ज़िंदगी भी अजीब होती है Restart

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Re: ज़िंदगी भी अजीब होती है Restart

Post by 007 »

Kamini wrote: 09 Oct 2017 11:24mast update
kunal wrote: 09 Oct 2017 12:15 बहुत मस्त कहानी है अगले अपडेट का इंतज़ार रहेगा ?
Thanks dosto
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Re: ज़िंदगी भी अजीब होती है Restart

Post by 007 »

मैने उसकी बात मानी और फिर सीधा धोसी जाके ही दम लिया. बाइक पार्क की और बॅग को कंधे पर लाद के हम उपर जाने को सीढ़िया चढ़ने लगे.

निशा- सूट-सलवार पहन आती तो सही रहता.

मैं- अभी भी क्या परेशानी है .

निःसा- नही परेशानी तो कुछ नही. पर फिर भी.

करीब आधे घंटे की चढ़ाई को हम ने रुकते रुकते पूरा किया पुरानी जगह की कुछ नयी तस्वीरे ली. अतीत के कुछ पन्ने फिर से खुल गये थे जैसे.

निशा- यहाँ अभी भी सब पहले जैसा ही हैं ना.

मैं- पत्थरो और पहाड़ का क्या बिगाड़ना वैसे तुम्हे याद है एक जमाने मे हम ने भी एक पत्थर पर अपना नाम लिखा था .

निशा- तुम्हे क्या लगता है मुझे भूलने की कोई बीमारी है जब देखो कहते रहते हो तुम्हे याद है तुम्हे याद है.

मैं- बस ऐसे ही बोल रहा था.

निशा- याद है बाबा पर वो पत्थर शायद उपर वाले मंदिर के पास था .

मैं- तो चल फिर देखते है वक़्त ने हमारे नाम के साथ कितना सितम किया है.

निशा- चल तो रही हूँ.

उपर जाके हम ने मंदिर मे दर्शन किए और फिर उसी पत्थर की तलाश करने लगे और किस्मत से मिल भी गया.

मैं- नाम कुछ हल्के से पड़ गये है , हैं ना.

निशा- शूकर है मिटे नही.

मैं- कैसे मिट सकते है.

निशा बस मुस्कुरा दी और हम एक नीम के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गये.

निशा- तुम ना होते तो मेरा क्या होता.

मैं- यही बात मैं भी बोलता हूँ.

निशा- मनीष……………..
मैं- क्या हुआ.

निशा- हम क्या से क्या हो गये ना, कभी सोचा नही था ज़िंदगी इस मुकाम पे ले आएगी , आज देखो सब कुछ है हमारे पास जो जीने के लिए ज़रूरी है पर फिर भी हमारे दिल , इन्हे किस चीज़ की कमी है.

मैं- सुकून चाहते है, दो घड़ी अपने उन दिनो को जीना चाहते है जब हम जवान हो रहे थे, वो बेफिक्री वो अल्हाड़पन , वो गुस्ताखियाँ जो बस हम ही कर सकते है.

निशा- पर वो अब कहाँ लाउ मैं.

मैं- वो दौर बीत गया है निशा, अब ये यादे है जो दिल को चीरती है हर पल , पर दोष इन यादो का भी तो नही दोष तो हमारा है जो इस जमाने की रफ़्तार के साथ खुद को बदल नही पाए. आज के आशिक़ बेधड़क माशुका के घर तक पहुच जाते है , मेरे तो पैर काँप जाया करते थे मिथ्लेश की गली मे भी कदम रखते हुए. और तुम , तुम भी तो कितना नखरा करती थी , कितनी देर मैं इंतज़ार करता था जब जाके तुम्हारी खिड़की का दरवाजा खुला करता था.

निशा- मैं कभी जमाने से नही डरी , मैने हमेशा अपने दिल की की है, वो मैं ही तो थी जो घंटो तालाब के किनारे तुम्हारे साथ बैठ कर डूबते सूरज को देखा करती थी. वो मैं थी तो थी जो बारीशो मे भीगते हुए किसी तपते अलाव की लौ जैसी थी.

मैं- सही कहा, याद है एक बार बाज़ार मे बारिश आ गयी थी और दुकान की सीडीयो पर खड़े होकर एक हाथ मे समोसा और दूसरे मे चाय पी थी.

निशा- पर आजकल तुम समोसे खाते कहाँ हो.

मैं- वापसी मे चले आज भी उस दुकान के समोसे से वो ही जानी पहचानी महक आती है.

निशा- तुम कभी कहते नही कि निशा तुम्हारे हाथो का बना ये खाना है वो खाना है.

मैं- मम्मी के आलू परान्ठो के बाद मुझे तुम्हारी बनाई गयी कैरी की चटनी बेहद पसंद है पर तुम अब बनाती ही नही .

निशा- याद है तुम्हे. जानते हो जबसे तुम मुझसे दूर हुए हो मैने कैरी की चटनी नही बनाई क्योकि फिर तुम्हारा ख्याल आ जाता और फिर मुश्किल हो जाती .

मैं- मैने भी आख़िरी बार वो चटनी 2006 मे ही खाई थी जब मेरे फ़ौज़ मे जाने मे कुछ दिन थे वो कॉलेज मे लाई थी उस दिन तुम टिफिन तभी .

निशा- एक बार मुझे गले से लगा लो मनीष, मैं बस रो पड़ूँगी. इस से पहले कि मैं बिखरने लागू थाम लो मुझे अपनी बाहों मे. थाम लो.

मैं- नही यारा, नही लगा सकता तुझे अपने सीने से , डर है कही मेरी चोर धड़कनो को पढ़ ना लो तुम. डर है मुझे मेरे होंठो तक आकर रुक सी गयी हर बात को सुन ना लो तुम.

निशा- तुम्हे कुछ भी कहने की ज़रूरत न्ही और ना ही डरने की मैं जानती हूँ तुम्हारा दिल हमेशा सिर्फ़ मिथ्लेश के लिए ही धड़कता है और यकीन करो तुम्हारी हर धड़कन पर अगर किसी का हक है तो सिर्फ़ उसका.
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Re: ज़िंदगी भी अजीब होती है Restart

Post by Kamini »

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Re: ज़िंदगी भी अजीब होती है Restart

Post by 007 »

मैं- ऐसी बात नही है मेरा जो कुछ भी है उसके मैने शुरू से ही दो हिस्से रखे थे जितना मेरा दिल मिता के लिए धड़कता है उतना ही तुम्हारे लिए भी. मिटा अगर दिल है तो धड़कन तो तुम ही हो. मेरा वजूद ही नही तुम दोनो के बिना मनीष का नूर मिता है तो निशा मेरी मुस्कान है , निशा मेरी ताक़त है मेरा हौंसला है , मेरा डर कुछ ऑर है. मैं डरता हूँ कि कही उस उपर वाले की नज़र मेरी खुशियो पर ना पड़ जाए, क्योंकि वो मुझे खुश नही देख सकता . डर लगता है मुझ क्योंकि इस बार मैं संभाल नही पाउन्गा.

निशा- उसकी मर्ज़ी के आगे किसी का ज़ोर नही चलता पर अगर दुख वो देगा तो हौसला भी वो ही देगा और फिर मैं तो परछाई हूँ तुम्हारी मुझे भला क्या होगा, मैं हमेशा सुरक्षित रहूंगी तुम्हारी आड़ मे.

मैं- ये सर्द हवा जो तुम्हारे गालो को चूम कर जा रही है , ये हवा जो तुम्हारे कानो को छु कर जा रही है क्या कहती है.

निशा-- पैगाम लाई है तुम्हारी अनकही बातो के, सुनाती है तुम्हारे दिल का हाल. ये हवा मुझसे कहती है कि आगे बढ़ुँ और चूम लूँ तुम्हारे होंठो को ,ये हवा कहती है कि भर लूँ तुम्हे अपने आगोश मे और थाम लूँ इस कदर कि फिर हमे कोई जुदा ना कर सके. ये हवा कहती है कि बस ये लम्हे यू ही थम जाए और मैं इनको अपनी आँखो मे क़ैद कर लूँ हमेशा के लिए. ये हवा कहती है कि इस होली वो अपने साथ तुम्हारी मोहब्बत का रंग लाएगी और मुझे केसरिया रंग जाएगी.

“मैं तो रंग चुकी हूँ तेरे रंग मे मैने किस्से कहानियो मे ही पढ़े थे सुने थे अफ़साने पर आज मैने जाना कि इश्क़ का रंग कैसा होता है ये जो मुझमे तू महक रहा है ना मैं अब मैं नही रही तेरी प्रीत मे केसरिया रंग चुकी हूँ मैं , मैं पहले तो पता नही क्या थी पर आज मैं हूँ तो सिर्फ़ केसरिया तेरे इश्क़ का रंग केशरिया ” केसरिया कभी मिथ्लेश ने भी ये बात कही थी जैसे उसके शब्द मेरे कानो मे गूँज उठे और आँखो मे अपने आप ही आँसू आ गये.

निशा- क्या हुआ

मैं- आँख मे कुछ चला गया शायद.

निशा- कितनी बार मैने कहा है तुमसे मेरे सामने झूठ बोलने की कोशिश ना किया करो, मिता की याद आ गयी ना. और तुम्हे इन आँसुओ को छुपाने की ज़रूरत भी नही है ये सिर्फ़ आँसू नही ये मोहब्बत है , ख़ुसनसीब तो मैं इस लिए हूँ कि मुझे मौका मिला तुम्हारी ज़िंदगी का हिस्सा बन ने का पर मिता के बारे मे क्या कहूँ मैं . कुछ तो खास वो भी रही हो गी जो उसका नाम तुमसे जुड़ा.

मैं नही जानती कि हीर ने रांझे से क्या कहा, मैं नही जानती कि लैला ने मजनू से क्या कहा होगा , मैं नही जानती कि दुनिया मे किसी प्रेमिका ने प्रेमी से क्या कहा होगा पर आज भगवान के मंदिर की चौखट पे बैठ के मैं निशा तुमसे इतना कहती हूँ कि मैने तुम मे रब्ब देखा है. मेरी हर धड़कन को मैने तुम्हारे सीन से गुजरते हुए देखा. दिन के उजालो मे रात के अंधेरो मे, मेरी खुशी मे , मेरे गमो मे मैने जब भी देखा बस तुम्हे देखा, बस तुम्हे देखा.

निशा ने अपना सर मेरे कंधे पर रख दिया और कुछ देर के लिए अपनी आँखो को बंद कर लिया पर उसका कहा एक एक शब्द मेरे कानो मे गूँज रहा था , अब इस से ज़्यादा वो मुझे क्या चाहेगी और क्या साबित करेगी . मैने उसके हाथ को अपने हाथ मे थाम लिया और अपनी आँखो को मूंद लिया. कुछ देर सुसताने के बाद हम ने थोड़ा बहुत खाना खाया और फिर सांझ होते होते वापिस मूड गये.

बाज़ार मे थोड़ा बहुत समान खरीदा और घर आ गये. आते ही मैं नहाने चला गया . आया तो चाची ने मुझे चाय दी.

मैं- निशा कहाँ है.

चाची- तेरी ताई जी के पास गयी है आती ही होगी.

मैं- और बताओ क्या हाल चाल हैं.

चाची- मैं तो ठीक हूँ तू सुना, कहाँ गये थे आज दोनो और जो बात मैने कही थी उसके बारे मे सोचा क्या कुछ.

मैं- धोसी गये थे ऐसे ही घूमने को , आपकी बात का निशा को पहले से ही पता है कहने की क्या ज़रूरत .

चाची- तो शादी क्यो नही करता उस से फिर. लोग सामने से कुछ नही कहते पर पीठ पीछे तो चर्चे होते ही है और फिर निशा अपने ही गाँव की है तुम लोग तो शहर निकल जाते हो हमें तो यही रहना होता है, नही मैं ये नही कह रही कि परिवार को कोई दिक्कत है पर बेटा, अगर इस रिश्ते को कोई नाम मिलेगा तो अच्छा रहेगा ना. और फिर हमे भी ऐसी बहू पाकर गर्व है जो तुम्हारी नकेल कस सके.

मैं- सोच रहा हूँ चाची, जल्दी ही कोर्ट मे शादी कर लेंगे.

चाची- कोई चोरी है क्या जो कोर्ट मे करोगे. हमे तो बस तुम्हारी हाँ का इंतज़ार है बाकी काम हमारा . रवि की शादी को भी अरसा हो गया और फिर अपने घर से बारात निकालने का हमारा भी सपना है , कुछ हमे भी अपने मन की करने दो.

मैं- चाची, मेरे बस की नही है, ये फालतू के रीति रिवाज ये ढोल-तमाशे मेरे बस के नही है . आपको बहू चाहिए बहू मिल जानी है अब चाहे सिंपल तरीके से आए या ढिंढोरा पीट के कुछ फरक पड़ता है क्या.

चाची- तू इतना ज़िद्दी क्यो हैं.

मैं- पता नही.

तभी निशा भी आ गयी और हमारी बातों मे शामिल हो गयी.

निशा- मैं कल निकल रही हूँ देल्ही के लिए तुम साथ आओगे या रुकोगे कुछ दिन .

मैं- चलता हूँ .

निशा- तो मैं पॅकिंग कर लेती हूँ

चाची- निशा, तुम्हे नौकरी करने की क्या ज़रूरत है यहाँ रहो हमारे साथ किस चीज़ की कमी है .

निशा- चाची जल्दी ही नारनौल मे ट्रान्स्फर करवा लूँगी फिर आपके पास ही रहूंगी.

मैं- हाँ, मैने बात तो की थी तुम्हारे ट्रान्स्फर की लगता है उन्हे फिर से याद दिलवाना पड़ेगा. पर निशा यहाँ तुम्हारी फिकर रहेगी मुझे.

निशा- कुछ नही होना मुझे यहाँ. अकेली थोड़ी ना हूँ पूरी फॅमिली हैं ना मेरे साथ .

मैं- अब तुमने ठान ही लिया है तो फिर ठीक है.

चाची- तू एक काम कर मैं समान लिख के देती हू बनिये की दुकान से ले आ.
मैं- अभी जाता हूँ.

थोड़ी देर बाद मैं बनिये की दुकान पर जब समान ले रहा था तो मैं उस आवाज़ को सुन कर जैसे चौंक सा गया.

“लाला मैं दोपहर को कह के गयी थी ना कि हमारा आटा पीस दियो पर अभी तक ना पीसा अब रोटिया कैसे सेकूंगी मैं”
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