अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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Jemsbond
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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किस्सा अमीना का
अमीना ने कहा, 'जुबैदा की कहानी आप उसके मुँह से सुन चुके, अब मैं अपनी कहानी आपके सम्मुख प्रस्तुत करती हूँ। मेरी माँ मुझे लेकर अपने घर में आई कि रँड़ापे का अकेलापन उसे न खले। फिर उसने मेरा विवाह इसी नगर के बड़े आदमी के पुत्र के साथ कर दिया। दुर्भाग्यवश एक ही वर्ष बीता था कि मेरा पति मर गया। किंतु उसकी सारी संपत्ति जिसका मूल्य लगभग नब्बे हजार रियाल था मेरे हाथ आ गई। इतना धन मेरी सारी जिंदगी के लिए काफी था। जब पति को मरे छह महीने हो गए तो मैंने दस बहुत मूल्यवान पोशाकें बनवाईं जिनमें से हर एक का मूल्य एक-एक हजार रियाल था। जब पति को मरे एक वर्ष पूरा हो गया तो मैंने उन पोशाकों को पहनना आरंभ किया।

एक दिन मैं अपने घर में अकेली बैठी थी कि मेरे सेवक ने मुझ से कहा कि एक बुढ़िया आपसे कुछ कहना चाहती है, आज्ञा हो तो उसे अंदर ले आऊँ। मैंने अनुमति दे दी। बुढ़िया अंदर आई और उसने भूमि चूमकर मुझे प्रणाम किया फिर खड़े होकर कहने लगी, 'मैंने आपकी दयालुता की बड़ी प्रशंसा सुनी है इसीलिए आपके सन्मुख कुछ निवेदन करना चाहती हूँ। मेरे पास एक कन्या है जिसके माता-पिता नहीं हैं। आज रात को उसका विवाह है। हम दोनों इस नगर में अपरिचित हैं। जिस लड़के के साथ उसका विवाह होना है वह धनी परिवार का है और उसके संबंधी भी काफी हैं। सुना है कि दूल्हे के साथ बहुत-सी स्त्रियाँ बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहन कर आएँगी। यदि आप उस विवाह में शामिल हों तो मेरी प्रतिष्ठा रह जाएगी। हमारी ओर से आप होंगी तो समधियाने वाले हमें अपरिचित और निर्धन न समझेंगे। तुम्हारे जैसी शान-शौकत तो किसी में नहीं होगी और सब लोग यही कहेंगे कि जब इस बुढ़िया की ओर से ऐसी धनाढ्य महिला आई है तो वह भी प्रतिष्ठावान होगी। अगर आप मेरी निर्धनता और दीनता का ख्याल करके मेरे यहाँ चलने से इनकार करेंगी तो मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी। इस नगर में न तो मेरा कोई अपना सगा-संबंधी है जिससे मैं मदद माँगूँ न आपके समान परोपकारी कोई महिला है जो दीन अनाथों पर दया करें।'

यह कहकर बुढ़िया रोने लगी। मैं उसके रोने से द्रवित हो गई। मैंने उसे दिलासा देकर कहा, 'अम्मा, तुम फिक्र न करो, मैं तुम्हारी बेटी के विवाह में अवश्य सम्मिलित होऊँगी। तुम्हें खुद अब यहाँ आने की जरूरत नहीं है, तुम विवाह का प्रबंध करो। मुझे अपने मकान का पता बता दो, मैं स्वयं वहाँ पहुँच जाऊँगी।'

बुढ़िया यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई। उसने कहा, जैसे इस समय आपने मुझे प्रसन्नता दी है वैसे ही भगवान सदैव आपको प्रसन्न रखे, लेकिन आप मेरा मकान कहाँ ढूँढ़ती फिरेंगी, मैं स्वयं शाम को यहाँ आकर आप को अपने घर ले जाऊँगी। यह कहकर बुढ़िया चली गई।

मैंने तीसरे पहर से तैयारी की। एक बहुमूल्य जोड़ा कपड़ों का निकालकर पहना। बड़े-बड़े मोतियों की माला पहनी तथा और भी बहुत-से रत्नजटित आभूषण यथा बाजूबंद, करनफूल, अँगूठियाँ आदि पहने। इतने ही में शाम हो गई। बुढ़िया मुझे लेने को आ गई और मेरा हाथ चूम कर बोली कि दूल्हे के माता-पिता तथा अन्य संबंधी मेरे घर आए हुए हैं, यहाँ के कई धनी-मानी और प्रतिष्ठित व्यक्ति और उनकी स्त्रियाँ भी वर पक्ष की ओर से आए हैं; अब आप चल कर मेरे पक्ष की लाज रखिए। मैं बुढ़िया के साथ उसके घर की ओर चल दी और साथ में अपनी कई दासियों को भी अच्छे वस्त्राभूषण पहनाकर अपने साथ ले लिया।

हम लोग चलते-चलते एक चौड़ी और साफ गली में पहुँचे। वृद्धा ने हम लोगों को ले जाकर एक बड़े द्वार के सामने खड़ा कर दिया। दरवाजे के ऊपर एक तख्ती पर लकड़ी से तराशे हुए अक्षरों में लिखा था कि इस घर में सदैव प्रसन्नता का निवास है। वहाँ दीए भी जल रहे थे जिनके प्रकाश में मैंने यह इबारत पढ़ी। बुढ़िया ने ताली बजा कर दरवाजा खुलवाया और मुझे अंदर एक बड़े दालान में ले गई।

अंदर एक अत्यंत रूपवती स्त्री ने मेरा स्वागत किया, मुझे गले लगाया और सम्मानपूर्वक एक कमरे में ले जाकर बिठाया। फिर मैं ने देखा कि वहाँ पर एक रत्न-जटित सिंहासन रखा है। उस सुंदरी ने मुझ से कहा कि तुम सोचती हो कि तुम किसी और का विवाह कराने आई हो, वास्तविकता यह है कि तुम्हें यहाँ तुम्हारे ही विवाह के लिए लाया गया है। मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ किंतु उस स्त्री ने मुझे और कुछ पूछने न दिया बल्कि इधर-उधर की बड़ी अच्छी बातें करने लगी और बात-बात में मेरे प्रति सम्मान प्रकट करने लगी।

कुछ देर में उसने कहा, 'बीबी, शादी की बात तो यह है कि मेरा एक जवान भाई है जो अत्यंत रूपवान है। उस ने तुम्हारे रूप और गुणों की बड़ी प्रशंसा सुनी है और तुम पर मोहित हो गया है। वह तुमसे विवाह करने को अत्यंत लालयित है। यदि तुम उसके साथ विवाह करने से इनकार करोगी तो उसे अति क्लेश होगा और उसका दिल टूट जाएगा। मैं ईश्वर की सौगंध खाकर कहती हूँ कि वह नौजवान हर प्रकार तुम्हारी संगति के योग्य है। तुम उस पर पूरा भरोसा रख सकती हो। वह बड़ा प्रसन्नचित्त आदमी है और तुम्हें हर तरह खुश रखेगा।'

वह स्त्री बहुत देर तक इसी प्रकार अपने भाई की बात करती रही और उसकी प्रशंसा के पुल बाँधती रही। अंत में उसने मुझसे कहा कि तुम्हारी ओर से जरा-सा भी इशारा हो तो मैं उस आदमी से तुम्हारे आने के बारे में कहूँ।

यद्यपि पहले पति के मरने के बाद मेरी विवाह करने की तनिक भी इच्छा नहीं थी तथापि उस स्त्री ने उस आदमी की इतनी प्रशंसा की थी कि इनकार करने की भी इच्छा बिल्कुल न हुई। मैं उसकी बात पर मुस्कराकर चुप हो रही। स्त्री मेरी मुस्कराहट और मौन से समझ गई कि मैं राजी हूँ। उसने ताली बजाई। इसके साथ ही पास के एक कमरे से एक अति रूपवान युवक बड़े तड़क-भड़क कपड़े पहने हुए निकला। उसे देखकर मुझे अपने भाग्य पर बड़ी प्रसन्नता हुई कि ऐसा रूपवान पुरुष मेरा पति बनेगा। वह मेरे पास बैठा और मुझ से अत्यंत शिष्टता और बुद्धिमत्तापूर्वक बातें करने लगा। उसकी जितनी प्रशंसा उसकी बहन ने की थी मैं ने उसे उससे अधिक पाया। उस सुंदरी ने जब मुझे भी राजी देखा तो दूसरी बार ताली बजाई जिससे एक अन्य कमरे से एक काजी निकले और उनके साथ चार अन्य मनुष्य। काजी ने शरीयत के अनुसार हम दोनों का विवाह करा दिया और चार आदमियों की गवाही भी हो गई। मेरे पति ने मुझ से वचन लिया कि मैं किसी अन्य पुरुष से बात न करूँगी बल्कि देखूँगी भी नहीं, सदैव पातिव्रत्य का पालन करूँगी और उसकी आज्ञाओं का प्रसन्नतापूर्वक पालन करूँगी। उस ने यह भी कहा कि अगर तुम ने अपनी प्रतिज्ञाएँ पूरी कीं तो मैं तुम्हारा त्याग कभी नहीं करूँगा।

मैं धनवान वर्ग की महिलाओं की भाँति बल्कि रानियों की भाँति अपने पति के घर में रहने लगी। एक महीने बाद मैंने अपने पति से शहर के बाजार को जाने की अनुमति माँगी। मैंने कहा कि जैसे कई अमीर घरानों की स्त्रियाँ बाजार से रेशमी थान खरीद कर बेचा करती हैं वैसे ही मैं करना चाहती हूँ। मेरे पति ने इसके लिए अनुमति दे दी। मैं दो दासियों तथा उस बुढ़िया के साथ जो मुझे विवाह के लिए बहाना करके लाई थी नगर के सबसे बड़े बाजार गई जहाँ बड़े-बड़े व्यापारियों की दुकानें थीं। बुढ़िया ने कहा, यहाँ एक नौजवान व्यापारी है जिसे मैं अच्छी तरह जानती हूँ, उसकी दुकान जैसे बहुमूल्य थान कहीं और न मिलेंगे। मैंने भी सोचा था कि एक ही जगह अच्छा माल मिल जाए तो जगह-जगह क्यों भटकें, इसीलिए उस व्यापारी की दुकान पर चली गई।

व्यापारी जवान ही नहीं अत्यंत रूपवान था। बुढ़िया ने मुझ से कहा कि यहाँ बहुत माल है, तुम व्यापारी से जो भी चाहो माँग लो। मैंने उससे कहा कि मैंने पति को वचन दिया है कि मैं परपुरुष से बात न करूँगी, इसलिए मैं तो इससे बात न करूँगी, तुम्हीं बात करो। अतएव उस व्यापारी ने बुढ़िया से पूछताछ कर कि मुझे क्या पसंद है कई अच्छे-अच्छे थान दिखाए। मैं ने उन में से एक थान पसंद किया और उसका दाम पुछवाया। व्यापारी बोला, 'यह थान अमूल्य है। मैं इसे असंख्य अशफियों में भी नहीं बेचूँगा। किंतु यह सुंदरी अगर अपने कपोल का एक चुंबन मुझे दे दे तो यह थान उसका हो जाएगा।'

मैंने बुढ़िया से नाराज होते हुए कहा कि यह व्यापारी बड़ा लंपट और धृष्ट जान पड़ता है, इसकी हिम्मत ऐसी गंदी बात करने की कैसे हुई। किंतु बुढ़िया ने व्यापारी ही का पक्ष लिया और कहा, 'सुंदरी, इसमें कोई विशेष बात तो नहीं है। तुम्हारे पति ने तुम्हें परपुरुष को देखने और उससे बात करने ही को तो मना किया है। वह तुम न करो। तुम केवल एक चुंबन इसे चुपचाप दे दो। इसमें तो कोई कठिनाई तुम्हें नहीं होनी चाहिए।' मैं ऐसी मूर्ख थी और थान मेरी नजर में ऐसा खुप गया था कि मैं इस बुरी बात के लिए तैयार हो गई। अब वह वृद्धा और दोनों दासियाँ सड़क की ओर मेरी आड़ करके खड़ी हो गईं। मैंने अपने मुख पर से वस्त्र हटा कर उस व्यापारी के सामने गाल कर दिया।

दुष्ट व्यापारी ने चुंबन लेने के बजाय मेरे गाल में दाँत गड़ा दिए जिससे गाल लहूलुहान हो गया और मैं तड़प कर अचेत हो गई। इस अरसे में अवसर पाकर व्यापारी ने अपना माल जल्दी से लपेटा और दुकान बंद करके गायब हो गया। कुछ देर बार जब मुझे होश आया तो मैंने अपने गाल को लहूलुहान पाया। बुढ़िया और दासियों ने मेरे गाल को कपड़े से ढँक दिया था और उन लोगों की परेशानी और हाय-हाय को सुन कर जो भीड़ वहाँ जमा हो गई थी उसने समझा कि मैं किसी बीमारी से या कमजोरी के कारण बेहोश हो गई। मेरे होश में आने पर बुढ़िया और दासियों को संतोष हुआ और वे मुझे धैर्य देने लगीं। विशेषतः बुढ़िया को बहुत दुख हुआ। उसने कहा, 'सुंदरी, मैं तुम्हारी अपराधिनी हूँ, मुझे क्षमा करो। तुम्हारे ऊपर यह सारी मुसीबत मेरे कारण ही आई। इस कमीने व्यापारी की दुकान पर तुम मेरे कहने से आई। अब घर चलो। जो हुआ सो हुआ अब तुम और चिंता न करो। मैं तुम्हारे घाव पर ऐसी दवा लगा दूँगी कि तीन दिन के अंदर न केवल घाव भर जाएगा बल्कि उसका कोई चिह्न भी नहीं रहेगा।'

मैं किसी तरह गिरती-पड़ती उन लोगों के साथ अपने घर पहुँची और अपने कमरे में जाकर पीड़ा, निर्बलता और थकन से फिर अचेत हो गई। बुढ़िया मुझे होश में लाई। फिर मैं अपने पलंग पर लेट गई। रात में जब मेरा पति आया, मुझे लेटे देखा तो बोला कि तुम्हें क्या हो गया, क्यों लेटी हो। मैंने बहाना किया कि मेरे सिर में बड़ा दर्द हो रहा है। मैंने सोचा था कि इसके बाद वह मुझसे अपना ध्यान हटा लेगा। किंतु उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और नाड़ी आदि देखने के बाद सर पर हाथ फेरने के लिए मेरे मुँह से कपड़ा हटाया। गाल के घाव को देखकर वह भड़क गया और मुझ से पूछने लगा कि तुम्हारे गाल पर यह खरोंच कैसे लगी।

वैसे मेरा कोई कसूर न था और मैं उसकी अनुमति लेकर ही बाजार गई थी किंतु उससे सच्ची बात कहने का मुझे साहस नहीं हुआ। मैंने बहाना बनाया कि जब मैं बाजार जा रही थी तो एक लकड़हारा लकड़ी का गट्ठा लेकर मेरे पास से निकला और गट्ठे से बाहर निकली एक लकड़ी गाल में चुभ गई।

मेरे पति ने क्रोध में भरकर कहा कि अगर यह बात सच है तो मैं कल सारे लकड़हारों को फाँसी पर चढ़वा दूँगा। मैं घबराई कि मेरे इस झूठ से सारे लकड़हारे बेकसूर ही मारे जाएँगे। मैंने अपने पति से कहा कि आप ऐसा अन्याय हरगिज न करें, बेकसूर लकड़हारों को क्यों मरवाएँगे, अगर मेरा अपराध पाएँ तो उसका दंड मुझे दें, औरों को नहीं।

मेरे पति ने कहा, तुम सच-सच क्यों नहीं बताती गाल में घाव कैसे लगा। मेरी हिम्मत सच्ची बात कहने की अब भी नहीं हुई और मैंने दूसरा बहाना बनाया कि जब मैं जा रही थी तो एक कुम्हार गधे पर बर्तन ले जाता हुआ निकला और गधे का मुझे ऐसा धक्का लगा कि मैं पृथ्वी पर गिर पड़ी और वहाँ पड़ा हुआ एक काँच का टुकड़ा मेरे गाल में चुभ गया। मेरे पति ने कहा, अगर तुम्हारी बात सच है तो मैं सुबह ही राजा के मंत्री जाफर से कह कर सारे कुम्हारों को नगर से निकलवा दूँगा। मैं फिर घबराई और मैंने कहा कि मेरे कारण निर्दोष कुम्हारों को सजा क्यों दी जाए।

पति ने फिर कहा, जब तक तुम सच्ची बात न कहोगी मेरा रोष कम नहीं हो सकता। मैं बोली कि चलते-चलते मुझे चक्कर आ गया जिससे मैं गिर पड़ी और मेरा गाल छिल गया। इसमें किसी का कसूर नहीं है। मेरा पति अब आपे से बाहर हो गया और बोला, 'तू झूठ पर झूठ बोले चली जा रही है, अब मैं तेरी बहानेबाजी नहीं सुन सकता। यह कह कर उसने ताली बजाई जिससे तीन हब्शी गुलाम अंदर आ गए। मेरे पति ने कहा, एक-एक आदमी इसका सिर और पाँव पकड़े और तीसरा तलवार निकाल ले। फिर तलवार निकालने वाले से कहा कि इस कुलटा के दो टुकड़े करके इस की लाश मछलियों के खाने के लिए नदी में फेंक दें। जल्लाद कुछ झिझका तो मेरे पति ने डाँट कर कहा, तू मेरी आज्ञा का पालन क्यों नहीं करता। जल्लाद ने मुझ से कहा, 'तुम्हारा अंत आ गया है। तुम अंत समय में भगवान का स्मरण कर लो। इसके अलावा और भी कुछ कहना-सुनना हो तो कह सुन लो। मैंने कहा कि मुझे थोड़ी देर के लिए जीवन दान मिले तो कुछ कहना चाहती हूँ। मैंने अपना सिर उठाया और सारी बात कहनी चाही कितु हिचकियों और रुलाई के कारण कुछ कह न सकी।

मेरे पति का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। उसने मुझे बहुत गालियाँ दीं और बुरा-भला कहा। मैं उसकी बातों का कोई उत्तर न दे सकी। मैंने सिर्फ यह कहा कि कुछ अवसर और दिया जाए ताकि मैं अपने पापों के लिए ईश्वर से क्षमा माँग सकूँ। किंतु मेरे पति ने इतनी दया न भी की और गुलाम को शीघ्र ही मेरा वध करने की आज्ञा दी।

गुलाम मुझे मारने को तैयार हो गया। इतने में बुढ़िया दौड़ती हुई आई। उस ने मेरे पति को बचपन में दूध पिलाया था। वह उसके पैरों पर गिर पड़ी और कहा कि तुम मेरे दूध का बदला देने के लिए इसे प्राणदान दे दो। उसने कहा कि उसका कोई दोष नहीं है, तुम इसे निरपराध मार कर ईश्वर को क्या जवाब दोगे। उसके समझाने-बुझाने से मेरे पति ने मेरा वध तो नहीं कराया किंतु कहा कि इसे कुछ दंड मिलना जरूरी है। उसकी आज्ञा से गुलाम ने मुझे कोड़ों से इतना मारा कि मैं बेहोश हो गई और मेरे कंधों और छाती पर से कई जगह मांस उधड़ गया। मैं एक महल में बंद कर दी गई जहाँ चार महीने तक पड़ी रही। बुढ़िया ने मेरी देख-रेख और मरहम-पट्टी की। इससे मैं वैसे तो स्वस्थ हो गई किंतु वे काले चिह्न बाकी रह गए जिन्हें आपने देखा था।

जब मैं चलने-फिरने के योग्य हुई तो सोचा कि अपने पहले पति के मकान में, जो अभी तक मेरी संपत्ति था, चल कर रहूँ। किंतु उस गली में गई तो मकान का चिह्न भी न पाया क्योंकि मेरे दूसरे पति ने उसे खुदवाकर जमीन के बराबर कर दिया था। मैं उसके इस अन्याय की फरियाद भी इस डर से न कर सकी कि कहीं ऐसा न हो कि दुबारा क्रोध में आकर मुझे मरवा दें।

मैं अपनी जान बचने पर ईश्वर को धन्यवाद देती हुई जुबैदा के पास गई और अपनी संपूर्ण कष्ट कथा कही। उसने मुझे तसल्ली दी। उसने कहा कि तुम मेरे साथ रहो, यह जमाना अच्छा नहीं है, हमें किसी से भी दयालुता की आशा नहीं करनी चाहिए, न उनसे जो हमारी मित्रता का दावा करते हैं न उनसे जो हमारे रूप पर मोहित हो जाते हैं। उसने कहा कि मेरे पास इतना पैसा है कि हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। जुबैदा ने मुझे यह भी बताया कि किस तरह उसकी सगी बहनों की जलन और दुश्मनी की वजह से उसका मँगेतर शहजादा समुद्र में डूब गया और किस तरह उसकी उपकृत परी ने उसकी दुष्ट सगी बहनों को कुतिया बना दिया।

मैं उस समय से जुबैदा के पास रहने लगी। मेरी माता का देहांत हुआ तो जुबैदा ने मेरी बहन साफी को भी अपने पास बुलाकर रख लिया तब से हम तीनों बहनें आनंदपूर्वक रहती हैं। हम लोग भगवान के प्रति आभारी हैं कि हमें कोई कष्ट नहीं है। हम लोग मिलजुल कर घर चलाते हैं। कभी बाजार से सौदा-सुलुफ लाने के लिए मैं जाती हूँ कभी साफी। कल मैं बाजार गई थी और सामान एक मजदूर के सर पर लदवा कर आई। वह बड़ा हँसोड़ था और शिष्ट भी था, इसलिए हमने उसे दिन भर अपने साथ रहने दिया ताकि अपनी बातों से हमारा मनोरंजन करे। फिर रात को तीन फकीरों ने हम से रात भर आश्रय देने के लिए प्रार्थना की। हमने उन्हें भोजन कराया और शराब पिलाई। वे रात को देर तक गाते-बजाते रहे और हम लोग भी गाते-बजाते रहे। फिर मोसिल के तीन व्यापारी जो बड़े संभ्रात जान पड़ते थे रात भर रहने की प्रार्थना करते हुए आए। हमने उनकी भी अभ्यर्थना की।

अमीना ने कहा कि यद्यपि हमारे सातों मेहमानों ने वचन दिया था कि वे सब कुछ चुपचाप देखेंगे और किसी बात के बारे में पूछताछ नहीं करेंगे तथापि उन्होंने यह वचन न निभाया और कुतियों के पिटने और मेरे शरीर के दागों के बारे में पूछताछ करने लगे। हमें इस पर बहुत क्रोध आया यद्यपि हम उन सभी के प्राण ले सकते थे। तथापि ऐसा न किया और उन लोगों से उनका व्यक्तिगत वृत्तांत सुनकर उन्हें छोड़ दिया।

खलीफ हारूँ रशीद को दोनों स्त्रियों की कहानियाँ सुनकर अत्यंत विस्मय हुआ। उसने मन में सोचा कि उन फकीरों का, जो वास्तव में राजा और राजकुमार थे, और उन बुद्धिमती स्त्रियों का कुछ उपकार करें। उसने जुबैदा से पूछा कि तुम्हें तुम्हारी उपकारकर्ती परी ने कुछ यह भी बताया था कि तुम्हारी बहनें कब तक कुतियाँ बनी रहेंगी। जुबैदा ने कहा कि मैंने जो वृत्तांत आप से कहा था उसमें यह बताना भूल गई कि परी ने चलते समय मुझे अपने कुछ बाल दिए थे और कहा था अगर तुम इनमें से कोई बाल आग में डालोगी तो मैं संसार के चाहे जिस भाग में हूँ तुम्हारे पास आ जाऊँगी।

खलीफा ने पूछा, वे बाल कहाँ हैं। जुबैदा बोली, मैं वे बाल हर समय अपने पास रखती हूँ। यह कहकर उसने एक डिबिया निकाली। उसमें एक पुड़िया में कुछ बाल बँधे थे। उसने उन्हें खलीफा को दिखाया।

खलीफा ने कहा कि मैं भी उस परी को देखना चाहता हँ। जुबैदा ने पूरी पुड़िया आग में डाल दी। धुआँ उठते ही भूकंप-सा आ गया और कुछ क्षणों में चकाचौंध कर देने वाले वस्त्राभूषण पहने परी सम्मुख आ खड़ी हुई। वह खलीफा से बोली, 'आप पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं, आपकी जो भी आज्ञा होगी मैं उसका पालन करूँगी। इस जुबैदा ने मेरी प्राण रक्षा की थी इसीलिए मैं इसकी बड़ी आभारी हूँ। मैंने इसकी बहनों को, जिन्होंने इसके उपकारों के बदले में इससे अत्यंत नीचता का व्यवहार किया था, कुतिया बना डाला। अब मुझे क्या आज्ञा है?'

खलीफा ने कहा, 'एक तो यह कि चूँकि यह दोनों अपने किए का काफी दंड पा चुकी हैं इसलिए तुम उन्हें फिर इनके पुराने शरीरों में ले आओ। दूसरी बात यह है कि एक आदमी ने अपनी पत्नी को इतना पिटवाया है कि उसके कंधे और सीना काले दागों से भर गए हैं। उस अन्यायी ने इसका पुराना घर भी खुदवाकर जमीन के बराबर कर दिया, उसको अपने पहले पति से जो संपत्ति मिली थी उस पर भी अधिकार कर लिया। मुझे इस बात पर बड़ा खेद है कि मेरे शासन में कोई ऐसा अन्यायी रहता है। तुम तो जानती होगी कि वह कौन है। उसका पता मुझे बताओ और इन कुतियों को फिर से स्त्री बनाने और उस प्रताड़िता स्त्री का शरीर ठीक करने के लिए जो भी कर सकती हो करो।'

परी ने आश्वासन दिया कि मैं सब ठीक कर दूँगी। खलीफा ने जुबैदा को आज्ञा देकर उसके घर से कुतियों को मँगाया। परी ने एक पात्र में जल लेकर उस पर कुछ मंत्र पढ़ा। फिर उसने वह पानी दोनों कुतियों और अमीना पर छिड़क दिया। तुरंत ही कुतियाँ अपने पुराने शरीरों में आकर सुंदर स्त्रियाँ बन गईं ओर अमीना के सारे काले दाग चले गए और उसका शरीर कुंदन की तरह दमकने लगा। अब परी ने कहा कि मैं जानती हूँ कि अमीना का पति कौन है लेकिन वह आप से बहुत निकट संबंध रखता है; अगर आप चाहें तो उसका नाम भी बता दूँ। खलीफा ने कहा कि जरूर बताओ।

परी बोली, वह आप का छोटा बेटा अमीन है जो अमीना के सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर इसको पाने का इच्छुक हो गया और इसे धोखे से अपने कमरे में बुलवा कर इससे विवाह कर लिया। फिर परी ने बाजार की घटना का वर्णन करके कहा कि यद्यपि अमीना निर्दोष थी किंतु सच्ची बात कहने का साहस न कर सकी और कई कई बयान दिए जिससे इसके पति ने इसे दंड दिया।

यह कहकर परी अंतर्धान हो गई। खलीफा ने अपने पुत्र को बुलवाया किंतु भय और लज्जा के कारण उसे आने का साहस न हुआ। खलीफा ने उसे सामने बुलाने पर जोर न दिया किंतु अमीना को उसके पास भेजा और आदेश दिया कि चूँकि यह निर्दोष है इसलिए तुम इसे पत्नी के रूप में सम्मानपूर्वक रखो। चुनांचे शहजादा अमीन ने ऐसा ही किया। खलीफा ने जुबैदा से स्वयं विवाह कर लिया और साफी तथा अन्य दो बहनों का तीन फकीर बने राजकुमारों से विवाह कर दिया और इन राजकुमारों को उच्च पदों पर आसीन कर दिया।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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किस्सा एक स्त्री और तीन नौकरों का
शहरयार को सिंदबाद की यात्राओं की कहानी सुन कर बड़ा आनंद हुआ। उसने शहरजाद से और कहानी सुनाने को कहा। शहरजाद ने कहा कि खलीफा हारूँ रशीद का नियम था कि वह समय-समय पर वेश बदल कर बगदाद की सड़कों पर प्रजा का हाल जानने के लिए घूमा करता था। एक रोज उसने अपने मंत्री जाफर से कहा कि आज रात मैं वेश बदल कर घूमँगा, अगर देखूँगा कि कोई पहरेवाला अपने कार्य को छोड़ कर सो रहा है तो उसे नौकरी से निकाल दूँगा और मुस्तैद आदमियों को पारितोषिक दूँगा। मंत्री नियत समय पर जासूसों के सरदार मसरूर के साथ खलीफा के पास आया और वे तीनों साधारण नागरिकों के वेश में बगदाद में निकल पड़े।

एक तंग गली में पहुँचे तो चंद्रमा के शुभ्र प्रकाश में उन्हें दिखाई दिया कि एक लंबे कद और सफेद दाढ़ीवाला आदमी सिर पर जाल और कंधे पर नारियल के पत्तों का बना टोकरा लिए चला आता है। खलीफा ने कहा कि यह बड़ा गरीब मालूम होता है, इससे इसका हाल पूछो। तद्नुसार मंत्री ने उससे पूछा कि तू कौन है और कहाँ जा रहा है। उसने कहा, 'मैं अभागा एक निर्धन मछुवारा हूँ। आज दोपहर को मछली पकड़ने गया था किंतु शाम तक मेरे हाथ एक भी मछली न लगी। मैं अब खाली हाथ घर जा रहा हूँ। घर पर मेरी स्त्री और कई बच्चे हैं। मैं चक्कर में हूँ कि उन्हें आज खाने को क्या दूँगा।'

खलीफा को उस पर दया आई। उसने कहा, 'तू एक बार फिर नदी पर चल और जाल डाल। तेरे जाल में कुछ आए या न आए मैं तुझे चार सौ सिक्के दूँगा और जो कुछ तेरे जाल में आएगा ले लूँगा।' मछुवारा तुरंत इसके लिए तैयार हो गया। उसने सोचा कि मेरा सौभाग्य ही है कि ऐसे भले आदमी मिले, यह मेरे साथ धोखा करनेवाले तो मालूम नहीं होते। नदी पर जा कर उसने जाल फेंका और थोड़ी देर में उसे खींचा तो उसमें एक भारी संदूक फँसा हुआ आ गया। खलीफा ने मंत्री से मछुवारे को चार सौ सिक्के दिलाए और विदा कर दिया।

खलीफा को बड़ा कौतूहल था कि संदूक में क्या है। मसरूर और जाफर ने उसके आदेशानुसार संदूक खलीफा के महल में रख दिया। उसे खोल कर देखा तो उसमें कोई चीज नारियल की चटाई में लाल डोरे से सिली हुई थी। खलीफा की उत्सुकता और बढ़ी। उसने छुरी से सीवन काट डाली और देखा कि एक सुंदर स्त्री का शव टुकड़े-टुकड़े करके चटाई के अंदर सी दिया गया था।

खलीफा यह देख कर अत्यंत क्रुद्ध हुआ। उसने मंत्री से कहा, 'क्या यही तुम्हारा प्रबंध है? मेरे राज्य में ऐसा अन्याय हो कि किसी बेचारी स्त्री को कोई काट कर संदूक में बंद करके नदी में डाले, यह मैं सहन नहीं कर सकता। या तो तुम इसके हत्यारे का पता लगाओ या फिर तुम्हें और तुम्हारे चालीस कुटुंबियों को फाँसी पर चढ़ा दूँगा' मंत्री काँप गया और उसने कहा, 'सरकार मुझे कुछ समय तो दिया जाए कि मैं हत्यारे का पता लगाऊँ।' खलीफा ने कहा कि तुम्हें तीन दिन का समय दिया जाता है।

मंत्री जाफर अत्यंत शोकाकुल हो कर अपने भवन में आया और सोचने लगा कि तीन दिन में हत्यारे का पता कैसे लग सकता है और पता लगा भी तो इस का प्रमाण कहाँ मिलेगा कि यही हत्यारा है। हत्यारा तो कब का नगर छोड़ भी चुका होगा। क्या करूँ? क्या किसी आदमी पर जो पहले ही कारागार में है इस हत्या का अभियोग लगा दूँ। ? किंतु यह बड़ा अन्याय बल्कि मेरा अपराध होगा कि मैं जान-बूझ कर किसी निरपराध को दंड दिलवाऊँ, कयामत में भगवान को क्या मुँह दिखाऊँगा।

मंत्री ने सारे सिपाहियों, हवलदारों को आज्ञा दी कि स्त्री के हत्यारे की तीन दिन में खोज करो वरना मैं मारा जाऊँगा और मेरे साथ मेरे कुटुंब के चालीस व्यक्ति भी फाँसी पाएँगे। वे बेचारे तीन दिन तक घर-घर जा कर हत्यारे की खोज करते रहे किंतु हत्यारे का कहीं पता न चला। तीन दिन बीत जाने पर खलीफा के आदेश पर जल्लाद जाफर और उसके चालीस कुटुंबियों को पकड़ कर ले आया और खलीफा के सामने हाजिर कर दिया। खलीफा का क्रोध अभी शांत नहीं हुआ था। उसने आज्ञा दी कि सब को फाँसी दे दो।

जल्लाद के निर्देशन में फाँसी की इकतालीस टिकटियाँ खड़ी कर दी गईं। नगर में मुनादी करवाई गई कि खलीफा के आदेश से मंत्री जाफर और उसके चालीस कुटुंबियों को फाँसी दी जाएगी। जो आ कर देखना चाहता है देख ले। सारे नगर में यह मालूम हो गया कि किस अपराध पर मंत्री और उसके कुटुंबी फाँसी पर चढ़ाए जा रहे हैं।

कुछ समय के बाद मंत्री और उसके चालीसों कुटुंबियों को टिकटियों के नीचे लाया गया और उनकी गर्दनों में रस्सी के फंदे डाल दिए गए। वहाँ पर बड़ी भारी भीड़ जमा हो गई। बगदाद के निवासी मंत्री को उसके शील और न्यायप्रियता के कारण बहुत चाहते थे। उन्हें उसकी मृत्यु पर बहुत शोक हो रहा था। सैकड़ों लोग उसकी गर्दन में फंदा पड़ा देख कर रोने लगे। इस पर भी खलीफा का इतना रोब था कि किसी का साहस मंत्री के मृत्यु दंड का विरोध करने का नहीं पड़ रहा था।

जब जल्लाद और उसके अधीनस्थ लोग फाँसियों की रस्सियाँ खींचने को तैयार हुए तो भीड़ में से एक अत्यंत रूपवान युवक बाहर आया और बोला, 'मंत्री और उसके परिवारवालों को छोड़ दिया जाए। स्त्री का हत्यारा मैं हूँ। मुझे पकड़ लिया जाए।' मंत्री को अपनी प्राण रक्षा की खुशी भी थी किंतु युवक की तरुणाई देख कर उसकी भावी मृत्यु से दुख भी हो रहा था। इतने में एक लंबे-चौड़े डील-डौलवाला बूढ़ा आदमी भी निकल कर बोला, 'यह जवान झूठ बोलता है। इसने स्त्री को नहीं मारा। उसे मैंने मारा है। मुझे दंड दो।'

फिर उस बूढ़े ने जवान अदमी से कहा कि बेटे, तू क्यों इस हत्या की जिम्मेदारी ले रहा है, मैं तो बहुत दिन संसार में रह लिया हूँ मुझे फाँसी चढ़ने दे। लेकिन जवान आदमी बात पर डटा रहा कि यह बुजुर्गवार झूठी बातें कहते हैं, उस स्त्री को मैंने ही मारा है।

खलीफा के सेवकों ने उससे जा कर कहा कि अजीब स्थिति है, एक बूढ़ा और जवान दोनों अपनी-अपनी जगह कह रहे हैं कि मैंने स्त्री को मारा है। खलीफा ने कहा कि मंत्री के कुटुंबियों को छोड़ दो और मंत्री को सम्मानपूर्वक यहाँ लाओ। जब ऐसा किया गया तो खलीफा ने कहा कि हमें बहुत झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं है, अगर दोनों ही हत्या की जिम्मेदारी ले रहे हैं तो दोनों को फाँसी पर चढ़ा दो। किंतु मंत्री ने कहा कि निश्चय ही उनमें से एक झूठ बोलता है, बगैर खोज-बीन किए किसी निरपराध को मृत्यु दंड देना ठीक नहीं है।

अतएव उन दोनों को भी खलीफा के सामने लाया गया। जवान ने भगवान की सौगंध खा कर कहा कि 'मैंने चार दिन हुए उस स्त्री का वध किया था और उसकी लाश टुकड़े-टुकड़े करके संदूक में बंद नदी में डाल दी थी, अगर मैं झूठ कहता हूँ तो कयामत के दिन मुझे अपमानित होना पड़े और बाद में सदा के लिए नरक की अग्नि में जलूँ।' इस बार बूढ़ा कुछ न बोला। खलीफा को विश्वास हो गया कि जवान ही हत्याकारी है। उसने कहा, 'तूने उस स्त्री को मारते समय न मेरा भय किया न भगवान का। और फिर जब तूने यह कर ही लिया है तो अब अपराध स्वीकार क्यों करता है?' जवान बोला, 'अनुमति मिले तो सारी कहानी सुनाऊँ। यह भी चाहता हूँ कि यह कहानी लिखी जाए ताकि सबको सीख मिले।' खलीफा ने कहा 'ऐसा ही हो।'

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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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जवान और मृत स्त्री की कहानी

उस जवान ने कहा कि 'मृत स्त्री मेरी पत्नी और इन वृद्ध सज्जन की बेटी थी और यह मेरे चचा हैं। ग्यारह वर्ष पूर्व उससे मेरा विवाह हुआ था। हमारे तीन बेटे हैं जो जीवित हैं। मेरी पत्नी अत्यंत सुशील और पतिव्रता थी। हर काम मेरी प्रसन्नता का करती थी और मैं भी उससे बहुत प्रेम करता था। एक महीने पहले वह बीमार हुई। दो-चार दिन की दवा से वह अच्छी हो गई और स्वास्थ्यसूचक स्नान के लिए तैयार हुई। लेकिन उसने कहा मैं बहुत अशक्त हो गई हूँ, अगर तुम कहीं से मुझे एक सेब ला दो तो मैं ठीक हो जाऊँगी वरना फिर बीमार पड़ जाऊँगी। मैं उसके लिए सेब लाने को बाजार गया किंतु वहाँ एक भी सेब दिखाई न दिया। फिर मैं बागों में घूमा किंतु वहाँ भी किसी भी मूल्य पर सेब न मिला। फिर मैंने घर आ कर कहा कि बगदाद में तो कहीं सेब मिले नहीं, मैं बसरा बंदरगाह जा रहा हूँ शायद वहाँ सेब मिल जाएँ।

'मैं बसरा जा कर शाही बागों से चार-चार दीनारों के तीन सेब लाया और उन्हें ला कर अपनी पत्नी को दिया। वह बहुत खुश हुई। उसने उन्हें सूँघ कर अपनी चारपाई के नीचे खिसका दिया और फिर आँख बंद करके लेट रही। मैं बाजार गया और अपनी कपड़े की दुकान पर जा बैठा। कुछ देर में मैंने देखा कि एक हब्शी गुलाम एक सेब उछालता जा रहा है। मुझे आश्चर्य हुआ कि इसे सेब कहाँ से मिला, मैं तो बड़ी मुश्किल से बसरा से तीन सेब लाया हूँ। मैंने हब्शी को बुला कर पूछा कि तुझे यह सेब कहाँ मिला। वह हँस कर बोला कि यह मुझे मेरी प्रेमिका ने दिया है, उसका पति दो सप्ताह की यात्रा करके बसरा के शाही बाग से तीन सेब लाया था जिनमें से एक उसने मुझे दे दिया।

'हब्शी ने यह भी कहा कि मैंने और सुंदरी ने मिल कर भोजन आदि भी किया। हब्शी तो यह कह कर चला गया। यहाँ क्रोध से मेरी बुरी हालत हो गई। मैं दुकान बंद करके घर गया और अपनी पत्नी के पास पहुँचा। वहाँ देखा कि चारपाई के नीचे दो ही सेब हैं। मैंने उससे पूछा कि तीसरा सेब क्या हुआ। उसने झुक कर सेबों को देखा और उपेक्षा से बोली कि मुझे नहीं मालूम कि तीसरा सेब कहाँ गया। यह कह कर वह आँखें बंद करके लेट रही। मुझे विश्वास हो गया कि हब्शी सच कहता था, इसका उससे अनुचित संबंध है और यह अचानक मुझे यहाँ देख कर बहाना भी नहीं बना पा रही है। मैं क्रोध और अपमान भावना से अंधा हो गया और मैंने तलवार निकाल कर अपनी पत्नी को टुकड़े-टुकड़े कर डाला।

'मैंने इस डर से कि कोई मुझे हत्या के अभियोग में पकड़ न ले उसके शव को एक नारियल के पत्तों की बनी चटाई में लपेट दिया और लाल डोरे से उस चटाई को बाँध दिया। फिर एक संदूक में उसे रख कर पीछे के दरवाजे से संदूक ले कर निकला और उसे नदी में डाल दिया क्योंकि तब तक अँधेरा हो गया था। लौट कर घर आया तो देखा कि बड़ा लड़का दरवाजे पर बैठा रो रहा है और दो लड़के एक कोठरी में सो रहे हैं। मैंने लड़के से पूछा कि तू क्यों रो रहा है तो उसने कहा कि आज दिन के समय आपके लाए हुए तीन सेबों में से एक को मैं चुपके से उठा लाया था और दरवाजे पर आ कर उसे खाना ही चाहता था कि उधर से निकलते हुए एक हब्शी गुलाम ने मेरे हाथ से सेब छीन लिया। मैंने उससे बहुत कहा कि यह सेब मेरी बीमार माँ के लिए है, मेरा पिता दो सप्ताह की यात्रा कर बसरा के शाही बागों से उसके लिए तीन सेब लाया है। उन्हीं में से यह है। गुलाम ने मेरी बात अनसुनी कर दी और चल दिया। मैंने दौड़ कर उसे रोकने का प्रयत्न किया लेकिन उसने मुझे मारपीट कर भगा दिया और स्वयं एक ओर भाग गया। मैं फिर उसके पीछे लगा लेकिन इस बार उसे न पा सका। घंटों उसे ढूँढ़ने के बाद अभी वापस आया हूँ। आपको आते देखा तो इस डर से रोने लगा कि सेब न मिलने पर आप मेरी माँ से नाराज होंगे। मैं आपसे हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि माँ से कुछ न कहिएगा, वह कुछ नहीं जानती। यह कह कर लड़का फूट-फूट कर रोने लगा।

'यह सुन कर मेरे तो जैसे प्राण ही निकल गए। मैंने अपनी सती-साध्वी पत्नी को झूठे संदेह पर मार डाला था। मैं दुख और पश्चात्ताप के कारण अचेत हो गया। जब सचेत हुआ तो मैंने लड़के से कोठरी में जा कर सो जाने को कहा और स्वयं एक एकांत स्थान पर बैठ कर दुख में निमग्न हो गया। मैं कभी सिर पीटता कभी आँसू बहाता। मैं अपने को लाख बार धिक्कारता कि मूर्ख, तेरी बुद्धि क्या बिल्कुल भ्रष्ट हो गई थी कि तूने अपनी सुशीला और पतिव्रता पत्नी को एक अनजान हब्शी गुलाम की बात पर विश्वास करके मार डाला और इतना भी धैर्य न दिखाया कि इस बारे में पूछताछ कर लेता।

'मैं इसी शोक और पश्चात्ताप की दशा में बैठा था कि उसी समय मेरा चचा अपनी पुत्री के स्वास्थ्य का हाल जानने के लिए आया। मैंने उसे पूरा हाल बताया। उसने अपनी पुत्री की हत्या के बारे में मुझ से कहा-सुनी या लानत-मलामत नहीं की बल्कि इसे विधि का विधान समझ कर केवल शोकाकुल हो गया और रोने पीटने लगा। मैं भी इसके साथ रोने-पीटने लगा। लेकिन रोने-पीटने से क्या होना था, मेरी पत्नी और इनकी पुत्री तो अब दुनिया में नहीं रही। मैं तब से अत्यंत शोक संतप्त हूँ और किसी प्रकार चैन नहीं पा रहा हूँ। मैंने सारा हाल सच्चा-सच्चा आपके आगे रख दिया। अब आप आज्ञा दें कि मुझे फाँसी पर चढ़ाया जाए।'

खलीफा को सारा वृत्तांत बड़ा आश्चर्यजनक लगा। किंतु जब बूढ़े आदमी ने भी इस बात की पुष्टि की तो उसने कहा, 'अगर कोई व्यक्ति अनजाने अपराध करे तो वह मेरी और भगवान की दृष्टि में क्षमा योग्य हैं। मैं इस आदमी की सत्यप्रियता और न्यायप्रियता से भी प्रसन्न हूँ कि इसने निरपराधों को मृत्यु से बचाने के लिए स्वयं मृत्यु का आह्वान किया और अपना अपराध स्वीकार किया। मृत्यु दंड का भागी वह गुलाम है जिसके झूठ के कारण ऐसी दुखद घटना हुई। मंत्री महोदय, तुम अभी अपने को मुक्त न समझो। तुम्हें तीन दिन के अंदर उस दुष्टात्मा को खोज लाना है जिसके कारण यह सब हुआ। तीन दिन में ऐसा न कर सके तो तुम्हें फाँसी पर चढ़ना पड़ेगा।'

मंत्री ने सोचा कि एक बार मौत से छुटकारा मिला तो वह दुबारा पीछे पड़ गई। वह रोता-पीटता घर आया। उसे विश्वास था कि अबकी बार जान नहीं बच सकती क्योंकि लाखों गुलाम बगदाद में हैं, अभियुक्त गुलाम कैसे मिलेगा। फिर उसने सोचा कि परमात्मा की दया से निराश न होना चाहिए। जिस प्रकार अकस्मात ही उसने अनजान स्त्री के हत्यारे को प्रकट दिया वैसे ही संभव है कि इस बार भी जान बच जाए।

किंतु इस बार भी निश्चित अवधि में वांछित गुलाम नहीं मिला। मंत्री जाफर फाँसी पर चढ़ाने के लिए बुलाया गया। उसके संबंधी उससे मिल कर रोने लगे। मंत्री की बच्चे खिलानेवाली सेविका मंत्री की एक पाँच-छह बरस की बेटी को लाई। वह इस बच्ची को बहुत प्यार करता था।

मंत्री ने उन सिपाहियों से कहा कि मैं चलने के पहले अपनी इस बच्ची को प्यार कर लूँ। उन्होंने अनुमति दे दी। मंत्री ने जब बच्ची को उठा कर अपने सीने से लगाया तो उसके सीने में रखी हुई कोई चीज अड़ी। मंत्री ने बच्ची के सीने के ऊपर देखा तो एक बँधी हुई गोल चीज महसूस हुई। मंत्री के पूछने पर बच्ची ने बताया कि यह सेब है जिस पर शाही बाग की मुहर लगी हुई है।

यह पूछने पर कि यह तुम्हारे पास कहाँ से आया बच्ची ने कहा कि मेरा हब्शी गुलाम, जिसका नाम रैहान है, लाया था और मैंने उससे चार सिक्कों में इसे खरीदा है। मंत्री ने सेब को खोल कर देखा और उस पर शाही बाग की मुहर पाई तो गुलाम से डाँट कर पूछा कि तुझे यह सेब कहाँ से मिला, क्या तूने मेरे बादशाह के महल में चोरी की है? गुलाम ने हाथ जोड़ कर कहा, 'मैंने इसे न आपके यहाँ से चुराया है न शाही महल से। मैं आपको सच्ची बात बता रहा हूँ। कुछ दिन पहले मैं एक गली से निकला जहाँ एक घर के सामने तीन-चार बच्चे खेल रहे थे। उनमें सब से बड़े लड़के के हाथ में यह सेब था। मैंने उससे छीन लिया। वह रोता हुआ मेरे पीछे भागा और कहने लगा कि यह सेब मेरे पिता मेरी बीमार माता के लिए बहुत दूर से लाए हैं, मैं इसे माता से बगैर पूछे उठा लाया हूँ, तुम इसे दे दो। लेकिन मैंने सेब नहीं दिया और ला कर आपकी बेटी के हाथ चार सिक्कों में बेच दिया।'

मंत्री को बड़ा आश्चर्य हुआ कि सेब का चोर उसके घर ही का गुलाम है। चुनाँचे चुनाँचे वह अपने साथ उस गुलाम को ले गया और सिपाहियों से कहा कि मुझे खलीफा के पास ले चलो। खलीफा के सामने जा कर उसने गुलाम को खलीफा के सामने खड़ा कर दिया। खलीफा के पूछने पर गुलाम ने वही कहानी दुहराई। खलीफा को यह अजीब किस्सा सुन कर हँसी आई किंतु उसकी अपराधी को मृत्युदंड देने की इच्छा बनी हुई थी। उसने मंत्री से कहा, 'सारी दुखद घटना तुम्हारे गुलाम के कारण हुई इसलिए यही मृत्युदंड का भागी है। इसे फाँसी पर चढ़ाओ ताकि लोगों को शिक्षा मिले।'

मंत्री ने कहा कि आपका आदेश उचित है। यह अभागा इसी योग्य है। किंतु यह हमारा पुराना गुलाम है। मैं आपको मिस्र के बादशाह के मंत्रियों नूरुद्दीन अली और बदरुद्दीन हसन की कहानी सुनाना चाहता हूँ। यदि इससे आपका मनोरंजन हो तो उसके बदले में कृपया गुलाम को इतना बड़ा दंड देने का आदेश वापस ले लें। खलीफा ने कहानी सुनाने को कहा।
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नूरुद्दीन अली और बदरुद्दीन हसन

मंत्री जाफर ने कहा कि पहले जमाने में मिस्र देश में एक बड़ा प्रतापी और न्यायप्रिय बादशाह था। वह इतना शक्तिशाली था कि आस-पड़ोस के राजा उससे डरते थे। उसका मंत्री बड़ा शासन- कुशल, न्यायप्रिय और काव्य आदि कई कलाओं और विधाओं में पारंगत था। मंत्री के दो सुंदर पुत्र थे जो उसी की भाँति गुणवान थे। बड़े का नाम शम्सुद्दीन मुहम्मद था और छोटे का नूरुद्दीन अली। जब मंत्री का देहांत हुआ तो बादशाह ने उसके दोनों पुत्रों को बुला कर कहा कि तुम्हारे पिता के मरने से मुझे भी बड़ा दुख है, अब मैं तुम दोनों को उनकी जगह नियुक्त करता हूँ, तुम मिल कर मंत्रिपद सँभालो। दोनों ने सिर झुका कर उसका आदेश माना। एक मास पर्यंत अपने पिता का शोक करने के बाद दोनों राज दरबार में गए। दोनों मिल कर काम करते थे। जब बादशाह आखेट के लिए जाता तो बारी-बारी से हर एक को अपने साथ ले जाता तो और दूसरा राजधानी में रह कर शासन कार्य को देखता।

एक शाम को, जब दूसरी सुबह को बड़ा भाई बादशाह के साथ शिकार पर जानेवाला था, दोनों भाई आमोद-प्रमोद कर रहे थे। हँसी-हँसी में बड़े भाई ने कहा कि हम दोनों एक मत हो कर इतना बड़ा राज्य चलाते हैं, हम क्यों न ऐसा करें कि एक ही दिन संभ्रांत परिवारों की सुशील कन्याओं से विवाह करें, तुम्हारी क्या राय है? छोटे ने कहा कि मैं आपकी आज्ञा से बाहर नहीं हूँ, जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा।

दोनों को मद्यपान से नशा भी आ रहा था। बड़े भाई ने कहा, 'सिर्फ एक रात में शादी होना ही काफी नहीं है। हमारी पत्नियों को भी एक ही रात में गर्भ रहना चाहिए।' छोटे ने हँस कर कहा कि वह भी हो जाएगा। फिर बड़े ने कहा कि हमारी संतानें भी एक ही दिन जन्में और तुम्हारे यहाँ पुत्र हो मेरे यहाँ पुत्री हो। छोटे ने कहा, बहुत अच्छी बात है। बड़े ने कहा कि जब तुम्हारा बेटा और मेरी बेटी बड़े हो जाएँ उनका विवाह भी कर दिया जाए क्योंकि शुरू से साथ-साथ रहेंगे तो उन्हें एक-दूसरे से प्रेम हो ही जाएगा। छोटे भाई ने कहा, इससे अच्छी क्या बात हो सकती हैं कि मेरे बेटे के साथ आपकी बेटी की शादी हो।

बड़े ने कहा, 'लेकिन एक शर्त है। मैं शादी में तुम से दहेज भरपूर लूँगा। इसमें नौ हजार अशर्फियाँ नकद, तीन गाँव और दुल्हन की सेवा के लिए तीन दासियाँ। छोटे ने मजाक को बढ़ाते हुए कहा, 'यह आप कैसी बातें कर रहे हैं? हम दोनों की पदवी बराबर है। फिर लड़केवाला दहेज कहाँ देता है? वह तो दहेज लेता है। आपको चाहिए कि आप शादी में भरपूर दहेज मुझे दें, न कि मुझसे दहेज लें।'

यद्यापि मजाक ही हो रहा था किंतु बड़ा भाई अत्यंत क्रोधी स्वभाव का था। वह बिगड़ कर बोला, 'तुम समझते हो कि तुम्हारा बेटा मान-सम्मान में मेरी बेटी से अधिक होगा। मैं तो आशा करता था कि तुम मेरी बेटी की मान-प्रतिष्ठा करोगे, लेकिन मालूम होता है तुम उसका बड़ा अपमान करोगे।' दोनों भाई नशे में थे। यह बेकार बहस थी क्योंकि शादी किसी की नहीं हुई थी और संभावित पुत्र और पुत्री के विवाह के दहेज का झगड़ा हो रहा था। लेकिन बहस बढ़ती ही गई और हास-परिहास से गंभीर रूप ले बैठी।

अंत में बड़े ने कहा, 'सवेरा होने दे। मैं तुझे बादशाह के सामने ले जा कर दंड दिलाऊँगा, तब तुझे मालूम होगा कि बड़े भाई से गुस्ताखी करने का क्या फल होता है।' यह कह कर वह अपने शयन कक्ष में चला गया। छोटा भी अपने कमरे में आ कर अपने पलंग पर लेट गया। किंतु उसे रात भर नींद न आई। वह गुस्से में जलता-भुनता रहा और सोचता रहा कि यह भाई जो मजाक की बात पर भी इस तरह बात करता है कोई गंभीर बात पैदा होने पर क्या करेगा।

दूसरे दिन सुबह शम्सुद्दीन मुहम्मद तो बादशाह के साथ शिकार पर चला गया और इधर छोटे भाई ने बहुत-से रत्नाभूषण आदि एक मजबूत खच्चर पर लादे, बहुत-सा खाने-पीने का समान रखा और शहर छोड़ कर चल दिया। सेवकों से कह दिया कि दो-एक दिन के लिए जा रहा हूँ। वह अरब देश की राह पर चल पड़ा। बहुत दिन की कष्टप्रद यात्रा के बाद उसका खच्चर बीमार हुआ और मर गया। वह बेचारा अपना सामान कंधे पर रख कर पैदल ही चलने लगा। हसना नामी शहर से वह बसरा की ओर बढ़ रहा था कि उसे एक घुड़सवार उसी तरफ जाता हुआ मिला। घुड़सवार को उस पर दया आई और उसने नूरुद्दीन अली को अपने पीछे घोड़े पर बिठा लिया और बसरा तक पहुँचा दिया। बसरा पहुँच कर नूरुद्दीन अली ने उसे बहुत धन्यवाद दिया।

बसरा नगर में नूरुद्दीन अली ने देखा कि एक बड़ी सड़क पर भीड़ सड़क के दोनों ओर खड़ी हुई है। वह भी वहीं खड़ा हो गया। कुछ ही देर में एक अमीराना सवारी आई जिसके साथ बहुत से नौकर-चाकर थे। जिस भव्य व्यक्तित्ववाले आदमी की सवारी निकल रही थी उसे लोग झुक-झुक कर सलाम कर रहे थे। वह उस राज्य का मंत्री था। नूरुद्दीन अली के सलाम करने पर मंत्री ने उसे देखा और उसके विदेशी परिधान और उसके चेहरे पर उच्च वंशीयता की छाप देख कर उससे पूछा कि तुम कौन हो, कहाँ से आ रहे हो। नूरुद्दीन अली ने कहा, 'सरकार, मैं मिस्र देश के काहिरा नगर का निवासी हूँ। अपने संबंधियों से मेरा झगड़ा हो गया है इसीलिए देश-देश घूम रहा हूँ।' मंत्री ने कहा, 'इस यायावरी में तुम बहुत दुख उठाआगे। मेरे साथ चलो बड़े आराम से रहोगे।'

अतएव नूरुद्दीन अली मंत्री के साथ रहने लगा। मंत्री उसकी विद्या-बुद्धि देख कर बहुत प्रसन्न हुआ। एक दिन मंत्री ने एकांत में उससे कहा 'बेटे, अब मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ, अब मुझे अधिक दिनों तक जीने की आशा नहीं है। मेरी संतान केवल एक बेटी है जो बड़ी रूपवती है। वह अब विवाह योग्य है। कई सामंत और धनी-मानी व्यक्ति उससे विवाह करना चाहते हैं। किंतु मैंने यह स्वीकार नहीं किया। मुझे वह बेटी बहुत ही प्रिय है। मैं समझता हूँ कि वह तुम्हारे योग्य है। अगर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं तो मैं तुम्हारे साथ उसका विवाह बादशाह से अनुमति ले कर कर दूँ और साथ ही मंत्री पद के लिए तुम्हें अपना उत्तराधिकारी बनाऊँ और सारी संपत्ति भी तुम्हारे नाम कर दूँ।'

नूरुद्दीन अली ने कहा, 'मैं आपको अपना बुजुर्ग मानता हूँ, जो कुछ आपका आदेश होगा मैं वैसा ही करूँगा।' मंत्री ने उसकी स्वीकृति पाई तो बहुत खुश हुआ। उसने विवाह की तैयारियाँ शुरू कर दी और नगर निवासियों में से खास-खास लोगों को यह बात बताने के लिए बुलाया। जब सब लोग एकत्र हुए तो नूरुद्दीन अली ने अलग ले जा कर मंत्री से कहा, 'मैंने अपने कुटुंब के बारे में अभी तक किसी को कुछ नहीं बताया। अब यह बताता हूँ। मेरे पिता मिस्र के बादशाह के मंत्री थे।

'हम दो भाई हैं। दूसरा भाई मुझसे बड़ा है। मेरे पिता की मृत्यु के उपरांत बादशाह ने हम दोनों भाइयों को उनका कार्य भार दे दिया। हम कुछ समय तक शासन कार्य विधिपूर्वक करते रहे। एक दिन मेरी अपने बड़े भाई के साथ एक बात पर बहस हो गई। उसने मुझसे ऐसे कटु शब्द कहे कि मैंने देश छोड़ दिया।'

मंत्री ने जब यह वृत्तांत सुना तो और भी प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि यह तो बहुत अच्छी बात है कि यह भी मंत्री का बेटा निकला। उसने एकत्र हुए नागरिकों से कहा, 'मैं एक बात में आपकी सलाह लेना चाहता हूँ। मेरा एक भाई मिस्र के बादशाह का मंत्री है। उसके केवल एक पुत्र है। उसने मिस्र में अपने बेटे का विवाह न करना चाहा और उसे यहाँ मेरे पास भेज दिया ताकि मैं उसका विवाह करके उसे अपने पास रखूँ। आप क्या कहते हैं? सभी ने एक स्वर से कहा कि बहुत ही अच्छी बात है, भगवान वर-वधू को चिरायु करे। मंत्री ने सब लोगों को भोजन कराया और रस्मी तौर पर शादी की मिठाई बाँटी। काजी ने आ कर विवाह संपन्न किया। फिर सब लोग मंत्री के घर से विदा हो गए।

मंत्री ने सेवकों को आज्ञा दी कि नूरुद्दीन को स्नान कराओ। स्नान के बाद नूरुद्दीन अपने मामूली कपड़े ही पहनना चाहता था किंतु मंत्री के सेवकों ने उसे वे रत्नजड़ित मूल्यवान वस्त्र पहनाए जो मंत्री ने इस अवसर के लिए भेजे थे। उसके शरीर और वस्त्रों पर नाना प्रकार की सुगंध भी लगाई और उसका अन्य साज-श्रृंगार किया। फिर नूरुद्दीन अली अपने श्वसुर यानी मंत्री के पास गया। मंत्री उसे देख कर प्रसन्न हुआ, प्यार से उसे अपने पास बिठाया। फिर उसने पूछा, 'तुम मिस्र के मंत्री के बेटे हो। फिर भी तुमने परदेश में रहना पसंद किया। ऐसी क्या बात हो गई थी कि तुम दोनों भाइयों की ऐसी ठनी कि तुम्हें देश छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा। अब तुम मेरे दामाद हो। हम एक हो गए हैं। अब तुम्हें मुझसे कोई भेद छुपाना नहीं चाहिए। तुम साफ बताओ कि घर क्यों छोड़ा।'

नूरुद्दीन अली ने उसे सविस्तार बताया कि किस तरह हँसी हँसी में पैदा हुई एक बात कटु विवाद का रूप ले बैठी। मंत्री यह वृत्तांत सुन कर बहुत हँसा और बोला, 'सिर्फ इतनी-सी बात पर तुम अपने भाई से अलग हो गए और अपना देश छोड़ बैठे? बेकार बात थी कि तुम्हारा और तुम्हारे भाई का एक साथ विवाह होता, एक साथ संतानें होतीं; तुम्हारे यहाँ पुत्र और उसके यहाँ पुत्री होती और उनके विवाह में दहेज का प्रश्न उठता। लेकिन हाँ, तुम्हारे भाई की ज्यादती थी कि हँसी-हँसी में होनेवाली बात को खींच कर इतना कटु बना दिया। तुम्हारा देशत्याग समझदारी की बात तो नहीं थी किंतु मेरे सौभाग्य से यह सब हो गया। खैर, अब यहाँ समय न लगाओ। अपनी दुल्हन के पास जाओ। वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।' नूरुद्दीन अली उसकी आज्ञा मान कर अपनी पत्नी के पास चला गया।

इधर मिस्र में उस दिन की कहा-सुनी के एक महीने बाद जब बड़ा भाई शम्सुद्दीन मुहम्मद शिकार से वापस आया तो उसे सेवकों ने बताया कि उसका भाई दो दिन के लिए जाने को कह कर वापस नहीं लौटा। शम्सुद्दीन मुहम्मद को इस पर बड़ा खेद हुआ क्योंकि उसने समझ लिया कि नूरुद्दीन अली मेरे कटु वचनों से क्रु्द्ध हो कर किसी दिशा में निकल गया है। उसने चारों ओर उसकी तलाश में आदमी भिजवाए जो दमिश्क और हलब तक हो आए किंतु उसे न खोज सके क्योंकि वह तो बसरा में था। अंत में शम्सुद्दीन निराश हो कर बैठ रहा। उसने समझ लिया कि नूरुद्दीन जीवित नहीं है।

फिर शम्सुद्दीन मुहम्मद ने विवाह किया। संयोग से उसका विवाह उसी दिन और उसी समय पर हुआ जब नूरुद्दीन का विवाह बसरा में हो रहा था। इससे भी अजीब बात थी कि नौ महीनों के बाद एक ही दिन नूरुद्दीन अली के घर में पुत्र और शम्सुद्दीन मुहम्मद के यहाँ कन्या का जन्म हुआ। नूरुद्दीन के पुत्र का नाम बदरुद्दीन हसन रखा गया। बसरा का मंत्री नाती के जन्म पर बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने बहुत बड़ा समारोह किया और अच्छी तरह सेवकों को इनाम और फकीरों को भिक्षा दी। फिर कुछ दिन बाद वह नूरुद्दीन अली को शाही दरबार में ले गया और बादशाह से निवेदन किया कि मेरी जगह मेरे दामाद को मंत्री बना दीजिए। वह पहले भी कई बार उसे दरबार में ले गया था और बादशाह नूरुद्दीन की बुद्धि और चातुर्य से प्रभावित था। अतएव उसने बगैर किसी हिचक के नूरुद्दीन अली को अपना मंत्री बना दिया। पुराना मंत्री यानी नूरुद्दीन का ससुर यह देख कर अत्यंत प्रसन्न हुआ कि नूरुद्दीन अली में इतनी प्रबंध कुशलता है और वह ऐसी न्यायप्रियता और मृदुल स्वभाव से काम करता है कि राजा-प्रजा सभी का प्रिय हो गया है।

चार वर्षों के बाद अवकाश-प्राप्त मंत्री बीमार हो कर मर गया। नूरुद्दीन अली ने उसका बड़ा मातम किया और सारे मृतक संस्कार अच्छी तरह से किए। बदरुद्दीन हसन जब सात वर्ष का हुआ तो उसके पिता ने उसका विद्यारंभ कराया और बड़े-बड़े विद्वानों को उसका शिक्षक नियुक्त किया। बदरुद्दीन ऐसा कुशाग्रबुद्धि था कि कुछ ही समय में उसने पूरा कुरान कंठस्थ कर लिया। बारह बरस का हुआ तो उसने सारी प्रचलित विद्याएँ अच्छी तरह पढ़ लीं। वह अत्यंत सुंदर और सुशील भी था। जो भी उसे देखता उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाता था।

एक दिन नूरुद्दीन अली अपने पुत्र को राजदरबार में ले गया। बदरुद्दीन ने बादशाह को ऐसे विधिपूर्वक प्रणाम किया और उसके प्रश्नों का इतनी बुद्धिमानी से उत्तर दिया कि बादशाह बहुत खुश हुआ। उसने बदरुद्दीन को इनाम-इकराम भी दिया। नूरुद्दीन अपने पुत्र के प्रशिक्षण पर बहुत ध्यान दिया करता था और बराबर उसे ऐसी बातें सिखाता था जिससे बेटे को लाभ हो और वह संसार में उच्च पद के योग्य सिद्ध हो। इसी तरह कई वर्ष निकल गए।

फिर नूरुद्दीन बीमार पड़ गया। किसी इलाज से वह ठीक ही नहीं होता था और उसकी बीमारी बढ़ती चली जाती थी। अपना अंत समय आया देख कर उसने बदरुद्दीन को अपने निकट बुला कर उपदेश दिया, 'बेटे, यह जीवन नश्वर हे और संसार असार है। तुम मेरे मरने पर दुख न करना और भगवान की इच्छा समझ कर संतोष करना। हमारे खानदान के लोग ऐसा ही करते हैं और जिन अध्यापकों ने तुम्हें पढ़ाया है उनका भी यही कहना था। अब मैं जो कहता हूँ उसे ध्यान से सुनो।

'मुझे आशा है कि मैं जैसा कहूँगा वैसा ही तुम करोगे। मैं वास्तव में मिस्र देश का निवासी हूँ। मेरे पिता वहाँ के बादशाह के मंत्री थे। उनके मरने पर मैं और मेरा बड़ा भाई शम्सुद्दीन मुहम्मद दोनों मंत्री बना दिए गए। मेरा बड़ा भाई अब तक वहाँ का मंत्री है लेकिन मैं किसी कारण से यहाँ चला आया।' फिर उसने एक छोटे कलमदान से एक कागज निकाल कर बेटे को दिया और कहा, 'फुरसत से इसे पढ़ना। इसमें तुम्हें सारा हाल मिलेगा। मेरे विवाह और अपने जन्म की तिथियाँ भी तुम इसमें लिखी पाओगे।' यह कह कर नूरुद्दीन अली बेहोश हो गया।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

Post by Jemsbond »

बदरुद्दीन को पिता की मृत्यु निकट देख कर बड़ा रंज हुआ। वह रोने-पीटने लगा। लेकिन बदरुद्दीन को कुछ देर बाद होश आया। उसने बेटे से कहा, 'अब मैं कुछ देर ही का मेहमान हूँ। मैं इस अंतिम समय पर तुम्हें कुछ उपदेश कर रहा हूँ जिन्हें तुम हमेशा याद रखना। पहली बात तो यह कि किसी से बहुत घनिष्ठ मित्रता न करना न अपने भेद किसी से कहना। दूसरी यह कि किसी व्यक्ति पर अत्याचार न करना क्योंकि अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यह दुनिया लेन-देन की जगह है, जैसी भलाई-बुराई तुम करोगे वैसा ही तुम्हें बदला मिलेगा। तीसरी बात यह है कि कभी ऐसी बात मुँह से न निकालना जिससे तुम्हें बाद में लज्जित होना पड़े, और यह भी याद रखो कि बहुत बोलनेवाला आदमी हमेशा लज्जित होता है और जो कम बोलता है और सोच-समझ कर बोलता है उसे लज्जा नहीं उठानी पड़ती क्योंकि गंभीरता से आदमी का मान बढ़ता है और उसके प्राणों को भी खतरा नहीं होता और बकवासी आदमी ऊटपटाँग बातें करके मुसीबत उठाता है। चौथी बात यह है कि मद्यपान कभी न करना क्योंकि मदिरा बुद्धि को भ्रष्ट कर देती है। पाँचवीं बात यह है कि हाथ रोक कर खर्च करना और मितव्ययिता को हमेशा अपना सिद्धांत बनाए रखना। मतलब यह नहीं कि इतना कम खर्च करो कि लोग तुम्हें कंजूस कहने लगें लेकिन इतना खर्च न करना कि निर्धन हो जाओ। जो धनवान होता है उसे हजार दोस्त घेरे रहते हैं मगर जब पैसा नहीं रहता तो कोई बात भी नहीं पूछता।'

नूरुद्दीन अली इस प्रकार अपने पुत्र को जीवन के लिए उपयोगी बातें अपने अंतिम श्वास तक बताता रहा। जब वह मर गया तो बदरुद्दीन ने बड़े समारोहपूर्वक गमी की सारी रस्में कीं।

इतना कहने के बाद रानी शहजाद ने बादशाह शहरयार से कहा कि यहाँ तक कहानी सुन कर खलीफा हारूँ रशीद बहुत प्रसन्न हुआ इसलिए मंत्री जाफर ने कथा को आगे बढ़ाया। उसने कहा कि बदरुद्दीन ने, जिसे बसरा में जन्म लेने के कारण लोग बसराई कहने लगे थे, उस देश की रीति के अनुसार एक महीने तक घर में बैठ कर पिता की मृत्यु का मातम किया। इस पर बादशाह को आपत्ति ही क्या होती किंतु बदरुद्दीन को बाप के मरने का इतना शोक हुआ कि इसके बाद भी दरबार में न गया। जब दूसरा महीना भी बीत गया तो बादशाह को बड़ा क्रोध आया। उसने बदरुद्दीन हसन के बजाय दूसरे व्यक्ति को मंत्री नियुक्त कर दिया और एक दिन नए मंत्री को आज्ञा दी कि पुराने मंत्री की जमीन-जायदाद जब्त कर लो और बदरुद्दीन हसन को गिरफ्तार करके मेरे सामने लाओ।

नया मंत्री सिपाहियों की एक टुकड़ी ले कर बदरुद्दीन के घर की ओर चला। बदरुद्दीन के एक गुलाम ने यह देख लिया और वह दौड़ कर अपने स्वामी के निकट गया और उसके पाँवों पर गिर कर उसके वस्त्रों को चूम कर बोला कि आप तुरंत घर छोड़ दें। बदरुद्दीन ने पूछा कि आखिर बात क्या है। गुलाम ने कहा कि अधिक कुछ कहनेसुनने का अवसर नहीं है, बादशाह ने आपकी संपत्ति जब्त करने और आपको गिरफ्तार करने का आदेश दिया है और नया मंत्री राजमहल से सिपाही ले कर चल चुका है। बदरुद्दीन यह सुन कर घबरा गया और बोला कि मैं कुछ रत्न और रूपया-पैसा तो ले लूँ। गुलाम ने कहा कि कुछ न लीजिए, सिर्फ अपनी जान ले कर निकल जाइए क्योंकि मंत्री का किसी क्षण भी इस मकान में प्रवेश हो सकता है।

यह सुन कर बदरुद्दीन पैदल जा रहा था इसलिए उसके कब्रिस्तान पहुँचते-पहुँचते सूरज डूब गया। वह अपने पिता की उस लंबी-चौड़ी कब्र पर पहुँचा जहाँ वह दफन था। यह कब्र नूरुद्दीन ने अपने जीवन काल ही में अपने लिए बनवा ली थी।

वह कब्र पर जा कर बैठा ही था कि उसकी एक यहूदी व्यापारी से भेंट हुई। यहूदी ने बदरुद्दीन को पहचाना और कहा कि आप यहाँ रात में कैसे आए। बदरुद्दीन ने कहा कि मैंने स्वप्न में अपने पिता को देखा था जो नाराज हो कर मुझ से कह रहे थे कि तू मुझे बिल्कुल भूल गया और मुझे दफन करने के बाद मेरी कब्र पर भी नहीं आया इसीलिए मैं परेशान हो कर तुरंत ही घर से चल पड़ा और यहाँ पहुँच गया। इसीलिए मैंने कोई सेवक आदि भी अपने साथ नहीं लिया।

यहूदी को उसकी बात पर विश्वास न हुआ और वह समझ गया कि बदरुद्दीन पर कोई मुसीबत आई है। उसने कहा, 'आपको शायद नहीं मालूम कि आपके पिता ने व्यापार में भी पैसा लगाया था। कई जहाजों पर उनका हजारों दीनार का माल लदा हुआ है और वे जहाज व्यापार यात्राओं पर हैं। आपके पिता मुझ पर बड़े कृपालु थे और मैं अपने को उनका सेवक समझता था। अब उस माल के मालिक आप हैं। चाहें तो अपने पहले जहाज के माल को मेरे हाथ बेच दें मैं उसे छह हजार मुद्राओं से खरीदने के लिए तैयार हूँ।'

बदरुद्दीन के पास तो कानी कौड़ी न थी। उसने इन मुद्राओं को भगवान की देन समझा और सौदा मंजूर कर लिया। यहूदी ने कहा 'अच्छी तरह सोच लीजिए, छह हजार मुद्राएँ दे कर मैं आपके पहले जहाज के माल का स्वामी हो जाऊँगा चाहे माल कितने ही का हो। क्या आप यह सौदा पूरी रजामंदी से कर रहे हैं?' बदरुद्दीन ने कहा, हाँ मैं पूरी रजामंदी से माल बेच रहा हूँ। यहूदी ने कहा, 'मालिक, मैं आपके ऊपर पूरा विश्वास करता हूँ किंतु दूसरों को दिखाने के लिए जरूरी है कि आप यह क्रय पत्र लिखित रूप में मुझे दें।' यह कह कर उसने कमर से बँधा हुआ कलमदान निकाला। बदरुद्दीन ने लिख कर दे दिया,' मैं बसरा पहुँचनेवाले अपने पहले जहाज का माल इसहाक यहूदी के हाथ छह हजार मुद्राओं में बेचता हूँ।' यह लिख कर नीचे हस्ताक्षर कर दिए। यहूदी ने वह कागज लिया और बदरुद्दीन को छह हजार मुद्राओं की थैली दे कर चला गया।

बदरुद्दीन अब अपने पिता की कब्र से लिपट कर अपने दुर्भाग्य पर रोने लगा और बहुत देर तक रोता रहा। यहाँ तक कि रोते-रोते सो गया। इसी अरसे में एक जिन्न उधर घूमता-फिरता आ निकला। बदरुद्दीन का सुंदर रूप देख कर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने इतना सुंदर कोई मनुष्य नहीं देखा था। उसे देर तक देखने के बाद वह आकाश में पहुँचा। परी से उससे कहा कि 'जमीन पर मेरे साथ चलो। मैं वहाँ पर एक कब्रिस्तान में एक कब्र पर रोता हुआ ऐसा आदमी दिखाऊँगा जिसकी सुंदरता पर तुम भी मोहित हो जाओगी।' परी ने स्वीकार किया। दोनों जमीन पर आए और जिन्न ने सोते हुए बदरुद्दीन की ओर उँगली उठा कर कहा, 'ऐसा सुंदर मनुष्य कहीं देखा है?'

परी ने बदरूद्दीन को गौर से देखा और बोली, 'वास्तव में यह अत्यंत रूपवान है किंतु मैं काहिरा में जो मिस्र की राजधानी है एक विचित्र बात देख कर आई हूँ। यदि तुम उसे जानना चाहो तो बताऊँ।' जिन्न ने कहा, जरूर बताओ। परी बोली, मिस्र के बादशाह का एक मंत्री है जिसका नाम शम्सुद्दीन मुहम्मद है। उसकी एक बीस बरस की पुत्री है जो अतीव सुंदरी है। बादशाह ने उसके रूप की प्रशंसा सुन कर मंत्री से कहा कि उस कन्या का विवाह मेरे साथ कर दो।

मंत्री ने हाथ जोड़ कर कहा कि महाराज, मुझे इस अनुग्रह से क्षमा करें। कारण पूछने पर उसने कहा कि मेरा छोटा भाई नूरुद्दीन अली भी मेरे साथ आपका मंत्री था, वह बहुत दिन हुए घर छोड़ कर चला गया। सुना है कि वह बसरा का मंत्री हो गया था। और अब जीवित भी नहीं है। लेकिन उसके यहाँ एक बेटा हुआ था जो अब भी होगा। फिर मंत्री ने बादशाह को एक तकरार बताई जो उसके और उसके भाई के बीच हुई थी और कहा कि चूँकि मैंने भाई को वचन दे दिया था कि अपनी पुत्री का विवाह उसके पुत्र के साथ करूँगा इसलिए मैं मजबूर हँ और आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकूँगा। आपके लिए तो काहिरा में अमीरों की अनगिनत सुंदरी कन्याएँ हैं, जिससे चाहे विवाह करें।

बादशाह मंत्री की बात सुन कर अत्यंत क्रुद्ध हुआ। उसने कहा कि तुम मुझे इतना छोटा समझते हो कि मेरे साथ रिश्तेदारी भी न करो, मैं तुम्हें इस गुस्ताखी की ऐसी सजा दूँगा कि तुम्हें हमेशा याद रहे। अब तुम्हारी कन्या एक बदसूरत गुलाम से ब्याही जाएगी। यह कह कर बादशाह ने घुड़साल में काम करनेवाले एक महाकुरूप कुबड़े हब्शी गुलाम को दूल्हे की तरह सजाने का आदेश दिया। इस गुलाम का पेट भी बहुत बड़ा था और पाँव भी टेढ़े थे। उसने मंत्री से कहा कि जाओ, अपनी पुत्री के उस गुलाम के साथ विवाह करने की तैयारी करो।

मंत्री बेचारा अत्यंत दुखी मन से अपने भवन में आया। बादशाह की आज्ञा टाली नहीं जा सकती थी इसलिए उसने विवाह की तैयारियों का आदेश दिया। रात को काहिरा में गुलामों ने बरात सजाई और कुबड़े गुलाम को हम्‍माम में भेजा और खुद हम्माम के द्वार पर एकत्र हो गए। कुबड़े और बदसूरत गुलाम को नहला-धुला कर अच्‍छे कपड़े पहनाए गए। उसी समय जिन्‍न से परी ने कहा, 'कुरूप गुलाम को शादी के कपड़े पहनाए गए हैं और इस समय उसका दूल्‍हे की तरह श्रृंगार किया जा रहा है। कितने दुख की बात है कि मंत्री की इतनी सुंदर कन्‍या इतने कुरूप गुलाम की पत्‍नी बने।'

यह सुन कर जिन्‍न बोला, 'अगर हम लोग कुछ ऐसा करें कि उस कन्‍या का विवाह इस सुंदर युवक से हो जाए तो कैसा रहे?' परी ने कहा, 'मैं तो दिल से चाहती हूँ कि कुछ ऐसा किया जाए कि बादशाह का अन्‍याय घटित न हो सके, गुलाम को धोखा दे कर उसकी जगह इस युवक को बिठा दिया जाए। इससे बादशाह को भी उनके अनुचित क्रोध का फल मिल जाएगा और मंत्री और उसकी पुत्री का भी गुलाम के साथ रिश्‍तेदारी करने के अपमान से बचाव हो जाएगा।'

जिन्‍न ने परी से कहा कि अगर तुम मेरी सहायता करो तो यह काम हो सकता है। मैं इसके जागने के पहिले ही इसे उठा कर काहिरा में पहुँचा दूँगा। चुनाँचे जिन्‍न और परी एक क्षण ही में बदरुद्दीन हसन को उठा कर काहिरा में हम्‍माम के पास ले गए।

बदरुद्दीन की आँख खुली तो वह स्‍वयं को नई जगह पा कर बहुत घबराया और चीत्‍कार करने ही वाला था कि जिन्‍न ने उसके कंधे पर हाथ रख कर उससे चुप रहने के लिए कहा। फिर उसे समझाया, 'मैं तुम्‍हें एक मशाल देता हूँ, उसे ले कर शादी के जुलूस में सम्मिलित हो जाओ, मंत्री के मकान में निडर हो कर चले जाओ और अंदर जा कर कुबड़े के दाहिनी ओर बैठ जाना, इसके पहले गाने-बजानेवालों को जो बरात के साथ होंगे खूब इनाम देना और अंदर जा कर दुल्हन की बंदियों को भी मुट्ठी भर कर सिक्‍के देना, यह खयाल मत करना कि तुम्‍हारी थैली खाली हो जाएगी। तुम किसी से न डरना और मेरे बताए पर काम करते जाना।'

अतएव बदरुद्दीन मशाल ले कर भीड़ में शामिल हो गया। कुछ देर में दूल्‍हा बना गुलाम भी हम्‍माम से बाहर निकला और शाही घोड़े पर बैठ कर दुल्‍हन के घर की ओर चला। बदरुद्दीन ने गाने-बजानेवालों को मुट्ठी भर-भर कर रुपए दिए, वे इससे बड़े प्रसन्‍न हुए। बरात मंत्री के द्वार पर पहुँची तो द्वारपाल ने बरातियों को बाहर रोक दिया। गाने-बजानेवालों को तो अंदर जाना ही था, उन्‍होंने इस खुले हाथवाले बराती यानी बदरुद्दीन के भी अंदर जाने की अनुमति द्वारपाल से लड़ झगड़ कर दिलवा दी और कहा कि यह गुलाम नहीं, उच्‍च वर्ग का परदेशी है। उन्‍होंने उसके हाथ से मशाल भी ले ली और उसे दूल्‍हे की दाहिनी ओर बिठा दिया, दूल्‍हे की बाईं ओर दुल्हन बैठी थी। दुल्‍हन यद्यपि अतीव सुंदरी थी किंतु कुरूप गुलाम से ब्याही जाने पर अत्‍यधिक शोक संतप्‍त और मुरझाई हुई थी।

कुछ क्षण में दुल्हन की बाँदियाँ हाथ में मशालें ले कर आईं। उनके साथ काहिरा की अन्‍य स्त्रियाँ भी थीं। वे सब कहने लगीं कि इस कुबड़े की तरफ देखा भी नहीं जाता, हम लोग तो अपनी सुंदरी दुल्‍हन का हाथ इस सजीले जवान को देंगे जो उसके पास बैठा है। उन्‍होंने इस बात का भी खयाल न किया कि बादशाह की आज्ञा से गुलाम का विवाह हो रहा है और ऐसी बातें करने पर उन्‍हें दंड मिल सकता है। उन्‍होंने ऐसा शोरगुल किया कि गाने-बजाने की आवाजें तक दब गईं।

कुछ देर में फिर गाना-बजाना शुरू हो गया। रात भर यह राग-रंग चलता रहा। डोमिनियों ने सात प्रकार के राग गाए और प्रत्‍येक राग पर दुल्‍हन को एक नया जोड़ा पहनाया गया। जोड़े बदलने के बाद दुल्‍हन ने गुलाम को घृणापूर्वक देखा और उसके पास से उठ कर अपनी सहेलियों के साथ बदरुद्दीन के समीप जा बैठी। बदरुद्दीन ने जिन्‍न के आदेशानुसार बाँदियों आदि को मुट्ठी भर-भर इनाम देना शुरू किया और मुट्ठी भर-भर सिक्‍के उछालने भी शुरू किए। स्त्रियाँ एक-दूसरे से लड़-झगड़ कर सिक्‍के उठाने लगीं और बदरुद्दीन की ओर प्रशंसा के भाव से देखने लगीं और उसे आर्शीवाद देने लगीं। वे एक-दूसरे को इशारे से बता रही थीं कि यह सुंदर युवक ही दुल्हन के लायक है, यह कुबड़ा गुलाम उसके लायक नहीं है।

महल के अन्‍य सेवकों में भी यह बात होने लगी। कुबड़े की कान में कुछ तो भनक पड़ी किंतु वह साफ न सुन सका क्‍योंकि गाने-बजाने की आवाज भी ऊँची थी और सामने तरह-तरह के तमाशे भी हो रहे थे। दुल्‍हन जब सारे जोड़े बदल चुकी तो गाना-बजाना बंद हो गया। अब सेवकों ने बदरुद्दीन को उठने का इशारा किया। वह उठ कर खड़ा हो गया। अब सारे लोग उस कक्ष से बाहर चले गए और दुल्हन भी अपनी सहेलियों के साथ अपने भवन चली गई। वहाँ उसे सेविकाओं ने सोने के समय के कपड़े पहना दिए। इस कक्ष में गुलाम और बदरुद्दीन ही रह गए।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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