काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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adeswal
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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"क्यों राजी ! जी भरकर प्यास मिटा लो नदी तो स्वयं तुम्हारे चरणों में लोट रही है।" ..

"किन्तु, इसके लिये तो झुकना पड़ेगा।"

"इतना भी न झुकोगे क्या ? यह तरंगें तुम्हारे होंटों को चूमने के लिये व्याकुल हैं।

"किन्तु, कब तक?" वह एकाएक मुड़ा और उसकी गालों को अपने दोनों हाथों में लेकर बोला, "जब यह उतर जायेंगी तो क्या होगा ? वही प्यास 'वही विवशता बल्कि तड़प और भी बढ़ जायेगी।"

माधुरी उसके उत्तर पर विचार करने लगी। राजेन्द ने लपककर खिड़की का पर्दा हटा दिया और तेजी से दोनों किवाड़ खोल दिये । एक परछाईं झट पीछे हटी और दीवार से लग गई । पत्तों की खड़खड़ाहट और किसी के भागकर चलने ने सब भेद खोल दिया। खिड़की के शीशे में से वह भली भांति वासुदेव को देख रहा था । उसको अपने इतना समीप पाकर राजेन्द्र का भय कुछ घट गया था। माधुरी की ओर मुड़ते हुए वह बोला, "इधर आ जायो""देखो हवा कितनी भली लगती है !"

"इसे बन्द ही रहने दीजिये।"

"क्यों ?"

"कहीं कोई आ न जाये ।" ।

"तो क्या हुआ"

एक दिन तो निडर बनना ही होगा।"

"आप सच कहते हैं। इस दिश-दिन की तड़ए इस भय, इस प्यास "इन सब को समाप्त क्यों न कर डालें ?" ___

"कैसे ?" राजेन्द्र ने इस शब्द पर बल देते हुए पूछा और चोर-दृष्टि से शीशे में से वासुदेव को देखा।

"कहीं भाग चलें।" माधुरी ने राजेन्द्र की आँखों में आँखें डालकर कहा।

यह उत्तर सुनते ही राजेन्द्र ने फिर वासुदेव की ओर देखा । इसी समय अचानक आकाश पर चन्द्रमा निकल आया। दोनों की दृष्टि एक साथ ऊपर को उठी । घटाएँ फटकर अलग हो गई थी और वातावरण निखर आया था। दोनों भली प्रकार एक दूसरे को देख रहे थे।

"यह चाँद कहां से निकल पाया ?"

"यही तो प्रेम का साक्षी है।"

"तो राजी ! विलम्ब क्यों.."आज रात ही..."

"इतना शीघ्न ?"

"अच्छा अवसर है. दोनों साथ हैं."चाँद अभी छिप जायेगा.. अँधेरे में नाव झील में डाल देंगे।"

"परन्तु, जायेंगे कहाँ ?"

"कहीं भी इतना बड़ा देश है।"

राजेन्द्र ने माधुरी की आँखों में देखा । आज वह प्रेम के लिये कड़े से कड़ा कष्ट झेलने को भी तैयार थी। उसने धीरे से पूछा---
"तो तुम अपनी बात पर दृढ़ हो ?..'चलोगी?"

"हाँ ! आपको कोई शंका है क्या ?"

"नहीं, तुम पर शंका तो नहीं अपने आप पर से ही विश्वास उठ गया है । तुम सच कहती हो, इतना बड़ा देश है। कहीं भी जा छिपेंगे." किन्तु, धन भी तो चाहिये।"

"दो बरस तक आराम से रहने के लिये तो मेरे पास पर्याप्त है।"

"नहीं माधुरी ! यह क्या थोड़ा है कि मैं तुम्हें अपने मित्र से छीन कर ले जाऊँ.."उसके धन को चुराकर मैं नहीं भागना चाहता।

माधुरी सुप रही और हाथ बढ़ाकर खिड़की बन्द करने का प्रयत्न करने लगी। राजेन्द्र ने उसका हाथ पकड़कर रोक लिया।

"क्यों ?" उसने प्रश्नसूचक दृष्टि उठाते हुए पूछा।

"बन्द हवा में मेरी साँस घुटने लगती है।"

"डरती हूँ कोई आ न जाये ?" । .

“कौन आयेगा वासुदेव के अतिरिक्त यहाँ और कोई है ही कौन ?"

. "उन्हीं की बात तो कर रही थी।"

"उससे मत घबरानो "तुम ने स्वयं ही तो कहा था कि वह पत्थर की मूर्ति है उसमें भावनायें नहीं. वह केवल पशुओं को वश में करना । जानता है 'मानव-हदय की भाषा नहीं समझता।"

"नहीं राजी ! मेरा अभिप्राय यह नया कहीं उन्होंने देख लिया । तो सब बनता हुमा काम बिगड़ जायेगा।"

"नहीं, माधुरी ! यू कहो कि बिगड़सा हुमा काम संवर जायेगा।"

"कसे ?"

- मैं चाहता हूँ कि वह हमारी बातें सुन ले और हमें यू अंधेरे में प्रेम । करता पकड़ ले।" उसने शीशे में बासुदेव की ओर ध्यानपूर्वक देखते हुए कहा।

"यह पाप आज क्या कह रहे हैं ?"

"ठीक ही कह रहा हूँ.. मैं यह नहीं चाहता कि मैं उसकी पीठ में छुरा माई - मैं तो चाहता हूँ कि वह स्वयं अपनी आँखों अपने प्रेम का अन्त देख ले.."और हम दोनों को अपने हाथों विवशता के बंधनों से मुक्त कर दे ।"

"ऐसा कभी हुआ है ? उन्होंने देख लिया तो हम कहीं के भी न रहेंगे

"और जो यहां से भाग गये तो कहाँ के रहेंगे ?" - "मेरा अभिप्राय था कि मैं उनके सामने आने का कभी साहस न कर सकूगी।"

"माधुरी !" टूटे हुए शब्दों में उसने कहा,

"हमें प्रेम के लिये बड़ी से बड़ी आपत्ति का भी सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिये

"चाहे बह स्वयं वासुदेव ही क्यों न हो।"

__ शब्द अभी राजेन्द्र के मुंह पर ही थे कि वासुदेव अंधेरे से निकल कर खिड़की में आ गया और बिल्कुल उनके सामने या खड़ा हमा । उसके चेहरे पर दुख और माथे पर पसीना अन्तर के उस मानसिक संघर्ष के साक्षी थे जिस से उसे दो-चार होना पड़ा । माधुरी ने उसे देखा और चीखकर अलग हट के द्वार की ओर भागी । राजेन्द्र ने लपककर उसे पकड़ना चाहा, किन्तु वह तेज़ी से बाहर निकल गई।

जाते-जाते उसने वासुदेव के यह शब्द भी सुन लिये जो वह राजेन्द्र से कह रहा था, 'तुम्हें अपने प्रेम के लिये मुझे बलपूर्वक मार्ग से हटाने का कष्ट न करना पड़ेगा 'मैं तो स्वयं ही हट जाऊँगा।'

और वह कुछ न सुन सकी और सहमी हुई, पसीना-पसीना, धड़कते हुए मन से अपने कमरे में लोट आई । जाने दोनों में क्या झगड़ा हुमा, बात कहाँ तक पहुँची 'किन्तु ; उसने और कुछ भी न सुना और भीतर से कमरे का किवाड़ बन्द करके पलंग पर जा गिरी. “एक भय सा उसके मस्तिष्क पर छा गया "उसकी आंखों में बासुदेव का वह रूप फिर गया, जब वह घोड़े को चाबुकों से मार रहा था।
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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कमरे में अंधेरा । क्षण भर में क्या हो गया होगा, वह सोच भी न सकती थी। उसने अपना मह दोनों हाथों से ढक लिया और कपपी को रोकने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगी। उसे यू लग रहा था जैसे अभी वासुदेव किवाड़ को तोड़कर भीतर या जायेगा। ' अचानक किवाड़ पर धमाका हुआ। वासुदेव ही था । उसने जोर से किवाड़ खटखटाया और फिर माधुरी का नाम लेकर पुकारा । उसमें न तो उठने का बल था और न इतना साहस ही कि उसके सामने श्रा सके। सांस रोके हाथों से मुख छिपाये वह चुपचाप पड़ी रही। . वासुदेव कोई उत्तर न पाकर चला गया। फिर से मौन छा गया। रात वैसी ही अंधेरी थी। कहीं से कोई आवाज न पा रही थी, किन्तु उसे चैन न था। उसके सोचने की शक्ति मर गई थी वह पागल हो रही थी मन ही मन वह प्रार्थना कर रही थी कि कभी सवेरा ही न हो और वह यूंही रात के अंधेरे में छिपी बैठी रहे ।

रात ज्यों की त्यों मौन थी। कभी-कभी धीमी सी हवा का कोई झौंका पेड़ों के पत्तों को कुछ गुदगुदा जाता और फिर वही मौन, वही सन्नाटा रात आधी से अधिक वीत चुकी थी। बाहर वातावरण में हल्की सी शीत थी, किन्तु भीतर वासुदेव के घर में एक विचित्र आग सुलग रही थी और इसके बुझने का कोई उपाय न था"तीन हृदय भस्म हो रहे थे।

राजेन्द्र ने कमरे की खिड़की खोलकर बाहर झांका। घटाएँ एक बार छटकर फिर एकत्र हो गई थी। उसने असावधानी से गर्दन झटकी
और हाथ में लिया हुमा पत्र लिफाफे में बन्द कर दिया।

लिफ़ाफ़ा थामकर उसने दूसरे हाथ में अपना मूटकेस उठाया । रात के मौन में ही उसने इस स्थान को त्यागने का निर्णय कर लिया था। वासुदेव और माधुरी का आमना-सामना हो गया और यही वह चाहता था कि माधुरी जान जाये कि जिस पर्दे की प्रोट में वह यौवन का रास रचाना चाहती है, वासुदेव उससे अनभिज्ञ नहीं."उसकी कामना-पूर्ति के लिये उसने स्वयं अपने हाथों अपने मन को मार दिया है।

वह धीरे-धीरे पाँव उठाता कमरे से बाहर आ गया । आकाश पर ___घने बादलों के छाने से अंधेरा और गहरा हो चुका था । पाहट को पांव में दबाये वह वासुदेव के कमरे तक पहुँचा। किवाड़ बन्द थे, किन्तु खुली हई दरार से प्रतीत हो रहा था कि भीतर से चिटखनी नहीं लगी। वह क्षण-भर के लिये यहाँ रुका और दरार से लिफ़ाफ़ा भीतर फेंककर तेजी से बरामदा पार करके आँगन में चला पाया। माधुरी का कमरा बन्द था
और वह उससे मिलना भी न चाहता था। इसलिये चुपके से वह ड्योढ़ी से होता हुआ बाहर निकल आया।

झील के किनारे पहुँच कर उसे यू अनुभव हुआ मानो वह पिंजरे से निकल बाहर भाया हो और आज बड़े समय पश्चात् उसने स्वतन्त्रता की साँस ली हो। वह आते हुए वासुदेव से न मिल सका, इस बात का उसे दुख था; किन्तु वह विवश था। अब इससे अधिक वह अपने मित्र के जीवन से खेलना न चाहता था।

उसने सूटकेस को नाव में रखा और एक छिछलती दृष्टि उस विशाल झील पर डाली। आज उसे जीवन बहुत तुच्छ दिखाई दे रहा था, बिल्कुल ऐसी नाव के समान जो बिना पतवारों के पानी के थपेड़ों के सहारे इधर से उधर हिचकोले खाती फिरती हो । अचानक उसे वासुदेव का ध्यान आया और वह उसकी बेबसी की कल्पना करके रो पड़ा। रात के मौन में यह आँसू किसी ने न देखे । आज वह नाटक करते हुए मंच से उठ कर भाग पाया था। उसके मन से एक भारी बोझ उतर चुका था।

ज्योंही उसने नाव का रस्सा खोलना प्रारम्भ किया, उसे किसी के भागने की आवाज आई। उसने गर्दन उठाकर देखा । कोई तेजी से भागता हुआ उसी की ओर पा रहा था । बह नाव छोड़कर उठ खड़ा हुआ और ध्यानपूर्वक पाने वाले को देखने लगा। उसकी घबराहट बढ़ गई और वह साँस रोककर उत्सुकता से भागकर पाने वाले की प्रतीक्षा करने लगा।

उसका अनुमान अब के ठीक न था। आने वाला उसका मित्र नहीं बल्कि माधुरी थी जो हवा की सी तेजी से उसकी ओर भागी चली मा
रही थी। राजेन्द्र के मस्तिष्क पर घोड़े की सी चोट लगी और वह दूर। ही से बोला, "माधुरी ! तुम..."

"हाँ मैं..." उसने हाँपते हुए उत्तर दिया । राजेन्द्र ने एक कड़ी दृष्टि उस पर डाली। वह पई बदलकर हाथ में एक अटैची लेकर धाई थी। राजेन्द्र को उसका निश्चय भांपते देर न लगी। वह बोला-----
"तुम्हें इस समय न आना चाहिए था।" "इसलिये कि तुम रात के अंधेरे में यहां से भाग जामो?"

"हाँ, माधुरी ! दिन के उजाले में अब मैं वासुदेव का सामना न कर पाऊँगा।"

"और मैं...?"

"तुम"तुम तो उसका जीवन हो कोई व्यक्ति अपने जीवन को नहीं ठुकराता "भूल हो जाना तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं।" ___ नहीं राजी ! अब मेरा यहाँ रहना सम्भव नहीं'यदि तुमने भी मुझे ठुकरा दिया तो मैं आत्महत्या कर लंगी।" - "माधुरी ! मैं विवश हूँ"तुम लौट जाओ इसी में तुम्हारी भलाई
-
-
___ "वह मैं स्वयं समझती हूँ कि मेरी भलाई किसमें है। "पाप इतना शीघ्र क्यों बदल गये ?" ___"माधुरी, परिस्थिति कभी मानव को बहुत बदल देती है""भावना में पाकर हम बड़ी-बड़ी भूलें कर बैठते हैं. अब भी संभल जायें तो अच्छा है.. मैं किसी के घर की वसन्त लूटकर अपनी झोली भरना नहीं चाहता''यह बात मुझे आजीवन कोसती रहेगी।"

"तो क्या सब बचन भुलाकर, प्रेम से यू विमुख होकर प्राप प्रसन्न रह सकेंगे?"

माधुरी !" उसने काँपते हुए स्वर में कहा और क्षण भर उसकी ओर चुपचाप देखते रहने के पश्चात् फिर बोला, "परिस्थिति को समझो ''देखो तो हम ऐसी अथाह गहराई में गिरते जा रहे हैं जहाँ से निकलना असम्भव हो जायेगा।"

“इसकी मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं 'आप मेरे साथ हैं तो मैं बड़े से बड़ा अपमान भी सह सकती हूँ।"

"किन्तु, ऐसा क्यों ?"

"इसका उत्तर चाहते हो तो मेरे मन में झांककर देखो' 'तुम्हारे सिवा यहाँ कोई दूसरा नहीं समा सकता।"

___"इसका क्या विश्वास ?" राजेन्द्र ने उसके मुख से दृष्टि हटा ली

और झील में देखने लगा। उसने अनुभव किया कि वह उसकी बात सुन कर तड़प उठी थी। ____ "तो आप ने मुझ से क्या समझकर प्रेम किया था ? यही सुनाने के लिये ?" यह कहते हुए माधुरी के होंट कॉप रहे थे। इसमें क्रोध की झलक थी।

राजेन्द्र ने एक कंकर उठाकर झील में फेंका और बोला
"जो आज मेरी बनने के लिये अपना सब कुछ छोड़कर चली पाई है क्या उसके लिये यह सम्भव नहीं कि कल मुझसे बड़ी कोई और
आकर्षण शक्ति उसे मुझे भी छोड़ देने पर विवश करदे ?"

"आप केवल मेरी परीक्षा लेने के लिये यह खेल खेल रहे थे ?"

"कैसा खेल ?"

"प्रेम का !"
"माधुरी ! मैं अब जान पाया, यह प्रेम केवल कल्पना है और कुछ . नहीं ""टूटे हुए मन इसमें सहारा हूँढते हैं, किन्तु यह उन्हें कभी भी धोखा दे सकता है।"

"आप ने पहले तो कभी ऐसे विचार प्रगट नहीं किये ।"

"तब इसका ज्ञान न था।"...

"दो घड़ी उनके साथ बैठने से ज्ञान प्राप्त हो गया ?"

"तुमने ठीक जाँचा। उसकी बेबसी ने ही मेरी आँखें खोल दी। तुम ही बतानो उसमें कौन सा ऐसा अभाव है कि उससे नमन किया जा सके. "पाचरण में, शिष्टता में, यहाँ तक कि शारीरिक सौन्दर्य में भी मुझसे बढ़-चढ़कर है किन्तु आज तुम उसे ठुकराकर मेरे साथ भाग जाने को तैयार हो गई 'प्रेम के लिये नहीं ऐश्वर्य के लिये, मानन्द के लिये, बासना-पूर्ति के लिये ''और कौन जानता है एक दिन म

"राजी!" उसने चिल्लाकर उसकी जबान बन्द करनी चाही। उसमें और सुनने का साहस न था। राजेन्द्र चुप हो गया और वह भरी हुई आँखों से दूर शून्य में देखने लगी। ___"हाँ माधुरी ! एक दिन मुझे भी छोड़कर तुम किसी दूसरे के साथ भाग जामोगी।" उसने रुकते-रुकते कहा। . माधुरी की आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उसकी बुद्धि ने काम करना छोड़ दिया वह एक ऐसी सीमा पर खड़ी थी जिसके दोनों ओर मृत्यु थी. वह क्या करे ? क्या इतनी दूर पाकर लौट जाना उसके लिये सम्भव था?

वह मोन श्री नीर राजेन्द्र ने उसके मुख पर के बदलते हुए रंगों को निहारा । माधुरी की आँखों में आंसू छलके और फिर वहीं समा गये । उसने धरती पर रखी अटैची को हाथ में लिया और प्रास-पास दृष्टि दौड़ाने लगी।
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"क्या सोच रही हो?" मौन भंग करते हुए राजेन्द्र ने कहा ।

• “सोचने को रखा ही क्या है अब?"

"बहुत कुछ- दुनिया इतनी छोटी नहीं जितना कि तुम समझ रही

"दुनिया तो बहुत बड़ी है, किन्तु मानव कितना तुच्छ है-यह मैं आज ही जान पाई हूँ।" यह कहकर वह बिना उसकी ओर देखे झील के किनारे बढ़ चली। अभी वह कुछ दूर ही जा पाई थी कि राजेन्द्र के स्वर ने उसे रोक लिया। वह उसके पास आया और बोला-"कहाँ जा रही हो?"

"जहाँ भाग्य ले जाये।"

"भाग्य अथवा यह उखड़े हुए पांव ?"

"कुछ ही समझ लीजिये । बेबस व्यक्ति की मंजिल कहाँ है, वह स्वयं ही नहीं जानता।"

"तुम्हारे समान और भी तो कोई विवश है । वासुदेव का क्या होगा ?"

"मुझ प्रभागिन के पास अब देने के लिये रखा ही क्या है ?" "प्रेम..."
"प्रेम !' वह व्यंगात्मक स्वर में बोली, "अभी तो आप कह रहे थे कि प्रेम टूटे हुए हृदय का झूठा सहारा है । इस पर निर्भर रहना धोखा खाना है।"
"ठीक ही तो है ।"
"बड़ी विचित्र बात है, एक वह हैं जो मेरे जीवन को नीरस बना कर मेरी परीक्षा ले रहे हैं ; और एक पाप हैं कि मेरे प्रेम का उपहास उड़ा रहे हैं।"
"नहीं, माधुरी ! मुझे समझने में भूल न करो।" ___ "यदि भूल हो भी गई तो क्या अन्तर पड़ता है । जाइये ! नाव तैयार है । अब आपका-मेरा क्या सम्बन्ध है ?" यह कहकर वह चल पड़ी।
राजेन्द्र ने लपककर उसे पकड़ लिया और दोनों कंधों से पकड़कर उसे झंझोड़ते हुए बोला
"मेरी मानो तो अब भी लौट जाप्रो !" .
माधुरी ने उसकी बात का कोई उत्तर न दिया और क्रोध भरी कृष्टि से उसे देखते हुए झटके से अलग हो गई। उसके होट कुछ कहने को थरथरा रहे थे, पर शब्द गले में अटक गये। माधुरी ने बना चाहा। राजेन्द्र ने फिर उसे रोक लिया और बोला, ''माधुरी ! मैं जानता है कि मैं तुम्हें नहीं रोक सकता । मैं यह भी जानता हूँ कि एक विवश और दुखी मानव की अन्तिम मंजिल कहाँ होती है..."
"मेरा सौभाग्य है कि आपने मेरे निश्चय को भोप लिया।"
"देखो' माधुरी ! आकाश पर काली घटा आई हुई हैं। कितनी भयानक हैं यह घटायें, किन्तु; जब बरसकर हल्की हो जायेंगी तो आकाश निखरकर निर्मल हो जायेगा, मानो वहाँ कुछ था ही नहीं। मान-मन भी इसी आकाश की भांति है। इस में भावना के अनेक तूफान आते हैं-दुल की कितनी बदलियाँ छा जाती हैं कितनी ही घनघोर वृष्टि होती है-~-पर जितना भयानक तूफान, उतना ही निखार आता है। तुम्हारे पति तो इतने विशाल-हृदय हैं कि उनके मन में कोई तूफान या घटा अधिक समय तक नहीं टिक सकती। वह तुम्हें कभी दुख नहीं दे सकते । माधुरी ! मैं तुम्हें क्यों कर समझाऊं, जिसे तुम पा समझ कर छोड़े जा रही हो वह व्यक्ति वास्तव में देवता है। इसी झील के किनारे एक रात जानती हो उसने मुझसे क्या कहा था ?'" ।
... "क्या?" - "उसने मुझसे कहा था-...-'म धुरी तुम से प्रेम करती है, इस से मुझे दल नहीं प्रसन्नता ही है । और मेरी यही इच्छा भी है कि जीवन में जो कुछ मैं उसे न दे सका, वह प्रसन्नता तुम उसे दे दो।"
"उन्होंने हमें प्रेम करते कब देखा?"
"उस दिन जब वह कोचवान की मत्यु के पश्चात् शहर से लौटा था, और गोल कमरे में बैठा अंधेरे में हमारी बातचीत सुन रहा था। तुम तो काफ़ी बनाने चल दी-तुम उसे देख न पाई पर मैंने उसे देख
लिया।"
"पाप ने मुझ से यह कहा क्यों नहीं ?" "कसे कहता? कुछ समझ नहीं पा रहा था-वह भी बेबस था और
..माधुरी मौन थी, और एक गहरी सोच में डूब गई । राजेन्द्र ने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा-~
"माधुरी ! जीवन में कई रहस्य ऐसे भी होते है, जो व्यक्ति अपनी पत्नी से कहने से कतराता है और मित्र से कह डालता है..."
"क्या ?" उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
"मैंने वासुदेव को वचन दिया था कि उसका रहस्य किसी पर प्रगट न करूँगा । किन्तु, आज वह वचन तोड़कर तुम से कहे देता हूँ।" .
"कहिये !" वह उसका रहस्य जानने को आतुर हो रही थी। "एक स्त्री नहीं, मित्र समझकर..." "कहिये ना पाप रुक क्यूं गये ?" "माधुरी' 'माधुरी''तुम्हारा पति नपुंसक है..."
राजेन्द्र के मुख से यह शब्द सुनते ही उस पर एकाएक एक बिजली सी गिरी''अटैची उसके हाथ से छूटकर धरती पर गिर गई, और वह धम से नीचे बैठ गई, मुख घुटनों में दबा लिया। राजेन्द्र खड़ा उसे देखता रहा।
राजेन्द्र ने उससे कुछ भी न छिपाया, उसने उसे वासुदेव के बन्दी हो जाने-कैद से भागने-गोली लगने और ऑपरेशन होने की सब घटनाएँ, जो उसने इसी झील के किनारे सुनी थीं-एक एक करके सब माधुरी को सुना दीं। माधुरी सुनती रही, और अपने आप में खो गई। उसे यूं लग रहा था मानों सैकड़ों विषले नाग उसके शरीर से लिपट कर उसका लहू चूस रहे हों । उसका मन चाहा कि वह जी-भरकर रोये; किन्तु, उसके आंसू भी उसका साथ न देना चाह रहे थे । उसे समझ न.
आ रहा था कि मन का बोझ कैसे हल्का करे । ___ अतीत का एक-एक चित्र उसकी आँखों में घूमने लगा--'उसके पत्ति कितने बेबस थे---कितने दुखी और वह स्वयं कितनी निर्दयी--- उसने कभी उनके मन में झांककर उनकी पीड़ा को चटाने का प्रयल नहीं किया, बल्कि उसने उल्टे अपनी भावनाओं को उभारा और उनको मान मर्यादा से खेलने को तैयार हो गई । कितना बड़ा पाप था जिसका कोई प्रायश्चित नहीं।'
सहसा वह राजेन्द्र का स्वर सुनकर चौंक उठी। उसने सिर ऊपर उठाने का प्रयत्न किया, किन्तु; उसमें अब उस दर्पण को देखने का साहस न था, जिसमें उसे अपने पाप का प्रतिबिम्ब दिखाई दे । वह जा रहा था
और उसे घर लौट जाने को कह रहा था । जब माधुरी ने घुटनों से अपना सिर उठाया तो वह चुप हो गया। दोनों ने एक दूसरे को देखा, उसने बिदा कही और वह चला गया।
माधरी खोई-खोई सी उसे जाते हुए देखती रही। उसने एक बार भी उसे रुक जाने को न कहा । राजेन्द्र नाव में बैठा और चल दिया।
एकाएक माधुरी के हृदय में छिपा तूफान उचल पड़ा । वह फूट-फूट कर रो पड़ी । जाने वह कितनी देर तक बैठी रोती रही-ग्राकाश पर जमी घटाएँ छैट रही थीं-दूर क्षितिज में प्रभात का तारा सुबह का संदेश दे रहा था । रोने से उसका मन हल्का हो गया था, किन्तु ; शरीर में हल्की-हल्की पीड़ा थी-थकान थी।
वह उठी, अटैची को थामा और झील को देखने लगी, जहाँ दूर-दूर तक केवल जल ही जल था। राजेन्द्र जा चुका था, दूर" बहुत दुर". उसके जीवन से दूर "वह अब कभी लौटकर न पायेगा । उसने आँचल से अपने प्रभु पोंछे और बिना किसी निश्चय के झील के किनारे-किनारे चल पड़ी। उसे कुछ सूझ न पड़ता था, वह क्या करे ? कहाँ जाये ? वह एक भटके हुए यात्री के समान अनजानी राह पर खो गई थी। उसी
समय झील की लहरों ने जैसे उसके कानों में गुनगुनाहट सी भरी ___ 'माधुरी ! मैं जानता हूँ, मैं तुम्हें नहीं रोक सकता-मैं यह भी जानता हूँ कि एक दुखी और बेबस व्यक्ति की अन्तिम मंजिल क्या है, पर मेरी तुम से यही प्रार्थना है कि तुम लौट जाओ ! तुम्हारे पति अब भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'
उसके बढ़ते हुए पाँव एकाएक रुक गये। वह पीछे मुड़ी और घर की ओर तेज-तेज पाव उठाकर चलने लगी।
घर वैसे ही मौन था, जैसे वह छोड़कर गई थी । किसी ने उसे पाते हुए न देखा । अँधेरा धीरे-धीरे छंट रहा था।
दबे पाँव वह अपने कमरे की ओर जाने लगी । वासुदेव का कमरा खुला था। उसने भीतर झांककर देखा वह अपने बिस्तर पर न था। किसी विचार से वह एकाएक कांप गई और द्वार के भीतर खड़े होकर फिर उसने भली प्रकार देखा । वह बाल्कनी में कुर्सी पर बैठा, झुटपुटे में झील को देख रहा था।
वह भीतर आ गई और धीरे-धीरे पांव रखती उसके पीछे जा खड़ी हुई । वह स्थिर बैठा मूर्तिवत् कुछ सोच रहा था। __माधुरी बड़ी देर तक खड़ी उसे देखती रही । वह उससे क्षमा मांगने के लिये आई थी, परन्तु उसके सामने आने का साहस उसमें न था। वासुदेव एकटक दूर क्षितिज में देखे जा रहा था । ___माधुरी में और धैर्य न रहा । उसने रोते हुए, बाँहें वासुदेव के गले
में डाल दीं। रोती जाती थी और कहती जाती थी---
"मेरे देवता ! मुझे क्षमा कर दो। मैंने घोर पाप किया है, मैंने विश्वासघात किया है...''मुझे इसका दण्ड दीजिये । मैं प्रसन्नतापूर्वक उसे स्वीकार करूंगी, किन्तु ; आप मुझसे यू रूठिये मत । यू मौन न रहिये-मैं पागल हो जाऊँगी मैं आपके पाँव पड़ती हूँ, कुछ बोलिये ! आप ने इतने दिन मन की बात क्यू न कही ? यदि आप जीवन में इतना
शान्त रह सकते हैं, तो क्या मैं अपने देवता की देवसी पर क्षणिक सुख न्योछावर न कर सकती थी। मैं आपको उपहास का पान बनाऊँगी.. यह पाप ने क्यू सोचा ? मैंने आप को अब तक न पाहिलाना था, अब तक न समझा था-" एक ही साँस में रोते-रोते जाने वह क्या-क्या कहती चली गई । जब साँस लेने को रुकी तो उसने वासुदेव को देखा । यह अभी तक किसी गहरे सोच में खोया सा था, उसकी आँखों से बहे हुए आंसू अभी तक उसके गालों पर जमे थे।
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उसके हाथ से कागज का एक पुर्जा स्वयं ही छूटकर फर्श पर गिरा। माधुरी ने झट उसे उठा लिया और दिन के धीमे प्रकाश में पढ़ने लगी। लिखा था--..
"प्रिय मित्र
तुम जब सुबह उठोगे तो मुझे न पायोगे क्योंकि मैं यहाँ से बहुत दूर जा चुका हूँगा। सम्भव है कि माधुरी भी ऐसा ही करे इसलिए कि वह मेरे पांव की आहट सुनती रहती है और कभी भी तुम्हें छोड़कर मेरे पीछे ना सकती है। किन्तु; मित्र ! विश्वास रखो, मैं तुम्हारे सुख पर डाका डालकर कभी न भागू गा बल्कि तुम्हारी अस्थायी गई हुई प्रसन्नता को लौटाने का हो प्रयत्न करूगा। जब से तुमने अपने मन का रहस्य मुझ से कहा है, मैं कई बार प्रयत्न कर चुका हूँ कि माधुरी से साफ-साफ कह दूं किन्तु; मेरी जबान नहीं खुलती । तुम उसके जीवन-साथी हो, मैं आर्थना करता हूँ कि तुम स्वयं ही उससे कह दो "मैं भला यह बात उस से क्योंकर कहूँ''वह तो मेरी भाभी है."
तम्हारा

राजी" ___माधुरी के हृदय में एक पीड़ा उठी और अंग-अंग में फैल गई। उसने .पत्र को उँगलियों में मरोड़ा और फर्श पर फेंक दिया । वासुदेव वैसे ही
बिना उसकी ओर देखे बेसुध सा विचारों में डूबा हुआ बैठा रहा । पत्र फेंककर वह बाहर जाने के लिये मुड़ी । सहसा उसकी साड़ी का पल्लू कुर्सी में अटक गया । उसने एक बार मुड़कर पल्लू को छुड़ाया और फिर बाहर की ओर बढ़ी। एक ही पग चली होगी कि पल्लू फिर अटक गया किन्तु, अब के वह कुर्सी में न अटका था बल्कि वासुदेव के हाथ में था। उसने मुड़कर देखा और वहीं रुक गई।

"कहाँ जा रही हो?" वासुदेव ने करुण स्वर में पूछा।

'कहीं भी "अब आपको यह अशुभ मुख न दिखाऊँगी मैं आपके योग्य नहीं।" भईये हुए स्वर में उसने उत्तर दिया।

"तो मैं फिर किसके सहारे जिऊँगा ?" हाथ में लिया आँचल छोड़ कर वह उठ खड़ा हुआ ! माधुरी ने मुड़कर वासुदेव की ओर देखा। . उसकी आँखों में स्नेह था और दुख था..... क्रोध न था। वह धीरे धीरे हाथ फैलाये उसी की ओर बढ़े आ रहा था।

"आप--"थरथराते हुए होंटों से उसने कहा और कुछ रुककर फिर बोली, "आपने "मुझे - क्षमा कर दिया ?"

वासुदेव ने हाँ में सिर हिला दिया। उसकी आँखों में एक विशेष चमक थी और होंटों पर छिपी मुस्कान नवजीवन का सन्देश दे रही थी। वह रोते-रोते मुस्करा पड़ी। दोनों एक साथ, एक-दूसरे की ओर बढ़े। वासुदेव ने उसे अपने बाहु-पाश में ले लिया और बोला
'माधुरी! राजी मेरा प्रिय मित्र है-मित्र जीवन में कभी धोखा नहीं देता। क्या तुम भी मेरी मित्र न बन सकोगी ?"

माधुरी ने अपना मुख उसके वक्ष में छिपा लिया । सिसकियों भरे स्वर में बोली, "हाँ..."

वासुदेव उसकी पीठ को धीरे-धीरे सहलाने लगा, जैसे कोई प्रौढ़, किसी शिशु को प्यार करे । दोनों की आँखों से आंसू बह रहे थे, जिनमें छिपी पीड़ा धुलकर बह रही थी।

घटा छाई और बरसी-छंट गई और आकाश निखर गया । मन मैले हुए-धुले और धुलकर उजाले हो गये । जीवन महान लक्ष्यों के आधार पर ही टिका है, क्षणिक भावनाओं पर नहीं ।

माधुरी घर पर अकेली थी। गंगा काम-काज से अवकाश पाकर रसोईघर में ही आराम कर रही थी और वासुदेव किसी काम से झील के पार गया हया था। वह अपने कमरे में लेटी किसी उपन्यास का . अध्ययन कर रही थी।

बाहर ज़रा सी आहट से भी चौंककर वह अपना धड़ उठाकर बाहर झाँक लेती और किसी को न पाकर फिर नावल में खो जाती। पहले इसी हवेली में वह घंटों अकेली बैठी रहती थी, किन्तु उसे कभी घबराहट न होती। पर अब जब कभी वासुदेव बाहर जाता तो उसका मन कम्पित हो उठता। भांति-भांति के विचार उसे घेर लेते । वह स्वयं को किसी न किसी कार्य में व्यस्त रखती, किन्तु फिर भी उसकी व्याकुलता उसे अपने पंजे में दबाये रखती। जितना वह उससे छुटकारा पाना चाहती, वह उतना ही बढ़ जाती। वासुदेव की अनुपस्थिति में उसे घर की हर वस्तु काटने लगती । यद्यपि आज वह पढ़ने में तल्लीन थी, फिर भी उसके कान उस पाहट को सुनने पर लगे थे कि कब वह आयेगा। ... हवा तेज़ थी और घर की खिड़कियाँ-द्वार बन्द होने पर भी हल्की सी खदखट हो जाती। वह लेटी वासुदेव की प्रतीक्षा कर रही थी । वह अभी तक न लौटा था। कभी-कभी पुस्तक हाथ में लिये ही वह कुछ सोचने लगती। प्रतीक्षा की घड़ियां लम्बीही होती जा रही थीं।

साँझ ढलते ही गंगा भीतर पाई। वह अभी तक उपन्यास पढ़ने में तल्लीन थी। आहट हुई और उसने पुस्तक से आँख हटाकर कनखियों से गंगा को देखा। उसके हाथ में दो पत्र थे जो शायः डाकिया दे गया था। माधुरी ने हाथ बढ़ाकर दोनों पत्र ले लिये और ध्यानपूर्वक उन्हें देखने लगी। पत्र उसके पति के नाम थे। गंगा पत्र देकर चाय की पूछकर वापस लौट गई । जब वह बाहर चली गई तो माधुरी ने उत्सुकतापूर्वक फिर पत्रों को देखा। एक तो सरकारी था जो उसने मेज पर रख दिया

और दूसरा किसी ऐसे व्यक्ति का था जिसकी लिखाई उसे जानी-पहचानी सी अनुभव हुई। उसने ध्यानपूर्वक फिर उस पर लिखे पते को देखा। हस्ताक्षर राजेन्द्र के प्रतीत होते थे। _____ वह उठकर बैठ गई और पत्र हाथ में लेकर सोचने लगी। आज बड़े समय के बाद राजेन्द्र का पत्र आया था। जब से वह उन्हें छोड़कर गया था, यह उसका पहला पत्र था। पत्र को थामे सहसा उसकी उँग लियाँ काँपने लगी और उसने उसे भी मेज पर रख दिया। स्वयं लेट कर फिर उपन्यास पड़ने लगी। किन्तु, अब उसकी दृष्टि पुस्तक पर न जम रही थी। इस पत्र ने उसके मन में कोलाहल उत्पन्न कर दिया था। उसने पुस्तक बन्द कर दी और छत की ओर देखने लगी। - इस पत्र ने उसके घाव खोल दिये थे और दबी हुई पीड़ा को जागृत कर दिया था। अतीत चलचित्र की भांति उसके मस्तिष्क पर प्रतिबिम्ब डालने लगा और वह बेचैन हो उठी। वह सोचने लगी.'न जाने बह कहाँ होगा? कैसे होगा ?"""उसने अपने मित्र को भी कोई पत्र न लिखा था । कई बार वासुदेव ने बातों में उसका वर्णन किया; किन्तु माधुरी ने टाल दिया और दूसरे कमरे में चली गई।

अबकी और तबकी माधुरी में बड़ा अन्तर था । अब वह पथ-भ्रष्ट हो जाने का कलंक प्रेम द्वारा मिटा चुकी थी। अब वह तन-मन से वासुदेव की सेवा में लगी रहती और उनके सुख-चैन का बड़ा ध्यान रखती जिससे उसके मन में कभी ऐसा विचार न उठ खड़ा हो जिसका आधार किसी कल्पित शंका पर हो।

किन्तु, वासुदेव को अब भी इन खुशियों के गगन में कभी-कभी कोई ऐसी बदली दिखाई दे जाती जिसमें उसके विश्वास और प्राँस छिपे हए झलक पड़ते । उसने कई बार रात के मौन में चुपचाप उसे कुछ सोचते हुए पाया है उसके लिये माधुरी ने अपनी सह इच्छाओं का दमन कर लिया था. हाँ, उसी के लिये मां बनने की नारी की प्रबल इच्छा उसमें भी थी किन्तु ; उसने मन को मारकर इस पर अधिकार पा लिया था और यह करती भी क्या?

अब उसमें पहले के सी चंचलता न रही थी। वही माधुरी जो पहले इन जंगलों में हिरनी के समान फुदकती फिरती, अब बहुत कहने पर भी घर से बाहर न निकलती। वासुदेव के लाख कहने पर भी कोई न कोई बहाना बनाकर यहीं पड़ी रहती । उसका मुख दिन-प्रतिदिन गम्भीर होता जा रहा था । वासुदेव को यू लगता जैसे अपनी भावनाओं पर विजय पाने के लिये उसे बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा हो । वह अपनी आकांक्षाओं को बलपूर्वक दबाना चाहती । यह विचार वासुदेव के मन को कचोटता रहता। एक मोर विवशता और दूसरी ओर मारव-हृदय की करुण पुकार।

किन्तु, आज इस पत्र ने उसके सोये हुए अरमानों को फिर जगा दिया। एक समय से जो मन के तार मौन थे, उसने फिर से छेड़ दिये, जो पीड़ा उसने अपने मन की गहराइयों में दबा दी थी, वह फिर से उभर आई । उसके मुख से एक आह निकली और उस वातावरण में खो गई । वह मौन बैठी मन की पीड़ा और व्याकुलता को दबाने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगी । व्यक्ति लाख चाहे कि अपने अतीत को किसी ऐसे अन्धकार में छिपा दे, जहाँ जीवन की किरण कभी न पड़े और याद का पर्दा कभी न उठे, परन्तु, अनजाने ही कभी किसी झौंके के साथ वह पर्दा हट जाता है और मन की टीस उभरकर ऊपर आने लगती है। अतीत के चित्र फिर उसके मस्तिष्क पर उभरने लगे-कैसी विचित्र है यह पीड़ा-यह टीस-- इस तड़प में भी एक अनोखा आनन्द है।

साँझ ढलने को थी और न जाने माधुरी लेटी क्या सोचे जा रही थी। वह एकटक छत की ओर देखे जा रही थी। सहसा उसकी आँखों से आंसू ढलके और उसकी गालों पर आ गये। उसे इसका भान तक न हुआ कि वासुदेव क का लौट आया था और खड़ा उसे देख रहा था । अपने विचारों में खोई---वह वर्तमान को एकदम बिसराये हुए थी। वासूदेव ने दबे पाँव जाकर खिड़की खोल दी। अंधेरे कमरे में प्रकाश फैल गया और शीतल हवा के झोंके से पर्दे लहरा उठे।

माधुरी ने चौंककर सामने देखा । वासुदेव को देखकर वह संभली । अपने मानसिक द्वन्द को छिपाते उठ बैठी । वासुदेव मुस्कराया और कुती खींचकर उसके पास बैठ गया ।

"इतना सुहाना समय और तुम द्वार बन्द किये बैठी हो ?" वासुदेव ने कहा।

"और करती भी कमा...? आप भी तो घर पर न थे।"

"मोह ! आज कुछ देर हो गई. यह भी सौभाग्य समझो कि साँझ ढलने से पहले ही भा गया।"

"क्या आधी रात को लौटने का निश्चय था ?" ... "विचार तो कुछ ऐसा ही था, किन्तु; तुम्हारा ध्यान पाते ही भाग आया..."

"इस विचार के लिये धन्यवाद" माधुरी ने उसकी ओर देखकर कहा और फिर आँखें झुका लीं। वासुदेव ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया और उसे अपनी ओर खींचा-इससे पहले कि वह उसे खींच पाता, माधुरी ने दोनों पत्र उसके सामने रख दिये। वासुदेव ने उसका हाथ छोड़ दिया और पत्र पढ़ने लगा।

माधुरी उसे पत्र देकर बाहर चली गई और गंगा को ऊँचे स्वर में पुकारकर चाय लाने को कहा ! जब वह लौटी तो वह राजेन्द्र का पत्र पढ़ रहा था । वह उसके पास आकर खड़ी हो गई पर पत्र के सम्बन्ध में कुछ पूछने का साहस न कर सकी।

वासुदेव ने पत्र पढ़कर एक ओर रख दिया और तीखी दृष्टि से माधुरी को देखा । माधुरी अपनी घबराहट को छिपाते बोली
"चाय पीजियेगा या कॉफ़ी ?" आर्डर तो चाय का दे आई हैं और मुझ से पूछती हैं...?"

. "नहीं कहिये तो !"

"आज हम चाय ही पियेंगे 'प्रतिदिन अपनी रुचि होती है। आज तुम्हारी ही सही ..."

वह मौन थी। फिर अल्मारी खोलकर उसमें से बिस्कुट का डिब्बा निकालने लगी । वासुदेव कुछ क्षण उसे देखता रहा फिर बोला
"जानती हो यह पत्र किसका है ?" माधुरी ने केवल प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे देखा।

"राजेन्द्र का है-वह आजकल पूना में है।"

माधुरी फिर भी मौन थी । एक साथ कई प्रश्न उसके होंटों पर आकर रुक गये । वह कुछ भी पूछ न सकी और अपनी घबराहट को छिपाने के लिये खूटी पर से तौलिया उतारकर उसे देने लगी।"

"एक शुभ सूचना है !" वासुदेव फिर बोला ।

"क्या ?" उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा।

"तुम्हारे राजी ने ब्याह कर लिया है ।" यह कहकर वासुदेव ने पत्र उठा माधुरी के हाथ में दे दिया और स्वयं तौलिया लेकर मुंह धोने को चला गया। माधुरी के शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई जैसे उसने ।

कोई अनहोनी बात सुनी हो--क्या इस सूचना ने उसके मन में कोई जलन सी उत्पन्न कर दी थी ? नहीं नहीं, उसे तो प्रसन्न होना चाहिये, राजेन्द्र का घर बस गया उसका जीवन सफल हुमा-वह किसी दिन अपनी पत्नी को लेकर उन्हें मिलने अवश्य आयेगा।

माधुरी ने झट से लिफाफा खोला और पत्र बाहर निकाला। पत्र के साथ एक चित्र बाहर निकलकर धरती पर गिर पड़ा उसने चित्र को उठा लिया और ध्यानपूर्वक देखने लगी। यह राजेन्द्र और उसकी पत्नी का चित्र था।

एक युवती नई नवेली दुल्हन अनी उसके साथ खड़ी थी। दोनों को एक साथ देखकर क्षणभर के लिये माधुरी का मुख लाल हो गया। वह पत्र पढ़ने लगी। पत्र कुछ ही पंक्तियों का था, जिसमें राजेन्द्र ने व्याह में उन्हें आमन्त्रित न कर सकने की क्षमा मांगी थी। उसका ब्याह हुए साल भर हो चुका था। उसने लिखा था कि वह स्वयं भी नहीं जानता कि क्यू उसने उन्हें ब्याह की सूचना नहीं दी और अन्त में एक पंक्ति में उसने माधुरी को भी याद किया था । लिखा था, “यदि माधुरी वहाँ हो तो उसे अपनी भाभी का चित्र दे देना।" ____

मुह पोंछता हुआ वासुदेव स्नानगृह से बाहर आया । माधुरी ने उसे आता देखकर झट से चित्र लिफाफे में रख दिया। बासुदेव ने मुस्कराते हुए पूछा
"कहो, कैसी लगी ?"

"क्या?"

राजेन्द्र की पत्नी ?"

"बहुत सुन्दर आपका क्या विचार है ?

"स्त्री को स्त्री की दृष्टि अधिक परख सकती है..."

"किन्तु, पुरुषों से कम ।"

"वह कैसे ?"
-
-
"हम उसे ऊपर से देखते हैं, और आप उसके मन की गहराइयों में उतर जाते हैं।"

"पाश्चर्य तो यह है कि फिर भी उसका भेद नहीं पा सकते।"

"मैं नहीं मानती।"

"अब तुम ही कहो कि लगभग हमें पाँच वर्ष एक साथ रहते हो गये हैं, परन्तु अभी तक तुम्हारे मन को समझ नहीं पाया।"

___"वह इसलिये कि आप ने इसे समझने का कभी प्रयत्न नहीं किया ।"

वासुदेव कुछ कहने को था ही कि कोई द्वार से भीतर आया और वह मौन हो गया।

- गंगा चाय लेकर आई और मेज पर ट्रे रखकर चली गई । वासुदेव बैठ गया और माधुरी चाय बनाने लगी। कुछ क्षण वातावरण में मौन छाया रहा। वासुदेव ने राजेन्द्र का चित्र निकाला और देखने लगा। माधुरी दृष्टि झुकाये चाय बनाती रही।

" "मन चाहता है कि अभी पूना चला जाऊं और दोनों को कुछ दिन .. के लिये यहाँ ले आऊँ..."

"तो चले जाइये न... !"

"अकेले नहीं "तुम भी साथ चलो तो!" चाय का प्याला हाथ में लेते वासुदेव ने कहा।

"मैं...! नहीं, आप जाइये 'मुझे वहाँ नहीं जाना।"

"तुम्हें अपनी भाभी से मिलने की इच्छा नहीं ?"

"यह किसने कहा ? मुझे उनके घर यूं जाना अच्छा नहीं लगता।"

"लो-मैं भी न जाऊंगा।"

माधुरी मौन रही । वासुदेव जाये या न जाये, किन्तु; वह नहीं जायेगी। वह उसे जाने से कैसे रोक सकती थी. "वह उस पर यह भी स्पष्ट न होने देना चाहती थी कि वह स्वयं राजेन्द्र से मिलने की इच्छुक है और अभी तक उसके मन में उसकी याद बसी है।

दूसरे दिन जब बासुदेव बाहर चला गया तो माधुरी ने उसके कमरे में जाकर राजेन्द्र का पत्र निकाला और उनकी तस्वीर देखने लगी। उसकी पत्नी वास्तव में बड़ी सुन्दर थी। माधुरी का मन तो चाहता था कि किसी . प्रकार वासुदेव पूना चला जाये मीर उन्हें अपने यहाँ ले आये। वह एक बार स्वयं राजेन्द्र से क्षमा मांगने के लिये व्याकुल थी, किन्तु यह कामना किसी पर प्रगट न कर सकती थी।

इसके पश्चात् घर में कई बार राजन की बात छिड़ी, पर माधुरी ने उसको बढ़ने नहीं दिया । यह बातें घंटों उसके अधूरे सपनों को कुरेदती रहती और तह उन्हें भुलाते का प्रयत्न करते-करते के सुत्र हो जाती। कभी कभी तो उसे ऐसा लगता, मानों राजन और कुमुद उसके घर अतिथि बनकर आ गये हों और वह उनकी आवभगत में लगी हो। पर विचारों का तांता टूटते ही बह तड़पकर रह जाती।

थोड़े दिनों बाद राजेन्द्र का दूसरा पत्र पाया । लिखा था कि कुमुद बहुत बीमार है और उसे हुस्पताल में भरती करवा दिया गया है । उसे एकाएक हो क्या गया है ? इसका कोई विवरण न था। यह पढ़कर दोनों को चिन्ता हुई। वासुदेव ने तो चिन्ता उस पर स्पष्ट कर दी किन्तु माधुरी ने कुछ प्रगट न होने दिया । वासुदेव पूना जाना चाहता था; किन्तु वह माधुरी को अकेला छोड़कर न जाना चाहता था। और वह वासुदेव के साथ जाकर दबी हई चिनारी को कुरेदना न चाहती थी।

उसने अपने आपको लाख संभालना चाहा, किन्तु मत था कि डूबा जा रहा था । डर और कैंपकपी से लहू जमकर रह गया । ऐसा मालूम हो रहा था कि सारा शरीर सुन्न हो गया हो और कोई लाखों सुइयाँ चुभो कर उसे सुध में लाना चाह रहा हो । फिर भी वह थी कि निष्प्राण सी गिरी जा रही थी ! यौवन का उन्माद उतर चुका था । उसे ऐसा अनु भव हो रहा था जैसे कोई उसे पर्वत की चोटी पर ले गया हो और फिर ऊपर से एकाएक उसे नीचे धकेल दिया गया हो-वह मर रही हो और ..
अपनी मृत्यु का तमाशा अपनी आँखों से देख रही हो।
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