सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़ complete

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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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आई पास उसके,
आँखों से आँखें मिलायीं!
मुस्कुराई, और लगा लिया गले!
"आओ, आओ! बाहर आओ!" बोली वो,
और तब, अशुफ़ा, ह'ईज़ा, ले चलीं उसे बाहर!
जो देखता, थम जाता!
जो देखती, रुक जाती!
जो पानी भर रहा होता,
वो भूल जाता पानी भरना,
और फीत कस रहा होता,
रुक जाता! जो औरत, आ रही होती, रुक जाती,
उसको ग़ौर से देखती,
उसको नज़र-ए-बद से बचाने के लिए,
उसके सर पर, हाथ वारे जाते!
एक और लड़की आई उधर, भागते भागते!
रुकी उनके पास!
देखा उसने सुरभि को! झाँका आँखों में उसकी!
मुस्कुराई, और लगा लिया गले से!
"ये सुरभि हैं! हमारी ख़ास!" बोली ह'ईज़ा, सुरभि की बाजू थामते हुए! इतरा कर!
"सुरभि! ये फ़'ईमा हैं!" बोली ह'ईज़ा!
फ़'ईमा, बेहद सुंदर लड़की थी!
हरी आँखें, भूरे बाल और कसा हुआ बदन!
लेकिन सुरभि, आज सभी पर भारी पड़ रही थी!
"आइये हमारे साथ सुरभि!" बोली फ़'ईमा!
और हाथ पकड़ उसका, ले चली अपने साथ,
अपने तम्बू में लायी! बिठाया,
दूध पिलाया उसको, और खाने की भी पूछी!
तभी बाहर शोर सा हुआ!
दूर, क्षितिज पर, कुछ ऊँट नज़र आने लगे थे!
उनके साथ चलते हुए कुछ लोग भी!
"आ गए वे लोग!" बोली अशुफ़ा!
जैसे ही देखा सुरभि ने,
उसका दिल, ज़ोर से धक्!
क्यों?
किसलिए?
उसका तो कोई न था इस क़ाफ़िले में?
फिर दिल ज़ोर से धक्?
किस वजह से?
क्या बात हुई?
आँखें बंद हो चलीं!
"हुमैद आ रहे हैं! फ़ैज़ान भाई आ रहे हैं!" बोली अशुफ़ा!
और जब आँख खुली,
तो नींद टूट गयी थी!
सपना ख़त्म हो गया था!
लेकिन हाँ!
उन फीतों का कसाव, अभी भी उसकी कमर पर था!
वो कुछ सोचती, कि अलार्म बज उठा!
आज बड़ा ही बुरा सा लगा वो अलार्म!
आज पहली बार चिढ सी हुई उसे!
बंद कर दिया उसने उसे!
खड़ी हुई, खिड़की से बाहर झाँका,
संदेसा देने वाले चाँद अब न थे उधर!
वो उठी, खिड़की में से बाहर झाँका, न थे वो अब!
खिड़की बंद कर दी उसने,
और चली गुसलखाने तब,
'हुमैद और फ़ैज़ान आ रहे हैं!' शब्द गूंजे कानों में, उस अशुफ़ा के!
स्नान करने चली, तो दो नीले से फूल, बाल्टी में पड़े थे!
आज नहीं उठाये वो फूल,
भरा पानी, और स्नान किया,
बदन, महक उठा उसका!
कई बार कमर को छुआ उसने अपनी,
जैसे वो फीतें अभी भी कसी हों कमर पर!
वस्त्र पहने, केश संवारे, सामान उठाया,
और चली मम्मी-पापा के पास,
बातें हुईं उसकी, बैठ गयी, चाय-नाश्ता आ गया था,
वो किया, और खाना रख लिया अपने लिए!
निकल पड़ी घर से वो फिर, पकड़ी सवारी और जा पहुंची,
खुश-खबरी ये मिली कि,
उसने जो काम जमा किया था, वो सबसे अव्वल रहा!
सैंतीस छात्र-छात्राओं में से, अव्वल आना, अपने आप में, सफलता थी!
सभी ने मुबारकबाद दी! उसके प्रोफेसर ने ही, विशेष तौर पर!
खुश हो गयी थी सुरभि!
दोपहर में, कैंटीन में बैठीं थीं तीनों ही,
भोजन बस किया ही था,
कि खिड़की से, एक हरसिंगार का फूल,
घूमता हुआ, चला आया अंदर, गिरा हाथ पर उसके!
"अरे वाह! देख, फूल भी खिंचे चले आ रहे हैं तेरे लिए!" बोली कामना,
फूल उठा लिया था उसने, सुरभि ने,
सूंघा, तो वही ख़ुश्बू!
अपना बैग खोला उसने,
और जैसे ही खोला, वो दंग रह गयी!
एक बड़ा सा सुल्तानी गुलाब उसके बैग में रखा था!
उसने आहिस्ता से बाहर निकाला उसे,
"कितना बड़ा फूल!" बोली कामना!
"मैंने तो आज ही देखा है ऐसा बड़ा फूल!" बोली पारुल!
सोच में डूबी थी वो!
ऐसा, कैसे हुआ? कैसे आया बैग में?
सुबह तो था नहीं? न रात को रखा?
तो आया कहाँ से?
"असली है क्या ये?" आई आवाज़ एक,
ये अरिदमन था!
"हाँ!" बोली कामना,
उठ आया वो,
लिया हाथों में फूल,
"कमाल है! यहां का तो नहीं है!" बोला वो,
"फिर कहाँ का है?" पूछा कामना ने,
"मैंने तुर्की में देखे थे ऐसे बड़े गुलाब!" बोला वो,
"यहां भी तो होंगे?" बोली कामना,
"पता नहीं!" कहा उसने,
दिया वापिस फूल,
"ताज़ा भी है!" बोली कामना,
"हाँ, और रंग कैसा बढ़िया है!" बोली वो,
"सुर्ख लाल है!" बोली कामना,
और वो सुरभि!
खो गयी थी विचारों में!
कैसे आया ये फूल?
"ले, रख ले!" बोली कामना,
पकड़ा सुरभि ने वो फूल,
और रखा बैग में फिर से!
तीन बजे हुई वापिस उसकी,
सारे रास्ते वो यही सोचती रही!
ख्यालों में डूबी रही!
बैग खोला उसने,
तो वो गुलाब नहीं था उसमे,
एक ख़याल, और जमा हो गया पहले वालों में!
उसने बैग टटोल मार सारा,
नहीं मिला वो फूल!
जा पहुंची घर अपने, हाथ-मुंह धोये,
चाय पी, और कुछ खाया भी,
उसके बाद, कपड़े बदल लिए, और पढ़ने के लिए ले ली किताब!
लेकिन नींद कैसे आये!
वो फूल?
कहाँ से आया?
और कहाँ गया?
ये संयोग है क्या?
कहीं निकाल तो नहीं लिया कामना ने?
हो भी सकता है!
अक्सर ऐसा कर देती है वो!
और बाद में, बता भी देती है!
रख दी किताब उसने!
अब लेट गयी थी,
छत को देखे जाए!
फिर, खिड़की को देखा,
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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संदेसा भेजने वाले चाँद,
नहीं आये थे अभी उधर!
वो खड़ी हुई,
और खोल दी खिड़की,
देखे जाए बाहर,
जैसे इंतज़ार हो उस संदेसा भेजने वाले का!
लेट गयी थी,
आँखें कीं बंद!
और थोड़ी ही देर में,
वही शोर सुनाई दिया,
वो ऊँट, आ रहे थे, सामान लदा था उनमे,
कुछ लोग भी आ रहे थे अब नज़र,
मुंह पर, बुक्कल मारे, अपने सर ढके हुए!
अशुफ़ा बाहर चल पड़ी थी, और वो फ़'ईमा भी!
सुरभि, ह'ईज़ा के साथ अंदर ही थी, अंदर से ही,
झाँक रहे थे वो बाहर, उस क़ाफ़िले को आता देख!
कुल पच्चीस मर्द थे उस क़ाफिके में,
सामान लदा हुआ था ऊंटों के ऊपर!
"वो रहे हुमैद!" बोली ह'ईज़ा!
एक लम्बा-चौड़ा इंसान था वो हुमैद!
अब बुक्कल हटा दी थी उसने, बाकी सभी ने भी!
आ रहे थे ऊंटों को ठेलते हुए!
औरतें, भाग छूटी थीं उनके पास!
आज डेढ़ महीने बाद आये थे ये सब लोग!
और अपने अपने मर्द को पहचान, जा पहुंचीं वे औरतें!
सभी जा पहुंचे थे! वृद्ध भी, और दूसरे जो यहां रह गए थे!
"लेकिन फ़ैज़ान भाई नहीं आये?" बोली ह'ईज़ा?
एक झटके से देखा उसने ह'ईज़ा को!
उसकी आँखों को, ह'ईज़ा बाहर झाँक रही थी!
और अचानक से ही, नज़रें मिलीं सुरभि से उसकी!
"वो शायद, वहीँ रह गए!" बोली ह'ईज़ा! बाहर देखते हुए!
आ गए था हुमैद और सभी लोग!
अपने अपने तम्बुओं में चले गए थे, कुछ लोग,
ऊंटों से सामान उतार रहे थे,
जिनसे उतार लिया गया था, वो अब पानी पीने लगे थे!
कुछ ही देर में, अशुफ़ा आई अंदर!
खुश थी, हम्दा और कुछ मेवे लायी थी वो!
दिए सुरभि को, सुरभि ने पकड़ लिए हाथों में!
"आओ सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
सुरभि का हाथ पकड़, ले चली अपने तम्बू में, ह'ईज़ा भी साथ चली उनके!
पहुंचे वहां, तो सुरभि को देख, हुमैद खड़े हो गए!
मुस्कुराये, और बैठने का इशारा किया!
अशुफ़ा ने बिठा दिया सुरभि को, वहीँ, बिस्तर पर!
"अशुफ़ा?" बोले वो,
"जी?" पलटी अशुफ़ा!
"खाना खिलाया सुरभि को?" पूछा उन्होंने,
"हाँ! खिला दिया!" बोली वो,
"हम्दा दो और?" बोले वो,
"दिया है! खाओ सुरभि!" बोली सुरभि से बात करती हुई,
खाने लगी वो हम्दा और वो सूखे मेवे!
"फ़ैज़ान भाई वहीँ रह गए?" पूछा ह'ईज़ा ने!
"हाँ, कह रहे थे कि काम है अभी बाकी!" बोले वो,
"कब तक लौटेंगे?" पूछा अशुफ़ा ने,
"हफ्ते भर में आए जाएंगे!" बोले वो,
दूध दिया गया हुमैद को,
"सुरभि को भी दो न?" बोले वो,
"हाँ, अभी!" बोली वो,
तब तलक, अपना वो गिलास, हुमैद ने, सुरभि को थमा दिया था!
अशुफ़ा ने एक गिलास दूध दे दिया फिर हुमैद को!
"ह'ईज़ा?" बोली वो, गिलास देते हुए ह'ईज़ा को,
"नहीं, मैं पीकर आई थी" बोली वो,
"तो और पी लो बेटी?" बोले वो,
"आप पीजिये!" बोली वो,
सुरभि ने, दूध पी लिया था, हम्दा और मेवे भी खा लिए थे,
बाहर रेतीली हवा चल रही थी!
लेकिन ये नख़लिस्तान था,
यहां तराई होती है, पानी पर रेत जम जाता है,
और नीचे बैठ जाता है,
हवा नमी को सोख, ठंडी हो, बहने लगती है!
बाहर आहट हुई,
शायद ऊँट बिदक गया था कोई!
उसने अपनी टांगें पटकी थीं पानी में!
आवाज़ हुई थी तेज!
और उधर,
नींद खुली सुरभि की,
बाहर देखा, चाँद आ गए थे!
झाँक रहे थे अंदर ही!
वो उठी, जैसे ही उठी, तो डकार आई,
डकार में, दूध की महक आई उसे!
पेट भरा था उसका, उसको ऐसा ही लगा!
वो उठी,
खिड़की खोल दी,
निहारा चाँद को!
आया रेगिस्तान याद उसे!
वो अशुफ़ा! वो ह'ईज़ा! वो फ़'ईमा और वो हुमैद!
वो नखलिस्तान! और वो क़ाफ़िला! वो ऊँट!
जैसे अभी पल भर की बात हो!
चली वहाँ से, हाथ-मुंह धोये,
और फिर चली अपनी माँ के पास,
भोजन किया, आज रात उसके भाई को भी आना था!
पिता जी ही जाते उसको लेने!
वो आ गयी अपने कमरे में वापिस,
निहारा चाँद को,
चाँद ने उसको!
उठी वो!
चली खड़की के पास,
लगाई कोहनियां उसकी चौखट पर,
रखा अपने हाथ में अपना चेहरा!
और देखा चाँद को!
"चाँद! मेरा संदेसा देना, ह'ईज़ा को! अशुफ़ा को! कहना, कोई है इधर, जो याद कर रहा है उन्हें! उनके क़बीले को! और हाँ, उनका भी संदेसा लेते आना!" बोला मन ही मन में!
लिखा, याद की क़लम से, सपने के सफ़े पर,
और भेज दिया संदेसा चाँद को, अपनी आँखों के रास्ते से!
मुस्कुरा गयी!
चाँद को देख, मुस्कुरा गयी सुरभि!
वैज्ञानिक-दृष्टिकोण वाली मेडिकल की छात्रा,
कैसे सपनों की हल्की सी, कच्ची डोर से खिंची जा रही थी!
और तो और, संदेसा भी भेज दिया था उसने!
मुस्कुराते हुए,
हटी पीछे,
जा लेटी बिस्तर पर!
चाँद को निहारे जाए!
कभी मुस्कुराये,
कभी शरमा जाए!
उस रात,
पढ़ाई में मन न लगा,
लेटी ही रही,
बदलती रही करवटें!
कभी बाएं!
कभी दायें!
कभी पीठ के बल,
और कभी पेट के बल!
कभी घुटने मोड़े,
कभी सीधे रखे!
चाँद को देखे जाए!
हवा चले, तो याद आये,
उस रेगिस्तानी हवा की!
जब भी याद आये,
तो रोएँ खड़े हो जाएँ उसके!
सर्दी का सा एहसास हो!
दोनों हाथ, गूंथ ले आपस में!
फिर उठी,
और जा पहुंची खिड़की पर!
देखे चाँद को!
आज चाँद और उसके बीच,
बहुत बातें हो रही थीं!
और सहसा ही,
उसने मुंह से, वो गीत निकलने लगा!
शब्द नहीं पता थे!
बस मायने ही पता थे!
और शब्दों का क्या!
मायने अहम हुआ करते हैं!
साढ़े ग्यारह हो गए थे!
वो उठी, और जा लेटी बिस्तर पर!
लेटी, तो नींद आई,
नींद आई,
तो सपना आया!
ये एक बाग़ था! हरा भरा बाग़!
फलदार पेड़ थे वहाँ!
फूल ही फूल लगे थे!
ताज़ा नरम घास थी, तोतई रंग की,
सफेद मोर थे वहां!
नीले परिंदे थे!
लाल और पीले परिंदे,
पेड़ों की शाख पर बैठ, चहचहा रहे थे!
सामने एक जगह बनी हुई थी,
शायद कोई इमारत थी,
वो चली उस तरफ!
"सुरभि!" आई एक आवाज़! लड़की की,
उसने पीछे देखा,
ये ह'ईज़ा थी!
भाग ली वो ह'ईज़ा की तरफ!
लग गयी गले उसके!
"आओ!" बोली ह'ईज़ा!
और ले चली उसको, उस इमारत की तरफ!
पहुंचे वहाँ!
गुलाब बिखरे हुए थे वहां!
फर्श सा सजा था उनसे!
ठीक वैसे ही, बड़े बड़े, सुर्ख लाल गुलाब!
"आओ!" बोली वो,
और ले चली उसका हाथ पकड़ कर अंदर!
अंदर तो महल था!
सुनहरी पर्दे लटके थे, बड़े बड़े!
आलीशान फर्नीचर पड़ा था!
सोने के पाये थे सभी में,
रंग-बिरंगे कांच के, झाड़-फानूस लटके थे वहां!
छत पर नक्काशी हुई, हुई थी!
लाल रंग की छत थी!
और उसमे, सोने के तारों से, नक्काशी की गयी थी!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"बैठो!" बोली ह'ईज़ा!
बैठ गयी सुरभि!
और तब, एक और जानी-पहचानी आवाज़ आई!
"सुरभि!" एक औरत की आवाज़!
ये अशुफ़ा थी!
खड़ी हुई वो!
और अशुफ़ा ने माथा चूमा उसका!
पास में ही रखी सुराही से, गिलास में डाला शरबत,
और दिया उसको!
वो शरबत ख़ास ही हुआ करता है!
ऐसा इस जहां में मिलना, नामुमकिन ही है!
"संदेसा भेजा था न?" बोली मुस्कुराते हुए, अशुफ़ा!
हैरान रह गयी सुरभि!
"मिल गया!" बोली अशुफ़ा!
संदेसा मिल गया था उन्हें! चाँद ने दे दिया था संदेसा! मुस्कुरा गयी सुरभि!
शरबत पी लिया था, गिलास दे दिया था वापिस!
सुरभि ने, आसपास देखा,
हर जगह सजावट थी!
गुलदस्ते रखे थे, फूल सजे थे उनमे!
नीचे नीला और पीला, मोटा सा कालीन बिछा था!
"ये कौन सी जगह है?" पूछा सुरभि ने,
"नबूश!" बोली ह'ईज़ा!
"नबूश!" बोली सुरभि!
"और ये इमारत?" बोली वो,
"ये क़ायज़ा है!" बोली वो,
"क़ायज़ा?" पूछा सुरभि ने, समझ नहीं पायी थी,
"बताती हूँ! ये एक बाग़ है! और बाग़ का पहरेदार यहां रहता है!" बोली ह'ईज़ा!
''अच्छा! और ये बाग़ किसका है?" पूछा सुरभि ने,
"फ़ैज़ान भाई का!" बोली वो,
फिर से नाम आया था! फ़ैज़ान!
दिल, फिर से धक्!
"क्या आ गए हैं वो?" पूछा सुरभि ने,
"अभी नहीं! कल तक आ जाएंगे!" बोली वो,
"और वो रेगिस्तान?" पूछा उसने,
"वो यहीं है, थोड़ा आगे!" बोली अशुफ़ा!
"लेट जाओ सुरभि! आओ!" बोली वो,
और सहारा दे, लिटा दिया उसने सुरभि को!
सुरभि के बाल ठीक करती रही अशुफ़ा!
ह'ईज़ा, उसके हाथ पकड़, बैठी रही!
"सोना है सुरभि?" पूछा ह'ईज़ा ने!
"नहीं!" बोली सुरभि, मुस्कुराते हुए!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा!
"हाँ?" जवाब दिया उसने,
"जाओ, कुछ फल लाओ सुरभि के लिए!" बोली अशुफ़ा!
"अभी लायी!" बोली वो, और चल पड़ी अंदर,
"सुरभि! बहुत याद आई आपकी!" बोली अशुुफा!
मुस्कुरा गयी थी ये सुन!
"सच में, एक लम्हे में वीरान हो गया था जी!" बोली वो,
"मेरा भी!" बोली सुरभि,
"जानती हूँ! संदेसा मिल गया था!" बोली अशुफ़ा!
आ गयी ह'ईज़ा फल लेकर,
एक बड़ी सी तश्तरी में, आलू-बुखारे, अंगूर, खुर्मानी और लाल लाल बेर लायी थी!
"लो सुरभि!" बोली रखते हुए ह'ईज़ा!
बैठ गयी सुरभि,
गुलाब-जामुन के बराबर, एक एक अंगूर था!
सेब के बराबर एक एक खुर्मानी!
आलू-बुखारे, संतरे से भी बड़े!
और वे जो बेर थे लाल लाल, वो हम मनुष्यों के पास नहीं हैं!
उनको, शाज़ी कहा जाता है,
लाल रंग का होता है,
नीम्बू के बराबर, गुठली, ज़रा सी होती है,
जैसे नीम्बू का बीज, बस इतनी ही, काले रंग की, गोल-गोल!
अंदर का गूदा, पीले रंग का होता है,
मिठास में ऐसा कि इसके बाद आपको मीठे का पता ही नहीं चलेगा,
आप चाहें चीनी खाएं या शहद चाटें! मिठास नहीं आएगी!
ख़ुश्बू में, अनानास जैसा होता है!
मुंह में खाते वक़्त, जैसे बताशा चबाया जाता है, ऐसी आवाज़ आती है!
उनका आलू-बुखार, बेहद मीठा होता है,
छिलका नरम और गूदा, गाढ़े मैरून रंग का होता है,
खट्टापन नहीं होता ज़रा सा भी!
अंगूर ऐसा मीठा, कि मुंह में रस घुल जाए फोड़ते ही!
खुर्मानी ऐसी मीठी, ऐसी मुलायम, खोये जैसी!
फल खिला दिए थे उन दोनों ने सुरभि को!
पेट भर दिया था उसका फलों से ही!
उसके बाद, लेट गयी थी सुरभि!
हवा चल रही थी ठंडी ठंडी!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू बिखरी हुई थी!
आँख लग गयी उसकी!
और जैसे ही करवट बदली उसने,
आँख खुली!
वो अपने बिस्तर पर थी!
चौंक के खड़ी हो गयी वो!
बाहर झाँका,
जैसे चाँद इंतज़ार कर रहे थे उसके खड़े होने का!
वो चली खिड़की के पास, खोला उसे,
और निहारने लगी उसको!
मुंह में, अभी तक खुर्मानी का स्वाद था!
थूक भी मीठा हो चला था उस समय उसका!
हलक़ भी मीठा ही था!
वो बैठ गयी बिस्तर पर,
घड़ी देखी, तीन बजे थे उस समय रात के,
बाहर चौकीदार सीटी बजा, सड़क पर डंडा पटक रहा था!
श्वान भौंक रहे थे,
बाहर सड़क पर, बत्तियां जलतीं, और गाड़िया गुजर जातीं!
चाँद को देखा,
निहारा,
और मुस्कुरा पड़ी!
उस बाग़ में जा पहुंची!
उस क़ायज़ा में!
अब क्या संदेसा दूँ?
क्या लिखूं?
क्या कहूँ?
उस लम्हे, वो बेखुद हो चली थी!
याद आएं वे दोनों उसे!
वो बाग़, वो फल!
वो कक्ष!
सब याद आये!
जा लेटी बिस्तर पर,
टांगों के बीच, दोनों हाथ फंसा लिए,
दायें करवट लेटी थी वो!
आँखें बंद कीं उसने,
आई नींद,
और उधर,
उस क़ायज़ा में, नींद खुली उसकी!
उठ बैठी वो!
सहारा दिया अशुफ़ा ने उसे,
वे दोनों, वहीं बैठी रही थीं!
उसे सोते देखती रही थीं!
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अशुफ़ा मुस्कुराई!
"बहुत सुंदर हो सुरभि आप!" बोली अशुफ़ा!
मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
"पानी चाहिए!" बोली सुरभि,
"अभी लायी!" बोली ह'ईज़ा,
और चली गयी अंदर!
एक बड़े से गिलास में,
ले आई थी पानी,
सुरभि को दिया पानी, उसने पिया!
अशुफ़ा ने, उसकी गरदन में पड़ी वो सोने की ज़ंजीर देखी!
"बहत सुंदर है!" बोली वो,
"मेरी माँ ने दी थी!" बोली सुरभि!
"अच्छा!" बोली वो,
पानी का गिलास, दे दिया वापिस,
रख दिया ह'ईज़ा ने उधर ही,
"आओ!" बोली अशुफ़ा!
खड़ी हुई सुरभि,
और चल पड़ीं तीनों बाहर, गुलाब बिछे हुए थे!
चलीं तीनों,
ले गयी एक जगह सुरभि को!
वहां पानी बह रहा था,
ताज़ा, साफ पानी!
फूलों की पंक्तियाँ चली गयीं थी दूर तलक!
एक जगह, पत्थर रखे थे,
यहां बैठने की जगह थी!
सो, जा बैठीं तीनों ही वहां!
"कल आएंगे फ़ैज़ान भाई!" बोली अशुफ़ा!
फिर से दिल धक्!
न जाने क्यों?
क्या उसे भी इंतज़ार था?
हो शायद?
या, कोई और बात?
सुरभि ही जाने!
"आप मिलोगे उनसे?" पूछा अशुफ़ा ने,
क्या बोले!
कैसे हाँ कहे!
वो तो जानती भी नहीं!
फिर भी,
गरदन हिला दी!
ये हया थी!
हयापोश हो चली थी सुरभि उसी लम्हे!
ज़िंदगी में, बस यही भाव नहीं आया था पहले कभी!
आज, अचानक?
"वो भी बहुत खुश होंगे!" बोली अशुफ़ा!
कुछ न बोली!
आँखें नीचे किये हुए, ज़मीन देखती रही!
फिर खड़ी हो गयीं वो तीनों!
सामने ऊंचे पहाड़ थे!
उनकी चोटियां बादलों में समायी हुई थीं!
हर तरफ, हरियाली ही हरियाली!
"आओ सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
और ले चलीं उसे आगे!
ओहो!
यहां तो नीले फूलों का बिस्तर सा लगा था!
दूर तलक, जहां तक नज़र जाए!
वैसे ही नीले फूल!
याद आ गए उसे!
"ह'ईज़ा?" बोली सुरभि,
"जी?" बोली वो,
"क्या ये सपना है?" पूछा उसने,
हंसी वो!
अशुफ़ा भी मुस्कुराई!
"नहीं, नहीं सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
"तो ये सच है?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ सुरभि!" बोली ह'ईज़ा!
न यक़ीन आये!
दिमाग उलझे!
दिमाग में, सवाल बवाल काटें!
"ये असल में हो रहा है सुरभि!" बोली ह'ईज़ा!
देखे ह'ईज़ा को!
ह'ईज़ा, मुस्कुराये!
सुरभि का चेहरा थामा अशुफा ने अपने हाथों में!
और देखा उसकी आँखों में,
चूम लिया माथा उसका!
"ये सच है! सपना नहीं सुरभि!" बोली अशुफा!
और अगले ही पल............!!
और अगले ही पल! नींद खुल गयी सुरभि की! भोर हो चली थी! बाहर, पक्षी चहचहा रहे थे, घड़ी देखी तो छह बजने में दस मिनट थे, अलार्म भी बजने ही वाला था! वो उठी, खिड़की बंद की, चाँद अब जा चुके थे! हालांकि आकाश में ढूँढा उनको, पर अब जा चुके थे, अब तो सूर्यदेव अपने रथ पर सवार हो, पूर्वी क्षितिज से चढ़े चले आ रहे थे! कुछ ही देर में अलार्म बज उठा, उसने अलार्म बंद किया, और स्नानादि के लिए, चली गुसलखाने, बाल्टी में नज़र डाली, तो दो छोटे से नीले रंग के फूल, आज भी पड़े हुए थे! उसने नहीं हटाये वो फूल! पानी भरा, और फिर स्नान किया, वस्त्र पहने, और केश संवार, अपना सामान भी उठा लिया! चली मम्मी-पापा के पास! जैसे ही गयी, सामने कुणाल बैठा था! देर रात आया था वो! भाई दौड़ के चला अपनी बहन के पास! खुश हो गयी सुरभि! पता नहीं, कितने सवाल कर डाले एक ही वाक्य में! कुणाल ने भी, एक एक करके जवाब दिया उसको! भाई-बहन में बहुत प्यार था शुरू से ही! कुणाल तो जान छिड़कता था अपनी बहन पर! अभी बातें कर ही रहे थे, की सुरभि के ताऊ जी के लड़के भी आ गए! खबर मिल ही चुकी थी की कुणाल आ चुका है! सबसे पहले अपनी लाड़ली बहन से मिले! फिर अपने चाचा और चाची के पाँव छुए उन्होंने! और बैठ गए! चार भाइयों में अकेली बहन थी, तो लाड़ली कैसे न होती! चाय-नाश्ता लगवा दिया गया! अब तो सभी ने चाय-नाश्ता किया! जब सुरभि ने चाय-नाश्ता कर लिया, तो वो अपनी कक्षा के लिए चली! कुणाल से मिली, और अपने दूसरे भाईओं से भी! और चली आई बाहर! पकड़ी सवारी, और चली कक्षा!
वहां पहुंची, और जैसे ही कक्षा में पहुंची, पूरा कमरा महक उठा! रोज की तरह, कामना और पारुल ने, फिर से फब्तियां कस दीं! और रोजाना की तरह ही, सुरभि ने उनको जवाब दिया! दोपहर में, फिर से कैंटीन में जा बैठीं, भोजन किया, और कुछ आराम, कुछ इधर-उधर की बातें हुईं! और फिर कक्षा के बाद, वापिस चली सुरभि, आई बाहर, पार किया चौराहा, और ले ली सवारी! और देखिये! जिस ऑटो में बैठी थी, उसमे ठीक सामने लिखा था फ़ैज़ान! जैसे ही पढ़ा, दिल में एक सिलवट सी पड़ी! याद आ गया सबकुछ! खो गयी उसी सपने में! और पूरा रास्ता उसी सपने के एक एक लम्हे में बिता दिया! पहुंची घर, कुणाल अपने भाइयों के साथ बाहर गया था, उसने धोये हाथ-मुंह, चाय पी, थोड़ा-बहुत खाया भी! और फिर, वस्त्र बदल, जा बैठी पलंग पर! अपना कुछ सामान ठीक से व्यवस्थित किया, कुछ अदला-बदली की, और तभी एक महक आई! तेज महक! जैसी उन नीले फूलों में से आया करती थी! आँखें बंद हो गयीं उसकी! जैसे, नशा सा चढ़ गया हो! बदन में ढीलापन आ गया! रोएँ से खड़े हो गए! वो काम छोड़, जा लेटी बिस्तर पर! ली करवट, अपने दोनों हाथ, फंसाये घुटनों में, और आँखें खोल, सोचने लगी कुछ! जब ऐसी हालत होती है मित्रगण, तब आँखें कुछ नहीं देखती! बस उनका आकार छोटा-बड़ा होता रहता है! देखती तो हैं मन की आँखें! तन की आँखें तो बस, जैसे शिथिल हो जाया करती हैं! वही हो रहा था उसके साथ! मन की आँखें जब ज़्यादा ही उलझीं, तो तन की आँखें भी बंद हो गयीं! करवट फिर से बदली उसने! और इस बार, नींद का झोंका आया, और सुरभि, बह चली उसमे!
सपनों की डोर भले ही कच्ची थी, लेकिन जकड़न बेहद मज़बूत थी उसकी! सुरभि, खिंची चली जाती थी उसमे! इस बार, वो जहां आई, वो फिर से एक रेगिस्तान था! शाम का वक़्त था! दूर दूर तक, कोई पेड़ नहीं था! सफेद रेगिस्तान! आकाश में कोई परिंदा नहीं! रेगिस्तान में, कोई लकड़ी का ठूंठ भी नहीं! बस वो, और उसकी परछाईं! परछाईं, जो अब लम्बी हो चली थी, पूरब की तरफ पड़ रही थी, धुंधली सी, उसने चारों तरफ देखा, कुछ नहीं था, एक टीला देखा रेत का, ऊंचा था, उस पर चढ़ कर, पता लगाया जा सकता था! वो चल पड़ी उधर! पाँव, रेत में धंसे जा रहे थे! चलना मुहाल हो रहा था, किसी तरह, एक एक क़दम बढ़ा, वो चल रही थी! पहुंची टीले पर, और ठीक बाएं, कुछ पेड़ दिखे उसको! दिमाग में कुछ याद आया! ये तो वही नख़लिस्तान है! बदन में जान आई उसके! और चल पड़ी उधर ही! जब पहुंची, तो ऊंटों की आवाज़ें आयीं उसको! कुछ औरतें दिखाई दीं! वे औरतें जैसे पहचान गयीं उसे! आयीं उसके पास, और ले चलीं अशुफ़ा के पास! ले आयीं, अशुफ़ा को आवाज़ दे, और अशुफ़ा अंदर से भागी चली आई बाहर! सीधा सुरभि के पास! हाथ चूमे उसके, माथा चूमा, और पांवों को साफ़ कर दिया उसने! ले चली अंदर उसे उस तम्बू के! बिठाया उसे!
"ह'ईज़ा कहाँ है?" पूछा सुरभि ने,
"आती होगी वो सुरभि!" बोली वो,
आई उसके पास, खोली एक डिबिया,
निकाली एक सिलाई, भरा सुरमा उसमे,
और लगा दिया सुरभि की आँखों में,
सुरमयी आँखें हो चलीं उसकी!
"पानी चाहिए!" बोली सुरभि!
"हाँ, अभी!" बोली वो,
और कोने में रखी सुराही से,
पानी डाला गिलास में, और दे दिया!
सुरभि ने पानी पिया, और गिलास वापिस दे दिया!
और भागी भागी चली आई ह'ईज़ा!
सुरभि मुस्कुरा गयी उसको देख कर!
ह'ईज़ा ने, माथा चूमा सुरभि का,
हाथ चूमे, कलाईयाँ चूमी!
ये रिवाज़ है वहाँ का!
तभी बाहर से, कुछ औरतों के गाने का स्वर गूंजा,
बाहर देखा सुरभि ने,
"ये हरातीन हैं!" बोली ह'ईज़ा!
हरातीन, एक और क़बीला है सहारा का!
इसके मर्द और औरतें, बेहद मज़बूत कद-काठी के होते हैं!
पक्के रिगिस्तानी लोग हैं! लेकिन ईमानदार!
बे-ईमानी से कोसों दूर! कभी नही सीखी इन्होने!
वो अपनी स्थानीय भाषा में, गीत गा रही थीं!
सुरभि को, बहुत अच्छा लगा वो गीत!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

"इसके क्या मायने हैं?" पूछा सुरभि ने,
"इसके मायने हैं सुरभि, कि शाम होने वाली है, सूरज भी डूबने को है, तो ये औरतें सूरज से प्रार्थना कर रही हैं, कि कुछ देर और ठहरो! रुक जाओ! मेरे दिल की धड़कन सुनो, कितनी तेज है, उसके खाविंद, बस पास में ही होंगे, अँधेरा न होने देना! उजाले उजाले में लौट आएं वो! घर में चूल्हा चढ़ चुका है, बस, कुछ देर और, कुछ देर और ठहरो!" बोली अशुफ़ा!
"बहुत प्यारे मायने हैं! बहुत प्यारे! दिल को छू गए हैं!" बोली सुरभि!
"हाँ सुरभि! बहुत कम ही ऐसा होता हा, जो आपके दिल को छू जाता है! आप तसव्वुर करते रहते हैं उसका!" बोली वो,
"हाँ! सही कहा!" बोली वो!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा,
"जी?" जवाब दिया उसने,
"खिच्चा तो ला?" बोली वो,
"अभी लायी!" बोली ह'ईज़ा!
उठी, और चली गयी बाहर!
"सुरभि! आप न जाया करो!" बोली अशुफ़ा!
मुस्कुरा गयी सुरभि!
"हमारी याद आती है आपको?" पूछा उसने,
"हाँ, बहुत!" बोली सुरभि,
वो भी मुस्कुरा पड़ी!
तभी ह'ईज़ा अंदर आई,
ले आई थी खिच्चा, दिया सुरभि को,
और सुरभि ने लिया, पीने लगी!
"आप बहुत याद आती हैं हमें!" बोली ह'ईज़ा!
मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
"सच में, आपके जाने के बाद, सब सूना हो जाता है!" बोली ह'ईज़ा,
"सच कहा ह'ईज़ा! हमारी सुरभि जैसा कोई नहीं!" बोली अशुफ़ा!
तभी बाहर से आवाज़ आई!
ये हुमैद साहब थे, कुछ लाये थे खाने के लिए,
ह'ईज़ा ने लिए उनसे,
और रख दिए सामने सुरभि के,
ये पिस्ते-मेवे, सूखी खुर्मानी थे!
रेगिस्तान में बस यही टिकता है!
नहीं तो गर्मी, सारी नमी सोख लिया करती है!
खिच्चा पी लिया था उसने,
और तभी उसकी आँखें बंद हुईं!
जैसे ही बंद हुईं,
वहां खुल गयीं!
वो हड़बड़ा के उठ बैठी!
खिच्चा का स्वाद, मुंह में बना हुआ था अभी भी!
बाहर, कुछ आवाज़ें आ रही थीं!
वो उठी, घड़ी देखी,
साढ़े छह बज चुके थे!
दरवाज़ा खोला, और चली बाहर!
दूसरे कमरे से आवाज़ें आ रही थीं!
वो चली उधर!
भाइयों ने जगह बनाई, माता जी की आँखों में आंसू थे!
उसको हुई घबराहट!
"क्या हुआ मम्मी?" पूछा उसने,
मम्मी तो कुछ बोल न सकीं, रोये ही जाएँ!
"कुणाल? क्या हुआ?" पूछा उसने,
"आज मरते मरते बचे हम!" बोली वो,
घबरा गयी!
"कैसे?" पूछा उसने,
"मैं और धीरज थे अपनी गाड़ी में, गाड़ी चले जा रही थी, कि अचानक, रास्ते में लगा एक नीम का पेड़, बड़ा पेड़, सड़क पर झुका, एक गाड़ी ने मारे ब्रेक! लेकिन जा टकराई उस से, फिर एक और, और फिर एक और! अब पीछे हम थे! हमने मारे ब्रेक! लगा आज तो हम गए! लेकिन हुआ क्या! कैसे किसी ने हमारी गाड़ी को, हाथों से उठा कर, बाएं रख दिया हो! हमारे पीछे की गाड़ी जा ठुकी! लेकिन कमाल ये, कि हमें एक खरोंच भी न आई! कमाल हो गया!" बोला कुणाल!
दिल धड़क उठा सुरभि का!
उठी, और लगा लिया गले कुणाल को!
धीरज को!
आँखों से आंसू ढुलक पड़े!
दोनों भाई,
भीगी बिल्ली की तरह से चुप!
सुरभि के सामने तो बोलने की हिम्मत ही नहीं थी!
दूसरे भाई भी चुप!
"सच में ही कमाल हो गया!" बोला नीरज!
"हाँ!" एक और भाई बोला,
"देखने वाले हैरान!" बोला नीरज!
"हाँ! गाड़ी जैसे खिलौने जैसे उठा दी गयी थी!" बोला दूसरा!
"चलो, बच गए!" बोला कुणाल!
"हाँ!" धीरज बोला,
अब तक पिताजी भी आ गये थे!
उन्होंने सबकुछ सुना, तो वो भी सन्न!
लेकिन शुक्र था!
कि एक खरोंच भी न आई थी!
न उन्हें!
और न ही गाड़ी को!
हाँ, वहाँ उस दुर्घटना में,
आठ लोग ज़ख्मी हुए थे!
चार गाड़ियां ठुक गयी थीं,
पेड़ के गुद्दे काट काट कर निकाला गया था लोगों को!
खैर!
आज तो रक्षा हुई!
आज प्रसाद बांटना बनता था!
तो वे भाई, सारे, चले अब मंदिर,
आज प्रसाद बांटना था!
चाय आई,
तो चाय पी सभी ने,
माता जी को समझाया गया!
तब जाकर, आंसू थमे!
सुरभि का फ़ोन बजा,
कामना का था,
उठी, और चली अपने कमरे में,
हुई खड़ी, खिड़की के पास! की बातें उस से!

कामना से बातें हुईं उसकी, कुछ शिक्षण से ही संबंधित कार्य था, उसके बाद फ़ोन काटा उसने, और मम्मी के पास चली, खाना बन चुका था, तो सभी ने खाना खाया तब! कुणाल से बातें होती रहीं, कुणाल ने फिर से आज वाली दुर्घटना से बचने वाली बात शुरू कर दी थी! उसी विषय पर बातें होती रही, फिर करीब ग्यारह बजे, पढ़ने के लिए चली गयी सुरभि, किताब निकाली और एक पृष्ठ खोला, जैसे ही खुला वो पृष्ठ, हरसिंगार का एक फूल रखा मिला उसे! उसने उठाया उसे, सूंघा, कमाल था, अभी तक महक बाकी थी उसमे! एक भीनी भीनी सुगंध! रख दिया एक तरफ वो फूल उसने, और लग गयी पढ़ाई में, पढ़ती जाती और लिखती जाती! इस तरह उसको डेढ़ बज गया था! उसकी नज़र खिड़की से बाहर पड़ी, चाँद आ गए थे, अंदर ही झाँक रहे थे! वो उठी, खिड़की खोली, और निहारने लगी चाँद को! आज तो जैसे तेज चमक रहे थे चाँद! आज पूरे जलाल पर जा पहुंचे थे! उसने खिड़की खुली छोड़ दी! और जा लेटी अपने बिस्तर पर, चाँद को देखे जाए और निहारे जाए! और ऐसे ही निहारते हुए उसकी आँख लग गयी! सो गयी वो! अब जब सोयी, तो फिर से सपना आया, सपना वहीँ से आया, उस इमारत से, उस बाग़ से!
वो उन पत्थरों के पास अकेली बैठी थी!
शीतल, मनमोहक बयार उसके बदन को सहला रही थी!
फूलों की ख़ुश्बू जैसे उसके चारों ओर सिमट गयी थी!
उसको घेर लिया था जैसे उस ख़ुश्बू ने!
वो फलदार वृक्ष झूम रहे थे हवा में!
धूल तो नाम को भी न थी वहां!
ऐसी साफ़-सफाई थी उधर!
और तभी ह'ईज़ा दौड़ी दौड़ी आई उसके पास!
और उसके पीछे पीछे वो अशुफ़ा!
दोनों ही बड़ी खुश थीं!
खड़ी हो गयी सुरभि! मुस्कुराने लगी उनको देख कर!
"क्या बात है?" पूछा सुरभि ने!
"फ़ैज़ान आ गए हैं!" बोली अशुफ़ा!
दिल की रेत पर, एक सर्द सी लहर आ रुकी!
रेत ने जज़्ब किया उस लहर को!
"आओ!" बोली अशुफ़ा!
क़दम न उठ सके!
पांव जैसे चिपक गए ज़मीन से!
दिल की गहराईओं में, जैसे अनुकरण होने लगा था कुछ अलग ही भावों का!
''आओ सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
अब चली वो, नज़रें नीची किये!
वो दोनों, उसको सहारा दिए, आगे बढ़ती रहीं!
ले आयीं उसी इमारत तक!
फूल बिछे थे! वही बड़े बड़े गुलाब!
वो चल पड़ी उस तरफ,
आई चौखट तक!
तो पुश्त किये, कोई खड़ा था!
नीले रंग के कुर्ते में,
नीले रंग की चुस्त पाजामी में,
दोनों हाथ बांधे,
जूतियां पहने हुआ था, सुनहरी!
और बाल भी भूरे, सुनहरी ही थे उसके!
नीचे, कंधों तक, घुंघराले से!
लम्बा-चौड़ा था वो, सेहतमंद!
"भाई जान?" बोली अशुफ़ा!
और तब वो मुड़ा!
गोरा-चिट्टा रंग!
हल्की सी सुनहरी दाढ़ी थी उसकी,
और आँखें, नीली!
चेहरे पर मुस्कराहट!
"सुरभि?" बोली अशुफा!
और सुरभि ने सर उठाया,
नज़रें जैसे ही मिलीं, चिपक गयीं फ़ैज़ान से!
चौड़ा चेहरा, भरा शरीर, मर्दाना सुंदरता से भरपूर!
ऐसा पुरुष तो देखा ही नहीं था सुरभि ने कहीं!
पलकें मारना ही भूल गयी!
और फ़ैज़ान!
फ़ैज़ान, संजीदा हो, सुरभि को देखे!
मुस्कान नहीं थी चेहरे पर अब!
आगे आया फैजान!
कंधे से भी नीचे आये सुरभि उसके!
आँखें उलझ गयी थीं दोनों की!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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