ऋचा (उपन्यास)

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Jemsbond
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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अचानक घॅंुघरू छनकाती एक युवती ने बड़े अदब से सलाम कर, नृत्य शुरू कर दिया। युवती ने रंगीन घाघरा-चोली पहन रखा था। साथ में एक युवक ढोल लिए था। ढोल की थाप पर युवती के पाँव थिरक रहे थे। लोगों की भीड़ आसपास मिसट आई। नृत्य समाप्त कर युवती ने माथे पर छलक आई पसीने की बॅंूदें चुन्नी से पोंछ डालीं। ढोल रखकर युवक ने लोगों के सामने झोली फैला दी। युवती ऋचा के पास आकर जमीन पर बैठ गई।

“तुम दिन भर में कितना कमा लेती हो?”

“हमें क्या पता, उससे पूछो।” युवती ने युवक की ओर इशारा कर दिया।

“क्यों तुम नाचती हो, मेहनत करती हो, पर तुम्हें यह भी नहीं पता कि तुम कितना कमाती हो?”

“ऐ मेम साहब, वह हमारी जोरू है। उसको कमाई से क्या मतलब? जल्दी पैसा देने का …..”

“क्यों, जोरू होने का मतलब कमाई से औरत का कोई मतलब नहीं?” ऋचा का पत्रकार फुँफकार उठा।

“ज्यादा बात नहीं करने का, तमाशा देखो, पैसा देना है तो दो नहीं तो राम-राम।” युवक ने ढोल उठाकर चलने का उपक्रम किया।

“अरे अरे, रूको भाई। ये लो।” जेब से दस रूपए निकालकर विशाल ने युवक की ओर बढ़ा दिए।

“यह क्या, तुमने भी उस आदमी को ही पैसे दिए। औरत के साथ हमेशा ही अन्याय होता है।”

“अरे, जब उस औरत को कुछ अंतर नहीं पड़ता तो तुम क्यों बेकार अपना सिर खपा रही हो। तुम्हारा पारा नीचे उतारने के लिए, लगता है, कोल्ड ड्रिंक ही काफ़ी नहीं है, आइसक्रीम लानी होगी।” विशाल ने बात हॅंसी में उड़ानी चाही।

“तुम भी तो पुरूष हो, विशाल। तुम्हारा सोच अलग कैसे होगा?”

“तुम तो छोटी-सी बात का बतंगड़ बना रही हो। हम जब शादी करेंगे, तब तुम अपना वेतन बिल्कुल अलग रखना।”

“वाह, जनाब, कुछ मुलाकातों में शादी तक पहुँच गए। इस भुलावे में मत रहिएगा। अब चलें, मुझे आॅफिस में सुनीता की खबर भी छपने को देनी है।”

“तुम्हारा काम तो मेरा समय छीन लेता है। थोड़ी देर और रूको न?”

“अच्छा जी, अब आपको भी हमारे काम से शिकायत होने लगी, शिकायत के लिए तो मेरी माँ ही काफ़ी हैं।”

“भला तुम्हारी माँ को तुम्हारे काम से क्या शिकायत हो सकती है। घर में अपना वेतन नहीं देतीं, क्या?”

“मज़ाक छोड़ो। एक तो लड़की, उसपर कुँवारी। भला माँ मेरे पैसों को हाथ लगाएगी? आज भी बाहर काम करने वाली लड़कियों की यही नियति है, विशाल। घर-बाहर के सारे काम करने पर भी बेटी को बेटे वाला सम्मान नहीं मिल पाता।” ऋचा कुछ उदास हो आई।

“ज़माना बदल रहा है, एक दिन तुम्हारी माँ भी तुम्हारा महत्त्व समझेंगी, ऋचा। चलो, तुम्हें तुम्हारें कार्यालय तक पहुँचा आऊॅं।”

यूनीवर्सिटी की फ़ाइनल परीक्षाएँ शुरू हो जाने की वजह से ऋचा, विशाल, नीरज, स्मिता सभी व्यस्त हो गए। ऋचा ने अखबार के दफ्तर से भी छुट्टी ले रखी थी। छुट्टी के लिए एप्लीकेशन देती ऋचा से सीतेश ने परिहास किया था-

“जब तक आप छुट्टी पर हैं, न किसी लड़की का बलात्कार होगा, न कोई औरत दहेज के लिए जलाई जाएगी।”

“ये तो रोज की कहानियाँ हैं, सीतेश। मेरे रहने न रहने से क्या फर्क पड़ता है?”

“पड़ता है, ऋचा जी। आप तो खोज-खोजकर ये खबरें लाती थी। दूसरों का शायद इन घटनाओं में उतना इन्टरेस्ट न हो।”

“ठीक कहते हो, सीतेश। जब तक रिपोर्टर ऐसी घटनाओं के साथ जुड़ाव न महसूस करें, उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। किसी शीला, लीला से उन्हें क्या लेना-देना।” ऋचा उदास हो आई।

“अरे अरे… आप तो सीरियस हो गई। मैंने तो मज़ाक किया था। हम हृदयहीन नहीं हैं, ऋचा जी, पर शायद जिस तरह आप इन घटनाओं से जुड़ जाती हैं, हम नहीं जुड़ पाते। विश्वास रखिए, ऐसी कोई भी दुःखद घटना नजर अन्दाज नहीं की जाएगी।”

“थैंक्स सीतेश!”
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ऋचा के पेपर्स अच्छे हुए थे। अन्तिम पेपर के बाद बड़ा हल्का-हल्का महसूस कर रही थी। स्मिता ने बताया, सुधा और रागिनी ऋचा को याद कर रही हैं। घर में खासा हंगामा होने के बावजूद, रागिनी ने एक स्कूल में और सुधा ने होटल में रिसेप्शनिस्ट का जॅाब ले लिया था। स्मिता की सास ने बहुत शोर मचाया, पर नीरज और उसके पिता ने दोनों लड़कियों का साथ देकर, उन्हें शान्त कर दिया। अन्ततः तय किया गया, दोनों लड़कियों का वेतन उनकी शादी के लिए सुरक्षित रखा जाएगा, पर पहले ही महीने के वेतन से रागिनी ने माँ और भाभी के लिए साड़ियाँ खरीद डालीं। पिता और भाई के लिए कुरते-पाजामे के सेट ले आई। सुधा ने अच्छी लड़की की तरह पूरा वेतन माँ के हाथों पर रख दिया। माँ से झिड़की सुनने के बाद रागिनी ने सुधा को आड़े हाथों लिया था।

“वाह दीदी। शादी के लिए ऐसी भी क्या जल्दी है? कम-से-कम पहली तनख्वाह से अपने लिए एक ढंग की साड़ी तो ले लेतीं। अपने लिए न सही, छोटी बहिन को ही एक सलवार-सूट खरीद देतीं। एक महीने के वेतन से शादी की तारीख जल्दी नहीं आ जाएगी।” चुलबुली रागिनी छेड़ने से बाज नहीं आती।

फ़ाइनल एग्जाम्स के बाद की पहली खाली शाम स्मिता के घर बिताने का निर्णय ले, ऋचा ने स्मिता के यहाँ पहुँच सबको चैंका दिया। स्मिता का चेहरा खिल गया। रागिनी और सुधा भी साथ आ बैठीं।

“कहो, तुम दोनों को कैसा लग रहा हैंघ्

पिंजरे से बाहर निकल, खुले आकाश में पहुॅच गए हैं।” सपनीली आँखों के साथ रागिनी ने कहा।

“रहने दे, काॅपियाँ जाँचते वक्त तो तू झूँझलाती है। ढेर का ढेर करेक्शन-वर्क लाती है, हमारी रागिनी।” स्नेह भरी दृष्टि डाल स्मिता ने ननद की बड़ाई की थी।

“हाँ, दीदी, यह तो सच है, पर बच्चों के साथ बड़ा अच्छा वक्त कट जाता है।”

“बच्चों के साथ या प्रकाश जी के साथ, सच-सच कह, रागिनी।” स्मिता ने रागिनी को छेड़ा।

“अरे, यह प्रकाश जी कौन हैं? क्या बात है, रागिनी।” ऋ़चा चैंक गई।

“रागिनी के स्कूल में सीनियर क्लासेज को फ़िजिक्स पढ़ाते हैं। उन्हें रागिनी बहुत अच्छी लगती है और रागिनी को प्रकाश बेहद नापसन्द हैं। ठीक कहा न, रागिनी?” स्मिता मुस्करा रही थी।

“भाभी, तुम भी बेकार की बातें करती हो। ऋचा दीदी के लिए चाय लाती हूँ।”

रागिनी के जाते ही स्मिता हॅंस पड़ी। ऋचा को बताया, रागिनी और प्रकाश एक-दूसरे को पसन्द करते हैं। नीरज को भी प्रकाश पसन्द है। सुधा की शादी भी परेश नाम के युवक से तय हो गई है। परेश एक कामकाजी लड़की चाहता था। सुधा की नौकरी ने शादी तय करने में मदद की है। ऋचा को स्मिता की खुशी से बहुत राहत मिल गई।

“अब तेरा क्या करने का इरादा है, स्मिता? कहीं शादी के बाद बस घर-गृहस्थी वाली बनकर ही तो नहीं रह जाएगी?”

“नहीं, दो दिन बाद मेरा इन्टरव्यू है। एक आॅफिस में सहायक जनसम्पर्क अधिकारी की जगह खाली है।”

“अरे वाह! तू तो सचमुच छिपी रूस्तम निकली। भगवान् तेरी मदद करें। अब चलती हूँ, वरना अम्मा की डाॅट खानी पड़ेगी।”

“तू क्या करेगी, ऋचा? शादी-वादी करनी है या यूूंॅ ही दूसरों की मदद के लिए दौड़ती रहेगी?” बड़े प्यार से स्मिता ने पूछा।

“अच्छा जी, शादी क्या हो गई कि जनाब हमें शिक्षा देने लगी। फिलहाल तो अखबार के दफ्तर में फुल-टाइम काम करने का इरादा है। आगे की भगवान् जाने।”

घर पहुँची ऋचा को माँ ने समझाया था – “देख ऋचा, तेरे इम्तिहान भी खतम हो गए। अब घर में बैठकर कुछ दुनियादारी सीख। हर वक्त मुँह उठाए, साइकिल पर दौड़ते रहना जवान लड़की को शोभा नहीं देता।”

“ठीक है, माँ, अब साइकिल मॅंुह नीचा करके चलाऊॅंगी।” माँ के गले में प्यार से हाथ डाल ऋचा हॅंस दी।

दूसरे ही दिन से ऋचा ने अखबार के कार्यालय में काम शुरू कर दिया। विशाल ने भी शहर के नामी वकील के साथ ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी। ऋचा और विशाल की शामें एक साथ गुजरने लगीं। एक-दूसरे से मिले बिना दोनों को चैन नहीं पड़ता।

तभी एक साथ दो हादसे हो गए। सुनीता ने हाॅस्पिटल से वापस आकर एक अलग घर लेकर रहना शुरू कर दिया था। इन्स्पेक्टर अतुल की मदद से सुनीता का बेटा अर्जुन भी सुनीता के ही साथ रह रहा था। सुनीता का पति इसे अपनी हार मानकर बौखला उठा। सुनीता के अस्पताल के कर्मचारियों से सुनीता की चरित्रहीनता की बातें करता, कभी गुण्डों द्वारा धमकी दिलवाता।

एक रात सुनीता अस्पताल से वापस लौट रही थी तभी राकेश ने उसपर लोहे की राॅड से हमला कर दिया। सुनीता धरती पर गिर गई, पर सौभाग्यवश सामने से सीनियर नर्स, मारिया की कार की रोशनी दोनों पर आ पड़ी। रोशनी पड़ते ही राकेश भाग गया, पर सिस्टर मारिया की नजरों से बच नहीं सका। सुनीता को सिस्टर मारिया अस्पताल ले गई और पुलिस में रिपोर्ट लिखा दी। इन्स्पेक्टर अतुल तुरन्त ही सुनीता का बयान लेने अस्पताल पहॅुच गया। फोन से ऋचा को भी खबर दे दी थी। ऋचा और अतुल को देख सुनीता रो पड़ी। अब उसे अर्जुन के साथ अपनी माँ और भाई-बहिनों की ज़िन्दगी के लिए भी डर हो गया था। अतुल ने बयान दर्ज कर, राकेश की गिरफ्तारी के लिए निर्देश दे दिए।

“डरो नहीं, सुनीता। राकेश की इस करतूत से तुम्हारा केस और ज्यादा मजबूत हो गया है। मैं खुद सिस्टर मारिया जैसी साहसी चश्मदीद गवाह के साथ राकेश के खिलाफ गवाही दूँगी।”
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सिस्टर मारिया ने ऋचा से बातें करते हुए अपनी आपबीती भी सुना डाली। सुनीता और उनकी कहानी लगभग एक-सी थी। पिता की मृत्यु के समय मारिया नर्सिग के दूसरे वर्ष मंे थीं। पिता के अलावा घर में कमाने वाला कोई दूसरा नहीं था। मारिया ने अपने पिता के एक मित्र से सहायता माँगी थी। नर्सिग का कोर्स पूरा करने के बाद वह उनका कर्ज चुका देगी। पिता के मित्र ने मारिया की माँ को अस्पताल में नौकरी दिला दी, पर बदले मंे वह मारिया का यौन-शोषण करता रहा। नर्स बनने के बाद मारिया ने विद्रोह का स्वर मुखर किया और पुलिस मंे रिपोर्ट कराने की धमकी देकर, शोषण से तो छुटकारा पा लिया, पर बहुत दिनों तक दहशत में जीती रहीं। सौभाग्य से मारिया का परिचय जेम्स नाम के एक अच्छे इन्सान से हो गया। मारिया ने जेम्स से कुछ भी नहीं छिपाया और आज दोनों सुखी विवाहित जीवन जी रहे हैं। मारिया की एक प्यारी-सी बेटी रोज़ी भी है। ऋचा ने कहा, उसे खुशी है, जहाँ एक ओर राकेश जैसा राक्षस है, वहीं जेम्स जैसे अच्छे इन्सान भी हैं। शायद इसीलिए दुनिया में अच्छाई कभी पूरी तरह विलुप्त नहीं हो सकी है।

सुनीता के केस की रिपोर्ट तैयार कर, ऋचा ने साइकिल स्मिता के घर की ओर मोड़ दी। स्मिता ने घबराई आवाज में बताया था, कल रात ड्यूटी के वक्त शराब में धुत्त दो युवकों ने सुधा के साथ अभद्र व्यवहार करते हुए जबरदस्ती करनी चाही। सुधा ने एक लड़के को चाँटा मार दिया। बात ने तूल पकड़ लिया है, क्योंकि युवक शहर के प्रतिष्ठित नेता और उद्योगपति का बेटा है। होटल-मालिक ने सुधा से युवक से माफ़ी माँगने को कहा, पर सुधा ने इन्कार कर दिया। सुधा को नौकरी से निकाल दिया गया है। घर में तनातनी का माहौल है। ऋचा के पहुँचते ही स्मिता की सास ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया –

“लो, आ गई सुधा की सलाहकार। अच्छी-भली घर में बैठी थी, इनके उकसाने पर होटल की नौकरी कर ली। ख़ानदान की नाक कटा दी। कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखा।”

“माँ, तुम ऋचा दीदी को क्यों दोष दे रही हो? अपनी इज्ज़त बचाने से नाक नहीं कटती।” रागिनी ने माँ का विरोध कर, उन्हें और उत्तेजित कर दिया।

“हाँ-हाँ, सारे लोग थू-थू कर रहे हैं। अरे, भले घर की लड़कियों के क्या ये ढंग होते हैं। हमें तो डर है, लगा-लगाया रिश्ता न टूट जाए।” माँ रोने-रोने को हो आई।

“अब चुप भी रहो, माँ। तुम्हीं शोर मचा-मचाकर सारी दुनिया को बता रही हो।” ऋचा को रागिनी अपने कमरे में ले गई।

कमरे में सुधा बुत बनी बैठी थी। ऋचा ने जैसे ही उसकी पीठ पर प्यार से हाथ धरा, उसकी आँखों से आँसू बह निकले। स्मिता ने हाथ से आँसू पोंछ, ऋचा की ओर रूख किया।

“कल से ऐसे ही आँसू बहा रही है। एक तो उस हादसे की दहशत, उस पर सासू माँ ने बातें सुना-सुनाकर सुधा का जीना मुहाल कर दिया है।”

“अरे वाह! सुधा, तूने जिस बहादुरी का नमूना पेश किया है, वह तो काबिले तारीफ़ है। हमें नहीं पता था, हमारी भोली-भाली सुधा में एक झाँसी की रानी छिपी हुई है। मेरी बधाई!”

ऋचा की बात पर सुधा के सूखे ओठों पर हल्की-सी मुस्कान तिर आई।

“यह हुई न बात। सच ऋचा, तेरी बातों में जादू है। क्यों सुधा, ठीक कहा न?” स्मिता खुश हो गई।

“चल, इसी बात पर चाय पिला दे। सुबह से चाय नहीं पी है।”

“चाय तो रागिनी ला ही रही है, पर एक डर मुझे भी है। इस घटना की जानकारी से कहीं परेश जी के घरवाले रिश्ता न तोड़ दें।” स्मिता चिन्तित दिख रही थी।

“अगर परेश सच्चा मर्द है तो सुधा के काम से उसे खुश होना चाहिए। अगर वह रिश्ता तोड़ने की बात करे, तो ऐसे कायर से शादी न करना ही अच्छा है।” उत्तेजित ऋचा का मुँह लाल हो आया।

“बिल्कुल ठींक कह रही हैं, ऋचा दीदी। प्रकाश तो सुधा दीदी की बहादुरी की दाद दे रहे थे।” कुछ शर्मा के रागिनी ने कहा।

“रहने दे, दूसरों के बारे में लोग ऐसी ही बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। अपने पर बीते तो रंग बदल लेते हैं।” स्मिता ने पुरखिन की तरह निर्णय दे डाला।

“तुम्हारा मतलब, अगर मेरे साथ ऐसा ही कुछ घटता तो प्रकाश पीछे हट जाते?” रागिनी ने सीधा सवाल किया।

“शायद तू ठीक समझी, रागिनी। सासू माँ की बातों में कुछ सच्चाई तो जरूर हैै। लोगों को बात का बतंगड़ बनाने में मजा आता है। सुधा के मामले को ही लोग न जाने क्या रंग दे डालें। हमेशा दोष लड़की का होता है न?” स्मिता गम्भीर थी।

“स्मिता, तेरी बातों से बहुत निराशा हो रही है। जिस लड़की ने माँ-बाप की इच्छा के विरूद्ध, नीरज के साथ शादी करने का, इतना बड़ा फ़ैसला लिया। वह आज लोगों की बातों की परवाह कर रही है। तुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। तुझे तो सुधा की ढाल बनकर खड़ा होना चाहिए।” ऋचा के चेहरे पर आक्रोश स्पष्ट था।

“तू ठीक कह रही है, ऋचा, पर मेरी स्थिति दूसरी थी। मेरे साथ नीरज थे। यहाँ सुधा का परेश कितना साथ देंगे, भगवान् जाने!”

“लड़की को किसी का सहारा जरूरी क्यों है, स्मिता? दूब घास देखी है? बार-बार पाँवों से कुचली जाकर भी दूर्वा सिर उठा-उठाकर खड़ी होती है या नहीं? औरत को दूर्वा की तरह जीना चाहिए।”

“वाह ऋचा दीदी, क्या बात कही है। अब आपको एक राज की बात बता दें।” रागिनी हॅंस रही थी।

“ज़रूर। तुम्हारा राज जाने बिना चैन नहीं पडे़गा।” ऋचा ने उत्सुकता दिखाई।

“जानती हैं, दीदी। स्कूल में मैट्रिक-परीक्षा के समय एक लड़के को नकल करते पकड़ लिया। उसे मैंने परीक्षा-हाॅल से बाहर कर दिया। अगले दिन जब मैं स्कूल जा रही थी, वह लड़का चार-पाँच गुण्डों के साथ खड़ा मेरा इन्तज़ार कर रहा था। मुझे जबरन एक मारूति वैन में ढकेल, वैन चला दी थी। सामने से आ रहे प्रकाश ने घटना देख ली। अपनी मोटरबाइक से पीछा किया। रास्ते में पुलिस-स्कवैड की मदद ली और मुझे बचा लाए। एक बार भी यह नहीं पूछा, उन गुण्डों ने मेरे साथ क्या किया।” रागिनी गम्भीर हो गई।
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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“अरे, तेरे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया, और हमें बताया तक नहीं? कल को तुझे कुछ हो जाता तो?” इतनी देर से चुप्पी साधे सुधा सिहर गई।

“अगर बता देती तो क्या नौकरी करते रहने की इजाज़त मिल पाती, सुधा दीदी? प्रकाश ने ही चुप रहने की सलाह दी थी।”

ताली बजा, ऋचा ने रागिनी की पीठ थपथपा दी।

“यह तो बता, उन गुण्डों का क्या हुआ?”

“प्रकाश जी ने उन्हें इस तरह समझाया कि चारों ने मेरे पैर पड़कर माफ़ी माँगी। अगर हम चाहते उन्हें सज़ा दिलवा सकते थे, पर प्रकाश का कहना है, सज़ा के मुकाबले, प्यार में ज्यादा ताकत होती है।”

“वाह! तेरे प्रकाश तो सच्चे शिक्षक हैं। उनसे मुलाकात करनी होगी।” ऋचा के स्वर में सच्ची प्रशंसा थी।

“हाँ, दीदी। मैं सचमुच भाग्यवान हूँ, प्रकाश जैसा मित्र किस्मत से ही मिलता है।”

“अब तेरे यह मित्र जीवनसाथी कब बन रहे हैं, रागिनी?” ऋचा ने चुटकी ली।

“ठीक कह रही है। नीरज से कहूँगी, दोनों बहिनों की एक साथ ही शादी की तैयारी करें।”

“अब तू बता, तेरे जॅाब का क्या रहा, स्मिता?” ऋचा को स्मिता के इन्टरव्यू की बात याद हो आई।

“उस जगह तो किसी और को नौकरी मिल गई। एक जगह टेलीफोन आॅपरेटर की जगह खाली है। सोचती हूँ, खाली बैठने से अच्छा कोई काम ही कर लूँ। कुछ पैसे ही हाथ आएँगे।”

“वाह, अब हमारी स्मिता भी गृहस्थी वाली हो गई हैं, वैसे काम कोई भी छोटा नहीं होता। अभी ये जॅाब ले ले। बाद में कोई दूसरा जॅाब ढूँढ़ लेना।”

वापस जाती ऋचा ने सुधा को फिर समझाया, उसे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। उसने कोई ग़लत काम नहीं किया है, जो कदम उठाया है। उससे पीछे हटना कायरता है। जरूरत पड़ी तो ऋचा परेश से भी बात करेगी। सुधा के चेहरे पर आश्वस्ति भरी मुस्कान तिर आई।

सुधा और सुनीता की विस्तृत रिपोर्ट बनाते वक्त दोनों घटनाएँ उसकी आँखों के समक्ष उभरने लगीं। रात के सन्नाटे में अगर सुधा का शील-हरण हो जाता, तब भी क्या उसे नौकरी से हटा दिया जाता। अपने सम्मान की रक्षा के लिए चाँटा मारना तो बहुत कम सज़ा है। ऋचा को खुशी थी, सीधी-सादी सुधा वह साहस कर सकी। सुनीता के अपने पति ने उसे खत्म कर देना चाहा। जिस पति ने पत्नी की रक्षा का वचन दिया, वहीं उसकी हत्या करनेवाला था? सुनीता का केस विशाल के साथ डिस्कस करने का निर्णय ले, ऋचा अखबार के दफ्तर में रिपोर्ट देने के पहले विशाल के पास जा पहुँची। इतनी शाम को ऋचा को देख, विशाल ताज्जुब में पड़ गया। जल्दी-जल्दी सुधा और सुनीता के केसों को बताकर ऋचा ने विशाल की राय चाही थी। कुछ सोचकर विशाल ने कहा –

“सुनीता के केस में चश्मदीद गवाह के कारण काफी दम है। रही बात सुधा की तो तुमने ठीक राय दी है, परेश पर शादी करने-न करने की बात निर्भर करती है। मेरे ख्याल में एक कायर से शादी करने की अपेक्षा अविवाहित रहना ज्यादा अच्छा है।”
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“थैंक्स, विशाल! मुझे खुशी है, तुम दूसरे पुरूषों की तरह नहीं सोचते। तुमसे बात करके मन हल्का हो गया।”

“अजी, हम चीज ही ऐसी हैं। एक बात बताऊॅं, जब साथ रहने लग जाओगी, तब तुम्हारे मन पर कोई बोझ नहीं रहने दूँगा। मुझसे शादी करोगी, ऋचा?”

विशाल का प्रश्न इतना अप्रत्याशित था कि ऋचा चैंक गई-

“क्या क्या आ ?”

“हाँ ऋचा, मुझसे शादी करोगी?”

“विशाल, तुमने यह सवाल इतना अचानक पूछा है कि मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ।”

“समझने के लिए जितना चाहिए वक्त ले लो, पर जवाब ‘हाँ’ में चाहिए।” विशाल हॅंस दिया।

“वाह! यह अच्छी जबरदस्ती है। तुम्हारे घरवाले क्या तैयार होंगे?”

“यह मेरी जिम्मेवारी है। मेरी छोटी बहिन माधवी तो तुम्हारी भक्त बन बैठी है।”

“अरे वाह! कोई मेरी पूजा करे, ऐसा तो कुछ भी नहीं है।”

“तुम्हारी प्रेरणा से एयरफ़ोर्स ज्वाइन करने की जिद किए बैठी है। शायद तुम्हारा कोई लेख छपा था, बिना अपने पाँव पर खड़ी औरत का कोई वजूद नहीं, वह तो बस एक कठपुतली भर है।”

“हाँ, पर क्या यह गलत है, विशाल?”

“मैंने कब कहा कि यह गलत है। अगर मेरा सोच ऐसा ही होता तो क्या तुम जैसी जुझारू लड़की से शादी करने की हिम्मत कर पाता?” विशाल परिहास पर उतर आया।

“मुझे खुशी है, माधवी एयरफ़ोर्स ज्वाइन कर रही है। हमारी उसे बधाई जरूर देना, विशाल।”

“बधाई तो जरूर दूँगा, पर घर में उसके इस निर्णय से तूफान आ गया है। एयरफ़ोर्स में लड़की के जाने की कल्पना से ही अम्मा को लगता है, वह बमबारी करेगी।” विशाल ने हॅंस दिया।

“माधवी के इस निर्णय में तुम्हारी क्या भूमिका है, विशाल?”

“मेरी भूमिका नगण्य है, पर माधवी के मंगेतर ने सगाई तोड़ने की धमकी दे डाली है। स्कूल-कॅालेज की नौकरी तक तो बात बर्दाश्त की जा सकती है, पर एयरफ़ोर्स की नौकरी उसे सहृय नहीं है।”

“माधवी का क्या फ़ैसला है?”

“तुम्हारी तरह अपनी बात पर अटल है। रोहित अगर सगाई भी तोड़ दे तो उसे फर्क नहीं पड़नेवाला। यूनीवर्सिटी में एन.सी.सी. की बेस्ट कैडेट रही है माधवी।”

“मुझे बहुत खुशी है, विशाल। लड़कियाँ अब अपने पिंजरे से बाहर आ रही हैं। वक्त मिलते ही माधवी से मिलकर उसकी पीठ जरूर ठोंकूँगी।”

अखबार के दफ्तर में पता लगा, सम्पादक जी चार दिन के अवकाश पर गए हैं। सुधा और सुनीता की केस-रिपोर्ट छपने को देकर, ऋचा दूसरे कामों में व्यस्त हो गई। रिपोर्टे पढ़कर सीतेश पास आया था –

“ऋचा जी, सुधा की रिपोर्ट में क्या दोषी युवक और उसके पिता का नाम देना चाहिए? याद है, पिछली बार कामिनी के केस में कम्पनी का नाम दिया गया था, अपराधी का नाम काट दिया गया था।”

“अगर एक बार कोई ग़लती हो जाए तो क्या उसे दोबारा दोहराना समझदारी है, सीतेश? रिपोर्ट जैसी दी है, वैसी ही छपेगी।”

“एक बार फिर सोच लीजिए। ये लोग बहुत इंफ्लुएंशियल हैं। हमारा दैनिक मुश्किल में पड़ सकता है। कम-से-कम इन्क्वॅायरी कराने की बात ही छोड़ दीजिए।”

“ओह। तो तुम्हें अपनी नौकरी जाने का डर है? डरो नहीं, मैं भी तुम्हारे साथ हूँ। ऐसा कुछ होने से हम हार नहीं मानेंगे, समझे।”

परेशान-सा सीतेश चला गया।

दूसरे दिन ऋचा की दी गई पूरी रिपोर्ट विस्तार में छपी थी। रिपोर्टिग में भी ऋचा के नाम का उल्लेख था। ऋचा उत्साहित हो उठी। अब होटल वालों को सुधा के साथ न्यायपूर्ण फेसला देना होगा। सुनीता का केस तो पहले से ही मजबूत है। कार्यालय जाने के पहले घबराया नीरज आ पहुँचा।

“ऋचा, यह तुमने क्या किया? सुधा का नाम अखबार में छप गया। घर-मुहल्ले में तहलका मच गया है। सुबह से पड़ोसियों ने पूछ-पूछकर परेशान कर डाला है।”

“सुधा के साथ अन्याय हुआ है, उसे चुपचाप सहना क्या ठीक बात है, नीरज?”

“बात न्याय-अन्याय की नहीं है, बात लड़की की बदनामी की है। हमारा ख़ानदान बदनाम हो जाएगा। जानती हो, सुबह-सुबह परेश के घर से फ़ोन आ गया, उन्होंने सुधा के साथ परेश की सगाई तोड़ दी है। रो-रोकर माँ का बुरा हाल है।”

“तुम्हारी माँ तो तुम्हारी शादी होने पर भी रोई थीं, सुधा के अपमान के सामने उनका रोना महत्वहीन है, नीरज।”

“नहीं, ऋचा। हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। हमें अपने घर की बहू-बेटियों का नाम अखबार में नहीं उछालना है। अच्छा हो, कल के पेपर में समाचार का खण्डन छाप दो।”

“वाह नीरज, तुम भी ऐसा ही सोचते हो? वो नीरज कहाँ गया जिसने घरवालों की चिन्ता न कर स्मिता से विवाह किया था?”

“मेरी बात और है, मैं पुरूष हूँ। पुरूष के सौ खून माफ़ किए जा सकते हैं, पर लड़की के नाम पर धब्बा लग जाए तो उसे कभी मिटाया नहीं जा सकता।”

“स्मिता क्या लड़की नहीं थी? क्या उसका सम्मान दाँव पर नहीं लगा था? अगर स्मिता ने साहस के साथ कदम उठाया तो सुधा को अन्याय के विरूद्ध कदम उठाने का हक क्यों नहीं है, नीरज?”

“स्मिता के साथ मैं था, पर सुधा का मंगेतर उसका साथ कहाँ तक दे पाएगा? तुमने हमें सचमुच मुश्किल में डाल दिया, ऋचा।”

“मुझे दुःख है, नीरज, मैंने तुम्हें समझने में भूल की। मेरा ख्याल था, सुधा के साथ हुए अन्याय में तुम उसके साथ खड़े होगे। अब मुझे ही कुछ करना होगा।”

“देखो ऋचा, जो करो, सोच-समझकर करना। हम पर और ज्यादा कीचड़ मत उछालना।”

परेशान नीरज वापस चला गया, पर ऋचा का मन खट्टा हो गया। नीरज भी अन्ततः एक सामान्य पुरूष ही निकला। स्मिता के साथ नीरज के विवाह में भी शायद स्मिता की भूमिका ही ज्यादा अहम् थी। अगर स्मिता ने नीरज के सिवा किसी और के साथ शादी न करने का अल्टीमेटम न दे दिया होता तो शायद नीरज अपनी समस्याओं के बहाने बनाकर अलग हट गया होता। स्मिता जैसी भीरू लड़की भी नीरज से ज्यादा साहसी निकली। हो सकता है, कहीं नीरज के मन में स्मिता के पिता की सम्पत्ति का भी थोड़ा-सा लोभ रहा हो। अपने सोच पर ऋचा को झुँझलाहट हो आई, बेकार मंे नीरज को दोष देना क्या ठीक है। मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की का नाम ऐसी घटनाओं में छपना, आज भी सामान्य बात नहीं मानी जाती। वैसे भी लड़़की के साथ अच्छा-बुरा कुछ भी हो, दोषी लड़की ही ठहराई जाती है। कार्यालय से जल्दी निकलकर ऋचा ने परेश से मिलने जाने की बात तय कर डाली।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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