अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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Jemsbond
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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किस्सा काले द्वीपों के बादशाह का

उस जवान ने अपना वृत्तांत कहना आरंभ किया। उसने कहा 'मेरे पिता का नाम महमूद शाह था। वह काले द्वीपों का अधिपति था, वे काले द्वीप चार विख्यात पर्वत हैं। उसकी राजधानी उसी स्थान पर थी जहाँ वह रंगीन मछलियों वाला तालाब है। मैं आपको ब्योरेवार सारी कहानी बता रहा हूँ जिससे आपको सारा हाल मालूम हो जाएगा। जब मेरा पिता सत्तर वर्ष का हुआ तो उसका देहांत हो गया और उसकी जगह मैं राजसिंहासन पर बैठा। मैंने अपने चाचा की बेटी के साथ विवाह किया। मैं उसे बहुत चाहता था और वह भी मुझे बहुत चाहती थी।

'पाँच वर्ष तक हम लोग सुखपूर्वक रहे फिर मुझे आभास हुआ कि उसका मेरे प्रति पहले जैसा प्रेम नहीं है। एक दिन दोपहर के भोजन के पश्चात वह स्नानगृह को गई और मैं अपने शयन कक्ष में लेटा रहा। दो दासियाँ जो रानी को पंखा झला करती थीं मेरे सिरहाने-पैंतानें बैठ गईं और मुझे आराम देने के लिए पंखा झलने लगीं। वे मुझे सोता जान कर धीमे-धीमे बातचीत करने लगीं। मैं सोया नहीं था किंतु उनकी बातें सुनने के लिए सोने का बहाना करने लगा। एक दासी बोली कि हमारी रानी बड़ी दुष्ट है कि ऐसे सुंदर और सुशील पति को प्यार नहीं करती। दूसरी बोली तू ठीक कहती है; रात में बादशाह को अकेला सोता छोड़ कर रानी न जाने कहाँ जाती हैं और बेचारे बादशाह को कुछ पता नहीं चलता। पहली ने कहा यह बेचारा जाने भी कैसे, रानी रोज रात को उसके शर्बत में कोई नशा मिलाकर उसे दे देती है, यह नशे से बिल्कुल बेहोश हो जाता है और रानी जहाँ चाहती है चली जाती है और प्रातः काल के कुछ पहले आकर इसे होश में लाने की सुगंधि सुँघा देती है।

'मेरे बुजुर्ग दोस्त, मुझे यह सुनकर इतना दुख हुआ कि उसे वर्णन करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। उस समय मैंने अपने क्रोध को सँभालना उचित समझा और, कुछ देर में इस तरह अँगड़ाइयाँ लेता हुआ उठा जैसे सचमुच सो रहा था। कुछ देर में रानी भी स्नान करके वापस आ गई। उस रात को भोजन के उपरांत में शयन करने के लिए लेटा तो रानी हमेशा की तरह मेरे लिए शर्बत का प्याला लाई। मैंने प्याला ले लिया और उसकी आँख बचा कर खिड़की से बाहर फेंक दिया और खाली प्याला उसके हाथ में ऐसे दे दिया जैसे कि मैंने पूरा शर्बत पी लिया है। फिर हम दोनों पलँग पर लेट गए। रानी ने मुझे सोता समझ कर पलँग से उठकर एक मंत्र जोर से पढ़ा और मेरी तरफ मुँह फेर कर कहा कि तू ऐसा सो कि कभी न जागे।

'फिर वह भड़कीले वस्त्र पहन कर कमरे से निकल गई। मैं भी पलँग से उठा और तलवार लेकर उसका पीछा करने लगा। वह मेरे केवल थोड़ा ही आगे थी और उसकी पग ध्वनि मुझे सुनाई दे रही थी। लेकिन मैं ऐसे धीरे-धीरे पाँव रख कर उसके पीछे-पीछे चल रहा था कि उसे मेरे आने का कोई आभास न मिले। वह कई द्वारों से होकर निकली। उन सभी में ताला लगे थे किंतु उसकी मंत्र-शक्ति से सभी ताले खुलते जा रहे थे। आखिरी दरवाजे से निकलकर जब वह बाग में गई तो मैं दरवाजे के पीछे छुप कर देखने लगा कि क्या करती है। वह बाग से आगे बढ़कर एक छोटे से वन के अंदर चली गई जो चारों ओर झाड़ियों से घिरा हुआ था। मैं भी एक अन्य मार्ग से होकर उस वन के अंदर चला गया और इधर-उधर आँखें घुमाकर उसे ढूँढ़ने लगा।

'कुछ देर में मैंने देखा कि वह एक पुरुष के साथ, जो हब्शी गुलाम लग रहा था, हाथ में हाथ दिए टहल रही है और शिकायत कर रही है कि मैं तो तुम्हें प्राणप्रण से प्रेम करती हूँ और रात-दिन तुम्हारे ही ध्यान में मग्न रहती हूँ और तुम्हारा यह हाल है कि मुझसे सीधे मुँह बात नहीं करते, हमेशा मुझे बुरा-भला कहा करते हो। आखिर तुम क्या चाहते हो? क्या तुम मेरे प्रेम की परीक्षा लेना चाहते हो? तुम मेरी शक्ति जानते हो। मेरे अंदर इतनी शक्ति है कि कहो तो सूर्योदय के पहले ही इन सारे महलों को भूमिगत कर दूँ और यह सारा ठाट-बाट बिल्कुल वीरान कर दूँ और यहाँ भेड़िये और उल्लुओं के अलावा कोई नहीं दिखाई दे और जो पत्थर यहाँ महलों में लगे हैं वह काफ पर्वत पर वापस उड़कर चले जाएँ। इतनी शक्ति रखते हुए भी मैं प्रेम के कारण तुम्हारे पैरों पर गिरी रहती हूँ और तुम्हें मेरी परवा ही नहीं।

'रानी यह बातें करती हुई अपने हब्शी प्रेमी के हाथ में हाथ दिए टहलती आ रही थी। जब वे लोग उस झाड़ी के पास पहुँचे जहाँ मैं छुपा हुआ था तो मैंने बाहर निकल कर हब्शी की गर्दन पर पूरे जोर से तलवार का वार किया। वह लड़खड़ा कर गिर गया। मैंने समझा कि वह मर गया और मैं अँधेरे में वहाँ से खिसक गया। मैंने रानी को छोड़ दिया क्योंकि वह मुझे प्यारी भी थी और मेरे चचा की बेटी भी। रानी अपने प्रेमी को गिरता देख कर विह्वल हो गई। उसने मंत्र बल से अपने प्रेमी को स्वस्थ करना चाहा किंतु वह केवल उसे मरने से बचा सकी। उस हब्शी की हालत ऐसी हो गई थी कि उसे न जीवित कहा जा सकता था न मृत। मैं धीरे-धीरे महल को लौटा। लौटते समय भी मैंने सुना कि रानी अपने प्रेमी के घायल होने पर करुण क्रंदन कर रही है। मैं उसे उसी तरह रोता-पीटता छोड़कर अपने शयन कक्ष में आया और पलँग पर लेट कर सो रहा।

'प्रातःकाल जागने पर मैंने रानी को फिर अपनी बगल में सोता पाया। यह स्पष्ट था कि वह वास्तव में सो नहीं रही थी केवल सोने का बहाना कर रही थी। मैं उसे यूँ ही छोड़ कर उठ खड़ा हुआ मैं अपने नित्य कर्मों को पूरा करके राजसी वस्त्र पहन कर अपने दरबार को चला गया। जब दिन भर राजकाज निबटाने के बाद मैं अपने महल में आया कि रानी ने शोक संताप सूचक काले वस्त्र पहन रखे हैं और बाल बिखराए हुए हैं और उन्हें नोच रही है। मैंने उससे पूछा कि यह तुम कैसा व्यवहार कर रही हो, यह संताप प्रदर्शन किस कारण है। वह बोली बादशाह सलामत, मुझे क्षमा करें मैंने आज तीन शोक समाचार पाए हैं इसीलिए काले कपड़े पहन मातम कर रही हूँ। मैंने पूछा कि वे कौन से समाचार हैं तो उसने बताया कि मेरी माता का देहांत हो गया, मेरे पिताजी एक युद्ध में मारे गए और मेरा भाई ऊँचाई से गिर कर मर गया। मैंने कहा समाचार बुरे हैं लेकिन तुम्हारे इस प्रकार मातम करने के लायक नहीं हैं, फिर भी वे तुम्हारे संबंधी थे और तुम्हें उनकी मृत्यु का शोक होना ही चाहिए।

'इसके बाद वह अपने कमरे में चली गई और मुझसे अलग होकर उसी प्रकार रोती-पीटती रही मैं उसके दुख का कारण जानता था इसलिए मैंने उसे समझाने बुझाने की चेष्ट भी न की। एक वर्ष तक यही हाल रहा। फिर उसने कहा कि मुझसे दुख नहीं सँभलता, मैं एक मकबरा बनवाकर उसमें रात दिन रहना चाहती हूँ। मैंने उसे ऐसा करने की भी अनुमति दे दी। उसने एक बड़ा भारी गुंबद वाली मकबरे जैसी इमारत बनवाई जो यहाँ से दिखाई देती है और उसका नाम शोकागार रखा। जब वह गृह बन चुका तो उसने अपने घायल प्रेमी हब्शी को वहाँ लाकर रखा और स्वयं भी वहाँ रहने लगी। वह दिन में उसे एक बार कोई औषधि खिलाती थी और जादू-मंत्र भी करती थी। फिर भी उसे ऐसा प्राणघातक घाव लगा था कि औषधि और मंत्रों के बल पर उसके केवल प्राण अटके हुए थे। वह न चल पाता था, न बोल पाता था, सिर्फ रानी की ओर टुक-टुक देखा करता था।

'रानी के प्रेम को जीवित रखने के लिए इतना ही यथेष्ट था। वह उससे घंटों प्रेम की बातें करके अपने चित्त को सांत्वना दिया करती थी। दिन में दो बार उसके समीप जाती थी और देर तक उसके पास बैठी रहती थी। मैं जानता था कि वह क्या करती है फिर भी सारे कार्य कलाप ऐसे साधारण रूप से करता रहा जैसे मुझे कोई बात विदित नहीं है। किंतु एक दिन मैं अपनी उत्सुकता नहीं रोक सका और मैंने जानना चाहा कि वह अपने प्रेमी के साथ क्या करती है। मैं उस मकबरे में ऐसी जगह छुप कर बैठ गया जहाँ से रानी और उसके प्रेमी की सारी बातें दिखाई-सुनाई दें लेकिन उनमें से कोई मुझे न देख सके।

'रानी अपने प्रेमी से कहने लगी कि इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि मैं तुम्हें ऐसी विवशता की अवस्था में देखती हूँ। तुम सच मानो, तुम्हारी दशा देखकर मुझे इतना कष्ट होता है कि जितना स्वयं तुम्हें भी नहीं होता होगा। मेरे प्राण, मेरे जीवनधार, मैं तुम्हारे सामने घंटों बैठी बातें करती हूँ और तुम मेरी एक बात का भी उत्तर नहीं देते। अगर तुम मुझसे एक बात भी करो तो मेरे चित्त को बड़ा धैर्य मिले बल्कि मुझे बड़ी प्रसन्नता हो। खैर, मैं तो तुम्हें देखकर ही धैर्य धारण किए रहती हूँ।

'रानी इसी प्रकार अपने प्रेमी के सम्मुख बैठ कर प्रलाप करती रही। मुझ मूर्ख से अपने रानी की यह दशा न देखी गई और उसका प्रेम मेरे हृदय में फिर उमड़ आया। मैं चुपचाप अपने महल में आ गया। कुछ देर में वह किसी काम से महल में आई तो मैंने कहा कि अब तुम ने अपने सगे संबंधियों के प्रति बहुत शोक व्यक्त कर लिया, अब साधारण रूप से रानी जैसा जीवन बिताओ। वह रोकर कहने लगी कि बादशाह सलामत मुझसे यह करने के लिए न कहें। मैं उसे जितना समझाता-बुझाता था उतना ही उसका रोना-पीटना बढ़ता जाता था। मैंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया।

'वह इसी अवस्था में दो वर्ष और रही। मैं एक बार फिर शोकागार में गया कि रानी और हब्शी का हाल देखूँ। मैं फिर छुप कर बैठ गया और सुनने लगा। रानी कह रही थी कि प्यारे, अब तो दो वर्ष बीत गए हैं और तीसरा वर्ष लग गया है तुमने मुझसे एक बात भी नहीं की। मेरे रोने-चिल्लाने और विलाप करने का तुम्हारे हृदय पर कोई प्रभाव नहीं होता। जान पड़ता है कि तुम मुझे बात करने के योग्य नहीं समझते। इसीलिए तुम अब मुझे देखकर आँखें भी बंद कर लेते हो। मेरे प्राणप्रिय, एक बार आँखें खोल कर मुझे देखो तो। मैं तुम्हारे प्रेम में कितनी विह्वल हो रही हूँ।

'रानी की यह बातें सुनकर मेरे तन बदन में आग लग गई। मैं उस मकबरे से बाहर निकल आया और गुंबद की तरफ मुँह करके कहा ओ गुंबद तू इस स्त्री और उसे प्रेमी को जो मनुष्य रूपी राक्षस है निगल क्यों नहीं जाता। मेरी आवाज सुनकर मेरी रानी जो अपने हब्शी प्रेमी के पास बैठी थी क्रोधांध हो कर निकल आई और मेरे समीप आकर बोली अभागे दुष्ट तेरे कारण ही मुझे वर्षों से शोक ने जकड़ रखा है, तेरे ही कारण मेरे प्रिय की ऐसी दयनीय दशा हो गई है और वह इतनी लंबी अवधि से घायल पड़ा है। मैंने कहा हाँ मैंने ही इस कुकर्मी राक्षस को मारा है, यह इसी योग्य था और तू भी इस योग्य नहीं कि जीवित रहे क्योंकि तूने मेरी सारी इज्जत मिट्टी में मिला दी है।

'यह कहकर मैंने तलवार खींच ली और चाहा कि रानी की हत्या कर दूँ किंतु उसने कुछ ऐसा जादू किया कि मेरा हाथ उठ ही न सका। फिर उसने धीरे-धीरे कोई मंत्र पढ़ना आरंभ किया जिसे मैं बिल्कुल न समझ पाया। मंत्र पढ़ने के बाद वह बोली अब मेरे मंत्र की शक्ति देख, मैं आज्ञा देती हूँ कि तू कमर से ऊपर जीवित मनुष्य रह और कमर से नीचे पत्थर बन जा। उसके यह कहते ही मैं वैसा ही बन गया जैसा उसने कहा था अर्थात मैं न जीवित लोगों में रहा न मृतकों में। फिर उसने शोकागार से उठवाकर मुझे इस जगह लाकर रख दिया। उसने मेरे नगर को तालाब बना दिया और वहाँ एक भी मनुष्य नहीं रहने दिया। मेरे सभी दरबारी, प्रजाजन मेरे प्रति निष्ठा रखते थे अतएव उसने उन सबको अपने जादू से मछलियों में बदल दिया। इन में जो सफेद रंग की मछलियाँ हैं वे मुसलमान हैं, लाल रंग वाली अग्निपूजक, काली मछलियाँ ईसाई और पीले रंग वाली यहूदी हैं।

'मैं जिन चार काले द्वीपों का नरेश था उन्हें उस स्त्री ने चार पहाड़ियाँ बनाकर तालाब के चारों ओर स्थापित कर दिया। मेरे देश को उजाड़ और मुझे आधा पत्थर का बनाकर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ। वह यहाँ रोज आती है और मेरे कंधों और पीठ पर सौ कोड़े इतने जोर से मारती है कि हर चोट पर मेरे खून छलछला आता है। फिर वह बकरी के बालों की बनी एक खुरदरी काली कमली मेरे कंधों की ओर पीठ पर डालती है और उसके ऊपर सोने की तारकशी वाला भारी लबादा डालती है। यह वस्त्र वह मेरे सम्मान के लिए नहीं बल्कि मुझे पीड़ा पहुँचाने के लिए करती है और मेरा मजाक उड़ाकर कहती है कि दुष्ट तू तो चार-चार द्वीपों का बादशाह है फिर अपने को इस अपमान और दुर्दशा से क्यों नहीं बचाता।'

शहरजाद ने कहानी जारी रखते हुए कहा कि इतना वृत्तांत बताने के बाद काले द्वीपों के बादशाह ने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए और बोला, 'हे सर्वशक्तिमान परमात्मा, हे समस्त विश्व के सिरजन हार, यदि तेरी प्रसन्नता इसी में है कि मुझ पर इसी प्रकार अन्याय और अत्याचार हुआ करे तो मैं इस बात को भी प्रसन्नता से सहूँगा। मैं हर हालत में तुझे धन्यवाद दूँगा। मुझे तेरी दयालुता और न्याय प्रियता से पूर्ण आशा है कि तू एक न एक दिन मुझे इस दारुण दुख से अवश्य छुड़ाएगा।

वहाँ आने वाले खोजकर्ता बादशाह ने जब यह सारी कहानी सुनी तो उसे बड़ा दुख हुआ और वह विचार करने लगा कि इस निर्दोष जवाब बादशाह का दुख कैसे दूर किया जाए और उसकी कुलटा रानी को कैसे दंड दिया जाए। उसने उससे पूछा कि तुम्हारी निर्लज्ज रानी कहाँ रहती है और उसका अभागा प्रेमी जिसके पास वह रोज जाती है किस स्थान पर पड़ा हुआ है। जवान बादशाह ने उससे कहा कि मैंने आपको पहले ही बताया था कि वह उस शोकागार में रखा गया है जिस पर एक गुंबद बना हुआ है। उस शोकागार को एक रास्ता इस कमरे से नीचे होकर भी है जहाँ इस समय हम लोग हैं। वह जादूगरनी कहाँ रहती है यह बात मुझे ज्ञात नहीं है, किंतु प्रति दिवस प्रातः काल वह मेरे पास मुझे दंड देने के लिए आती है और मेरी मारपीट करने के बाद फिर अपने प्रेमी के पास जाकर उसे कोई अरक पिलाती है जिससे वह जीवित बना रहता है।

आगंतुक बादशाह ने कहा कि वास्तव में तुमसे अधिक दया योग्य व्यक्ति नहीं होगा, तुम्हारा जीवन वृत्त तो ऐसा है कि इसे इतिहास में लिख कर अमिट कर दिया जाए। तुम अधिक चिंता न करो। मैं तुम्हारे दुख के निवारण का भरसक प्रयत्न करूँगा। इसके बाद आगंतुक बादशाह उसी कक्ष में सो रहा। क्योंकि रात का समय हो गया था। बेचारा काले द्वीपों का बादशाह उसी प्रकार बैठा रहा और जागता रहा। स्त्री के जादू ने उसे लेटने और सोने के योग्य ही नहीं रखा था।

दूसरे दिन तड़के ही आगंतुक बादशाह गुप्त मार्ग से शोकागार में प्रविष्ट हो गया। शोकागार में सैकड़ों स्वर्ण दीपक जल रहे थे और वह ऐसा सजा हुआ था कि बादशाह को अत्यंत आश्चर्य हुआ। फिर वह उस स्थान पर गया जहाँ घायल अवस्था में रानी का हब्शी प्रेमी पड़ा हुआ था। वहाँ जाकर उसने तलवार का ऐसा हाथ मारा कि वह अधमरा आदमी तुरंत मर गया। बादशाह ने उसका शव घसीट कर पिछवाड़े बने हुए एक कुएँ में डाल दिया और शोकागार में वापस आकर नंगी तलवार अपने पास छुपाकर उस हब्शी की जगह खुद लेटा रहा ताकि रानी के आने पर उसे मार सके।

थोड़ी देर में जादूगरनी उसी भवन में पहुँची जहाँ काले द्वीपों का बादशाह पड़ा हुआ था। उसने उसे इस बेदर्दी से मारना शुरू किया कि सारी इमारतें उसकी चीख पुकार और आर्तनाद से गूँजने लगीं। वह चिल्ला-चिल्ला कर हाथ रोकने और दया करने की प्रार्थना करता रहा किंतु वह दुष्ट उसे बगैर सौ कोड़े मारे न रही। इसके बाद सदा की भाँति उस पर खुरदरी कमली और उसके उपर जरी का भारी लबादा डाल कर शोकागार में आई और बादशाह के सन्मुख, जिसे वह अपना प्रेमी समझी थी, बैठकर विरह व्यथा कहने लगी।

वह बोली, 'प्रियतम मैं कितनी अभागी हूँ कि तुझे प्राणप्रण से चाहती हूँ और तू है मुझ से तनिक भी प्रेम नहीं करता। मेरा दिन रात चैन हराम है। तू अपने कष्टों का कारण मुझे ही समझा करता है।

यद्यपि मैंने तेरे लिए अपने पति पर कैसा अत्याचार और अन्याय किया है। फिर भी मेरा क्रोध शांत नहीं हुआ है और मैं चाहती हूँ कि उसे और कठोर दंड दूँ क्योंकि उसी अभागे ने तेरी ऐसी दशा की है। लेकिन तू तो मुझसे कुछ कहता ही नहीं, हमेशा होठ सिए रहता है। शायद तू चाहता है कि अपनी चुप्पी से ही मुझे इतना व्यथित कर दे कि मैं तड़प कर मर जाऊँ। भगवान के लिए अधिक नहीं तो एक बात तो मुझसे कर ले कि मेरे दुखी मन को सांत्वना मिले।'

बादशाह ने उनींदे स्वर में कहा, 'लाहौल बला कुव्वत इला बिल्ला वहेल वि अली वल अजीम (सर्वोच्च और महान परमात्मा के अलावा कोई न शक्तिमान है न डरने योग्य) बादशाह ने घृणा पूर्वक यह आयत पढ़ी थी क्योंकि इस्लामी विश्वास के अनुसार इस आयत को पढ़ने से शैतान भाग जाता है; किंतु रानी के लिए कुछ भी सुनना सुखद आश्चर्य था। वह बोली कि प्यारे यह सचमुच तू बोला था कि मुझे कुछ धोखा हुआ है। बादशाह ने हब्शियों के से स्वर में घृणा पूर्वक कहा, 'तुम इस योग्य नहीं हो कि तुम से बात करूँ या तुम्हारे किसी प्रश्न का उत्तर दूँ।' रानी बोली 'प्राण प्रिय, मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ है जो तुम ऐसा कह रहे हो।' बादशाह ने कहा, 'तुम बहुत जिद्दी हो, किसी की नहीं सुनती इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। अब पूछती हो तो कहता हूँ। तुम्हारे पति के रात दिन चिल्लाने से मेरी नींद हराम हो गई है। अगर उसकी चीख पुकार न होती तो मैं कब का अच्छा हो गया होता और खूब बातचीत कर पाता। लेकिन तूने एक तो उसे आधा पत्थर का बना दिया है और फिर उसे रोज इतना मारा भी करती है। वह कभी सो नहीं पाता और रात दिन रोया और कराहा करता है और मेरी नींद भी नहीं लगने देता। अब तू खुद ही बता क्या तुझसे बोलूँ और क्या बात करूँ।

जादूगरनी ने कहा कि तुम क्या यह चाहते हो कि मैं उसे मारना बंद कर दूँ और उसे पहले जैसी स्थिति में ले आऊँ। अगर तुम्हारी खुशी इसी में है तो मैं अभी ऐसा कर सकती हूँ। हब्शी बने हुए बादशाह ने कहा कि मैं सचमुच यही चाहता हूँ कि तू इसी समय जाकर उसे दुख से पूरी तरह छुड़ा दे ताकि उसकी चीख पुकार से मेरे आराम में विघ्न न पड़े। रानी ने शोकागार के एक कक्ष में जाकर एक प्याले में पानी लेकर उस पर कुछ मंत्र फूँका कि वह उबलने लगा। फिर वह उस कक्ष में गई जहाँ उसका पति था और उस पर वह पानी छिड़क कर बोली, 'यदि परमेश्वर तुझसे अत्यंत अप्रसन्न है और उसने तुझे ऐसा ही पैदा किया है तो इसी सूरत में रह किंतु यदि तेरा स्वाभाविक रूप यह नहीं है तो मेरे जादू से अपना पूर्व रूप प्राप्त कर ले।' रानी के यह कहते ही वह बादशाह अपने असली रूप में आ गया और प्रसन्न होकर उठ खड़ा हुआ। रानी ने कहा कि तू खैरियत चाहता है तो फौरन यहाँ से भाग जा, फिर कभी यहाँ आया तो जान से मार दूँगी। वह बेचारा चुपचाप निकल गया और एक और इमारत में छुप कर देखने लगा कि क्या होता है।

रानी वहाँ से फिर शोकागार में आई और हब्शी बने हुए बादशाह से बोली कि जो तुम चाहते थे वह मैंने कर दिया अब तुम उठ बैठो जिससे मुझे चैन मिले। बादशाह हब्शियों जैसे स्वर में बोला, 'तुमने जो कुछ किया है उससे मुझे आराम तो मिला है लेकिन पूरा आराम नहीं। तुम्हारा अत्याचार अभी पूरी तरह से दूर नहीं हुआ है और मेरा चैन अभी पूरा नहीं लौटा है। तुमने सारे नगर को उजाड़ रखा है और उसके निवासियों को मछली बना दिया है। हर रोज आधी रात को सारी मछलियाँ पानी से सिर निकाल निकाल कर हम दोनों को कोसा करती हैं इसी कारण मैं निरोग नहीं हो पाता। तुम पहले शहर और उसके निवासियों को पहले जैसा बना दो फिर मुझसे बात करो। यह करने के बाद तुम अपनी बाँह का सहारा देकर मुझे उठाना।'

रानी इस बात पर भी तुरंत राजी हो गई। वह तालाब के किनारे गई और थोड़ा सा अभिमंत्रित जल उस तालाब पर छिड़क दिया। इससे वे सारी मछलियाँ नर नारी बन गई और तालाब की जगह सड़कों, मकानों और दुकानों से भरा नगर बन गया। बादशाह के साथ आए दरबारी और अंग रक्षक जो उस समय तक वापस अपने नगर नहीं गए थे इस प्रकार अपने को अपने देश से बहुत दूर एक बिल्कुल नए शहर में देखकर अत्यंत आश्चर्यन्वित हुए।

सब कुछ पहले जैसा बना कर वह जादूगरनी फिर शोकागार में गई और हँसी खुशी से चहकते हुए कहने लगी कि प्यारे तुम्हारी इच्छानुसार मैंने सब कुछ पहले जैसा ही कर दिया है ताकि तुम पूर्णतः स्वस्थ और निरोग हो जाओ। अब तुम उठो और मेरे हाथ में हाथ देकर चलो। बादशाह ने हब्शियों के स्वर में कहा कि मेरे पास आओ। वह पास गई। बादशाह बोला और पास आओ। वह उसके बिल्कुल पास आ गई। बादशाह ने उछल कर जादूगरनी की बाँहें जकड़ ली और उसे एक क्षण भी सँभलने के लिए न दिया और उस पर इतने जोर से तलवार चलाई कि उसके दो टुकड़े हो गए। बादशाह ने उसकी लाश भी उसी कुएँ में डाल दी जिसमें हब्शी की लाश फेंकी थी। फिर बाहर निकल कर काले द्वीपों के बादशाह को खोजने लगा। वह भी पास के एक भवन में छुपा हुआ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। आगंतुक बादशाह ने उससे कहा अब किसी का डर न करो, मैंने रानी को ठिकाने लगा दिया है।

काले द्वीपों के बादशाह ने सविनय उसका आभार प्रकट किया और पूछा अब आप का इरादा क्या अपने नगर को जाने का है। उसने जवाब दिया कि नगर ही जाऊँगा लेकिन तुम अभी हमारे साथ चलो, हमारे महल में कुछ दिन भोजन और आराम करो, फिर अपने काले द्वीपों को चले जाना।

जवान बादशाह ने कहा क्या आप अपने नगर को यहाँ से निकट समझे हुए हैं। उसने कहा इसमें क्या संदेह है? मैं तो चार पाँच घड़ी के अंदर ही तुम्हारे महल में आ गया था। काले द्वीपों के बादशाह ने कहा, 'आपका देश यहाँ से पूरे एक वर्ष की राह पर है, उस जादूगरनी ने अपने मंत्र बल से मेरे देश को आपके देश के निकट पहुँचा दिया था। अब मेरा देश फिर अपनी जगह पर वापस आ गया है।'

आगंतुक बादशाह को कुछ चिंता हुई। काले द्वीपों के बादशाह ने कहा, 'यह दूरी और निकटता कुछ बात नहीं है। मैं आपके उपकार से जीवन भर उॠण नहीं हो सकता। आगंतुक बादशाह अब भी चकराया हुआ था कि अपने देश से इतनी दूर कैसे पहुँच गया। काले द्वीपों के बादशाह ने कहा कि आप को इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है, आप तो उस स्त्री की जादू की शक्ति स्वयं ही देख चुके हैं। आगंतुक बादशाह ने कहा कि खैर अगर दोनों देशों में इतनी दूरी है तो तुम मेरे देश न जाना चाहो तो न चलो; लेकिन मेरे कोई पुत्र नहीं है इसलिए मैं चाहता हूँ कि मैं तुम्हें अपने देश का युवराज भी बना दूँ ताकि मेरे मरणोपरांत मेरे राज को भी तुम सँभालो।

काले द्वीपों के बादशाह ने यह स्वीकार कर लिया और तीन सप्ताह की तैय्यारी के बाद सेना और कोष का प्रबंध करके आगंतुक बादशाह के साथ उसकी राजधानी के लिए उसके साथ रवाना हुआ। उसने सौ ऊँटों पर भेंट की बहुमूल्य वस्तुएँ लदवाई और अपने पचास विश्वस्त सामंतों और भेंट का सामान लेकर वह आगंतुक बादशाह के साथ उसकी राजधानी की ओर रवाना हुआ। जब उस बादशाह की राजधानी कुछ दिन की राह पर रह गई तो हरकारे भेज दिए गए कि बादशाह के पुनरागमन का निवास उसके भृत्यों और नगर निवासियों को दे दें।

जब वह अपने नगर के निकट पहुँचा तो उसके सारे सरदार और दरबारी उसके स्वागत को नगर के बाहर आए और बादशाह की वापसी पर भगवान को धन्यवाद देने के बाद बताया कि राज्य में सब कुशल है। नगर में पहुँचने पर बादशाह का नगर निवासियों ने हार्दिक स्वागत किया।

बादशाह ने पूरा हाल कह कर काले द्वीपों के बादशाह को अपना युवराज बनाने की घोषणा की और दो दिन बाद उसे समारोह पूर्वक युवराज बना दिया और सामंतों, दरबारियों ने युवराज को भेंट दी। कुछ दिन बाद बादशाह और युवराज में मछुवारे को बुलाकर उसे अपार धन दिया क्योंकि उसी के कारण युवराज का कष्ट कटा था।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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किस्सा तीन राजकुमारों और पाँच सुंदरियों का

शहरजाद की कहानी रात रहे समाप्त हो गई तो दुनियाजाद ने कहा - बहन, यह कहानी तो बहुत अच्छी थी, कोई और भी कहानी तुम्हें आती है? शहरजाद ने कहा कि आती तो है किंतु बादशाह की अनुमति हो तो कहूँ। बादशाह ने अनुमति दे दी और शहरजाद ने कहना शुरू किया।

खलीफा हारूँ रशीद के राज्य में बगदाद में एक मजदूर रहता था। वह स्वभाव का बड़ा हँसमुख और बातूनी था। एक दिन प्रातःकाल वह बाजार में एक बड़ा टोकरा लिए मजदूरी की आशा में खड़ा था। कुछ देर बाद एक परम सुंदरी स्त्री, जिसके मुँह पर जाली का नकाब पड़ा हुआ था, वहाँ आई और मुस्करा कर मजदूर से कहने लगी कि अपना टोकरा उठा और मेरे साथ चल। मजदूर अच्छी मजदूरी मिलने की आशा और स्त्री के मधुर व्यवहार से प्रसन्न होकर उसके साथ चल दिया। वह इस बात से बहुत ही प्रसन्न हुआ कि सुबह-सुबह ही अच्छा काम मिल गया था। कुछ दूर जाकर स्त्री ने एक मकान के सामने खड़े होकर ताली बजाई। कुछ देर में एक सफेद लंबी दाढ़ी वाले ईसाई ने द्वार खोला। स्त्री ने उसे कुछ रुपए दिए और ईसाई बूढ़े ने उसका आशय समझ कर घर के अंदर से उत्तम मदिरा का एक घड़ा उसे दे दिया। स्त्री ने घड़ा मजदूर के टोकरे में रखवाया और बाजार में आ गई।

बाजार में उसने बहुत-सी वस्तुएँ खरीदीं। इनमें स्वादिष्ट फल यथा सेब, नाशपाती आदि तथा भाँति-भाँति के सुंदर सुगंध वाले फूल, इत्र, स्वादिष्ट अचार, चटनियाँ और मुरब्बे, माँस, सूखे मसाले आदि घूम-घूम कर कई दुकानों से खरीदे। इतनी चीजें उसने लीं कि टोकरे में बिल्कुल जगह न रही। मजदूर कहने लगा, अगर मुझे मालूम होता कि आप इतना सामान खरीदेंगी तो मैं अपने साथ एक घोड़ा बल्कि ऊँट रख लेता।

खैर, मजदूर टोकरा उठाकर स्त्री के साथ चला। काफी दूर जाने के बाद वे दोनों एक विशाल भवन के पास पहुँचे जिसके शिखर बड़े सुंदर बने थे और दरवाजे हाथी दाँत से निर्मित थे। स्त्री ने दरवाजे के आगे खड़े हो कर ताली बजाई। दरवाजा जब तक खुले तब तक मजदूर सोचता रहा कि न मालूम यह स्त्री घर की नौकरानी है या मालकिन, इसके साज-सिंगार से तो यह नहीं मालूम होता कि यह नौकरानी होगी। कुछ ही देर में एक स्त्री ने दरवाजा खोला। मजदूर उसका अनुपम सौंदर्य और मनोहारी भाव देख कर बेसुध-सा होने लगा और सामान से लदा टोकरा उसके सिर से गिरने-गिरने को होने लगा। जो स्त्री उसे बाजार से लाई थी वह कौतुकपूर्वक उसकी बदहवासी का तमाशा देखने लगी लेकिन घर के अंदर से आई हुई स्त्री ने उससे कहा, 'तू खड़ी-खड़ी क्या देख रही है, यह बेचारा सामान के भार से दबा जा रहा है। तू जल्दी से इसे अंदर ले जा और इसका सामान उतरवा।'

मजदूर अंदर गया तो दोनों स्त्रियों ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और उसे ले कर एक बड़े मकान में आई। इसके खंभे कीमती लकड़ी के बने थे और एक बड़ा कक्ष था जिसके चारों ओर दालान थे। दालान में एक और बैठने का स्थान था जहाँ पर बहुत-से मूल्यवान नर्म आसन बिछे थे और सुविधा के भाँति-भाँति के मूल्यवान पात्र रखे हुए थे। सब के बीच में चंदन और अगर की लकड़ी का बना एक बड़ा सिंहासन था। उस पर एक बहुत ही मूल्यवान आसन पड़ा था जिसमें चारों ओर मोतियों और माणिकों की झालर लटक रही थी। इसके अलावा उस विशाल कक्ष में एक संगमरमर का बना हौज था जिसमें फव्वारे छूट रहे थे।

मजदूर यद्यपि दूर तक भारी बोझ लेकर चलने के कारण बहुत थक गया तथापि उस कमरे की सामग्री और सजावट देख कर अपना श्रम भूल गया और वह प्रसन्न चित से इस शोभा को देखने लगा। विशेषतः उसे सिंहासन पर बैठी हुई अतीव सुंदर स्त्री ने बहुत आकृष्ट किया। उसे बाद में मालूम हुआ कि सिंहासन पर बैठी स्त्री का नाम जुबैदा है, वह उस घर की मालकिन है। जिस स्त्री ने दरवाजा खोला था उसका नाम साफी था और जो स्त्री बाजार से उस पर सामान लदवाकर लाई थी उसका नाम अमीना था।

जुबैदा ने कहा, 'बीबियो, इस बेचारे मजदूर के सर से सामान तो उतारो। यह बोझ के मारे मरा जा रहा है।' साफी और अमीना ने मिलकर उसके सिर से टोकरा उतरवाया और उसमें से सामान निकालने लगीं। जुबैदा ने उसे इतना पैसा दिया जो उसकी साधारण मजदूरी से कहीं अधिक था। वह आशा से अधिक मजदूरी पाकर खुश तो बहुत हुआ लेकिन उसका मन वहाँ की वस्तुओं में इतना लगा था कि वह वापस न हुआ। इतने में ही अमीना ने अपने चेहरे से नकाब उतार दिया। मजदूर ने अब तक तो झलक भर देखी थी, अब तो उसे पूरी नजर भर देखा तो ठगा-सा खड़ा रह गया। उसे यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि यद्यपि घर में तीन स्त्रियाँ ही थीं तथापि खाने-पीने की सामग्री इतनी थी जो तीस व्यक्तियों को काफी होती।

मजदूर वहाँ से न हटा तो जुबैदा ने पहले तो सोचा कि वह कुछ देर और सुस्ताना चाहता है, लेकिन जब उसे बहुत देर हो गई तो उसने कहा कि 'क्या बात है, तू जाता क्यों नहीं? क्या तुझे मजदूरी कम मिली है? अमीना, इसे कुछ और पैसे देकर विदा करो।' मजदूर ने कहा, 'मालकिन, मैंने मजदूरी आशा से अधिक पाई है किंतु आपके सम्मुख कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि जो मैं कहना चाहता हूँ वह मेरी उद्दंडता है किंतु मुझे आशा है आप मुझे क्षमा करेंगी और मेरी बातों पर नाराज नहीं होंगी। मुझे यहाँ बहुत-सी बातें आश्चर्यजनक लग रही हैं। मैंने आप जैसी रूपवती कोई भी महिला नहीं देखी। मुझे यह देख कर भी बड़ा आश्चर्य हुआ है कि यहाँ कोई पुरुष नहीं है। बगैर पुरुष के स्त्रियों का रहना और बगैर स्त्रियों के पुरुषों का रहना दोनों ही बहुत अजीब बातें हैं।'

मजदूर बातूनी तो था ही इसलिए बोलता चला गया। उसने बगदाद नगर में प्रचलित तरह-तरह की कहावतें सुनाईं। इनमें से एक यह थी कि जब तक चार व्यक्ति एक साथ भोजन न करें भोजन में स्वाद नहीं आता और खाने वाले तृप्त नहीं होते। उसका आशय यह था कि उन स्त्रियों के बीच में वही पुरुष और दूसरे उन तीन के अलावा चौथा व्यक्ति भी वही है, इसलिए भोजन के समय उसे भी खाने के लिए बिठा लिया जाय। जुबैदा उसकी बातें सुन कर हँसने लगी और बोली, 'तू अपनी बेकार की बातें और सलाहें अपने पास रख, हम तीनों स्त्रियाँ बहिनें हैं और अपने सारे काम खुद ही अच्छी तरह चलाती हैं और इस तरह चलाती हैं कि किसी को पता नहीं चलता। हम लोग नहीं चाहते कि कोई हमारे भेद को जाने।'

मजदूर ने कहा, 'मेरी मालकिन, आप तो अत्यंत चतुर और बुद्धिमती हैं लेकिन आप मुझे भी निरक्षर और गँवार न समझें। यह तो भाग्य की बात है कि मुझे पेट पालने के लिए मजदूरी करनी पड़ती है वरना मैंने बहुत-सी इतिहास और ज्ञान की पुस्तकें पढ़ी हैं। आप कहें तो आपको एक कहावत आपकी सेवा में उपस्थित करूँ। यह कहावत है कि बुद्धिमान को चाहिए कि चतुर व्यक्ति से अपना भेद न छुपाए क्योंकि चतुर व्यक्ति को किसी का भेद छुपाए रखना आता है। अगर आप मुझ पर अपना कोई भेद प्रकट करेंगी तो वह ऐसा ही होगा जैसे कोई चीज किसी कमरे में बंद करके ताला लगा दिया जाए और ताले की चाबी खो जाए।

जुबैदा समझ गई कि यह मजदूर बुद्धिमान और पढ़ा-लिखा है और इसका साथ करने में कोई बुराई नहीं और इसे अपने साथ बिठा कर खाना भी खिलाया जा सकता है। फिर भी उसने उसकी बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए मजाक में कहा, 'देखो भाई, हमने तो पैसा और मेहनत लगा कर इस भोजन को तैयार किया है, तुमने तो इस पर कुछ खर्च नहीं किया। फिर तुम्हें अपने खाने में क्यों सम्मिलित करें?' साफी ने भी उससे कहा, 'तुमने यह कहावत तो सुनी होगी कि छूछा किन पूछा।'

इन बातों का बेचारे मजदूर के पास कोई उत्तर न था और उसने कहा कि आप लोग ठीक कहती हैं, मैं जा रहा हूँ। लेकिन अमीना ने अपनी बहनों से उसकी वकालत की और कहा, 'इसे यहीं रहने दो। यह अपनी बातों से हमारा मनोरंजन करेगा और अपने विनोदी स्वभाव के कारण हमें हँसाता रहेगा। तुम्हें नहीं मालूम यह जबर्दस्त किस्म का मसखरा है। बाजार में यहाँ तक सारे रास्ते यह हँसी-मजाक की बातों से मुझे हँसाता आया है।' मजदूर को अमीना की बातें सुनकर बड़ा संतोष हुआ। उसने कहा, 'आप लोगों की बड़ी कृपा होगी अगर मुझे अपने साथ रहने दें। मैं गरीब हूँ किंतु किसी का उपकार मुफ्त में नहीं लेना चाहता। और तो मेरे पास कुछ नहीं लेकिन अपनी कृपा के बदले यह मजदूरी जो आपने मुझे दी है वह स्वीकार कर लीजिए।' यह कहकर मजदूर ने जुबैदा के सामने मजदूरी के पैसे बढ़ा दिए।

जुबैदा ने मुस्कराकर कहा, 'हम दी हुई चीज वापस नहीं लेते। तुम हमारे साथ रह कर हमारे खान-पान में सम्मिलित हो सकते हो। लेकिन शर्त यह है कि हम लोग चाहे जो कुछ करें उसके बारे मे तुम हमसे कुछ नहीं पूछोगे।' मजदूर ने यह स्वीकार कर लिया।

इतने में अमीना ने अपनी बाहर जाने वाली पोशाक उतार दी और तंग कपड़ों में कमर कसे हुए उसने नाना प्रकार के व्यंजन - कलिया, कीमा, कोफ्ता, कोरमा, कबाब और अन्य कई प्रकार के सामिष व्यंजन और उनके अलावा अन्य स्वादिष्ट वस्तुएँ और मदिरा की सुराही और प्याले लाकर उचित स्थानों पर रख दिए। फिर तीनों बहिनें वहाँ आकर बैठ गई और चौथी ओर मजदूर को भी बिठा लिया। मजदूर बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने थोड़ा-सा भोजन किया। फिर अमीना ने मदिरा की सुराही उठाकर प्याला भरा और अपने देश की रीति के अनुसार पहले स्वयं पिया, फिर अपनी बहनों को दे दिया और चौथा प्याला मजदूर को दिया।

मजदूर ने अमीना का आदरपूर्वक हाथ चूमकर प्याला ले लिया और उसे पीने के पहले इस आशय का एक गीत गाया कि जिस प्रकार इत्र से वायु सुगंधित हो जाती है उसी प्रकार अगर पिलाने वाला मनोरम हो तो मदिरा में नई सुगंध आ जाती है। यह गीत सुनकर तीनों स्त्रियाँ बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने एक दूसरे के बाद कई गीत शराब के नशे में गाए। इस राग-रंग में बहुत देर हो गई और रात हो गई। साफी ने अपनी बहनों से कहा कि अब तो इस मजदूर को हमने खिला-पिला दिया है, अब इसका कोई काम नहीं, इससे कहो अपने घर जाए। मजदूर को ऐसा सुखद संग छोड़ने में बड़ा दुख हुआ। उसने कहा कि यह मेरे लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी हालत में मुझे घर से निकाला जा रहा है, मैं इस नशे की दशा में किस प्रकार अपने घर पहुँच सकूँगा। कृपया रात भर मुझे यहाँ रहने की अनुमति दें, यहीं किसी कोने में पड़ा रहूँगा।

अमीना ने फिर उसकी वकालत की और कहा, यह बेचारा ठीक कहता है, कहाँ अँधेरे में ठोकरें खाता फिरेगा, हम लोगों ने पहले तो इसे अपने साथ खाने-पीने की अनुमति दे ही रखी है, अब इसे निराश न करो, यहीं पड़ा रहने दो। जुबैदा ने अमीना के कहने पर उसे रहने की अनुमति दे दी लेकिन फिर कहा कि शर्त यही है कि हम भला- बुरा जो भी करें तुम उसके बारे में कुछ पूछताछ नहीं करोगे। मजदूर ने कहा, आप मुझ पर जो भी शर्त लगाएँगी मैं मानूँगा। जुबैदा ने कहा कि हम तुम पर कोई नई शर्त नहीं लगा रहे हैं, उधर देखो क्या लिखा है। मजदूर ने एक दरवाजे के अंदर जाकर देखा तो मोटे-मोटे सुनहरे अक्षरों में लिखा था, 'इस भवन के अंदर जाने वाला कोई व्यक्ति यदि ऐसी बातों के बारे में पूछेगा जिनसे उसका कोई संबंध नहीं है तो उसे बड़ी क्लेशकारक बातें सुनने को मिलेंगी, उसे बड़ा कष्ट होगा और वह बहुत पछताएगा।' मजदूर ने कहा, आप चिंता न करें, मैं अपना मुँह बंद रखूँगा।

फिर अमीना रात का भोजन लाई और चारों ओर दीपक और सुगंधियाँ जलाईं। इससे सारा भवन आलोकित और सुवासित हो गया। इसके बाद तीनों स्त्रियाँ और मजदूर भोजन करने लगे और मदिरा पीकर अपने-अपने क्षेत्र की भाषाओं के गीत गाने लगे और राग-रागिनियाँ छेड़ने लगे। थोड़ी ही देर में ज्ञात हुआ जैसे कोई दरवाजा खोलने को कह रहा है। यह शब्द सुन कर साफी खड़ी हो गई क्योंकि दरवाजा खोलने वही जाती थी। उसने जाकर दरवाजा खोला और कुछ देर में वापस आकर कहा, 'दरवाजे पर एक ही जैसे लगने वाले तीन फकीर खड़े है जुबैदा, तुम उन्हें देख कर बहुत हँसोगी। वे तीनों ही दाहिनी आँख से काने हैं और सभी के सिर, दाढ़ी, मूछें यहाँ तक कि भवें भी मुड़ी हुई हैं। वे इसी समय बगदाद में प्रविष्ट हुए हैं और चाहते हैं कि उन्हें एक रात ठहरने के लिए जगह दे दी जाए, सुबह वे चले जाएँगे। बहन, मेरी प्रार्थना है कि उन्हें यहाँ रहने की अनुमति दे दो। वे रात को यहाँ रह कर हम लोगों का कुछ भला ही करेंगे, हमें किसी प्रकार कष्ट न पहुँचाएँगे।'

जुबैदा ने साफी से कहा, अगर तुम यही चाहती हो तो उन्हें ले आओ लेकिन उन्हें भी हमारे घर पर मेहमानी की शर्त बता देना और कह देना कि अंदर दीवार पर जो कुछ लिखा है उसे पढ़ लें। साफी बहन की अनुमति पाकर प्रसन्नतापूर्वक दौड़ी गई और तीनों फकीरों को लेकर अंदर आ गई। फकीरों ने जुबैदा और अमीना को झुककर सलाम किया। दोनों ने सलाम का जवाब देकर उनकी कुशल-क्षेम पूछी। इसके बाद उन्होंने फकीरों से भोजन करने को कहा।

फकीरों ने मजदूर को देखकर कहा कि यह तो अरब का मुसलमान मालूम होता है। अरब के लोग धर्म के बड़े पक्के होते हैं किंतु यह तो धर्म-विरुद्ध मदिरा पान कर रहा है। मजदूर यह सुनकर बड़ा क्रुद्ध हुआ और बोला, 'तुम लोग कौन बड़े धर्माचारी हो। तुम लोगों ने दाढ़ी-मूँछें मुड़ाकर इस्लाम के नियमों का उल्लंघन नहीं किया? तुम्हें मेरे व्यवहार पर आपत्ति करने और मुझे नसीहत देने का क्या अधिकार है?' स्त्रियों ने कहा कि तुम लोग यह बेकार की बहस छोड़ो और रंग में भंग न करो; लो खाओ-पिओ। फकीर लोग नशे में आए तो बोले, यहाँ कोई बाजा हो तो हम लोग कुछ गाएँ-बजाएँ। साफी ने उन्हें वाद्य ला कर दिए और वे बजाने लगे और वाद्यों के सुरों से सुर मिलाकर गाना शुरू किया। वे लोग इस गाने-बजाने के दरम्यान हँसी-ठट्ठा भी करते और ऊँचे स्वर में वाह- वाह भी करते। इस सबसे बड़ा शोर होने लगा और सारा भवन गूँजने लगा। इसी बीच उन्होंने सुना कि दरवाजे पर फिर कोई ताली बजा रहा है। साफी सदा की भाँति दौड़कर गई कि देखें, अब कौन दरवाजे पर आया है।

शहरजाद ने शहरयार से कहा कि इस जगह कहानी रोक कर मैं आप को यह बताना चाहती हूँ कि इस बार ताली बजाने वाला स्वयं खलीफा हारूँ रशीद था। खलीफा का यह नियम था कि अक्सर रात को वेष बदलकर शहर में निकलता था कि प्रजा का हाल खुद अपनी आँखों से देखे। उस रात को वह अपने महामंत्री जाफर और जासूसों के सरदार मसरूर के साथ बगदाद की गलियों में घूम रहा था। वे तीनों व्यापारियों जैसे वस्त्र पहने हुए थे। जब वे लोग उन स्त्रियों के मकान के पास से गुजरे तो उन्होंने हँसी की ध्वनि और गाने-बजाने का स्वर सुना। खलीफा ने कहा कि घर का दरवाजा खुलवाओ, मैं देखूँ तो कि यहाँ क्या हो रहा है। जाफर ने कहा कि यहाँ कुछ स्त्रियाँ शराब पीकर हँसी- दिल्लगी कर रही हैं, गा-बजा रही हैं, आपका अंदर जाना शोभनीय नहीं है। यह भी हो सकता है कि वे अपने राग-रंग में विघ्न पड़ते देखकर नशे की हालत में आप का कुछ अपमान कर बैठें। किंतु खलीफा ने उसकी सलाह न मानी और आदेश दिया कि तुम जाकर दरवाजा खुलवाओ।

अतएव जाफर ने दरवाजा खुलवाया। साफी ने दरवाजा खोला तो जाफर उसके रूप को देखता रह गया, फिर उसने जल्दी से एक कहानी गढी। उसने कहा, 'सुंदरी, हम तीनों व्यापारी मोसिल नगर के निवासी हैं। हम व्यापार की वस्तुएँ लेकर यहाँ आए हैं और एक सराय में ठहरे हैं। आज की रात को यहाँ के एक व्यापारी ने हमें दावत दी थी। हम उसके घर गए। उसने हमें बड़ा स्वादिष्ट भोजन कराया और उत्तम मदिरा पीने को दी। हम लोग नशे में आ गए तो उसने नृत्यांगनाओं को बुलाकर नाचने की आज्ञा दी। इस राग-रंग में काफी समय हो गया और नशे की हँसी और नाच-गाने से बाहर काफी आवाज जाने लगी। उसी समय संयोगवश शहर का कोतवाल गश्त लेकर उधर से निकला और उसने उस घर पर छापा मार दिया। दरवाजा खुलवा कर उसने सब उलट-पलटकर दिया और कई आदमियों को गिरफ्तार कर लिया। हम लोग जान बचाकर एक दीवार से बाहर कूद गए।'

यह कहकर जाफर ने कहा, 'हम लोग इस शहर में किसी को नहीं जानते, न यहाँ के मार्ग पहचानते हैं। हमें डर लग रहा है कि हम इधर-उधर भटकते हुए सराय पर कैसे पहुँचेंगे। फिर संभव है सराय का दरवाजा बंद हो गया हो और हम रात भर गलियों में भटकते रहें। यह भी संभव है कि वही कोतवाल गश्त लगाता हुआ आ निकले और हम लोगों को बंद कर दे। हमारी दशा बड़ी दयनीय है। सुंदरी, तुम दया करके अनुमति दो तो हम रात भर के लिए तुम्हारे मकान में किसी जगह पड़े रहें। अगर तुम हमें अपनी संगति के योग्य समझो तो हमें अपने गाने-बजाने में शामिल कर लो। हम लोग यह तो समझ गए हैं कि तुम लोग गाने-बजाने में अति निपुण हो। हमें भी संगीत में रुचि है और हम भी अपनी कला से तुम्हारे आमोद-प्रमोद में योग दे सकते हैं।'

साफी ने कहा, मैं इस घर की मालकिन नहीं हूँ; तुम लोग जरा देर यहीं ठहरो, मैं मालकिन से तुम्हारी बात करती हूँ; अगर उसने अनुमति दे दी तो फिर कोई दिक्कत नहीं रहेगी और तुम लोग आराम से यहाँ रात बिता सकोगे। यह कह कर साफी अंदर गई और अपनी बहनों से नए व्यापारियों की दशा और उनकी प्रार्थना की बात की। उन दोनों ने आपस में और साफी के साथ मंत्रणा की और साफी से कहा कि उन्हें भी अंदर ले आओ।

अतएव साफी वहाँ जाकर खलीफा, जाफर और मसरूर को अंदर ले आई। तीनों ने बड़ी शिष्टता और सम्मान से स्त्रियों और फकीरों को प्रणाम किया। उन सब ने उन्हें व्यापारी समझ कर उनके अभिवादन का यथायोग्य उत्तर दिया। जुबैदा ने, जो तीनों बहनों में सब से बड़ी और सब से बुद्धिमान थी, उनसे उनकी कुशल-क्षेम पूछी और कहा कि हम लोग जो कुछ कहें उसका तुम लोग बुरा न मानना। जाफर ने कहा, तुम सुंदरियों के मुँह से ऐसी कौन-सी बात निकल सकती है जिसका किसी को भी बुरा लगे? जुबैदा ने कहा, 'मुझे यह कहना है कि तुम जहाँ तक हो सके चुप रहना और जिस बात का तुम से सीधा संबंध न हो उसके बारे में कोई प्रश्न न करना। अगर तुमने ऐसा न किया तो हम तुमसे क्रुद्ध हो जाएँगे और इसका फल तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा।' मंत्री ने कहा कि अगर तुम्हारा यही आदेश है तो हम ऐसा ही करेंगे और किसी बात के बारे में प्रश्न नहीं करेंगे। यह वादा लेकर जुबैदा ने उन सब के आगे खाद्य सामग्री रखी और मदिरा पिलाई।

जब मंत्री जुबैदा से बातें कर रहा था उस समय खलीफा आश्चर्यचकित होकर उन स्त्रियों के सौंदर्य और तीक्ष्ण बुद्धि को देख रहा था। उसे इस बात से भी बहुत आश्चर्य हो रहा था कि तीनों फकीर दाहिनी आँख से क्यों काने हैं। उसकी उत्कट इच्छा थी कि वह फकीरों से इस बात का रहस्य पूछे किंतु उसके दोनों साथियों ने इशारों ही में उसे ऐसा न करने के लिए कहा। मकान के अंदर की सारी रुपहली और सुनहरी सजावट को देखकर वह मन ही मन कह रहा था कि यह चीजें जादू ही की हो सकती हैं, वास्तविक नहीं हो सकतीं। इतने में एक फकीर ने उठकर अपने देश के ढंग पर नाचना शुरू कर दिया। स्त्रियों को वह नाच पसंद आया और सबने उसकी नृत्य कला की प्रशंसा की।

जब फकीरों का नाच हो चुका तो जुबैदा अपने स्थान से उठी और अमीना का हाथ पकड़ कर बोली, 'बहन, यह तो तुम जानती ही हो कि यहाँ पर उपस्थित सब लोग हमारे अधीन हैं और इनकी उपस्थिति हमें हमारे रोज के काम से नहीं रोक सकती।' अमीना ने उसका अभिप्राय समझ कर उस जगह की सफाई शुरू कर दी। उसने भोजन के पात्र और मदिरा की सुराहियाँ और प्याले उठाकर बावर्चीखाने में रख दिए और गाने बजाने का सामान हटाकर फर्श पर झाड़ू लगाई। इसके बाद उसने सारे दियों की बत्तियों के गुल काटे और कुछ और भी सुगंधित तेल के दिए जलाए और कमरे को नए ढंग से सजा दिया।

अमीना ने अब फकीरों और खलीफा तथा उसके साथियों को दालान में बिठाया। फिर मजदूर से कहा कि तुझ जैसे हट्टे-कट्टे आदमी को इन लोगों की तरह बैठना नहीं चाहिए, तू उठ कर हमारे काम में हाथ बँटा। मजदूर अभी तक ऊँघ-सा रहा था। वह अपनी हैसियत का खयाल करके रास-रंग में शामिल नहीं हुआ था। वह फौरन उठ खड़ा हुआ और अपने चोगे को कस कर कमर से बाँधने के बाद बोला कि बताओ क्या काम है, जो तुम कहोगी मैं करूँगा। साफी ने कहा, तुम कुर्ते की आस्तीन भी चढ़ा लो क्योंकि हाथों से काम करना है।

कुछ देर बाद अमीना ने दालान में एक चौकी बिछाई और मजदूर को अपने साथ ले जाकर एक कोठरी से दो काली कुतियाँ खींचती हुई लाई। दोनों कुतियों के गले में पट्टे बँधे थे और पट्टों में जंजीरें बँधी थीं। मजदूर उसकी आज्ञा के अनुसार दोनों कुतियों को दालान में ले गया। अब जुबैदा गुस्से में झटके के साथ उठ खड़ी हुई। उसने एक ठंडी साँस भरी और आस्तीन ऊपर चढ़ाई। फिर उसने साफी के हाथ से एक चाबुक लिया और मजदूर से कहा कि एक कुतिया की जंजीर अमीना के हाथ में दे और दूसरी को मेरे पास ले आ।

मजदूर उसकी आज्ञानुसार एक कुतिया को खींच कर जुबैदा के पास लाया तो कुतिया बड़े आर्त स्वर में चिल्लाने लगी। वह दयनीय दृष्टि से जुबैदा की तरफ देखती जाती थी और उसके पैरों पर अपना सिर भी रगड़ती जाती थी। जुबैदा ने उसके इस अनुनय पर कुछ ध्यान न दिया और सड़ासड़ उसे चाबुक मारना शुरू किया। मारते-मारते जब जुबैदा का दम फूल गया तो उसने मारना बंद कर दिया। फिर मजदूर के हाथ से कुतिया की जंजीर लेकर उसके अगले पंजे पकड़ कर पिछले पैरों पर खड़ा किया। कुतिया और जुबैदा एक-दूसरे को देखकर बड़े दुख के साथ आँसू बहाने लगीं। फिर जुबैदा ने रूमाल से कुतिया के आँसू पोंछे और उसे प्यार करके उसका मुँह चूमा। फिर मजदूर को उसकी जंजीर थमाकर कहा कि इस कुतिया को दालान में ले जा और दूसरी को यहाँ ला। मजदूर ने इस कुतिया को ले जाकर दालान में बाँधा और अमीना के हाथ से दूसरी कुतिया लेकर जुबैदा के पास लाया। जुबैदा ने इस कुतिया को भी पहली कुतिया की भाँति खूब मारा, फिर उसकी आँखों में आँखें डाल कर रोई और उसके आँसू पोंछ कर और मुँह चूम कर प्यार किया। इसके बाद मजदूर ने इस कुतिया को भी दालान में ले जाकर बाँध दिया।

तीन फकीरों, खलीफा और उसके साथियों को यह सब देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पहले तो जुबैदा ने अत्यंत निर्दयता से कुतियों को पीटा फिर उनके साथ मिल कर रोई भी। इसके अलावा मुसलमानों के धर्म में कुत्ते अपवित्र जंतु माने जाते हैं। जुबैदा जैसी सुसंस्कृत महिला का कुतियों के आँसू पोंछकर उनका मुँह चूमना किसी की समझ में नहीं आ रहा था। विशेषतः खलीफा अपनी उत्सुकता नहीं रोक पा रहा था। उसने इशारे से मंत्री से कहा कि इस रहस्य को पूछना चाहिए। मंत्री ने पहले तो टाल-मटोल की और दूसरी ओर देखने लगा। लेकिन जब खलीफा संकेत से प्रश्न करता ही रहा तो उसने संकेत ही से विनय की कि इस समय इस बात को यहीं समाप्त कर दीजिए, कुछ पूछिए नहीं।

जुबैदा कुतियों को पीटने के बाद कुछ देर तक सुस्ताती रही। फिर साफी ने उससे कहा, बहन तुम अपने स्थान पर आ बैठो तो हम अगला काम करें। जुबैदा ने कहा, 'अच्छा।' फिर वह दालान में आकर एक पहले से बिछी हुई चौकी पर बैठ गई। उसने खलीफा और उसके साथियों को अपने दाईं ओर और फकीरों और मजदूरों को बाईं ओर बिठा लिया। चौकी पर बैठ कर वह कुछ देर और सुस्ताती रही। इसके बाद उसने अमीना से कहा कि बहन, उठो, तुम्हें मालूम है कि तुम्हें अब क्या करना है।

अमीना यह सुन कर उठी और बगल वाली कोठरी में जाकर वहाँ से एक संदूक उठा लाई जो पीले साटन में मढ़ा था और इसके ऊपर भी उस पर हरी कारचोबी का एक गिलाफ चढ़ा था। उसमें से एक बाँसुरी निकाल कर अमीना ने साफी को दी। साफी ने उस बाँसुरी से एक करुण वियोगात्मक राग निकाला और देर तक बजाती रही। खलीफा और अन्य उपस्थित लोग उस का कौशल देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। फिर साफी ने अमीना से कहा कि अब तुम बाँसुरी बजाओ, मैं बजाते-बजाते थक गई हूँ। अमीना ने बाँसुरी लेकर कुछ देर तक सुर मिलाया फिर एक बड़ा मधुर राग बजाना शुरू किया और बजाते-बजाते उसमें मग्न हो गई। जुबैदा ने उसके वादन की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि अब बस करो, तुम्हारे दुख के कारण बड़ी दुखद दशा हो रही है। अमीना इतनी भाव-विह्वल हो गई कि जुबैदा की बात का कोई उत्तर न दे सकी बल्कि जान पड़ता था कि वह अपने होश-हवास खो बैठी थी क्योंकि उसने अपने ऊर्ध्व वस्त्र को उतार फेंका। अब सब लोगों ने देखा कि उस सुंदरी के दोनों कंधों पर काले-काले दाग पड़े हैं जैसे किसी ने उसे निर्दयता से मारा है।

दाग उसके कंधों ही पर नहीं, बाँहों पर भी पड़े थे। सब लोग इस कांड को देखकर और भी हैरान हुए। अमीना की हालत इतनी खराब हो गई थी कि वह डगमगाने लगी और गिरने-गिरने को हुई और जुबैदा और साफी ने दौड़कर उसे सँभाला।

एक फकीर ने धीमे से कहा, कितने दुख की बात है कि हम इतनी अद्भुत घटनाएँ देख रहे हैं और उनके बारे में किसी से पूछ भी नहीं सकते। खलीफा ने यह बात सुन ली और उन फकीरों के पास आकर उनसे पूछा कि क्या तुम लोगों में किसी को इन स्त्रियों का और कुतियों को पीटने का रहस्य ज्ञात है? फकीरों ने कहा, हम में से कोई भी इन बातों को नहीं जानता, हम लोग आज ही रात को तुम्हारे यहाँ आने से कुछ ही पहले यहाँ पहुँचे हैं। खलीफा की उत्सुकता और बढ़ी। उसने कहा, हो सकता है कि यह आदमी जो तुम्हारे पास बैठा है इसे कुछ ज्ञात हो। फकीर ने इशारे से मजदूर को अपने और निकट बुलाया और पूछा कि क्या तुम्हें मालूम है कि जुबैदा ने दोनों कुतियों को क्यों पीटा और अमीना के कंधों और बाँह पर काले दाग कैसे हैं।

मजदूर ने कहा कि मैं भगवान की सौगंध खाकर कहता हूँ कि मुझे कुछ भी नहीं मालूम। मैं तो इस घर में आज ही आया हूँ और इस घर में यही तीन स्त्रियाँ रहती हैं। खलीफा और फकीरों ने सोचा था कि वह आदमी उन स्त्रियों का सेवक होगा। अब सबको विश्वास हो गया कि भेद खुलने की कोई संभावना नहीं है।

लेकिन खलीफा हार मानने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा, हम लोग सात मर्द हैं और यह सिर्फ तीन औरतें। हम सब मिलकर इनसे इस भेद को पूछें। अगर यह लोग खुशी-खुशी बता दें तो ठीक है नहीं तो हम जोर-जबर्दस्ती करके भी इनसे बात उगलवा लेंगें।

मंत्री की राय इसके विपरीत थी। उसने खलीफा के कान में कहा, 'हम सबका यहाँ पर बड़ा स्वागत-सत्कार किया गया है ओर गाने-बजाने से भी हमारा मनोरंजन हुआ है। ऐसी दशा में जोर-जबर्दस्ती ठीक नहीं है। फिर आप यह भी देखें कि इन स्त्रियों ने किस शर्त पर हमें अपना अतिथि बनाया है; हमने भी उनकी यह शर्त मानी है कि हम कुछ पूछताछ नहीं करेंगे। अगर हम अपना यह वादा तोड़ेंगे तो यह लोग क्या हमें बेईमान नहीं कहेंगी? और उन्होंने हमारे लिए ऐसा कहा तो हमारे लिए डूब मरने की बात होगी।'

मंत्री ने आगे समझाया, 'आप यह भी विचार कर लें कि जब इन स्त्रियों ने हमारे सामने इतने आत्मविश्वास से चुप रहने की शर्त रखी है तो मालूम होता है कि इनके पास कोई ऐसी शक्ति है जिससे यह लोग शर्त तोड़ने वाले को दंड भी दे सकती हैं। ऐसा हुआ तो हमारे लिए और भी लज्जा की बात हो जाएगी चाहे हम बाद में इन्हें कितना भी दंड दे दें। ...मुझे यह भी कहना है कि अब रात बीता ही चाहती है। इस समय आप कुछ न कहें। सवेरा होने पर मैं इन सारी स्त्रियों को पकड़कर आपके दरबार में ले आऊँगा और आप जो चाहे इनसे पूछ लीजिएगा।'

खलीफा को ऐसी जिद सवार हुई कि उसने ऐसे सत्परामर्श पर कान न दिया और मंत्री को झिड़क दिया कि तुम चुप रहो, मैं सुबह तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता। उसने फकीरों से कहा कि तुम इस बात को जुबैदा से पूछो। उन्होंने इनकार कर दिया कि हमारा साहस नहीं है। फिर उन सबने जोर देकर मजदूर को यह पूछने पर राजी कर लिया।

जुबैदा ने इन लोगों को खुसर-पुसर करते देखा तो उनसे पूछा कि तुम लोग आपस में क्या बात कर रहे हो। मजदूर ने कहा, 'सुंदरी, मेरे साथी जानना चाहते हैं कि आप दोनों कुतियों को निर्दयतापूर्वक पीटकर क्यों रोई और जो स्त्री अपनी सुध-बुध खो बैठी उसके कंधों और बाँहों पर काले दाग कैसे हैं।' जुबैदा यह सुनकर आग-बबूला हो गई। उसने सब लोगों से पूछा कि क्या तुम सब ने मजदूर से कहा था कि यह बातें मुझसे पूछे। सबने एकमत होकर कहा कि जाफर को छोड़कर हम सभी यह बातें जानना चाहते थे और हमने मजदूर से कहा था कि आपसे यह बातें पूछे। जुबैदा ने कहा, 'तुम सभी लोग बेईमान हो। तुम सब ने प्रतिज्ञा की थी कि यहाँ की किसी बात के बारे में कुछ न पूछोगे और तुम अपनी उत्सुकता पर बिल्कुल संयम न कर सके। हमने दया करके तुम सबको रात का ठिकाना दिया और तुम एक साधारण-सी प्रतिज्ञा न निभा सके। अब तुम्हारा सत्कार मेरे लिए बिल्कुल आवश्यक नहीं है और तुम लोगों को अपने किए का फल भुगतना चाहिए।'

यह कह कर जुबैदा ने धरती पर पाँव पटक कर तीन बार ताली बजाई और जोर से कहा, 'तुरंत आओ।' उसके यह कहते ही एक द्वार खुल गया और उसमें से सात बलवान हब्शी नंगी तलवारें लिए निकले और एक-एक हब्शी ने एक-एक आदमी को जमीन पर पटक दिया और उनके सीने पर चढ़ बैठे और सब की तलवारें म्यान से बाहर निकल आईं। खलीफा क्षोभ और लज्जा के मारे मरा जा रहा था, उसे ऐसे व्यवहार की क्या आशा हो सकती थी।

हब्शियों के मुखिया ने जुबैदा से पूछा, 'श्रेष्ठ सुंदरी, आपकी क्या आज्ञा है? क्या हम इन लोगों को यहीं खत्म कर दें?' जुबैदा ने कहा, 'नहीं, कुछ देर ठहर जाओ। पहले इन लोगों से यह तो पूछ लें कि यह कौन हैं और क्यों आए थे।' यह कहकर उसने सातों मेहमानों से कहा कि तुम लोग अपना-अपना हाल बताओ।

मजदूर ने रो कर कहा, 'भगवान के लिए मुझे छोड़ दो। मेरा कोई दोष नहीं है। मैं तो इन लोगों के बहकावे में आ गया। काने फकीर जहाँ जाएँगे वहीं दुर्भाग्य लाएँगे।' जुबैदा को यह सुनकर हँसी आ गई। वह बोली, 'ऐसे कोई नहीं छूटेगा। पहले हर आदमी अपना हाल बताए कि वह वास्तव में कौन है, कहाँ से आया है, उसमें क्या-क्या गुण हैं और यहाँ आने का क्या कारण है। इन बातों में जरा-सा भी झूठ हुआ तो फौरन उसकी गर्दन मारी जाएगी।'

परेशान तो सभी थे लेकिन खलीफा हारूँ की व्याकुलता स्वभावतः ही सबसे अधिक बढ़ी-चढ़ी थी। उसने एक बार सोचा कि वैसे तो इस स्त्री के पंजे से निकला नहीं जा सकता किंतु यदि वह अपना ठीक-ठीक परिचय तुरंत दे दे तो जरूर मेरा सम्मान करेगी। उसने धीमे से मंत्री से सलाह ली। उसने कहा कि आपके सम्मान की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि अभी हम लोग चुप रहें। जुबैदा ने तीनों फकीरों से पूछा कि क्या तुम तीनों भाई हो? एक ने उत्तर दिया कि हम भाई नहीं हैं; एक-से कपड़े जरूर पहनते हैं और साथ रहते हैं। जुबैदा ने फिर पूछा कि क्या तुम लोग जन्मतः ही एकाक्ष हो। उनमें से एक ने कहा कि ऐसा नहीं है; हम पर ऐसी विपत्तियाँ पड़ीं जो न केवल जानने बल्कि इतिहास में लिखे जाने योग्य हैं, उन्हीं से हमारी आँखें जाती रहीं और उन्हीं के कारण हमने अपनी दाढ़ी-मूँछ और भवें मुँडवा डाली और फकीर बन गए।

जुबैदा ने एक-एक करके शेष दो फकीरों से भी यही प्रश्न किए और दोनों ने वही उत्तर दिए जो पहले फकीर ने दिए थे। तीसरे ने यह भी कहा, 'आप अनुमति दें तो हम लोग अपना वृत्तांत विस्तृत रूप से कहें। हम तीनों की भेंट आज ही शाम को इस नगर में हुई है क्योंकि हम तीनों बाहर से आए हैं। विश्वास मानिए कि हम तीनों ही राजकुमार हैं और हमारे पिता बड़े और प्रख्यात बादशाह हैं। हम सब चाहते हैं कि अपना वृत्तांत विस्तृत रूप से कहें।'

उन लोगों की बातों से जुबैदा का क्रोध कम हुआ। उसने हब्शियों से कहा, 'तुम लोग इनके सीने से उतर आओ। यह लोग बैठकर अपना-अपना हाल कहेंगे। जो-जो अपना पूरा हाल और इस घर में आने का कारण बताता जाए उसे छोड़ते जाओ ताकि वह जहाँ चाहे चला जाए। जो ऐसा न करे तुम उसका सिर उड़ा दो। अभी तुम इन लोगों के पीछे नंगी तलवारें लिए खड़े रहो।' चुनांचे उसी दालान में खलीफा और अन्य 6 लोगों को एक कालीन पर बिठा दिया गया। हर आदमी के पीछे एक हब्शी नंगी तलवार लेकर खड़ा हो गया ताकि जुबैदा का इशारा होते ही उसका वध कर दे। सबसे पहले मजदूर ने अपनी बात कही।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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मजदूर का संक्षिप्त वृत्तांत

मजदूर बोला, 'हे सुंदरी, मैं तुम्हारी आज्ञानुसार ही अपना हाल कहूँगा और यह बताऊँगा कि मैं यहाँ क्यों आया। आज सवेरे मैं अपना टोकरा लिए काम की तलाश में बाजार में खड़ा था। तभी तुम्हारी बहन ने मुझे बुलाया। मुझे लेकर पहले वह शराब बेचने वाले के यहाँ गई। फिर कुँजड़े की दुकान पर उसने ढेर-सी तरकारियाँ खरीदीं और फल वाले के यहाँ से बहुत-से फल लिए। गोश्त वाले के यहाँ से उसने तरह-तरह का मांस खरीदा और अन्य दुकानों से भी बहुत कुछ लिया। फिर सारा सामान मेरे सर पर लदवाकर आपके घर में लाई। आपने कृपा कर के मुझे अब तक ठहरने दिया और खानपान दिया जिसके लिए मैं आपका आजीवन आभारी रहूँगा। यही मेरी राम कहानी है।'

मजदूर की बातें सुनकर जुबैदा ने कहा, 'तेरी बातें ठीक मालूम होती हैं। अब तू तुरंत यहाँ से चला जा और खबरदार आगे कभी मेरे सामने न आना।' मजदूर यद्यपि बड़ी मुसीबत से छूटा था किंतु उसकी चपलता न गई। उसने कहा कि यदि अनुमति दें तो मैं इन शेष लोगों की कहानियाँ भी सुन लूँ, फिर घर चला जाऊँगा। जुबैदा ने अनुमति दे दी और कहा, दालान के एक कोने में खड़े होकर चुपचाप सुन ले, कुछ बोलना-चालना नहीं। मजदूर ने ऐसा ही किया। फिर जुबैदा ने फकीरों को आत्मकथाएँ सुनाने का इशारा किया।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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किस्सा पहले फकीर का

पहले फकीर ने अदब से घुटनों के बल खड़े होकर कहा 'सुंदरी, अब ध्यान लगाकर सुनो कि मेरी आँख किस प्रकार गई और मैं क्यों फकीर बना। मैं एक बड़े बादशाह का बेटा था। बादशाह का भाई यानी मेरा चचा भी एक समीपवर्ती राज्य का स्वामी था। मेरे चचा का एक बेटा मेरी उम्र का था और दूसरी संतान एक पुत्री थी। मैं अपने पिता के आदेशानुसार प्रति वर्ष अपने चचा के यहाँ जाया करता था और महीने-दो महीने वहाँ रहा करता था। कई बार इस प्रकार आने-जाने से मेरी अपने चचेरे भाई से मैत्री और प्रीति बहुत बढ़ गई।

'एक दिन मैंने देखा कि मेरा चचेरा भाई असाधारण रूप से प्रसन्न है। उसने सदा से अधिक मेरा सत्कार किया, स्वादिष्ट भोजन कराया और भाँति-भाँति के खेल-तमाशों से मेरा मनोरंजन किया। फिर मुझसे कहने लगा, 'पिछली बार तुम्हारे जाने के बाद मैने बड़ी जल्दी और बहुत ही सुंदर ढंग से एक महल बनवाया है। अब रात हो गई है, मैं सोना चाहता हूँ फिर तुम्हे नया महल दिखाऊँगा। लेकिन शर्त यह है कि तुम कसम खाओ कि यह भेद किसी से नही कहोगे।'

'मैने ऐसा करने से सौंगध खाई। वह उठकर गया और कुछ ही देर में एक सुंदरी स्त्री को साथ लेकर आ गया। न उसने बताया कि यह स्त्री कौन है न मैंने उसके बारे में पूछा। हम तीनों बैठ कर इधर-उधर की बातें करने लगे और पात्रों में भर-भर कर मदिरा पीने लगे। कुछ देर बाद मेरे चचेरे भाई ने कहा कि चलो यहाँ से चलें। उसने मुझसे कहा कि तुम इस स्त्री को लेकर कब्रिस्तान जाओ और कब्रिस्तान में जहाँ कहीं भी गुंबद वाली नई कब्र देखो तो समझ लो कि यह उसी महल का प्रवेश मार्ग है। तुम दोनों गुंबद के अंदर जाकर मेरी राह देखना।

'मैं उसी स्त्री के हाथ में हाथ देकर बाहर निकला और कब्रिस्तान की ओर चल दिया। चाँदनी रात थी इसलिए हम लोगों को गुंबद वाली नई कब्र ढूँढने में कोई कठिनाई नहीं हुई। हम गुंबद के अंदर गए तो देखा कि राजकुमार अकेला ही एक चूने की टोकरी, पानी की गागर और जरूरी औजार लिए खड़ा है। हमारे पहुँचने पर उसने फावड़े से जमीन खोदी। मिट्टी के नीचे पत्थरों की सिलें थीं जिन्हें निकाल कर उसने एक ओर रखा। पत्थरों के नीचे एक दरवाजा दिखाई दिया। दरवाजे का किवाड़ ऊपर उठाया तो नीचे जाने के लिए एक लकड़ी की सीढ़ी दिखाई दी।

'मेरे चचेरे भाई ने अब उस स्त्री से कहा कि इसी रास्ते पर चलकर वह द्वार मिलेगा जिसका मैंने तुमसे उल्लेख किया था। वह स्त्री यह सुनकर सीढ़ी से नीचे उतर गई। राजकुमार भी उसके पीछे चला गया। जाने के पहले मुझसे बोला कि तुमने हम लोगों के लिए जो परिश्रम किया है उसके लिए मैं तुम्हारा आभारी हूँ, लेकिन अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ। हाँ, भगवान के लिए इस बात को गुप्त रखना। मैंने बहुत पूछा कि तुम कहाँ जा रहे और यह सब क्या हो रहा है किंतु उसने कुछ न बताया, केवल इतना कहा कि दरवाजे पर मिट्टी डालकर भूमि समतल कर देना और जिस रास्ते से आए हो उसी से वापस चले जाना।

'विवशतः मैं दरवाजे पर मिट्टी डालकर अपने चचा के महल को वापस हुआ। मुझे नशा उतरने के बाद खुमार की दशा थी और मेरे सिर में पीड़ा हो रही थी इसलिए मैं अपने कमरे में जाकर सो रहा। सुबह उठने पर रात के वृत्तांत का स्मरण कर के मैं बड़ा चिंतित था और यह भी सोचता था कि मैंने रात को जो देखा वह स्वप्न था या सत्य था। मैंने एक सेवक से कहा कि तू जाकर देख कि मेरे भाई ने उठकर कपड़े बदले हैं या सो ही रहा है। उसने लौट कर बताया कि वे तो रात को अपने शयन कक्ष में थे ही नहीं और किसी को यह भी नहीं मालूम है कि वे कहाँ गए हैं इसलिए उनके सेवक और संबंधी सब को बड़ी चिंता है और किसी की समझ में नही आ रहा है कि क्या करें।

'मुझे भी इस बात पर बड़ी चिंता हुई और मैं फिर कब्रिस्तान को गया। मैंने सारा दिन गुंबद वाली कब्र के खोजने में लगाया किंतु वह कब्र नहीं मिली। इसी प्रकार चार दिन तक मैं कब्रिस्तान जा कर अपने भाई की तलाश करता रहा लेकिन उसका या उसके मकान का कुछ पता न चला।

'सुंदरियो, यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि उन दिनों मेरा चचा यानी वहाँ का बादशाह कई दिन से राजधानी में नहीं था क्योंकि वह शिकार पर गया था। उसकी वापसी में भी देर थी इसलिए मैं अत्यंत व्याकुल हुआ। मेरी इच्छा हुई कि अपने पिता के राज्य में वापस जाऊँ। मैंने मंत्री से कहा कि अब की बार मैं साधारण समय से अधिक यहाँ पर रहा और मेरे पिता को मेरी चिंता होगी इसलिए मैं जा रहा हूँ, आप बादशाह के आने पर उनसे यही कह दें। मंत्री स्वयं बड़ी चिंता में था क्योंकि शहजादे की कोई खोज- खबर नहीं मिल रही थी। मैं स्वयं उसे कुछ न बता सकता था क्योंकि शहजादे ने मुझे कुछ न कहने की कसम दिला रखी थी।

'जब मैं अपने पिता की राजधानी में आया तो महल के चारों ओर सेना की बड़ी जमात देखी। सैनिकों ने मुझे देखते ही बंदी बना लिया। मैंने बिगड़कर पूछा कि यह क्या करते हो, तो एक सरदार ने कहा, 'शहजादे, यह सेना तुम्हारी नहीं, तुम्हारे शत्रु की है। तुम्हारे पिता के मरने के बाद मंत्री ने तुम्हारे राज्य पर अधिकार कर लिया है। उसने तुम्हें गिरफ्तार करने की आज्ञा दी है और कहा है कि तुम जहाँ भी मिलो तुम्हें पकड़ लिया जाए। अब तुम हमारे भाग्य से स्वयं ही हमारे पास आ गए।

'यह कह कर वह सरदार मुझे अत्याचारी मंत्री के पास ले गया जो अब राज सिंहासन पर बैठा हुआ था। मुझे कितना दुख और कितनी ग्लानि हुई होगी यह आसानी से समझा जा सकता है। वह दुरात्मा आरंभ ही से मेरा शत्रु था। इसका कारण यह था कि बचपन में मुझे गुलेल चलाने का बड़ा शौक था। एक दिन मैं महल की छत पर गुलेल लिए खड़ा था कि एक चिड़िया सामने से उड़ती हुई निकली। मैंने गुलेल से उस पर पत्थर मारा। संयोगवश वह पत्थर का टुकड़ा उसी मंत्री की आँख पर लगा क्योंकि वह भी अपने निकटवर्ती भवन की छत पर टहल रहा था। उसकी आँख फूट गई। मुझे मालूम हुआ तो मैं स्वयं ही उसके पास गया और अनजाने में हुए अपराध के लिए उससे क्षमा माँगी। वह कुछ बोला नहीं किंतु उसने मुझे कभी क्षमा नहीं किया और बराबर इस ताक में रहता था कि कब अवसर पाए और मुझ से बदला ले। इसलिए जब मुझे असहाय और अशक्त देखा तो पुरानी बात याद करके क्रोध में भर कर सिंहासन से उतरा और झपट कर मेरे पास आया और मेरी दाहिनी आँख में उँगली घुसेड़ दी।

'उसने इतने ही पर बस नहीं की। उसने मुझे एक पिंजरे में बंद कर दिया और जल्लाद को आज्ञा दी कि इसे नगर के बाहर ले जा कर इसका वध कर दे और इसके शरीर के टुकड़े करके पशु-पक्षियों को खिला दे। जल्लाद घोड़े पर बैठकर शहर के बाहर आया और दूसरे घोड़े पर वह पिंजरा रखकर ले गया जिसमें मैं बंद था। उसकी सहायता को अन्य सेवक भी थे। जंगल में जाकर मेरे हाथ-पाँव बाँध कर मुझे मारने के लिए तलवार निकाली। मैं अत्यंत दीनता से रोने और प्राण भिक्षा माँगने लगा और जल्लाद को याद दिलाया कि उसने बरसों मेरे पिता का नमक खाया है। अंत में जल्लाद को मुझ पर दया आ गई। उसने मुझे छोड़ दिया और कहा, 'तुम तुरंत ही यह देश छोड़कर चले जाओ। इधर की तरफ भूलकर भी मुँह न करना। अगर तुम यहाँ आए तो तुम तो मारे ही जाओगे, मुझे भी प्राणदंड मिलेगा।'

'मैंने जल्लाद का बड़ा एहसान माना और भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया कि भले ही आँख गई; लेकिन जान तो बच गई, काना होना मुर्दा होने से तो अच्छा है। मेरी भूख-प्यास और आँख की तकलीफ से बुरी हालत थी। मैं चलने-फिरने के लायक न था। दिन में जंगल की झाड़ियों में छुपा रहा। रात को धीरे-धीरे छुपता-छुपाता अनजाने रास्तों पर धीरे-धीरे चलता हुआ कई दिनों में अपने चाचा की राजधानी में पहुँचा। जब मैंने चाचा को अपने दुर्भाग्य का पूरा हाल बताया तो वह जैसे पछाड़ें खाने लगा और बोला, 'मुझ से अधिक अभागा कौन होगा। मैं अपने पुत्र के लापता होने से क्या कम दुखी था कि मुझे अपने भाई के, जिसे मैं प्राणों से भी अधिक चाहता था, प्राणांत की सूचना मिली। अब मैं अपने पुत्र को कहाँ खोजूँ।' और वह बहुत देर तक अपने पुत्र को याद करके घंटों रोता रहा।

'उसके निरंतर रोदन से मेरे धैर्य का बाँध टूट गया। मुझ में इतनी क्षमता न रही कि मैं अपने चचेरे भाई को दिए हुए वचन को निभाए रखता। अतएव मैंने वह सारा वृत्तांत अपने चाचा को कह सुनाया जो मैंने उस रात को देखा था। चाचा को यह सुन कर ढाँढ़स हुआ और उसने कहा, 'बेटे, तुम ठीक कहते हो। मुझे भी मालूम हुआ था कि उसने यहाँ से समीप ही एक गुंबददार कब्र यानी मजार बनवाया है। वह वहीं हो सकता है।' लेकिन उसने यह भेद किसी को नहीं बताया। रात को वेष बदलकर मैं और चचा महल के बाग के दरवाजे से निकल कर कब्रिस्तान में पहुँचे। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हम लोगों को थोड़ी ही देर में कब्र मिल गई। शायद अकेले आने पर मैं ठीक स्थान पर नहीं पहुँच सका था।

'मैंने कब्र को फौरन पहचान लिया। हम लोग गुंबद के अंदर गए। वह लोहे का दरवाजा, जिसके नीचे सीढ़ी गई थी, बड़ी कठिनाई से खुला क्योंकि शहजादे ने उसे अंदर से चूना आदि लगाकर मजबूती से बंद कर दिया था। दरवाजा खुलने पर पहले चाचा नीचे उतरा फिर मैं गया। कुछ दूर जाकर देखा कि डयोढ़ी में बदबूदार धुआँ भरा है। आगे बढ़े तो देखा कि सुंदर बैठने का स्थान है और वहाँ कई दीपक यथेष्ट प्रकाश दे रहे थे। बीच में एक हौज बना हुआ था जिसके चारों ओर खाने-पीने की वस्तुएँ रखी थीं। किंतु वह स्थान बिल्कुल निर्जन था। फिर हमने देखा कि एक ओर चबूतरा-सा बना है और उसके बाद एक कक्ष है जिसके द्वार पर परदा पड़ा है।

'चचा सीढ़ी से चबूतरे पर चढ़ गए और परदा उठा कर अंदर गए। मैं भी पीछे- पीछे चला गया। हम लोगों ने देखा कि शहजादा उसी स्त्री के साथ, जिसे पहले मैंने देखा था, एक पलंग पर लेटा है। किंतु उस पर भगवान का ऐसा कोप हुआ था कि दोनों कोयले की तरह काले हो गए थे। ऐसा मालूम होता था जैसे किसी ने उन्हें जीवित ही धधकती आग में डाल दिया है और उनके राख हो जाने के पहले उन्हें निकाल कर पलंग पर लिटा दिया है।

'मेरे तो यह देख कर रोंगटे खड़े हो गए लेकिन मेरा चचा यह देख कर बिल्कुल विचलित नहीं हुआ। उसके चेहरे पर न दुख का कोई चिह्न था न आश्चर्य का। हाँ, उसका क्रोध बढ़ता जा रहा था।

'उसने शहजादे के मुँह पर थूक दिया और कहा, 'अभागे, तूने यहाँ तो दुख पाया ही है, परलोक में इससे अधिक पाएगा।' इस पर भी उस का क्रोध शांत न हुआ तो उसने पाँव से जूती निकाल कर कई बार शहजादे के मुँह पर मारी। मैंने क्रोध में आकर कहा, एक तो मुझे वैसे ही भाई के मरने का दुख है, फिर आप मरने पर उसका अपमान कर रहे हैं। ऐसा क्या अपराध उसने किया है जिससे आपकी क्रोधाग्नि इतनी भड़की है?

'बादशाह बोला, 'बेटे, तुम नहीं जानते कि क्या किस्सा है। यह आदमी इससे कहीं अधिक भर्त्सना और दंड का भागी है। यह शहजादा बचपन ही से अपनी सगी बहन पर आसक्त था। जब दोनों छोटे थे तो मैंने बच्चा समझ कर उनकी बातों पर कुछ ध्यान नहीं दिया। किंतु जब दोनों बड़े हो गए तब भी दोनों में घनिष्टता रही बल्कि बढ़ गई। अब मैंने उनके संबंध को रोकना चाहा। मैंने कड़े पहरे बिठाए कि भाई-बहन एक दूसरे के सामने न आएँ। शहजादा अकेला ही कुमार्गगामी होता तो बात आगे न बढ़ती लेकिन यह अभागी लड़की उससे भी अधिक नीच निकली। यह अपने भाई से मिलने के लिए तड़पती रहती थी। यद्यपि मेरी सख्ती के कारण खुलकर एक दूसरे के सामने न आते थे किंतु उनके हृदयों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण कम नहीं होता था।

'अतएव बहन से सलाह करके शहजादे ने अपने लिए खास तौर से यह गुप्त आवास बनवाया ताकि अवसर मिलते ही दोनों विहार करें। जब मैं शिकार पर गया तो शहजादे को अवसर मिला और वह किसी तरह अपनी बहन को महल से निकाल कर यहाँ ले आया ताकि उसके साथ हमेशा यहाँ रहे। इसीलिए उसने बहुत अधिक मात्रा में खाद्य सामग्री भी यहाँ ला रखी। कुछ दिनों यह लोग एक-दूसरे के साथ आनंद से रहे होंगे, फिर उन पर ईश्वरीय प्रकोप हुआ और दोनों ने अपने पाप का समुचित फल पाया।'

'यह कहकर बादशाह का क्रोध दुख में बदल गया और वह अपने बेटे-बेटी की मृत्यु पर विलाप करके रोने लगा। मैं भी उसके साथ रोने लगा। हम लोग बहुत देर तक रोते रहे। फिर उसने मुझे अपने सीने से लगाकर कहा, 'अच्छा हुआ कि ये पापी मर गए। अब तुम ही मेरे पुत्र और मेरे उत्तराधिकारी हो।'

'फिर मैं और मेरा चाचा मृतक शहजादे की याद करके रोने लगे। कुछ देर बाद हम लोग सीढ़ी से ऊपर चढ़ आए और दरवाजा बंद करके उस पर मिट्टी डालकर बाहर आ गए। जब हम लोग राजमहल के पास पहुँचे तो हमने देखा कि फौजियों के घोड़ों के दौड़ने से उड़ी हुई धूल से आकाश अटा जा रहा है और युद्ध के बाजों की ध्वनि से कान फटे जा रहे हैं। मालूम हुआ कि मेरे पिता का वही मंत्री जिसने मेरा राज्य हड़प लिया था एक बड़ी सेना लेकर मेरे चाचा के राज्य पर भी चढ़ आया है। मेरे चाचा की सेना उसकी सेना से कम थी। उसकी सेना ने बगैर किसी कठिनाई के राजधानी और महल पर अधिकार कर लिया। मेरे चाचा ने अपने अधिकार की रक्षा का भरसक प्रयत्न किया और युद्ध क्षेत्र में कूद पड़ा। फिर भी वह सफल न हुआ और युद्ध में मारा गया। उसके मरने के बाद भी मैं शत्रु का सामना करता रहा और कुछ समय तक युद्ध भूमि में डटा रहा किंतु जब देखा कि बिल्कुल घिर गया हूँ तो निकल भागने की सोची। मंत्री की सेना के एक सरदार ने मुझे पहचाना और पुराने बादशाह की नमकहलाली के खयाल से मुझे बच निकलने का अवसर दे दिया।

'मैंने युद्धभूमि से निकलकर पहला काम तो यह किया कि दाढ़ी-मूँछें और भवें सफाचट करवा दीं ताकि दुश्मन मुझे पहचान न सके और फकीर के कपड़े पहन लिए। फिर बड़े कष्ट उठाता हुआ अनजाने रास्तों से होकर अपने चाचा के राज्य के बाहर निकला। फिर कई नगरों में फकीर बन कर घूमता रहा। घूमता-घामता मैं अति प्रतापी, दयावान, दीनवत्सल, न्यायप्रिय खलीफा हारूँ रशीद की राजधानी में आ पहुँचा। मेरा इरादा था कि मैं उदारमना खलीफा की सेवा में पहुँच कर अपनी व्यथा कथा सुनाऊँ। किंतु जब इस नगर में पहुँचा तो शाम ढल चुकी थी। मैं इस चिंता में आगे बढ़ा कि कहीं ठिकाना मिले तो रात व्यतीत करने का प्रबंध करूँ।

'कुछ दूर जाने पर मुझे यह दूसरा फकीर मिला। उसने मेरा अभिवादन किया। मैंने उसके अभिवादन का उत्तर देकर कहा कि तुम भी मेरी तरह परदेसी लगते हो। उसने कहा कि हाँ, मैं भी अभी-अभी इस नगर में आया हूँ। हम लोग बातें कर ही रहे थे कि यह तीसरा फकीर भी आ गया और हम दोनों का अभिवादन करके पास बैठ गया। उसने भी कहा कि मैं परदेसी हूँ और इस नगर में अभी आया हूँ। हम लोग चूँकि एक ही वेश में थे और तीनों की एक-सी दशा थी इसलिए हमने तय किया कि भाइयों की तरह मिल कर रहें और जहाँ जाएँ एक साथ ही जाएँ।

'हम लोग इस चिंता में निमग्न हो गए कि रात कहाँ बिताएँ क्योंकि हम तीनों में कोई भी यहाँ के किसी निवासी को नहीं जानता था न कभी पहले यहाँ आया था। अपने सौभाग्य से हम लोग घूमते-फिरते तुम्हारे दरवाजे पर आ निकले। तुमने भोजन और मनोरंजन से हमारा चित्त प्रसन्न किया इसके लिए हम सदा के लिए तुम्हारे आभारी रहेंगे। यही मेरा वृत्तांत है जिसे मैंने पूरी तरह बता दिया है।'

जुबैदा ने कहा कि हमने तुम्हें क्षमा किया और तुम जा सकते हो। किंतु फकीर ने कहा कि अगर तुम अनुमति दो तो मैं भी एक ओर बैठकर अपने दोनों साथियों की राम कहानी सुन लूँ, और इन तीन व्यापारियों की आप बीती भी सुन लूँ। इसके बाद मैं आपके घर से चला जाऊँगा। जुबैदा ने उसे एक ओर बैठकर दूसरों का वृत्तांत सुनने की अनुमति दे दी। वह मजदूर के पास जा बैठा।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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किस्सा दूसरे फकीर का

अभी पहले फकीर की अद्भुत आप बीती सुनकर पैदा होने वाले आश्चर्य से लोग उबरे नहीं थे कि जुबैदा ने दूसरे फकीर से कहा कि तुम बताओ कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो। उसने कहा कि आपकी आज्ञानुसार मैं आप को बताऊँगा कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मेरी आँख कैसे फूटी। मैं एक बड़े राजा का पुत्र था। बाल्यकाल ही से मेरी विद्यार्जन में गहरी रुचि थी। अतएव मेरे पिता ने दूर-दूर से प्रख्यात शिक्षक बुलाकर मेरी शिक्षा के लिए रखे। थोड़े ही समय में मैंने न केवल लिखना-पढ़ना सीख लिया बल्कि कुरान शरीफ भी कंठस्थ कर लिया। इसके अतिरिक्त नबी के कथनों यानी हदीसों और धर्म और दर्शनशास्त्र की शिक्षा भी प्राप्त कर ली। इसके अतिरिक्त भाँति-भाँति के कला- कौशल भी सीख लिए और इतिहास, पहेली और मनोरंजन वार्ता में भी पारंगत हो गया। मैंने काव्यशास्त्र और गणित में भी अच्छा अभ्यास कर लिया जैसा एक राजकुमार होने के नाते मुझसे आशा की जाती थी। इन सबके साथ ही मैंने सुलेखन में भी दक्षता प्राप्त कर ली और अरबी लिपि की सातों लेखन पद्धतियों का मुझे ऐसा अभ्यास हो गया कि मेरे जैसा सुलेखक दूर-दूर तक नहीं पाया जाता था।

इतने गुणों और कौशलों को प्राप्त करने पर भी मैं अपने दुर्भाग्य के लेख को न मिटा सका और इस दुरवस्था में पहुँच गया जो तुम लोग देख रही हो। हुआ यह कि मेरे विद्यार्जन और कला-कौशल में पारंगत होने की ख्याति जब दूर-दूर पहुँची तो हिंदोस्तान के बादशाह ने मुझे देखने की इच्छा प्रकट की। उसने मुझे भेंट करने के लिए एक दूत के हाथ बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ भेजीं और संदेशा भिजवाया कि मैं जाकर उससे मिलूँ। मेरे पिता इस बात से बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि एक तो एक महान सम्राट से उनके संबंध बन रहे थे, फिर राजकुमार होने के नाते मुझे देश-देश की जानकारी और राजाओं-महाराजाओं से मेल-जोल बढ़ाना ही चाहिए था।

अतएव मैं अपने पिता की आज्ञानुसार थोड़ी-सी यात्रा की सामग्री और कुछ चुने हुए सेवक लेकर हिंदोस्तान की ओर रवाना हुआ क्योंकि बड़ी सेना ले आने की न तो आवश्यकता ही थी न यह बात उचित ही होती। कुछ दिन तक चलने के बाद हम लोगों को पचास के लगभग घुड़सवार डाकुओं ने घेर लिया और सबसे पहले वे दस घोड़े पकड़ लिए जिन पर मेरे पिता की ओर से हिंदोस्तान के बादशाह को भेंट में दी जाने वाली बहुमूल्य वस्तुएँ लदी थीं। मेरे सेवकों ने कुछ देर तक डाकुओं का सामना किया किंतु हार गए। मैंने यह सोचकर कि डाकुओं पर रोब पड़ेगा, उनसे कहा कि मैं हिंदोस्तान के बादशाह का दूत हूँ। उसने घृणापूर्वक कहा, हमें हिंदोस्तान के बादशाह की क्या परवा है; हम न तो उसके शासित देश में रहते हैं न उसके नौकर हैं। फिर उन डाकुओं ने हम लोगों पर आक्रमण किया। हम भी कुछ देर तक लड़े लेकिन उनका क्या सामना करते। मेरे कई साथी मारे गए और मैं भी घायल हो गया और मेरा घोड़ा भी। नितांत मैं जान बचाकर अपने घोड़े पर भाग निकला और डाकुओं की पहुँच से दूर हो गया। कुछ दूर तक दौड़ने के बाद मेरा घोड़ा भी थकन और घावों के कारण गिर कर मर गया। मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि माल-असबाब जाता रहा लेकिन जान तो बच गई।

किंतु मैं नितांत अकेला और द्रव्यहीन था। यह डर भी था कि कहीं डाकुओं ने देख लिया तो बगैर जान से मारे न रहेंगे। इसलिए किसी तरह कपड़ों की पट्टी फाड़कर अपने घाव बाँधे और एक ओर को चल दिया। शाम को एक पहाड़ की गुफा के पास पहुँचा और रात उसी गुफा में बिताई। सुबह को उठा, जंगली फल खाकर भूख मिटाई और चल पड़ा। कई दिन तक इसी तरह भटकता रहा। फिर एक बड़े नगर में पहुँच गया जो बड़ा सुशोभित लग रहा था। वहाँ एक नदी भी बहती थी जिससे वह प्रदेश हरा-भरा और धन- धान्य से पूर्ण था। मैं नंगे और बिवाइयों से फटे पाँव, बढ़े बालों और दाढ़ी तथा गंदे फटे वस्त्रों के साथ उस नगर में गया कि मालूम करूँ यह कौन-सा देश है और यहाँ से मेरा देश कितना दूर है।

यह सोचकर मैं एक आदमी के पास, जो सरकारी लिपिक था और शहर में आने-जाने वालों का हिसाब रखता था गया। उसने मेरा वृत्तांत पूछा और मैंने सब कुछ जो मुझ पर बीता था उसे बताया। उसने धैर्यपूर्वक मेरी बातें सुनीं किंतु फिर उसने जो कुछ कहा उससे मेरे हृदय में शांति आने की जगह भय भर गया। उसने कहा कि तुमने मुझे अपना पूरा हाल बता दिया है सो तो ठीक है लेकिन यहाँ के किसी और व्यक्ति को कुछ न बताना क्योंकि यहाँ का बादशाह तुम्हारे पिता का शत्रु है और उसे तुम्हारा पता चला तो तुम्हारे साथ बुरी बीतेगी।

मैंने उस बूढ़े लिपिक को बहुत धन्यवाद दिया कि उसने मुझ पर दया दिखाई और मुझे खतरे से चेतावनी दे दी। मैंने उससे वादा किया, अब मैं यहाँ के किसी आदमी को अपनी सच्ची कहानी नहीं बताऊँगा। वह लिपिक यह सुनकर प्रसन्न हुआ। मेरा भूख से बुरा हाल हो रहा था इसलिए उसने अपने घर से खाना लाकर मुझे खिलाया और वहीं एक कोने में लेटकर थकावट दूर करने को कहा। मैंने ऐसा ही किया। जब मेरे शरीर में शक्ति और स्फूर्ति आ गई तो मैं फिर उसके पास गया। उसने पूछा कि तुम्हें कोई हुनर ऐसा आता है जिससे तुम अपनी जीविका चला सको। मैंने साहित्य, काव्य, कला, व्याकरण, सुलेखन आदि की निपुणता की बात कही तो उसने कहा, यह सब यहाँ बेकार है, यहाँ विद्या की कोई पूछ नहीं, तुम्हें इस विद्या से एक पैसा भी यहाँ नहीं मिलेगा।

उसने कहा कि तुम शरीर से तगड़े हो, तुम्हें चाहिए कि एक जाँघिया पहन कर जंगल में चले जाओ और लकड़ियाँ काट कर शहर में लाकर बेचा करो। उससे तुम्हें इतनी आय तो हो ही जाएगी कि किसी का आश्रय लिए बगैर अपना खर्च चला लो। कुछ दिन इसी प्रकार दुख उठाकर मेहनत करके समय बिताओ। आशा है कि इसके बाद भगवान तुम पर कृपा करेगा और तुम फिर सुख-समृद्धि प्राप्त करोगे। मैं तुम्हारी इतनी सहायता कर दूँगा कि तुम्हें एक कुल्हाड़ी और एक रस्सी दे दूँ।

मरता क्या न करता। यद्यपि यह कार्य मेरे योग्य किसी प्रकार नहीं था फिर भी मैंने यह करना स्वीकार कर लिया क्योंकि कोई और रास्ता नही था। दूसरे दिन लिपिक ने मुझे एक जाँघिया, एक कुल्हाड़ी और एक रस्सा लाकर दे दिया और मेरा परिचय थोड़े- से लकड़हारों से करा दिया और कहा कि इस आदमी को भी लकड़ी काटने के लिए साथ ले जाया करो। मैं लकड़हारों के साथ जंगल में जाता और लकड़ियाँ काटकर उनका गट्ठा बना कर शहर में ला बेचने लगा। मुझे एक गट्ठे का मूल्य एक स्वर्ण मुद्रा मिलती थी। यद्यपि जंगल उस शहर से दूर था तथापि नगर निवासी बड़े आलसी थे और श्रम करने के अभ्यस्त न थे इसलिए लकड़ी शहर में बहुत महँगी मिलती थी। कुछ ही दिनों में मेरे पास काफी स्वर्ण मुद्राएँ हो गईं जिनमें से कुछ अपने उपकारी लिपिक को मैंने दे दीं।

इसी प्रकार मेरा एक वर्ष व्यतीत हो गया। एक दिन लकड़ी काटते-काटते अपने साधारण स्थान से आगे बढ़ गया। आगे का जंगल मुझे और अच्छा लगा। मैंने एक वृक्ष काटा। जब उसकी डालें और तना काट चुका तो मैंने उसकी जड़ भी काट कर ले जानी चाही। कुल्हाड़ी चलाते-चलाते मुझे एक लोहे का कड़ा दिखाई दिया। और मिट्टी हटाई तो देखा कि कड़ा लोहे के दरवाजे में लगा है।

मैंने जोर लगा कर उसे ऊपर उठाया तो नीचे जाती हुई सीढ़ियाँ दिखाई दीं। मैं रस्सा और कुल्हाड़ी सहित नीचे उतर गया। नीचे एक बड़ा मकान था जिसमें ऐसा प्रकाश हो रहा था जैसे वह धरती के ऊपर बना हो। मैं आगे बढ़ता गया तो देखा कि सामने एक बारादरी है जिसके पाए संगे-मूसा के बने हुए हैं और खंभे नीचे से ऊपर तक खालिस सोने के बने हैं। बारादरी में एक अत्यंत रूपवती स्त्री बैठी थी। मैंने उसे देखा तो ठगा-सा रह गया। मैंने उसके निकट जाकर अभिवादन किया।

स्त्री ने मुझ से पूछा, 'तुम कौन हो, मनुष्य या जिन्न?' मैंने सिर उठा कर कहा, 'हे सुंदरी, मैं मनुष्य हूँ, जिन्न नहीं हूँ।' वह स्त्री शोकयुक्त स्वर में बोली, 'तुम मनुष्य हो तो यहाँ मरने के लिए क्यों आए हो; मैं यहाँ पच्चीस वर्षों से रह रही हूँ और इस काल में तुम्हारे सिवाय और कोई मनुष्य नहीं देख सकी हूँ।' उस स्त्री के अनुपम रूप के साथ ही उसके स्वर की मधुरता का मुझ पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि कुछ देर तक मेरे मुँह से कोई बात नहीं निकली।

कुछ देर में स्वस्थ हो कर मैंने उस स्त्री से कहा, 'सुंदरी, मुझे तुम्हारा कुछ हाल नहीं मालूम किंतु तुम्हारे दर्शन मात्र से मुझे अतीव सुख मिला है और मैं अपना सारा दुख-दर्द भूल गया हूँ। मेरी अतीव इच्छा है कि तुम्हें यहाँ से छुड़ा दूँ क्योंकि यह स्पष्ट है कि तुम यहाँ सुखी नहीं हो।' और मैंने अपना सारा जीवन वृत्त उस स्त्री के समक्ष वर्णन किया। मेरा पूरा हाल सुनने के बाद वह स्त्री ठंडी साँस भर कर बोली, 'शहजादे, तुम ठीक कहते हो। यह मकान जादू का है और यहाँ प्रचुर धन और समस्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं फिर भी मुझे यहाँ रहना तनिक भी पसंद नही। तुमने आबनूस के द्वीपों के बादशाह अबू तैमुरस का नाम सुना होगा। मैं उसकी बेटी हूँ। मेरे पिता ने मेरा विवाह अपने भतीजे के साथ कर दिया। जब मैं शादी के बाद अपने पति के घर जाने लगी तो रास्ते में मुझे एक दुष्ट जिन्न ने उड़ा लिया। मैं भय के कारण लगभग तीन पहर तक अचेत रही। जब मुझे होश आया तो मैंने अपने को इस मकान में पाया। अब केवल उसी जिन्न के साथ मेरा उठना-बैठना है। यह सारा धन और सुख-सामग्री जो यहाँ दिखाई देती है मुझे कुछ भी संतोष नहीं दे पाती। हर दसवें दिन जिन्न यहाँ आता है और मेरे साथ रात बिताता है। उसका विवाह पहले तो उसी की जाति की एक स्त्री से हो चुका है और वह अपनी स्त्री के भय से मेरे पास इससे अधिक नहीं रह पाता। दस दिन के अंदर यदि किसी दिन मैं उसे बुलाना चाहूँ तो उसका भी प्रबंध उसने कर दिया है। यदि मैं यह इधर रखा हुआ जादू का यंत्र छू दूँ तो उसे खबर हो जाती है और वह आ जाता है।'

स्त्री ने आगे कहा, 'उस जिन्न को यहाँ से गए चार दिन हो गए है। वह छह दिन बाद फिर यहाँ आएगा। यदि तुम्हें यहाँ की सुख-सुविधाएँ और मेरा साथ पसंद है तो पाँच दिनों तक यहाँ आराम से रह सकते हो, मैं तुम्हारा हर प्रकार से आदर-सत्कार करूँगी और तुम्हे सुख पहुँचाऊँगी।'

मैं उसकी बातें सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी कि ऐसी सुंदरी के साथ रहूँ। मैंने बड़ी प्रसन्नता से यह बात स्वीकार कर ली। वह मुझे एक स्नानागार तक ले गई। मैंने अंदर जाकर अच्छी तरह स्नान किया और बाहर निकला। वह मेरे पहनने के लिए जरी के वस्त्र ले आई। मैंने वह शाही पोशाक पहनी तो वह मुझे देखकर मुझ पर और भी कृपालु हो गई। फिर एक सजे हुए दालान में उसने मुझे एक सुनहरे कमख्वाब की मसनद पर बिठाया। फिर वह नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन लाई और हम दोनों ने साथ बैठकर भोजन किया। दिन भर हम लोग इधर-उधर की बातें करते रहे। रात के भोजन के बाद उसने अपने साथ मुझे सुलाया। सुबह होने पर उसने और भी स्वादिष्ट व्यंजन बनाए और मेरे विशेष सत्कार के लिए पुरानी शराब की बोतलें ले आई। मैं बहुत-सी शराब पीकर मदमस्त हो गया।

मैंने उससे कहा, 'प्रिये, तुम पच्चीस वर्षों से इस मकान में जिसे कब्र कहना चाहिए बंद हो। यह बात ठीक नहीं है। तुम मेरे साथ यहाँ से निकल चलो और बाहर की ताजा हवा खाओ। इस दिखावे के ऐश-आराम को छोड़ो क्योंकि यह जादू से अधिक कुछ नहीं है। तुम मेरे साथ चलो।'

वह सुंदरी बोली, 'ऐसी बातें जिह्वा पर भी न लाना। तुम जिसे सूर्य का प्रकाश कहते हो वह मैं भूल चुकी हूँ। मुझे यहीं रहने की आदत पड़ गई है, मुझे यहीं रहने दो। एक दिन छोड़कर जबकि वह जिन्न यहाँ आता है, तुम बाकी नौ दिन यहाँ आराम से रह सकते हो।'

मुझे नशा चढ़ गया था। मैंने कहा, 'तुम उस जिन्न से इतना क्यों डरती हो। मैं तुम्हारे लिए अपनी जान भी दे सकता हूँ। मैं इस जादू के यंत्र को मय उसकी जादुई लिखावट के तोड़-फोड़ कर बराबर कर दूँगा। अपने जिन्न को आने दो। मैं भी तो देखूँ उसमें कितनी ताकत हैं। मैंने निश्चय कर लिया है कि संसार के सारे जिन्नों का अंत कर दूँगा और सबसे पहले इसी जिन्न को मारूँगा जिसने तुम्हें कैद कर रखा है।'

वह स्त्री भली भाँति जानती थी कि मेरी मूर्खता का क्या फल होगा। उसने मुझे बहुत समझाया, हर तरह रोका, कसमें दीं कि यंत्र को छुआ तो हम दोनों मारे जाएँगे क्योंकि उस जिन्न की शक्ति को मैं जानती हूँ, तुम नहीं जानते।

मैं नशे में धुत था इसलिए मैंने उसकी चेतावनी को अनसुना कर दिया और ठोकर मार कर जादू के यंत्र को तोड़ डाला। यकायक ही सारा मकान काँपने लगा और एक महाभयानक शब्द हुआ। सारी रोशनियाँ बुझ गईं और अंधकार छा गया जिसमें रह-रह कर बिजली चमकने लगती थी। यह हाल देखकर मेरा नशा हिरन हो गया। मैंने सोचा कि वास्तव में मुझसे भयानक भूल हो गई। मैंने अब उस सुंदरी से पूछा कि क्या करना चाहिए। उसने कहा कि मुझे अपने प्राण जाने का भय नहीं, मैं तो वैसे ही दुखी थी। तुम्हारी जान को जरूर खतरा है और इसी से मैं अत्यंत व्याकुल हूँ। तुमने खुद ही अपनी जान के लिए यह आफत मोल ली। अब यहाँ से तुरंत भाग कर जान बचाओ।

यह सुनकर मैं ऐसा बेतहाशा भागा कि अपनी कुल्हाड़ी और रस्सा भी वहीं भूल गया और गिरते-पड़ते उस सीढ़ी तक आया जिससे उतर कर उस मकान में गया था। इतने में वह जिन्न भी अत्यंत क्रुद्ध होकर वहाँ आ पहुँचा और गरज कर स्त्री से पूछने लगा कि तूने मुझे क्यों बुलाया है। वह डर के मारे पत्ते की तरह काँपने लगी और बोली, मैंने तुम्हें बुलाया नहीं है। मैंने इस बोतल से थोड़ी-सी मदिरा पी ली थी। मुझ पर ऐसा नशा चढ़ा कि हाथ-पाँव काबू में न रहे। नशे की हालत में मैंने इस यंत्र पर पाँव रख दिया जिससे यह टूट गया। जिन्न यह सुनकर और भी कुपित हुआ और बोला, तू झूठी, मक्कार और दुराचारिणी है। इस कुल्हाड़ी और रस्से को यहाँ कौन लाया है? स्त्री बोली, मैंने तो इन्हें अभी-अभी देखा है। तुम भागते-दौड़ते आए हो, इसीलिए तुम्हारे साथ लगी हुई यह चीजें आ गई होंगी। तुमने अपनी जल्दी में ध्यान न रखा होगा कि तुम्हारे पास कुल्हाड़ी और रस्सा भी है।

इस पर जिन्न का क्रोध और भी बढ़ा। उसने स्त्री को भूमि पर पटक दिया और उसे निर्दयता से पीटने लगा और साथ में गालियाँ भी देने लगा। स्त्री तड़पने और रोने- चिल्लाने लगी। उसका करुण क्रंदन मुझसे नहीं सुना जाता था। लेकिन मैं कुछ कर भी नहीं सकता था। मैंने स्त्री के दिए वस्त्र उतारे और वही फटे-पुराने लकड़हारों के वस्त्र पहन लिए जिन्हें पहन कर मैं पिछले दिन आया था। फिर मैं सीढ़ी से चढ़कर ऊपर आ गया। मैं अपने का बराबर कोसता जा रहा था कि मेरी मूर्खता और जिद्दीपन के कारण उसे बेचारी स्त्री पर ऐसा अत्याचार हो रहा है। बाहर आकर मैंने फिर सीढ़ी के मुँह पर लोहे का दरवाजा रखा और उस पर मिट्टी डाल कर उसे छुपा दिया।

फिर मैंने पिछले दिन की जमा की हुई लकड़ियाँ किसी तरह बाँधीं और नगर में आकर लकड़ी का गट्ठा बेच दिया। फिर भी मैं बराबर सोच रहा था कि न जाने उस सुंदर स्त्री पर क्या बीत रही होगी। लकड़ी बेचकर जब मैं अपने निवास स्थान पर आया तो लिपिक मुझे देखकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि तुम कल नहीं आए तो मुझे बड़ी चिंता हो गई थी, मैंने सोचा कि कहीं ऐसा तो नही है कि यहाँ के बादशाह को तुम्हारे यहाँ पर रहने की बात मालूम हो गई हो और उसने तुम्हें पकड़वा मँगाया हो, भगवान का लाख-लाख धन्यवाद है कि तुम सकुशल वापस गए हो।

मैंने उसकी बातों पर उसे हृदय से धन्यवाद दिया किंतु यह न बताया कि कल मेरे साथ क्या बीती थी। मैं अपने कमरे में चला गया और फिर उसी शोक में निमग्न हो गया कि मैंने अपने दुराग्रह से अपनी उपकारिणी स्त्री को कैसा दुख पहुँचाया और अगर मैं वह यंत्र न तोड़ डालता तो उस राजकुमारी पर भी दुख न पड़ता और मैं पाँच दिन बड़े सुख से रहता। मैं यह सोच ही रहा था कि लिपिक मेरे पास आकर कहने लगा कि एक बूढ़ा एक कुल्हाड़ी और रस्सा लेकर आया है और कहता है कि तुम शायद इन्हें जंगल में भूल आए थे। लेकिन वह इन चीजों को तभी वापस करेगा जब तुम बाहर चलकर उसे इनकी पहचान बताओंगे।

यह सुनकर मेरा चेहरा पीला पड़ गया और मैं भय के कारण सिर से पाँव तक थर-थर काँपने लगा। लिपिक ने मुझ से पूछा, यह तुम्हें क्या हो रहा है। मैं अभी उसे उत्तर भी नहीं दे सका था कि कमरे की धरती फट गई और बूढ़ा जिन्न मेरे बाहर आने की राह न देखकर कुल्हाड़ी और रस्सी लिए वहीं आ गया। उसने मुझ से कहा, 'तू जानता है मैं कौन हूँ? मैं ऐसा-वैसा जिन्न नहीं हूँ, स्वयं इबलीस (शैतान) का दौहित्र हूँ। तू जानता है कि इबलीस सारे जिन्नों और दैत्यों का सरताज है। बोल, यह कुल्हाड़ी और यह रस्सा तेरे है या नहीं?

मैं उसे देखकर ऐसा भयभीत हुआ कि मेरी वाक शक्ति ही समाप्त-सी हो गई और मैं अचेत होकर गिरने लगा। जिन्न ने मेरे होश में आने की प्रतीक्षा नहीं की। वह मुझे कमर से पकड़ कर ले उड़ा और दो क्षण में ही मैं इतने ऊँचे पर्वत पर ले जा कर रख दिया जिस पर चढ़ने में महीनों लगते। फिर उसने पहाड़ की चोटी पर पाँव पटका। इससे धरती फट गई। जिन्न मुझे लेकर उस गड्ढे में उतर गया और पलक झपकते ही मुझे उठाए हुए उस मकान में आ गया जहाँ मैंने राजकुमारी के साथ पिछला दिन बिताया था।

यह देख कर मेरे दुख का पाराबार न रहा कि राजकुमारी अब भी जमीन पर पड़ी तड़प रही थी और अधमरी-सी अवस्था में चीख-पुकार कर रही थी। उस जिन्न ने कहा, देख, यह कुलटा तुझ पर मोहित है। स्त्री ने मुझ पर सरसरी निगाह डालकर कहा कि मैं इसे बिल्कुल नहीं जानती, इससे पहले मैंने कभी इसे देखा ही नहीं। जिन्न बोला, तू झूठी है जो कहती है इसे कभी नहीं देखा, इसी आदमी के कारण तेरी जान जाएगी। स्त्री ने कहा कि तुम किसी न किसी बहाने से इसे मार डालना चाहते हो, इसी से मुझ से झूठ कहलवा रहे हो।

जिन्न ने कहा कि अगर तू वास्तव में इससे अपरिचित है तो तलवार उठा और इसका सिर काट दे। राजकुमारी ने कहा, मुझ से तलवार कहाँ उठेगी, इसक अतिरिक्त यह कैसे हो सकता है कि मैं किसी निर्दोष व्यक्ति के प्राण लूँ। जिन्न ने कहा कि ऐसी हालत में भी तू इसे मारने से इनकार करती है, इसी बात से तेरा पापाचार सिद्ध हो जाता है। फिर जिन्न ने मुझ से पूछा कि तू इस स्त्री को जानता है या नहीं। मैंने जी में सोचा कि राजकुमारी स्त्री होकर भी इतना साहस दिखा रही है, मैं मर्द होकर यदि इसका भेद खोलूँ तो इससे अधिक अशोभनीय क्या होगा। इसलिए मैंने भी कहा कि मैंने इससे पहले इस स्त्री को कभी नहीं देखा है। जिन्न बोला, अगर तू सच कहता है तो उठा तलवार और काट दे इसका सिर।

मैं मन में सोचने लगा कि यह तो अत्यंत अनुचित बात होगी कि उस स्त्री को जो मेरे कारण इस दुख में पड़ी थी अपने हाथ से मारूँ। स्त्री ने मुझ से संकेत से कहा कि तुम सोच-विचार न करो, मेरी जान बचने ही की नहीं है, तुम अपने हाथ से मुझे मार डालो, और इस प्रकार अपनी जान बचाओ, मुझे इसी में संतोष मिलेगा। किंतु मैं ऐसा न कर सका। मैं दो पग पीछे हट गया और तलवार हाथ से फेंक कर जिन्न से बोला, तुमने मुझे बिल्कुल कायर पुरुष समझ लिया है कि तुम्हारे कहने भर से किसी अपरिचिता को मार डालूँ। फिर इस सुंदरी की तो तुमने वैसे ही दुर्दशा कर रखी है, मैं इस पर क्या हाथ उठाऊँ। तुम्हें अधिकार है कि जो चाहो वह करो किंतु इस प्रकार का काम मुझसे न होगा।

जिन्न ने कहा, तुम दोनों ही मेरे क्रोध को निरंतर बढ़ा रहे हो। तुम शायद यह नहीं जानते कि मुझ में कितनी शक्ति है।' यह कहकर उस अत्याचारी ने स्त्री के दोनों हाथ काट डाले। वह अधमरी तो पहले ही से हो रही थी, यह चोट खाकर तुरंत मर गई। मैं यह देखकर मूर्छित हो गया। कुछ होश आया तो मैंने जिन्न से कहा कि अब तुम मुझे भी मार डालो और अपना क्रोध शांत करो।

जिन्न ने कहा, हम लोगों का नियम है कि जब किसी को व्यभिचार का दोषी पाते हैं तो उसका वध कर देते हैं। तुम पर मुझे व्यभिचार का संदेह भर है। इसलिए तुझे मारूँगा नहीं, किंतु मानव नहीं रहने दूँगा। अब तू कुत्ता, गधा, सूअर या जो भी पशु-पक्षी बनना चाहे बता दे, मैं तुझे वही बना दूँगा। मैंने उसका क्रोध कुछ कम देखा तो बोला, 'जिन्नों के सरताज, मेरी प्रार्थना है कि एक भले आदमी ने अपने बुरा करने वाले के साथ जैसे उपकार किया था वैसे ही तू मुझे क्षमा कर दे और मुझे आदमी ही रहने दे।' जिन्न ने कहा, यह भले आदमी का क्या किस्सा है। मैंने बताना शुरू किया।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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