेरे इन्स्पेक्टर पेनणेकर को फिफ्टी पर गोंद के थक्के पर बने अंगूठे के निशान की फिंगरप्रिंट्स रिपोर्ट प्राप्त हो गई। रिपोर्ट के मुताबिक निशान स्पष्ट था, अंगूठे का ही था लेकिन पॉजटिव आइडेन्टिफिकेशन के लिए केवल एक निशान पर्याप्त नहीं था। नोन क्रिमिनल्स के फिंगरप्रिंट्स से उसका मिलान एक इन्तहाई लम्बा काम था। अलबत्ता अगर कोई सस्पेक्ट निगाह में हो तो उसके निशानों से उसका मिलान करके कोई फौरी नतीजा निकाला जा सकता था।
पेनणेकर के पास ऐसा कोई सस्पेक्ट नहीं था।
यानी इतना स्पष्ट उठा अंगूठे का निशान फिलहाल बेमानी था, बेकार था।
नौ बजे फोन की घण्टी ने एंथोनी को नींद से जगाया।
फोन गुलफाम अली का था। वह बुरी तरह से उत्तेजित था।
“टोनी!” — वह चिल्लाया — “अड्डा लुट गया।”
“क्या बकता है!” — अधलेटा-सा फोन सुनता टोनी हड़बड़ाकर सीधा हुआ — “कौन-सा अड्डा लुट गया?”
“हमारा एक ही तो अड्डा है।”
“वो कैसे लुट गया?”
“पता नहीं। आकर देख। फाटक खुला है। अन्दर का दरवाजा खुला है। अलमारी खुली है।”
“माल सारा उठ गया?”
“मोटा माल रखा है। उठ सकने वाला उठ गया।”
“ज्यादा कीमती तो उठ सकने वाला माल ही था!”
“कैश के लिए अलमारी में से होकर दीवार में हमने जो नई तिजोरी फिट करवाई थी, वो सलामत है। जरूर चोरों को उसकी खबर नहीं लगी।”
“लल्लू कहां है?”
“मेरे पास है। उस पर शक करना बेकार है। यह उसकी करतूत नहीं। उसने कुछ किया होता तो अब तक वो दुनिया के दूसरे सिरे पर पहुंचा होता।”
“तो फिर वहां कौन पहुंच गया?”
“यह तो तू बता।”
अपने आप ही एंथोनी का ध्यान शोभा और शांता की तरफ चला गया।
“मैं आता हूं।” — वह फोन में बोला — “फौरन आता हूं।”
उसने फोन पटक दिया और कूदकर बिस्तर से निकला।
मोनिका दूसरे बैडरूम की चौखट पर खड़ी थी।
“क्या हुआ?” — उसने पूछा।
“मेरा अड्डा लुट गया।”
उसने देखा मोनिका ने वह खबर यूं सुनी जैसी एंथोनी ने उसे टाइम बताया हो। उसके चेहरे पर चिन्ता या हमदर्दी का कतई कोई भाव न आया।
तेरे से समझूंगा साली — दांत पीसता वह मन-ही-मन बोला — मैं तेरे से जबरन वही प्यार हासिल करके दिखाऊंगा जो विलियम को हासिल था। तू मेरी थी, मेरी है और मेरी रहेगी। विलियम ने तो थोड़ी देर के लिए तुझे उधार ले लिया था। सब्र। थोड़ा और सब्र। फिर तू जानेगी और मैं जानूंगा। पता नहीं किस बात का घमण्ड है तुझे लेकिन साली, तेरा घमण्ड मैं तोड़कर ही रहूंगा।
वह इमारत से बाहर निकला तो सीधा जाकर अष्टेकर की छाती से टकराया।
“धीरे। धीरे।” — अष्टेकर उसे अपने से परे करता बोला — “यूं दौड़े कहां जा रहे हो?”
“इन्स्पेक्टर साहब, मुझे एक बहुत जरूरी काम से जाना है। आप रास्ते से हटिये।”
“जरूरी काम तो आते-जाते रहते हैं, टोनी, अष्टेकर खुद चलकर रोज-रोज नहीं आता। जिससे अष्टेकर ने बात करनी होती है, वो उसे थाने तलब करता है। मैं तुम्हें थाने तलब करूं या यहीं मेरे एक सवाल का जवाब देते हो?”
“सिर्फ एक सवाल न?” — एंथोनी हथियार डालता बोला।
“कल रात एक बजे तुम कहां थे?”
“पास्कल के बार में।”
“जवाब बहुत जल्दी दिया! यूं दिया जैसे पहले से पता था कि यह सवाल पूछा जाने वाला था!”
“ऐसी कोई बात नहीं।”
“यही सवाल मैंने तुम्हारे दोस्त गुलफाम अली से भी किया था। उसने भी यूं ही टिकाकर जवाब दिया था। मेरा सवाल अभी खत्म नहीं हुआ था कि उसने जवाब फेंक मारा था।”
“अब मैं क्या कहूं, इस बारे में!”
“तो तुम पास्कल के बार में थे?”
“हां। चाहो तो पास्कल से पूछ लो।”
“पास्कल का जवाब मुझे मालूम है। तुम्हें एलीबाई देना उसका काम है। इलाके के इतने बड़े दादा को वह नाराज थोड़े ही कर सकता है!”
“आपको वहम है, इन्स्पेक्टर साहब। मैं कोई दादा-वादा नहीं। मैं तो बहुत मामूली आदमी हूं। और यह एली... एली...”
“ऐलीबाई।”
“हां, एलीबाई। यह क्या बला हुयी जिसे मुझे देना आपने पास्कल का काम बताया? वो तो साला किसी को बुखार नहीं देता। कोई बाई किधर से देगा।”
“तुम नहीं जानते एलीबाई क्या होती है?”
“नहीं।”
“कमाल है! गुण्डे-बदमाश तो चाहे कितने भी अनपढ़ क्यों न हों, इस एक विलायती लफ्ज से तो खास तौर से वाकिफ होते हैं!”
“मैं नहीं वाकिफ।”
“ठीक है। अब वाकिफ हो लो। लाइन चेंज नहीं करोगे तो आगे भी काम आएगी यह वाकफियत। एलीबाई होती है गवाही। शहादत। जब तुम होवो एक जगह लेकिन दावा दूसरी जगह होने का करो तो जो आदमी तुम्हारे दावे की तसदीक के लिए बतौर गवाह पेश होगा, वो तुम्हें एलीबाई देता माना जाएगा। अब आई बात समझ में?”
“हां। आई। लेकिन मुझे किसी की इस... ये... एलीबाई की क्या जरूरत है! इलाबाई होती, खूबसूरत होती, नौजवान होती तो कोई बात थी। तब तो...”
“बकवास बन्द।”
“इन्स्पेक्टर साहब, क्या हुआ है कल रात एक बजे जिसके लिए मुझे इलाबाई की... मेरा मतलब है एली वाली बाई की...एलीबाई की जरूरत है?”
“कल रात एक बजे नागप्पा का खून हुआ है। हजामत बनाने वाले उस्तुरे से। नागप्पा को तो जानते थे न? रामचन्द्र नागप्पा को?”
“सूरत से पहचानता था। इन्स्पेक्टर साहब, आपने एक सवाल पूछने की बात की थी। अब तो कई सवाल हो गये! अब मैं जाता हूं।”
एंथोनी आगे बढ़ा तो अष्टेकर ने उसे पकड़कर वापिस घसीट लिया। एंथोनी की आंखों में खून उतर आया। बड़ी मुश्‍किल से उसने अपने आप पर जब्त किया।
“नागप्पा का गला ऐन उसी तरीके से रेता गया है जैसे विलियम का रेता गया था। उसका कत्ल उसकी जुबान बन्द करने के लिए किया गया है। वह विलियम के बारे में कुछ जानता था लेकिन बता नहीं पाया। ...बीच में न बोलो, अभी और सुनो... उसके घर से मर्डर वैपन जैसा एक उस्तुरा बरामद हुआ था, उस पर खून के धब्बे भी थे लेकिन लैबोरेट्री में टैस्ट करने पर मालूम हुआ है कि उस्तुरे पर लगा खून विलियम के ब्लड ग्रुप जैसा नहीं था। तुम्हें इस बारे में क्या कहना है?”
“कुछ नहीं।”
“कुछ कहना चाहिए तुम्हें। तुम विलियम को अपना जिगरी दोस्त बताते थे। उसके कातिल की तलाश में तुम्हें पुलिस की मदद करनी चाहिए।”
“हैरानी है कि पुलिस को ऐसे आदमी की मदद की जरूरत है जिसे वह गैंगस्टर करार देती है।”
“हैरान हो लो लेकिन मदद भी करो।”
“विलियम के कत्ल में इतनी ज्यादा दिलचस्पी का मतलब, इन्स्पेक्टर साहब? आप तो यूं इस केस के पीछे पड़े हुए हैं जैसे आपका कोई सगेवाला कत्ल हो गया हो!”
अष्टेकर ने तुरन्त जवाब न दिया। वह कुछ क्षण खामोश रहा, फिर धीरे से बोला — “यह मेरी नौकरी है... मेरी ड्यूटी है।”
“घिसे हुए रिकार्ड की तरह आपकी नौकरी, आपकी ड्यूटी की सुई एक ही केस पर क्यों अटकी हुई है, इन्स्पेक्टर साहब?”
“अभी तुझे कहीं जाने की जल्दी है इसलिए जा।” — अष्टेकर एकाएक सांप की तरफ फुंफकारा — “लेकिन जाते-जाते एक बात सुनता जा।”
“क्या?”
“बहुत जल्द एक दिन ऐसा आएगा जब तू एक चूहे की तरह मेरे पिंजरे में फंसा तड़फड़ा रहा होगा। जब मैं तेरी बांह उखड़कर उसी से तुझे मारूंगा।”
“बायी बांह उखाड़ना इन्स्पेक्टर साहब क्योंकि दायीं से तो मैंने पुलिस के हफ्ते के चैक साइन करने होते हैं।”
“ठहर जा, साले।”
“हां, मारो मुझे। उठाओ हाथ मेरे पर। ताकि यह साबित हो जाये कि एक गैंगस्टर में और एक पुलिसिये में उन्नीस बीस का ही फर्क होता है।”
अष्टेकर का हवा में उठा हाथ अपने आप नीचे गिर गया।
उसने एक गहरी सांस ली और फिर एंथोनी के रास्ते से हट गया।
एंथोनी एक विजेता की तरह शान से चलता वहां से विदा हो गया।
पीछे खड़ा अष्टेकर ऊपर फ्लैट में रहते उस बच्चे के बारे में सोचता रहा जिसकी सूरत विलियम से मिलती थी।
कोलीवाड़े की जिस चारमंजिला चाल के एक कमरे में वीरू तारदेव रहता था, उसके नीचे एक चाय की दुकान थी जिस पर टेलीफोन लगा हुआ था। वीरू तारदेव ने शांता को खुद बताया था कि बावक्ते-जरूरत वह चाय वाला उसे फोन पर बुला देता था।
शान्ता और शोभा पोस्ट ऑफिस के टेलीफोन बूथ में घुसी हुई थीं और यह नम्बर मिलाकर वीरू तारदेव के लाइन पर आने का इन्तजार कर रही थीं।
एक लम्बे इन्तजार के बाद वीरू तारदेव लाइन पर आया तो शान्ता बड़े व्यग्र भाव से बोली — “मैं शान्ता बोल रही हूं। माल ठिकाने लगा? रोकड़ा बना?”
“इतनी जल्दी यह काम कैसे हो जायेगा?” — उसे वीरू तारदेव की आवाज सुनाई दी।
“क्यों नहीं हो जायेगा? तूने क्या कोई एक-एक आइटम बेचनी है! तूने तो कहा था कि सब माल एक ही बिचौलिया खरीदने वाला था!”
“हां। मैंने बिचौलिये से बात की थी। उसका नाम शेख मुनीर है। माटूंगा में पीजा पार्लर चलाता है। उसने मेरे को शाम को आने को बोला है।”
“हमें रोकड़ा कब मिलेगा?”
“कल सुबह। हर हालत में।”
“तू हमें कहां मिलेगा कल? कब मिलेगा?”
“कल दस बजे। शेख मुनीर के पीजा पार्लर के सामने।”
“ठीक है। हम आयेंगी। तब हमें हर हाल में रोकड़ा मिल जाना चाहिए।”
“मिल जायेगा।”
“वीरू, धोखा किया तो याद रखना...”
लेकिन वीरू तारदेव लाइन काट चुका था।
गुलफाम अली ने नुकसान को चालीस लाख के पेटे में आंका।
एंथोनी अंगारों पर लोट रहा था और पिंजरे मे बन्द शेर की तरह अड्डे के फर्श को रौंदता फिर रहा था।
गुलफाम अली और लल्लू खामोश एक तरफ बैठे थे।
एंथोनी एक बार उनके सामने ठिठका। उसने मेज पर पड़ी विस्की की बोतल उठायी, उसके साथ मुंह लगाकर एक घूंट पिया और फिर गुर्राया — “ताले बड़ी चतुराई से खोले गये हैं। कहीं कोई खरोंच नहीं। कहीं कोई निशान नहीं। यह किसी उस्ताद तालातोड़ का काम है।”
“वीरू!” — गुलफाम के मुंह से निकला — “वीरू तारदेव!”
“नक्को। वो साला पिलपिलाया हुआ बूढ़ा, न मुंह में दांत, न पेट में आंत, वो ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता। उसको तो यहां का पता भी पता नहीं हो सकता।”
“उसे हिम्मत कराने वाला, पता बताने वाला कोई मिल गया होगा!”
एंथोनी का ध्यान फौरन शान्ता और शोभा की तरफ गया।
“तुम दोनों में से कोई कभी किसी को यहां तो नहीं लाया?” — एंथोनी बोला।
दोनों के सिर इंकार में हिले।
“मैं लाया था। उन दो फंटियों को लाया था। कई बार लाया था। लेकिन सिर पर नकाब ओढ़ा कर लाया था। उस नकाब में से झांकना नामुमकिन था।”
“नकाब पर कोई ताला तो फिट नई होयेंगा!” — गुलफाम बोला।
“नकाब उन्होंने नहीं उतारी थीं। उतारी होतीं तो मुझे खबर लगती।”
“तो?”
“तो भी अगर किसी को यहां की खबर हो सकती थी तो उन्हीं दोनों को हो सकती थी। यहां की खबर लगना और बात है लेकिन यहां कीमती माल की मौजूदगी की खबर होना और बात है। यह खबर उन हरामजादियों को ही थी। उनकी खबर लेनी होगी।”
“ले लेंगे। वो बार में रोज आती हैं।”
“अगर यह करतूत उनकी हुई तो अब शायद न आयें। रहती कहां हैं?”
“पता नहीं लेकिन पता लगाया जा सकता है। ये कोई मुश्‍किल काम नेई।”
“पता लगाओ। पता लगाओ ताकि मैं अपने हाथों में उनकी गरदनें मरोड़ सकूं।”
“वो ताले नहीं खोल सकतीं। उनके साथ जो तालातोड़ था, गर्दन उसकी मरोड़नी होगी।”
“हां। उसकी भी।” — फिर वह लल्लू की तरफ घूमा — “अष्टेकर तेरे को मिला?”
“नहीं।” — लल्लू बोला।
“क्यों? तेरे घर नहीं पहुंचा वो?”
“पहुंचा होगा। मैं रात को घर नहीं गया था।”
“वो तेरे से यही सवाल करेगा कि कल रात एक बजे तू कहां था! इसका कोई चल सकने लायक जवाब सोच कर रखना।”
“क्यों?”
“नागप्पा का कत्ल हो गया है। रात एक बजे। मिशन हस्पताल में। तुझे किसी दूसरी जगह अपनी मौजूदगी साबित करके दिखानी पड़ सकती है।”
“मैं खुर्शीद के साथ था।”
“खुर्शीद के साथ! सारी रात?”
“हां।”
“नशे में इस जगह के बारे में उस रण्डी के सामने कहीं तू ही तो मुंह नहीं फाड़ बैठा था?”
“मैंने उससे ऐसी कोई बात नहीं कही। और टोनी, उसको रण्डी मत बोल।”
“रण्डी को रण्डी न बोलूं तो क्या बोलूं? साध्वी बोलूं? संन्यासिनी बोलूं? नन बोलू?”
“वो मेरी होने वाली बीवी है।”
एंथोनी हक्का-बक्का सा उसका मुंह देखने लगा।
“तू! लल्लू! शादी कर रहा है! उस... खुर्शीद से?”
“हां।”
“वो तैयार है?”
“हां।”
“अबे अहमक, पहले शादी लायक औकात तो बना ले! शादी करके बीवी कहां रखेगा? उस खोली में! अपनी मां और दादी के साथ! चारों इकट्ठे सोया करोगे?”
“मैं कहीं और जगह ले लूंगा। मेरे पास अस्सी हजार रूपये हैं।”
“अस्सी हजार रुपये हैं। साले ढंग की जगह की इससे दुगनी पगड़ी लगती है। ढंग की क्या, बेढंगी जगह की भी इससे दुगनी पगड़ी लगती है।”
“मैंने घाटकोपर वाले जिस बैंक के बारे में बताया था, उस पर जल्दी हाथ मार लेते हैं।”
“गुलफाम , सुन रहा है लल्लू की बात! साला एक बार हमारे साथ काम करने के बाद अब सलाहें देने के काबिल भी हो गया है।”
गुलफाम खामोश रहा।
rajan
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“पहला काम पहले।” — एंथोनी कर्कश स्वर में बोला — “पहले हमने उन जुड़वां आइटमों का पता लगाना है। बरोबर?”
गुलफाम ने तत्काल, और लल्लू ने हिचकिचाते हुए एक क्षण बाद, सहमति में सिर हिलाया।
माटूंगा के पीजा पार्लर के मालिक का नाम शेख मुनीर था लेकिन कभी किसी ने उसे उस नाम से पुकारा जाता नहीं सुना था। हर कोई उसे डिब्बा कहकर पुकारता था और उसे कभी भी अपने उस नाम से एतराज नहीं हुआ था।
पीजा पार्लर का मालिक और फैंस (चोरी के माल की खरीद-फरोख्त करने वाला) बनने से पहले वह कबाड़ी था और गली-गली घूमकर डिब्बे और बोतलें इकट्ठी किया करता था। उसके पुराने धन्धे में उसका नाम डिब्बा पड़ा था जोकि आज तक चला आ रहा था।
वह वीरू तारदेव को पिछवाड़े के एक बन्द कमरे में ले आया।
चोरी का सारा सामान वीरू तारदेव ने उसके सामने बिछा दिया।
माल देखकर डिब्बे की आंखें फैल गयीं। उसने यूं हैरानी से वीरू तारदेव की तरफ देखा जैसे वह कोई अजूबा हो।
“यह सारा हाथ तू मारेला है?” — डिब्बा बोला।
“हां।” — वीरू तारदेव शान से बोला।
“किधर से मारा?”
“मार दिया किधर से भी।”
“साला हलकट। तभी हजामत बनाकर आएला है और थूक का फव्वारा भी नहीं छोड़ रयेला है।”
“डिब्बे, माल देख और कीमत बोल।”
सारी घड़ियां, जेवर और नशेबाजी का स्टाक परखने में डिब्बे ने आधा घण्टा लगाया।
“पांच।” — फिर वह बोला।
“पांच।” — वीरू तारदेव हड़बड़ाया — “भेजा फिरेला है। अबे, बीस-पच्चीस का तो यह साला नशे का स्टाक ही है।”
“ये अपुन की लाइन नहीं। इसे तो अपुन तेरे पर मेहरबानी करके ले रहा है। तू इसे कहीं और बेच ले।”
“मैं और किसी को नहीं जानता।”
“क्यों नहीं जानता? तू खुद भी तो यही कुछ बेचता है!”
“रिटेल में। मेरे सप्लायर को पता लग गया कि मेरे पास इन चीजों का इतना बड़ा स्टाक है तो वह मेरी लाश गिरा देगा। वो समझेगा मैंने डायरेक्ट स्मगलिंग शुरू कर दी है।”
“अपुन तो इतना ही रोकड़ा दे सकता है।”
“बहुत कम है। तेरे कू भी मालूम है कि यह बहुत कम है।”
डिब्बा खामोश हो गया।
“तू तो...”
“ठहर, जरा सोचने दे।”
वह और कई क्षण खामोश रहा।
“ठीक है।” — अन्त में वह बोला — “तू मेरा पुराना यार है। तेरे वास्ते मैं ऐसा करता हूं, मैं यह नशे वाला माल किसी और को दिखाता हूं। अगर माल उधर चला गया तो दस पर्सेन्ट कमीशन अपुन का और सारा बाकी रोकड़ा तेरा। मंजूर?”
“मुझे पता कैसे चलेगा कि माल चल गया है? और कितने में चला है?”
“रात बारह के बाद इधर फोन करना। या कल सुबह सवेरे इधर आ जाना।”
“ठीक है लेकिन कल सुबह मेरा काम जरूर हो जाए।”
“क्यों? ऐसी क्या हड़बड़ी है?”
“मैं ये शहर छोड़ रहा हूं। हमेशा के लिए। जो रोकड़ा मिलेगा, उससे मुम्बई से बहुत दूर किसी छोटी जगह पर जाकर चैन से बुढ़ापा काटूंगा। सारी जिन्दगी कुत्ते की तरह दुर-दुर करते गुजारी है। ऊपर वाले ने मौका दिया है तो जिन्दगी के आखिरी दिन तो चैन से काट लूं।”
डिब्बा असमंजसपूर्ण निगाह से उसका मुंह देखता रहा।
लल्लू अड्डे से अपने घर लौटने की जगह फिर खुर्शीद के घर पहुंच गया।
“तू फिर आ गया!” — वह बड़े प्यार से बोली।
“हां।” — लल्लू बोला — “मेरे साथ चल।”
“कहां?”
“मेरे घर।”
“तेरे घर?”
“हां। शादी के बाद तू अपनी मां के साथ ही थोड़े ही रहती रहेगी!”
“क्या हर्ज है?”
“है हर्ज। शादी के बाद लड़की को ससुराल में रहना पड़ता है। अब कम से कम अपना ससुराल देख तो ले!”
“ससुराल!” — वह हंसी — “कौन-कौन हैं मेरे ससुराल में?”
“मेरी मां और दादी।”
“बस?”
“बस।”
“हाय, कोई देवर भी होता तो कितना मजा आता!”
“साली, देवर से आशनाई करती?”
“तो क्या हुआ? सारी भाभियां करती हैं। तेरी मां क्या बहुत ज्यादा उम्र की है? अभी बच्चा पैदा नहीं कर सकती?”
“कमीनी, वह विधवा है।”
“ओह!”
वह खुर्शीद के साथ अपनी खोली पर पहुंचा।
उसे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि खुर्शीद ने खोली से नाक न चढ़ायी।
उसको देखते ही दोनों वृद्धाओं के चेहरे खिल उठे।
“अरे, लल्लू” — दादी बोली — “तू आ गया।”
“हमारे तो प्राण सूखे हुए थे।” — मां बोली — “इतने बुरे-बुरे खयाल आ रहे थे।”
“रात को न आना हो तो” — दादी बोली — “बता कर तो जाया कर, रे। कल का गया दोपहर को लौटा है। सोचता नहीं तेरे पीछे तेरी फिक्र में हमारा क्या हाल होता होगा!”
ऐसी ही कितनी और बातें कर चुकने के बाद कहीं जाकर उनकी तवज्जो खुर्शीद की तरफ गयी।
“अरे” — मां बोली — “ये कौन है तेरे साथ?”
“मां” — लल्लू बोला — “ये तेरी बहू है।”
मां के हाथ से कड़छी छूट गयी। उसका मुंह खुले का खुला रह गया। वह हक्की-बक्की सी लल्लू का मुंह देखने लगी।
“तूने” — फिर उसके मुंह से निकला — “शादी कर ली?”
“अभी नहीं की। लेकिन करनी है।”
“करनी है! मां से बिना पूछे! दादी से बिना पूछे!”
“पूछने ही तो आया हूं!”
“शादी यूं होती है!” — दादी भुनभुनाई — “बीवी लाया है या बाजार से बकरी खरीद कर लाया है!”
खुर्शीद ने तत्काल लल्लू की तरफ देखा। लल्लू ने आंखों आंखों में उसे आश्‍वासन दिया।
“लड़की है तो बहुत सुन्दर!” — मां उसे निहारती बोली — “बेटी, नाम क्या है तेरा?”
“खुर्शीद।” — खुर्शीद धीरे से बोली।
“खुर्शीद!” — मां चिंहुक कर एकदम पीछे हटी — “तू मुसलमान है?”
“हां।”
“हूं।” — मां ने उसकी तरफ से पीठ फेर ली — “मैं चाय बनाती हूं।”
“चाय रहने दे, मां।” — मां के बदलते तेवर देखकर लल्लू बोला — “मुझे खुर्शीद को इसके घर छोड़ने जाना है।”
“एक पुलिस वाला तुझे पूछता यहां आया था। अष्टेकर नाम बताया था उसने। कहता था, थाने में बड़ा दरोगा था।”
“मुझे क्यों पूछ रहा था?”
“कहता था कि किसी हस्पताल में किसी का खून हो गया था। उसी बारे में वह तेरे से बात करना चाहता था। कहता था फिर आयेगा।”
“खुद आएगा! मुझे थाने आने के लिए नहीं बोल कर गया?”
“नहीं। कहता था क्योंकि तेरा बाप उसका दोस्त था इसलिए वह तेरा लिहाज कर रहा था।”
“हूं। मैं जा रहा हूं। अभी आता हूं।”
उसने खुर्शीद की बांह थामी और उसके साथ खोली से बाहर निकल आया।
“मुझे यह बखेड़ा तो सूझा ही नहीं था!” — बाहर सड़क पर आकर लल्लू बोला — “मुझे तो सूझा ही नहीं था कि मैं हिन्दू हूं, तू मुसलमान है।”
“ये शादी नहीं होने की।” — खुर्शीद बोली।
“ये शादी जरूर होगी।” — लल्लू दृढ़ स्वर में बोला।
“तेरी अम्मायें मुसलमान बहू कबूल करती नहीं मालूम होतीं।”
“तेरी मां भी तो हिन्दू दामाद से ऐतराज कर सकती है!”
“वो नहीं करेगी।”
“क्यों?”
“क्योंकि मेरी मां मेरे काबू में है। लेकिन तू अपनी मां के काबू में है। मैं बालिग हूं। खुदमुख्तार हूं। तू... तू लल्लू है।”
“मैं भी बालिग हूं, खुदमुख्तार हूं।” — लल्लू गुस्से से बोला — “इक्कीस साल का हूं। मेरी मां न माने, मैं फिर भी तेरे से शादी करूंगा।”
“फिर कैसे करेगा?”
“शादी कोर्ट में भी होती है। तू मेरे साथ अभी कोर्ट में चल।”
“सोच ले, लल्लू।”
“सोच लिया और तू मुझे लल्लू कहना बन्द कर।”
“ठीक है। चल।”
कोर्ट में जाकर लल्लू को मालूम हुआ कि शादी की रजिस्ट्री के लिए दो गवाहों की जरूरत होती थी और मैरिज रजिस्ट्रार को पहले एक महीने का नोटिस देना पड़ता था।
लल्लू को बड़ी मायूसी हुई।
फिर नोटिस दाखिल करके वे वापिस लौटे आये।
वापिसी में घाटकोपर के बैंक का खयाल उसे बार-बार आ रहा था।
वहां एक ही हाथ ऐसा तगड़ा पड़ सकता था कि वारे न्यारे हो जाते।
लल्लू कभी वहां कैन्टीन ब्वाय की नौकरी करता था। तभी से उसे मालूम था कि हर महीने चार बार निश्‍चित तारीख को निश्‍चित समय पर वहां से कम से कम साठ लाख रुपया एक बख्तरबन्द गाड़ी में ढ़ोया जाता था। लल्लू जो कुछ उस सिलसिले में जानता था, वह सब वह टोनी को बता चुका था।
अनायास ही लल्लू उस विपुल धनराशि में बराबर के हिस्से के सपने देखने लगा।
किंग्ज सर्कल रेलवे स्टेशन के सामने की एक चारमंजिला इमारत के करीब एंथोनी अपनी फियेट कार में बैठा सिगरेट के कश लगा रहा था।
गुलफाम अली द्वारा हासिल की जानकारी के मुताबिक उसी इमारत की दूसरी मंजिल के एक कमरे में वे दोनों फंटियां रहती थीं।
अपने कमरे में वे मौजूद नहीं थीं इसलिए एंथोनी अपनी कार में बैठा उनके लौटने का इन्तजार कर रहा था। गुलफाम को वह कहकर आया था कि अगर वो दोनों पास्कल के बार में दिखाई दें तो वह उसे वहां से बुलाकर ले जाये।
उसकी निगाह अपने आप ही इलाके में चारों तरफ घूम गयी। सड़क पर अधनंगे, फटे हाल बच्चे खेल रहे थे। उनमें से कई इसी उम्र में समैक पीना सीख चुके थे और जो कमाते थे सब समैक में फूंक देते थे, जेबकतरे और कारों के टायर चोर तो वे अभी थे, उन्हीं में से भविष्य के बड़े दादा, बड़े गैंगस्टर पैदा होने वाले थे।
कभी वह खुद भी उन्हीं की तरह फटेहाल, अधनंगा सड़क पर घूमा करता था और किसी असुरक्षित कार का पहिया उतार कर लुढ़का ले जाने की फिराक में रहा करता था।
उन दिनों अष्टेकर हवलदार हुआ करता था।
अष्टेकर उन दिनों भी उसकी नीयत पहचानता था इ‍सलिए कई बार तो आते-जाते खामख्वाह, चेतावनी के तौर पर उसे दो डण्डे जमा जाता था। ऐसा वह सिर्फ उसके साथ ही नहीं, उसकी उम्र के बाकी लड़कों के साथ भी किया करता था।
सिवाय विलियम फ्रांसिस के।
पता नहीं क्यों विलियम को वह कभी डन्डा नहीं जमाता था, उसकी तरह वह उसे कानों से पकड़कर जमीन से तीन फुट ऊंचा नहीं कर देता था। विलियम को उन दिनों जो सबसे ज्यादा मार पड़ी थी, वह एक झांपड़ था जो तब पड़ा था जबकि अष्टेकर ने विलियम और एंथोनी समेत कोई छ:-सात लड़कों को चरस पीते पकड़ा था। बाकी जनों की अष्टेकर ने मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दी थी लेकिन विलियम को सिर्फ एक झांपड़ रसीद किया था।
कोई एक घण्टे के उकता देने वाले इन्तजार के बाद एंथोनी ने शोभा और शान्ता को सड़क पर चली आती देखा।
एंथोनी ने नया सुलगाया सिगरेट फेंक दिया और अपनी पतलून की बैल्ट में खुंसी रिवॉल्वर की मूंठ को टटोला।
दोनों उसकी दिशा में निगाह उठाये बिना इमारत में दाखिल हो गयीं।
एंथोनी कार से बाहर निकला।
उनके पीछे-पीछे वह इमारत में दाखिल हुआ।
शोभा कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द कर रही थी जबकि एंथोनी ने दरवाजे को ऐसा जोर का धक्का दिया कि पल्ला उसके हाथ से छूट गया।
उसने भीतर कदम रखा।
उस पर निगह पड़ते ही दोनों के चेहरे पीले पड़ गये।
“हल्लो!” — एंथोनी बोला।
उन्होंने उत्तर न दिया।
“क्या बात है? मेरी आइटमें मुझे देखकर खुश नहीं हुयीं!”
“नहीं, टोनी।” — शान्ता बोली — “हम तो बहुत खुश हुयी है। हां, हैरानी जरूर हो रही है तुम्हें यहां देखकर।”
“हमें मालूम नहीं था” — शोभा बोली — “कि तुम्हें हमारे घर का पता मालूम था।”
“नहीं मालूम था। आज ही मालूम हुआ है।”
“कैसे आए?” — शान्ता बोली।
“तुम्हें लेने आया हूं।”
“क्या!”
“आज बोर हो रहा था इसलिए तुम दोनों की याद आ गई। चलो।”
“कहां?”
“वहीं जहां हमेशा जाती हो। मेरे अड्डे पर। चलकर मस्ती मारेंगे।”
“टोनी, वहां नहीं।” — शान्ता तुरन्त बोली।
“क्यों?” — एंथोनी के माथे पर बल पड़े।
“हमसे नकाब नहीं ओढ़ी जाती।”
“वहां बन्द माहौल में घुटन महसूस होती है।” — शोभा बोली।
“कमाल है! पहले तो ऐसी शिकायत तुम्हें कभी नहीं हुई थी!”
“हुई थी।” — शान्ता बोली — “पहले दिन से हुई थी लेकिन हम कहती नहीं थीं।”
“ओके! ओके! चलो, कहीं और चलते हैं।”
“यहीं क्यों नहीं रुक जाते हो?” — शान्ता बोली — “यहां...”
“नहीं। यहां मेरा दम घुटता है। और फिर ड्राइव का भी तो मजा लेने का है!”
शान्ता ने शोभा की तरह देखा।
शोभा ने असहाय भाव से कन्धे उचकाये।
“ठीक है।” — शान्ता बोली — “चलो।”
तीनों नीचे आकर कार में सवार हो गए। एंथोनी ड्राइविंग सीट पर, दोनों लड़कियां पीछे। एंथोनी ने कार आगे बढ़ाई।
“किधर जाने का है?” — शान्ता बोली।
“अभी देखती जाओ।” — एंथोनी बोला।
वह उन्हें वरसोवा बीच के एक उजाड़ हिस्से में ले आया।
उसने कार का इंजन बन्द किया और घूमकर पीछे देखा।
“कभी कार में ठुकी हो?” — एंथानी बोला।
दोनों ने इंकार में सिर हिलाया।
“तो फिर आज तुम दोनों को नया तजुर्बा होने वाला है। कपड़े उतारो।”
“नहीं, टोनी” — शोभा बोली — “कार में नहीं।”
“तो फिर अड्डे पर चलो।”
“वहां से तो कार ही ठीक है।” — शान्ता बोली।
“यहां कोई आ गया तो?” — शोभा बोली।
“कोई नहीं आने का। उजाड़ तो पड़ी है सब तरफ।”
“फिर भी...”
“फिर भी ऐसा सही कि बारी-बारी। एक जनी लेटे दूसरी पहरेदारी करे। कोई आता दिखेगा तो सम्भल जायेंगे।”
“टोनी, यूं क्या फायदा...”
“है फायदा। आज मेरा यूं ही एडवेंचर मारने का मूड बन रयेला है। तू कपड़े उतार।”
“मैं!” — शोभा हड़बड़ाई।
“हां। शान्ता पहरेदारी करेगी।”
“सारे?”
“हां।”
“लेकिन...”
“सुना नहीं! उतारती है या मैं खुद फाड़कर उतारूं।”
“अच्छा, अच्छा।”
शोभा ने अपनी जींस, स्कीवी वगैरह उतारकर कार के फर्श पर डाल दीं।
“वाह! कितनी शानदार बनी हुई है तू! ये बुन्दे मैंने पहले तो तेरे कान में नहीं देखे!”
“ये... ये मैंने आज ही खरीदे हैं।” — शोभा बोली।
एंथोनी ने हाथ बढ़ाकर एक बुन्दे को परखा।
“काफी कीमती मालूम होते हैं।” — बुन्दे से हाथ हटाये बिना वह बोला — “कहां से खरीदे?”
“हर्नबी रोड से।”
“कितने के?”
“च... चार हजार के।”
“माल तो चार हजार से ज्यादा का लगता है! मुझे तो यह दस हजार कीमत का माल लग रहा है!”
“म... मैंने तो चार हजार ही दिए थे!”
“नकद?”
“हां।”
“इतना रोकड़ा था तेरे पास?”
“मैंने जमा किया था।”
“इन बुन्दों की खातिर?”
“हां।”
“जो कि तेरे कानों में इतने शानदार लग रहे हैं।”
rajan
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Re: Thriller कागज की किश्ती

Post by rajan »

एकाएक एंथोनी ने हाथ में थमे बुन्दे को एक जोर का झटका दिया। शोभा का कान कट गया। बुन्दा एंथोनी के हाथ में आ गया। शोभा पीड़ा से बिलबिलायी, उसने चिल्लाने के लिए मुंह खोला तो एंथोनी ने फुर्ती से रिवॉल्वर निकाल कर उसकी नाल उसके मुंह में घुसेड़ दी। शोभा की चीख उसके हलक में ही घुटकर रह गयी।
“तूने भी” — उसने शान्ता की तरफ देखा — “कोई नया जेवर खरीदा है? हर्नबी रोड से? आधी से कम कीमत पर?”
आतंकित शान्ता ने इंकार में सिर हिलाया।
“क्यों? क्यों नहीं खरीदा? अभी बाद में खरीदेगी?”
शान्ता ने उत्तर न दिया। उसने जोर से थूक निकली।
“हरामजादियो” — एंथोनी हिंसक भाव से बोला — “तैयार हो जाओ अपने बनाने वाले के पास पहुंचने के लिए।”
“टोनी! टोनी!” — भय और पीड़ा से रोती-बिलखती शोभा बोली, नाल मुंह में होने की वजह से वह बड़ी मुश्‍क‍िल से बोल पा रही थी — “मेरी बात सुनो।”
“क्या सुनायेगी साली?”
“प्लीज। प्लीज, मेरी बात सुनो।”
एंथोनी ने रिवॉल्वर उसके मुंह से बाहर खींच ली।
“बोल, क्या कहती है?”
शोभा के कटे कान से खून टप्प-टप्प करके उसके नंगे कन्धे पर गिर रहा था लेकिन उस घड़ी उसकी उस तरफ तवज्जो नहीं थी।
“टोनी” — वह रोती हुई बोली — “मेरा कोई कसूर नहीं। सब किया-धरा शान्ता का है। इसी ने मुझे मजबूर किया कि...”
“क्या सब किया-धरा शान्ता का है?” — एंथोनी के स्वर में नम्रता आ गयी।
“वही... वही जो... जिसकी वजह से...”
“मैंने तो कुछ भी नहीं कहा!” — उसने शान्ता की तरफ देखा — “शान्ता, यह क्या कह रही है तेरी जोड़ीदार? तूने इसे क्या करने पर मजबूर किया था?”
शान्ता के मुंह से बोल न फूटा।
एंथोनी के खाली हाथ का एक झन्नाटेदार थप्पड़ शान्ता के मुंह पर पड़ा।
शान्ता की गरदन फिरकनी की तरह घूमी। उसकी आंखों से आंसू छलछला आए।
“ताला किसने खोला?” — एंथोनी का स्वर फिर क्रूर हो उठा।
“वीरू तारदेव ने।” — शोभा बोली।
“उस कुत्ते के पिल्ले की इतनी मजाल हो गयी?”
“शान्ता ने उसे पटाया था।”
“अड्डे का पता कैसे मालूम हुआ?”
“वो भी शान्ता को ही मालूम था।”
“कैसे? नकाब में से झांकती थी?”
“नहीं।”
“तो?”
शोभा ने बताया।
“शाबाश!” — एंथोनी प्रशंसात्मक स्वर में बोला — “शाबाश शान्ता बाई, शाबाश! मैं तो तेरे साथ इतनी मुहब्बत से पेश आता रहा और तूने मुझे उसका यह सिला दिया! माशूक तो बहुत वफादार होती हैं। तू कैसी माशूक है जो तूने मेरा अड्डा लुटवा दिया?”
“टोनी” — शान्ता सिर झुकाए बोली — “मुझे माफ कर दो।”
“ओके। कर दिया माफ। अब कपड़े उतार।”
शान्ता ने बिना कोई हुज्जत किए कपड़े उतार दिए।
“अब यूं ही नंगी घर तक भाग सकती है तो भाग जा। मैं तुझे गोली नहीं मारूंगा।”
शान्ता अपनी जगह से न हिली।
“माल कहां है?”
“वीरू तारदेव के पास।”
“सारा?”
“ऐसे बुंदों का एक और जोड़ा और दो नैकलेस हमारे पास हैं।”
“कहां?”
“हमारे घर में।”
“वीरू तारदेव माल का क्या करेगा?”
“बेचेगा और हमें हिस्सा देगा।”
“अभी बेचा नहीं?”
“नहीं।”
“कब हिस्सा देगा?”
“कल। सुबह दस बजे।”
“कहां मिलेगा वो तुम्हें?”
“माटूंगा में। शेख मुनीर के पीजा पार्लर के सामने।”
“हूं। कार से निकलो।”
“क... क्या?”
“पिछली सीट पर हम तीनों नहीं लेट सकते। सामने पेड़ों का झुरमुट है। वहां चलो।”
“टोनी” — शोभा बोली — “किसी ने देख लिया तो?”
“अरे, दूर-दूर तक चिड़िया का बच्चा नहीं है। चलो, जल्दी करो।”
तीव्र अनिच्छा का प्रदर्शन करती दोनों कार से बाहर निकलीं और पेड़ों के झुरमुट की तरफ बढ़ीं।
“तुम भी तो आओ।”
“तुम चलो, मैं गाड़ी बन्द करके तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहा हूं।”
दोनों आगे बढ़ीं।
वे दस कदम आगे बढ़ी होंगी कि एंथोनी ने आवाज लगाई।
दोनों ने घूमकर देखा।
एंथोनी ने दोनों को शूट कर दिया।
शाम को ट्रेन से कल्याण लौटता जोगलेकर शाम का अखबार पढ़ रहा था। अखबार में कल्याण की बैंक डकैती का फिर जिक्र था। उस जिक्र में दो बातें ऐसी थीं कि जिनकी वजह से जोगलेकर ने बाकी अखबार पढ़ने की जगह वही खबर कोई दस बार पढ़ी।
एक तो बैंक की तरफ से डकैतों को पकड़वाने के लिए बीस हजार रुपये के इनाम की घोषणा की गई थी।
दूसरे, कल्याण थाने के इन्स्पेक्टर पेनणेकर का एक इण्टरव्यू छपा था जिसमें एक अंगूठे के निशान का जिक्र था। पेनणेकर के अनुसार वह निशान गोंद जैसे पेस्ट के एक फिफ्टी पर लगे थक्के पर से उठाया गया था और निश्‍चय ही डकैतों में से ही किसी के अंगूठे का था। वह गोंद जैसा पेस्ट निश्‍चय ही डकैतों के चेहरों पर नकली दाढ़ी-मूंछ चिपकाने के लिए इस्तेमाल किया था।
जोगलेकर को उस छोकरे की याद आयी जिसका परसों उसने रेल का भाड़ा भरा था। उसके चेहरे पर गोंद जैसा पेस्ट लगा उसने खुद देखा था और छोकरे ने, जिसने अपना नाम लल्लू बताया था, कबूल भी किया था कि वह नकली दाढ़ी चिपकाने के काम आने वाली गोंद थी।
तो क्या वह छोकरा बैंक डकैतों में से एक था?
क्या उसने झूठ बोला था कि वह एक्टर था और किसी फिल्म की लोकेशन शूटिंग से लौट रहा था?
अपने खयालों में वह बीस हजार रुपये के नोट गिनने लगा।
फिर उसे उस कागज़ के पुर्जे का खयाल आया जिस पर लल्लू ने उसे अपना नाम और पता लिखकर दिया था।
उसने अपनी जेबें टटोलीं।
कागज़ का पुर्जा किसी जेब से बरामद न हुआ।
फिर उसे खयाल आया कि आज वह दूसरा सूट पहनकर आया था।
तभी गाड़ी कल्याण स्टेशन पर रुकी।
घर पहुंचते ही उसने सबसे पहले सूट की सुध ली। सूट अलमारी में नहीं था।
उसने बीवी को बुलाया।
“मेरा नीला सूट कहां गया, जमना बाई?”
“ड्राईक्लीनर के पास गया और कहां गया!” — बीवी नाक चढ़ाकर बोली — “इतना तो मैला था!”
“अरे, उसकी जेबें देखीं। उनमें से एक में...”
“जेबों में था क्या? एक सड़ा-सा कागज़ का पुर्जा था, कुछ बस की टिकटें थीं और...”
“वो पुर्जा कहां गया?”
“उसे मैंने टिकटों के साथ फाड़कर कूड़े में फेंक दिया।”
जोगलेकर को बीस हजार के नोट पुर्जा-पुर्जा हुए कूड़े में उड़ते दिखाई दिये।
“और खाली पर्स मैंने उधर मेज के दराज में रख दिया है।”
खाली पर्स!
टिकट चैकर का दिया हुआ पर्स!
जोगलेकर यूं बगूले की तरह मेज की तरफ झपटा कि उसकी बीवी हक्की-बक्की सी उसका मुंह देखने लगी।
कब्रिस्तान में मुकम्मल सन्नाटा था।
एक मोटे पेड़ के तने के पीछे छुपा अष्टेकर दो महिलाओं और एक बच्चे को हाथों में फूल लिये विलियम की कब्र की ओर बढ़ता देख रहा था। उनमें से एक महिला मोनिका थी, बच्चा मिकी था जो कि अपनी मां की उंगली थामे था।
दूसरी औरत मार्था थी।
विलियम की मां। मिकी की दादी।
अष्टेकर ने बड़े अरमान से मार्था की तरफ देखा।
पचास के पेटे में थी मार्था लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर वही नूर था जो उसने तीस साल पहले तब देखा था जब वह जुहू बीच की तनहाई में उससे आखिरी बार मिली थी। जवान बेटे की मौत का गम और अवसाद भी उस नूर पर हावी नहीं हो पा रहा था।
अष्टेकर के मन में हूक सी उठी।
यह औरत, जिसे उसकी बीवी होना चाहिए था, किसी और की बीवी थी। उस औरत के लिये उसके मन में जो ख्वाहिश थी, वो आज तीस साल बाद बुढ़ापे में भी खत्म नहीं हुई थी। कम नहीं हुई थी।
उन तीनों ने विलियम की कब्र पर फूल चढ़ाये और वहां से विदा हो गयीं।
जब वे कब्रिस्तान के फाटक से बाहर निकल गयीं तो वह पेड़ की ओट में से निकला।
भारी कदमों से चलता वह विलियम की कब्र के पास पहुंचा।
उसने अपनी पीक कैप उतार कर हाथ में ले ली और अपलक फूलों से ढंकी कब्र को देखने लगा।
फिर उसने यूं झुककर कब्र को छुआ जैसे विलियम के जिस्म की छू रहा हो, उसे प्यार कर रहा हो।
‘मेरा बेटा!’ — वह होंठों में बुदबुदाया — ‘मेरा बेटा!’
लल्लू ने थूक से लिफाफा बन्द किया, उस पर लिखा पता एक बार फिर पढ़ा और लिफाफा लेटर बॉक्स में धकेल दिया।
खुर्शीद को लिफाफे में एक पचास रुपये के नोट की झलक साफ मिली थी।
“यह कौन सी अम्मा को रोकड़ा डाक से भेज रहा है?” — खुर्शीद ने पूछा।
“पागल हुई है!” — लल्लू बोला — “यह तो मैंने किसी आदमी से ट्रेन में पचास रुपये उधार लिये थे, उसे वापिस भेज रहा हूं।”
“ओह!”
“तू तो यूं जलकर दिखा रही है जैसे मैं सचमुच ही किसी छोकरी को...”
“मेरी जूती जलती है।”
“अब मैं घर जाता हूं। बहुत रात बीत गयी है। कल भी मैं घर नहीं गया था। मेरी मां और दादी सोच-सोचकर हलकान हो रही होंगी कि मैं कहां मर गया।”
“अपनी मां और दादी का तू बहुत खयाल करता है।”
“कहां करता हूं! करना चाहिए लेकिन कर नहीं पाता। बेचारी बूढ़ी औरतों का मेरे सिवाय और है कौन इस दुनिया में!”
“हूं।”
“चल मैं तुझे घर छोड़कर आऊं।”
“क्यों? मैं बच्ची हूं? खुद घर नहीं जा सकती?”
“तो जा।”
“उलटे चल मैं तुझे घर छोड़कर आऊं।”
“मुझे! मुझे किस लिये?”
“क्योंकि तू लल्लू है, किचू है। रास्ते में अंधेरे में डर गया तो?”
लल्लू ने जोर से उसके कूल्हे पर चिकोटी काटी।
“उई, मां!” — खुर्शीद दर्द से चिल्लाई।
“अब फूट।”
जोगलेकर ने प्लास्ट‍िक की एक थैली में महफूज पर्स इन्स्पेक्टर पेनणेकर को पेश किया और ट्रेन में मिले लल्लू नाम के उस विशालकाय नौजवान की सारी कहानी सुनाई जिसको उसने पचास रुपये उधार दिये थे और जिसके चेहरे पर उसने वह गोंद जैसा पेंट चिपका देखा था जिसका जिक्र अखबार में था। उसने आगे कहा कि लल्लू नाम का वह नौजवान डकैतों में से एक हो सकता था, वह पर्स उसका हो सकता था और उस पर से उसकी उंगलियों के निशान बरामद किये जा सकते थे।
जोगलेकर को लल्लू का बड़ी बारीकी से हुलिया बयान करने के लिये कहा गया।
उसने ईनाम की बाबत सवाल किया।
“अगर पर्स से उठाया गया कोई प्रिंट” — पेनणेकर बोला — “हमारे पास उपलब्ध अंगूठे के प्रिंट से मिल गया तो यह सिद्ध हो जायेगा कि आपको मिला वह कथित लल्लू बैंक डकैतों में से एक था। बड़े अफसोस की बात है कि उसके पते वाला पुर्जा आप सम्भाल कर न रख सके।”
“वो मेरी बीवी ने...”
“हां। सुना मैंने। खैर! अब आपको कल यहां आना होगा और पुलिस के आर्टिस्ट के साथ बैठना होगा।”
“वो किस लिये?”
“ताकि आपके बयान के मुताबिक वह लल्लू की तसवीर बना सके। ऐसी तसवीर को कम्पोजिट पिक्चर कहते हैं। तरह-तरह के नयन नक्शों की कम्पोजीशन आर्टिस्ट तब तक तैयार करेगा जब तक आप नहीं कह देंगे कि उसकी बनाई तसवीर आपके लल्लू से मिलती थी। मेहनत का काम है। आपका काफी वक्त जाया होगा। आप ऐसा करने को तैयार हैं?”
जोगलेकर ने लल्लू के बारे में सोचा। साला कैसा हरामी निकला था! वादा करके भी पचास रुपये नहीं भेजे थे उसने। अच्छा हो अगर वही बैंक डकैत निकले।
“ऐसे अगर” — फिर वह बोला — “वो शख्स पकड़ा गया तो ईनाम...”
“आप ही को मिलेगा।”
“फिर क्या वान्दा है! मैं कल सुबह सवेरे ही आ जाऊंगा।”
खुर्शीद अपने घर वाली इमारत में कदम रखने लगी तो एक आदमी प्रेत की तरह उसके सामने आ खड़ा हुआ।
वह अचकचा कर एक कदम पीछे हट गयी।
“धन्धे से लौट रही हो, खुर्शीद बेगम!”
खुर्शीद ने देखा, वह इन्स्पेक्टर अष्टेकर था।
“क्या चाहते हो?” — वह शुष्क स्वर में बोली।
“कुछ पूछना चाहता हूं।”
“किस बाबत?”
“कई बातों की बाबत। उनमें से एक बात हजारे की बाबत है। हजारे को जानती है न? जिसे लल्लू भी कहते हैं!”
“मेरी जाती जिन्दगी से किसी को कोई वास्ता नहीं होना चाहिये।”
“किसी को नहीं होना चाहिये लेकिन पुलिस को होना चाहिये। है। रण्डी की जाती जिन्दगी से पुलिस का वास्ता बराबर होता है। कभी गिरफ्तार हुई है?”
खुर्शीद का सिर अपने आप ही इंकार में हिला।
“यानी कि इत्तफाकन ही भारी फजीहत से बची हुई है। कोर्ट-कचहरी। थाना-चौकी। जमानत। सजा-जुर्माना। क्या?”
“मैंने धन्धा छोड़ दिया है।”
“वाकेई!”
“अल्लाह कसम, मैंने धन्धा छोड़ दिया है।”
“हजारे की वजह से?”
खुर्शीद ने सहमति में सिर हिलाया।
“उस से मुहब्बत करती है?”
“हां।”
“फिर तो मेरी बात और भी गौर से सुन। इस लड़के का बाप मेरा दोस्त था इसलिये मैं उसका भला चाहता हूं। उससे मुहब्बत करती है तो तू भी उसका भला चाहती होगी। चाहती है न?”
“हां।”
“तो उसकी खातिर — और खुद अपनी खातिर — उसे समझा कि वह वो कुत्ती सोहबत छोड़ दे जिसमें वह आजकल फंसा हुआ है।”
खुर्शीद ने प्रश्‍नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“मैं टोनी और गुलफाम की बात कर रहा हूं। तू जानती है न उन्हें?”
खुर्शीद ने सहमति में सिर हिलाया।
“वो दोनों बड़े खतरनाक मवाली हैं। चोरी, डकैती, स्मगलिंग, खून-खराबा, हर काम में उनका दखल है। चालाक इतने हैं कि अपने खिलाफ कोई सबूत नहीं छोड़ते। मेरे पास उनके खिलाफ जरा भी कुछ हो तो सालों को अभी बन्द कर दूं। टोनी एक बार जेल की हवा खा आया है लेकिन वह सजा मामूली थी, उसके बड़े-बड़े कारनामों के मुकाबले में उसका अपराध मामूली था।”
“क्या किया था उसने?” — खुर्शीद उत्सुक भाव से बोला।
“उसने मेरे पर — एक आन ड्यूटी पुलिस अधिकारी पर — हाथ उठाया था।”
“ओह!”
“खुर्शीद बेगम, अपराध कागज़ की नाव की तरह होता है जो बहुत देर तक, बहुत दूर तक नहीं चल सकती। यह बात तूने वक्त रहते हजारे को समझानी है। उसके दोनों उस्ताद देर-सवेर कानून के चंगुल में जरूर फंसेंगे और जब फंसेंगे तो बहुत बुरा फंसेंगे। अगर तू वाकेई उससे मुहब्बत करती है तो यह बात तू उसे समझा। तेरे समझाये वह समझ जायेगा। हो सके तो उसे यहां से ले जा।”
“कहां?”
“कहीं भी। किसी और शहर में। मुम्बई से दूर। टोनी और गुलफाम की काली छाया से दूर।”
“वह न गया तो?”
“जाएगा। तेरे कहने से जाएगा। न जाए तो रस्से बांध के, घसीट के ले के जा।”
“मैं कोशिश करूंगी।”
“दिल से कह रही है?”
“हां।”
“शाबाश! अगर तू ऐसा कर पायी तो समझना तेरे इस एक ही नेक काम ने तेरी गुनाहों से पिरोई जिन्दगी के सारे पाप धो दिए। तूने एक नेक, नादान, कमअक्ल, कमउम्र नौजवान को बैमौत मरने से बचा लिया।”
फिर अष्टेकर लम्बे डग भरता वहां से विदा हो गया।
लल्लू घर पहुंचा तो उसकी मां ने बताया कि कोई आदमी कहकर गया था कि उसे टोनी बुला रहा था।
वह उलटे पांव पास्कल के बार में पहुंचा।
टोनी और गुलफाम उसे अड्डे पर मिले।
टोनी को उसने पगलाये हुए सांड की तरह बिफरा पाया।
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