बैताल पचीसी 10
मदनपुर नगर में वीरवर नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में एक वैश्य था, जिसका नाम हिरण्यदत्त था। उसके मदनसेना नाम की एक कन्या थी।
एक दिन मदनसेना अपनी सखियों के साथ बाग़ में गयी। वहाँ संयोग से सोमदत्त नामक सेठ का लड़का धर्मदत्त अपने मित्र के साथ आया हुआ था। वह मदनसेना को देखते ही उससे प्रेम करने लगा। घर लौटकर वह सारी रात उसके लिए बैचेन रहा। अगले दिन वह फिर बाग़ में गया। मदनसेना वहाँ अकेली बैठी थी। उसके पास जाकर उसने कहा, “तुम मुझसे प्यार नहीं करोगी तो मैं प्राण दे दूँगा।”
मदनसेना ने जवाब दिया, “आज से पाँचवे दिन मेरी शादी होनेवाली है। मैं तुम्हारी नहीं हो सकती।”
वह बोला, “मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता।”
मदनसेना डर गयी। बोली, “अच्छी बात है। मेरा ब्याह हो जाने दो। मैं अपने पति के पास जाने से पहले तुमसे ज़रूर मिलूँगी।”
वचन देके मदनसेना डर गयी। उसका विवाह हो गया और वह जब अपने पति के पास गयी तो उदास होकर बोली, “आप मुझ पर विश्वास करें और मुझे अभय दान दें तो एक बात कहूँ।” पति ने विश्वास दिलाया तो उसने सारी बात कह सुनायी। सुनकर पति ने सोचा कि यह बिना जाये मानेगी तो है नहीं, रोकना बेकार है। उसने जाने की आज्ञा दे दी।
मदनसेना अच्छे-अच्छे कपड़े और गहने पहन कर चली। रास्ते में उसे एक चोर मिला। उसने उसका आँचल पकड़ लिया। मदनसेना ने कहा, “तुम मुझे छोड़ दो। मेरे गहने लेना चाहते हो तो लो।”
चोर बोला, “मैं तो तुम्हें चाहता हूँ।”
मदनसेना ने उसे सारा हाल कहा, “पहले मैं वहां हो आऊँ, तब तुम्हारे पास आऊँगी।”
चोर ने उसे छोड़ दिया।
मदनसेना धर्मदत्त के पास पहुँची। उसे देखकर वह बड़ा खुश हुआ और उसने पूछा, “तुम अपने पति से बचकर कैसे आयी हो?”
मदनसेना ने सारी बात सच-सच कह दी। धर्मदत्त पर उसका बड़ा गहरा असर पड़ा। उसने उसे छोड़ दिया। फिर वह चोर के पास आयी। चोर सब कुछ जानकर ब़ड़ा प्रभावित हुआ और वह उसे घर पर छोड़ गया। इस प्रकार मदनसेना सबसे बचकर पति के पास आ गयी। पति ने सारा हाल कह सुना तो बहुत प्रसन्न हुआ और उसके साथ आनन्द से रहने लगा।
इतना कहकर बेताल बोला, “हे राजा! बताओ, पति, धर्मदत्त और चोर, इनमें से कौन अधिक त्यागी है?”
राजा ने कहा, “चोर। मदनसेना का पति तो उसे दूसरे आदमी पर रुझान होने से त्याग देता है। धर्मदत्त उसे इसलिए छोड़ता है कि उसका मन बदल गया था, फिर उसे यह डर भी रहा होगा कि कहीं उसका पति उसे राजा से कहकर दण्ड न दिलवा दे। लेकिन चोर का किसी को पता न था, फिर भी उसने उसे छोड़ दिया। इसलिए वह उन दोनों से अधिक त्यागी था।”
राजा का यह जवाब सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा जब उसे लेकर चला तो उसने यह कथा सुनायी।
बैताल पचीसी 11
गौड़ देश में वर्धमान नाम का एक नगर था, जिसमें गुणशेखर नाम का राजा राज करता था। उसके अभयचन्द्र नाम का दीवान था। उस दीवान के समझाने से राजा ने अपने राज्य में शिव और विष्णु की पूजा, गोदान, भूदान, पिण्डदान आदि सब बन्द कर दिये। नगर में डोंडी पिटवा दी कि जो कोई ये काम करेगा, उसका सबकुछ छीनकर उसे नगर से निकाल दिया जायेगा।
एक दिन दीवान ने कहा, “महाराज, अगर कोई किसी को दु:ख पहुँचाता है और उसके प्राण लेता है तो पाप से उसका जन्म-मरण नहीं छूटता। वह बार-बार जन्म लेता और मरता है। इससे मनुष्य का जन्म पाकर धर्म बढ़ाना चाहिए। आदमी को हाथी से लेकर चींटी तक सबकी रक्षा करनी चाहिए। जो लोग दूसरों के दु:ख को नहीं समझते और उन्हें सताते हैं, उनकी इस पृथ्वी पर उम्र घटती जाती है और वे लूले-लँगड़े, काने, बौने होकर जन्म लेते हैं।”
राजा ने कहा “ठीक है।” अब दीवान जैसे कहता, राजा वैसे ही करता। दैवयोग से एक दिन राजा मर गया। उसकी जगह उसका बेटा धर्मराज गद्दी पर बैठा। एक दिन उसने किसी बात पर नाराज होकर दीवान को नगर से बाहर निकलवा दिया।
कुछ दिन बाद, एक बार वसन्त ऋतु में वह इन्दुलेखा, तारावली और मृगांकवती, इन तीनों रानियों को लेकर बाग़ में गया। वहाँ जब उसने इन्दुलेखा के बाल पकड़े तो उसके कान में लगा हुआ कमल उसकी जाँघ पर गिर गया। कमल के गिरते ही उसकी जाँघ में घाव हो गया और वह बेहोश हो गयी। बहुत इलाज हुआ, तब वह ठीक हुई। इसके बाद एक दिन की बात कि तारावली ऊपर खुले में सो रही थी। चांद निकला। जैसे ही उसकी चाँदनी तारावली के शरीर पर पड़ी, फफोले उठ आये। कई दिन के इलाज के बाद उसे आराम हुआ। इसके बाद एक दिन किसी के घर में मूसलों से धान कूटने की आवाज हुई। सुनते ही मृगांकवती के हाथों में छाले पड़ गये। इलाज हुआ, तब जाकर ठीक हुए।
इतनी कथा सुनाकर बेताल ने पूछा, “महाराज, बताइए, उन तीनों में सबसे ज्यादा कोमल कौन थी?”
राजा ने कहा, “मृगांकवती, क्योंकि पहली दो के घाव और छाले कमल और चाँदनी के छूने से हुए थे। तीसरी ने मूसल को छुआ भी नहीं और छाले पड़ गये। वही सबसे अधिक सुकुमार हुई।”
राजा के इतना कहते ही बेताल नौ-दो ग्यारह हो गया। राजा बेचारा फिर मसान में गया और जब वह उसे लेकर चला तो उसने एक और कहानी सुनायी।
बैताल पचीसी
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Re: बैताल पचीसी
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: बैताल पचीसी
बैताल पचीसी 12
किसी ज़माने में अंगदेश मे यशकेतु नाम का राजा था। उसके दीर्घदर्शी नाम का बड़ा ही चतुर दीवान था। राजा बड़ा विलासी था। राज्य का सारा बोझ दीवान पर डालकर वह भोग में पड़ गया। दीवान को बहुत दु:ख हुआ। उसने देखा कि राजा के साथ सब जगह उसकी निन्दा होती है। इसलिए वह तीरथ का बहाना करके चल पड़ा। चलते-चलते रास्ते में उसे एक शिव-मन्दिर मिला। उसी समय निछिदत्त नाम का एक सौदागर वहाँ आया और दीवान के पूछने पर उसने बताया कि वह सुवर्णद्वीप में व्यापार करने जा रहा है। दीवान भी उसके साथ हो लिया।
दोनों जहाज़ पर चढ़कर सुवर्णद्वीप पहुँचे और वहाँ व्यापार करके धन कमाकर लौटे। रास्ते में समुद्र में एक दीवान को एक कृल्पवृक्ष दिखाई दिया। उसकी मोटी-मोटी शाखाओं पर रत्नों से जुड़ा एक पलंग बिछा था। उस पर एक रूपवती कन्या बैठी वीणा बजा रही थी। थोड़ी देर बाद वह ग़ायब हो गयी। पेड़ भी नहीं रहा। दीवान बड़ा चकित हुआ।
दीवान ने अपने नगर में लौटकर सारा हाल कह सुनाया। इस बीच इतने दिनों तक राज्य को चला कर राजा सुधर गया था और उसने विलासिता छोड़ दी थी। दीवान की कहानी सुनकर राजा उस सुन्दरी को पाने के लिए बेचैन हो उठा और राज्य का सारा काम दीवान पर सौंपकर तपस्वी का भेष बनाकर वहीं पहुँचा। पहुँचने पर उसे वही कल्पवृक्ष और वीणा बजाती कन्या दिखाई दी। उसने राजा से पूछा, “तुम कौन हो?” राजा ने अपना परिचय दे दिया। कन्या बोली, “मैं राजा मृगांकसेन की कन्या हूँ। मृगांकवती मेरा नाम है। मेरे पिता मुझे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये।”
राजा ने उसके साथ विवाह कर लिया। कन्या ने यह शर्त रखी कि वह हर महीने के शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और अष्टमी को कहीं जाया करेगी और राजा उसे रोकेगा नहीं। राजा ने यह शर्त मान ली।
इसके बाद कृष्णपक्ष की चतुर्दशी आयी तो राजा से पूछकर मृगांकवती वहाँ से चली। राजा भी चुपचाप पीछे-पीछे चल दिया। अचानक राजा ने देखा कि एक राक्षस निकला और उसने मृगांकवती को निगल लिया। राजा को बड़ा गुस्सा आया और उसने राक्षस का सिर काट डाला। मृगांकवती उसके पेट से जीवित निकल आयी।
राजा ने उससे पूछा कि यह क्या माजरा है तो उसने कहा, “महाराज, मेरे पिता मेरे बिना भोजन नहीं करते थे। मैं अष्टमी और चतुदर्शी के दिन शिव पूजा यहाँ करने आती थी। एक दिन पूजा में मुझे बहुत देर हो गयी। पिता को भूखा रहना पड़ा। देर से जब मैं घर लौटी तो उन्होंने गुस्से में मुझे शाप दे दिया कि अष्टमी और चतुर्दशी के दिन जब मैं पूजन के लिए आया करूँगी तो एक राक्षस मुझे निगल जाया करेगा और मैं उसका पेट चीरकर निकला करूँगी। जब मैंने उनसे शाप छुड़ाने के लिए बहुत अनुनय की तो वह बोले, “जब अंगदेश का राजा तेरा पति बनेगा और तुझे राक्षस से निगली जाते देखेगा तो वह राक्षस को मार देगा। तब तेरे शाप का अन्त होगा।”
इसके बाद राजा उसे लेकर नगर में आया। दीवान ने यह देखा तो उसका हृदय फट गया। और वह मर गया।
इतना कहकर बेताल ने पूछा, “हे राजन्! यह बताओ कि स्वामी की इतनी खुशी के समय दीवान का हृदय फट गया?”
राजा ने कहा, “इसलिए कि उसने सोचा कि राजा फिर स्त्री के चक्कर में पड़ गया और राज्य की दुर्दशा होगी।”
राजा का इतना कहना था कि बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा ने वहाँ जाकर फिर उसे साथ लिया तो रास्ते में बेताल ने यह कहानी सुनायी।
बैताल पचीसी 13
बनारस में देवस्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके हरिदास नाम का पुत्र था। हरिदास की बड़ी सुन्दर पत्नी थी। नाम था लावण्यवती। एक दिन वे महल के ऊपर छत पर सो रहे थे कि आधी रात के समय एक गंधर्व-कुमार आकाश में घूमता हुआ उधर से निकला। वह लावण्यवती के रूप पर मुग्ध होकर उसे उड़ाकर ले गया। जागने पर हरिदास ने देखा कि उसकी स्त्री नही है तो उसे बड़ा दुख हुआ और वह मरने के लिए तैयार हो गया। लोगों के समझाने पर वह मान तो गया; लेकिन यह सोचकर कि तीरथ करने से शायद पाप दूर हो जाय और स्त्री मिल जाय, वह घर से निकल पड़ा।
चलते-चलते वह किसी गाँव में एक ब्राह्मण के घर पहुँचा। उसे भूखा देख ब्राह्मणी ने उसे कटोरा भरकर खीर दे दी और तालाब के किनारे बैठकर खाने को कहा। हरिदास खीर लेकर एक पेड़ के नीचे आया और कटोरा वहाँ रखकर तालाब मे हाथ-मुँह धोने गया। इसी बीच एक बाज किसी साँप को लेकर उसी पेड़ पर आ बैठा ओर जब वह उसे खाने लगा तो साँप के मुँह से ज़हर टपककर कटोरे में गिर गया। हरिदास को कुछ पता नहीं था। वह उस खीर को खा गया। ज़हर का असर होने पर वह तड़पने लगा और दौड़ा-दौड़ा ब्राह्मणी के पास आकर बोला, “तूने मुझे जहर दे दिया है।” इतना कहने के बाद हरिदास मर गया।
पति ने यह देखा तो ब्राह्मणी को ब्रह्मघातिनी कहकर घर से निकाल दिया।
इतना कहकर बेताल बोला, “राजन्! बताओ कि साँप, बाज, और ब्राह्मणी, इन तीनों में अपराधी कौन है?”
राजा ने कहा, “कोई नहीं। साँप तो इसलिए नहीं क्योंकि वह शत्रु के वश में था। बाज इसलिए नहीं कि वह भूखा था। जो उसे मिल गया, उसी को वह खाने लगा। ब्राह्मणी इसलिए नहीं कि उसने अपना धर्म समझकर उसे खीर दी थी और अच्छी दी थी। जो इन तीनों में से किसी को दोषी कहेगा, वह स्वयं दोषी होगा। इसलिए अपराधी ब्राह्मणी का पति था जिसने बिना विचारे ब्राह्मणी को घर से निकाल दिया।”
इतना सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा को वहाँ जाकर उसे लाना पड़ा। बेताल ने चलते-चलते नयी कहानी सनायी।
किसी ज़माने में अंगदेश मे यशकेतु नाम का राजा था। उसके दीर्घदर्शी नाम का बड़ा ही चतुर दीवान था। राजा बड़ा विलासी था। राज्य का सारा बोझ दीवान पर डालकर वह भोग में पड़ गया। दीवान को बहुत दु:ख हुआ। उसने देखा कि राजा के साथ सब जगह उसकी निन्दा होती है। इसलिए वह तीरथ का बहाना करके चल पड़ा। चलते-चलते रास्ते में उसे एक शिव-मन्दिर मिला। उसी समय निछिदत्त नाम का एक सौदागर वहाँ आया और दीवान के पूछने पर उसने बताया कि वह सुवर्णद्वीप में व्यापार करने जा रहा है। दीवान भी उसके साथ हो लिया।
दोनों जहाज़ पर चढ़कर सुवर्णद्वीप पहुँचे और वहाँ व्यापार करके धन कमाकर लौटे। रास्ते में समुद्र में एक दीवान को एक कृल्पवृक्ष दिखाई दिया। उसकी मोटी-मोटी शाखाओं पर रत्नों से जुड़ा एक पलंग बिछा था। उस पर एक रूपवती कन्या बैठी वीणा बजा रही थी। थोड़ी देर बाद वह ग़ायब हो गयी। पेड़ भी नहीं रहा। दीवान बड़ा चकित हुआ।
दीवान ने अपने नगर में लौटकर सारा हाल कह सुनाया। इस बीच इतने दिनों तक राज्य को चला कर राजा सुधर गया था और उसने विलासिता छोड़ दी थी। दीवान की कहानी सुनकर राजा उस सुन्दरी को पाने के लिए बेचैन हो उठा और राज्य का सारा काम दीवान पर सौंपकर तपस्वी का भेष बनाकर वहीं पहुँचा। पहुँचने पर उसे वही कल्पवृक्ष और वीणा बजाती कन्या दिखाई दी। उसने राजा से पूछा, “तुम कौन हो?” राजा ने अपना परिचय दे दिया। कन्या बोली, “मैं राजा मृगांकसेन की कन्या हूँ। मृगांकवती मेरा नाम है। मेरे पिता मुझे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये।”
राजा ने उसके साथ विवाह कर लिया। कन्या ने यह शर्त रखी कि वह हर महीने के शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और अष्टमी को कहीं जाया करेगी और राजा उसे रोकेगा नहीं। राजा ने यह शर्त मान ली।
इसके बाद कृष्णपक्ष की चतुर्दशी आयी तो राजा से पूछकर मृगांकवती वहाँ से चली। राजा भी चुपचाप पीछे-पीछे चल दिया। अचानक राजा ने देखा कि एक राक्षस निकला और उसने मृगांकवती को निगल लिया। राजा को बड़ा गुस्सा आया और उसने राक्षस का सिर काट डाला। मृगांकवती उसके पेट से जीवित निकल आयी।
राजा ने उससे पूछा कि यह क्या माजरा है तो उसने कहा, “महाराज, मेरे पिता मेरे बिना भोजन नहीं करते थे। मैं अष्टमी और चतुदर्शी के दिन शिव पूजा यहाँ करने आती थी। एक दिन पूजा में मुझे बहुत देर हो गयी। पिता को भूखा रहना पड़ा। देर से जब मैं घर लौटी तो उन्होंने गुस्से में मुझे शाप दे दिया कि अष्टमी और चतुर्दशी के दिन जब मैं पूजन के लिए आया करूँगी तो एक राक्षस मुझे निगल जाया करेगा और मैं उसका पेट चीरकर निकला करूँगी। जब मैंने उनसे शाप छुड़ाने के लिए बहुत अनुनय की तो वह बोले, “जब अंगदेश का राजा तेरा पति बनेगा और तुझे राक्षस से निगली जाते देखेगा तो वह राक्षस को मार देगा। तब तेरे शाप का अन्त होगा।”
इसके बाद राजा उसे लेकर नगर में आया। दीवान ने यह देखा तो उसका हृदय फट गया। और वह मर गया।
इतना कहकर बेताल ने पूछा, “हे राजन्! यह बताओ कि स्वामी की इतनी खुशी के समय दीवान का हृदय फट गया?”
राजा ने कहा, “इसलिए कि उसने सोचा कि राजा फिर स्त्री के चक्कर में पड़ गया और राज्य की दुर्दशा होगी।”
राजा का इतना कहना था कि बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा ने वहाँ जाकर फिर उसे साथ लिया तो रास्ते में बेताल ने यह कहानी सुनायी।
बैताल पचीसी 13
बनारस में देवस्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके हरिदास नाम का पुत्र था। हरिदास की बड़ी सुन्दर पत्नी थी। नाम था लावण्यवती। एक दिन वे महल के ऊपर छत पर सो रहे थे कि आधी रात के समय एक गंधर्व-कुमार आकाश में घूमता हुआ उधर से निकला। वह लावण्यवती के रूप पर मुग्ध होकर उसे उड़ाकर ले गया। जागने पर हरिदास ने देखा कि उसकी स्त्री नही है तो उसे बड़ा दुख हुआ और वह मरने के लिए तैयार हो गया। लोगों के समझाने पर वह मान तो गया; लेकिन यह सोचकर कि तीरथ करने से शायद पाप दूर हो जाय और स्त्री मिल जाय, वह घर से निकल पड़ा।
चलते-चलते वह किसी गाँव में एक ब्राह्मण के घर पहुँचा। उसे भूखा देख ब्राह्मणी ने उसे कटोरा भरकर खीर दे दी और तालाब के किनारे बैठकर खाने को कहा। हरिदास खीर लेकर एक पेड़ के नीचे आया और कटोरा वहाँ रखकर तालाब मे हाथ-मुँह धोने गया। इसी बीच एक बाज किसी साँप को लेकर उसी पेड़ पर आ बैठा ओर जब वह उसे खाने लगा तो साँप के मुँह से ज़हर टपककर कटोरे में गिर गया। हरिदास को कुछ पता नहीं था। वह उस खीर को खा गया। ज़हर का असर होने पर वह तड़पने लगा और दौड़ा-दौड़ा ब्राह्मणी के पास आकर बोला, “तूने मुझे जहर दे दिया है।” इतना कहने के बाद हरिदास मर गया।
पति ने यह देखा तो ब्राह्मणी को ब्रह्मघातिनी कहकर घर से निकाल दिया।
इतना कहकर बेताल बोला, “राजन्! बताओ कि साँप, बाज, और ब्राह्मणी, इन तीनों में अपराधी कौन है?”
राजा ने कहा, “कोई नहीं। साँप तो इसलिए नहीं क्योंकि वह शत्रु के वश में था। बाज इसलिए नहीं कि वह भूखा था। जो उसे मिल गया, उसी को वह खाने लगा। ब्राह्मणी इसलिए नहीं कि उसने अपना धर्म समझकर उसे खीर दी थी और अच्छी दी थी। जो इन तीनों में से किसी को दोषी कहेगा, वह स्वयं दोषी होगा। इसलिए अपराधी ब्राह्मणी का पति था जिसने बिना विचारे ब्राह्मणी को घर से निकाल दिया।”
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Re: बैताल पचीसी
बैताल पचीसी 14
अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक साहूकार था, जिसके रत्नवती नाम की एक लड़की थी। वह सुन्दर थी। वह पुरुष के भेस में रहा करती थी और किसी से भी ब्याह नहीं करना चाहती थी। उसका पिता बड़ा दु:खी था।
इसी बीच नगर में खूब चोरियाँ होने लगी। प्रजा दु:खी हो गयी। कोशिश करने पर भी जब चोर पकड़ में न आया तो राजा स्वयं उसे पकड़ने के लिए निकला। एक दिन रात को जब राजा भेष बदलकर घूम रहा था तो उसे परकोटे के पास एक आदमी दिखाई दिया। राजा चुपचाप उसके पीछे चल दिया। चोर ने कहा, “तब तो तुम मेरे साथी हो। आओ, मेरे घर चलो।”
दोनो घर पहुँचे। उसे बिठलाकर चोर किसी काम के लिए चला गया। इसी बीच उसकी दासी आयी और बोली, “तुम यहाँ क्यों आये हो? चोर तुम्हें मार डालेगा। भाग जाओ।”
राजा ने ऐसा ही किया। फिर उसने फौज लेकर चोर का घर घेर लिया। जब चोर ने ये देखा तो वह लड़ने के लिए तैयार हो गया। दोनों में खूब लड़ाई हुई। अन्त में चोर हार गया। राजा उसे पकड़कर राजधानी में लाया और से सूली पर लटकाने का हुक्म दे दिया।
संयोग से रत्नवती ने उसे देखा तो वह उस पर मोहित हो गयी। पिता से बोली, “मैं इसके साथ ब्याह करूँगी, नहीं तो मर जाऊँगी।
पर राजा ने उसकी बात न मानी और चोर सूली पर लटका दिया। सूली पर लटकने से पहले चोर पहले तो बहुत रोया, फिर खूब हँसा। रत्नवती वहाँ पहुँच गयी और चोर के सिर को लेकर सती होने को चिता में बैठ गयी। उसी समय देवी ने आकाशवाणी की, “मैं तेरी पतिभक्ति से प्रसन्न हूँ। जो चाहे सो माँग।”
रत्नवती ने कहा, “मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है। सो वर दीजिए, कि उनसे सौ पुत्र हों।”
देवी प्रकट होकर बोलीं, “यही होगा। और कुछ माँगो।”
वह बोली, “मेरे पति जीवित हो जायें।”
देवी ने उसे जीवित कर दिया। दोनों का विवाह हो गया। राजा को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने चोर को अपना सेनापति बना लिया।
इतनी कहानी सुनाकर बेताल ने पूछा, ‘हे राजन्, यह बताओ कि सूली पर लटकने से पहले चोर क्यों तो ज़ोर-ज़ोर से रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?”
राजा ने कहा, “रोया तो इसलिए कि वह राजा रत्नदत्त का कुछ भी भला न कर सकेगा। हँसा इसलिए कि रत्नवती बड़े-बड़े राजाओं और धनिकों को छोड़कर उस पर मुग्ध होकर मरने को तैयार हो गयी। स्त्री के मन की गति को कोई नहीं समझ सकता।”
इतना सुनकर बेताल गायब हो गया और पेड़ पर जा लटका। राजा फिर वहाँ गया और उसे लेकर चला तो रास्ते में उसने यह कथा कही।
बैताल पचीसी 15
नेपाल देश में शिवपुरी नामक नगर मे यशकेतु नामक राजा राज करता था। उसके चन्द्रप्रभा नाम की रानी और शशिप्रभा नाम की लड़की थी।
जब राजकुमारी बड़ी हुई तो एक दिन वसन्त उत्सव देखने बाग़ में गयी। वहाँ एक ब्राह्मण का लड़का आया हुआ था। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और प्रेम करने लगे। इसी बीच एक पागल हाथी वहाँ दौड़ता हुआ आया। ब्राह्मण का लड़का राजकुमारी को उठाकर दूर ले गया और हाथी से बचा दिया। शशिप्रभा महल में चली गयी; पर ब्राह्मण के लड़के के लिए व्याकुल रहने लगी।
उधर ब्राह्मण के लड़के की भी बुरी दशा थी। वह एक सिद्धगुरू के पास पहुँचा और अपनी इच्छा बतायी। उसने एक योग-गुटिका अपने मुँह में रखकर ब्राह्मण का रूप बना लिया और एक गुटिका ब्राह्मण के लड़के के मुँह में रखकर उसे सुन्दर लड़की बना दिया। राजा के पास जाकर कहा, “मेरा एक ही बेटा है। उसके लिए मैं इस लड़की को लाया था; पर लड़का न जाने कहाँ चला गया। आप इसे यहाँ रख ले। मैं लड़के को ढूँढ़ने जाता हूँ। मिल जाने पर इसे ले जाऊँगा।”
सिद्धगुरु चला गया और लड़की के भेस में ब्राह्मण का लड़का राजकुमार के पास रहने लगा। धीरे-धीरे दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। एक दिन राजकुमारी ने कहा, “मेरा दिल बड़ा दुखी रहता है। एक ब्राह्मण के लड़के ने पागल हाथी से मरे प्राण बचाये थे। मेरा मन उसी में रमा है।”
इतना सुनकर उसने गुटिका मुँह से निकाल ली और ब्राह्मण-कुमार बन गया। राजकुमार उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुई। तबसे वह रात को रोज़ गुटिका निकालकर लड़का बन जाता, दिन में लड़की बना रहता। दोनों ने चुपचाप विवाह कर लिया।
कुछ दिन बाद राजा के साले की कन्या मृगांकदत्ता का विवाह दीवान के बेटे के साथ होना तय हुआ। राजकुमारी अपने कन्या-रूपधार ब्राह्मणकुमार के साथ वहाँ गयी। संयोग से दीवान का पुत्र उस बनावटी कन्या पर रीझ गया। विवाह होने पर वह मृगांकदत्ता को घर तो ले गया; लेकिन उसका हृदय उस कन्या के लिए व्याकुल रहने लगा उसकी यह दशा देखकर दीवान बहुत हैरान हुआ। उसने राजा को समाचार भेजा। राजा आया। उसके सामने सवाल थ कि धरोहर के रूप में रखी हुई कन्या को वह कैसे दे दे? दूसरी ओर यह मुश्किल कि न दे तो दीवान का लड़का मर जाये।
बहुत सोच-विचार के बाद राजा ने दोनों का विवाह कर दिया। बनावटी कन्या ने यह शर्त रखी कि चूँकि वह दूसरे के लिए लायी गयी थी, इसलिए उसका यह पति छ: महीने तक यात्रा करेगा, तब वह उससे बात करेगी। दीवान के लड़के ने यह शर्त मान ली।
विवाह के बाद वह उसे मृगांकदत्ता के पास छोड़ तीर्थ-यात्रा चला गया। उसके जाने पर दोनों आनन्द से रहने लगे। ब्राह्मणकुमार रात में आदमी बन जाता और दिन में कन्या बना रहता।
जब छ: महीने बीतने को आये तो वह एक दिन मृगांकदत्ता को लेकर भाग गया।
उधर सिद्धगुरु एक दिन अपने मित्र शशि को युवा पुत्र बनाकर राजा के पास लाया और उस कन्या को माँगा। शाप के डर के मारे राजा ने कहा, “वह कन्या तो जाने कहाँ चली गयी। आप मेरी कन्या से इसका विवाह कर दें।”
वह राजी हो गया और राजकुमारी का विवाह शशि के साथ कर दिया। घर आने पर ब्राह्मणकुमार ने कहा, “यह राजकुमारी मेरी स्त्री है। मैंने इससे गंधर्व-रीति से विवाह किया है।”
शशि ने कहा, “यह मेरी स्त्री है, क्योंकि मैंने सबके सामने विधि-पूर्वक ब्याह किया है।”
बेताल ने पूछा, “शशि दोनों में से किस की पत्नी है?”
राजा ने कहा, “मेरी राय में वह शशि की पत्नी है, क्योंकि राजा ने सबके सामने विधिपूर्वक विवाह किया था। ब्राह्मणकुमार ने तो चोरी से ब्याह किया था। चोरी की चीज़ पर चोर का अधिकार नहीं होता।”
इतना सुनना था कि बेताल गायब हो गया और राजा को जाकर फिर उसे लाना पड़ा। रास्ते में बेताल ने फिर एक कहानी सुनायी।
अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक साहूकार था, जिसके रत्नवती नाम की एक लड़की थी। वह सुन्दर थी। वह पुरुष के भेस में रहा करती थी और किसी से भी ब्याह नहीं करना चाहती थी। उसका पिता बड़ा दु:खी था।
इसी बीच नगर में खूब चोरियाँ होने लगी। प्रजा दु:खी हो गयी। कोशिश करने पर भी जब चोर पकड़ में न आया तो राजा स्वयं उसे पकड़ने के लिए निकला। एक दिन रात को जब राजा भेष बदलकर घूम रहा था तो उसे परकोटे के पास एक आदमी दिखाई दिया। राजा चुपचाप उसके पीछे चल दिया। चोर ने कहा, “तब तो तुम मेरे साथी हो। आओ, मेरे घर चलो।”
दोनो घर पहुँचे। उसे बिठलाकर चोर किसी काम के लिए चला गया। इसी बीच उसकी दासी आयी और बोली, “तुम यहाँ क्यों आये हो? चोर तुम्हें मार डालेगा। भाग जाओ।”
राजा ने ऐसा ही किया। फिर उसने फौज लेकर चोर का घर घेर लिया। जब चोर ने ये देखा तो वह लड़ने के लिए तैयार हो गया। दोनों में खूब लड़ाई हुई। अन्त में चोर हार गया। राजा उसे पकड़कर राजधानी में लाया और से सूली पर लटकाने का हुक्म दे दिया।
संयोग से रत्नवती ने उसे देखा तो वह उस पर मोहित हो गयी। पिता से बोली, “मैं इसके साथ ब्याह करूँगी, नहीं तो मर जाऊँगी।
पर राजा ने उसकी बात न मानी और चोर सूली पर लटका दिया। सूली पर लटकने से पहले चोर पहले तो बहुत रोया, फिर खूब हँसा। रत्नवती वहाँ पहुँच गयी और चोर के सिर को लेकर सती होने को चिता में बैठ गयी। उसी समय देवी ने आकाशवाणी की, “मैं तेरी पतिभक्ति से प्रसन्न हूँ। जो चाहे सो माँग।”
रत्नवती ने कहा, “मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है। सो वर दीजिए, कि उनसे सौ पुत्र हों।”
देवी प्रकट होकर बोलीं, “यही होगा। और कुछ माँगो।”
वह बोली, “मेरे पति जीवित हो जायें।”
देवी ने उसे जीवित कर दिया। दोनों का विवाह हो गया। राजा को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने चोर को अपना सेनापति बना लिया।
इतनी कहानी सुनाकर बेताल ने पूछा, ‘हे राजन्, यह बताओ कि सूली पर लटकने से पहले चोर क्यों तो ज़ोर-ज़ोर से रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?”
राजा ने कहा, “रोया तो इसलिए कि वह राजा रत्नदत्त का कुछ भी भला न कर सकेगा। हँसा इसलिए कि रत्नवती बड़े-बड़े राजाओं और धनिकों को छोड़कर उस पर मुग्ध होकर मरने को तैयार हो गयी। स्त्री के मन की गति को कोई नहीं समझ सकता।”
इतना सुनकर बेताल गायब हो गया और पेड़ पर जा लटका। राजा फिर वहाँ गया और उसे लेकर चला तो रास्ते में उसने यह कथा कही।
बैताल पचीसी 15
नेपाल देश में शिवपुरी नामक नगर मे यशकेतु नामक राजा राज करता था। उसके चन्द्रप्रभा नाम की रानी और शशिप्रभा नाम की लड़की थी।
जब राजकुमारी बड़ी हुई तो एक दिन वसन्त उत्सव देखने बाग़ में गयी। वहाँ एक ब्राह्मण का लड़का आया हुआ था। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और प्रेम करने लगे। इसी बीच एक पागल हाथी वहाँ दौड़ता हुआ आया। ब्राह्मण का लड़का राजकुमारी को उठाकर दूर ले गया और हाथी से बचा दिया। शशिप्रभा महल में चली गयी; पर ब्राह्मण के लड़के के लिए व्याकुल रहने लगी।
उधर ब्राह्मण के लड़के की भी बुरी दशा थी। वह एक सिद्धगुरू के पास पहुँचा और अपनी इच्छा बतायी। उसने एक योग-गुटिका अपने मुँह में रखकर ब्राह्मण का रूप बना लिया और एक गुटिका ब्राह्मण के लड़के के मुँह में रखकर उसे सुन्दर लड़की बना दिया। राजा के पास जाकर कहा, “मेरा एक ही बेटा है। उसके लिए मैं इस लड़की को लाया था; पर लड़का न जाने कहाँ चला गया। आप इसे यहाँ रख ले। मैं लड़के को ढूँढ़ने जाता हूँ। मिल जाने पर इसे ले जाऊँगा।”
सिद्धगुरु चला गया और लड़की के भेस में ब्राह्मण का लड़का राजकुमार के पास रहने लगा। धीरे-धीरे दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। एक दिन राजकुमारी ने कहा, “मेरा दिल बड़ा दुखी रहता है। एक ब्राह्मण के लड़के ने पागल हाथी से मरे प्राण बचाये थे। मेरा मन उसी में रमा है।”
इतना सुनकर उसने गुटिका मुँह से निकाल ली और ब्राह्मण-कुमार बन गया। राजकुमार उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुई। तबसे वह रात को रोज़ गुटिका निकालकर लड़का बन जाता, दिन में लड़की बना रहता। दोनों ने चुपचाप विवाह कर लिया।
कुछ दिन बाद राजा के साले की कन्या मृगांकदत्ता का विवाह दीवान के बेटे के साथ होना तय हुआ। राजकुमारी अपने कन्या-रूपधार ब्राह्मणकुमार के साथ वहाँ गयी। संयोग से दीवान का पुत्र उस बनावटी कन्या पर रीझ गया। विवाह होने पर वह मृगांकदत्ता को घर तो ले गया; लेकिन उसका हृदय उस कन्या के लिए व्याकुल रहने लगा उसकी यह दशा देखकर दीवान बहुत हैरान हुआ। उसने राजा को समाचार भेजा। राजा आया। उसके सामने सवाल थ कि धरोहर के रूप में रखी हुई कन्या को वह कैसे दे दे? दूसरी ओर यह मुश्किल कि न दे तो दीवान का लड़का मर जाये।
बहुत सोच-विचार के बाद राजा ने दोनों का विवाह कर दिया। बनावटी कन्या ने यह शर्त रखी कि चूँकि वह दूसरे के लिए लायी गयी थी, इसलिए उसका यह पति छ: महीने तक यात्रा करेगा, तब वह उससे बात करेगी। दीवान के लड़के ने यह शर्त मान ली।
विवाह के बाद वह उसे मृगांकदत्ता के पास छोड़ तीर्थ-यात्रा चला गया। उसके जाने पर दोनों आनन्द से रहने लगे। ब्राह्मणकुमार रात में आदमी बन जाता और दिन में कन्या बना रहता।
जब छ: महीने बीतने को आये तो वह एक दिन मृगांकदत्ता को लेकर भाग गया।
उधर सिद्धगुरु एक दिन अपने मित्र शशि को युवा पुत्र बनाकर राजा के पास लाया और उस कन्या को माँगा। शाप के डर के मारे राजा ने कहा, “वह कन्या तो जाने कहाँ चली गयी। आप मेरी कन्या से इसका विवाह कर दें।”
वह राजी हो गया और राजकुमारी का विवाह शशि के साथ कर दिया। घर आने पर ब्राह्मणकुमार ने कहा, “यह राजकुमारी मेरी स्त्री है। मैंने इससे गंधर्व-रीति से विवाह किया है।”
शशि ने कहा, “यह मेरी स्त्री है, क्योंकि मैंने सबके सामने विधि-पूर्वक ब्याह किया है।”
बेताल ने पूछा, “शशि दोनों में से किस की पत्नी है?”
राजा ने कहा, “मेरी राय में वह शशि की पत्नी है, क्योंकि राजा ने सबके सामने विधिपूर्वक विवाह किया था। ब्राह्मणकुमार ने तो चोरी से ब्याह किया था। चोरी की चीज़ पर चोर का अधिकार नहीं होता।”
इतना सुनना था कि बेताल गायब हो गया और राजा को जाकर फिर उसे लाना पड़ा। रास्ते में बेताल ने फिर एक कहानी सुनायी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: बैताल पचीसी
बैताल पचीसी 16
हिमाचल पर्वत पर गंधर्वों का एक नगर था, जिसमें जीमूतकेतु नामक राजा राज करता था। उसके एक लड़का था, जिसका नाम जीमूतवाहन था। बाप-बेटे दोनों भले थे। धर्म-कर्म मे लगे रहते थे। इससे प्रजा के लोग बहुत स्वच्छन्द हो गये और एक दिन उन्होंने राजा के महल को घेर लिया। राजकुमार ने यह देखा तो पिता से कहा कि आप चिन्ता न करें। मैं सबको मार भगाऊँगा। राजा बोला, “नहीं, ऐसा मत करो। युधिष्ठिर भी महाभारत करके पछताये थे।”
इसके बाद राजा अपने गोत्र के लोगों को राज्य सौंप राजकुमार के साथ मलयाचल पर जाकर मढ़ी बनाकर रहने लगा। वहाँ जीमूतवाहन की एक ऋषि के बेटे से दोस्ती हो गयी। एक दिन दोनों पर्वत पर भवानी के मन्दिर में गये तो दैवयोग से उन्हें मलयकेतु राजा की पुत्री मिली। दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गये। जब कन्या के पिता को मालूम हुआ तो उसने अपनी बेटी उसे ब्याह दी।
एक रोज़ की बात है कि जीमूतवाहन को पहाड़ पर एक सफ़ेद ढेर दिखाई दिया। पूछा तो मालूम हुआ कि पाताल से बहुत-से नाग आते हैं, जिन्हें गरुड़ खा लेता है। यह ढेर उन्हीं की हड्डियों का है। उसे देखकर जीमूतवाहन आगे बढ़ गया। कुछ दूर जाने पर उसे किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। पास गया तो देखा कि एक बुढ़िया रो रही है। कारण पूछा तो उसने बताया कि आज उसके बेटे शंखचूड़ नाग की बारी है। उसे गरुड़ आकर खा जायेगा। जीमूतवाहन ने कहा, “माँ, तुम चिन्ता न करो, मैं उसकी जगह चला जाऊँगा।” बुढ़िया ने बहुत समझाया, पर वह न माना।
इसके बाद गरुड़ आया और उसे चोंच में पकड़कर उड़ा ले गया। संयोग से राजकुमार का बाजूबंद गिर पड़ा, जिस पर राजा का नाम खुदा था। उस पर खून लगा था। राजकुमारी ने उसे देखा। वह मूर्च्छित हो गयी। होश आने पर उसने राजा और रानी को सब हाल सुनाया। वे बड़े दु:खी हुए और जीमूतवाहन को खोजने निकले। तभी उन्हें शंखचूड़ मिला। उसने गरुड़ को पुकार कर कहा, “हे गरुड़! तू इसे छोड़ दे। बारी तो मेरी थी।”
गरुड़ ने राजकुमार से पूछा, “तू अपनी जान क्यों दे रहा है?” उसने कहा, “उत्तम पुरुष को हमेशा दूसरों की मदद करनी चाहिए।”
यह सुनकर गरुड़ बहुत खुश हुआ उसने राजकुमार से वर माँगने को कहा। जीमूतवाहन ने अनुरोध किया कि सब साँपों को जिला दो। गरुड़ ने ऐसा ही किया। फिर उसने कहा, “तुझे अपना राज्य भी मिल जायेगा।”
इसके बाद वे लोग अपने नगर को लौट आये। लोगों ने राजा को फिर गद्दी पर बिठा दिया। इतना कहकर बेताल बोला, “हे राजन् यह बताओ, इसमें सबसे बड़ा काम किसने किया?”
राजा ने कहा “शंखचूड़ ने?”
बेताल ने पूछा, “कैसे?”
राजा बोला, “जीमूतवाहन जाति का क्षत्री था। प्राण देने का उसे अभ्यास था। लेकिन बड़ा काम तो शंखचूड़ ने किया, जो अभ्यास न होते हुए भी जीमूतवाहन को बचाने के लिए अपनी जान देने को तैयार हो गया।”
इतना सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा उसे लाया तो उसने फिर एक कहानी सुनायी।
बैताल पचीसी 17
चन्द्रशेखर नगर में रत्नदत्त नाम का एक सेठ रहता था। उसके एक लड़की थी। उसका नाम था उन्मादिनी। जब वह बड़ी हुई तो रत्नदत्त ने राजा के पास जाकर कहा कि आप चाहें तो उससे ब्याह कर लीजिए। राजा ने तीन दासियों को लड़की को देख आने को कहा। उन्होंने उन्मादिनी को देखा तो उसके रुप पर मुग्ध हो गयीं, लेकिन उन्होंने यह सोचकर कि राजा उसके वश में हो जायेगा, आकर कह दिया कि वह तो कुलक्षिणी है राजा ने सेठ से इन्कार कर दिया।
इसके बाद सेठ ने राजा के सेनापति बलभद्र से उसका विवाह कर दिया। वे दोनों अच्छी तरह से रहने लगे।
एक दिन राजा की सवारी उस रास्ते से निकली। उस समय उन्मादिनी अपने कोठे पर खड़ी थी। राजा की उस पर निगाह पड़ी तो वह उस पर मोहित हो गया। उसने पता लगाया। मालूम हुआ कि वह सेठ की लड़की है। राजा ने सोचा कि हो-न-हो, जिन दासियों को मैंने देखने भेजा था, उन्होंने छल किया है। राजा ने उन्हें बुलाया तो उन्होंने आकर सारी बात सच-सच कह दी। इतने में सेनापति वहाँ आ गया। उसे राजा की बैचेनी मालूम हुई। उसने कहा, “स्वामी उन्मादिनी को आप ले लीजिए।” राजा ने गुस्सा होकर कहा, “क्या मैं अधर्मी हूँ, जो पराई स्त्री को ले लूँ?”
राजा को इतनी व्याकुलता हुई कि वह कुछ दिन में मर गया। सेनापति ने अपने गुरु को सब हाल सुनाकर पूछा कि अब मैं क्या करूँ? गुरु ने कहा, “सेवक का धर्म है कि स्वामी के लिए जान दे दे।”
राजा की चिता तैयार हुई। सेनापति वहाँ गया और उसमें कूद पड़ा। जब उन्मादिनी को यह बात मालूम हुई तो वह पति के साथ जल जाना धर्म समझकर चिता के पास पहुँची और उसमें जाकर भस्म हो गयी।
इतना कहकर बेताल ने पूछा, “राजन्, बताओ, सेनापति और राजा में कौन अधिक साहसी था?”
राजा ने कहा, “राजा अधिक साहसी था; क्योंकि उसने राजधर्म पर दृढ़ रहने के लिए उन्मादिनी को उसके पति के कहने पर भी स्वीकार नहीं किया और अपने प्राणों को त्याग दिया। सेनापति कुलीन सेवक था। अपने स्वामी की भलाई में उसका प्राण देना अचरज की बात नहीं। असली काम तो राजा ने किया कि प्राण छोड़कर भी राजधर्म नहीं छोड़ा।”
राजा का यह उत्तर सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा उसे पुन: पकड़कर लाया और तब उसने यह कहानी सुनायी।
हिमाचल पर्वत पर गंधर्वों का एक नगर था, जिसमें जीमूतकेतु नामक राजा राज करता था। उसके एक लड़का था, जिसका नाम जीमूतवाहन था। बाप-बेटे दोनों भले थे। धर्म-कर्म मे लगे रहते थे। इससे प्रजा के लोग बहुत स्वच्छन्द हो गये और एक दिन उन्होंने राजा के महल को घेर लिया। राजकुमार ने यह देखा तो पिता से कहा कि आप चिन्ता न करें। मैं सबको मार भगाऊँगा। राजा बोला, “नहीं, ऐसा मत करो। युधिष्ठिर भी महाभारत करके पछताये थे।”
इसके बाद राजा अपने गोत्र के लोगों को राज्य सौंप राजकुमार के साथ मलयाचल पर जाकर मढ़ी बनाकर रहने लगा। वहाँ जीमूतवाहन की एक ऋषि के बेटे से दोस्ती हो गयी। एक दिन दोनों पर्वत पर भवानी के मन्दिर में गये तो दैवयोग से उन्हें मलयकेतु राजा की पुत्री मिली। दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गये। जब कन्या के पिता को मालूम हुआ तो उसने अपनी बेटी उसे ब्याह दी।
एक रोज़ की बात है कि जीमूतवाहन को पहाड़ पर एक सफ़ेद ढेर दिखाई दिया। पूछा तो मालूम हुआ कि पाताल से बहुत-से नाग आते हैं, जिन्हें गरुड़ खा लेता है। यह ढेर उन्हीं की हड्डियों का है। उसे देखकर जीमूतवाहन आगे बढ़ गया। कुछ दूर जाने पर उसे किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। पास गया तो देखा कि एक बुढ़िया रो रही है। कारण पूछा तो उसने बताया कि आज उसके बेटे शंखचूड़ नाग की बारी है। उसे गरुड़ आकर खा जायेगा। जीमूतवाहन ने कहा, “माँ, तुम चिन्ता न करो, मैं उसकी जगह चला जाऊँगा।” बुढ़िया ने बहुत समझाया, पर वह न माना।
इसके बाद गरुड़ आया और उसे चोंच में पकड़कर उड़ा ले गया। संयोग से राजकुमार का बाजूबंद गिर पड़ा, जिस पर राजा का नाम खुदा था। उस पर खून लगा था। राजकुमारी ने उसे देखा। वह मूर्च्छित हो गयी। होश आने पर उसने राजा और रानी को सब हाल सुनाया। वे बड़े दु:खी हुए और जीमूतवाहन को खोजने निकले। तभी उन्हें शंखचूड़ मिला। उसने गरुड़ को पुकार कर कहा, “हे गरुड़! तू इसे छोड़ दे। बारी तो मेरी थी।”
गरुड़ ने राजकुमार से पूछा, “तू अपनी जान क्यों दे रहा है?” उसने कहा, “उत्तम पुरुष को हमेशा दूसरों की मदद करनी चाहिए।”
यह सुनकर गरुड़ बहुत खुश हुआ उसने राजकुमार से वर माँगने को कहा। जीमूतवाहन ने अनुरोध किया कि सब साँपों को जिला दो। गरुड़ ने ऐसा ही किया। फिर उसने कहा, “तुझे अपना राज्य भी मिल जायेगा।”
इसके बाद वे लोग अपने नगर को लौट आये। लोगों ने राजा को फिर गद्दी पर बिठा दिया। इतना कहकर बेताल बोला, “हे राजन् यह बताओ, इसमें सबसे बड़ा काम किसने किया?”
राजा ने कहा “शंखचूड़ ने?”
बेताल ने पूछा, “कैसे?”
राजा बोला, “जीमूतवाहन जाति का क्षत्री था। प्राण देने का उसे अभ्यास था। लेकिन बड़ा काम तो शंखचूड़ ने किया, जो अभ्यास न होते हुए भी जीमूतवाहन को बचाने के लिए अपनी जान देने को तैयार हो गया।”
इतना सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा उसे लाया तो उसने फिर एक कहानी सुनायी।
बैताल पचीसी 17
चन्द्रशेखर नगर में रत्नदत्त नाम का एक सेठ रहता था। उसके एक लड़की थी। उसका नाम था उन्मादिनी। जब वह बड़ी हुई तो रत्नदत्त ने राजा के पास जाकर कहा कि आप चाहें तो उससे ब्याह कर लीजिए। राजा ने तीन दासियों को लड़की को देख आने को कहा। उन्होंने उन्मादिनी को देखा तो उसके रुप पर मुग्ध हो गयीं, लेकिन उन्होंने यह सोचकर कि राजा उसके वश में हो जायेगा, आकर कह दिया कि वह तो कुलक्षिणी है राजा ने सेठ से इन्कार कर दिया।
इसके बाद सेठ ने राजा के सेनापति बलभद्र से उसका विवाह कर दिया। वे दोनों अच्छी तरह से रहने लगे।
एक दिन राजा की सवारी उस रास्ते से निकली। उस समय उन्मादिनी अपने कोठे पर खड़ी थी। राजा की उस पर निगाह पड़ी तो वह उस पर मोहित हो गया। उसने पता लगाया। मालूम हुआ कि वह सेठ की लड़की है। राजा ने सोचा कि हो-न-हो, जिन दासियों को मैंने देखने भेजा था, उन्होंने छल किया है। राजा ने उन्हें बुलाया तो उन्होंने आकर सारी बात सच-सच कह दी। इतने में सेनापति वहाँ आ गया। उसे राजा की बैचेनी मालूम हुई। उसने कहा, “स्वामी उन्मादिनी को आप ले लीजिए।” राजा ने गुस्सा होकर कहा, “क्या मैं अधर्मी हूँ, जो पराई स्त्री को ले लूँ?”
राजा को इतनी व्याकुलता हुई कि वह कुछ दिन में मर गया। सेनापति ने अपने गुरु को सब हाल सुनाकर पूछा कि अब मैं क्या करूँ? गुरु ने कहा, “सेवक का धर्म है कि स्वामी के लिए जान दे दे।”
राजा की चिता तैयार हुई। सेनापति वहाँ गया और उसमें कूद पड़ा। जब उन्मादिनी को यह बात मालूम हुई तो वह पति के साथ जल जाना धर्म समझकर चिता के पास पहुँची और उसमें जाकर भस्म हो गयी।
इतना कहकर बेताल ने पूछा, “राजन्, बताओ, सेनापति और राजा में कौन अधिक साहसी था?”
राजा ने कहा, “राजा अधिक साहसी था; क्योंकि उसने राजधर्म पर दृढ़ रहने के लिए उन्मादिनी को उसके पति के कहने पर भी स्वीकार नहीं किया और अपने प्राणों को त्याग दिया। सेनापति कुलीन सेवक था। अपने स्वामी की भलाई में उसका प्राण देना अचरज की बात नहीं। असली काम तो राजा ने किया कि प्राण छोड़कर भी राजधर्म नहीं छोड़ा।”
राजा का यह उत्तर सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा उसे पुन: पकड़कर लाया और तब उसने यह कहानी सुनायी।
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तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: बैताल पचीसी
बैताल पचीसी 18
उज्जैन नगरी में महासेन नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में वासुदेव शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जिसके गुणाकर नाम का बेटा था। गुणाकर बड़ा जुआरी था। वह अपने पिता का सारा धन जुए में हार गया। ब्राह्मण ने उसे घर से निकाल दिया। वह दूसरे नगर में पहुँचा। वहाँ उसे एक योगी मिला। उसे हैरान देखकर उसने कारण पूछा तो उसने सब बता दिया। योगी ने कहा, “लो, पहले कुछ खा लो।” गुणाकर ने जवाब दिया, “मैं ब्राह्मण का बेटा हूँ। आपकी भिक्षा कैसे खा सकता हूँ?”
इतना सुनकर योगी ने सिद्धि को याद किया। वह आयी। योगी ने उससे आवभगत करने को कहा। सिद्धि ने एक सोने का महल बनवाया और गुणाकार उसमें रात को अच्छी तरह से रहा। सबेरे उठते ही उसने देखा कि महल आदि कुछ भी नहीं है। उसने योगी से कहा, “महाराज, उस स्त्री के बिना अब मैं नहीं रह सकता।”
योगी ने कहा, “वह तुम्हें एक विद्या प्राप्त करने से मिलेगी और वह विद्या जल के अन्दर खड़े होकर मंत्र जपने से मिलेगी। लेकिन जब वह लड़की तुम्हें मेरी सिद्धि से मिल सकती है तो तुम विद्या प्राप्त करके क्या करोगे?”
गुणाकर ने कहा, “नहीं, मैं स्वयं वैसा करूँगा।” योगी बोला, “कहीं ऐसा न हो कि तुम विद्या प्राप्त न कर पाओ और मेरी सिद्धि भी नष्ट हो जाय!”
पर गुणाकर न माना। योगी ने उसे नदी के किनारे ले जाकर मंत्र बता दिये और कहा कि जब तुम जप करते हुए माया से मोहित होगे तो मैं तुम पर अपनी विद्या का प्रयोग करूँगा। उस समय तुम अग्नि में प्रवेश कर जाना।”
गुणाकर जप करने लगा। जब वह माया से एकदम मोहित हो गया तो देखता क्या है कि वह किसी ब्राह्मण के बेटे के रूप में पैदा हुआ है। उसका ब्याह हो गया, उसके बाल-बच्चे भी हो गये। वह अपने जन्म की बात भूल गया। तभी योगी ने अपनी विद्या का प्रयोग किया। गुणाकर मायारहित होकर अग्नि में प्रवेश करने को तैयार हुआ। उसी समय उसने देखा कि उसे मरता देख उसके माँ-बाप और दूसरे लोग रो रहे हैं और उसे आग में जाने से रोक रहे हैं। गुणाकार ने सोचा कि मेरे मरने पर ये सब भी मर जायेंगे और पता नहीं कि योगी की बात सच हो या न हो।
इस तरह सोचता हुआ वह आग में घुसा तो आग ठंडी हो गयी और माया भी शान्त हो गयी। गुणाकर चकित होकर योगी के पास आया और उसे सारा हाल बता दिया।
योगी ने कहा, “मालूम होता है कि तुम्हारे करने में कोई कसर रह गयी।”
योगी ने स्वयं सिद्धि की याद की, पर वह नहीं आयी। इस तरह योगी और गुणाकर दोनों की विद्या नष्ट हो गयी।
इतनी कथा कहकर बेताल ने पूछा, “राजन्, यह बताओ कि दोनों की विद्या क्यों नष्ट हो गयी?”
राजा बोला, “इसका जवाब साफ़ है। निर्मल और शुद्ध संकल्प करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। गुणाकर के दिल में शंका हुई कि पता नहीं, योगी की बात सच होगी या नहीं। योगी की विद्या इसलिए नष्ट हुई कि उसने अपात्र को विद्या दी।”
राजा का उत्तर सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा वहाँ गया और उसे लेकर चला तो उसने यह कहानी सुनायी।
बैताल पचीसी 19
वक्रोलक नामक नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा राज करता था। उसके कोई सन्तान न थी। उसी समय में एक दूसरी नगरी में धनपाल नाम का एक साहूकार रहता था। उसकी स्त्री का नाम हिरण्यवती था और उसके धनवती नाम की एक पुत्री थी। जब धनवती बड़ी हुई तो धनपाल मर गया और उसके नाते-रिश्तेदारों ने उसका धन ले लिया। हिरण्यवती अपनी लड़की को लेकर रात के समय नगर छोड़कर चल दी। रास्ते में उसे एक चोर सूली पर लटकता हुआ मिला। वह मरा नहीं था। उसने हिरण्यवती को देखकर अपना परिचय दिया और कहा, “मैं तुम्हें एक हज़ार अशर्फियाँ दूँगा। तुम अपनी लड़की का ब्याह मेरे साथ कर दो।”
हिरण्यवती ने कहा, “तुम तो मरने वाले हो।”
चोर बोला, “मेरे कोई पुत्र नहीं है और निपूते की परलोक में सदगति नहीं होती। अगर मेरी आज्ञा से और किसी से भी इसके पुत्र पैदा हो जायेगा तो मुझे सदगति मिल जायेगी।”
हिरण्यवती ने लोभ के वश होकर उसकी बात मान ली और धनवती का ब्याह उसके साथ कर दिया। चोर बोला, “इस बड़ के पेड़ के नीचे अशर्फियाँ गड़ी हैं, सो ले लेना और मेरे प्राण निकलने पर मेरा क्रिया-कर्म करके तुम अपनी बेटी के साथ अपने नगर में चली जाना।”
इतना कहकर चोर मर गया। हिरण्यवती ने ज़मीन खोदकर अशर्फियाँ निकालीं, चोर का क्रिया-कर्म किया और अपने नगर में लौट आयी।
उसी नगर में वसुदत्त नाम का एक गुरु था, जिसके मनस्वामी नाम का शिष्य था। वह शिष्य एक वेश्या से प्रेम करता था। वेश्या उससे पाँच सौ अशर्फियाँ माँगती थी। वह कहाँ से लाकर देता! संयोग से धनवती ने मनस्वामी को देखा और वह उसे चाहने लगी। उसने अपनी दासी को उसके पास भेजा। मनस्वामी ने कहा कि मुझे पाँच सौ अशर्फियाँ मिल जायें तो मैं एक रात धनवती के साथ रह सकता हूँ।
हिरण्यवती राजी हो गयी। उसने मनस्वामी को पाँच सौ अशर्फियाँ दे दीं। बाद में धनवती के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसी रात शिवाजी ने सपने में उन्हें दर्शन देकर कहा, “तुम इस बालक को हजार अशर्फियों के साथ राजा के महल के दरवाज़े पर रख आओ।”
माँ-बेटी ने ऐसा ही किया। उधर शिवाजी ने राजा को सपने में दर्शन देकर कहा, “तुम्हारे द्वार पर किसी ने धन के साथ लड़का रख दिया है, उसे ग्रहण करो।”
राजा ने अपने नौकरों को भेजकर बालक और अशर्फियों को मँगा लिया। बालक का नाम उसने चन्द्रप्रभ रखा। जब वह लड़का बड़ा हुआ तो उसे गद्दी सौंपकर राजा काशी चला गया और कुछ दिन बाद मर गया।
पिता के ऋण से उऋण होने के लिए चन्द्रप्रभ तीर्थ करने निकला। जब वह घूमते हुए गयाकूप पहुँचा और पिण्डदान किया तो उसमें से तीन हाथ एक साथ निकले। चन्द्रप्रभ ने चकित होकर ब्राह्मणों से पूछा कि किसको पिण्ड दूँ? उन्होंने कहा, “लोहे की कीलवाला चोर का हाथ है, पवित्रीवाला ब्राह्मण का है और अंगूठीवाला राजा का। आप तय करो कि किसको देना है?”
इतना कहकर बेताल बोला, “राजन्, तुम बताओ कि उसे किसको पिण्ड देना चाहिए?”
राजा ने कहा, “चोर को; क्योंकि उसी का वह पुत्र था। मनस्वामी उसका पिता इसलिए नहीं हो सकता कि वह तो एक रात के लिए पैसे से ख़रीदा हुआ था। राजा भी उसका पिता नहीं हो सकता, क्योंकि उसे बालक को पालने के लिए धन मिल गया था। इसलिए चोर ही पिण्ड का अधिकारी है।”
इतना सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा को वहाँ जाकर उसे लाना पड़ा। रास्ते में फिर उसने एक कहानी सुनाई।
उज्जैन नगरी में महासेन नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में वासुदेव शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जिसके गुणाकर नाम का बेटा था। गुणाकर बड़ा जुआरी था। वह अपने पिता का सारा धन जुए में हार गया। ब्राह्मण ने उसे घर से निकाल दिया। वह दूसरे नगर में पहुँचा। वहाँ उसे एक योगी मिला। उसे हैरान देखकर उसने कारण पूछा तो उसने सब बता दिया। योगी ने कहा, “लो, पहले कुछ खा लो।” गुणाकर ने जवाब दिया, “मैं ब्राह्मण का बेटा हूँ। आपकी भिक्षा कैसे खा सकता हूँ?”
इतना सुनकर योगी ने सिद्धि को याद किया। वह आयी। योगी ने उससे आवभगत करने को कहा। सिद्धि ने एक सोने का महल बनवाया और गुणाकार उसमें रात को अच्छी तरह से रहा। सबेरे उठते ही उसने देखा कि महल आदि कुछ भी नहीं है। उसने योगी से कहा, “महाराज, उस स्त्री के बिना अब मैं नहीं रह सकता।”
योगी ने कहा, “वह तुम्हें एक विद्या प्राप्त करने से मिलेगी और वह विद्या जल के अन्दर खड़े होकर मंत्र जपने से मिलेगी। लेकिन जब वह लड़की तुम्हें मेरी सिद्धि से मिल सकती है तो तुम विद्या प्राप्त करके क्या करोगे?”
गुणाकर ने कहा, “नहीं, मैं स्वयं वैसा करूँगा।” योगी बोला, “कहीं ऐसा न हो कि तुम विद्या प्राप्त न कर पाओ और मेरी सिद्धि भी नष्ट हो जाय!”
पर गुणाकर न माना। योगी ने उसे नदी के किनारे ले जाकर मंत्र बता दिये और कहा कि जब तुम जप करते हुए माया से मोहित होगे तो मैं तुम पर अपनी विद्या का प्रयोग करूँगा। उस समय तुम अग्नि में प्रवेश कर जाना।”
गुणाकर जप करने लगा। जब वह माया से एकदम मोहित हो गया तो देखता क्या है कि वह किसी ब्राह्मण के बेटे के रूप में पैदा हुआ है। उसका ब्याह हो गया, उसके बाल-बच्चे भी हो गये। वह अपने जन्म की बात भूल गया। तभी योगी ने अपनी विद्या का प्रयोग किया। गुणाकर मायारहित होकर अग्नि में प्रवेश करने को तैयार हुआ। उसी समय उसने देखा कि उसे मरता देख उसके माँ-बाप और दूसरे लोग रो रहे हैं और उसे आग में जाने से रोक रहे हैं। गुणाकार ने सोचा कि मेरे मरने पर ये सब भी मर जायेंगे और पता नहीं कि योगी की बात सच हो या न हो।
इस तरह सोचता हुआ वह आग में घुसा तो आग ठंडी हो गयी और माया भी शान्त हो गयी। गुणाकर चकित होकर योगी के पास आया और उसे सारा हाल बता दिया।
योगी ने कहा, “मालूम होता है कि तुम्हारे करने में कोई कसर रह गयी।”
योगी ने स्वयं सिद्धि की याद की, पर वह नहीं आयी। इस तरह योगी और गुणाकर दोनों की विद्या नष्ट हो गयी।
इतनी कथा कहकर बेताल ने पूछा, “राजन्, यह बताओ कि दोनों की विद्या क्यों नष्ट हो गयी?”
राजा बोला, “इसका जवाब साफ़ है। निर्मल और शुद्ध संकल्प करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। गुणाकर के दिल में शंका हुई कि पता नहीं, योगी की बात सच होगी या नहीं। योगी की विद्या इसलिए नष्ट हुई कि उसने अपात्र को विद्या दी।”
राजा का उत्तर सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा वहाँ गया और उसे लेकर चला तो उसने यह कहानी सुनायी।
बैताल पचीसी 19
वक्रोलक नामक नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा राज करता था। उसके कोई सन्तान न थी। उसी समय में एक दूसरी नगरी में धनपाल नाम का एक साहूकार रहता था। उसकी स्त्री का नाम हिरण्यवती था और उसके धनवती नाम की एक पुत्री थी। जब धनवती बड़ी हुई तो धनपाल मर गया और उसके नाते-रिश्तेदारों ने उसका धन ले लिया। हिरण्यवती अपनी लड़की को लेकर रात के समय नगर छोड़कर चल दी। रास्ते में उसे एक चोर सूली पर लटकता हुआ मिला। वह मरा नहीं था। उसने हिरण्यवती को देखकर अपना परिचय दिया और कहा, “मैं तुम्हें एक हज़ार अशर्फियाँ दूँगा। तुम अपनी लड़की का ब्याह मेरे साथ कर दो।”
हिरण्यवती ने कहा, “तुम तो मरने वाले हो।”
चोर बोला, “मेरे कोई पुत्र नहीं है और निपूते की परलोक में सदगति नहीं होती। अगर मेरी आज्ञा से और किसी से भी इसके पुत्र पैदा हो जायेगा तो मुझे सदगति मिल जायेगी।”
हिरण्यवती ने लोभ के वश होकर उसकी बात मान ली और धनवती का ब्याह उसके साथ कर दिया। चोर बोला, “इस बड़ के पेड़ के नीचे अशर्फियाँ गड़ी हैं, सो ले लेना और मेरे प्राण निकलने पर मेरा क्रिया-कर्म करके तुम अपनी बेटी के साथ अपने नगर में चली जाना।”
इतना कहकर चोर मर गया। हिरण्यवती ने ज़मीन खोदकर अशर्फियाँ निकालीं, चोर का क्रिया-कर्म किया और अपने नगर में लौट आयी।
उसी नगर में वसुदत्त नाम का एक गुरु था, जिसके मनस्वामी नाम का शिष्य था। वह शिष्य एक वेश्या से प्रेम करता था। वेश्या उससे पाँच सौ अशर्फियाँ माँगती थी। वह कहाँ से लाकर देता! संयोग से धनवती ने मनस्वामी को देखा और वह उसे चाहने लगी। उसने अपनी दासी को उसके पास भेजा। मनस्वामी ने कहा कि मुझे पाँच सौ अशर्फियाँ मिल जायें तो मैं एक रात धनवती के साथ रह सकता हूँ।
हिरण्यवती राजी हो गयी। उसने मनस्वामी को पाँच सौ अशर्फियाँ दे दीं। बाद में धनवती के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसी रात शिवाजी ने सपने में उन्हें दर्शन देकर कहा, “तुम इस बालक को हजार अशर्फियों के साथ राजा के महल के दरवाज़े पर रख आओ।”
माँ-बेटी ने ऐसा ही किया। उधर शिवाजी ने राजा को सपने में दर्शन देकर कहा, “तुम्हारे द्वार पर किसी ने धन के साथ लड़का रख दिया है, उसे ग्रहण करो।”
राजा ने अपने नौकरों को भेजकर बालक और अशर्फियों को मँगा लिया। बालक का नाम उसने चन्द्रप्रभ रखा। जब वह लड़का बड़ा हुआ तो उसे गद्दी सौंपकर राजा काशी चला गया और कुछ दिन बाद मर गया।
पिता के ऋण से उऋण होने के लिए चन्द्रप्रभ तीर्थ करने निकला। जब वह घूमते हुए गयाकूप पहुँचा और पिण्डदान किया तो उसमें से तीन हाथ एक साथ निकले। चन्द्रप्रभ ने चकित होकर ब्राह्मणों से पूछा कि किसको पिण्ड दूँ? उन्होंने कहा, “लोहे की कीलवाला चोर का हाथ है, पवित्रीवाला ब्राह्मण का है और अंगूठीवाला राजा का। आप तय करो कि किसको देना है?”
इतना कहकर बेताल बोला, “राजन्, तुम बताओ कि उसे किसको पिण्ड देना चाहिए?”
राजा ने कहा, “चोर को; क्योंकि उसी का वह पुत्र था। मनस्वामी उसका पिता इसलिए नहीं हो सकता कि वह तो एक रात के लिए पैसे से ख़रीदा हुआ था। राजा भी उसका पिता नहीं हो सकता, क्योंकि उसे बालक को पालने के लिए धन मिल गया था। इसलिए चोर ही पिण्ड का अधिकारी है।”
इतना सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा को वहाँ जाकर उसे लाना पड़ा। रास्ते में फिर उसने एक कहानी सुनाई।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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