अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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Jemsbond
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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कमरुज्जमाँ ने कौतूहलवश मृत पक्षी के पास जा कर देखा तो उसे उसकी आँतों में कुछ चमकदार-सी चीज दिखाई दी। उसने वह चीज निकाल कर पानी से धो कर देखी तो वह वही यंत्रवाली मणि निकली जो उसके हाथ से निकल गई थी। उसे विश्वास हो गया कि अब उसका पत्नी से मिलन अवश्य हो जाएगा। दूसरे दिन माली ने उससे कहा कि फलाँ पेड़ सूख गया हे, उसे जड़ से खोद डालो। शहजादा कुल्हाड़ी ले कर उसे खोदने लगा। इसी काम में उसकी कुल्हाड़ी एक शिला से टकराई। उसने शिला हटा कर देखा तो एक सुंदर आवास पाया। उसमें ताँबे के पचास पात्र रखे थे जो स्वर्ण के चूरे से भरे थे। कमरुज्जमाँ ने माली से जा कर कहा तो वह बोला, वह धन तुम्हारे भाग्य का है, तुम्हीं ले लो। तीन दिन बाद तुम्हारा अवौनीवाला जहाज छूटेगा। तुम इस स्वर्ण चूर्ण को भी ले जाओ किंतु पात्रों को थोड़ा-थोड़ा खाली कर के जैतून का तेल भर देना जिससे यह सुरक्षित रहे। जैतून का तेल मेरे पास बहुत है। अब कमरुज्जमाँ ने उससे कहा, वैसे तो यह धन तुम्हारा ही है किंतु तुम अगर पूरा नहीं लेते तो आधा ही ले लो। माली ने यह बात स्वीकार कर ली।

कमरुज्जमाँ ने प्रत्येक पात्र का आधा स्वर्ण चूर्ण निकाल लिया और उसे माली के घर के एक कोने में ढेर बना कर रख दिया। उसने सोचा ऐसा न हो कि यह यंत्र फिर हाथ से जाता रहे अतएव एक पात्र को पूरा खाली कर के उसकी तह में यंत्र रख दिया और ऊपर से स्वर्ण चूर्ण बिछा दिया और उस बरतन पर निशान लगा दिया कि मणि निकालने में सुविधा रहे। यह प्रबंध कर के वह निश्चिंत हुआ ही था कि माली की दशा खराब हो गई। सवेरे उस जहाज का कप्तान आया और पूछने लगा कि हमारे जहाज पर यहाँ से कौन जानेवाला है। कमरुज्जमाँ ने कहा कि मैं ही जानेवाला हूँ, आप मेरी पचास हाँडियाँ जैतून के तेल की (जिसके नीचे स्वर्ण चूर्ण भरा था) जहाज पर पहुँचवा दीजिए। जहाज के मल्लाह वे हाँडियाँ ले गए। कमरुज्जमाँ ने कहा कि मैं भी दो दिन बाद आऊँगा। कप्तान ने जाने से पहले कहा कि जल्दी आना क्योंकि वायु अनुकूल होते ही हम चल देंगे।

कमरुज्जमाँ उतनी जल्दी न जा सका क्योंकि माली का रोग बढ़ता गया और दूसरे दिन वह मर गया। कमरुज्जमाँ उसकी लाश को वैसे छोड़ कर नहीं जा सकता था। उसने वहाँ के नागरिकों को इकट्ठा किया और उसे नहला-धुला कर उसका अंतिम संस्कार करवाने में कमरुज्जमाँ को कुछ अधिक समय लग गया। इससे निश्चिंत हो कर उसने बाग को ताला लगा कर उसकी चाबी अपनी जेब में रखी और फिर समुद्र तट पर देखने गया कि जहाज है या चला गया। जहाज वास्तव में उसके स्वर्ण चूर्ण से भरे पात्र ले कर जा चुका था। कमरुज्जमाँ को बहुत खेद हुआ किंतु हो ही क्या सकता था। उसने कुछ और हाँडियाँ खरीदीं और माली के हिस्से का स्वर्ण चूर्ण उनमें भर कर उनमें ऊपर से जैतून का तेल रख दिया। इन्हें सुरक्षित स्थान में रख कर उसने बाग के मालिक को चाबी देने के बजाय खुद बाग में रहने लगा और माली की जगह स्वयं उसकी देखभाल करने लगा क्योंकि अब तो उसे एक साल और काटना ही था।

उधर वह जहाज अनुकूल वायु पा कर शीघ्र ही अवौनी देश में पहुँचा। बदौरा हर नए जहाज को देखती थी कि शायद उसका पति उसमें आया हो। इस जहाज को भी देखने पहुँची। उसने बहाना बनाया कि मुझे जहाज से कुछ व्यापार की वस्तुएँ खरीदनी हैं। उसने जा कर जहाज के कप्तान से पूछा कि तुम कहाँ से आ रहे हो और जहाज में क्या- क्या माल है। कप्तान ने कहा कि जहाज पर हमेशा यात्रा करनेवाले व्यापारी ही हैं और माल भी वही है जिसे यह जहाज साधारण तौर पर लाता है। अर्थात सादा और छपाईदार कपड़ा, जवाहिरात, सुगंधियाँ, कपूर, केसर, जैतून आदि। बदौरा को जैतून बहुत पसंद था। उसने कहा कि मुझे तुम्हारा सारा जैतून और उसका तेल चाहिए और उसका मुँह माँगा दाम दे दिया जाएगा, सारा जैतून अभी उतरवाओ।

कप्तान ने सारा जैतून उतरवाया। और माल के दाम तो व्यापारियों को वहीं दे दिए किंतु कप्तान ने कहा कि एक व्यापारी पीछे छूट गया है, उसकी जैतून के तेल से भरी पचास हाँडियाँ भी मेरे पास हैं। बदौरा ने कहा, मुझे वह भी खरीदना है, तुम इसका दाम अगली बार जाने पर उस व्यापारी को दे देना। उसने उस माल का दाम भी पूछा। कप्तान ने कहा कि वह बहुत छोटा व्यापारी था, आप इस माल के साढ़े चार हजार रुपए दे दें। बदौरा ने कहा, नहीं, जैतून के तेल के भाव ऊँचे हैं। तुम्हें इसके लिए नौ हजार रुपए मिलेंगे जो तुम इसके मालिक को अपना किराया काट कर दे देना। किसी निर्धन व्यापारी की अनुपस्थिति का अनुचित लाभ उठाना ठीक नहीं है।

बदौरा के सुपुर्द वे हाँडियाँ कर के जहाज के कप्तान ने अन्य व्यापारियों का माल उतरवाया। बदौरा हाँडियों को महल में ले गई और उन्हें खोल कर देखने लगी। उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आधी-आधी हाँडियाँ स्वर्ण-चूर्ण से भरी थीं। एक हाँडी की तह में उसे वही यंत्र मिला जिसके साथ उसका पति गायब हो गया था। वह उसे देख कर अचेत हो गई। दासियों ने बेदमुश्क का अरक और अन्य दवाएँ छिड़क कर उसे प्रकृतस्थ किया। होश में आने पर वह बहुत देर तक उस यंत्र को चूमती और आँखों से लगाती रही। उसने दासियों के सामने तो कुछ न कहा किंतु अपनी सहेली यानी अवौनी की शहजादी को एकांत में जैतून के तेल की हाँडियों, स्वर्ण चूर्ण और मणि पर अंकित यंत्र का हाल बताया और कहा कि अब मुझे आशा हो गई है कि जिस प्रकार मेरे हाथ यह यंत्र वापस आया है उसी प्रकार मेरा पति भी वापस आएगा।

दूसरे दिन बदौरा फिर समुद्र तट पर गई और उसने उस जहाज के कप्तान को बुला भेजा और उसे उस व्यापारी का विस्तृत हाल पूछा जिसकी जैतून के तेल की हाँडियाँ थीं। कप्तान ने उसे बताया वह है तो मुसलमान किंतु प्रस्तर पूजकों के देश में रहता है। वह एक बूढ़े माली के साथ रहता है और उसी के साथ बाग में काम करता है। मैंने स्वयं बाग में उससे भेंट की थी। उसने कहा था कि मेरा माल जहाज पर ले चलो और कुछ समय के पीछे मैं भी आता हूँ। मैंने दो-तीन दिन तक उसकी प्रतीक्षा की किंतु न मालूम क्या कारण हो गया कि वह नहीं आया। मैंने मजबूरी में जहाज का लंगर उठा दिया क्योंकि बाद में अनुकूल वायु न रहती।

अब बदौरा ने अपने युवराज और मंत्री होने के अधिकार का प्रयोग किया। उसने सारे व्यापारियों और कप्तान का माल जहाज से उतरवा कर जब्त कर लिया और कप्तान से बोली, तुम्हें नहीं मालूम कि उस आदमी को न ला कर तुमने कितना बड़ा अपराध किया है। मुझे खजांची से मालूम हुआ कि वह आदमी हमारा लाखों का देनदार है और भगा हुआ है। तुम तुरंत ही जहाज को वापस ले जाओ और उस व्यक्ति को ले कर मेरे सुपुर्द करो। जब तक तुम यह न करोगे तुम्हारा और अन्य व्यापारियों का माल नहीं छोड़ा जाएगा। यह भी समझ लो कि अगर तुम उसे यहाँ न लाए तो तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा। अब देर न करो, तुरंत प्रस्तर पूजकों के देश की ओर रवाना हो जाओ क्योंकि उधर जाने के लिए वायु अनुकूल है।

कप्तान बेचारा जहाज ले कर तुरंत ही प्रस्तर पूजकों के देश की ओर चल दिया। कुछ ही दिनों में वह वहाँ पहुँच गया। उसने जहाज का लंगर डाला और एक नाव पर कुछ खलासियों को ले कर बैठा तो तट पर उतरा। बाग बस्ती के किनारे था। वहाँ जा कर उसने आवाज दी कि दरवाजा खोलो। कमरुज्जमाँ कई रातों से बदौरा की याद और माली की मृत्यु से दुखी हो कर ठीक से सोया नहीं था। वह इस समय सो रहा था। लगातार आवाजों और दरवाजा भड़भड़ाए जाने से वह उठा और द्वार खोल कर उसने पूछा कि क्या बात है, तुम लोग क्यों शोर कर रहे हो। कप्तान और उसके साथ के खलासियों ने इसकी बात का कोई उत्तर न दिया। वे एक साथ उस पर टूट पड़े और उसके लाख चीख-पुकार करने पर भी वे लोग उसे अपने जहाज पर ले गए और यह काम पूरा होते ही उन्होंने जहाज का लंगर उठा दिया।

जब जहाज चल पड़ा तो कमरुज्जमाँ से पूछा कि अब तो मुझे बताओ कि मेरा कसूर क्या है, तुमने मुझे पकड़ कर क्यों जहाज पर चढ़ाया है और अब मुझे कहाँ लिए जा रहे हो। कप्तान ने कहा कि तुम पर अवौनी के बादशाह का लाखों का कर्ज है और हमें आदेश है कि तुम्हें पकड़ कर शीघ्रातिशीघ्र अवौनी के बादशाह के सामने पेश करें। कमरुज्जमाँ ने कहा, भाई, जरूर उसे कोई भ्रम हुआ है। मैंने कभी उस बादशाह की सूरत भी नहीं देखी है। यह कैसे संभव है कि मैंने उसका लाखों का ॠण लिया हो? कप्तान ने कहा, हम तो उस बादशाह के आदेश का पालन मात्र कर रहे हैं। हम तुम्हारे साथ होनेवाले न्याय-अन्याय का फैसला नहीं कर सकते। किंतु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह बादशाह बहुत ही न्यायप्रिय है और यदि उसने वास्तव में भ्रमवश ही तुम्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया है और तुम वास्तव में निरपराध हो तो विश्वास रखो कि तुम्हारे साथ पूरा न्याय किया जाएगा और तुम्हें कोई दुख नहीं पहुँचेगा। कम से कम यात्रा के दौरान तुम्हारी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाएगा क्योंकि इसके लिए मुझे आदेश मिला है।

जहाज कुछ ही दिनों में अवौनी द्वीप में पहुँच गया। कप्तान ने तट पर पहुँचते ही युवराज बनी हुई बदौरा को समाचार भिजवाया कि आपका देनदार कैदी आ गया है। कुछ देर में वह खलासियों के बीच घिरे हुए कमरुज्जमाँ को ले कर युवराज के पास पहुँचा। बदौरा उसे मैले-कुचैले और फटे-पुराने कपड़ों में देख कर दुखी हुई। उसका जी चाहा कि दौड़ कर पति से लिपट जाए किंतु यह सोच कर रुक गई कि सब लोगों के सामने रहस्योद्घाटन ठीक न होगा।

उसने कमरुज्जमाँ को एक सरदार को सौंपा और कहा कि इसे नहला-धुला कर ठीक तरह के कपड़े पहनाओ और कल सुबह मेरे पास लाओ। दूसरे दिन जब कमरुज्जमाँ को उसके पास भेजा गया तो बदौरा ने कप्तान और व्यापारियों का सारा माल वापस कर दिया और साथ ही कप्तान को खिलअत (सम्मान वस्त्र) और ढाई हजार रुपए का पारितोषिक भी दिया। उसने कमरुज्जमाँ को भी एक उच्च राजपद दिया और हमेशा उसे अपने साथ रखने लगी। कमरुज्जमाँ बिल्कुल न पहचान सका कि यही उसकी पत्नी हैं और उसे अपने कृपालु स्वामी की तरह मानता रहा।

एक रात को बदौरा ने उसे यंत्रयुक्त मणि दिखा कर कहा, तुम तो बहुत-सी विद्याएँ जानते हो, इसे देख कर बताओ कि यह क्या चीज है और इसे अपने पास रखने का फल श्रेष्ठ होगा या नेष्ट। कमरुज्जमाँ को वह यंत्र देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह इस जगह कैसे आ गया। उसने कहा, मेरे मालिक, यह चीज बहुत ही अशुभ है। यह पहले मेरे हाथ आई और इसके कारण मुझ पर बड़ी-बड़ी मुसीबतें आईं और इसने लगभग अधमुआ कर दिया। इसी के कारण मेरी पत्नी मुझसे छूट गई जिसके वियोग में मैं रात-दिन तड़पता रहता हूँ। अगर मैं आप को पूरी कहानी सुनाऊँ तो आप को भी मुझ पर दया आएगी।

बदौरा ने कहा, तुम्हारी कहानी को विस्तारपूर्वक बाद में सुना जाएगा। अभी तुम कुछ देर यहीं पर मेरी प्रतीक्षा करो। मुझे कुछ देर के लिए विशेष काम है। यह कह कर वह अंदरवाले कमरे में चली गई। वहाँ जा कर उसने रानियों जैसे वस्त्र पहने और कमर में वही पटका बाँधा जिस में से खोल कर कमरुज्जमाँ उसका बटुआ ले गया था और फिर से बटुए में से यंत्रखचित मणि को निकाल कर देखने लगा था जिसके बाद पक्षी उसे ले भाग था।

कमरुज्जमाँ ने इस वेश में अपनी पत्नी को पहचान लिया और दौड़ कर उसे अपनी बाँहों में भर लिया। वह कहने लगा, यहाँ के युवराज की सेवा मुझे कितनी फली कि इतने समय बाद मैं अपनी प्राणप्रिया से मिल सका हूँ। बदौरा हँस कर कहने लगी, युवराज को भूल जाओ। वह तुम्हें अब दिखाई न देगा क्योंकि मैं ही युवराज बनी हुई थी। यह कहने के बाद उसने कमरुज्जमाँ से बिछुड़ने के दिन से लेर उस दिन तक का पूरा हाल कहा। कमरुज्जमाँ ने भी विस्तार से बताया कि उस दिन से ले कर यहाँ आने तक मुझ पर क्या बीती। इसके बाद वे दोनों पलंग पर जा कर आराम से एक-दूसरे की बाँहों में निद्रामग्न हो गए। सुबह बदौरा ने नहा-धो कर जनानी पोशाक पहनी और अवौनी के बादशाह को अपने महल में बुला भेजा।

बादशाह को अपने दामाद के बजाय एक सुंदरी को देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा, बेटी, तुम कौन हो? और मेरा दामाद कहाँ गया है? बदौरा मुस्करा कर बोली, पृथ्वीनाथ, मैं कल तक आपका दामाद और इस राज्य का युवराज थी। आज मैं चीन के बादशाह की बेटी और खलदान देश के राजकुमार की पत्नी हूँ। आप कृपया धैर्यपूर्वक मेरा वृत्तांत सुनें जो बड़ा ही विचित्र है। फिर उसने अपनी कहानी आद्योपांत कही और अंत में कहा, हम सब मुसलमान हैं। हमारे धर्म में कोई भी पुरुष दूसरा विवाह करता है तो उसकी पहली पत्नी के मन में ईर्ष्या जागती है। मैं शहजादे की पहली पत्नी हूँ। मैं स्वयं आप से प्रार्थना कर रही हूँ कि अपनी बेटी को मेरे पति से ब्याह दें। उसका मेरे साथ जो विवाह हुआ था वह झूठा था।

बादशाह को यह सुन कर आश्चर्य हुआ। उसने कमरुज्जमाँ को देखने की इच्छा की। बदौरा ने उसे ला कर उपस्थित किया। बादशाह उसे देख कर खुश हुआ और बोला, बेटे, अभी तक हम इसे अपना दामाद मानते थे। हमें नहीं मालूम था कि यह तुम्हारी पत्नी और चीन देश की राजकुमारी है। अब मैं तुम्हें दामाद बनाना चाहता हूँ। तुम्हारी पत्नी की भी यही इच्छा है। तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं अपनी बेटी ह्यातुन्नफ्स का विवाह तुम्हारे साथ कर दूँ। तुम उससे शादी कर के इस राज्य का शासन सँभालो।

कमरुज्जमाँ ने कहा, चाहता तो मैं यह था कि अपने देश को जाऊँ किंतु आपकी और बदौरा की जो इच्छा होगी उसे मैं अवश्य पूरा करूँगा। अतएव उसका विवाह धूमधाम के साथ अबौनी की शहजादी के साथ हो गया और दोनों स्त्रियाँ आपस में मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने लगीं। कमरुज्जमाँ बारी-बारी से दोनों के पास जाता और विहार करता और किसी पत्नी को दूसरी पत्नी के विरुद्ध शिकायत का मौका नहीं देता था।

भगवान की दया से एक ही वर्ष में उन दोनों को एक-एक पुत्र की प्राप्ति हुई। कमरुज्जमाँ ने उनके जन्मोत्सव पर लाखों रुपया खर्च किया। बदौरा के पुत्र का नाम रखा गया अमजद और अबौनी की शहजादी के बेटे का नाम असद हुआ। दोनों भाई बड़े हुए तो उन्हें कई योग्य शिक्षकों से प्रत्येक विषय की शिक्षा दिलवाई गई। बचपन में तो वे एक साथ खेले-कूदे ही थे, बड़े होने पर भी उनकी परस्पर प्रीति और बढ़ी। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि हमें अपनी माताओं के पृथक-पृथक महलों में न रखा जाए बल्कि एक अलग महल में दोनों को एक साथ रखा जाए। कमरुज्जमाँ ने यह बात मान ली।

जब वे उन्नीस वर्ष के हुए और राज्य प्रबंध सँभालने योग्य हुए तो कमरुज्जमाँ ने तय किया कि जब वह खुद शिकार के लिए जाया करें तो बारी-बारी से दोनों शहजादों के सुपुर्द राज्य प्रबंध कर जाया करे। एक खास बात यह थी कि दोनों रानियाँ अपने सगे बेटों से सौतेले बेटों को अधिक चाहती थीं यानी बदौरा को असद अधिक प्रिय था और ह्यातुन्नफ्स को अमजद। वे दोनों भी अपनी माताओं से अधिक विमाताओं को मानते थे। किंतु यही बात आगे जा कर स्त्रियों के वैमनस्य का कारण बन गई। दोनों यह चाहने लगीं कि अपने पुत्रों का मन उनकी विमाताओं यानी अपनी सौतों की ओर से फेर दें। एक दिन बदौरा का पुत्र अमदज राजसभा से उठ कर अपने महल को जा रहा था कि एक गुलाम ने उसे एक पत्र दिया जो उसकी विमाता ने लिखा था। यह पत्र पढ़ कर उसे ऐसा क्रोध चढ़ा कि उसने तलवार निकाल कर गुलाम के दो टुकड़े कर दिए। उसने पत्र अपनी माँ बदौरा को दिखाया। वह भी उसे पढ़ कर बहुत बिगड़ी और कहने लगी कि ह्यातुन्नफ्स ने मेरे बारे में जो लिखा है बिल्कुल बकवास है, और तुम भी अब मेरे सामने न आओ।

अमजद ने अपने महल में जा कर सारा हाल अपने भाई असद से कहा। उसे भी यह सुन कर बड़ा गुस्सा आया। दूसरे दिन असद राजसभा से महल को जा रहा था कि एक बुढ़िया को मार डाला और अपनी माँ के महल में जा कर उसे बदौरा के पत्र की बात बताई। वह यह सुन कर बहुत बिगड़ी और बोली, बदौरा ने तो बकवास की ही है, तेरा भी दिमाग फिर गया है। बेचारी बुढ़िया को बेकसूर ही मार डाला। अब तू मेरे सामने मत आना।

वास्तव में इन स्त्रियों ही ने एक-दूसरे के नाम से पत्र लिख कर अपने बारे में निराधार आरोप लगाए थे ताकि विमाताओं की ओर से पुत्रों का मन फिर जाए किंतु जब ऐसा न हुआ तो दोनों को भय हुआ कि बेटों ने अगर बादशाह कमरुज्जमाँ के शिकार से लौटने पर यह बात कह दी तो स्वयं उन दोनों यानी बदौरा और ह्यातुन्नफ्स की जान खतरे में पड़ जाएगी। अब दोनों ने मिल कर सलाह की कि इन नालायक बेटों को किस तरह ठिकाने लगाया जाए कि स्वयं उनके प्राण बचें।

कमरुज्जमाँ के शिकार से लौटने पर दोनों ने एक साथ ही बड़ी रोनी सूरत बना कर भेंट की। उसके पूछने पर दोनों ने बताया कि तुम्हारे दोनों बेटों ने हम दोनों पर निराधार आरोप लगाए हैं जिससे लज्जावश हमारा डूब मरने को जी करता है। कमरुज्जमाँ भी क्रोध में अंधा हो गया और उसने कहा कि ऐसे नालायकों को जो अपनी माँओं ही को लांछित करें जीने का कोई अधिकार नहीं है। उसने अपने एक विश्वस्त सरदार जिंदर से कहा कि तुम इन दोनों को रात ही रात किसी जंगल में जा कर मार डालो, और कल सुबह मुझे कोई चिह्न दिखाओ जिससे यह सिद्ध हो जाय कि यह दोनों मार डाले गए हैं।

जिंदर शाम को कोई बहाना बना कर दोनों को जंगल में ले गया और वहाँ उन्हें बताया कि बादशाह का आदेश है कि आप दोनों का मैं वध करूँ। दोनों ने कहा कि अगर उनकी यह इच्छा है तो तुम जरूर हमें मारो। लेकिन दोनों ही कहने लगे कि मुझे पहले मारो। जिंदर ने यह समस्या इस तरह हल की कि दोनों को एक चादर में बाँध दिया ताकि एक ही वार से दोनों खत्म हो जाएँ। फिर उसने तलवार निकाली।

तलवार की चमक देख कर जिंदर का घोड़ा बिदक कर भागा। जिंदर ने सोचा कि यह तो बँधे ही हैं, कहा जाएँगे, पहले अपना घोड़ा पकड़ लाऊँ। वह घोड़े के पीछे दौड़ा। इसी भाग-दौड़ और चीख-पुकार में एक झाड़ी में सोता हुआ एक शेर जाग कर बाहर निकल आया और जिंदर के पीछे पड़ गया। उधर जब जिंदर को लौटने में देर हुई तो उन दोनों ने कहा कि न जाने उस पर क्या मुसीबत पड़ी है, हमें जा कर उसकी मदद करनी चाहिए। ऐसे कब तक बँधे रहेंगे। यह सोच कर दोनों ने जोर लगा कर चादर खोली और अमजद ने जिंदर की तलवार उठाई और दोनों उधर दौड़े जिधर जिंदर और उसका घोड़ा गया था। कुछ दूर जा कर देखा कि एक शेर जिंदर पर सवार है और मारना ही चाहता है। अमजद ने शेर को ललकारा और वह अमजद पर झपटा। अमजद ने एक ही वार में शेर के दो टुकड़े कर दिए। उधर असद दौड़ कर गया और जिंदर का घोड़ा ले आया।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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जिंदर को उठा कर और उसके कपड़ों की धूल झाड़ कर दोनों शहजादों ने उससे कहा कि अब तुम पिताजी के आदेश का पालन करो। जिंदर ने दोनों की ओर देखा, शेर की लाश को देखा और दोनों के पैरों पर गिर पड़ा और बोला, मेरे मालिको, आपने मेरे प्राण बचाए और मैं आपके प्राण लूँ? यह तो हरगिज नहीं हो सकता। किंतु आप लोग एक दया करें कि अपना एक ऊपरी वस्त्र दें जिसे इस शेर के लहू में डुबो कर मैं बादशाह को आपके मरने का प्रमाण दूँ। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बादशाह मुझे और सारे कुटुंबियों को मार डालेगा। आप लोग यहाँ से किसी अन्य देश को चले जाएँ। उन दोनों ने ऐसा ही किया जैसा जिंदर ने कहा था।

जिंदर उनके खून से सने कपड़े ले कर कमरुज्जमाँ के पास गया। इन वस्त्रों को देख कर बादशाह को कोप की जगह पश्चात्ताप का बोध होने लगा कि इतने सुंदर और बुद्धिमान शहजादों को मैंने खुद ही मरवा दिया। उनके वस्त्रों की जेबों में वे पत्र भी मिले जो उन्हें भिजवाए गए थे। कमरुज्जमाँ अपनी दोनों पत्नियों की हस्तलिपि पहचानता था और समझ गया कि दोनों स्त्रियों ने शहजादों को छला है। उसे अब और भी दुख हुआ कि निर्दोष राजकुमारों को मरवा डाला। वह रंज के मारे पछाड़ें खाने लगा और कहने लगा कि मुझ जैसा अत्याचारी पिता भी इस संसार में कहाँ होगा क्योंकि मैंने अपनी दुष्ट पत्नियों के बहकावे में आ कर अपने बेटों को मरवा दिया। उसने प्रतिज्ञा की कि इन स्त्रियों का मुँह कभी न देखूँगा। उसने अपनी दोनों रानियों को गिरफ्तार कर के बंदी गृह में डलवा दिया। इस पर भी उसके चित्त को शांति न थी और वह रात-दिन अपने बेटों के वियोग में रोया करता।

इधर वे दोनों भाई जंगल में भटकते रहे और फल-फूल खा कर जीवन यापन करते रहे। रात को आधे समय एक भाई सोता और दूसरा पहरा देता ताकि कोई वन्य प्राणी हमला न कर दे। शेष रात को दूसरा भाई पहरा देता और पहला सोता। एक मास तक इसी तरह चलते-चलते वे एक पहाड़ की तलहटी में पहुँचे। फिर वे उस पहाड़ पर चढ़ने लगे। पहाड़ की खड़ी चढ़ाई थी। असद अत्यधिक थक गया और वहीं गिर गया। अमजद साहस कर के पहाड़ की चोटी पर चढ़ गया। वहाँ पर फलों से लदा हुआ एक अनार का पेड़ था और एक मीठे पानी का स्रोत था। वह असद को सहारा दे कर पहाड़ की चोटी पर ले गया। वहाँ दोनों ने पानी पिया, अनार खाए और तीन-दिन वहाँ आराम किया। फिर वे पहाड़ की चोटी पर बने समतल मार्ग पर चलने लगे और इसी प्रकार चलते रहे। फिर रास्ता नीचे जाता दिखाई दिया। वे उस पर से उतरने लगे। कुछ दिनों बाद उन्हें दूर पर एक नगर बसा हुआ दिखाई दिया। अमजद ने कहा कि हम दोनों ही चलें। असद बोला, यह ठीक नहीं है। संभव है वहाँ कोई खतरा हो, जाना पहले एक ही को जाना चाहिए। कम से कम एक तो सुरक्षित रहेगा। तुम यहीं ठहरो, मैं जाता हूँ और हम दोनों के लिए भोजन ले कर आता हूँ। यह कह कर वह नगरी की ओर चल पड़ा।

नगर में पहुँचा तो सब से पहले उसे एक बूढ़ा मिला। उसने पूछा, बाबा, यहाँ का बाजार कहाँ है। मुझे अपने और अपने भाई के लिए भोजन खरीदना है। बूढ़े ने पूछा कि क्या तुम परदेसी हो। उसने कहा कि हाँ। बूढ़े ने उसे ऊपर से नीचे तक देख कर कहा, बेटा, तुम बाजार की चिंता छोड़ दो, मेरे घर चलो। वहाँ प्रचुर खाद्य सामग्री है, तुम खुद भी पेट भर खाना और अपने भाई के लिए भी जितनी चाहना ले जाना। यह कह कर वह छली बूढ़ा उसे अपने विशाल मकान में ले गया। असद ने देखा कि चालीस बूढ़े अग्नि के चारों ओर बैठे उपासना कर रहे हैं। असद घबराया कि यह अग्निपूजक धोखे से मुझे यहाँ ले आया है और मेरा न जाने क्या करेगा।

उस बूढ़े ने अपने साथियों से कहा कि अग्निदेव हम पर प्रसन्न हैं, उन्होंने अपनी भेंट के लिए हमारे हाथ में इस मुसलमान को पहुँचाया है। फिर उसने गजवान, गजवान पुकार कर कई आवाजें दीं। इस पर एक लंबा-चौड़ा हब्शी आया। बूढ़े के इशारे पर उसने असद को जमीन पर पटक दिया और बाँध दिया। बूढ़े ने कहा, इसे ले जा कर तहखाने में रखो और मेरी बेटियों बोस्तान और कैवाना के सुपुर्द कर दो। उन्हें मेरा यह आदेश भी देना कि वे दिन में कई बार इसकी पिटाई किया करें और चौबीस घंटे में एक बार दो छोटी रोटियाँ और एक लोटा पानी दे दिया करें ताकि यह मरे नहीं। साल भर बाद अग्निदेवता के बलिदान का दिन आएगा। तब हम इसे जहाज पर चढ़ा कर ज्वालामुखी पर्वत को ले जाएँगे और अग्निदेवता के सामने इसकी बलि देंगे।

गजवान के आदेशानुसार असद को तहखाने में डाल दिया। वहाँ बोस्तान और कैवान अक्सर आतीं और असद को खूब पीटतीं जिससे वह बेहोश हो कर गिर जाता। वे दोनों उसे रोटी के कुछ टुकड़े और एक लोटा पानी भी रोज दे देतीं जिससे उसके प्राण बच रहते। असद को अपनी इस दुर्दशा पर बहुत दुख था किंतु साथ ही उसे यह संतोष भी था कि अकेले मुझी पर मुसीबत है, मेरा भाई अमजद तो इस से बचा हुआ है।

उधर अमजद ने शाम तक असद के आने की राह देखी। रात को उसे बड़ा दुख हुआ और उसने समझ लिया कि असद किसी मुसीबत में फँस गया है। किसी तरह उसने रात काटी और सुबह उठ कर शहर को चला कि भाई का पता लगाए। उसे देख कर ताज्जुब हुआ कि शहर में मुसलमान इक्का-दुक्का ही दिखाई देते हैं। एक मुसलमान को रोक कर उसने पूछा कि यह कौन-सा नगर है। उसने कहा, तुम परदेसी हो यहाँ कहा आ फँसे। यह अग्निपूजा नगर है क्योंकि यहाँ सब अग्निपूजक रहते है। अमजद ने पूछा कि अवौनी नगर यहाँ से कितनी दूर है। उसने कहा, जलमार्ग सरल है, इससे वहाँ चार महीने में पहुँच जाते हैं। थल मार्ग में कठिनाइयाँ हैं लेकिन उसमें दो महीने ही में पहुँच जाते हैं। अमजद आश्चर्य से सोचने लगा कि मैं तो सवा महीने ही में यहाँ पहुँच गया। फिर उसने सोचा कि मेरी तरह इस बीहड़ रास्ते से कौन जाता होगा। सूचना देनेवाले को जल्दी थी, वह अपने काम में चला गया।

अमजद घूमता-फिरता एक दरजी की दुकान पर पहुँचा। वह भी मुसलमान था। अमजद ने उसे अपनी कठिन यात्रा और अपने भाई के गुम होने की बात कही। दरजी ने कहा, अगर तुम्हारा भाई किसी अग्निपूजक के हाथ में पड़ गया तो उसकी जान बचना मुश्किल है। तुम खुद अपनी जान की फिक्र करो। वह उसके साथ रहने लगा। एक महीना इसी प्रकार बीता। अमजद दरजी का थोड़ा-बहुत काम कर दिया करता था।

एक दिन वह बाजार में घूम रहा था कि उसे एक अत्यंत रूपवती स्त्री मिली। उस स्त्री ने उसे एक ओर ले जा कर और अपने मुँह से नकाब उठा कर कहा, मेरे प्यारे, तुम किस देश के वासी हो? कब से यहाँ पर हो? इस समय कहाँ जा रहे हो? अमजद उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गया और बोला, जा तो मैं अपने महल को रहा था। किंतु अब तुम जहाँ ले जाओगी वहीं चला चलूँगा। स्त्री ने कहा, मैं प्रतिष्ठित परिवार की स्त्री हूँ। हम लोग अपने प्रेमियों को अपने घर नहीं ले जाते। प्रेमी ही हम लोगों को अपने घर ले जाते हैं।

अमजद सोचने लगा कि मैं इसे कहाँ ले जा सकता हूँ, मेरा तो कोई घर ही नहीं है। अगर मैं दरजी के यहाँ इसे ले जाता हूँ तो वह क्या करेगा। इसलिए उसने स्त्री को कोई उत्तर न दिया और दरजी के घर की ओर चल पड़ा। किंतु वह निर्लज्ज स्त्री भी उसके पीछे हो ली। अमजद ने सोचा कि इसे भटकाना चाहिए इसलिए वह गलियों में चक्कर लगाने लगा। किंतु उस स्त्री ने पीछा न छोड़ा। अंततः वह थक कर एक गली में ऐसे मकान पर पहुँचा जहाँ सामने चबूतरे पर चौकियाँ बिछी थीं। वह थक कर एक चौकी पर बैठ गया। स्त्री भी वहीं बैठ गई।

स्त्री ने पूछा कि क्या तुम्हारा महल यही है। अमजद फिर चुप रहा। स्त्री बोली, प्रियतम, बाहर क्यों बैठे हो? ताला खोल कर अंदर क्यों नहीं चलते? अमजद ने बहाना बनाया कि महल की ताली मेरे दास के पास है जो बाजार चला गया है ताकि मेरे लिए भोजन लाए। वह सोचता था कि स्त्री उससे ऊब कर चली जाएगी किंतु वह वहीं डटी रही। कुछ देर बार वह कहने लगी, तुम्हारा गुलाम बड़ा लापरवाह आदमी है, इतनी देर तक बाजार से नहीं आया। जब आए तो उसे खूब सजा देना। अमजद ने उससे पीछा छुड़ाने के उद्देश्य से हाँ कर दी। कुछ देर बार स्त्री दरवाजे पर लगा हुआ ताला तोड़ने लगी। अमजद ने कहा, ताला क्यों तोड़ रही हो। उसने कहा कि आखिर घर तो तुम्हारा ही है, एक ताला खराब हो जाएगा तो कौन बड़ा नुकसान हो जाएगा।

अमजद सोचने लगा कि कुछ गड़बड़ी हुई तो यह तो औरत है, इससे कोई कुछ नहीं कहेगा, मुझी को सब लोग पकड़ेंगे। उसने सोचा कि चुपके से चल दे। किंतु वह स्त्री अंदर जा कर फिर बाहर आई और कहने लगी कि तुम अंदर क्यों नहीं चलते। अमजद ने कहा कि मैं अपने गुलाम की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। उस औरत ने कहा, प्रतीक्षा तो अंदर बैठ कर भी हो सकती है, बाहर बैठ कर प्रतीक्षा करना क्या जरूरी है? विवश हो कर अमजद को अंदर जाना पड़ा। उसने देखा कि मकान बहुत ही साफ-सुथरा और लंबा-चौड़ा है। दोनों कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर बैठकवाली दालान में गए। वह दालान बहुत साफ-सुथरी और सुरम्य वस्तुओं से सजी हुई थी। एक ओर कई सुंदर पात्रों में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन रखे थे और दूसरी तरफ फलों और मेवों के पात्र थे। एक ओर शीशे की सुराहियों में सुवासित मदिरा भरी थी और मदिरा पान के लिए कई सुंदर प्याले थे। अमजद सोचने लगा कि यह किसी रईस का मकान है और किसी समय भी उसके नौकर-चाकर आ कर मेरी पिटाई करेंगे।

वह तो इस चिंता में था और स्त्री उससे कहने लगी, प्यारे, तुम तो कहते थे कि तुमने गुलाम को खाद्य वस्तुएँ खरीदने के लिए बाजार भेजा है, यहाँ तो इतना उत्तमोत्तम सामान रखा हुआ है। मालूम होता है तुम्हारा गुलाम यह भोजन, फल आदि रख कर कहीं ओर चला गया है। और तुम कहीं इसलिए तो उदास नहीं बैठे हो कि यह सब किसी और सुंदरी के लिए था और मैं बीच में आ गई। तुम चिंता न करो। मैं उसके आने पर आपत्ति भी न करूँगी और उसे मना भी लूँगी जिससे तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी। हम तीनों मिल कर आनंद मनाएँगे। अमजद ने हँस कर कहा, कोई और स्त्री नहीं आएगी। लेकिन यह भोजन मेरे खाने योग्य नहीं है, मेरे विश्वासों के अनुसार यह अपवित्र है। मेरा गुलाम मेरे लिए पवित्र भोजन लाता होगा। मैं इसीलिए कुछ खा नहीं रहा हूँ।

किंतु वह स्त्री लंबी प्रतीक्षा के लिए तैयार न थी। उसने भोजन करना आरंभ कर दिया। दो-चार ग्रास खा कर उसने शराब का प्याला भर कर पिया और एक प्याला अमजद को दिया। उसने विवश हो कर उसे पी लिया। वह यह भी सोचने लगा कि अच्छा हो कि गृह स्वामी के सेवकों के आने के पहले हम लोग खा-पी कर चल दें वरना बड़ी बदनामी होगी। इसलिए वह थोड़ा-बहुत जल्दी-जल्दी खाने लगा किंतु वह स्त्री आराम से खा-पी रही थी।

इतने में घर का मालिक आता दिखाई दिया। स्त्री उसे न देख सकी क्योंकि उसकी पीठ दरवाजे की तरफ थी। अमजद ने उसे देख लिया और उसे चिंता बढ़ी कि अब क्या होगा। किंतु गृहस्वामी ने उसको संकेत दिया कि चिंता न करो और आराम से खाओ- पियो। वास्तव में घर का स्वामी शाही घुड़साल का प्रधान अधिकारी था। उसका नाम बहादुर था। उसके निवास का मकान दूसरा था। इस घर में वह आमोद-प्रमोद के लिए आया करता था। उस दिन उसके अपने कुछ मित्रों को भोज पर बुलाया था और इसीलिए सारा सामान ला रखा था। किंतु बाहर से आने पर ताला टूटा देखा और अंदर एक आदमी और एक औरत को मौज-मस्ती करते देखा तो छुप कर देखने लगा कि आगे क्या होता है।

अमजद लघुशंका के बहाने उठा और बहादुर से आ कर धीमे-धीमे बात करने लगा। उसने सारा हाल उसे बताया। बहादुर ने कहा, शहजादे, आप चिंता न करें। मुझे विश्वास हो गया कि आप निर्दोष हैं। मेरा तो इसके अलावा दूसरा घर है जहाँ मैं निवास करता हूँ और इस घर में कभी-कभी आमोद प्रमोद के लिए आता हूँ। मैं तो वैसे भी आप का सेवक हूँ। मैं कुछ देर में गुलामों के-से कपड़े पहन कर आता हूँ। आप मुझ पर नाराज हों बल्कि मुझे मारें भी कि मैंने इतनी देर क्यों लगाई। आप रात भर उस स्त्री के साथ सहवास करें और सबेरे इसे कुछ दे-दिला कर विदा करें। मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली मानता हूँ कि किसी शहजादे ने मेरे घर पर पधार कर उसे पवित्र किया। आप जा कर रुचिपूर्वक भोजन करें। शहजादा यह सुन कर अंदर आ गया और खाने-पीने लगा।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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बहादुर घर के बाहर गया क्योंकि आमंत्रित मित्र आ पहुँचे थे। उसने उनसे बहाना बनाया कि एक अपरिहार्य कारण से दावत स्थगित करनी पड़ी है। मैं आप लोगों को फिर बुलाऊँगा। आज के लिए आप लोग मुझे क्षमा करें। मित्रगण बाहर ही से वापस लौट गए। इधर बहादुर गुलामों जैसे कपड़े पहन कर आया और शहजादे के पैरों पर गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगा। अमजद ने बनावटी क्रोध में कहा कि तुम सुबह के गए थे, अभी तक कहाँ मर रहे थे। बहादुर फिर क्षमा याचना करने लगा। अमजद ने कहा कि मैं आज तेरी पिटाई किए बगैर नहीं मानूँगा। यह कह कर वह उठा और एक छड़ी उठा कर दो-चार बार बहादुर को हल्की चोटें दीं। स्त्री ने कहा, इस तरह मारने से इसकी समझ में कुछ आएगा? देखो, सजा ऐसी दी जाती है। यह कह कर उसने चार-छह छड़ियाँ पूरे जोर से मारीं और बहादुर बिलबिला उठा और चिल्ला कर रोने लगा। अमजद ने उस स्त्री के हाथ से छड़ी छीन ली और बोला, रहने दो, आखिर वह भी आदमी है, जानवर तो नहीं जो इतनी बेदर्दी से मार रही हो।

बहादुर आँसू पोंछता हुआ उठ खड़ा हुआ और गुलामों की तरह दोनों को मदिरा पात्र भर-भर कर देने लगा। जब वह दोनों अच्छी प्रकार खा-पी चुके तो उसने एक कमरे में दोनों की शय्या तैयार की ताकि रात को उस पर सोएँ। शाम होने पर उसने सारे घर में दिए जलाए। काफी रात होने पर जब शहजादा और स्त्री अपने कमरे में गए तो वह खुद बाहर दालान में अपने बिस्तर पर लेट गया ताकि जरूरत होने पर शहजादा उसे बुला सके। दुर्भाग्यवश बहादुर सोते समय बड़े जोर से खर्राटे भरता था। स्त्री को असुविधा हुई तो उसने कहा कि तुम अभी जा कर उस बदतमीज गुलाम का सिर काटो, वह तो रात भर सोने नहीं देगा।

अमजद ने समझा कि वह नशे में बहक कर ऐसा कह रही है। वह बोला, खर्राटे भरना तो ऐसा अपराध नहीं है जिस पर किसी की गर्दन मारी जाए। मुझे तो पहले ही उस पर तरस आ रहा है कि तुमने उसे ऐसी क्रूरता से मारा। वह बोली, तुम्हें मेरा ज्यादा ख्याल है या एक तुच्छ गुलाम का? मैं दिल से चाहती हूँ कि उसे मार डाला जाए। आखिर एक गुलाम ही तो है। अगर तुम नहीं मारते तो मैं खुद जा कर उसकी गर्दन अलग करती हूँ।

अमजद ने सोचा कि किसी तरह बहादुर की जान तो बचानी ही चाहिए। उसने कहा कि तुम्हारी यही जिद है तो यही सही लेकिन वह मेरा गुलाम है, उसे मैं ही मारूँगा, तुम नहीं। यह कह कर उसने स्त्री के हाथ से तलवार ले ली। स्त्री उसके आगे-आगे यह देखने को चली कि अमजद वास्तव में उसे मारता है या यूँ ही छोड़ देता है। सोते हुए बहादुर के पास पहुँच कर अमजद ने तलवार निकाली और दो कदम पीछे हट कर बहादुर के बजाय उस स्त्री की गर्दन पर ऐसा शक्तिशाली प्रहार किया कि उसकी लाश दो टुकड़े हो कर जमीन पर गिर पड़ी।

बहादुर इस शब्द से चौंक कर जागा तो देखा कि शहजादे के हाथ में खून से सनी तलवार है और स्त्री के शरीर के दोनों टुकड़े तड़प रहे हैं। उसने आश्चर्य से पूछा कि आपने इसे क्यों ऐसी सजा दी। अमजद ने कहा, अगर मैं इसे ना मारता तो तुम्हारी जान किसी तरह नहीं बच सकती थी। इसके बाद उसने बताया कि वह क्या जिद कर रही थी। बहादुर ने शहजादे के पाँव पर सिर रख दिया और कहा, आप बड़े कृपालु हैं, आप ही के कारण मैं इस निर्लज्ज कुलटा के हाथ से मरते-मरते बचा। अब मैं इसकी लाश ले जा कर अँधेरे में कहीं फेंक आता हूँ। दिन निकलने पर यह लाश यहाँ पाई गई तो बड़ा झंझट होगा।

उसने यह भी कहा, खतरा अब भी है। इसलिए मैं अपनी सारी संपत्ति का उत्तराधिकार आपको लिखे देता हूँ। इस स्त्री के गहने आदि तो आप ले ही लीजिए। अगर मैं सूर्योदय तक इस लाश को ठिकाने लगा कर आ गया तो ठीक है वरना समझ लेना कि मैं पकड़ा गया। यह कह कर वह एक चादर में लाश बाँध कर ले चला। रास्ते में उसे दुर्भाग्यवश पुलिस की गश्त मिल गई। सिपाहियों ने गठरी खुलवा कर देखा तो लाश पाई। वह बहादुर को लाश की गठरी समेत थाने में ले गए और प्रमुख अधिकारी से बोले कि यह गुलाम इस स्त्री को मार कर फेंकने के लिए ले जा रहा था।

प्रमुख अधिकारी गुलामों के वेश में भी अश्वशाला के प्रमुख को पहचान गया। उसने तय किया कि मुझे खुद इसे सजा देने के बजाय बादशाह के सामने पेश करना ठीक रहेगा। उसने रात भर बहादुर को मय लाश के अपने घर में बंद रखा और सुबह दोनों को बादशाह के सामने पेश कर दिया। बादशाह को यह देख कर बड़ा क्रोध आया। उसने बहादुर से कहा, तू कितना बेशर्म है। इतना बड़ा अधिकारी हो कर भी इस प्रकार निरपराधों की हत्या करता है। तुझे तो जीने का बिल्कुल अधिकार नहीं है। यह कह कर उसने पुलिस अधिकारी से कहा कि इसे चौराहे पर फाँसी की टिकटी लगा कर आज ही फाँसी दी जाए।

प्रमुख पुलिस अधिकारी ने सारे शहर में मुनादी करवा दी कि एक अपरिचित स्त्री को मारने के अपराध में शाही घुड़साल के मुख्याधिकारी को फलाँ चौराहे पर फाँसी दी जाएगी। अमजद ने यह मुनादी सुनी तो समझ गया कि बहादुर पकड़ा गया है और फाँसी चढ़ाया जानेवाला है। वह फौरन फाँसीवाले चौराहे पर चला गया। उसने पुलिस अधिकारी से कहा, अपराधी यह आदमी नहीं है, मैं हूँ। मैंने उस स्त्री को मारा है क्योंकि वह इसे मारना चाहती थी। यह कह कर उसने पिछले दिन का सारा किस्सा पुलिस अधिकारी को सुनाया। उसने दुबारा बहादुर और अमजद को मय लाश के बादशाह के सामने पेश कर दिया।

बादशाह ने अमजद से सारा किस्सा सुन कर पूछा कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो। उसने अपनी सारी कहानी - पिता द्वारा मृत्यु-दंड मिलने, भटकते हुए यहाँ आने और दो दिन पहले छोटे भाई के लापता होने की बात सुनाई। बादशाह ने कहा, इस स्त्री को मार कर तुमने अच्छा किया, मैं तुम्हें इसके लिए दंड नहीं दूँगा। बहादुर का तो कोई कसूर ही नहीं है इसलिए इसे इनाम दे कर इसके पद पर प्रतिष्ठापूर्वक भेजूँगा। तुम्हें मैं अपना मंत्री बनाऊँगा ताकि तुम्हारे पिता ने जो ज्यादती तुम्हारे साथ की है उसका कुछ तो प्रतिकार हो जाए।

मंत्री बनने के बाद अमजद ने सार्वजनिक घोषणा करवाई कि जो भी असद का समाचार ला कर देगा उसे बहुत इनाम दिया जाएगा। उसने सैकड़ों जासूस भी इस काम के लिए नियुक्त किए किंतु असद का कहीं पता नहीं चला। वह बेचारा उसी तहखाने में बंद रहता और रोजाना बूढ़े की बेटियों बोस्तान और कैवाना के हाथ से खूब मार खाने के बाद रोटी का टुकड़ा पाता। धीरे-धीरे उसके भेंट चढ़ जाने का दिन आया। बूढ़े ने उसे एक जहाज के कप्तान बहराम को सौंपा जो उसे एक संदूक में बंद कर के अपने जहाज में ले चला।

जहाज छूटने के पहले अमजद को मालूम हो गया था कि अग्निदेवता की बलि के लिए साल में एक जहाज इस नगर में आया करता है और किसी न किसी मुसलमान को बलि चढ़ाने के लिए ले जाता है। उसने सोचा कि इस बार कहीं असद ही को तो इस हेतु नहीं भेजा जा रहा है। उसे इस जहाज पर शक था इसलिए वह स्वयं भी जहाज पर चढ़ गया और सारे खलासियों और व्यापारियों को अलग खड़ा कर के अपने सेवकों को जहाज की तलाशी लेने की आज्ञा दी। सेवकों ने अच्छी तरह हर जगह देखा किंतु असद को संदूक में बंद किया गया था इसलिए वह न मिला। इसके बाद जहाज को यात्रा करने की अनुमति दे दी गई।

रास्ते में बहराम कप्तान ने असद को संदूक से निकाला लेकिन उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल दीं ताकि वह अपनी बलि की बात सुन कर समुद्र में न कूद पड़े। किंतु जहाज इच्छित ज्वालामुखी के द्वीप में न पहुँचा। प्रतिकूल वायु और समुद्री धाराओं ने उसे दूसरी ओर मोड़ दिया। कुछ दिनों बाद भूमि दिखाई दी किंतु जब कप्तान बहराम ने पहचाना कि यह कौन-सा देश है तो वह बहुत घबराया। यह भूमि एक मुसलमान रानी मरजीना का राज्य था। वह अग्निपूजकों की घोर शत्रु थी।

वह अपने देश में किसी अग्निपूजक को नहीं रहने देती थी बल्कि उनका कोई जहाज भी अपने बंदरगाहों में नहीं आने देती थी। जहाज वहाँ के तट पर पहुँचा तो बहराम ने अपने साथियों से कहा, यदि मरजीना के सिपाही जहाज पर इस कैदी को बेड़ियों में देखेंगे तो मरजीना जहाज को लुटवा देगी और हम सब लोगों को मरवा डालेगी। इसलिए इस आदमी की बेड़ियाँ काट दो और इसे नौकरों जैसे कपड़े पहना दो। मैं इसी के हाथ से रानी को रत्नादि की भेंट दिलाऊँगा ताकि रानी भी प्रसन्न हो और यह भी समझे कि मुझे बलि नहीं चढ़ाया जाएगा।

जहाज के लोगों को कप्तान का यह उपाय पसंद आया क्योंकि इसके अलावा और किसी प्रकार रानी के कोप से बचा ही नहीं जा सकता था। असद की बेड़ियाँ काट दी गईं और उसे दासों जैसे सफेद कपड़े पहनाए गए। उन लोगों ने उसे बढ़िया खाना खिलाया और झूठा आश्वासन दिया कि यहाँ से निकल कर हम तुम्हें तुम्हारे देश में पहुँचा देंगे। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि उस बुड्ढे के घर पर तुम से जो दुर्व्यवहार हुआ है वह किसी को न बताना वरना हम लोग तुम्हें जीता न छोड़ेंगे।

उन्होंने हर तरह की खुशामद और धमकी से काम लिया।

असद ने भी देखा कि उनकी बात को अस्वीकार करने में कोई लाभ नहीं है, उसने मान लिया कि मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा। अब जहाज ने मरजीना के बंदरगाह में लंगर डाला। मरजीना का बाग समुद्र तट पर था और वह उस समय अपने बाग की सैर कर रही थी। उसने अग्निपूजकों का जहाज देखा तो अपने सिपाही भेजे और कुछ देर में स्वयं समुद्र तट पर आ गई। कप्तान बहराम असद के हाथ भेंट वस्तुएँ ले कर उसके पास गया और झुक कर सलाम करने के बाद कहा कि हम प्रतिकूल वायु और समुद्र धाराओं से विवश हो कर आपके बंदरगाह पर टिके हैं। हम लोग व्यापारी हैं और दासों का व्यापार करते हैं। हमारे और दास तो बिक गए और सिर्फ यह बचा है। यह पढ़ा-लिखा है इसलिए हमने इसे हिसाब-किताब लिखने के लिए रख लिया है।

मरजीना असद के रूप पर मुग्ध हो गई। उसने कहा, तुम अपनी सभी भेंट वस्तुएँ अपने पास रखो, केवल इस दास को मुझे दे दो। तुम इसका जो भी मूल्य माँगोगे वह मैं दे दूँगी। यह कह कर वह बहराम के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर ही असद के हाथ में हाथ डाल कर बाग में घूमने लगी। कुछ देर बाद उसने असद से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? असद ने आँसू भर कर कहा, मलिका, मैं अपना कौन-सा नाम बताऊँ। कुछ महीने पहले तक मेरा नाम असद था और मैं अवौनी का शहजादा था। अब मेरा नाम कुरबानिए-आतिश रखा गया है क्योंकि यह अग्निपूजक मुझे अपने देवता के सामने बलि देने के लिए लिए जा रहे हैं।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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मरजीना यह वृत्तांत सुन कर आग बबूला हो गई। उसने बहराम को बुला कर बहुत गालियाँ सुनाईं और कहा, नीच कमीने, तूने मुझसे इतना बड़ा झूठ बोला? तू इस व्यक्ति को आग की कुरबानी के लिए ले जा रहा है और मुझे बता रहा है कि यह दास है? अब खैरियत चाहता है तो फौरन जहाज को खोल दे नहीं तो मैं सारा माल लुटवा दूँगी, जहाज जला दूँगी। बहराम घबराया हुआ जहाज पर आया। तेज उलटी हवा होने पर भी जहाज का लंगर उठवाने लगा। उधर मरजीना असद को बाग में बने हुए राजकीय आवास में ले गई। उसने स्वादिष्ट भोजन मँगवाया। असद ने पेट भर भोजन किया और जी भर शराब पी। शराब वह जरूरत से ज्यादा पी गया था। उसने मलिका से बाग में घूम-फिर कर नशा उतारने की अनुमति ली और बाग में घूमने लगा। कुछ देर बाद उसने एक कुंड के निकट बैठ कर अपना मुँह धोया और कुछ चैतन्य हो कर वहीं घास पर लेट गया। दो क्षणों ही में उसे गहरी नींद आ गई।

उधर बहराम ने अपने खलासियों से कहा, अब शाम हो गई है, रात भर तो बेखटके यहाँ भी रह सकते हैं। आशा है कि सुबह तक अनुकूल वायु भी मिल जाएगी। जहाज पर मीठा पानी भी कम है। हम लोग जमीन पर उतर कर देखें तो कोई न कोई कुआँ या कुंड मिल ही जाएगा। पानी ला कर हम सुबह होने के पहले ही जहाज खोल देंगे।

खलासी लोग जल की खोज में निकले तो उन्हें याद आया कि रानी मरजीना के बाग में मीठे पानी का एक बड़ा कुंड देखा था। वे वहाँ आए। सोते हुए असद को उन्होंने पहचान लिया और उसे अकेला पा कर बहुत खुश हुए। उन्होंने अपने सारे बरतनों में पानी भरा और धीरे से असद को उठा कर जहाज पर पहुँचा दिया। बहराम पानी के साथ असद को पा कर बहुत प्रसन्न हुआ। हवा भी अनुकूल चलने लगी थी इसलिए उसने दो घड़ी रात रहे ही लंगर उठा दिया। जहाज तेजी से ज्वालामुखी पर्वत की ओर जिसे वे आतशी कोह कहते थे चल पड़ा।

सुबह मलिका ने असद को अपने पास न पाया तो पहले सोचा कि वह शौचादि के लिए गया होगा किंतु जब वह देर तक न आया तो अपनी दासियों और सेविकाओं को आदेश दिया कि उसे ढूँढ़ें। उन्होंने बहुत ढूँढ़ा किंतु उसका पता नहीं पाया। काफी देर के बाद दासियों ने बताया कि बाग का फाटक खुला मिला है और कुंड के पास एक आदमी के जूते रखे हें। मलिका उठ कर स्वयं कुंड के पास आई और जूतों को देख कर पहचान गई कि यह असद ही के हैं। कुछ दासियों ने यह भी कहा कि कल शाम को कुंड में जितना पानी था इस समय उससे काफी कम दिखाई दे रहा है।

रानी मरजीना समझ गई कि रात को बहराम के खलासी बाग में पानी लेने आए होंगे और पानी के साथ निद्रामग्न असद को भी उठा ले गए होंगे। उसने एक आदमी समुद्र तट पर यह पता करने के लिए भेजा कि बहराम का जहाज है या नहीं। वहाँ उसे मालूम हुआ कि जहाज सुबह से पहले ही रवाना हो गया है। अन्य जहाजों के लोगों ने यह भी बताया कि पहर रात गए उस जहाज से एक नाव आई थी जिसके लोग शाही बाग की ओर गए थे।

अब तो कोई संदेह ही न रहा कि बहराम ने असद को उठवा लिया है। तब तक शाम होने लगी थी। उसने अपनी नौसेना के सारे जहाजों को तैयार रहने की आज्ञा दी और कहा दस जहाज बंदरगाह पहुँच जाएँ, मैं स्वयं इस जंगी बेड़े के साथ चलूँगी। दूसरी सुबह दस युद्धपोत रानी को ले कर बहराम के जहाज के पीछे चले। दो दिन बाद उन्होंने बहराम का जहाज आगे जाता हुआ देखा ओर कुछ ही देर में उसे चारों ओर से घेर लिया।

बहराम समझ गया कि असद के लिए ही मलिका ने पीछा किया है। उसने सोचा कि असद के साथ पकड़ा गया तो रानी मुझे मरवा ही देगी इसलिए उसे जहाज से हटा देना चाहिए। प्रकटतः वह बलि को इस प्रकार हाथ से भी जाने नहीं दे सकता था। इसलिए उसने क्रोध में चिल्ला कर कहा, इस मनहूस की वजह से हम पर मुसीबत आ रही है और हम सभी की जान खतरे में है। उसे खूब मारो और फिर समुद्र में फेंक दो ताकि यह यहीं खत्म हो जाए। उसके आधीनस्थ लोगों ने ऐसा ही किया। उसे खूब मारा और फिर उठा कर समुद्र में फेंक दिया। उन्हें विश्वास था कि इस गहरे पानी में से वह किसी तरह बच कर नहीं निकल सकता।

किंतु असद बहुत अच्छा तैराक था। वह तैरते-तैरते कुछ घंटों में एक भूमि पर जा लगा। उसने तट पर पहुँच कर भगवान को धन्यवाद दिया कि उसने दूसरी बार प्राण बचाए। उसने अपने कपड़े सुखाए और सोचा कि तट से कुछ दूर दिखाई देनेवाले नगर में चलूँ। पास पहुँच कर देखा तो वह वही अग्निपूजकों की बस्ती थी जहाँ से वह जहाज पर लादा गया था। उसने सोचा कि दिन में वहाँ जाना ठीक नहीं है, रात में चलूँगा। यह सोच कर वह मुसलमानों के कब्रिस्तान में जा कर सो गया।

उधर मरजीना के जहाजों ने बहराम के जहाज को दबा लिया। मरजीना ने स्वयं उस जहाज पर चढ़ कर पूछा कि असद कहाँ है जिसे तुम मेरे बाग से उड़ा लाए थे। बहराम ने असद को लाने की बात से इनकार किया। मरजीना ने असद को ढुँढ़वाया। उसे न पा कर वह और भी क्रुद्ध हुई। उसने जहाज को लूटने और सब लोगों को निकटस्थ भूमि पर ले चलने की आज्ञा दी और कहा कि मैं इन सब को मौत के घाट उतरवाऊँगी। उसके सिपाहियों ने बहराम और उसके साथियों को तट पर पहुँचाया।

तट पर जा कर बहराम भी पहचान गया कि यह उसी का नगर है। वह पहरेदारों की आँख बचा कर भाग निकला। नगर तक उसे पहुँचते-पहुँचते काफी रात हो गई। उसने भी सोचा कि रात यहीं कब्रिस्तान में बिता कर सुबह शहर में जाऊँगा। वहाँ असद को सोता देख कर उसे आश्चर्य हुआ कि इस जगह सोनेवाला कौन है। उसने उसे अच्छी तरह देखना शुरू किया। असद की भी आँख खुल गई और वह उठ बैठा। बहराम ने कहा, अच्छा तुम यहाँ सोए हो? तुम्हारी वजह से मुझ पर ऐसी विपदा पड़ी। इस वर्ष तो बलि से बच गए, अब देखता हूँ कि अगले वर्ष कैसे बचते हो।

बहराम असद से कहीं तगड़ा था। उसने असद को एक चादर में बाँधा और रात ही रात उसे उस बूढ़े अग्निपूजक के घर पहुँचा दिया जहाँ से असद को लाया था। बूढ़े ने फिर असद के पाँव में बेड़ियाँ डाल कर उसे तहखाने में पहुँचाया और बोस्तान और कैवाना को पहले की तरह उसे रोज खूब मारने और रोटी-पानी देने की आज्ञा दी। बोस्तान उसे तहखाने में ले गई। असद ने विलाप आरंभ किया कि इस सारे साल की मार से तो अच्छा था कि मुझे बलि ही दे दिया जाता। बोस्तान को पहले ही अपनी क्रूरता पर खेद था। इस समय उसे असद पर बड़ी दया आई। उसने कहा, तुम चिंता न करो। मैं तुम्हें न मारूँगी। मैं तुम्हें यह भी बता दूँ कि मैं मुसलमान हो गई हूँ।

बोस्तान की बातों से असद को बहुत तसल्ली हुई किंतु उसे अब भी कैवाना की ओर से डर लग रहा था। उसने कहा, भगवान ने तुम्हारे हृदय में मेरी ओर से दया उपजा दी है किंतु कैवाना तो मुझे पूर्ववत ही मारेगी। बोस्तान ने कहा, तुम डरो नहीं। अब तुम्हारे पास कैवाना नहीं, मैं ही आऊँगी। उस दिन से बोस्तान ही उसके पास आने लगी। वह उसे भरपेट स्वादिष्ट भोजन खिलाती और उससे मित्रतापूर्वक बातें करती।

एक दिन बोस्तान अपने दरवाजे पर खड़ी थी कि उसने मुनादी होते सुनी। मुनादी करनेवाला उच्च स्वर में कह रहा था, इस देश का मंत्री अमजद अपने छोटे भाई असद को ढूँढ़ने स्वयं ही नगर में निकला है। जो भी उसके भाई को उसके पास लाएगा उसे इतना धन दिया जाएगा कि कई पीढ़ियों के लिए काफी होगा। और अगर कोई असद को जान-बूझ कर छुपा कर रखेगा तो वह अपने परिवारवालों के सहित मार डाला जाएगा और उसका घर खुदवा कर उस जमीन पर हल चलवा दिया जाएगा। यह मुनादी सुन कर बोस्तान दौड़ी हुई असद के पास गई। उसने उसकी बेड़ियाँ काट दीं और उसे ले कर गली में निकल आई। यहाँ आ कर उसने पुकार कर कहा, यह है मंत्री अमजद का भाई असद, इसे मंत्री के पास पहुँचा दो।

मंत्री के सेवकों ने मंत्री को तुरंत इस बात की सूचना दी। वह असद को बुलाने के बजाय स्वयं ही वहाँ पर आ गया। असद को पहचान कर उसने उसे आलिंगनबद्ध किया। फिर वह असद और बोस्तान को ले कर बादशाह के पास पहुँचा। वहाँ पहुँच कर असद ने अपने ऊपर पड़नेवाली सारी विपत्तियों का वर्णन किया। बादशाह के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने आज्ञा दी कि बुड्ढे अग्निपूजक का घर खुदवा डाला जाए तथा उसे और बहराम आदि रिश्तेदारों को मृत्युदंड की आज्ञा दी। उन सबने उसके पैरों पर गिर कर प्राणों की भिक्षा माँगी। बादशाह ने कहा कि तुम्हारा अपराध बहुत बड़ा है, तुम्हें इसी शर्त पर प्राण-दान मिल सकता है कि तुम अपना यह झूठा धर्म छोड़ कर मुसलमान हो जाओ। उन्होंने यह स्वीकार कर के जान बचाई।

मंत्री अमजद ने इसके बाद उन लोगों को गुजारे के लिए यथेष्ट धन दिया। बहराम इससे प्रभावित हुआ। उसने कहा कि सरकार, पिछले साल मैं अवौनी देश गया था। वहाँ बादशाह कमरुज्जमाँ आप लोगों के वियोग में बड़े व्याकुल हैं। आश्चर्य न होगा यदि इस दुख में उनके प्राण निकल जाएँ। आप दोनों यदि वहाँ चलने को तैयार हों तो मैं आपको सुविधापूर्वक पहुँचा दूँ।

अमजद और असद ने यह स्वीकार किया और बादशाह से जाने की अनुमति माँगी जो उसने दे दी। उसने उन्हें गले लगा कर विदा किया और बहुत साधन यात्रा के लिए दिया।

इतने में एक हरकारे ने आ कर कहा कि एक ओर से एक बड़ी सेना आ रही है। बादशाह सोचने लगा कि मेरा ऐसा कौन दुश्मन है जो चढ़ाई करे। उसने अमजद से जा कर सेनाध्यक्ष से मिलने को कहा। अमजद गया तो उसे मालूम हुआ कि सेना की नायक एक स्त्री है। उसने उससे भेंट कर उससे पूछा कि आप युद्ध का इरादा ले कर आई हैं या मैत्री का? उसने कहा, मैं युद्ध करने नहीं आई हूँ। यहाँ का बहराम नामी कप्तान मेरे दास असद को चुरा लाया है। मैं उसी को लेने आई हूँ। मेरा नाम मरजीना है। यदि आप असद को मुझे वापस दिलाने में सहायक हों तो आपकी आभारी हूँगी।

अमजद ने कहा, आपका दास असद मेरा छोटा भाई है। मैं यहाँ का मंत्री हूँ। आप कृपया चल कर हमारे बादशाह से भेंट करें। वे असद को आपकी सेवा में दे देंगे। मरजीना यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुई और सारी सेना वहीं छोड़ कर कुछ अंगरक्षकों को साथ ले कर अमजद के साथ बादशाह के पास आने लगी।

इसी बीच एक और हरकारे ने आ कर कहा कि दूसरी दिशा से एक और सेना आ रही है। बादशाह फिर चिंतित हुआ। उसने अमजद को इस सेना का हाल जानने के लिए भेजा। अमजद कुछ सिपाहियों के साथ गया और फौज के एक सरदार से कहा कि मैं यहाँ का मंत्री हूँ, मुझे अपने बादशाह के पास ले चलो। बादशाह के पास जा कर उसने पूछा कि आप अगर युद्ध के लिए आए हैं तो यह भी बताए कि हमसे क्यों युद्ध करना चाहते हैं। बादशाह ने कहा, मैं युद्ध करने नहीं आया। मैं चीन का बादशाह गौर हूँ। मेरी बेटी बदौरा और दामाद कमरुज्जमाँ बहुत दिनों से लापता हैं। मैं उन्हें ढूँढ़ने निकला हूँ।

अमजद ने उसके पाँव चूम कर कहा, आप मेरे नाना हैं। मेरे पिता कमरुज्जमाँ अवौनी के बादशाह हैं। वे और मेरी माता बदौरा आनंदूपर्वक हैं। बादशाह गौर ने उसे सीने से लगाया और उसे देर तक प्यार करता रहा। वह अमजद की सारी पिछली आपदाओं को सुन कर बहुत दुखी हुआ।

उसने अमजद को तसल्ली दी और कहा कि मैं स्वयं वहाँ तुम्हें ले जा कर तुम दोनों का मेल करवा दूँगा। अमजद ने विदा हो कर अपने स्वामी को उसका हाल बताया। उसे आश्चर्य हुआ कि चीन के सम्राट जैसा प्रतापी आदमी बेटी-दामाद की तलाश में भटक रहा है। उसने अपने कर्मचारियों को आज्ञा दी कि चीन के सम्राट की पूरी तरह अभ्यर्थना की जाए। वह स्वयं भी इस बात की तैयारी करने लगा कि चीन के सम्राट के शिविर में जा कर उससे भेंट करे।

इसी बीच एक और हरकारे ने सूचना दी कि एक फौज तीसरी तरफ से भी आई है। बादशाह ने सोचा यह अच्छी मुसीबत है, चारों ओर से सेनाएँ चली आ रही हैं। उसने इस बार भी अमजद को इस सेना के आगमन का उद्देश्य जानने को भेजा। अमजद ने जा कर पता किया तो मालूम हुआ कि यह उसका पिता कमरुज्जमाँ है जो अपने दोनों पुत्रों की तलाश में देश-विदेश भटकता हुआ यहाँ आ पहुँचा है। उसे मालूम हुआ कि पहले तो अपनी रानियों के षड्यंत्र में फँस कर उसने बेटों के वध की आज्ञा दे दी थी किंतु बाद में उसे इतना पछतावा हुआ कि वह प्राण त्याग करने के लिए तैयार हो गया। जब जिंदर ने उसे बताया कि शहजादों को मारा नहीं गया है तो उसकी हालत सँभली किंतु इसके बाद वह चैन से न बैठ सका और बड़ी फौज ले कर बेटों को ढूँढ़ने निकल पड़ा। अमजद वापस आ कर असद को साथ ले गया और दोनों बेटों ने बाप से भेंट की। वह इन दोनों को गले लगा कर बहुत देर तक हर्ष के आँसू बहाता रहा।

इतने ही में वहाँ के बादशाह को एक और हरकारे ने बताया कि राज्य की चौथी ओर से भी एक बड़ी सेना चली आ रही है। बादशाह ने फिर अमजद के पास खबर भिजवाई। कमरुज्जमाँ ने कहा, और बातें बाद में होंगी, पहले यह देखना चाहिए कि यह नई फौज किसलिए आई है। मैं खुद तुम्हारे साथ चल कर उस फौज लानेवाले बादशाह से मिलूँगा। अमजद ने पिता को यह भी बताया कि एक ओर से चीन का सम्राट भी ससैन्य आया हुआ है। कमरुज्जमाँ यह सुन कर खुश हुआ और बोला कि चलो रास्ते में हम लोग तुम्हारे नाना से भी मिलते चलेंगे।

चीन के सम्राट से संक्षिप्त रूप से भेंट करने के बाद कमरुज्जमाँ और उसके दोनों बेटे उस तरफ गए जहाँ चौथी फौज ने पड़ाव डाला था। पास पहुँचने पर अमजद आगे बढ़ कर गया। संयोग से उसकी पहली ही भेंट इस फौज के बादशाह के मंत्री के साथ हुई। उसने पूछा, आप लोग तो मुसलमान हैं, इस देश में जहाँ मुख्यतः अग्निपूजक रहते हैं क्या करने आए हैं? उस मंत्री ने कहा, हम लोग खलदान देश से आए हैं। हमारे बादशाह का बेटा कमरुज्जमाँ बीस वर्ष से अधिक समय से लापता है। हमारे बादशाह उसी की खोज में भटक रहे हैं। अगर आप लोगों ने कमरुज्जमाँ का कुछ हाल सुना हो तो बताइए, आपकी बड़ी कृपा होगी।

अमजद ने हँस कर कहा, आप कमरुज्जमाँ का समाचार पूछ रहे हैं। मैं स्वयं कमरुज्जमाँ को यहाँ लिए आता हूँ। आप बादशाह से हम लोगों की भेंट का प्रबंध कराइए। इधर मंत्री अपने बादशाह को यह समाचार देने गया उधर अमजद ने जा कर अपने बाप से कहा कि आपके पिता आप की खोज में यहाँ तक आए हैं और यह फौज उन्हीं की है। कमरुज्जमाँ ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि पिता से भेंट होगी और वह भी इतने आकस्मिक ढंग से। वह भावातिरेक से मूर्छित हो गया। जब वह सचेत हुआ तो बेटे को साथ ले कर पिता से मिलने चल पड़ा और उसके पास जा कर उसके पैरों पर गिर पड़ा। वह उसे छाती से लगा कर बहुत देर तक रोता रहा।

उसने कमरुज्जमाँ से पूछा, बेटे, मुझ से ऐसी क्या भूल हो गई थी कि तुम बगैर कुछ कहे-सुने चले आए। तुम इस अरसे में कहाँ-कहाँ और किस तरह रहे? कमरुज्जमाँ ने लज्जित हो कर चुपचाप देश छोड़ने पर पिता से क्षमा याचना की और फिर उसे अपना, बदौरा का और बेटों का पूरा हाल बताया। उसने अपने दोनों बेटों को पिता से मिलवाया। वह दोनों पौत्रों को गले लगा कर बहुत देर तक प्यार करता रहा।

फिर सारे बादशाहों और रानी मरजीना ने अग्निपूजक देश के मुसलमान बादशाह के महल में एक-दूसरे से भेंट की और तीन दिन तक राग-रंग होता रहा। सभी की सलाह से मंत्री अमजद के साथ भूतपूर्व अग्निपूजक की बेटी बोस्तान का विवाह कर दिया गया क्योंकि वह सब से पहले स्वयं ही मुसलमान हुई थी और उसी ने असद को पिता की कैद से निकाला था। इसी तरह सब की सलाह से असद का विवाह रानी मरजीना से कर दिया गया क्योंकि वह इतनी शक्तिशालिनी हो कर भी असद पर इतनी मुग्ध थी कि उसकी तलाश में भटक रही थी। असद अपनी पत्नी के साथ चला गया। अमजद को वहाँ के बादशाह ने अपना राजपाट सौंप दिया। इस सारे वृत्तांत का यह प्रभाव पड़ा कि उस देश के अधिकतर अग्निपूजक अपना पुराना धर्म छोड़ कर मुसलमान हो गए। चीन का सम्राट, खलदान का बादशाह और कमरुज्जमाँ उस देश के बादशाह की दी हुई बहुमूल्य भेंटें स्वीकार करने के बाद अपने-अपने देशों की ओर रवाना हो गए।

शहरजाद ने यह कहानी खत्म की तो दुनियाजाद ने कहा, दीदी, तुमने बहुत ही अच्छी कहानी सुनाई। मैं चाहती हूँ कि और भी ऐसी कहानियाँ सुनूँ। शहरजाद बोली, यदि मुझे आज प्राणदंड न दिया गया तो कल नूरुद्दीन और फारस देश की दासी की सुंदर कथा सुनाऊँगी। बादशाह शहरयार ने इस कहानी के लालच में उस दिन भी शहरजाद का प्राणदंड स्थगित कर दिया।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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नूरुद्दीन और पारस देश की दासी की कहानी

अगली सुबह से पहले शहरजाद ने नई कहानी शुरू करते हुए कहा कि पहले जमाने में बसरा बगदाद के अधीन था। बगदाद में खलीफा हारूँ रशीद का राज था और उसने अपने चचेरे भाई जुबैनी को बसरा का हाकिम बनाया था। जुबैनी के दो मंत्री थे। एक का नाम था खाकान और दूसरे का सूएखाकान। खाकान उदार और क्षमाशील था और इसलिए बड़ा लोकप्रिय था। सूएखाकान उतना ही क्रूर और अन्यायी था और प्रजा उससे रुष्ट थी। सूएखाकान अपने सहयोगी मंत्री खाकान के प्रति भी विद्वेष रखता था।

एक दिन जुबैनी ने खाकान से कहा कि मुझे एक दासी चाहिए जो अति सुंदर हो तथा गायन-वादन तथा अन्य विद्याओं में निपुण भी हो। खाकान के बोलने के पहले ही सूएखाकान बोल उठा, ऐसी लौंडी तो दस हजार अशर्फी से कम में नहीं आएगी। जुबैनी ने आँखें तरेर कर कहा, तुम समझते हो दस हजार अशर्फियाँ मेरे लिए बड़ी चीज हैं? यह कह कर उसने खाकान को दस हजार अशर्फियाँ दिलवा दीं। खाकान ने घर आ कर दलालों को बुलाया और उनसे कहा कि तुम जुबैनी के लिए अति सुंदर और सारी विद्याओं, कलाओं में निपुण एक दासी तलाश करो चाहे जितने मोल की हो। सारे दलाल इच्छित प्रकार की दासी ढूँढ़ने में लग गए।

कुछ दिनों बाद एक दलाल खाकान के पास आ कर बोला कि एक व्यापारी ऐसी ही दासी लाया है जैसी आपने कहा था। खाकान के कहने पर दलाल उस व्यापारी को दासी समेत ले आया। खाकान ने आ कर जाँच-परख की तो दासी को हर प्रकार से गुणसंपन्न पाया और जुबैनी की आशा से अधिक सुंदर भी पाया। उसने व्यापारी से उसका दाम पूछा तो उसने कहा, स्वामी, यह रत्न तो अनमोल है। किंतु मैं आप के हाथ मात्र दस हजार अशर्फियों पर बेच दूँगा। इसके लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा पर मैंने बहुत श्रम किया है। यह गायन, वादन, साहित्य, इतिहास और सारी विद्याओं में पारंगत है और अभी तक अक्षत है। मंत्री ने बगैर कुछ कहे दस हजार अशर्फियाँ गिनवा दीं।

व्यापारी ने कहा, सरकार, एक निवेदन और है। इसे एक सप्ताह बाद ही हाकिम के पास ले जाएँ। कारण यह है कि यह बहुत दूर की यात्रा से बड़ी क्लांत है और एक हफ्ते के अंदर इसे अच्छा खिलाएँगे-पिलाएँगे और दो बार गरम पानी से नहलाएँगे तो इसका रूप ऐसा निखरेगा कि आप भी इसे पहचान नहीं सकेंगे। खाकान ने यह बात मान ली। उक्त दासी को उसने अपनी पत्नी के सुपुर्द किया और कहा कि इसे एक सप्ताह तक खिलाओ-पिलाओ और दो बार गरम हम्माम में भेजो, फिर मैं उसे जुबैनी के सामने पेश करूँगा। उसने दासी से भी, जिसका नाम हुस्न अफरोज था, कहा, देख, तुझे मैंने अपने स्वामी के लिए मोल लिया है। तू यहाँ आराम से किंतु बड़ी होशियारी से रह। खबरदार, किसी पुरुष से तेरा संसर्ग न हो। खास तौर से तू मेरे जवान बेटे नूरुद्दीन से सावधान रहना। वह दिन में कई बार अपनी माँ के पास आया करता है। हुस्न अफरोज ने खाकान से कहा, सरकार, आपने बहुत अच्छा किया जो मुझे यह चेतावनी दे दी। अब आप इत्मीनान रखिए। आपकी आज्ञा के विरुद्ध कोई बात नहीं होगी।

खाकान इसके बाद दरबार को चला गया। दोपहर के भोजन के समय नूरुद्दीन अपनी माँ के पास आया तो उसने देखा कि उसकी माँ के पास एक कंचनवर्णी, मृगनयनी, गजगामिनी षोडशी बैठी है। सौंदर्य की इस प्रतिमूर्ति को देखते ही उसका हृदय उस दासी के लिए बेचैन हो गया। उसके पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि इस दासी को जो पारस देश से आई है, तुम्हारे पिता ने बसरा के हाकिम जुबैनी की सेवा के लिए खरीदा है। इसके बावजूद नूरुद्दीन उससे अपना मन न हटा सका और ऐसी तरकीब सोचने लगा जिससे वह दासी उसके हत्थे चढ़ जाए। नूरुद्दीन अत्यंत सुंदर था। इसलिए हुस्न अफरोज भी भगवान से प्रार्थना करने लगी कि कोई ऐसी बात हो जाए जिससे मैं हाकिम के बजाय इसी सजीले नौजवान के पास रह सकूँ।

उस दिन से नूरुद्दीन ने यह नियम बना लिया कि अक्सर अपनी माँ के पास आता और हुस्न आफरोज से आँखों-आँखों में बातें करता। हुस्न अफरोज भी खाकान की पत्नी की आँख बचा कर नूरुद्दीन से प्रेमपूर्वक आँखें मिलाती और संकेत ही में अपने हृदय की अभिलाषा कहती। यह मौन दृष्टि-विनिमय कब तक छुपाता। नूरुद्दीन की माँ उसका इरादा समझ गई और उससे बोली, प्यारे बेटे, अब भगवान की दया से तुम जवान हो गए हो। अब तुम्हारे लिए उचित नहीं है कि स्त्रियों में अधिक बैठो। तुम दोपहर का भोजन कर के तुरंत बाहर मरदाने में चले जाया करो। नूरुद्दीन ने विवशता में यह मान लिया।

दो दिन बाद खाकान की पत्नी ने कुछ दासियों के साथ हुस्न अफरोज को हम्माम में भेजा। उन्होंने उसे गरम पानी से मल-मल कर नहलाया और फिर नए सुनहरे कपड़े पहनाए। जब वह खाकान की पत्नी के पास आई तो बुढ़िया उसे न पहचान सकी और बोली, बेटी, तुम कौन हो? कहाँ से आई हो? उसने हँस कर कहा, मैं आपकी दासी हुस्न अफरोज हूँ, केवल स्नान कर के आई हूँ। आपने जो दासियाँ मेरे साथ भेजी थीं वे भी कह रही थीं कि तुम स्नान के बाद इतनी अच्छी हो गई हो कि पहचानी नहीं जातीं। खाकान की पत्नी ने कहा, सचमुच तुम पहचानी नहीं जातीं। दासियों ने यह बात तुम्हारी खुशामद में नहीं कही थी। मैं भी तो तुम्हें नहीं पहचान सकी। अच्छा, यह बताओ कि हम्माम में अभी कुछ गरम पानी बचा है या तुमने सब खर्च कर डाला। मैंने भी बहुत दिन से नहीं नहाया है और नहा कर तरोताजा होना चाहती हूँ। हुस्न अफरोज ने कहा, जरूर नहाइए। अभी काफी गरम पानी हम्माम में मौजूद है।

खाकान की पत्नी ने हम्माम में जाने से पहले दो दासियों को हुस्न अफरोज की रक्षा के लिए नियुक्त किया और कहा कि इस बीच अगर नूरुद्दीन आए और हुस्न अफरोज के पास जाने का प्रयत्न करें तो तुम उसे ऐसा न करने देना। यह कह कर वह हम्माम में चली गई और मल-मल कर नहाने लगी। संयोग से उसी समय नूरुद्दीन आ गया। उसने देखा कि माँ अभी हम्माम से देर तक नहीं निकलेगी, यह अच्छा मौका है। वह हुस्न अफरोज का हाथ पकड़ कर उसे एक कमरे में ले जाने लगा। दासियों ने उसे बहुत रोका लेकिन वह कहाँ माननेवाला था। उसने दोनों दासियों को धक्के देते हुए महल के बाहर निकाल दिया और खुद हुस्न अफरोज को ले कर कमरे में चला गया और द्वार अंदर से बंद कर लिया। हुस्न अफरोज तो स्वयं उस पर मुग्ध थी, दोनों ने प्रेम मिलन का खूब आनंद लूटा।

जिन दासियों को उसने धकिया कर निकाला था वे रोती-पीटती हम्माम के दरवाजे पर पहुँचीं और मालकिन का नाम ले कर गुहार करने लगीं। खाकान की पत्नी ने पूछा तो दोनों ने सारा हाल बताया। वह घबराहट के मारे काँपने लगी और बगैर नहाए ही अपने महल में आ गई। इतनी देर में नूरुद्दीन भोग-विलास कर के महल से बाहर जा चुका था।

खाकान की पत्नी को सिर पीटते देख कर हुस्न अफरोज को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, मालकिन, ऐसी क्या बात हो गई? आप इतनी व्याकुल क्यों हैं। ऐसा क्या हुआ कि आप बगैर स्नान किए ही आ गईं। उसने दाँत पीस कर कहा, कमबख्त, तू मुझ से पूछती है कि क्या हुआ? तुझे नहीं मालूम है कि क्या हुआ? मैंने तुझे बताया नहीं था कि तू जुबैनी की सेवा के लिए खरीदी गई है? फिर तूने नूरुद्दीन को अपने पास क्यों आने दिया? हुस्न अफरोज ने कहा, मालकिन माँ, इसमें क्या गलती की है मैंने? यह ठीक है कि सरकार ने मुझे बताया था कि मैं हाकिम के लिए खरीदी गई हूँ किंतु इस समय आपके पुत्र ने मुझसे कहा था कि मेरे पिता ने तुम्हें मेरी सेवा में दे दिया है और तुम्हें बसरा के हाकिम के पास नहीं भजेंगे। अब जब मैं उनकी हो ही गई तो उन्हें क्यों रोकती? फिर सच्ची बात है कि उन्हें जब से देखा था मेरा मन उनसे मिलने को लालायित था। मैं खुद ही चाहती हूँ कि जीवन भर उनकी चरण सेवा करूँ और बसरा के हाकिम जुबैनी का कभी मुँह न देखूँ।

खाकान की पत्नी बोली, हृदय तो मेरा भी इसी में प्रसन्न होगा कि तू नूरुद्दीन के पास रहे। किंतु उस लड़के ने झूठ बोला है। मुझे तो डर यह है कि मंत्री जब यह सुनेंगे तो उसे मरवा डालेंगे। अब मैं रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? इतने में मंत्री भी आ गया। उसने पत्नी से रोने का कारण पूछा।

मंत्री की पत्नी ने कहा, सच्ची बात छुपाने से कोई लाभ नहीं। मैं हम्माम में नहाने गई थी इसी बीच तुम्हारे इकलौते पुत्र ने यह कह कर इस लौंडी को खराब कर डाला कि तुमने वह लौंडी उसे दे दी थी। तुमने उसे लौंडी दी है या नहीं?

खाकान यह सुन कर सिर पीटने लगा और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगा इस बदमाश लड़के ने हम सब का नाश कर दिया। हाकिम जुबैनी के लिए ली हुई अक्षत दासी को खराब कर दिया। मेरी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। और सिर्फ अपमान की ही बात नहीं है। हाकिम को यह मालूम होगा तो वह मुझे भी मरवा डालेगा और उस अभागे को भी। उसकी पत्नी ने कहा, स्वामी, जो हो गया उस पर अफसोस करने से क्या लाभ? मैं अपने सारे जेवर उतारे देती हूँ। इन्हें बेचने पर दस हजार अशर्फियाँ तो मिल ही जाएँगी। तुम उनसे दूसरी दासी खरीद लेना और हाकिम को दे देना।

मंत्री ने कहा, क्या तुम समझती हो कि मैं दस हजार अशर्फियों के लिए रो रहा हूँ या इतनी रकम खुद खर्च नहीं कर सकता? मुझे दुख इस बात का है कि मेरी प्रतिष्ठा खतरे में है। सूएखाकान जरूर हाकिम से कह देगा कि मैंने जो दासी हाकिम के लिए खरीदी थी वह अपने बेटे को दे डाली। उसकी पत्नी ने कहा, सूएखाकान निस्संदेह तुम्हारा शत्रु है किंतु हमारे घर के अंदर का हाल उसे क्या मालूम? फिर अगर कोई चुगली भी करे तो तुम हाकिम से कह देना कि मैंने आपके लिए एक दासी खरीदी जरूर थी किंतु उसकी शरीर-परीक्षा से ज्ञात हुआ कि वह आपके योग्य नहीं थी। इस तरह सूएखाकान की शिकायत का कोई प्रभाव नहीं रहेगा। इधर तुम फिर दलालों को बुलवाओ और नई सर्वगुण संपन्न दासी लाने के लिए कहो।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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