Thriller कागज की किश्ती

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rajan
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Re: Thriller कागज की किश्ती

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वह नशे में धुत्त था और सीधे बोतल से अभी और विस्की पी रहा था।
“वो हरामजादा, कुत्ते का पिल्ला, कंजर का बीज” — वह चिल्ला रहा था — “वो मच्छर, वो खटमल, वो भुंगा, वो वीरू तारदेव, वो मुझे चूना लगा गया। उसकी ऐसी मजाल हो गयी। किसी को पता लगेगा कि एंथोनी फ्रांकोजा वीरू तारदेव नाम के अर्थी के फूल के लूटे लुट गया तो वह मेरे पर हंसेगा, मेरे मुंह पर थूकेगा। मेरी इज्जत का, मेरे दबदबे का जनाजा निकल जाएगा। यह वीरू तारदेव नाम का कुत्ता, जिन्दा नहीं रहना चाहिए। इसे अगली सुबह देखनी नसीब नहीं होनी चाहिए।”
“उसे मार देना क्या बड़ी बात है!” — गुलफाम गम्भीरता से बोला — “लेकिन अगर वो मर गया तो माल हासिल नहीं होने का।”
“माल वैसे भी हासिल नहीं होने का। माल अब तक कहीं का कहीं पहुंच चुका होगा। अब वो कौड़ियों का मोल ही हासिल हो सकता है जो उस हरामी के पिल्ले को माल बेचकर मिला होगा। वह एक मामूली रकम होगी जिसके लिए मैं उसे जिन्दा नहीं रहने दे सकता। एंथोनी फ्रांकोजा की मूंछ नोचने की हिम्मत करने वाला भीड़ू जिन्दा नहीं रह सकता। वह मरेगा, आज ही रात मरेगा... और लल्लू के हाथों मरेगा।”
लल्लू बुरी तरह चौंका।
“लल्लू आज साबित करके दिखाएगा कि इसकी छाती पर कितने बाल हैं! आज यह करम चन्द बनकर दिखाएगा। करम चन्द हजारे बनकर दिखायेगा। करम चन्द हजारे साहब बनकर दिखाएगा। साबित करके दिखायेगा कि यह हमारी सोहबत के काबिल है। हमारी बराबरी के काबिल है।”
लल्लू का दिल धाड़-धाड़ उसकी पसलियों से बजने लगा।
“लेकिन टोनी” — उसने अपने एकाएक सुख आए होंठों पर जुबान फेरी — “मर्डर...”
“हां।” — एंथोनी दहाड़ा — “मर्डर!”
“इसकी” — गुलफाम बोला — “पतलून गीली हो रही है।”
“मैं... मैं...”
“डर रहा है, साला।” — टोनी बोला — “वाकेई पेशाब निकल रहा है इसका।”
“मैं नहीं डर रहा।” — लल्लू गुस्से से बोला।
“तो फिर वीरू तारदेव के मर्डर के लिए हां बोल।”
“हां तो मैं बोलता हूं लेकिन मैं यह कह रहा था कि पहले हम उससे रोकड़ा वसूल कर लेते तो...”
“रोकड़े की कोई अहमियम नहीं, साले। वो और आ जाएगा। हम कल ही तेरे घटकोपर वाले बैंक पर हाथ साफ कर देंगे, फिर रोकड़ा ही रोकड़ा होगा। लेकिन पहले वीरू तारदेव खल्लास होना मांगता है। बोल, करेगा यह काम कि नहीं?”
“करूंगा।” — लल्लू छाती फुलाकर बोला।
“शाबाश! शाबाश करम चन्द, शाबाश!”
खुर्शीद गुमसुम अपने घर में बैठी थी और मन ही मन रिहर्सल कर रही थी कि जब लल्लू मिलेगा तो वह उसे क्या समझाएगी, कैसे समझाएगी। इन्स्पेक्टर की बात उसे जंची थी। टोनी और गुलफाम जैसे खतरनाक मवालियों की सोहबत में लल्लू तबाह हो सकता था।
दरवाजे पर दस्तक हुई।
उसने उठ कर दरवाजा खोला तो चौखट पर लल्लू को खड़ा पाया। वह नशे में इतना धुत्त था कि अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था।
“क्या बात है?” — वह नाक चढ़ाकर बोली — “आज बार की सारी शराब अकेला पीके आयेला है?”
“सॉरी किधर!” — भीतर आने के उपक्रम में वह गिरता-गिरता बचा — “अभी तो बहुत बच रयेली है। देख।” — उसने जेब से बोतल निकाल कर खुर्शीद को दिखाई।
“कैसे आया?”
“तेरे कू बताने आया।”
“क्या?”
“कि मैं तेरे कू बहुत मुहब्बत करता हूं।”
“मेरे को मालूम है।”
“पहले से मालूम है?”
“हां।”
“मैं पहले भी ऐसा बोला?”
“हां। कई बार।”
“फिर तो मैं इधर बेकार आया। बेकार टाइम वेस्ट किया। मेरे कू तो कहीं और जाने का था! टेम क्या हुआ है?”
“सवा नौ।”
“फिर तो अपनु चला। मेरे को दस बजे कहीं पहुंचने का है। बहुत जरूरी काम करने का है।”
“कहां पहुंचना है? क्या जरूरी काम करना है?”
“वो छोकरी लोगों को बताने का काम नहीं है।”
“मैं छोकरी लोग नहीं हूं। तेरी होने वाली बीवी हूं। मुझे बता। मुझे सबकुछ बता। तू कहां जाता है? क्या करता है? किन लोगों के साथ उठता-बैठता है?”
“मैं अभी नहीं बता सकता।”
“क्यों? किसी ने मना किया है?”
“किसने?”
“तू बता। बोल? टोनी ने मना किया है? गुलफाम ने मना किया है? लल्लू, मैं सब जानती हूं। तू कोई इज्जतदार काम नहीं करता। तू उन खतरनाक मवालियों का साथी है। तू चोर है। डकैत है। तू...”
“और तू क्या है? तू रण्डी है।”
खुर्शीद को यूं लगा जैसे किसी ने उसके कलेजे पर घूंसा मारा हो। अपने सामने खड़े आदमी से उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि वह उसे रण्डी बोलेगा। उसकी आंखों में आंसू छलक पड़े।
आंसू देखते ही लल्लू को अपने कथन पर पछतावा होने लगा। उसने आगे बढ़कर खुर्शीद को अपनी बांहों में ले लिया। खुर्शीद पत्थर का बेहिस बुत बनी उसकी बांहों में समा गई।
“अपुन सॉरी बोलता है, रानी।” — लल्लू बोला — “वो खामखाह मेरे मुंह से निकल गया। कसम गणपति की, मैं दिल से नहीं बोला।”
“लल्लू, चल, यह शहर छोड़ दें। यह शहर हमारे लिए नहीं है। यह शहर हमारा खून पी जाएगा। हमारी जान ले लेगा। कहीं और चल, लल्लू।”
“चलेंगे। जरूर चलेंगे। जहां तू कहेगी, चलेंगे। अगले ही हफ्ते...”
“अगले हफ्ते नहीं। आज ही। अभी सवा नौ बजे हैं। स्टेशन पर चलते हैं। जहां की भी गाड़ी तैयार होगी उस पर चढ़ जायेंगे।”
“नहीं, आज नहीं। आज के बाद कभी। वादा करता हूं।”
“आज क्यों नहीं?”
“आज मेरा एक इम्तहान है। आज मैंने कुछ साबित करके दिखाना है।”
“क्या साबित करके दिखाना है?”
“तू नहीं समझेगी।”
“क्यों नहीं समझूंगी?”
“कहा न, नहीं समझेगी।” — उसने उसे अपनी बांहों से आजाद किया — “मैं जाता हूं।”
“कहां?”
“जहां मुझे काम है।”
“आज रात यहीं रुक जा न, लल्लू!”
“नहीं। जाना है।”
“मुझे ठुकरा कर जा रहा है?”
“यह बात नहीं। मैं... मैं लौट के आता हूं।”
और वह खुर्शीद के दोबारा जुबान खोल पाने से पहले वहां से बाहर निकल गया।
सड़क पर आकर उसने बोतल की बची हुई विस्की पी और बोतल फेंक दी।
फिर उसने पतलून की बैल्ट में खुंसी उस रिवॉल्वर को टटोला जो उसे गुलफाम ने दी थी।
वीरू तारदेव का कत्ल करने के लिए।
एंथोनी को मोनिका टी.वी. देखती मिली। वह एक बहुत झीनी, बहुत चित्ताकर्षक गुलाबी रंग की नाइटी पहने थी।
मिकी सोया पड़ा था।
“जरा टी.वी. बन्द कर और मेरी बात सुन।” — एंथोनी बोला।
रिमोट कन्ट्रोल का बटन दबाकर मोनिका ने टी.वी. बन्द किया।
एंथोनी सोफे पर उसकी बगल में बैठ गया।
मोनिका प्रश्‍नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखने लगी।
“अब वो कहानी खतम।” — एंथोनी बोला।
“कौन-सी कहानी खतम?” — मोनिका बोली।
“विलियम के कत्ल की कहानी खतम। इसलिए खतम क्योंकि विलियम का कातिल मौत की सजा पा चुका है। जैसा कि मैंने कहा था कि वह पाएगा।”
“कौन था विलियम का कातिल?”
“रामचन्द्र नागप्पा नाम का आदमी। कल रात गुलफाम ने मिशन हस्पताल में ऐन वैसे ही उस्तुरे से उसका गला काट दिया था जैसे से नागप्पा ने विलियम का काटा था। नागप्पा और विलियम नशे की नयी चली गोलियों के व्यापार में पार्टनर थे, रुपये-पैसे को लेकर दोनों में झगड़ा हो गया था जिसकी वजह से नागप्पा ने विलियम का गला रेत दिया था। पुलिस ने विलियम के खून से रंगा उस्तुरा भी नागप्पा के घर से बरामद किया है।”
“हूं।” — मोनिका आश्‍वासनहीन स्वर में बोली।
“अब यह कहानी खतम हो चुकी है। खून का बदला खून से लिया जा चुका है। अब बोल, राजी है?”
“हां।”
“तो फिर मेरी बांहों में आ।”
मोनिका आपने स्थान से हिली भी नहीं।
rajan
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एंथोनी ने जबरन उसे दबोच लिया। वह सोफे पर लेट गया और उसने मोनिका को अपने ऊपर खींच लिया। उसके उतावले हाथ उसकी नाइटी सरकाने की कोशिश में उसका पुर्जा-पुर्जा करने लगे।
रिमोट तब भी मोनिका के हाथ में था। उसने टी.वी. का स्विच आन कर दिया।
उस वक्त उसके लिए एंथोनी के साथ अभिसार से ज्यादा दिलचस्प तो टी.वी. का बोर प्रोग्राम था।
लल्लू कोलीवाड़े की उस चारमंजिला इमारत के सामने खड़ा था जिसकी तीसरी मंजिल के एक कमरे में वीरू तारदेव मौजूद था। उसने वहां जाना था, रेडियो को फुल वाल्यूम पर करना था और वीरू तारदेव की खोपड़ी से गुलफाम की दी रिवॉल्वर सटाकर उसका भेजा उड़ा देना था।
वह खुर्शीद को याद कर रहा था और अभी भी उसे रण्डी कहने के लिए पछता रहा था। उसके दिल के किसी कोने से आवाज उठ रही थी कि उस वक्त उसे खुर्शीद के हर हुक्म की तामील करने को तत्पर उसके पहलू में होना चाहिए था, न कि कत्ल का खौफनाक इरादा लिए वीरू तारदेव के दरवाजे पर। वह खुर्शीद के सांचे में ढले नंगे जिस्म की कल्पना करने की कोशिश करता था तो उसे वीरू तारदेव का चारों तरफ छितराया भेजा दिखाई देने लगता था।
सड़क के ऐन पार उतनी ही ऊंची एक इमारत की छत पर आंखों पर दूरबीन लगाए गुलफाम मौजूद था। अपनी वर्तमान स्थ‍िति में उसे एक खिड़की में से अपने कमरे में बैठा वीरू तारेदव भी दिखाई दे रहा था और इमारत के प्रवेशद्वार के सामने ठिठका खड़ा लल्लू भी दिखाई दे रहा था।
उस वक्त लल्लू का रोम-रोम खुर्शीद के पहलू में पहुंचने के लिए तड़प रहा था। वह उसे रण्डी कहने के लिए फिर से माफी मांगना चाहता था। फिर यह सोचकर कि जितनी जल्दी वह वहां से निबटेगा, उतनी ही जल्दी खुर्शीद के पास पहुंच पायेगा, उसने इमारत के भीतर कदम रखा।
कूड़े और पेशाब की मिली-जुली बदबू सूंघता वह तीसरी मंजिल पर पहुंचा।
चाल में हर तरफ बच्चों की चिल्ल-पों, बड़ों की तकरार और रेडियो, टी.वी. का शोर-शराबा बरपा था।
उसने वीरू तारदेव के दरवाजे पर दस्तक दी।
भीतर रेडियो बज रहा था। यानी उसे ठीक बताया गया था कि वीरू तारदेव आधी रात तक फिल्मी गाने सुनने का आदी था।
वीरू तारदेव ने दरवाजा खोला।
लल्लू ने उसे जोर से धक्का दिया और भीतर दाखिल हुआ। उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया और दरवाजे के करीब ही पड़े रेडियो की आवाज ऊंची कर दी। अपनी जैकेट खोलकर उसने पतलून की बैल्ट में से रिवॉल्वर खींच कर हाथ में ली ली। उसके धक्के से नीचे फर्श पर लुढके पड़े वीरू तारदेव की तरफ उसने रिवॉल्वर तान दी।
“मुझे मत मारना। मुझे मत मारना।” — आतंकित वीरू तारदेव पागलों की तरह प्रलाप करने लगा — “मैंने क्या किया है? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”
उससे ज्यादा आतंकित लल्लू दांत भींचे, रिवॉल्वर ताने उसके सामने खड़ा था। उसका मुंह एकदम सूख गया था और उसे तर करने की नाकाम कोशिश में उसके गले की घण्टी बार-बार उछल रही थी।
वीरू तारदेव रो रहा था, फरियाद कर रहा था, अपनी जिन्दगी की भीख मांग रहा था।
सड़क के पार की इमारत की छत पर मौजूद गुलफाम को दोनों दिखाई दे रहे थे। गुलफाम यह सोचकर दांत पीस रहा था कि लल्लू बुत बना क्यों खड़ा था, अपना काम करके वो वहां से फूट क्यों नहीं रहा था! खिड़की खुली थी, गलियारे से गुजरता कोई और भी तो भीतर झांक सकता था।
रिवॉल्वर अपने सामने ताने लल्लू ने आगे कदम बढ़ाया। उसने रिवॉल्वर की नाल वीरू तारदेव की कनपटी से लगा दी। अब उसे सच ही अपना पेशाब निकलने को हो रहा महसूस हो रहा था।
वीरू तारदेव यूं फूट-फूटकर रो रहा था कि लल्लू को उस पर तरस आने लगा। उसका अपना दिल यूं पसीजने लगा कि उसे डर लगने लगा कि कहीं वह भी न रोने लगे। बेचारा बूढ़ा, लाचार आदमी कैसे बिलख-बिलख कर फरियाद कर रहा था और अपनी जिन्दगी की भीख मांग रहा था!
“साले, हरामजादे, कमीने” — फिर नशे में लल्लू की वाणी मुखर हो उठी — “तेरे जैसे मच्छर को मसलने में मेरी बेइज्जती है। तू तो पहले ही मरा पड़ा है। मरे हुए को क्या मारूं मैं! चल उठकर खड़ा हो।”
वह खड़ा न हुआ तो लल्लू ने उसकी बांह पकड़कर झटकी और उसे जबरन उठाया।
जिबह होने को तैयार बकरे की सी कातर निगाह से उसकी तरफ देखता, अभी भी रोता और थर-थर कांपता वीरू तारदेव आंधी में हिलते पेड़ की तरह अपनी कमजोर टांगों पर झूमता-लहराता उसके सामने खड़ा रहा।
“कुत्ते! कमीने! तू खुशकिस्मत है कि तुझे मैं मारने आया। मेरी जगह कोई और होता तो वह तुझे मारकर कब का यहां से चला भी गया होता। तेरे में कोई दमखम दिलेरी बची होती तो मैं तुझे मारता। तेरे जैसे मुर्दे के खून से अपने हाथ रंगना मेरी तौहीन है। साले, शुक्र मना कि मैं और जनों जैसा नहीं। मैं टोनी जैसा नहीं। मैं गुलफाम जैसा नहीं। मैं अपने जैसा हूं। और मैं मुर्दे को नहीं मारता। समझा। समझा, हरामजादे!”
वीरू तारदेव समझा कुछ भी नहीं था — आतंक के आधिक्य ने कुछ समझने की स्थ‍िति में उसे छोड़ा ही नहीं था — लेकिन फिर भी उसकी गर्दन अपने आप ही जल्दी-जल्दी स‍हमति में हिलने लगी।
“अब अपनी खैरियत चाहता है तो एक मिनट में यहां से भाग जा। इस शहर से दूर भाग जा। कहीं इतनी दूर कूच कर जा जहां कोई तुझे ढ़ूंढ़ न सके। कोई सामान-वामान उठाने में वक्त जाया न करना। कपड़े तक न बदलना। जैसे खड़ा है, वैसे ही हवा हो जा यहां से। समझ गया?”
पहले से ही सहमति में हिलती गरदन को वीरू तारदेव ने और जोर से हिलाया।
“मैं जा रहा हूं। मेरे पीछे-पीछे ही तू यहां से निकलता दिखाई देना चाहिये।”
फिर रिवॉल्वर वापिस पतलून की बैल्ट में खोंसता वह वहां से बाहर निकल गया।
कुछ क्षण बाद दूरबीन से गुलफाम ने लल्लू को नीचे सड़क पर एक ओर लपकते देखा और ऊपर कमरे में वीरू तारदेव को एक पुराने से सूटकेस में कपड़े भरते देखा।
उसने एक गहरी सांस ली, दूरबीन अपनी आंखों पर से हटायी, अपनी जुर्राब में खुंसे उस्तुरे को चैक किया और फिर उठकर सीढ़ियों की तरफ बढ़ा।
एंथोनी शेख मुनीर के पीजा पार्लर के पिछवाडे़ के बन्द कमरे में उसके सामने मौजूद था।
“डिब्बे” — एंथोनी सख्ती से बोला — “वो माल मेरा है।”
“था।” — डिब्बा बड़े इत्मीनान से बोला।
“वो मेरे कू वापिस मांगता है।”
“भेजा फिरेला है, टोनी! फैंस के पास से आगे गया माल कहीं वापिस मिलता है!”
“मिलता है।”
“मिलता है तो वापिस खरीदने पर मिलता है। तेरे को मालूम नहीं ऐसा माल जाता कौड़ियों के मोल है, वापिस पूरी कीमत पर लौटता है।”
“वीरू तारदेव को तू कितना रोकड़ा देने का है?”
“अपना कमीशन काट कर सात लाख।”
“वो रोकड़ा मेरे को दे।”
“काहे कू?”
“क्योंकि माल मेरा था।”
“मेरे पास उसे वीरू तारदेव लाया था।”
“वो अब रोकड़ा वसूल करने इधर नहीं आने का।”
“क्यों?”
“क्योंकि एंथोनी फ्रांकोजा के माल पर हाथ साफ करने वाला जिन्दा नहीं बचता।”
“ऐसा?”
“हां।”
“वो... खल्लास हो गया?”
“हां।”
“ठीक है। मैं कल के अखबार में उसके कत्ल की न्यूज पढ़ लूं, फिर तेरे कू फोन लगाता हूं। फिर आकर रोकड़ा ले जाना।”
“ठीक है।” — एंथोनी उठता बोला — “लेकिन एक बात याद रखना, डिब्बे।”
“क्या?”
“मेरे साथ धोखा किया तो मैं तेरा ये फैंसी पीजा पार्लर जलाकर राख कर दूंगा और इसी में तेरी चिता जला दूंगा।”
“धमकी देता है?” — डिब्बा आंखें निकालता बोला।
“हां, धमकी देता है। साले, बहरा है कि अन्धा है! धमकी नहीं देता तो क्या लव सांग सुनाता है!”
डिब्बा तिलमिलाया, उसने बेचैनी से पहलू बदला और फिर बदले स्वर में बोला — “तेरा रोकड़ा सेफ है, टोनी। बस जरा मेरे कू वीरू तारदेव के खल्लास हो जाने की पक्की खबर लगने दे फिर अपुन खुद तेरा रोकड़ा तेरे पास पहुंचा देगा।”
“गुड।”
लल्लू ने जाकर खुर्शीद का दरवाजा खटखटाया। उसने दरवाजा न खोला।
“क्या है, लल्लू?” — खुर्शीद दरवाजे की परली तरफ से बोली।
“कैसे जाना?” — लल्लू हैरानी से बोला — “बिना देखें, सुने...”
“इतनी रात गए यूं मेरा दरवाजा और कोई नहीं खटखटाता। फिर मुझे पता था कि तू आएगा।”
“दरवाजा तो खोल!”
“नहीं।”
“मैं तेरे से माफी मांगने आया हूं।”
“उसकी जरूरत नहीं। मुझे तौहीन बर्दाश्‍त करने की आदत है। और फिर रण्डी को ही तो रण्डी बोल तू!”
“तो फिर दरवाजा क्यों नहीं खोलती?”
“क्योंकि मैं सोचना चाहती हूं। मुझे रण्डी कहने के अलावा तूने और जो कुछ कहा, उसके बारे में सोचना चाहती हूं।”
“और मैंने क्या कहा?”
“तू नशे में था इसलिए भूल गया।”
“तू याद दिला दे।”
“तूने कहा तेरा कोई इम्तहान है। तूने कुछ साबित करके दिखाना है।”
“वो तो... वो तो...”
“लल्लू, मैं तेरे से प्यार करती हूं लेकिन जो लल्लू तू बनकर दिखाना चाहता है, मैं उससे प्यार कर सकूंगी या नहीं, यह मेरे को सोचना पड़ेगा।”
“तू दरवाजा तो खोल!”
“नहीं। तू फिर आना।”
“फिर कब?”
“कुछ दिन बाद। अभी मुझे सोचने दे।”
“तू अभी दरवाजा नहीं खोलेगी?”
“नहीं।”
“मैं दरवाजा तोड़ दूंगा।”
“तोड़ दे।”
“मैं तेरी चौखट पर सिर पटक-पटक कर मर जाऊंगा।”
“मर जा। फिर कम-से-कम तू वो बनने से तो बच जायेगा जो तू बनना चाहता है।”
“मैं नहीं चाहता। मैं नहीं बना। मैं कुछ साबित करके नहीं दिखा सका। मैं इम्तहान में फेल हो गया।”
“मुझे तेरी बात पर विश्‍वास नहीं।”
“मेरा विश्‍वास कर, साली।”
“एक बार फेल हो गया है तो क्या हुआ, फिर कोशिश करेगा।”
लल्लू खामोश हो गया। उससे कहते न बना कि वह फिर कोशिश नहीं करेगा।
“ठीक है।” -अन्त में वह हथियार डालता बोला — “जाता हूं।”
भीतर से आवाज न आई।
मन-मन के कदम रखता लल्लू वहां से विदा हुआ।
टी.वी. पर वीडियो से ब्लू फिल्म चल रही थी लेकिन मोनिका उसमें कोई रुचि नहीं लेती दिखाई दे रही थी। लगता था कि वह किसी मजबूरी के बस में होकर टी.वी. स्क्रीन की तरफ झांक रही थी।
“तू खुश नहीं?” — एंथोनी कहे बिना न रह सका।
“किस बात से?” — मोनिका हड़बड़ा कर बोली।
“कि विलियम के कातिल को मैंने ऊपर भिजवा दिया!”
“उसे कोई खास सजा नहीं मिली। नींद में ही ऊपर पहुंच गया। पता भी नहीं लगा होगा कि मर रहा है।”
“मतलब?” — एंथोनी के माथे पर बल पड़ गए।
“अच्छा होता अगर यह काम कानून करता। तब वह जेल में एड़ियां रगड़ता, अपनी मौत के इन्तजार में तड़पता, तब मेरे कलेजे में ठण्डक पड़ती।”
rajan
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“मोनिका, कैसे भी हुई, यह कहानी खत्म तो हुई!”
“मुझे हैरानी है विलियम जैसा आदमी नागप्पा जैसे आदमी से धोखा खा गया।”
“गलती कौन नहीं करता!”
“विलियम गलती करने वाला आदमी नहीं था।”
“कई बार हालात ऐसे बन जाते हैं कि आदमी गलती करता है, धोखा खाता है।”
“लेकिन नागप्पा! उस जैसे आदमी ने विलियम का गला रेतने की जुर्रत की!”
“की। उस्तुरा उसके घर से बरामद हुआ है।”
“यकीन नहीं आता।”
“भेजा फिरेला है!” — एंथोनी भड़क उठा — “तू क्या समझती है मैंने खामखाह एक आदमी का खून करवा दिया है?”
तभी एकाएक फोन की घण्टी बज उठी।
एंथोनी ने हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठाया।
“कौन है?” — वह रूखे स्वर में बोला।
“गुलफाम!” — आवाज आयी — “टोनी!”
“हां। क्या हुआ?”
“लल्लू ने जात दिखा दी।”
“मतलब?” — एंथोनी रिमोट कन्ट्रोल से टी.वी. की आवाज बन्द करता बोला।
“उसने काम नहीं किया। मैंने खुद अपनी आंखों से देखा।”
“जीसस!” — वह डिब्बे से हासिल होने वाले सात लाख रुपये के बारे में सोचता बोला — “यानी कि वो साला वीरू तारदेव अभी सलामत है?”
“अपुन ये कब बोला?”
“ओह!” — बात समझकर एकाएक एंथोनी हंसा — “ओह!”
“हमें लल्लू का कुछ करने का है। छोकरा टूट जायेंगा और हमें नपवा देंगा।”
“अभी नहीं। अभी कुछ नहीं करने का। जो करने का है, घाटकोपर बैंक वाले काम के बाद करने का है। अभी हमें लल्लू की जरूरत है। उस जैसा टॉप का ड्राइवर हमें खड़े पैर नहीं मिलने वाला।”
“ठीक है। जैसा तू बोले।”
लाइन कट गयी।
एंथोनी ने रिसीवर रख दिया।
ब्लू फिल्म में अब उसकी रूचि नहीं रही थी।
मोनिका में भी नहीं। उसे अफसोस था कि वह लल्लू को करम चन्द नहीं बना सका था।
एक गलत आदमी को चुनकर गलती उसने की थी लेकिन उसकी सजा लल्लू को मिलने वाली थी।
मौत की सजा!
आधी रात के करीब अष्टेकर थाने के करीब ही ट्रांजिट कैम्प के नाम से जाने जाने वाले इलाके के एक ढ़ाबे में बैठा था। ढ़ाबे में लोग जहां मेज पर बैठकर खाना खाते थे, वहीं बेवड़ा पीते थे लेकिन आज ढ़ाबे में इलाके के बड़े दरोगा की मौजूदगी की वजह से किसी मेज पर भी बेवड़े की बोतल प्रकट नहीं हुई थी। यह बात जुदा थी कि आज अगर ऐसा हुआ होता तो अष्टेकर ने वो नजारा इ‍सलिए नजरअन्दाज कर दिया होता क्योंकि आज वह खुद आधी बोतल शराब पीकर आया था।
कब्रिस्तान में मार्था को विलियम की कब्र के सिरहाने खड़ा देखकर वह बहुत आन्दोलित हुआ था। उसी का नतीजा यह निकला था कि आज उसने वो काम किया था जिसे वह सख्त नापसन्द करता था।
उसने थाने में ही बैठकर शराब पी ली थी।
तभी ढ़ाबे का मालिक अजमेर सिंह उसके पास पहुंचा।
“खाना लाऊं, माई-बाप?” — वह खुशामदभरे स्वर में बोला।
“नहीं।” — अष्टेककर सिर उठाकर बोला — “अभी नहीं।”
“थोड़ी और?” — उसने अंगूठा अपने मुंह से लगाया।
अष्टेकर ने घूरकर उसकी तरफ देखा।
अजमेर सिंह ने खींसे निपोरीं और अपनी खुली, लहराती दाढ़ी पर हाथ फेरा।
“और क्या हाल है?” — अष्टेकर ने पूछा।
“वदिया।” — अजमेर सिंह बोला।
“धन्धा कैसा चल रहा है?”
“वदिया।”
“गुण्डे, बदमाशों, मवालियों को तो इधर पनाह नहीं देता?”
“नई जी, बिल्कुल नईं। वाहे गुरु दी सौं।”
“बाल-बच्चे कैसे हैं?”
“एक नम्बर के हरामी हैं, जी। खून पीत्ता होया ने। सारा दिन लड़ते रह‍ते हैं आपस में। शोर-शराबा, धक्का-मुक्की तोड़-फोड़, यही कुछ होता रहता है सारा दिन। मां दी तो पागलखाने जाने जैसी हालत कर देते हैं लानती। वाहे गुरु बचाये ऐसी औलाद से तो।”
“कितने बच्चे हैं?”
“पांच।” — अजमेर सिंह ने उसे पंजा दिखाया — “चार मुंडे, इक कुड़ी। लेकिन कुड़ी मुंडयां तों ज्यादा कम्बख्त है, जी। भ्रांवा दी बराबरी करके लड़दी ए, जी। जम के बराबर दा मुकाबला करदी ए, जी। सारा दिन हाहाकार मचाई रखदे ने बच्चे सौरी दे।”
अष्टेकर की आंखों के सामने कब्र में दफन विलियम का चेहरा आ गया। मार्था से उसकी शादी हुई होती तो आधी दर्जन से कम बच्चे पैदा किये बिना वह न माना होता।
कितना शौक था उसे औलाद का।
“अजमेर सिंह” — अष्टेकर धीरे बोला — “तेरी जगह मैं होता तो शिकायत न कर रहा होता। घर में कम-से-कम तेरा कोई है तो सही जिसके पास तूने जाना होता है।”
“मैं समझ गया, जी, तुहाडी बात।” — अजमेर सिंह सहमति में गर्दन हिलाता बोला।
“नहीं। नहीं समझा तू। समझ भी नहीं सकता।”
“माई-बाप, मैं होया निरा अनपढ़। अंगूठाछाप। मैनूं की समझ...”
“इस बात का पढ़ाई से कोई रिश्‍ता नहीं। सरदार, जैसी गृहस्थी तेरी है, वैसी गृहस्थी के लिए मैं अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकता हूं।”
“घाटे में रहोगे, जी। आप ही सुखी हो। बीमारी, फीसां, कापियां-किताबां, किराया-भाड़ा, राशन-पानी, औलाद दे अग्गे की फिक्र में पिसकर रह जाओगे,जी। आपां बहुत दुखी जे, जी।”
“तू झूठा है।”
“चलो जी, मैं झूठा ही सही। अब खाना भेजूं?”
“हां, भेज।”
भेजने की जगह अजमेर सिंह एक ट्रे में अष्टेकर के लिए खुद खाना लेकर आया।
अष्टेकर ने अभी पहला ही कौर तोड़ा था कि हवलदार पाण्डुरंग उसे ढ़ाबे के भीतर दाखिल होता दिखाई दिया। वह लम्बे डग भरता अष्टेकर के करीब पहुंचा। उसने अष्टेकर के कान में जल्दी से कुछ कहा।
अष्टेकर ने एक गहरी सांस ली, हाथ में थमा कौर उसने वापिस ट्रे में डाल दिया और उठ खड़ा हुआ।
कम्पोजिट पिक्चर बनाने वाले पुलिस के आर्टिस्ट के साथ जोगलेकर रात के एक बजे तक थाने में बैठा। आर्टिस्ट उसे दर्जनों की तरह के नाक, कान, होंठ, ठोढ़ी, माथा, आंखों वगैरह के फोटोग्राफ दिखाता था जिसमें से उसने लल्लू से मिलते अंग छांटने होते थे। जब वह वे अंग छांट चुका होता था तो आर्टिस्ट उनकी एक कम्पोजिट पिक्चर तैयार करके दिखाता था जो कि जोगलेकर को लल्लू जैसी नहीं लगती थी। आर्टिस्ट उसके द्वारा बताए गए फर्कों के मद्देनजर नयी ड्राइंग बनाता था लेकिन जोगलेकर को वह भी उस पैसेंजर जैसी नहीं लगती थी जिसने उससे पचास रुपये उधार लेकर लौटाये नहीं थे।
rajan
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Re: Thriller कागज की किश्ती

Post by rajan »

यूं ही रात का एक बज गया।
तंग आकर जोगलेकर उठ खड़ा हुआ और अगले रोज फिर आने का वादा करके घर लौट गया।
बीस हजार रुपये का इनाम अभी उसकी पहुंच से बहुत दूर था।
अष्टेकर ने वीरू तारदेव की लाश का मुआयना किया।
लाश के कटे गले से भल-भल करके निकलता खून जब कमरे से बाहर राहदारी में बह आया था तो किसी पड़ोसी की उस पर निगाह पड़ी थी और उसने पुलिस को फोन किया था।
अष्टेकार ने लाश में दो बातें खास तौर से नोट कीं।
अपनी मौत की घड़ी में भी जो वीरू तारदेव वही अपना बदूनुमा बोरे जैसा लम्बा ओवरकोट पहने था जिसके बिना अष्टेकर ने उसे कभी नहीं देखा था।
उसका गला भी ऐन उसी तरीके से कटा हुआ था जिस से वह पहले विलियम का और फिर नागप्पा का कटा देख चुका था।
अगले दिन अखबार में वरसोवा बीच से दो नौजवान लड़कियों की नंगी, गोली खाई लाशों की बरामदी की खबर छपी जो कि इन्स्पेक्टर अष्टेकर ने भी पढ़ी और भूल गया। वैसी वारदात मुम्बई शहर में होती ही रहती थीं। वरसोवा उसका इलाका नहीं था और जिन केसों की वह तफ्तीश कर रहा था, उनका उस वारदात से कोई रिश्‍ता नहीं था।
खबर के साथ हत्प्राण लड़कियों के नाम नहीं छपे थे क्योंकि अभी उनकी शिनाख्त नहीं हो सकी थी। शोभा और शान्ता के नाम छपे होते तो अष्टेकर शायद उस खबर से उतना निर्लिप्त न रहता।
उसने अखबार फेंका और कोलीवाड़े की तरफ रवाना हो गया।
पिछली रात वहां से सिर्फ वीरू तारदेव की लाश ही उठाई गई थी, मौकायवारदात की व्यापक जांच-पड़ताल उसने अभी करनी थी, किन्हीं उपलब्ध गवाहों के बयान उसने अभी लेने थे।
लल्लू दोपहर को तब सोकर उठा जब उसकी मां ने उसे झिंझोड़ कर जगाया।
“अरे, क्या हो गया है तुझे!” — उसकी मां झल्लाई — “या तो घर आता नहीं। आता है तो सोया रहता है।”
“सोने दे, मां।” — लल्लू भुनभुनाया।
“मैंने तेरे लिए तीसरी बार चाय बनाई है। ले, पी ले।”
“रख दे। पीनी होगी तो पी लूंगा।”
“रखने से फिर ठण्डी हो जायेगी।”
“अच्छा, अच्छा।”
“अभी मैं सब्जी लेने बाजार गई थी तो सड़क पर बड़ी चर्चा थी।”
“किस बात की?” — लल्लू ने यूं ही पूछ लिया।
“इलाके में हुए खून की। पिछली रात किसी ने किसी का गला काटकर खून कर दिया।”
लल्लू चाबी लगे खिलौने की तरह उछल कर उठा।
उसकी मां हकबका कर तनिक पीछे हट गयी।
“क्या हुआ?” — वह बोली।
“जिसका खून हुआ, उसका कोई नाम सुना तूने? कौन था वो?”
“मुझे क्या पता कौन था वो! लेकिन” — मां एक क्षण ठिठककर बोली — “नाम लोग ले रहे थे।”
“क्या? क्या नाम?”
“अजीब-सा नाम था। आदमी का नहीं किसी आबादी का नाम लगता था।”
“तारदेव! वीरू तारदेव!”
“हां। यही। तू कैसे जानता है? तू तो अभी सोकर उठा है?”
“तूने ठीक से सुना था? लोग मरने वाले का यही नाम ले रहे थे?”
“हां। लेकिन तू...”
लल्लू बाहर को भागा।
“अरे, कहां जा रहा है, अभागे?” — मां पीछे से चिल्लाई — “चाय तो पीता जा। मैंने तीसरी बार बनाई है।”
“आकर पीता हूं।”
लल्लू सड़क पर आया और लगभग दौड़ता हुआ घटनास्थल पर पहुंचा।
वीरू तारदेव के घर वाली इमारत के सामने भीड़ लगी हुई थी। उसी भीड़ में उसे अष्टेकर भी दिखाई दिया जो कुछ लोगों से बातचीत कर रहा था।
लल्लू तनिक करीब सरक आया।
वीरू तारदेव अगर गला कटने से मरा था तो टोनी फौरन समझ जाने वाला था कि लल्लू उसको सौंपे गये काम को अंजाम नहीं दे पाया था।
लेकिन वीरू तारदेव का गला काटा तो किसने काटा?
गुलफाम अली ने?
“इन्स्पेक्टर साहब” — एक आदमी, जो शायद प्रेस रिपोर्टर था, अष्टेकर से पूछ रहा था — “क्या इस कत्ल का मिशन हस्पताल में हुए रामचन्द्र नागप्पा के कत्ल से कोई रिश्‍ता हो सकता है? कत्ल का तरीका तो दोनों केसों में एक ही है।”
“अभी मैं कुछ नहीं कह सकता।” — अष्टेकर उखड़े स्वर में बोला — “अभी तफ्तीश जारी है।”
“अपना अन्दाजा तो बताइये!”
“कत्ल अन्दाजों के दम पर हल नहीं होते, रिपोर्टर साहब।”
“कोई अपना जाती खयाल ही बताइये।”
“मेरा कोई जाती खयाल नहीं है।”
“विलियम का कत्ल भी” — एक दूसरा रिपोर्टर बोला — “इसी तरीके से हुआ था। क्या तीनों का कातिल एक ही आदमी हो सकता है?”
अष्टेकर खुद भी उस सवाल पर बहुत गौर कर चुका था।
“फिलहाल मैं कुछ नहीं कह सकता। अब आप लोग तशरीफ ले जाइये।”
और वह उस झुण्ड से अलग हुआ।
तभी उसकी निगाह लल्लू पर पड़ी।
वह लम्बे डग भरता लल्लू के करीब पहुंचा।
“हजारे!” — अष्टेकर बोला, वह उन दुर्लभ लोगों में से था जो उसे लल्लू नहीं कहते थे — “तू यहां क्या कर रहा है?”
“कुछ नहीं!” — लल्लू तनिक हड़बड़ाये स्वर में बोला — “इधर से गुजर रहा था। मैं पास ही तो रहता हूं! भीड़ देखकर ठिठक गया।”
“सुना तो होगा कि कल रात यहां वीरू तारेदव नाम के एक आदमी का कत्ल हो गया है?”
“हां, सुना है।”
“किससे सुना है?”
“कई लोग चर्चा कर रहे थे।”
“तू जानता था मरने वाले को?”
“मामूली जान-पहचान थी। पास्कल के बार में रोज आने वालों में से था वो।”
“पिछली बार रामचन्द्र नागप्पा के कत्ल में तो तेरी गवाही खुर्शीद ने दी थी और मैंने उसकी बात पर विश्‍वास करके तेरा खयाल छोड़ दिया था। इस बार कौन गवाही देगा तेरी?”
“मुझे गवाही की भला क्या जरूरत है? क्या इस इलाके में होने वाले हर कत्ल के लिए मेरे पर शक किया जाया करेगा?”
“जब तक टोनी और गुलफाम से यारी रखेगा, तब तक ऐसा ही होगा।”
“यह तो धांधली है!”
“इस धांधली से बचना चाहता है तो अपने लच्छन सुधार ले। मैंने तेरे बारे में खुर्शीद से भी बात की थी। उसने तुझे कुछ नहीं कहा? कुछ नहीं समझाया?”
“कहा था। समझाया था।” — लल्लू के मुंह से निकला — “उसने भी मुझे यही कहा था कि मैं टोनी और गुलफाम की यारी छोड़ दूं और यह शहर छोड़कर उसके साथ कहीं दूर निकल जाऊं।”
“उसने तुझे लाख रुपये की सलाह दी थी। वह लड़की तेरे जैसे घौंचू से प्यार करती है। उसके प्यार की कद्र कर, उसकी सलाह पर अमल कर वर्ना बेमौत मारा जायेगा।”
“अच्छा!”
“अच्छा यूं न कह, साले, जैसे मेरे पर कोई अहसान कर रहा हो। हामी अपने आप पर, अपनी कमउम्री पर रहम खाकर भर। समझा!”
लल्लू का सिर मशीन की तरह सहमति में हिला।
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