दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Post Reply
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Post by Jemsbond »

6

मुँहअँधेरे माँ ने अमूमन आवाज़ लगायी, ‘‘कबी ओ कबी, उठ दूध लेकर आ।’’

गली के ढाल पर किशना घोसी सुबह पाँच बजे गाय दुहता था। पीतल का कलईदार डोल लेकर दूध लाना कविमोहन का काम था।

जब दो आवाज़ पर भी कोई आहट नहीं हुई तो माँ ने उसकी चारपाई के पास आकर उसे झकझोरना चाहा। उसके हाथ में कवि की खाली कमीज़ आ गयी जो वह इसलिए उतारकर धर गया था कि घरवालों को पता चल जाए कि वह वाकई घर छोड़ गया है।

माँ घबराई हुई पति के पास आयी। वे सोये हुए तो नहीं थे पर अलसा रहे थे।

‘‘गजब हो गया, कबी भाग गयौ जनै।’’

अभी दिन पूरी तरह उगा नहीं था। अँधेरा अपनी आखिरी चौखट पर खड़ा था। पति ने लालटेन जलाकर घर भर में ढूँढऩा शुरू किया। एक क्षण वे लालटेन लिये, आँगन में हतबुद्धि से इधर-उधर ताकते रहे, फिर हड़बड़ाकर चाभी लगाकर दुकान का पिछला द्वार खोला। बरामदे के पास वाले कमरे में दुकान थी। उन्होंने गल्ला गिनकर देखा। रुपये पूरे थे। पिछली रात जब दुकान बढ़ाई थी, तब भी उतने ही थे।

वे कुछ आश्वस्त हुए। कवि की माँ घबराई हुई ऊपर की मंजिलें देखकर डगमगाती हुई ज़ीना उतर रही थी। थक गयी तो ज़ीने में ही बैठ गयी।

पति ने ज़ीने में मुँह करके कहा, ‘‘फिकर न करो कवि की माँ। ससुरा दो दिना में वापस आ जाएगा। रुपया-अधेला सब ठीक है।’’

माँ ने ज़ीने की सीढ़ी पर ही अपना सिर कूट डाला, ‘‘भाड़ में जाय तुम्हारा रुपया-पैसा। मेरा पला-पलाया छोरा चला गया, तुम अभी अंटी ही टटोल रहे हो। न तुम उसकी कापियाँ फाड़ते न मेरा कबी घर छोडक़र भागता।’’

लाला नत्थीमल कुछ देर पत्नी की तरफ़ देखते रहे। उन्होंने लालटेन खट् से ज़मीन पर रख दी और वहीं बैठ गये। वे पिछले दिन की घटना याद करने लगे, उन्होंने यही तो कहा था कि छोरा दुकान पर बैठे। इत्ती-सी बात पे कवि के मिर्चें लग गयीं। ठीक है वह अव्वल आया। उन्होंने सिहाया नहीं उसे। पर वह ससुरा उनसे कौन रिश्ता रखता है। कभी नहीं कहता, दादाजी तुम नेक आराम कर लो, मैं काम देख लूँगा। स्कूल से आकर लौंडे-लपाड़ों में घूमना, कविताई करना, याके सिवा कौन काम है उसे। इतना ज्याकदा उन्होंने डाँटा भी नहीं था। न उन्होंने हाथ उठाया। परकी साल जब उसने कल्लो कहारिन को एक पंसेरी चावल उधार दिया था, तब उन्होंने उसकी मार-कुटाई भी कर दी थी।

कविमोहन तब क्यों नहीं भागा, अब क्यों भागा।

वे कहाँ गलत हैं, उनकी समझ नहीं आ रहा था। उनका ख़याल था कि दिन भर दुकान पर खटने के बाद हिसाब भी न मिलाया तो क्या खाक़ कमाया। यह बात और है कि वे हर घंटे पर हिसाब मिलाया करते। व्यापार की ये वणिक बारीकियाँ उन्होंने अपने पिता और उनके पिता ने अपने पिता से सीखी थीं। इस बात पर तीनों पीढिय़ाँ सहमत थीं कि उधार मुहब्बत की कैंची है। इस सिद्धान्त का खुला उल्लंघन कवि ने किया जब उन्होंने उसे दोपहर में घंटे-दो घंटे जबरन दुकान पर बैठाया।

ग्वाल टोले के छोटे-छोटे बच्चे दो पैसे, चार पैसे का मिर्च-मसाला खरीदने आते थे। भोले-भाले बच्चों का ध्यान न बाँट पर, न तराजू पर। चुटकी-चुटकी सौदा कम देने पर उनसे काफी मुनाफ़ा कमाया जा सकता था। पर कवि इन्हीं बच्चों को ज्यानदा सौदा दे देता। बच्चों से बोलना, चुहल करना उसे अच्छा लगता। वे, कई बार, टोली में आते, सौदा लेते और चलने से पहले नन्हे-नन्हे हाथ पसारकर कहते, ‘‘राजा भैया टूँगा।’’ कवि रत्ती-रत्ती गुड़ सबकी हथेली पर रख देता और देर तक उन बच्चों का आह्लालाद देखता रहता। गुड़ की डली मुँह में रख वे लुढक़-पुढक़ घर की ओर भाग जाते। उन्हें देख कविमोहन को अक्सर सुभद्राकुमारी चौहान की ‘मेरा बचपन’ कविता याद आती।

पिता को जब इस कार्रवाई की भनक मिली उन्हें अन्दर-ही-अन्दर बड़ी तिलमिलाहट हुई। दोपहर के यही दो घंटे उनके आराम के थे। इस तरह तो बेटा दुकान लुटा देगा। फिर भी, कवि से बकझक करने की बजाय उन्होंने गुड़ का तसला दुकान से उठाकर गोदाम में बन्द कर दिया। लेकिन कवि ने अगले ही रोज़ नया रास्ता खोज लिया। अब वह बच्चों को गुड़ की बजाय काले नमक की डली बाँटने लगा। बच्चों की उमंग में कोई कमी नहीं आयी। वे ज्यावदा खुश हुए क्योंकि नमक की डली गुड़ की डली से ज्याटदा देर मुँह में बनी रहती।

गुड़ महीनों कोठरी में बन्द पड़ा रहा। एक दिन ग्राहक के आने पर पिता ने देखा तो पाया तसले में पड़ा सारा गुड़ गोबर बन चुका है। उन्हें अफ़सोस हुआ या नहीं, यह कवि पर स्पष्ट नहीं हो पाया। गुस्से से बलबलाते हुए उन्होंने सारा गुड़ किशन घोसी की नयी ब्याई भैंस के आगे डलवा दिया।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Post by Jemsbond »

7

बहुत सोचने पर पिता के व्यक्तित्व के कई विकार कवि के आगे उजागर होने लगते। वह ‘साकेत’ की पंक्ति ‘माता न कुमाता पुत्र कुपुत्र भले ही’ को बदलकर मन-ही-मन कह उठता, ‘‘माता न कुमाता पितृ कुपितृ भले ही।’’ यह एक ऐसा रिश्ता था जिसमें दोनों एक-दूसरे को ‘कु’ मानते थे।

कविमोहन को हैरानी होती कि पिता ने अपनी समस्त प्रतिभा और तीक्ष्ण बुद्धि महज़ नफ़ा-नुक़सान की जाँच-तौल में खपा दी। उनकी मुश्किल यह थी कि वे किसी दिन चाहे सौ कमा लें चाहे दो सौ, उन्हें अपनी इकन्नी और अधन्ना नहीं भूलता। किसी ग्राहक ने अगर उन्हें एक अधन्ने से दबा लिया तो उन्हें वह अधन्ना कचोटता रहता। ऐसे दिन वह घर भर में बिफरे घूमते। बिना बात पत्नी या बेटी को फटकार लगा देते, ‘‘ये नल का पानी क्यों बहा रही हो। क्या मुफ्त आता है?’’ उन्हें लगता सारी दुनिया उन्हें लूटने पर आमादा है। वे कर्कश और कटखने हो जाते। जितनी देर वे घर में होते, सब एक तनाव में जीते। जहाँ इसी मथुरा में मोटी तोंदवाले हँसमुख थुलथुल चौबे बसते थे, लाला नत्थीमल शहतीर की तरह लम्बे, दुबले क्या, लगभग सूखे हुए लगते। ऐसा लगता जैसे कृष्ण ने जीवन का मर्म उन्हें यही समझाया है कि ‘अपनों से युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से श्रेयस्कर है, मरकर तू स्वर्ग को प्रस्थान करेगा, जीते-जी पृथ्वी को भोगेगा। इसलिए युद्ध के लिए दृढ़ निश्चयवाला होकर खड़ा हो।’

संसार में ऐसे लोग बहुत कम होंगे जो भोजन के समय कलह करते हों ख़ासकर उससे जिसके कारण चूल्हा जलता है। पर लाला नत्थीमल को भोजन के समय भी चैन नहीं था। उनके परिवार का नियम था कि दुपहर में सब बारी-बारी से रसोई में पट्टे पर बैठकर खाना खाते। माँ चौके में चूल्हे की आग पर बड़ी-बड़ी करारी रोटी सेकती और थाली में डालती जाती। पहली-दूसरी रोटी तक तो भोजन का कार्यक्रम शान्तिपूर्वक चलता, तीसरी रोटी से पिता मीनमेख निकालनी शुरू कर देते। रोटी देखकर कहते, ‘‘जे ठंडी आँच की दिखै।’’ माँ चूल्हे में आग तेज़ कर देतीं। अगली रोटी बढिय़ा फूलती। वे उनकी थाली में रोटी रखतीं कि वे झल्ला पड़ते, ‘‘देखा, हाथ पे डारी है, मेरौ हाथ भुरस गयौ।’’

माँ कहती, ‘‘कहाँ भुरसौ है, छुऔ भर है।’’

बुरा-सा मुँह बनाकर वे रोटी का कौर मुँह में डालते, ‘‘तेज आँच की है।’’

किसी दिन यह सब न घटित होता फिर भी उनका भोजन बिगड़ जाता। रोटी का पहला कौर मुँह में डालते ही वे कहते, ‘‘ऐसौ लगे इस बार चून में मूसे की लेंड़ पिस गयी है।’’

माँ उत्तेजित हो जातीं, ‘‘कनक का एक-एक दाना मैंने, भग्गो ने मोती की तरह बीना था, लेंड़ कहाँ से आ गयी।’’

पिता कहते, ‘‘सैंकड़ों बोरे अनाज पड़ा है, मूस और लेंड़ की कौन कमी है।’’

माँ हाथ जोड़ देतीं, ’’अच्छा-अच्छा, औरन का खाना खराब मति करो। जे कहो तुम्हें भूख नायँ।’’

पिता मान जाते, ‘‘मार सुबह से खट्टी डकार आ रही हैं। ऐसौ कर, नीबू के ऊपर नून-काली मिर्च खदका के मोय दे दे।’’ रात की ब्यालू संझा को ही बनाकर चौके में रख दी जाती। दुकान बढ़ाने तक पिता इतने थक जाते कि सीधे खड़े भी न हो पाते। बैठे-बैठे घुटने अकड़ जाते।

बाज़ार में उनकी साख अच्छी थी, कड़वी जिह्व और कसैले स्वभाव के बावजूद। मंडी के आढ़तियों में उन्होंने ‘कैंड़े की बात’ कहने की ख्याति अर्जित की थी। उनके रुक्के पर विक्टोरिया के सिक्के जितना मंडी में ऐतबार था। दिये हुए कौल से वे कभी न हटते। इन्हीं वजहों से उन्हें गल्ला व्यापार समिति का सदस्य चुना गया था। अग्रवाल पाठशाला की प्रबन्ध-समिति में वे पाँच साल शामिल रहे। वे जानते थे कि परिवार के नेतृत्व में वे कुछ ज्याुदा कठोर हो जाते हैं पर उस दौर में सभी घरों के बच्चों के लिए ऐसा ही माहौल था। बच्चों को चूमना, पुचकारना, बेटा बेटा कहकर चिपटाना बेशर्मी समझा जाता। मान्यता यह थी कि लाड़-प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं। सभी अपने बच्चों से, विशेषकर लडक़ों से, सख्ती से पेश आते और कभी अनुशासन की वल्गा ढीली न होने देते।

इसी अनुशासन के तहत उन्होंने तब कार्रवाई की जब उनकी पत्नी ने उस दिन सगर्व घोषणा की, ‘‘अब तो मेरा भी कमाऊ पूत हो गया है। उसे एक नहीं दो-दो नौकरी मिल गयी हैं।’’

पिता ने कहा, ‘‘उसे का ठेठर में नौकरी मिल गयी है या सर्कस में। बड़ी आयी कमाऊ पूत की माँ।’’

कवि ने माँ को वहाँ से हटाने की कोशिश की, ‘‘माँ तुम क्यों उलझती हो इनसे।’’

बाद में पिता को पता चला कि स्कूल के टीचर आलोक निगम ने कवि को आश्वासन दिया है कि अपनी दो एक ट्यूशन उसे सौंप देंगे।

पिता को मन-ही-मन अच्छा लगा। उन्हें यह पसन्द नहीं था कि कवि दो घंटे कॉलेज जाकर बाकी बाईस घंटे घूमने-फिरने और कविताई में बिता दे।

अब वे असली बात पर आये, ‘‘दो ट्यूशनों से क्या मिलेगा?’’

मन-ही-मन फूलते हुए माँ बोली, ‘‘तीस-चालीस से कम का होंगे।’’

‘‘तेरी फीस जाएगी नौ रुपये, बाकी के इक्कीस का करेगौ। अपनी माँ को दे देना, तेरी खुराकी जमा कर लेगी।’’

कविमोहन का चेहरा अपमान से तमतमा गया, ‘‘अपने ही घर में मुझे खुराकी देनी होगी। आपने बच्चों से भी तिजारत शुरू कर दी।’’

पिता उसकी मन:स्थिति से बेख़बर, खाने की पूर्व तैयारी के अन्तर्गत शौच के लिए चल दिये।

माँ ने कहा, ‘‘चल कवि खाना खा ले।’’

कवि झुँझलाया, ‘‘मेरा मन तो ज़हर खाने का हो रहा है, तुम्हें खाने की पड़ी है जीजी।’’

माँ पास आकर उसे पुचकारने लगी, ‘‘तोय मेरी सौंह जो ऐसे बोल बोले। इनकी आदत तो शुरू की ऐसी है। जब तू छोटा था, तीन साल का, तब तुझे गर्दन तोड़ बुखार हुआ था। सारी-सारी रात तेरा हेंकरा चलता था और एक ये थे कि डागडर बुलाकर नहीं देते। ये कहते, मर्ज और कर्ज समय काटकर पूरे होवैं। तेरी बहनें बड़ी तड़पती थीं तुझे देख कै।’’

कवि को माँ पर भी क्रोध आया। यह उनका ख़ास अन्दाज़ था। दिलासा देने के साथ-साथ वे आग में पलीता भी लगाती जातीं। पिता की पीठ पीछे वे उनकी ज्यासदतियाँ बताती रहतीं, मुँह ही मुँह में बड़बड़ातीं लेकिन बच्चों के भडक़ाने पर भी कभी सामने टक्कर न लेतीं। शायद वे उनके क्रोधी स्वभाव को बेहतर जानती थीं। कवि जब उनमें ज्यानदा बगावत के बीज डालता वे कहतीं, ‘‘जाई गाँव में रहना, हाँजी हाँजी कहना।’’
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Post by Jemsbond »

8

बारह बजे तक घर में सोता पड़ गया। असन्तोष और आक्रोश से खलबलाते कविमोहन की आँखों से नींद कोसों दूर थी। इच्छा तो उसकी थी, पिता को रौंदता हुआ उनकी आँखों के सामने घर छोडक़र भाग जाए पर वह माँ को दुख नहीं देना चाहता था। उसके सामने यह भी स्पष्ट नहीं हो रहा था कि वह कुछ दिनों के लिए घर छोड़े या हमेशा के लिए। उसका एक मन हो रहा था कि वह घर त्याग दे पर माँ से किसी तरह मिलता रहे। उससे तीन साल छोटी भग्गो को भी सातवीं के बाद, फीस की किचकिच के कारण घर पर बैठना पड़ा था। कवि उसे अपनी पुरानी किताबों से अभ्यास कराता रहता पर उसका मन अब पढ़ाई से हट रहा था। पिता हर बच्चे की जिजीविषा ख़त्म कर उसका जड़ संस्करण तैयार कर रहे थे।

अपनी बची-खुची किताब-कॉपी और कविता के कागज़ बटोरकर कवि धीरे-से घर से निकल गया। बाहर की हवा का सिर-माथे पर स्पर्श भला लगा। होली दरवाज़े पर दो-एक पानवाले थके हाथों से दुकान बढ़ा रहे थे। दिन की चहल-पहल से महरूम बाज़ार बहुत चौड़ा और सुनसान लग रहा था जैसे क़र्फ्यू लगा हुआ हो। एक-दो रिक्शे आखिरी शो की सवारियाँ लिये हुए गुज़र गये।

गुस्से में कवि घर से तो निकल आया, सवाल यह था कि आधी रात को जाए कहाँ। यों तो उसके बहुत दोस्त थे पर इस समय किसी का दरवाज़ा खटखटाने का मतलब नहीं था। चलते-चलते वह स्टेशन पहुँच गया। यहाँ लोग अभी भी जगे हुए थे। लोग स्टेशन से आ भी रहे थे और जा भी रहे थे। कवि को बड़ी राहत महसूस हुई। प्लेटफॉर्म नम्बर एक की बेंच पर बैठ वहाँ की पीली रोशनी में उसने एक बार अपनी कॉपियाँ उलट-पुलटकर देखीं, फिर उन्हीं की टेक लगाकर लेट गया। उसे लगा घर उसके संघर्ष बढ़ा रहा है और उसकी रचनात्मक ऊर्जा ख़त्म कर रहा है। उसके दोस्त और परिचित उसकी अपेक्षा कम प्रतिभावान थे पर उससे ज्यानदा अच्छा जीवन जी रहे थे। मित्र-घरों में परिवार के लोग साथ बैठकर प्रेम से बातें करते, रेडियो सुनते, इकट्ठे भोजन करते और कभी-कभी घूमने जाते। उसके अपने घर में जैसे ही वे इकट्ठे बैठते किसी-न-किसी प्रसंग पर बहस छिड़ जाती और पिता के व्यक्तित्व का विस्फोटक तत्त्व बाहर निकलकर फट पड़ता। इसमें सन्देह नहीं कि वे अटक-लड़ाई में निष्णात थे। पत्नी और बच्चों की इच्छा का सम्मान करना वे एकदम ग़ैर-ज़रूरी समझते।

तभी तो उन्होंने कवि से बिना सलाह किये उसका रिश्ता आगरे के एक परिवार में कर डाला। इस कार्यवाही की ख़बर कवि को देने की उन्होंने कोई ज़रूरत नहीं समझी। यह बुज़ुर्गों का मामला था। सगुन में आगरेवालों ने ग्यारह सौ रुपये, ग्यारह सेर लड्डू, दो सेर बादाम, चार आने भर की अँगूठी, कपड़े और एक कनस्तर घी दिया। कवि के पिता इस श्रीगणेश से काफ़ी सन्तुष्ट हुए। उन्होंने सारी बात पहले ही साफ़ कर ली थी, ‘‘लडक़ा अभी पढ़ रहा है, पढ़ाई पूरी कर लेगा तभी ब्याह होगा। तब तक उसकी पढ़ाई का खर्च, गर्मी-सर्दी के कपड़े, बिस्तर सबका इन्तज़ाम लडक़ीवाले करेंगे।’’ आगरावालों को इस क़ीमत पर कोई एतराज़ न था।

जिस समय समधियों में शर्तों का आदान-प्रदान हो रहा था, सम्भावित दूल्हा शिवताल पर घूमता हुआ अपनी आगामी कविता की फडक़ती हुई पहली पंक्ति सोच रहा था और सम्भावित दुल्हन अपने छोटे भाई की फटी निकर में थिगली लगा रही थी। उसके लिए कवि की माँ ने मेंहदी, आलता, पायल, काजल, टिकुली, स्नो, पाउडर के अलावा एक साड़ी, जम्पर, सोने की ज़ंजीर और लड्डू भेजे थे। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि घर में बहू आकर कामकाज सँभाले। उनका शरीर दिन-ब-दिन थक रहा था और घर की जिम्मेदारियाँ निरन्तर ज़ालिम होती जा रही थीं। दोनों बेटियाँ मदद करतीं लेकिन उनके साथ सिर खपाई बहुत करनी पड़ती। बहू को लेकर उनके बहुत से अरमान थे, कि वह रोज़ उनके पैर दबाएगी, कंघी करेगी, चौका-चूल्हा सँभालेगी और उन्हें पूर्ण विश्राम देगी।

कवि को जब माँ से पता चला कि पिता उसका रिश्ता तय कर आये हैं वह एकदम बरस पड़ा, ‘‘दादाजी का दिमाग फिर गया लगता है। मैं अभी पढ़ रहा हूँ, मर तो नहीं रहा हूँ। इनकी गाड़ी छूटी जा रही है। मेरी शादी और मुझी से कोई सलाह-ख़बर नहीं की जा रही। मुझे नहीं करना ऐसा कोई सम्बन्ध।’’

उसके इस विद्रोह पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया तथा इसे लज्जा-जनित प्रतिक्रिया का ही हिस्सा मान लिया गया।

आवेश, आक्रोश और असन्तोष कवि के अन्दर प्रतिपल खलबलाने लगे। वह साहित्य का विद्यार्थी था। कॉलेज लायब्रेरी में घंटों बैठ उसने न सिर्फ प्रेमचन्द और निराला बल्कि गोर्की और तॉलस्तॉय भी पढ़ा था। साहित्य के प्रोफेसर उसे पसन्द करते थे व अक्सर अपने नाम से इशू करवाकर उसे पुस्तकें पढऩे को देते। अपने जीवन की जो तस्वीर उसने कल्पना में बना रखी थी उसमें न पिता के व्यापारी विचारों की गुंजाइश थी न माँ की भिनभिन निरीहता की। वह एक शिल्पी की तरह अपनी जिन्दगी स्वयं बनाना चाहता था। वह अपने प्रोफेसरों को सुबह दस बजे पुस्तकों व छात्रों से घिरे देखता और सोचता उसे यही बनना है, बस यही असल, सार्थक और सही रास्ता है बाकी सब भटकाव है। घर और कॉलेज के माहौल में कोई तालमेल न था। उसके पिता सुबह उठते ही बोरों से घिरी दुकान में जम जाते। उसकी माँ मुँहअँधेरे जागकर, कूलते- कराहते घर का चौका-बासन करती।

शुरू में उसके अँग्रेज़ी के अँग्रेज़ प्रोफेसर ई. एम. हार्ट उससे कटे-कटे रहते थे। इसकी वजह थी कि कविमोहन न तो रूप-रंग, न अपने कपड़ों से किसी को प्रभावित कर पाता था। अक्सर वह कुरता-पाजामा पहनकर कॉलेज जाता, कभी-कभी धोती-कुर्ता भी पहनता। जबकि अँग्रेज़ी पढऩेवाले अन्य शौक़ीन लडक़े बाक़ायदा पैंट-कमीज़ पहना करते। लेकिन जब प्रोफेसर हार्ट ने कवि का ट्यूटोरियल वर्क देखा वे उसकी समझ के क़ायल हो गये। उसका सोचने का ढंग नितान्त मौलिक था। किसी भी विषय पर वह इतना अधिक पढ़ डालता कि जब वह उस पर लिखने बैठता तो उसका लेख छात्र के नहीं शिक्षक के स्तर का होता। यही वजह थी कि वह बी.ए. में बड़ी आसानी से सर्वाधिक अंकों से उत्तीर्ण हुआ और वि.वि. की योग्यता सूची में द्वितीय स्थान पर रहा।

अब उसे आगे पढऩे की लगन थी। बस एक ही बाधा थी। पिता ने घर में फ़रमान जारी कर दिया था कि गर्मी में शादी होगी और ज़रूर होगी।

कवि ने कहा उसे आगरा जाकर एम.ए. करना है।

पिता ने डपटा, ‘‘मैंने कौल दे रखा है, उसका क्या होगा? पहले ब्याह कराओ उसके बाद चाहे जहन्नुम में जाओ।’’

कवि ने दलील दी, ‘‘जिस लडक़ी को मैंने न देखा न भाला, उससे मैं कैसे बँध सकता हूँ!’’

‘‘मैंने तो देखा है, तेरा देखना क्या चीज़ होती है! सुन लो अपने सपूत की बातें।’’

माँ फौरन सारंगी की तरह पिता की संगत करने लगीं, ‘‘अरे कबी, च्यों मट्टीपलीद करवा रहा है मेरी और अपनी। हामी भर दे। फिर जहाँ तेरी मर्जी चला जाइयो। लडक़ी का क्या है, दो रोटी खाय के मेरे पास पड़ी रहेगी।’’

कवि स्तम्भित रह गया। शादी को लेकर माता-पिता के विचार ऐसे भी हो सकते हैं, उसने कभी नहीं सोचा था। कहाँ वह सोच रहा था कि जीवन में क़दम-से-क़दम मिलाकर चलनेवाली कोई कॉमरेड ढूँढ़ेगा जो उसके सुख-दुख की बराबर की हिस्सेदार होगी, कहाँ उसका परिवार हाथ में मोटे रस्से का फन्दा लिये उसकी गर्दन के सामने खड़ा था।

उसे असहमत देख पिता का पारा लगातार चढ़ रहा था।

‘‘ससुरे, लडक़ीवाले अब तक तेरे नाम पर कितनी लागत लगा चुके हैं, पता भी है तुझे, बस मुँह उठाकर नाहीं कर दी।’’

‘‘मैं क्या जानूँ। मैंने तो एक पाई न माँगी न ली। आप मेरे नाम से उन्हें लूटते रहे हैं तो मैं क्या करूँ।’’

पिता तैश में उसे मारने लपके। माँ बीच में आ गयीं। उन्हीं को दो हाथ पड़ गये। कवि ने हिक़ारत से उनकी तरफ़ देखा और घर से बाहर चला गया।

उस दिन कविमोहन घंटों शिवताल पर भटकता रहा। उसका एक मन हो रहा था, हमेशा के लिए यह घर छोडक़र भाग जाए। उसकी पूरी चेतना ऐसे रिश्ते से विद्रोह कर रही थी जिसमें अब तक उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं थी। इस संकट के सामने आगे की पढ़ाई भी उसे निरर्थक लगने लगी। शिवताल पर, अँधेरा झुक आया था। चारों तरफ़ मेंढकों के टर्राने का शोर, पटवीजने और झींगुर की झिनझिन थी। ताल के आसपास बालू एकदम ठंडी और नम थी। कवि ने नम बालू में अपने पैर धँसाते हुए सोचा, इससे तो अच्छा है बाबाजी बन जाऊँ। बदन पर भभूत लपेट लूँ, हाथ में चिमटा ले लूँ, और पहुँच जाऊँ इन्हीं के दरवाज़े और बोलूँ, ‘अलख निरंजन’। फिर देखूँ किसकी शादी करते हैं और किसे दुकान पर बैठाते हैं। साधु-संन्यासी को गृहस्थी से क्या काम। बैरागी जीवन। न आज की चिन्ता न कल की आस। तीन ईंट जोड़ ली, चूल्हा जला। दाल-चावल, नमक हाँडी में छोड़ा, खाना तैयार। क्या रखा है दुनिया में।

ताल के किनारे पत्थर पर सिर रखकर कवि कब सो गया, उसे पता नहीं चला। सवेरे उसकी आँख खुली जब सिर के ऊपर गूलर के पेड़ पर चिडिय़ों के झुंड-के-झुंड चह-चहकर शोर मचाने लगे। पहली बार सही अर्थ में उसने पौ फटती देखी। यह भी देखा कि ताल का पानी कैसे रंग बदलता है। कुछ देर पहले का मटमैला जल सुबह होने पर नीला हो आया।

सबसे पहले माँ का ख़याल आया। जीजी-माँ की असहायता और अनभिज्ञता दोनों उसे तकलीफ़ देती थी पर उसे हर वक्त यह ख़याल भी रहता कि वह अपने किसी कृत्य से उनके दुखों में वृद्धि न करे। लडक़पन में उसने बरसों माँ को चक्की चलाते, चरखा चलाते देखा था। बल्कि सवेरे उसकी आँख चक्की की घूँ-घूँ से ही उचटती। कवि को लगता यह घर एक बहुत भारी पत्थर का पाट है जिसे माँ युगों-युगों से इसी तरह घुमा रही है। कवि को लगता माँ चक्की नहीं पीस रही उलटे चक्की माँ को पीस रही है, माँ पिस रही है। कभी-कभी वह साथ लगकर दो-चार हाथ चला देता तो माँ की आँखें चमक उठतीं, ‘‘अरे कैसी हल्की हो गयी ये, अब मैं चला लूँगी, तू छोड़ दे, पढऩेवाले हाथ हैं तेरे, दुख जाएँगे।’’

जब तक बेटों के ब्याह नहीं होते वे माँ को संसार की सबसे आदर्श स्त्री मानते हैं। कवि की भी मानसिकता यही थी। उसे लगता पिता अत्याचारी हैं, माँ निरीह। पिता ज़ुल्म करते हैं माँ सहती है। माँ का पक्ष लेने पर वह कितनी ही बार पिता से पिटा। इसलिए जब माँ ने उससे गिड़गिड़ाकर कहा, ‘‘रे कबी, तू ब्याह को हाम्मी भर दे रे नई यह जुल्मी मुझे खोद के गाड़ देगा।’’ कविमोहन के सामने हाँ करने के सिवा कोई चारा नहीं बचा।

वह समय गाँधीजी के आदर्शों का भी समय था। मथुरा के नौजवानों में गाँधीवादी विचारों का गहरा आदर था। देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने का एक सीधा-सादा नक्शा था जो हरेक की समझ में आता—खादी पहनो, ब्रह्मचर्य से रहो, नमक बनाओ, सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करो। कवि के अन्दर ये सभी आदर्श हिलारें लेते। उसने एम.ए. अँग्रेज़ी में प्रवेश ले रखा था, यह बात उसके अन्दर एक अपराध-बोध पैदा करती। जिनसे लडऩा है उन्हीं की भाषा और साहित्य पढऩा गद्दारी थी पर उसे इसका भी एहसास था कि अँग्रेज़ी के रास्ते नौकरी ढूँढऩा आसान होता है। हिन्दीवालों को उसने अपने क़स्बे में चप्पल चटकाते, नाकाम घूमते, वर्षों देखा था। उसे लगता पुश्तैनी व्यापार के नरक से बचने के लिए अँग्रेज़ी की वैतरणी पार करना ज़रूरी है। फिर अँग्रेज़ी साहित्य का विशाल फलक उसे दृष्टि का विस्तार प्रदान कर रहा था। कभी वह इरादा करता कि शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ़ वेनिस’ की तर्ज पर वह एक रचना लिखे जिसमें शॉयलॉक की तरह पिता खलनायक हों। उसे लगता उसके पिता मुद्रा-प्रेम में शॉयलॉक को पछाड़ देंगे। कभी वह मन-ही-मन रोमियो और जूलियट जैसी प्रेम-कहानी रचता पर आश्चर्य यह कि जूलियट की जगह उसके ख़यालों में वह अनजानी अनदेखी लडक़ी ले लेती जिसके साथ उसका रिश्ता तय हो चुका था पर जिसे उसने देखा तक नहीं था।

अब तक माँ से आगरेवालों का पता उसे चल चुका था। एक दिन वह गॉल्सवर्दी की ‘जस्टिस’ खरीदने के बहाने बाज़ार से गुज़रा तो उस गली में मुड़ गया। गली वैसी ही गन्दी, सँकरी और घिचपिच थी जैसी आगरे की कोई भी गली। पर धर्मशाला तक पहुँचते-पहुँचते गन्दगी के एहसास की जगह आवेग और आकुलता उसके मनप्राण पर छा गयी। मन में बहुत पहले पढ़ी कुछ पंक्तियाँ गूँज उठीं—

‘‘अब तक क्यों न समझ पाया था

थी जिसकी जग में छवि छाया

मुझे आज भावी पत्नी का मधुर ध्यान क्षण भर को आया।’’

धर्मशाला से सटे पीले रंग के मकान की छत पर उस वक्त कई पतंगें उड़ रही थीं। कवि कल्पना करता रहा इन लाल-पीली-हरी पतंगों में कौन-सा रंग उसे प्रिय होगा। तभी उसे छत की मुँडेर से लगा निहायत सुन्दर एक स्त्री-मुख दिखा और वह जड़वत् उस दिशा में टकटकी लगाकर खड़ा रहा। उस मुख की सुन्दरता, सलज्जता और सौम्यता अप्रतिम थी। बड़ी-बड़ी आँखें उसकी तरफ़ निहार रही थीं। यकायक कवि को ध्यान आया कि उसके कुरते पर स्याही गिरी हुई है। पुस्तक ख़रीदने के लिए उसे कुरता बदलना ज़रूरी नहीं लगा था। प्रिया-वीथी में आने का तब कोई इरादा भी नहीं था। वह वहाँ से मुड़ लिया।

वापस हॉस्टल में आकर उसे शंकाओं ने आ घेरा। पता नहीं वह लडक़ी उसकी भावी पत्नी थी या उसकी छोटी बहन? कहीं वह घर पहचानने में भूल तो नहीं कर गया। कवि को लगा इतना सुन्दर मुख देखकर उसने अच्छा नहीं किया, अगर यह उसकी प्रिया नहीं तो भी यह मुख उसे शेष जीवन तड़पाएगा। उसके मन में सिनेमा की तरह यह दृश्य बार-बार दोहराया जाता और वह अपनी उत्तेजना से लड़ता। कहाँ तो उसने सोचा था कि विवाह की रात वह अपनी पत्नी को गाँधीजी की आत्मकथा भेंट में देगा और कहेगा, ‘देखो जब तक अपना देश स्वाधीन नहीं होता, हम दोनों भाई-बहन की तरह रहेंगे।’ कहाँ कल्पना और कामना की काँपती उँगलियों से वह बार-बार उस मुख का स्पर्श कर रहा था।

स्मृति के चलचित्र कवि की आँखों में रात भर चलते रहे। शादी के बाद उसे इन्दु को अपने जीवन का चन्द्रबिन्दु बना लेना बहुत कठिन नहीं लगा क्योंकि घर की रणभूमि में अगर कहीं युद्धविराम और प्रेम था तो बस पत्नी के पास। यह वही लडक़ी थी जिसका चेहरा उसने उस दिन अकस्मात् देख लिया था। ताज्जुब यह कि घर की समस्त सामान्यता के बीच इन्दु का सौन्दर्य दिन-ब-दिन निखर रहा था।

विवाह के इन पाँच सालों में जीवन में न जाने कितना कुछ घटित हो गया। सन्तोष था तो सिर्फ दो बातों का। कविमोहन ने पढ़ाई पर अपना पूरा क़ाबू रखा। हमेशा प्रथम श्रेणी और विशेष योग्यता सूची में स्थान पाया। इसका महत्त्व इसलिए और भी अधिक था क्योंकि उसके पास कभी पर्याप्त पुस्तकें खरीदने लायक़ साधन भी नहीं होते थे। कई बार वह अपने गुरुओं से पुस्तकें लेकर, अध्याय के अध्याय अपने सुलेख में उतार डालता। इससे उसका सुलेख बेहद सधा हुआ हो गया और स्मरण-शक्ति बढ़ती गयी। एक बार पढ़ी सामग्री उसे कंठस्थ हो जाती। यही हाल कविताओं और कहानियों का था। इसलिए जब वह अपनी रचना लिखता था उसे विश्वास नहीं होता था कि वह उसकी मौलिक, अछूती रचना है अथवा स्मृति और प्रभाव के मेल से बनी परछाईं। यही वजह थी कि लिखने से ज्यासदा उसका मन पढऩे में रम जाता। पढ़ते समय उसे देश, काल, समय, समस्या सब भूल जातीं। इसीलिए किताबों को वह अपना शरणस्थल मानता। हर किताब की अपनी अद्भुत छटा और सुरभि थी जिसका नशा बढ़ता ही जाता।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Post by Jemsbond »

9

पीछे मुडक़र देखने पर कविमोहन को ग्लानि होती कि शादी के बाद इन्दु को कैसे हालात में अपना वक्त काटना पड़ा। इन्दु का बचपन एबटाबाद में बीता था जहाँ उसने सीधे पेड़ से तोडक़र सेब, बादाम और आड़ू खाये थे। उन्हीं सेब-आड़ू की रंगत उसके गालों पर थी। वह तो एबटाबाद में बनिया परिवार का वर मिलना दुर्लभ था इसलिए उसके माता-पिता सपरिवार आगरा आकर बस गये। उसके पिता मिलिटरी में ठेके पर किराने का सामान सप्लाई करते थे। मिलिटरीवालों की थोड़ी अकड़ उनके स्वभाव में भी आ गयी थी। जब कवि के पिता ने शादी की बात पक्की करते हुए उनसे पूछा, ‘‘कितनी बारात ले आयें हम?’’ उन्होंने ऐंठकर जवाब दिया, ‘‘आप हज़ार ले आओ हमें भारी नायँ पड़ेगी।’’ लाला नत्थीमल इस बात से कुछ चिढ़ गये। उन्होंने शहर से अपने रिश्तेदार, मित्र और परिचित तो समेटे ही, साथ ही हर जाननेवाले को न्योता दिया। लिहाजा उस दिन बारात में प्रतिष्ठित लोगों के साथ-साथ तमोली, ताँगेवाले और मिस्त्री भी शामिल हुए। इतनी विशाल बारात देखकर समधी रामचन्द्र अग्रवाल के हाथ-पैर फूल गये लेकिन उन्होंने अपनी पत बचा ली। बारातियों के लिए बनाया गया मेवे-मलाई का दूध कम पडऩे लगा तो वे हलवाई के यहाँ से उतरवाकर खौलता कढ़ाह घर ले आये। उन्होंने कविमोहन को इक्कीस जोड़ी कपड़े दिये। इन्दु को इतनी साडिय़ाँ मिलीं कि वह गिनती भी नहीं कर पायी। सभी रिश्तेदारों के लिए यथायोग्य उपहार दिये गये। अगले दिन जब लॉरी और जीप पर विदा के वक्त शादी का सामान साथ चला तो मथुरावालों ने यही कहा, ‘‘लाला नत्थीमल यहाँ भी तगड़ा व्यापार कर चले।’’

परिवार की स्त्रियों की तबियत तिनतिनायी हुई थी। उनके लिए एक-एक साड़ी जम्पर के अलावा कोई उपहार नहीं था। रिश्ते की चाची शरबती ने बहू के पाँव पखारे। इन्दु को रस्म-रिवाज़ और रिश्ते की जानकारी नहीं थी। पूछती भी किससे। उसने सोचा परिवार की कोई पुरानी सेविका है। उसने पर्स से निकालकर दो रुपये का नोट परात में डाल दिया। शरबती चाची का मुँह गुस्से से कुप्पा फूल गया।

अन्दर के कमरे में दरी पर साफ़ चादर बिछी हुई थी। वहीं इन्दु को बैठाया गया। आस-पड़ोस की स्त्रियाँ आतीं, बहू का मुँह देखकर आशीष देतीं और सगुन देकर, मुँह मीठा कर चली जातीं। तीनों ननदें चाव से कभी भाभी की सोने की चूडिय़ाँ छनकातीं, कभी गले की माला परखतीं। उन्हीं से इन्दु को पता चला कि गृह-प्रवेश के समय उससे क्या भूल हुई। उसने लीला के हाथ सौ रुपये का नोट शरबती चाची के पास भिजवाया लेकिन चाची ने उसमें एक रुपया जोडक़र रकम वापस इन्दु को भिजवा दी।

काफ़ी देर बैठने के बाद इन्दु ने कुन्ती के कान में फुसफुसाकर पूछा, ‘‘बाथरूम जाना है, हमें रास्ता बता दो।’’ कुन्ती असमंजस में पड़ गयी। भाभी को कौन जगह बताये। तीनों मंजिलों पर निवृत्त होने के लिए कोई जगह नहीं थी। सीढिय़ों के बीच में छोटी-सी जाजरू थी जहाँ रोशनी का कोई इन्तज़ाम नहीं था। हर कमरे में कोई-न-कोई रिश्तेदार टिका हुआ था इसलिए कमरे की मोरी का इस्तेमाल नहीं हो सकता था।

कुन्ती ने जाकर माँ से कहा, ‘‘माँ भाभी बाथरूम जाएँगी, कहाँ ले जाएँ।’’

जीजी काम के बोझ से पहले ही भन्नायी हुई थी। नये मेहमान की मौलिक फ़रमाइश से वह एकदम भडक़ गयी, ‘‘उसको कहो हमारे सिर पर मूत ले। हम कहा बताएँ कहाँ जाए।’’

कुन्ती ने कहा, ‘‘जीजी यह कोई रोकनेवाली चीज तो है नायँ। कहाँ फरागत कराएँ?’’

‘चटाक’ जीजी ने कुन्ती के गाल पर चाँटा मारा। आसपास खड़ी औरतें और लड़कियाँ सन्न रह गयीं।

विद्यावती ने आवाज़ चढ़ाते हुए कहा, ‘‘कह दो उस मेमसाब से यहाँ कोई बाथरूम-फाथरूम नायँ। इतना ही चाव है बाथरूम का तो अपने बाप से कहो आकर बनवा दे। इत्ते बरस हमें इस घर में आये भये, हमने तो कभी देखा नायँ बाथरूम क्या होवे है।’’

उस रोज़ इन्दु की प्राकृतिक ज़रूरत कैसे पूरी की गयी इसका पता कवि को नहीं चल सका। लेकिन अगली सुबह घर का आलम और भी तनावपूर्ण था। पहली रात इन्दु को देवी-देवताओं के बीच सुलाया गया था। वह सुबह उठकर नहाना चाहती थी। लीला ने उसे बताया कैसे वे सब समूची धोती बदन पर लपेटे-लपेटे आँगन के नल पर नहा लेती हैं और फिर झुके-झुके जल्दी से कमरे में आकर कपड़े बदल लेती हैं। या जमनाजी चली जाती हैं।

इन्दु ने कहा, ‘‘मैं तो ऐसे नहाऊँगी नहीं।’’

कुन्ती बोली, ‘‘भाभी आप कमरे की मोरी पर नहा लो, मैं दरवाज़े पर पहरा दूँगी।’’

इन्दु ने मना कर दिया। खुले में बैठकर नहाना उसके बस की बात नहीं थी। फिर उसे अपने कपड़े भी धोने थे।

आखिरकार दो खाटों के बिस्तर हटाकर उन्हें सीधी खड़ा किया गया। उन पर पुरानी चादरें डालीं। इस तरह कमरे की मोरी पर अस्थायी बाथरूम की संरचना हुई और दो बाल्टी पानी रखकर नयी बहू नहायी।

जीजी बुड़बुड़ाई, ‘‘अच्छी नौटंकी है यह। अब रोज-रोज इत्ता सरंजाम हो तो यह महारानी नहायँ।’’

गली-मुहल्ले में ख़बर फैल गयी लाला नत्थीमल की बहू तो बड़ी तेज़ है। आगरे के अग्गरवाल ऐसे ही नकचढ़े होयँ। नाक पर मक्खी नहीं बैठने देवैं।

कवि मुँह छुपाता अख़बार पढ़ता रहा। उसे लग रहा था उसकी पत्नी ने घर के शान्त वातावरण में अपनी चोचलेबाज़ी से खलबली मचा दी है। उसने सोचा कि उससे मिलने पर वह उसे घर की परिपाटी समझा देगा। पर घर में बहनों समेत इतने सगे-सम्बन्धी टिके हुए थे कि उनकी सुहागरात आयी ही नहीं, अलबत्ता कविमोहन की छुट्टियाँ ख़त्म हो गयीं। शादी से लौटे हुए बाराती की तरह कोई आगरे में परोसे गये व्यंजनों की आलोचना करता तो कोई वहाँ से मिले कपड़ों के नुक्स गिनाता। तीनों बहनों ने भी अपनी धोतियाँ इन्दु के आगे पटक दीं कि ये अच्छी नहीं हैं, अपने ट्रंक से दूसरी दो। इन्दु ने वैसा ही किया। जीजी ने अपनी साड़ी भी बदलवायी। इन्दु आधे दिन जीजी के साथ घर के कामों में लगी रहती। बस एक बात पर उसने जिद पकड़ ली कि वह खुले में नहीं नहाएगी।

अगली बार जब कवि आगरे से घर आया तो इन्दु ने कहा, ‘‘या तो मेरा नहाने का इन्तज़ाम करके जाओ नहीं तो मैं यहाँ नहीं रहूँगी।’’

पहली बार लाला नत्थीमल ने हाँ में हाँ मिलाई, ‘‘ठीक ही तो कह रही है बहू, खुले में कैसे नहा ले।’’

अन्दर के कमरे के कोने में टीन का टपरा लगवाकर नहाने लायक छोटी-सी जगह बनायी गयी। उसमें अलग से बिजली का इन्तज़ाम तो नहीं हो सका पर इन्दु सन्तुष्ट हो गयी।

शुरू में जीजी उसी अनुपात में नाराज़ रहीं। सबसे ज्याीदा उसे अपने पति पर क्रोध आया। उनकी आधी उमर इस घर में बीत गयी। सरदी, गरमी, चौमासा, वे जमनाजी में या आँगन में नहाती, कपड़े धोती रहीं, लाला नत्थीमल ने एक बार भी गुसलखाना बनवाने की नहीं सोचा। बहू के चाव करने चले हैं ये, विद्यावती ने सोचा और उसके मन में इन्दु के लिए पानीपत का युद्ध छिड़ गया। उसे लगा बहू ने पति और पुत्र पर एक साथ जादू कर दिया है।

घर में भग्गो या बिल्लू गिल्लू कभी शरारत करते तो जीजी उनका कान उमेठकर धमकाती, ‘‘चल तुझे बाथरूम में बन्द करूँ। पड़े रहना वहाँ रात भर।’’

आस-पड़ोस की स्त्रियाँ कई दिनों तक बाथरूम के दर्शन करने आती रहीं। वे इन्दु को दो बाल्टी पानी वहाँ रखते देख कहतीं, ‘‘बहू क्या फ़ायदा इस उठा-पटक का। सुबह चार बजे उठकर नल के नीचे नहा लिया करो। कौन देखता है भोर में।’’

जीजी हाथ नचातीं, ‘‘नहीं इसे तो दिन चढ़े नहाना है, वह भी बाथरूम में नंगी बैठकर।’’

दादाजी दुकान से देर में आते। उनकी ब्यालू लेकर जीजी इन्तज़ार में बैठी रहती। नींद आती तो पट्टे पर बैठी-बैठी चौके की दीवार से सिर टिकाकर ऊँघ जाती। इन्दु भी जागती रहती। एक दिन इन्दु ने आँचल की ओट से ससुर से कह दिया, ‘‘दादाजी जीजी बहुत थक जाती हैं। आपकी ब्यालू हम चौके में अँगीठी के ऊपर रख दिया करेंगे।’’

वह लाला नत्थीमल जो किसी का कहा नहीं मानते थे, बहू के आगे मेमना बन जाते। उन्होंने कहा, ‘‘ठीक है बहू, मैं सिदौसी आ जाया करूँगौ।’’

एक दिन जीजी जमनाजी नहाकर आयीं तो उन्हें तेज़ जुकाम हो गया। शाम तक बुख़ार चढ़ गया। इन्दु उन्हें लेकर बैठी रही। कवि आगरे में था। इन्दु ने ससुरजी से कहा, ‘‘जीजी तप रही हैं, डॉक्टर बुला दें।’’

लाला नत्थीमल ने बंडी पहनते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं ठंड लग गयी है। इसे काढ़ा पिला तो चंगी हो जाएगी।’’

इन्दु अड़ गयी, ‘‘नहीं दादाजी, बुख़ार तेज़ है, काढ़े से नायँ उतरे। आप गली से वैद्यजी को बुला दो।’’

वैद्यजी ने आकर नब्ज़ देखी, बुख़ार नापा और दवा देते हुए हिदायत दी कि ठंड से बचकर रहें।

विद्यावती नेमधरम से रोज़ सवेरे मुँहअँधेरे स्नान के बाद ठाकुरजी की पूजा कर अन्न-जल छूतीं। सुबह होते ही उन्होंने जिद पकड़ ली, ‘‘मेरी खटिया नल के पास ले चलो, मैं वहीं नहाऊँगी।’’

बच्चे, बड़े, सब बोले, ‘‘इत्ता बुख़ार चढ़ा है, एक दिन नहीं नहाओगी तो कौन-सा अनर्थ हो जाएगा।’’

विद्यावती अड़ गयी, ‘‘ठीक है, फिर मेरे मुँह में कोई न दवा डाले, न दाना। मेरा नेम ना बिगाडऩा, हाँ नहीं तो।’’

सब परेशान हो गये। जीजी को दवा दें तो कैसे दें।

इन्दु को तरकीब सूझी। उसने जीजी का माथा छुआ और कहा, ‘‘जीजी आप नहा भी लें और बिस्तर गीला न होय, तब तो दवा लेंगी न।’’

‘‘ऐसा ही हो नहीं सकतौ।’’ जीजी ने कहा।

‘‘बिल्कुल हो सकता है।’’ इन्दु बोली। वह एक बड़ी पतीली में गरम पानी ले आयी। उसने अपने ट्रंक से दो छोटे तौलिये निकाले। एक को गीला कर वह जीजी का बदन पोंछती, दूसरे से सुखा देती। इस तरह उसने जीजी की समूची देह स्वच्छ कर दी। जीजी के बाल भी सँवार दिये।

विद्यावती को बड़ा चैन पड़ा। आज तक कभी किसी ने उसकी सेवा नहीं की थी। टाँग से असमर्थ होकर भी वही सबकी खिदमत में दौड़ती रही। आज उसे इन्दु का अभियान सुख-स्नान प्रतीत हुआ।

ठाकुरजी की डोलची उनके बिस्तर पर रख बहू ने कहा, ‘‘जीजी आप पूजा कर लीजिए।’’

विद्यावती ने हल्के हृदय से पूजा की और पथ्य लिया, फिर दवा।

बेटियों की जान में जान आयी। उन्हें लग रहा था उनकी जिद्दिदन माँ प्राण त्याग देगी पर नेम नहीं त्यागेगी। चार दिन बिस्तर से लगी रहकर विद्यावती स्वस्थ हो गयी। जिस दिन बुख़ार टूटा वह बोली, ‘‘आज तो मैं नल के नीचे नहाऊँगी।’’

इन्दु ने कहा, ‘‘मैंने पानी गरम कर दिया है। अभी आप कमज़ोर हैं। मेरी बात मानिए। आप मेरे कमरे के बाथरूम में नहा लें।’’

‘‘ना बाबा मेरा दम घुट जाएगा। मैं बाथरूम नहीं जाऊँगी।’’ जीजी अड़ गयी।

भग्गो ने कहा, ‘‘जीजी एक दिना की बात है कर लो जैसे भाभी कहे। फिर तो मेरे साथ जमनाजी चलना।’’

काफी मान-मनौव्वल के बाद जीजी मानी।

इन्दु ने बाथरूम में दो बाल्टी पानी और तौलिया रखा।

जीजी को बाथरूम में बिठाया गया।

बन्द बाथरूम में एक-एक कपड़ा उतारना, पट्टे पर निर्वस्त्र बैठना, मंजन साबुन झाँवा यथास्थान पाना और बिना अगलबगल नज़र गड़ाये, सारा ध्यान अपनी स्वच्छता पर केन्द्रित करना रोमांचकारी था। एक बार जीजी झुककर बदन पर पानी उँडेलती, दूसरी बार उन्हें ध्यान आता वे बाहर खुले में नहीं, बन्द कमरे में नहा रही हैं। जीजी ने झिझकते हुए अपनी निर्वस्त्र देह देखी तो उन्हें लगा वे किसी और को देख रही हैं।

भग्गो ने बाहर से आवाज़ लगायी, ‘‘क्यों जीजी अन्दर सो गयीं क्या?’’

‘‘अभी आयी,’’ जीजी ने कहा और जल्दी से धोती लपेट बाहर आ गयीं।

जब इन्दु उनकी कंघी चोटी करने लगी उन्होंने सबको सुनाते हुए कहा, ‘‘जब से मैं पैदा भई, बस आज कायदे से नहाई हूँ। अरे कपड़े पहने-पहने नहाने का क्या मतलब है। कुछ नहीं। मैं कहूँ पूजाघर और चौके से भी जरूरी चीज है नहानघर। कम-से-कम आदमी एड़ी से चोटी तक सुच्च तो हो जाए।’’

तीन महीने बाद जब कविमोहन घर आया उसने आँगन में ईंटों का ढेर देखकर पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

भग्गो ने ताली बजाते हुए कहा, ‘‘भैयाजी को पता ही नहीं, क्या कहवें उसे बाथरूम बनने जा रहा है। अब सब घुस-घुसकर नहाएँगे, समझे।’’

कवि ने इन्दु की तरफ़ देखकर कहा, ‘‘कर दिया न तुमने बखेड़ा खड़ा।’’

भग्गो बोली, ‘‘अरे भैयाजी इन्होंने कुछ नहीं किया। इसमें सबकी सतामता है।’’

इन्दु के आने से घर में हो रहे छोटे-छोटे बदलाव कविमोहन को चकित भी करते और आह्लालादित भी। ऐसा लगता जैसे बँधी घुटी हवा में अचानक ताज़ी हवा का संचार हो जाय। लेकिन जल्द ही इन्दु की तबियत ख़राब हो गयी। खाया-पिया सब मुँह के रास्ते निकल जाता। उसकी गुलाबी रंगत पीली पडऩे लगी और गर्भावस्था के लक्षण प्रकट होने लगे। कविमोहन चिन्ताग्रस्त हो गया लेकिन वह मुँह खोलकर माँ से नहीं कह सकता था, ‘‘जीजी इन्दु का ध्यान रखो।’’

मथुरा के परिवारों में इस प्रकार की चिन्ताएँ बीवी की चाटुकारी समझी जाती थीं। कवि अब तक कभी इन्दु से नहीं कह पाया, ‘‘सुनो इन्दु, मेरे घर में तुम्हें बहुत-सी तकलीफ़ें होंगी पर मेरी जान फ़क़त चन्द ही रोज़, हमारे दिन भी बदलेंगे।’’
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Post by Jemsbond »

10

मुन्नी भूख से रोने लगी। कविमोहन झटके से वर्तमान में लौटा। इन्दु ने दूध की खाली बोतल उठाकर थोड़े-से पानी से खँगाली और ग्लास में रखा दूध भरने लगी।

‘‘ठंडा ही पिला दोगी?’’ कवि ने पूछा।

‘‘तुम सोये नहीं अभी तक,’’ इन्दु बोली, ‘‘गरमी के दिन हैं, नुकसान नहीं करेगा। और फिर दो ज़ीने उतरने की मेरी तो हिम्मत नहीं है।’’

सवेरे कवि के चिल्लाने से उसका कमरा तो नीचे कर दिया गया पर माँ ने इन्दु से बातचीत बन्द कर दी। वे घंटों मुँह फुलाये रहीं। कनक और उड़द की बोरियाँ आधी उनके कमरे में और आधी परचून की दुकान में चिनी गयीं। बाबा ने भडक़कर कहा, ‘‘पल्लेदारों की मजूरी हम नहीं देबेंगे। तुमने उठवाई, तुम्हीं दो।’’

कवि के पास वजीफे और ट्यूशनों के रुपये थे। उसने भुगतान कर दिया।

शाम तक माँ ने परिवर्तन से समझौता कर लिया। उन्हें भी आराम था कि वे कभी भी इन्दु को काम में लगा सकती थीं।

भग्गो ने भइया के बटुए में करारे नोट देखे तो बोली, ‘‘भइयाजी, हमें हरे रंग की धोती दिला दो।’’

‘‘क्यों तेरे पास क्या धोती नहीं है?’’

‘‘है पर हरे रंग की कहाँ है। हरियाली तीज पर सब हरा रंग पहनती हैं।’’

कवि को जिज्ञासा हुई क्या इन्दु के पास हरे रंग की धोती है। पर संकोच में वह माँ से मुख़ातिब हुआ, ‘‘जीजी तुम्हें भी धोती लेनी है?’’

माँ बेटे की बात से निहाल हो गयीं। बोली, ‘‘कबी, मोय ले जाके असकुंडा घाट पे द्वारकाधीशजी के दरशन कराय दे और चाट खवाय दे।’’

दोपहर में एकान्त पाकर कवि ने पत्नी से कहा, ‘‘शाम को तुम भी चलना घूमने।’’

‘‘बेबी की टाँग टूटी है, मुन्नी को दस्त आ रहे हैं, मुझे नहीं जाना।’’

‘‘फिर मत कहना कि पूछा नहीं। हमारा प्रोग्राम तो तय है।’’

‘‘मेरे लिए एक दोना मटर बनवा लाना, मिर्च-मसाला चटक।’’

जाना पाँच बजे था पर भग्गो ने साढ़े तीन बजे से सजना शुरू कर दिया। उसने अपना ट्रंक खखोर डाला। उसे कोई धोती पसन्द नहीं आयी। बगल के कमरे में आकर उसने होठ बिसूरे, ‘‘भैयाजी दरशनों पर जाने के लिए एक भी नई धोती नायँ। भाभी से कहो न अपनी रेशमी साड़ी दे दें।’’

‘‘तू खुद च्यौं नहीं कहती,’’ कवि बीच से हट गया।

इन्दु को ननद पर लाड़ आ गया। भगवती की दिनचर्या तो उसकी अपनी प्रतिदिनता से भी ज्या दा नीरस थी। ऊपर से बात-बात में पिता की झिडक़ी।

इन्दु ने कहा, ‘‘वही नीले बक्से में से ले-ले जो तुझे भाये।’’

भग्गो ऐसी खुश हो गयी जैसे उसे ख़ज़ाना मिल गया हो। उसने बक्से का पल्ला खोलकर, चमकती आँखों से उसमें रखे नीले, पीले, गुलाबी और लाल कपड़े देखे। फिर उसने कहा, ‘‘भाभी गुलाबीवाली ले लूँ!’’

इन्दु ने अपने हाथ से उसे साड़ी के साथ गुलाबी जम्पर भी दे दिया, ‘‘भग्गो बीबी, मेरे लिए एक पत्ता मटर लेती आना। मसाला चटक हो।’’

‘‘ज़रूर भाभी यह भी कोई कहने की बात है।’’

बाबा का भी मूड अच्छा था। उन्होंने दादी को चवन्नी दी, ‘‘मेरे लिए चवन्नी का दही ले आना। छप्परवाले हलवाई से ही लेना। ऊपर से नेक मलाई डलवा लेना।’’

कवि ने कहा, ‘‘दादाजी दही मैं ले लूँगा। चवन्नी तुम रखो।’’

बाबा ने तर्जनी दिखाई, ‘‘हिसाब तो हिसाब है, फिर अभी मेरे हाथ-पैर चलते हैं।’’

उस दिन घर पर किसी के भी भाग्य में न चाट लिखी थी न दही। घटिया पर ताँगे के घोड़े की टाँग फिसल गयी। ताँगा डगमग होकर गड़बड़ाया। पीछे की तरफ़ भग्गो और दादी गिरीं सडक़ पर। भग्गो जल्दी से सँभलकर उठी पर उसके दोनों हाथों का सामान ज़मीन पर गिर गया। उसने एक हाथ में मटर का दोना और दूसरे में दही का कुल्हड़ पकड़ रखा था। दादी अपने आप नहीं उठ पायीं। कविमोहन और भग्गो ने तुरन्त उन्हें घपची में ले लिया, ‘‘रोओ मत जीजी, कुछ नहीं हुआ। समझो बड़ी खैर हुई।’’

दादी अपना दुखता पैर उघाडक़र उसकी ख़ैरियत देख रही थीं। उन्होंने सडक़ पर दही बिछा देखकर कातर स्वर में कहा, ‘‘कबी तेरे दादाजी किल्लावेंगे। दही तो गया फैल।’’

कवि ने कहा, ‘‘दूसरा ताँगा कर पहले तुम्हें घर छोड़ आऊँ। फिर मैं दही ला दूँगा।’’

भग्गो के चोट नहीं लगी थी पर ताँगे की चिमटी में फँसकर साड़ी में खोंप लग गयी। वह डर रही थी कि भाभी क्या कहेंगी। उसने कहा, ‘‘भैया, भाभी के लिए मटर भी बनवा लेना।’’

‘‘चुप कम्बखत,’’ दादी ने झिडक़ा, ‘‘तुझे मटर की पड़ी है, यहाँ टाँग का भुरकस निकल गया।’’

घर पहुँचकर दादी तख्त‘ पर बैठकर हाय-हाय करने लगीं। इन्दु अपने कमरे में पति के कुरते की उधड़ी जेब सिल रही थी।

‘‘आ गयीं जीजी।’’ उसने चाव से कहा।

दादी ने कहा, ‘‘हाय मैं मर गयी री। इन्दु मेरा छुनछुना तो गरम करके लगा।’’

इन्दु तुरन्त रसोई में गयी। चूल्हे के पीछे से सिलवर का वह बड़ा कटोरा उठाया जो हल्दी के कारण हमेशा पीला रहता था। उसमें एक कलछी घी डालकर चढ़ाया। फिर उसने गरम घी में पिसी हुई हल्दी और सोंठ डाली। जब सब मिलकर छुनछुनाने लगा और हल्दी नारंगी रंग की हो गयी, सँड़सी से कटोरा पकड़ उसने सास के आगे रखा।

दादी ने इशारे से रुई माँगी।

रजाई-गद्दों का पुराना रुअड़ उनके कमरे में ही एक किनारे रखा रहता था।

दादी ने अपनी सूखी, पतली, लौकी जैसी टाँग के पंजे में बँधे रुअड़ के पुलिन्दे पर से पट्टी उतारी और रुअड़ हटाकर देखा। इस पैर का पंजा छोटा-सा था और उसकी छोटी-छोटी जुड़ी उँगलियों के नाखून नहीं थे। दादी ने दोनों हाथ से पैर थामकर कहा, ‘‘अरे राम रे, बड़ी टीस हो रही है।’’

इन्दु ने ताज़ी गर्म हल्दी सोंठ का छुनछुना लगाकर पट्टी बाँध दी।

तभी कविमोहन दही का कुल्हड़ लिये बाज़ार से लौटा। उसे देखते ही इन्दु के मुँह से निकल गया, ‘‘हमारी मटर लाये हो?’’

अब तक दादी एकदम अनुकूल और आत्मीय थी, यकायक वे प्रतिकूल और अनात्मीय बनकर भभकीं, ‘‘बहू तुझे चाट की पड़ी है, यहाँ तो मरते-करते बचे हम सब।’’ दुर्घटना की सुनकर इन्दु के मन में यही आया कि दादाजी के लिए फिर से दही आ सकता है तो मेरे लिए चाट क्यों नहीं!

इस बीच भगवती कपड़े बदल चुकी थी। भाभी की साड़ी जम्पर की तह लगाकर वह रखने जा ही रही थी कि मुँह फुलाये इन्दु कमरे में आयी, ‘‘तुम ताँगे पर से गिरीं, कहीं साड़ी में खोंप तो नहीं लग गयी।’’

‘‘नहीं भाभी, पूछ लो भैयाजी से। मैं तो गिरी ही नहीं। झट से खड़ी हो गयी।’’ भग्गो भाभी का जी नहीं दुखाना चाहती थी।

थोड़ी देर में दादी तो कूलती-कराहती अपने तख्ती पर करवट बदलती सो गयीं। कविमोहन भी लालटेन और किताब लेकर छत पर चला गया।

रह गयी भग्गो और इन्दु। दोनों की आँखों में नींद भरी थी। जब तक दादाजी दुकान का गल्ला मिलाकर, शौच से आकर हाथ-पैर धोकर ब्यालू पर बैठे, बेटी और बहू जँभाइयाँ लेने लगीं।

दादाजी ने पराँठे का कौर तोडक़र दही और कौले की तरकारी लगाकर मुँह में रखा।

उन्होंने फौरन कहा, ‘‘च्यौं इन्दु जे दई क्या घर में जमायौ है।’’

‘‘नहीं तो।’’ इन्दु बोली।

भग्गो ने कहा, ‘‘हम बताएँ दादाजी, दही तो गया गिर, हमारा ताँगा रपट गया था। यह तो भैयाजी फिर से जाकर लाये हैं।’’

दादाजी का खाना ख़राब हो गया। थाली सरकाकर गरजे, ‘‘रहने दो मोय नायँ खानी रोटी। एक चवन्नी का छप्परवाले से दई मँगाया वह भी सुसरा नायँ लायौ। जे दई से तो हम कुल्लौ भी नायँ करैं। मार सपरेटा है।’’

अब तक दादाजी की किल्लाहट ऊपर पहुँच गयी थी। कवि ऊपर से उतरकर आया, ‘‘क्या आधी रात में खोइया मचा रखा है, आप खा-पीकर सो जाएँ और दूसरों को भी सोने दें।’’

दादाजी आपे से बाहर हो गये, ‘‘मेरे पैसे लुट गये, मैं बोलूँ भी न, डोलूँ भी न। तुझे सोने की पड़ी है तो तू सो। मैंने कपूत पैदा किया, मैं कैसे सोऊँगा।’’

कविमोहन पैर पटकता हुआ ऊपर चला गया और भड़ाम से छत के किवाड़ लगा लिये।

भग्गो चुपके से अपने बिस्तर पर चली गयी।

इन्दु ने कुछ देर दादाजी का इन्तज़ार किया। जब आँगन से हाथ धोने और कुल्ला करने की आवाज़ आयी तो उसने भी चौका बढ़ा दिया।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Post Reply