Erotica साहस रोमांच और उत्तेजना के वो दिन complete

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kunal
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Re: Erotica साहस रोमांच और उत्तेजना के वो दिन complete

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सुनीलजी ने बंदूक अपने हाथ में लेते हुए कहा, “यह तो ठीक है। पर मेरा काम कलम चलाना है, बंदूक नहीं। मुझे बंदूक चलाना आता ही नहीं।”

सुनीलजी थोड़ा सा चिढ कर बोल उठे, “काश! यहां आपको बंदूक चलाने की ट्रेनिंग देने का थोड़ा ज्यादा समय होता। खैर यह देखिये…….” ऐसा कह कर सुनीलजी ने सुनीलजी को करीब पाँच मिनट बंदूक का सेफ्टी कैच कैसे खोलते हैं, गोली दागने के समय कैसे पोजीशन लेते हैं, गोली का निशाना कैसे लेते हैं वह सब समझाया।

सुनीलजी ने आखिर में कहा, “सुनीलजी, हम सबको नदी के किनारे किनारे ही चलना है क्यूंकि आगे चलकर इसी नदी के किनारे हमारा कैंप आएगा। थक जाने पर बेहतर यही होगा की आराम करने के लिए भी हम लोग किसी झाडी में छुप कर ही आराम करेंगे ताकि अगर दुश्मन हमारे करीब पहुँच जाए तो भी वह आसानी से हमें ढूंढ ना सके।”

काफी अँधेरा था और सुनीलजी को क्या समझ आया क्या नहीं वह तो वह ही जाने पर आखिर में सुनीलजी ने कहा, “सुनीलजी, फिलहाल तो आप बंदूक अपने पास ही रखिये। वक्त आने पर मैं इसे आप से ले लूंगा। अब मैं सबसे आगे चलता हूँ आप ज्योति के पीछे पीछे चलिए।”

सुनीलजी ने आगे पोजीशन ले ली, करीब ५० कदम पीछे ज्योति और सबसे पीछे सुनीलजी गन को हाथ में लेकर चल दिए। बारिश काफी तेज होने लगी थी। रास्ता चिकना और फिसलन वाला हो रहा था।

तेज बारिश और अँधेरे के कारण रास्ता ठीक नजर नहीं आ रहा था। कई जगह रास्ता ऊबड़खाबड़ था। वास्तव में रास्ता था ही नहीं। सुनीलजी नदी के किनारे थोड़ा अंदाज से थोड़ा ध्यान से देख कर चल रहे थे।

नदी में पानी काफी उफान पर था। कभी तो नदी एकदम करीब होती थी, कभी रास्ता थोड़ी दूर चला जाता था तो कई बार उनको कंदरा के ऊपर से चलना पड़ता था, जहां ऐसा लगता था जैसे नदी एकदम पाँव तले हो।

उनको चलते चलते करीब एक घंटे से ज्यादा हो गया होगा। वह काफी आगे निकल चुके थे। सुनीलजी काफी थकान महसूस कर रहे थे। चलने में काफी दिक्कत हो रही थी।

ऐसे ही चलते चलते सुनीलजी एक नदी के बिलकुल ऊपर एक कंदरा के ऊपर से गुजर रहे थे। सुनीलजी आगे निकल गए, पर ज्योति का पाँव फिसला क्यूंकि ज्योति के पाँव के निचे की मिटटी नदी के बहाव में धँस गयी और देखते ही देखते ज्योति को जैसे जमीन निगल गयी। पीछे आ रहे सुनीलजी ने देखा की ज्योति के पाँव के निचे से जमीन धँस गयी थी और ज्योति नदी के बहाव में काफी निचे जा गिरी।

गिरते गिरते ज्योति के मुंह से जोरों की चीख निकल गयी, “सुनीलजी बचाओ………. सुनीलजी बचाओ………” जोर जोर से चिल्लाने लगी, और कुछ ही देर में देखते ही देखते पानी के बहाव में ज्योति गायब हो गयी।”

उसी समय सुनीलजी ने जोर से चिल्लाकर ज्योति को कहा, “ज्योति, डरना मत, मैं तुम्हारे पीछे आ रहा हूँ।” यह कह कर उन्होंने सुनीलजी की और बंदूक फेंकी और जोर से चिल्लाते हुए सुनीलजी से कहा, “आप इसे सम्हालो, आप बिलकुल चिंता मत करो मैं ज्योति को बचा कर ले आऊंगा। आप तेजी से आगे बढ़ो और नदी के किनारे किनारे पेड़ के पीछे छुपते छुपाते आगे बढ़ते रहो और सरहद पार कर कैंप में पहुंचो। भगवान् ने चाहा तो मैं आपको ज्योति के साथ कैंप में मिलूंगा।”

ऐसा कह कर सुनीलजी ने ऊपर से छलाँग लगाई और निचे नदी के पुरजोर बहाव में कूद पड़े। सुनीलजी को पानी में सुनीलजी के गिरने की आवाज सुनाई दी और फिर नदी के बहाव के शोर के कारण और कुछ नहीं सुनाई दिया।

सुनीलजी का सर इतनी तेजी से हो रहे सारे घटनाचक्र के कारण चकरा रहा था। वह समझ नहीं पा रहे थे की अचानक यह क्या हो रहा था? एक सेकंड में ही कैसे बाजी पलट जाती है। जिंदगी और मौत कैसे हमारे साथ खेल खेलते हैं? क्या हम कह सकते हैं की अगले पल क्या होगा? जिंदगी के यह उतार चढ़ाव “कभी ख़ुशी, कभी गम” और”कल हो ना हो” जैसे लग रहे थे।

वह थोड़ी देर स्तब्ध से वहीँ खड़े रहे। फिर उनको सुनीलजी की सिख याद आयी की उन्हें फुर्ती से बिना समय गँवाये आगे बढ़ना था। सुनीलजी की सारी थकान गायब हो गयी और लगभग दौड़ते हुए वह आगे की और अग्रसर हुए।

जहां तक हो सके वह नदी के किनारे पेड़ों और जंगल के रास्ते ही चल रहे थे जिससे उन्हें आसानी से देखा ना जा सके। अँधेरा छटने तक रास्ता तय करना होगा। सुबह होने पर शायद उन्हें कहीं छुपना भी पड़े।

सुनीलजी ऊपर पहाड़ी से सीधे पानी में कूद पड़े। पानी का तेज बहाव के उपरांत पानी में कई जगह पानी में चक्रवात (माने भँवर) भी थे जिसमें अगर फ़ँस गए तो किसी नौसिखिये के लिए तो वह मौत का कुआं ही साबित हो सकता था। ऐसे भँवर में तो अच्छे अच्छे तैराक भी फँस सकते थे। इनसे बचते हुए सुनीलजी आगे तैर रहे थे। किस्मत से पानी का बहाव उनके पक्षमें था। माने उनको तैरने के लिए कोई मशक्कत करने की जरुरत नहीं थी। पर उन्हें ज्योति को बचाना था।

वह दूर दूर तक नजर दौड़ा कर ज्योति को ढूंढ ने लगे। पर उनको ज्योति कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। एक तो अँधेरा ऊपर से पानी का बहाव पुर जोश में था। ज्योति के फिसलने और सुनीलजी के कूदने के बिच जो दो मिनट का फैसला रहा उसमें नदी के बहाव में पता नहीं ज्योति कितना आगे बह के निकल गयी होगी। सुनीलजी को यह डर था की ज्योति को तैरना तो आता नहीं था तो फिर वह अपने आपको कैसे बच पाएगी उसकी चिंता उन्हें खाये जा रही थी।

सुनीलजी ने जोर से पानी में आगे की और तैरना चालु रखा साथ साथ में यह देखते भी रहे की पानी के बहाव में ज्योति कहीं किनारे की और तो नहीं चली गयी?

पानी का बहाव जितना सुनीलजी को आगे ज्योति के करीब ले जा रहा था उतना ही ज्योति को भी तेजी से सुनीलजी से दूर ले जा रहा था। ज्योति ने सुनीलजी के चिल्लाने की और उसे बचाने के लिए वह आ रहे हैं, यह कहते हुए उन की आवाज सुनी थी। पर उसे यकीन नहीं था की नदी का इतना भयावह रूप देख कर वह अपनी जान इस तरह जोखिम में डालेंगे।

थोड़ी दूर निकल जाने के बाद नदी के तेज बहाव में बहते हुए ज्योति ने जब पीछे की और अपना सर घुमा के देखा तोअँधेरे में ही सुनीलजी की परछाईं नदी में कूदते हुए देखि। उसे पूरा भरोसा नहीं था की सुनीलजी उसके पीछे कूदेंगे।

इतने तेज पानी के बहाव में कूदना मौत के मुंह में जाने के जैसा था। पर जब ज्योति ने देखा की सुनीलजी ने अपनी जान की परवाह ना कर उसे बचाने के लिए इतने पुरजोश बहाव में पागल की तरह बहती नदी में कूद पड़े तो ज्योति के ह्रदय में क्या भाव हुए वह वर्णन करना असंभव था।

उस हालात में ज्योति को अपने पति से भी उम्मीद नहीं थी की वह उसे बचाने के लिए ऐसे कूद पड़ेंगे। ज्योति को तब लगा की उसे जितना अपने पति पर भरोसा नहीं था उतना सुनीलजी के प्रति था। उसे पूरा भरोसा हो गया की सुनीलजी उसे जरूर बचा लेंगे। वह जानती थी की सुनीलजी कितने दक्ष तैराक थे।

ज्योति का सारा डर जाता रहा। उसका दिमाग जो एक तरह से अपनी जान बचाने के लिए त्रस्त था, परेशान था; अब वह अपनी जान के खतरे से निश्चिन्त हो गया।

अब वह ठंडे दिमाग से सोचनी लगी की जो ख़तरा सामने है उससे कैसे छुटकारा पाया जाये और कैसे सुनीलजी के करीब जाया जाये ताकि सुनीलजी उसे उस तेज बहाव से उसे बाहर निकाल सकें।

अब सवाल यह था की इतने तेज बहाव में कैसे अपने बहने की गति कम की जाए ताकि सुनीलजी के करीब पहुंचा जा सके। ज्योति जानती थी की उसे ना तो तैराकी आती थी नाही उसके अंदर इतनी क्षमता थी की पानी के बहाव के विरूद्ध वह तैर सके।

उसे अपने आप को डूबने से भी बचाना था। उसके लिए एक ही रास्ता था। जो सुनीलजी ने उसे उस दिन झरने में तैरने के समय सिखाया था। वह यह की अपने आपको पानी पर खुला छोड़ दो और डूबने का डर बिलकुल मन में ना रहे।

ज्योति ने तैरने की कोशिश ना करके अपने बदन को पानी में खुल्ला छोड़ दिया और जैसे पानी की सतह पर सीधा सो गयी जैसे मुर्दा सोता है। पानी का बहाव उसे स्वयं अपने साथ खींचे जा रहा था।

अब उसकी प्राथमिकता थी की अपनी गति को कम करे अथवा कहीं रुक जाए। अपने बलबूते पर तो ज्योति यह कर नहीं सकती थी। कहावत है ना की “हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा।” यानी अगर आप हिम्मत करेंगे तो खुदा भी आपकी मदद करेगा।

उसी समय उसको दूर एक पेड़ जैसा दिखाई दिया जो नदी में डूबा हुआ था पर नदी के साथ बह नहीं रहा था। इसका मतलब यह हुआ की पेड़ जमीन में गड़ा हुआ था और अगर ज्योति उस पेड़ के पास पहुँच पायी तो उसे पकड़ कर वह वहाँ थम सकती है जिससे सुनीलजी जो पीछे से बहते हुए आ रहे थे वह उसे मिल पाएंगे।

ज्योति ने अपने आपको पेड़ की सीध में लिया ताकि कोशिश ना करने पर भी वह पेड़ के एकदम करीब जा पाए। उसे अपने आपको पेड़ से टकराने से बचाना भी था। बहते बहते ज्योति पेड़ के पास पहुँच ही गयी। पेड़ से टकराने पर उसे काफी खरोंचें आयीं और उस चक्कर में उसके कपडे भी फट गए। पर ख़ास बात यह थी की ज्योति अपनी गति रोक पायी और बहाव का मुकाबला करती हुई अपना स्थान कायम कर सकी। ज्योति ने अपनी पूरी ताकत से पेड़ को जकड कर पकड़ रक्खा।

अब सारा पानी तेजी से उसके पास से बहता हुआ जा रहा था। पर क्यूंकि उसने अपने आपको पेड़ की डालों के बिच में फाँस रक्खा था तो वह बह नहीं रही थी। ज्योति ने कई डालियाँ, पौधे और कुछ लकड़ियां भी बहते हुए देखीं। पानी का तेज बहाव उसे बड़ी ताकत से खिंच रहा था पर वह टस की मस नहीं हो रही थी।

हालांकि उसके हाथ अब पानी के सख्त बहाव का अवरोध करते हुए कमजोर पड़ रहे थे। ज्योति की हथेली छील रही थी और उसे तेज दर्द हो रहा था। फिर भी ज्योति ने हिम्मत नहीं हारी।

कुछ ही देर में ज्योति को उसके नाम की पुकार सुनाई दी। सुनीलजी जोर शोर से “ज्योति….. ज्योति…. तुम कहाँ हो?” की आवाज से चिल्ला रहे थे और इधर उधर देख रहे थे। ज्योति को दूर सुनीलजी का इधर उधर फैलता हुआ हाथ का साया दिखाई दिया।

ज्योति फ़ौरन सुनीलजी के जवाब में जोर शोर से चिल्लाने लगी, “सुनीलजी!! सुनीलजी……. सुनीलजी….. मैं यहां हूँ।” चिल्लाते चिल्लाते ज्योति अपना हाथ ऊपर की और कर जोर से हिलाने लगी।

ज्योति को जबरदस्त राहत हुई जब सुनीलजी ने जवाब दिया, “तुम वहीँ रहो। मैं वहीँ पहुंचता हूँ। वहाँ से मत हिलना।”

पर होनी भी अपना खेल खेल रही थी। जैसे ही ज्योति ने अपने हाथ हिलाने के लिए ऊपर किये और सुनीलजी का ध्यान आकर्षित करने के लिए हिलाये की पेड़ की डाल उसके हाथ से छूट गयी और देखते ही देखते वह पानी के तेज बहाव में फिर से बहने लगी।

सुनीलजी ने भी देखा की ज्योति फिर से बहाव में बहने लगी थी। उन्हें कुछ निराशा जरूर हुई पर चूँकि अब ज्योति को उन्होंने देख लिया था तो उनमें एक नया जोश और उत्साह पैदा हो गया था की जरूर वह ज्योति को बचा पाएंगे। उन्होंने अपने तैरने की गति और तेज कर दी।

ज्योति और उनके बिच का फासला कम हो रहा था क्यूंकि ज्योति बहाव के सामने तैरने की कोशिश कर रही थी और सुनीलजी बहाव के साथ साथ जोर से तैरने की। देखते ही देखते सुनीलजी ज्योति के पास पहुंचे ही थे की अचानक ज्योति एक भँवर में जा पहुंची और उस के चक्कर में फँस गयी।

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सुनीलजी ने देखा की ज्योति पानी के अंदर रुक गयी पर एक ही जगह भँवर के कारण गोल गोल घूम रही थी। पानी में खतरनाक भँवर हो रहे थे। उस भँवर में फंसना मतलब अच्छे खासे तैराक के लिए भी जानका खतरा हो सकता था।

अगर उन्होंने ज्योति को फ़ौरन पकड़ा नहीं और ज्योति पानी के भँवर में बिच की और चली गयी तो सीधी ही अंदर चली जायेगी और दम घुटने से और ज्यादा पानी पीने से उसकी जान भी जा सकती थी।

पर दूसरी तरफ एक और खतरा भी था। अगर वह अंदर चले गए तो उनकी जान को भी कोई कम ख़तरा नहीं था। एक बार भँवर में फँसने का मतलब उनके लिए भी जान जोखिम में डालना था। पर सुनीलजी उस समय अपनी जान से ज्यादा ज्योति की जान की चिंता में थे।

बिना सोचे समझे सुनीलजी भँवर के पास पहुँच गए और तेजी से तैरते हुए सुनिताका हाथ इन्होने थाम लिया। जैसे ही ज्योति भँवर में फँसी तो उसने अपने बचने की आशा खो दी थी।

उसे पता था की इतने तेज भंवर में जाने की हिम्मत सुनीलजी भी नहीं कर पाएंगे। किसी के लिए भी इतने तेज भँवर में फँसना मतलब जान से हाथ धोने के बराबर था।

पर जब सुनीलजी ने ज्योति का हाथ अपने हाथ में थामा तो ज्योति के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। “यह कैसा पागल आदमी है? ज्योति को बचाने के लिए अपने जान की भी परवाह नहीं उसे?” ज्योति हैरान रह गयी। उसे कोई उम्मीद नहीं थी और नाही वह चाहती थी की सुनीलजी अपनी जान खतरे में डाल कर उसे बचाये।

पर सुनीलजी ने ज्योति का ना सिर्फ हाथ पकड़ा बल्कि आगे तैर कर ज्योति को अपनी बाँहों में भर लिया और कस के ज्योति को अपनी छाती से ऐसे लगा लिया जैसे वह कोई दो बदन नहीं एक ही बदन हों। ज्योति ने भी अपना जान बचाने के चक्कर में सुनीलजी को कस कर पकड़ लिया और अपनी दोनों बाजुओं से उनसे कस के लिपट गयी।

भँवर बड़ा तेज था। सुनीलजी इतने एक्सपर्ट तैराक होने के बावजूद उस भँवर में से निकलने में नाकाम साबित हो रहे थे। ऊपर से बारिश एकदम तेज हो गयी थी। पानी का बहाव तेज होने के कारण भँवर काफी तेजी से घूम रहा था।

सुनीलजी और ज्योति भी उस तेज भँवर में तेजी से घूम रहे थे। घूमते घूमते वह दोनों धीरे धीरे भँवर के केंद्र बिंदु (जिसे भँवर की आँख कहते हैं) की और जा रहे थे।

वह सबसे खतरनाक खाई जैसी जगह थी जिस के पास पहुँचते ही जो भी चीज़ वहाँ तक पहुँचती थी वह समुन्दर की गोद में गायब हो जाती थी। भंवर काफी गहरा होता है। २० फ़ीट से लेकर १०० फ़ीट से भी ज्यादा का हो सकता है।

सुनीलजी का सर चक्कर खा रहा था। भँवर इतनी तेजी से घूमर घूम रहा था की किसी भी चीज़ पर फोकस कर रखना नामुमकिन था। सुनीलजी फिर भी अपना दिमाग केंद्रित कर वहाँ से छूटने में बारे में सोच रहे थे। ज्योति अपनी आँखें बंद कर जो सुनीलजी करेंगे और जो भगवान् को मंजूर होगा वही होगा यह सोचकर सुनीलजी से चिपकी हुई थी। थकान और घबराहट के कारण ज्योति सुनीलजी से करीब करीब बेहोशी की हालात में चिपकी हुई थी।

तब अचानक सुनीलजी को एक विचार आया जो उन्होंने कहीं पढ़ा था। उन्होंने ज्योति को अपने से अलग करने के लिए उसके हाथ हटाए और अपने बदन से उसे दूर किया। ज्योति को कस के पकड़ रखने के उपरांत उन्होंने ज्योति और अपने बदन के बिच में कुछ अंतर रखा, जिससे भँवर के अंदर काफी अवरोध पैदा हो।

एक वैज्ञानिक सिद्धांत के मुताबिक़ अगर कोई वस्तु अपकेंद्रित याने केंद्र त्यागी (सेन्ट्रीफ्यूगल) गति चक्र में फंसी हो और उसमें और अवरोध पैदा किया जाये तो वह उस वस्तु को केंद्र से बाहर फेंकने को कोशिश करेगी।

ज्योति को अलग कर फिर भी उसे कस के पकड़ रखने से पैदा हुए अतिरिक्त अवरोध के कारण दोनों सुनीलजी और ज्योति भँवर से बाहर की और फेंक दिए गए।

सुनीलजी ने फ़ौरन ख़ुशी के मारे ज्योति को कस कर छाती और गले लगाया और ज्योति को कहा, “शुक्र है, हम लोग भँवर से बाहर निकल पाए। आज तो हम दोनों का अंतिम समय एकदम करीब ही था। अब जब तक हम पानी के बाहर निकल नहीं जाते बस तुम बस मुझसे चिपकी रहो और बाकी सब मुझ पर छोड़ दो। मुझे पूरा भरोसा है की हमें भगवान् जरूर बचाएंगे।”

ज्योति ने और कस कर लिपट कर सुनीलजी से कहा, “मेरे भगवान् तो आप ही हैं। मुझे भगवान् पर जितना भरोसा है उतना ही आप पर भरोसा है। अब तो मैं आपसे चिपकी ही रहूंगी। आज अगर मैं मर भी जाती तो मुझे कोई अफ़सोस नहीं होता क्यूंकि मैं आपकी बाँहों में मरती। पर जब बचाने वाले आप हों तो मुझे मौत से कोई भी डर नहीं।

पानी के तेज बहाव में बहते बहते भी ज्योति सुनीलजी से ऐसे लिपट गयी जैसे सालों से कोई बेल एक पेड़ से लिपट रही हो। ज्योति को यह चिंता नहीं थी की उसका कौनसा अंग सुनीलजी के कौनसे अंगसे रगड़ रहाथा। उसके शरीर पर से कपडे फट चुके थे उसका भी उसे कोई ध्यान नहीं था। ज्योति का टॉप और ब्रा तक फट चूका था। वह सुनीलजी के गीले बदन से लिपट कर इतनी अद्भुत सुरक्षा महसूस कर रही थी जितनी उसने शायद ही पहले महसूस की होगी।

भँवर में से निकल ने के बाद सुनीलजी अब काफी कुछ सम्हल गए थे। अब उनका ध्येय था की कैसे पानी की बहाव का साथ लिए धीरे धीरे कोशिश कर के किनारे की और बढ़ा जाए।

उन्होंने ज्योति के सर में चुम्बन कर के कहा, “ज्योति अब तुम मुझे छोड़ कर पानी में तैर कर बह कर किनारे की और जाने की कोशिश करो। मैं तुम्हारे साथ ही हूँ और तुम्हारी मदद करूंगा।”

पर ज्योति कहाँ मानने वाली थी? ज्योति को अब कोई तरह की चिंता नहीं थी। ज्योति ने कहा, “अब इस मुसीबत से आप अपना पिंड नहीं छुड़ा सकते। अब मैं आपको छोड़ने वाली नहीं हूँ। वैसे भी मुझमें तैरने की हिम्मत और ताकत नहीं है। अब आपको किनारे ले जाना है तो ले जाओ और डुबाना है तो डुबाओ।” इतना बोल कर ज्योति सुनीलजी के बदन से लिपटी हुई ही बेहोश हो गयी।

ज्योति काफी थकी हुई थी और उसने काफी पानी भी पी लिया था। सुनीलजी धीरे धीरे ज्योति को अपने बदन से चिपकाए हुए पानी को काटते हुए कम गहराई वाले पानी में पहुँचने लगे और फिर तैरते, हाथ पाँव मारते हुए गिरते सम्हलते कैसे भी किनारे पहुँच ही गए।

किनारे पहुँचते ही सुनीलजी ज्योति के साथ ही गीली मिटटी में ही धड़ाम से गिर पड़े। ज्योति बेहोशी की हालत में थी। सुनीलजी भी काफी थके हुए थे। वह भी थकान के मारे गिर पड़े।

ज्योति ने बेहोशी की हालत में भी सुनीलजी का बदन कस के जकड रखा था और किनारे पर भी वह सुनीलजी के साथ ऐसे चिपकी हुई थी जैसे किसी गोंद से उसे सुनीलजी से चिपका दिया गया हो। दोनों एक दूसरे से के बाजू में एकदूसरे से लिपटे हुए भारी बारिश में लेटे हुए थे।

उस समय उन दोनों में से किसी को यह चिंता नहीं थी की उनके बदन के ऊपर कौनसा कपड़ा था या नहीं था। बल्कि उन्हें यह भी चिंता नहीं थी की कई रेंगते हुए कीड़े मकोड़े उनको बदन को काट सकते थे।

सुनीलजी ने बेहोश ज्योति को धीरे से अपने से अलग किया। उन्होंने देखा की ज्योति काफी पानी पी चुकी थी। सुनीलजी ने पानी में से निकलने के बाद पहली बार ज्योति के पुरे बदन को नदी के किनारे पर बेफाम लेटे हुए देखा। ज्योति का स्कर्ट करीब करीब फट गया था और उसकी जाँघें पूरी तरह से नंगी दिख रही थी।

ज्योति की छोटी से पैंटी उसकी चूत के उभार को छुपाये हुए थी। ज्योति का टॉप पूरा फट गया था और ज्योति की छाती पर बिखरा हुआ था। उसकी ब्रा को कोई अतापता नहीं था। ज्योति के मदमस्त स्तन पूरी तरह आज़ाद फुले हुए हलके हलके झोले खा रहे थे।

पर सुनीलजी को यह सब से ज्यादा चिंता थी ज्योति के हालात की। उन्होंने फ़ौरन ज्योति के बदन को अपनी दो जाँघों के बिच में लिया और वह ज्योति के ऊपर चढ़ गए। दूर से देखने वाला तो यह ही सोचता की सुनीलजी ज्योति को चोदने के लिए उसके ऊपर चढ़े हुए थे।

ज्योति का हाल भी तो ऐसा ही था. वह लगभग नंगी लेटी हुई थी। उसके बदन पर उसकी चूत को छिपाने वाला पैंटी का एक फटा हुआ टुकड़ा ही था और फटा हुआ टॉप इधरउधर बदन पर फैला हुआ था जिसे सुनीलजी चाहते तो आसानी से हटा कर फेंक सकते थे।

सुनीलजी ने ज्योति के बूब्स के ऊपर अपने दोनों हाथलियाँ टिकायीं और अपने पुरे बदन का वजन देकर दोनों ही बूब्स को जोर से दबाते हुए पानी निकालने की कोशिश शुरू की। पहले वह बूब्स को ऊपर से वजन देकर दबाते और फिर उसे छोड़ देते। तीन चार बार ऐसा करने पर एकदम ज्योति ने जोर से खांसी खाते हुए काफी पानी उगल ना शुरू किया। पानी उगल ने के बाद ज्योति फिर बेहोश हो गयी।

सुनीलजी ने जब देखा की ज्योति फिर बेहोश हो गयी तो वह घबड़ाये। उन्होंने ज्योति की छाती पर अपने कान रखे तो उन्हें लगा की शायद ज्योति की साँस रुक गयी थी।

सुनीलजी ने फ़ौरन ज्योति को कृत्रिम साँस (आर्टिफिशल रेस्पिरेशन) देना शुरू किया। सुनीलजी ने अपना मुंह ज्योति के मुंह पर सटा लिया और उसे अपने मुंह से अपनी स्वास उसे देने की कोशिश की।

अचानक सुनीलजी ने महसूस किया की ज्योति ने अपनी बाँहें उठाकर सुनीलजी का सर अपने हाथों में पकड़ा और सुनीलजी के होँठों को अपने होँठों पर कस के दबा कर सुनीलजी के होँठों को चूसने लगी।

सुनीलजी समझ गए की ज्योति पूरी तरह से होश में आ गयी थी और अब वह कुछ रोमांटिक मूड में थी।

सुनीलजी ने अपना मुँह हटा ने की कोशिश की और बोले, “छोडो, यह क्या कर रही हो?”

तब ज्योति ने कहा, “अब तो मैं कुछ भी नहीं कर रही हूँ। मैं क्या कर सकती हूँ तुम अब देखना।”

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सुनीलजी की आँखों के सामने कितने समय के बाद भी ज्योति के फिसल कर नदी में गिर जाने का और सुनीलजी के छलाँग लगा कर नदी में कूदने का ने का दृश्य चलचित्र की तरह बार बार आ रहा था।

उन्हें बड़ा ही अफ़सोस हो रहा था की उनमें उतना आत्मविश्वास या यूँ कहिये की साहस नहीं था की वह अपनी जान जोखिम में डाल कर अपनी बीबी को बचाएं। वह अपने आपको कोस रहे थे की जो वह नहीं कर सके वह सुनीलजी ने किया।

सुनीलजी ने मन ही मन तय किया की अगर मौक़ा मिला तो वह भी अपनी जान जोखिम में डाल कर अपने अजीज़ को बचाने से चूकेंगे नहीं। आखिर देश की आजादी के लिए कुरबानियां देनी ही पड़तीं हैं।

अब आगे अंजाम क्या होगा: ज्योति ज़िंदा बचती है या नहीं, सुनीलजी ज्योति को बचा पाते हैं या नहीं और क्या सुनीलजी खुद बच पाते हौं या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा। अब सुनीलजी को तो सिर्फ अपने आप को बचाना था।

अचानक ही तीन में से दो लोग जाते रहे। उन्हें ना तो रास्ते का पता था और ना तो कौनसी दिशा में जाना है उसका पता था। सुनीलजी के बताये हुए निर्देश पर ही उन्होंने चलना ठीक समझा।

सुनीलजी ने अपनी आगे बढ़ने की गति और तेज कर दी। उन्हें सम्हाल के भी चलना था क्यूंकि उन्होंने देखा था की नदी के एकदम करीब चलने में बड़ा ही खतरा था। सुनीलजी की चाल दौड़ में बदल गयी। अब उन्हें बचाने वाले सुनीलजी नहीं थे। अब जो भी करना था उन्हें ही करना था। साथ में उनके पास गन भी थी।

अँधेरे में पेड़ों को ढूंढते हुए गिरते लुढ़कते पर जितना तेज चल सके उतनी तेजी से वह आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में कई पत्थर और कीचड़ उनकी गति को धीमी कर देते थे। पर वह चलते रहे चलते रहे। उन्हें कोई दर्द की परवाह नहीं करनी थी, क्यूंकि अगर दुश्मनों ने उनको पकड़ लिया तो उन्हें मालुम था की जो दर्द वह देंगे उसके सामने यह दर्द तो कुछ भी नहीं था।

एक तरीके से देखा जाए तो ज्योति और सुनीलजी नदी के तूफ़ान में जरूर फँसे हुए थे पर कमसे कम दुश्मनों की फ़ौज से पकडे जाने का डर तो उन्हें नहीं था.

ऐसी कई चीज़ों को सोचते हुए अपनी पूरी ताकत से सुनीलजी आगे बढ़ते रहे। चलते चलते करीब चार घंटे से ज्यादा वक्त हो चुका था। सुबह के चार बजने वाले होंगे, ऐसा अनुमान सुनीलजी ने लगाया।

सुनीलजी की हिम्मत जवाब देने लगी थी। उनकी ताकत कम होने लगी थी। अब वह चल नहीं रहे थे उनका आत्मबल ही उन्हें चला रहा था। उनको यह होश नहीं था की वह कौनसे रास्ते पर कैसे चल रहे थे।

अचानक उन्होंने दूर क्षितिज में बन्दुक की गोलियों की फायरिंग की आवाज सुनी। उन्होंने ध्यान से देखा तो काफी दुरी पर आग की लपटें उठी हुई थी और काफी धुआं आसमान में देखा जा रहा था।

साथ ही साथ में दूर से लोगों की दर्दनाक चीखें और कराहट की आवाज भी हल्की फुलकी सुनाई दे रही थी। सुनीलजी घबड़ा गए। उन्हें लगा की शायद उनका पीछा करते करते दुश्मन के सिपाही उनके करीब आ चुके हैं।

सुनीलजी को जल्दी से कहीं ऐसी जगह छुपना था जहां से उनको आसानी से देखा नहीं जा सके। सुनीलजी ने डरके मारे चारों और देखा। नदी के किनारे थोड़ी दूर एक छोटीसी पहाड़ी और उसके निचे घना जंगल उनको दिखाई पड़ा। वह फ़ौरन उसके पास पहुँचने के लिए भागे। अन्धेरा छट रहा था। सूरज अभी उगने में समय था पर सूरज की लालिमा उभर रही थी।

सुनीलजी को अपने आपको दुश्मन की निगाहों से बचाना था। वह भागते हुए नजरे बचाते छिपते छिपाते पहाड़ी के निचे जा पहुंचे। झाड़ियों में छुपते हुए ताकि अगर दुश्मन का कोई सिपाही उस तरफ हो तो उन्हें देख ना सके, बड़ी सावधानी से आवाज किये बिना वह छुपने की जगह ढूंढने लगे।

अचानक उन्हें लगा की शायद थोड़ी ऊपर एक गुफा जैसा उन्हें दिखा। वह गुफा काफी करीब जाने पर ही दिखाई दी थी। दूर से वह गुफा नजर नहीं आती थी।

सुनीलजी फ़ौरन उस चट्टान पर जैसे तैसे चढ़ कर गुफा के करीब पहुंचे। एरिया में गुफा लगभग एक बड़े हॉल के जितनी थी। उन्हें लगा की शायद वहाँ कोई रहता होगा, क्यूंकि गुफा में दो फटे हुए गद्दे रखे थे, एक पानी का मटका था, कुछ मिटटी के और एल्युमीनियम के बर्तन थेऔर एक कोने में एक चूल्हा और कुछ राख थी जिससे यह लगता था जैसे किसने वहाँ कुछ खाना पकाया होगा।

सुनीलजी चुपचाप गुफा में घुस गए और बहार एक घांसफूस का लकड़ी और रस्सी से बंधा दरवाजे जैसा था (वह एक घाँस और लकड़ी की फट्टियों का बना आवरण जैसा ही था, दरवाजा नहीं) उससे गुफा को ढक दिया ताकि किसी को शक ना हो की वहाँ कोई गुफा भी थी।

सुनीलजी थकान से पस्त हो गए थे। उनमें कुछ भी करने की हिम्मत और ताकत नहीं बची थी। खुद को बचाने के लिए जो कुछ वह कर सकते थे उन्होंने किया था अब बाकी उपरवाले के भरोसे छोड़ कर वह एक गद्दे पर लम्बे हुए और लेटते ही उनकी आँख लग गयी।

उन्हें पता नहीं लगा की कितनी देर हो गयी पर अचानक उनको किसीने झकझोर कर जगाया। उनके कान में काफी दर्द हो रहा था। चौंक कर सुनीलजी ने जब अपनी आँख खोली तो देखा की एक औरत फटे हुए कपड़ों में उनकी ही बंदूक अपने हाथों में लिए हुए उनके सर का निशाना बना कर खड़ी थी और उन्हें बंदूक के एक सिरे से दबा कर जगा रही थी।

उस हालात में ना चाहते हुए भी उनकी नजर उस औरत के बदन पर घूमने लगी। हालांकि उस औरत के कपडे फटे हुए और गंदे थे, उस औरत की जवानी और बदन की कामुकता गजब की थी। उसकी फटी हुई कमीज में से उसके उन्मत्त स्तनोँ का उभार छुप नहीं पा रहा था। औरत काफी लम्बे कद की और पतली कमर वाली करीब २६ से २८ साल की होगी।

सुनीलजी ने देखा तो उस औरत ने एक कटार जैसा बड़ा एक चाक़ू अपनी कमर में एक कपडे से लपेट रखा था। उसके पाँव फटे हुए सलवार में से उसकी मस्त सुडौल जाँघे दिख रहीं थीं। शायद उस औरत की चूत और उस कपडे में ज्यादाअंतर नहीं था। उसकी आँखें तेज और नशीली लग रही थीं।

अचानक बंदूक का धक्का खा ने कारण सुनीलजी गिर पड़े। वह औरत उन्हें बन्दुक से धक्का मारकर पूछ रही थी, ” क्या देख रहा है साले? पहले कोई औरत देखि नहीं क्या? तुम कौन्हो बे? यहां कैसे आ पहुंचे? सच सच बोलो वरना तुम्हारी ही बंदूक से तुम्हें भून दूंगी।”

उस औरत के कमसिन बदन का मुआइना करने में खोये हुए सुनीलजी बंदूक का झटका लगते ही सुनीलजी वापस जमीन पर लौट आये। उन्हें पता नहीं था यह औरत कौन थी। वह आर्मी वाली तो नहीं लग रही थी क्यूंकि ना तो उसने कोई यूनिफार्म पहना था और ना ही उसके पास अपनी कोई बंदूक थी।

ना ही उसने अपने कपडे ढंग से पहने हुए थे। पर औरत थी कमालकी खूबसूरत। उसके बदन की कामुकता देखते ही बनती थी। उस औरत ने सोते हुए सुनीलजी की ही बंदूक उनकी कानपट्टी पर दाग रक्खी थी। सुनीलजी को ऐसा लग रहा था जैसे वह औरत भी कुछ डरी हुई तनाव में थी।

सुनीलजी ने डरते हुए अपने दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए कहा, “मैं यहां के सिपाहियों की जेल से भगा हुआ कैदी हूँ। मेरे पीछे यहां की सेना के कुछ सिपाही पड़े हैं। पता नहीं क्यों?”

सुनीलजी की बात सुनकर सुनीलजी को लगा की शायद उस औरत ने हलकी सी चैन भरी साँस ली। बंदूक की नोक को थोड़ा निचे करते हुए उस औरत ने पूछा, “कमाल है? सिपाही पीछे पड़े है, और तुम्हें पता नहीं क्यों? सच बोल रहा है क्या? कहाँ से आया है तू?”

सुनीलजी ने कहा, “हिंदुस्तानी हूँ मैं। हमें पकड़ कर यहां के सिपाहीयो ने हमें जेल में बंद कर दिया था। हम तीन थे। जेल से तो हम भाग निकले पर मेरे दो साथी नदी में बह गए। पता नहीं वह ज़िंदा हैं या नहीं। मैं बच गया और उन सिपाहियों से बचते छिपते हुए मैं यहां पहुंचा हूँ।”

सुनीलजी ने देखा की उनकी बात सुनकर उस औरत कुछ सोच में पड़ गयी। शायद उसे पता नहीं था की सुनीलजी की बात का विश्वास किया जाये या नहीं। कुछ सोचने के बाद उस औरत ने अपनी बन्दुक नीची की और बोली, “फिर यह बंदूक कहाँ से मिली तुमको?”

सुनीलजी ने राहत की एक गहरी साँस लेते हुए कहा, “यह उन में से एक सिपाही की थी। हम ने उसे मार दिया और उसकी बंदूक लेकर हम भागे थे। यह बंदूक उसकी है।”

औरत ने सुनीलजी की कानपट्टी पर से बंदूक हटा दी और बोली, “अच्छा? तो तुम भी उन कुत्तों से भागे हुए हो?”

जैसे ही सुनीलजी ने “भी” शब्द सुना तो वह काफी कुछ समझ गए। अपनी आवाज में हमदर्दी जताते हुए वह बोले, “क्या तुम भी उन सिपाहियों से भागी हो?”

उस औरत ने बड़े ध्यान से सुनीलजी की और देखा और बोली, “तुम्हें पता नहीं क्या यहाँ क्या हो रहा है?”

सुनीलजी ने अपने मुंडी नकारात्मक हुइलाते हुए कहा, “मुझे कैसे पता?”

औरत ने कहा, “यह साले कुत्ते यहां की आर्मी के सिपाही, हमारी बस्तियों को लुटते हैं और हम औरतों को एक औरत को दस दस आदमी बलात्कार करते हैं और उनको चूंथने और रगड़ने के बाद उन्हें जंगल में फेंक देते हैं। मेरे पुरे कबीले को और मेरे घर को बर्बाद कर और जला कर वह मेरे पीछे पड़े थे। मैं भी तुम्हारी तरह एक सिपाही को उसीकी बंदूक से मार कर भागी और करीब सात दिन से इस गुफा में छिपी हुई हूँ।

मेरे पीछे भी वह भेड़िये पड़े हुए हैं। पर एक दो दिन से लगता है की हिंदुस्तान की आर्मी ने उनपर हमला बोला है तो शायद वह उनके साथ लड़ाई में फँसे हुए हैं।”

सुनीलजी ने अपनी हमदर्दी जारी रखते हुए पूछा, “तुम इस गुफा में गुजारा कैसे करती हो? तुम्हारा गाँव कौनसा है और तुम्हारा नाम क्या है?”

औरत ने कहा, “मेरा नाम आयेशा है। मैं यहां से करीब पंद्रह मील दूर एक गाँव में रहती थी। मेरे पुरे गाँव में साले कुत्तों ने एक रात को डाका डाला और मेरा घर जला डाला। मेरे अब्बू को मार दिया और दो सिपाहियों ने मुझे पकड़ा और मुझे घसीट कर मुझ पर बलात्कार करने के लिए तैयार हुए। तब मैंने उन्हें फंसा कर मीठी बातें कर के उनकी बंदूक ले ली और एक को तो वहीँ ठार मार दिया। दुसरा भाग गया…

मैं फिर वहाँ से भाग निकली और भागते भागते यहां पहुंची और तबसे यहां उन से छिपकर रह रही हूँ। मैं खरगोश बगैरह जो मिलता है उसका शिकार कर खाती हूँ। एक रात मैं छिपकर नजदीक के गाँव में गयी तो वहाँ एक झौंपड़ी में कुछ बर्तन और गद्दे रक्खे हुए थे। झौंपड़ी वालोँ को उन गुंडों ने शायद मार दिया था। यह चुराकर मैं यहां ले आयी। ”

सुनीलजी ने कहा, “हम दोनों की एक ही कहानी है। वह सिपाही हमारे पीछे भी पड़े हैं। मुझे यहां से मेरे मुल्क जाना है। मुझे पता नहीं कैसे जाना है, कौनसे रास्ते से। क्या तुम मेरी मदद करोगी?”

आयेशा: “तुम अभी कहीं नहीं जा सकते। चारों और सिपाही पहरा दे रहे हैं। अभी पास वाले गाँव में कुछ सिपाही लोग कहर जता रहे हैं। काफी सिपाही इस नदी के इर्दगिर्द पता नहीं किसे ढूंढ रहे हैं। शायद तुम लोगों की तलाश जारी है। यहां से बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है। एकाध दो दिन यहां रहना पडेगा। यह जगह अब तक तो मेहफ़ूज़ है। पर पता नहीं कब कहाँ से कोई आ जाये। यह बंदूक तुम्हारे पास है वह अच्छा है। कभी भी इसकी जरुरत पड़ सकती है।”

जब आयेशा यह बोल ही रही थी की उनको कुछ आदमियों की आवाज सुनाई दी। आयेशा ने अपने होँठों पर उंगली रख कर सुनीलजी को चुप रहने का इशारा किया। धीरे से आयेशा ने गुफा के दरवाजे की आड़ में से देखा तो कुछ साफ़ साफ़ नजर नहीं आ रहा था।

आयेशा ने दरवाजा कुछ हटा कर देखा और सुनीलजी को अपने पीछे आने का इशारा किया। बंदूक आयेशा के हाथ में ही थी। आयेशा निशाना ताकने की पोजीशन में तैयार होकर धीरे से बाहर आयी और झुक कर इधर उधर देखने लगी।
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Re: Erotica साहस रोमांच और उत्तेजना के वो दिन complete

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गुफा के अंदर छुपे हुए सुनीलजी ने देखा की एक सिपाही ने आयेशा को गुफा के बाहर निकलते हुए देख लिया था। पहले तो सुनीलजी का बदन डर से काँप उठा। अगर उस सिपाही ने बाकी सिपाहियों को खबर कर दी तो उनका पकडे जाना तय था। सुनीलजी ने तय किया की सुनीलजी ने उन्हें बंदूक दे कर और उसे चलाना सीखा कर उन्हें भी सिपाही बना दिया था। अब तो वह जंग में थे। जंग का एक मात्र उसूल यह ही था की यातो मारो या मरो।

चट्टान पर रेंगते हुए वह चुचाप आगे बढे और आयेशा के पाँव को खिंच कर उसे बाजू में गिरा दिया। अपने होँठों पर उंगली डाल कर चुप रहने का इशारा कर उन्होंने आयेशा की कमर में लटके बड़े चाक़ू को निकाला और पीछे चट्टान पर रेंगते हुए चट्टान के निचे कूद पड़े।

वह सिपाही आयेशा की और निशाना तान कर उसे गोली मारने की फिराक में ही था। पीछे से बड़ी ही सिफ़त से लपक कर उस सिपाही के गले में चाक़ू फिरा कर उसके गले को देखते ही देखते रेंट डाला।

सिपाही के गले में से खून की धारा फव्वारे जैसी फुट पड़ी। वह कुछ बोल ही नहीं पाया। कुछ पलों तक उसका बदन तड़पता रहा और फिर शांत हो कर जमीन पर लुढ़क गया। । खून के कुछ धब्बे सुनीलजी के की शर्ट पर भी पड़े। वैसे ही सुनीलजी की कमीज इतनी गन्दी थी की वह धब्बे उनके कमीज पर लगे हुए कीचड़ और मिटटी में पता नहीं कहाँ गायब हो गए।

ऊपर से देख रही आयेशा जो सुनीलजी के अचानक धक्का मारने से गिरने के कारण गुस्से में थी, वह अचरज से सुनीलजी के कारनामे को देखती ही रह गयी।

सुनीलजी ने उसे धक्का मार कर गिराया ना होता और उस सिपाही को उसकी कमर में रखे हुए चाक़ू से मार दिया ना होता तो वह सिपाही आयेशा को जरूर गोली मार देता और बंदूक की गोली की आवाज से सारे सिपाही वहां पहुँच जाते।

सुनीलजी की चालाकी से ना सिर्फ आयेशा की जान बच गयी बल्कि सारे सिपहियों को उस गुफा का पता चल नहीं पाया जहां आयेशा और सुनीलजी छुपे हुए थे। सुनीलजी उस सिपाही की बॉडी घसीट कर उस पहाड़ी के पीछे ले गए जहां निचे काफी गहरी खायी और घने पेड़ पौधे थे। उस बॉडी को सुनीलजी ने ऊपर से निचे उस खायी में फेंक दिया। वह लाश निचे घने जंगल के पेड़ पौधों के बिच गिर कर गायब हो गयी।

सुनिजि के करतब को बड़ी ही आश्चर्य भरी नजरों से देख रही आयेशा सुनीलजी के वापस आने पर गुफा में उन पर टूट पड़ी और उनसे लिपट कर बोली, “मुझे पता नहीं था तुम इतने बहादुर और जांबाज़ हो।”

आयेशा का करारा बदन अपने बदन से लिपटा हुआ पाकर सुनीलजी की हालत खराब हो गयी। उस बेहाल हाल में भी उनका काफी समय से बैठा हुआ लण्ड उनके पतलून में खड़ा हो गया।

सुनीलजी को लिपटते हुए आयेशा के दोनों भरे हुए अल्लड़ स्तन सुनीलजी की बाजुओं को दबा रहे थे। आयेशा की चूत सुनीलजी के लण्ड को जैसे चुनौती दे रहे थी। सुनीलजी ने भी आयेशा को अपनी बाँहों में ले लिया और कांपते हुए हाथों से आयेशा के बदन के पिछवाड़े को सहलाने लगे।

आयेशा ने अपने बदन को सुनीलजी के बदन से रगड़ते हुए कहा, ” मैं नहीं जानती आपका नाम क्या है। मैं यह भी नहीं जानती आप वाकई में है कौन और आप जो कह रहे हो वह सच है या नहीं। पर आपने मेरी जान बचाकर मुझे उन बदमाशों से बचाया है इसका शुक्रिया मैं कुछ भी दे कर अदा नहीं कर सकती। मैं जरूर आपकी पूरी मदद करुँगी और आपको उन भेड़ियों से बचाकर आपके मुल्क भेजने की भरसक कोशिश करुँगी, चाहे इसमें मेरी जान ही क्यों ना चली जाए। वैसे भी मेरी जान आपकी ही देन है।”

मुश्किल से सुनीलजी ने अपने आपको सम्हाला और आयेशा को अपने बदन से अलग करते हुए बोले, “आयेशा, इन सब बातों के लये पूरी रात पड़ी है। हमने उनके एक सिपाही को मार दिया है। हालांकि उसकी बॉडी उनको जल्दी नहीं मिलेगी पर चूँकि उनका एक सिपाही ना मिलने से वह बड़े सतर्क हो जाएंगे और उसे ढूंढने लग जाएंगे…

हमें पुरे दिन बड़ी सावधानी से चौकन्ना रहना है और यहां से मौक़ा मिलते ही भाग निकलना है। पर हमें यहां तब तक रहना पडेगा जब तक वह सिपाहियों का घिराव यहां से हट ना जाए।”

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सुनीलजी ने सिपाही की बॉडी निचे गिराने पहले उसकी बंदूक ले ली थी। अब उनके पास दो बंदूकें हो गयीं। एक बंदूक आयेशा के पास थी अब एक और बंदूक सिपाही से हथिया ली।

आयेशा काफी खुश नजर आ रही थी। पहली बार उसे महसूस हुआ की उसने ना सही, उसके साथीदार परदेसी (सुनीलजी) ने उसके अब्बूकी कतल का बदला लिया था। आयेशा को सिपाही के मरने का कोई ग़म नहीं था।

सुनीलजी ने जब दुश्मन के सिपाही को मौत के घाट उतार दिया उस समय उनमें एक गज़ब का जोश और जूनून था। पर सुनीलजी जब चट्टान से चढ़कर गुफा में घुसे तब उनका मन बहोत दुखी था। उनके लिए यह सोचना भी नामुमकिन था की कभी वह किसी आदमी को इतनी बेरहमी से मार भी सकते हैं।

उनके मन में अपने आपके लिए एक धिक्कार सा भाव पैदा हुआ। उन्हें अपने आप पर नफरत हो गयी। जब वह गुफा में घुसे और जब आयेशा उनसे लिपट कर उन्हें किस करने लगी तो उनके मन में अजीब से तूफ़ान उमड़ रहे थे।

सुनीलजी को रोना आ रहा था। उनके लिए अपने जीवन का यह सबसे भयावह दिन था। जब कालिया को सुनीलजी ने मार दिया था तो उन्हें बड़ा सदमा लगा था। पर उस समय वह काम सुनीलजी ने किया था, उन्होंने नहीं। जब उस सिपाही को स्वयं सुनीलजी ने अपने हाथों से मौत के घाट उतारा तो उन्हें लगा की उनमें एक अजीब सा परिवर्तन आया है। उन्होंने महसूस किया की वह एक खुनी थे और उन्होंने एक आदमी का क़त्ल किया था।

हमें यह समझना चाहिए की जो सिपाही सरहद पर हमारे लिए जान की बाजी लगा कर लड़ते हैं, उन्हें भी मरना या किसी को मारना अच्छा नहीं लगता, जैसे की हमें अच्छा नहीं लगता। पर वह हमारे लिए और हमारे देश के लिए मरते हैंऔर मारते हैं। इसी लिए वह हमारे अति सम्मान और प्रशंशा के पात्र हैं।

सुनीलजी के करतब को बड़ी ही आश्चर्य भरी नजरों से देख रही आयेशा सुनीलजी के वापस आने पर गुफा में उन पर टूट पड़ी और उनसे लिपट कर बोली, “मुझे पता नहीं था तुम इतने बहादुर और जांबाज़ हो।”

जब सुनीलजी ने आयेशा को कहा की उनको सावधान रहने की जरुरत है, तब आयेशा ने कहा, “इस चट्टान के बिलकुल निचे एक छोटासा झरना है। मैं अक्सर वहाँ जा कर नहाती हूँ। वह गुफा में छिपा हुआ है। बाहर से कोई उसे देख नहीं सकता। तुम भी काफी थके हुए हो और तुम्हारे कपडे भी गंदे गए हैं। चलो मैं तुम्हें वह झरना दिखाती हूँ। तुम नहा लो और फिर दिन में थोड़ा आराम करो। मैं चौकीदारी करुँगी की कहीं कोई सिपाही इस तरफ आ तो नहीं रहा।”

सुनीलजी ने आयेशा की और देखा और मुस्कराये और बोले, “मोहतरमा! मेरे पास बदलने के लिए कोई कपडे नहीं है।”

आयेशा ने शरारत भरे अंदाज में कहा, “कोई बात नहीं। तुम बगैर कपडे ही ऊपर आ जाना, मैं नहीं देखूंगी, बस!” ऐसा कह बिना सुनीलजी के जवाब का इंतजार किये आयेशा ने सुनीलजी का हाथ थामा और उन्हें खींच कर हलके कदमों से गुफा के पीछे निचे एक झरने के पास ले गयी।

वहाँ पहुँचते ही उसने धक्का मारकर सुनीलजी को झरने में जब धकेला तो सुनीलजी ने भी आयेशा को कस के पकड़ा और अपने साथ आयेशा को लेकर धड़ाम से झरने में गिर पड़े। आयेशा हंसती हुई सुनीलजी स लिपट गयी और बोली, “परदेसी, तुम तो बड़े ही रोमांटिक भी हो यार!”

सुनीलजी ने आयेशा को भी जकड कर पकड़ा। उनका मन उस समय कई पारस्परिक विरोधी भावनाओं से पीड़ित था। विधि का विधान भी कैसा विचित्र है? एक दुश्मन के मुल्क की औरत उनकी सबसे बड़ी दोस्त और हितैषी बन गयी थी।

उस समय के सुनीलजी के मन के भावों की कल्पना करना भी मुश्किल था। वह सिपाही तो थे नहीं। उन्हें तो यही सिखाया गया था की “अहिंसा परमो धर्म।” अहिंसा ही परम धर्म है। सिपाही का खून और उसका मृत शरीर देख कर सुनीलजी को उलटी जैसा होने लगा था। जैसे तैसे उन्होंने अपने आप पर नियत्रण रखा था। पर जब आयेशा ने उनकी बहादुरी की प्रशंशा की तो उनको रोना आ गया और वह फुट फुट कर रोने लगे।

आयेशा सुनीलजी के मन के भाव समझ रही थी। वह जानती थी की एक साधारण इंसान के लिए ऐसा खूनखराबा देखना कितना कठिन था। वह खुद भी तो उस नरसंहार के पहले एक आम औरत की तरह अपना जीवन बसर करना चाहती थी। पर विधाता ने उसे भी मरने मारने के लिए मजबूर कर दिया था और जब पहली बार उसने वह सिपाही को मार डाला था तब उसे भी ऐसे ही फीलिंग हुई थी।

आयेशा ने आगे बढ़कर सुनीलजी को अपनी बाँहों में ले लिया हुए प्रगाढ़ आलिंगन करके (कस के जफ्फी लगा कर) सुनीलजी के बालों में उंगलियां फिराते हुए बोली, “ओ परदेसी, मैं समझ सकती हूँ तुम्हारे मन में क्या हो रहा है। मैं भी तो इस दौर से गुजर चुकी हूँ। पर हम लड़ाई के माहौल में है। क्या करें, या तो हम उनके हाथों मारे जाएँ, या फिर उनको मार दें। यहां शान्ति और अमन के लिए जगह ही नहीं छोड़ी है उन्होंने। मेरी माँ को मार दिया, मेरे अब्बू को मार दिया और मेरी इज्जत लूटने पर आमादा हो गए थे वह।”

आयेशा ने सुनीलजी का सर अपनी छाती पर रख दिया। आयेशा का पूरा जवान गीला बदन, उसकी छाती पर उभरे हुए आयेशा के स्तन की नरमी सुनीलजी के गालों को छू रही थी। आयेशा के बदन पर वैसे ही कम कपडे थे। जो थे वह गीले हो चुके थे और आयेशा के बदन को प्रदर्शित कर रहे थे।

सुनीलजी की आँखों के सामने आयेशा के स्तनों के उभार, आयेशा के बूब्स के बिच की खायी, यहां तक की उसकी निप्पलेँ भी दिख रहीं थीं। सुनीलजी ने देखा की आयेशा भी शायद उनके शरीर के स्पर्श से उत्तेजित हो गयी थी और उसकी निप्पलेँ उत्तेजना के मारे फूल कर एकदम सख्त होरही थीं।

आयेशा की नशीली आँखें सुनीलजी की आँखों को एकटक निहार रही थीं। सुनीलजी कीआँखों में सावन भादो की तरह पछतावे के आंसू बहे जा रहे थे।
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